गुरुवार, 25 सितंबर 2014

‘गोरख पाण्डेय’ की कविताएं




प्रस्तुति-- राकेश गांधी, रजनीश, सोनकर राज, पंकज सोनी
वर्धा


  • सुनना - गोरख पाण्डेय
  • कैसे अपने दिल को मनाऊँ - गोरख पाण्डेय
  • वोट - गोरख पाण्डेय
  • सपना - गोरख पाण्डेय
  • पैसे का गीत - गोरख पाण्डेय
  • इंकलाब का गीत - गोरख पाण्डेय
  • हत्या-दर-हत्या - गोरख पाण्डेय
  • समाजवाद - गोरख पाण्डेय
  • सुनो भाई साधो - गोरख पाण्डेय
  • एलान - गोरख पाण्डेय
  • अधिनायक वंदना - गोरख पाण्डेय
  • वतन का गीत - गोरख पाण्डेय
  • कला कला के लिए - गोरख पाण्डेय
  • फूल - गोरख पाण्डेय
  • कुर्सीनामा - गोरख पाण्डेय
  • समझदारों का गीत - गोरख पाण्डेय
  • आँखें देखकर - गोरख पाण्डेय
  • समकालीन - गोरख पाण्डेय
  • सच्चाई - गोरख पाण्डेय
  • उनका डर - गोरख पाण्डेय
  • हे भले आदमियो ! - गोरख पाण्डेय
  • फूल और उम्मीद - गोरख पाण्डेय
  • एक झीना सा पर्दा था - गोरख पाण्डेय
  • आशा का गीत - गोरख पाण्डेय
  • कानून - गोरख पाण्डेय
  • वीरेन्द्र खरे 'अकेला'




    प्रस्तुति-- राकेश गांधी, अभिषेक रस्तोगी

    वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’
    चित्र:वीरेन्द्र खरे 'अकेला'.JPEG
    उपनाम: अकेला
    जन्म: १८ अगस्त, १९६८,
    छतरपुर, मध्य प्रदेश, (भारत)
    कार्यक्षेत्र: हिंदी ग़ज़लकार, गीतकार और शिक्षक
    राष्ट्रीयता: भारतीय
    भाषा: हिन्दी
    काल: इक्कीसवीं शताब्दी
    विधा: कविता, लेख, कहानी
    प्रमुख कृति(याँ): शेष बची चौथाई रात (ग़ज़ल संग्रह), सुबह की दस्तक (ग़ज़ल-गीत संग्रह), अंगारों पर शबनम (ग़ज़ल संग्रह)

    प्रगतिशील कवि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ (Virendra khare akela) का जन्म 18 अगस्त सन् 1968 को छतरपुर (मध्य प्रदेश) के ठेठ देहाती आदिवासी बहुल पहाड़ों एवं जंगलों से घिरे छोटे से गांव किशनगढ़ में एक मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ। अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा से इतिहास में एम ए एवं बी एड करने के बाद वे लम्बे समय तक छतरपुर शहर के अशासकीय विद्यालयों में अध्यापन कार्य करते रहे साथ ही निःशक्तजनों की शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए समर्पित एन जी ओ ‘प्रगतिशील विकलांग संसार, छतरपुर के संचालन एवं व्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाते रहे। वर्तमान में ‘अकेला’ जी एक अध्यापक के रूप में शासन को अपनी सेवाएं दे रहे हैं साथ ही निःशक्तजनों की सेवा एवं लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं।
    ‘अकेला’ जी को लेखन की प्रेरणा अपने पिता स्व॰ श्री पुरूषोत्तम दास जी से मिली। जो भजन-कीर्तन लिखने में काफी रूचि रखते थे यद्यपि उनकी कोई कृति प्रकाशित नहीं हुई। माता श्रीमती कमला देवी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक रूचि की हैं। ‘अकेला’ जी ने सन्-1990 से ग़ज़ल-गीत लेखन की यात्रा शुरू की जो अनवरत जारी है। ग़ज़ल संग्रह ‘शेष बची चौथाई रात’(1999-अयन प्रकाशन, दिल्ली) के प्रकाशन ने ग़ज़ल के क्षेत्र में उन्हें स्थापित किया और राष्ट्रीय ख्याति दिलाई। दूसरे ग़ज़ल-गीत संग्रह ‘सुब्ह की दस्तक’(2006-सार्थक प्रकाशन दिल्ली) एवं तीसरे ग़ज़ल संग्रह ‘अंगारों पर शबनम’ (2012-अयन प्रकाशन, दिल्ली) ने उनकी साहित्यिक पहचान को और पुख़्तगी देते हुए उन्हें देश के प्रथम पंक्ति के हिन्दी ग़ज़लकारों के बीच खड़ा कर दिया है।
    प्रकाशित कृतियों के अलावा ‘अकेला’ जी की बहुत सी रचनाएं वसुधा, वागर्थ, कथादेश, महकता आँचल, सृजन-पथ, राष्ट्रधर्म, कादम्बिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी समय-समय पर प्रकाशित होकर प्रशंसित होती रही हैं। उन्होंने कवि-सम्मेलनों, मुशायरों, काव्य-गोष्ठियों तथा आकाशवाणी के माध्यम से भी काफी लोकप्रियता हासिल की है। देश की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा उन्हें पुरस्कृत एवं सम्मानित भी किया गया है।
    अपनी ग़ज़लों के तीखे तेवरों के कारण वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ बुन्देलखण्ड के दुष्यंत कुमार कहे जाते हैं। उनकी ग़ज़लों में जीवन की सच्ची-तपती-सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है। वे देश और समाज में व्याप्त दुख-दर्दों, अभावों, असफलताओं, विसंगतियों और छल-छद्मों को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भर देते हैं। ‘अकेला‘ जी की ग़ज़लों की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध कवि डॉ॰ कुंअर बेचैन लिखते हैं-“ ‘अकेला’ जी की ग़ज़लें विविध विषयों पर होने के साथ साथ बहर आदि की दृष्टि से निष्कलंक हैं, उनमें सहज प्रवाह भी है और अमिट प्रभाव भी। ये ग़ज़लें ग़ज़ल की यशस्वी परम्परा में रहकर नए विषयों तथा नए प्रतीकों की खोज करती हैं। इनमें यथार्थ की सच्चाई और कल्पना की ऊँचाई दोनों के दर्शन होते हैं।” इसी प्रकार ’अकेला’ जी की ग़ज़ल के प्रभाव का उद्घाटन करते हुए इस दौर के शहंशाहे ग़ज़ल डॉ॰ बशीर बद्र कहते हैं-“अकेला की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समन्दर में नई हलचल पैदा करेगी।” पद्मश्री डॉ॰ गोपालदास ‘नीरज’ कहते हैं कि-“ अकेला के शेरों में यह ख़ूबी है कि वे खुद-ब-खुद होठों पर आ जाते हैं। ” चर्चित व्यंग्यकार माणिक वर्मा एवं प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ॰ देवव्रत जोशी ने भी अपनी अपनी टिप्पणियों में ‘अकेला’ को दुष्यत कुमार के बाद को उल्लेखनीय शायर निरूपित किया है। स्पष्ट है कि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ ने हिन्दी ग़ज़ल को नए विषय, नई सोच, नए प्रतीक और सम्यक शिल्पगत कसावट देकर इस विधा की उल्लेखनीय सेवा की है और इस क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान क़ायम की है। साँचा:पुनरीक्षण

    संक्षिप्त परिचय

    जन्म : 18 अगस्त 1968 को छतरपुर (म॰प्र॰) के किशनगढ़ ग्राम में
    पिता : स्व० श्री पुरूषोत्तम दास खरे
    माता : श्रीमती कमला देवी खरे
    शिक्षा :एम०ए० (इतिहास), बी०एड०
    लेखन विधा : ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग्य-लेख, कहानी, समीक्षा आलेख।
    प्रकाशित कृतियाँ :
    1. शेष बची चौथाई रात 1999 (ग़ज़ल संग्रह),
    2. सुबह की दस्तक 2006 (ग़ज़ल-गीत-कविता),
    3. अंगारों पर शबनम 2012 (ग़ज़ल संग्रह)
    उपलब्धियाँ :
    वागर्थ, कथादेश सहित विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं रचनाओं का प्रकाशन।
    लगभग 22 वर्षों से आकाशवाणी छतरपुर से रचनाओं का निरंतर प्रसारण।
    आकाशवाणी द्वारा गायन हेतु रचनाएँ अनुमोदित।
    ग़ज़ल-संग्रह 'शेष बची चौथाई रात' पर अभियान जबलपुर द्वारा 'हिन्दी भूषण' अलंकरण।
    मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर [म॰प्र॰]
    द्वारा कपूर चंद वैसाखिया 'तहलका ' सम्मान
    अ०भा० साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा काव्य कृति ‘सुबह की दस्तक’ पर राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान के अन्तर्गत 'काव्य-कौस्तुभ' सम्मान तथा लायन्स क्लब द्वारा ‘छतरपुर गौरव’ सम्मान।
    ==== संस्तुतियाँ====
    'अकेला' की ग़ज़लों में भरपूर शेरियत और तग़ज़्जुल है। छोटी बड़ी सभी प्रकार की बहरों मे उन्होंने नए नए प्रयोग किए हैं और वे खूब सफल भी हुए हैं। उनके शेरों में यह ख़ूबी है कि वे ख़ुद-ब-ख़ुद होठों पर आ जाते हैं जैसे कि यह शेर-
    इक रूपये की तीन अठन्नी माँगेगी
    इस दुनिया से लेना-देना कम रखना
     -पद्मश्री डॉ॰ गोपाल दास 'नीरज'
    'अकेला' की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समुन्दर में नई हलचल पैदा करेगी।
    - डॉ॰ बशीर बद्र
    अगर परिमाण की दृष्टि से देखा जाये तो आज की हिन्दी कविता की प्रमुख धारा ग़ज़ल ही है। हिन्दी कविता के क्षेत्र में इन दिनों जितने भी रेखांकित करने योग्य कवि हैं उनमें से अधिकतर कवियों ने ग़ज़लें कही हैं और जिन्होंने ग़ज़लें कही हैं उनमें जो प्रमुख ग़ज़लकार हैं उनमें श्री वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का नाम बिना किसी हिचक के लिया जा सकता है। इसका बड़ा कारण यह है कि ‘अकेला’ जी की ग़ज़लें विविध विषयों पर होने के साथ-साथ बहर आदि की दृष्टि से भी निष्कलंक हैं। उनमें सहज प्रवाह भी है और अमिट प्रभाव भी। ये ग़ज़लें ग़ज़ल की यशस्वी परंपरा में रहकर नए विषयों तथा नए प्रतीकों की खोज भी करती दिखाई देती हैं। इनमें यथार्थ की सच्चाई और कल्पना की ऊँचाई दोनों के ही दर्शन होते हैं। ग़ज़ल का शेर अगर एकदम दिल में न उतर जाये तो वह शेर ही क्या। ऐसे दिल में उतर जाने वाले अनेक शेर इस संग्रह में मिलेंगे। मिसाल के तौर पर एक ग़ज़ल के मतले का यह शेर ही देखें -

         “अदावत दिल में रखते हैं मगर यारी दिखाते हैं
          न जाने लोग भी क्या-क्या अदाकारी दिखाते हैं।”
    डॉ कुंअर बेचैन

    श्री वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ जी का 101 हिन्दी ग़ज़लों का काव्य संग्रह “अंगारों पर शबनम” पढ़ने का सौभाग्य मिला। हिन्दी ग़ज़लों या हिन्दी ग़ज़लकारों की अपार भीड़ में श्री वीरेन्द्र खरे सचमुच “अकेले” हैं। मुझे हैरत इस बात में है कि श्री ‘अकेला’ जी सचमुच ग़ज़ल के मिज़ाज से न सिर्फ़ वाक़िफ़ हैं वरन् उनकी 101 मेयारी ग़ज़लें फ़न की सभी कसौटियों पर खरी उतरती हैं।
    ग़ज़ल की पहली और अहम शर्त है शेरों का वज़न में होना, उसके बाद रदीफ़ क़ाफ़ियों का सही इस्तेमाल तथा अल्फ़ाज़ों की नशिस्तो-बरखास्त, जिसमें बड़े-बड़े उस्तादों तक से चूक हो जाती है, परन्तु भाई ‘अकेला’ की किसी भी ग़ज़ल में उपरोक्त ख़ामियाँ ढूँढ़े से भी नहीं मिलतीं। उन्होंने आज के सम्पूर्ण परिवेश को अपनी ग़ज़लों में जिस खूबसूरती से ढाला है, वो देखते ही बनता है। उनकी विहंगम काव्य-दृष्टि कल, आज और कल का ऐसा चमकदार आईना है जिसमें जीवन का हर प्रतिबिंब बोलता है, न सिर्फ़ बोलता है वरन् परत-दर-परत आज ही नहीं कल की हक़ीक़तों का पर्दा भी खोलता है।
    बहुत लम्बे अरसे बाद ऐसा ग़ज़ल संग्रह पढ़ने को मिला जिसने मुझे भीतर तक झकझोरा है, काश ऐसे श्रेष्ठ ग़ज़ल-संग्रह पर “अकेला” जी का नहीं मेरा नाम होता, इससे ज़्यादा प्रशंसा मिश्रित ईर्ष्या और क्या हो सकती है।
    अगले इससे भी श्रेष्ठ ग़ज़ल संग्रह की प्रतीक्षा में ढेरों मंगल कामनाओं सहित-
    -माणिक वर्मा
    हिन्दी के प्रतिष्ठापित होते ग़ज़लकार भाई वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ की ग़ज़लें भीड़ भरे ग़ज़लकारों में अकेली, अद्वितीय आवाज़ है। लगभग त्रुटिशून्य और सन्नाटे के अंधेरे को शब्दों की रश्मियों से चीरती -
    “हमको ऐ जनतंत्र तेरे नाम पर
    उस्तरे थामे हुए बंदर मिले”

    इस तरह के तल्ख तेवर नागार्जुन, हरिशंकर परसाई के गद्य में भी
    मिलते हैं। गद्य को पद्य में विलीन करती उनकी लय आश्वस्त करती है कि यदि कवि ठान ले तो वह जन की, अवाम की प्रतिनिधि आवाज़ बन सकता है।

    आज के भीषण, निर्लज्ज घोटालों के कुहासे में ये ग़ज़लें ज्योति-किरण हैं। यद्यपि कविता से क्रान्ति नहीं होती, लेकिन वह अपने अग्नि-स्फुर्लिंग तो वातावरण में बिखरा सकती है। वे दुष्यन्त के आगे के ग़ज़लकार हैं। अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए दृढ़संकल्पी किन्तु संकोची कवि का शब्द-निनाद शब्दों के पत्थरों से रगड़कर चिन्गारी पैदा करता है, उसका दाव उसे मालूम है। आज की दलबंदी और तुकबंदी के माहौल में ‘अकेला’ आश्वस्त करता है। ग़ज़ल और जन से उसके सरोकार घने होते चले जाएंगे।

    मुझे पूरा भरोसा है, हिन्दी के सुधी समीक्षक इस आवाज़ को नज़र अंदाज़ करने की स्थिति में नहीं होंगे। उनकी रचना किसी ऊपरी वाह-वाही की मोहताज़ नहीं, क्योंकि दिल की कमान से निकले उनके अशआर सीधे दिल में उतरने की कोशिश हैं। ‘अंगारों पर शबनम’ की ग़ज़लें सारे देश में लोकप्रिय होंगी, यह मेरा दृढ़ अनुमान है।
    -प्रो॰ डॉ॰ देवव्रत जोशी
    • वीरेन्द्र खरे 'अकेला' की कविताएँ तथा ग़जलें - कविता कोश पर
    • वीरेन्द्र खरे 'अकेला' [1]
    • समकालीन कवि-वीरेन्द्र खरे 'अकेला'[2]
    शीर्षक उदाहरण 4

    ‘गोपालदास ‘नीरज’’की प्रमुख रचनाएं




    प्रस्तुति-- राहुल मानव, राकेश,. समिधा
    दिल्ली

    मुखप्रष्ठ » ‘गोपालदास ‘नीरज’
  • है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिये - गोपालदास 'नीरज'
  • स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से - गोपालदास 'नीरज'
  • सेज पर साधें बिछा लो - गोपालदास 'नीरज'
  • साँसों के मुसाफिर - गोपालदास 'नीरज'
  • विश्व चाहे या न चाहे - गोपालदास 'नीरज'
  • लेकिन मन आज़ाद नहीं है - गोपालदास 'नीरज'
  • यदि मैं होता घन सावन का - गोपालदास 'नीरज'
  • मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं - गोपालदास 'नीरज'
  • मैं तुम्हें अपना - गोपालदास 'नीरज'
  • मैं अकंपित दीप - गोपालदास 'नीरज'
  • मेरा गीत दिया बन जाए - गोपालदास 'नीरज'
  • मेरा इतिहास नहीं है - गोपालदास 'नीरज'
  • मुस्कुराकर चल मुसाफिर - गोपालदास 'नीरज'
  • मुझको याद किया जाएगा - गोपालदास 'नीरज'
  • मानव कवि बन जाता है - गोपालदास 'नीरज'
  • मधुपुर के घनश्याम अगर कुछ पूछें हाल दुखी गोकुल का - गोपालदास 'नीरज'
  • मगर निठुर न तुम रुके - गोपालदास 'नीरज'
  • बेशरम समय शरमा ही जाएगा - गोपालदास 'नीरज'
  • बहार आई - गोपालदास 'नीरज'
  • बसंत की रात - गोपालदास 'नीरज'
  • बन्द करो मधु की - गोपालदास 'नीरज'
  • प्रेम का न दान दो - गोपालदास 'नीरज'
  • प्रेम-पथ हो न सूना - गोपालदास 'नीरज'
  • प्यार की कहानी चाहिए - गोपालदास 'नीरज'
  • पीर मेरी, प्यार बन जा - गोपालदास 'नीरज'
  • गोपालदास नीरज


      

     

     

    प्रस्तुति- किशोर प्रियदर्शी,

    मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से


    Poet Gopaldas Neeraj.jpg
    काव्य पाठ करते हुए नीरज
    उपनाम: 'नीरज'
    जन्म: 4 जनवरी 1925 (आयु 89)
    ग्राम पुरावली, जिला इटावा, उत्तर प्रदेश, भारत
    कार्यक्षेत्र: कवि सम्मेलन,
    50 वर्षों से निरन्तर मंच पर काव्य पाठ
    राष्ट्रीयता: भारतीय
    भाषा: हिन्दी
    काल: बीसवीं शताब्दी
    विधा: गद्य, पद्य, गीत
    विषय: गीतकार, फ़िल्म
    साहित्यिक
    आन्दोलन
    :
    काव्य मंचों पर साहित्यिक रचना की प्रस्तुति
    प्रमुख कृति(याँ): दर्द दिया है (पुरस्कृत), आसावरी (सचित्र),
    मुक्तकी (सचित्र), लिख-लिख भेजत पाती (पत्र संकलन)
    पन्त-कला, काव्य और दर्शन (आलोचना)

    गोपालदास नीरज (जन्म: 4 जनवरी 1925, ग्राम: पुरावली, जिला इटावा, उत्तर प्रदेश, भारत), हिन्दी साहित्य के लिये कॉलेज में अध्यापन से लेकर कवि सम्मेलन के मंचों पर एक अलग ही अन्दाज़ में काव्य वाचन और फ़िल्मों में गीत लेखन के लिये जाने जाते हैं। वे पहले व्यक्ति हैं जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया, पहले पद्म श्री से, उसके बाद पद्म भूषण से। यही नहीं, फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्हें लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला।

    संक्षिप्त जीवनी

    गोपालदास सक्सेना 'नीरज' का जन्म 4 जनवरी 1925 को ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध, जिसे अब उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है, में इटावा जिले के पुरावली गाँव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना[1] के यहाँ हुआ था। मात्र 6 वर्ष की आयु में पिता गुजर गये। 1942 में एटा से हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की। लम्बी बेकारी के बाद दिल्ली जाकर सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी की। वहाँ से नौकरी छूट जाने पर कानपुर के डी०ए०वी कॉलेज में क्लर्की की। फिर बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कम्पनी में पाँच वर्ष तक टाइपिस्ट का काम किया। नौकरी करने के साथ प्राइवेट परीक्षाएँ देकर 1949 में इण्टरमीडिएट, 1951 में बी०ए० और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एम०ए० किया।
    मेरठ कॉलेज मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया किन्तु कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएँ न लेने व रोमांस[2] करने के आरोप लगाये गये जिससे कुपित होकर नीरज ने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गये और मैरिस रोड जनकपुरी अलीगढ़ में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे।
    कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को बम्बई के फिल्म जगत ने गीतकार के रूप में नई उमर की नई फसल के गीत लिखने का निमन्त्रण दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे और देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा।
    किन्तु बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका जी बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये। तब से आज तक वहीं रहकर स्वतन्त्र रूप से मुक्ताकाशी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। आज अट्ठासी वर्ष की आयु में भी वे देश विदेश के कवि-सम्मेलनों में उसी ठसक के साथ शरीक होते हैं। बीड़ी, शराब और शायरी उनके जीवन की अभिन्न सहचरी बन चुकी हैं।
    अपने वारे में उनका यह शेर आज भी मुशायरों में फरमाइश के साथ सुना जाता है:
    इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में।
    न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥

    प्रमुख कविता संग्रह


    नीरज जी को सम्मान
    हिन्दी साहित्यकार सन्दर्भ कोश[3] के अनुसार नीरज की कालक्रमानुसार प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं:
    • संघर्ष (1944)
    • अन्तर्ध्वनि (1946)
    • विभावरी (1948)
    • प्राणगीत (1951)
    • दर्द दिया है (1956)
    • बादर बरस गयो (1957)
    • मुक्तकी (1958)
    • दो गीत (1958)
    • नीरज की पाती (1958)
    • गीत भी अगीत भी (1959)
    • आसावरी (1963)
    • नदी किनारे (1963)
    • लहर पुकारे (1963)
    • कारवाँ गुजर गया (1964)
    • फिर दीप जलेगा (1970)
    • तुम्हारे लिये (1972)
    • नीरज की गीतिकाएँ (1987)

    पुरस्कार एवं सम्मान

    नीरज जी को अब तक कई पुरस्कार व सम्मान[4] प्राप्त हो चुके हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है:

    फिल्म फेयर पुरस्कार

    नीरज जी को फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार यह पुरस्कार दिया गया। उनके द्वारा लिखे गये पुररकृत गीत हैं-

    मन्त्रीपद का विशेष दर्ज़ा

    उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने अभी हाल सितम्बर में ही नीरजजी को भाषा संस्थान का अध्यक्ष नामित कर कैबिनेट मन्त्री[6] का दर्जा दिया है।

    सन्दर्भ

    1. हमारे लोकप्रिय गीतकार गोपालदास नीरज सम्पादक:शेरजंग गर्ग 2006 पृष्ठ 131 वाणी प्रकाशन दरिया गंज नई दिल्ली 110002 ISBN 81-7055-904-0
    2. हमारे लोकप्रिय गीतकार गोपालदास नीरज सम्पादक:शेरजंग गर्ग 2006 पृष्ठ 6 वाणी प्रकाशन दरिया गंज नई दिल्ली 110002 ISBN 81-7055-904-0
    3. डॉ॰ गिरिराजशरण अग्रवाल एवं डॉ॰ मीना अग्रवाल हिन्दी साहित्यकार सन्दर्भ कोश (दूसरा भाग) 2006 पृष्ठ 110 हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर (उ०प्र०) ISBN 81-85139-29-6
    4. डॉ॰ गिरिराजशरण अग्रवाल एवं डॉ॰ मीना अग्रवाल हिन्दी साहित्यकार सन्दर्भ कोश (दूसरा भाग) 2006 पृष्ठ 110 हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर (उ०प्र०) ISBN 81-85139-29-6
    5. "Padma Vibhushan for Bhagwati, V. Krishnamurthy [भगवती, वी कृष्णमूर्ति के लिए पद्म विभूषण]" (अंग्रेज़ी में). द हिन्दू. २७ जनवरी २००७. अभिगमन तिथि: ८ दिसम्बर २०१३.
    6. उप्र में कवि नीरज समेत पांच को मंत्री का दर्जा

    बाह्य सूत्र

    किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

    1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...