शुक्रवार, 15 मार्च 2024

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे मुलाकात के लिए पहुंचे।

उस दिन साहिर ने जावेद के चेहरे पर उदासी देखी और कहा, “आओ नौजवान, क्या हाल हैं, उदास हो?” 

जावेद ने बताया कि दिन मुश्किल चल रहे हैं, पैसे खत्म होने वाले हैं.. 

उन्होंने साहिर से कहा कि अगर वो उन्हें कहीं काम दिला दें तो बहुत एहसान होगा।


जावेद अख़्तर बताते हैं कि साहिर साहब की एक अजीब आदत थी, वो जब परेशान होते थे तो पैंट की पिछली जेब से छोटी सी कंघी निकलकर बालों पर फिराने लगते थे। जब मन में कुछ उलझा होता था तो बाल सुलझाने लगते थे। उस वक्त भी उन्होंने वही किया। कुछ देर तक सोचते रहे फिर अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में बोले, “ज़रूर नौजवान, फ़कीर देखेगा क्या कर सकता है”।


फिर पास रखी मेज़ की तरफ इशारा करके कहा, “हमने भी बुरे दिन देखें हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है”, जावेद अख़्तर ने देखा तो मेज़ पर दो सौ रुपए रखे हुए थे।


वो चाहते तो पैसे मेरे हाथ पर भी रख सकते थे, लेकिन ये उस आदमी की सेंसिटिविटी थी कि उसे लगा कि कहीं मुझे बुरा न लग जाए। ये उस शख़्स का मयार था कि पैसे देते वक़्त भी वो मुझसे नज़र नहीं मिला रहा था।

 

साहिर के साथ अब उनका उठना बैठना बढ़ गया था क्योंकि त्रिशूल, दीवार और काला पत्थर जैसी फिल्मों में कहानी सलीम-जावेद की थी तो गाने साहिर साहब के। 

अक्सर वो लोग साथ बैठते और कहानी, गाने, डायलॉग्स वगैरह पर चर्चा करते। इस दौरान जावेद अक्सर शरारत में साहिर से कहते, “साहिर साब, आपके वो दौ सौ रुपए मेरे पास हैं, दे भी सकता हूं लेकिन दूंगा नहीं”, साहिर मुस्कुराते। साथ बैठे लोग जब उनसे पूछते कि कौन से दो सौ रुपए तो साहिर कहते, “इन्हीं से पूछिए”, ये सिलसिला लंबा चलता रहा। 

साहिर और जावेद अख़्तर की मुलाकातें होती रहीं, अदबी महफिलें होती रहीं, वक़्त गुज़रता रहा।


और फिर एक लंबे अर्से के बाद तारीख़ आई #25अक्टूबर 1980की। वो देर शाम का वक्त था, जब जावेद साहब के पास साहिर के फैमिली डॉक्टर, डॉ कपूर का कॉल आया। उनकी आवाज़ में हड़बड़ाहट और दर्द दोनों था। उन्होंने बताया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे। हार्ट अटैक हुआ था। जावेद अख़्तर के लिए ये सुनना आसान नहीं था।


वो जितनी जल्दी हो सकता था, उनके घर पहुंचे तो देखा कि उर्दू शायरी का सबसे करिश्माई सितारा एक सफेद चादर में लिपटा हुआ था। वो बताते हैं कि वहां उनकी दोनों बहनों के अलावा बी आर चोपड़ा समेत फिल्म इंडस्ट्री के भी तमाम लोग मौजूद थे।


मैं उनके करीब गया तो मेरे हाथ कांप रहे थे, मैंने चादर हटाई तो उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे, मेरी आंखों के सामने वो वक़्त घूमने लगा जब मैं शुरुआती दिनों में उनसे मुलाकात करता था, मैंने उनकी हथेलियों को छुआ और महसूस किया कि ये वही हाथ हैं जिनसे इतने खूबसूरत गीत लिखे गए हैं लेकिन अब वो ठंडे पड़ चुके थे।


जूहू क़ब्रिस्तान में साहिर को दफनाने का इंतज़ाम किया गया। वो सुबह-सुबह का वक़्त था, रातभर के इंतज़ार के बाद साहिर को सुबह सुपर्दे ख़ाक किया जाना था। ये वही क़ब्रिस्तान है जिसमें मोहम्मद रफी, मजरूह सुल्तानपुरी, मधुबाला और तलत महमूद की क़ब्रें हैं। 

साहिर को पूरे मुस्लिम रस्म-ओ-रवायत के साथ दफ़्न किया गया। साथ आए तमाम लोग कुछ देर के बाद वापस लौट गए, लेकिन जावेद अख़्तर काफी देर तक क़ब्र के पास ही बैठे रहे।


काफी देर तक बैठने के बाद जावेद अख़्तर उठे और नम आंखों से वापस जाने लगे। वो जूहू क़ब्रिस्तान से बाहर निकले और सामने खड़ी अपनी कार में बैठने ही वाले थे कि उन्हें किसी ने आवाज़ दी। जावेद अख्तर ने पलट कर देखा तो साहिर साहब के एक दोस्त अशफाक़ साहब थे।


अशफाक़ उस वक्त की एक बेहतरीन राइटर वाहिदा तबस्सुम के शौहर थे, जिन्हें साहिर से काफी लगाव था। अशफ़ाक हड़बड़ाए हुए चले आ रहे थे, उन्होंने नाइट सूट पहन रखा था, शायद उन्हें सुबह-सुबह ही ख़बर मिली थी और वो वैसे ही घर से निकल आए थे। उन्होंने आते ही जावेद साहब से कहा, “आपके पास कुछ पैसे पड़े हैं क्या? 

वो क़ब्र बनाने वाले को देने हैं, मैं तो जल्दबाज़ी में ऐसे ही आ गया”, जावेद साहब ने अपना बटुआ निकालते हुआ पूछा, “हां-हां, कितने रुपए देने हैं’, उन्होंने कहा, “दो सौ रुपए"...!!

रविवार, 3 मार्च 2024

परख


*योग्यता की परख*


प्रस्तुति - उषा रानी- राजेंद्र प्रसाद सिन्हा 


युवक अंकमाल भगवान बुद्ध के सामने उपस्थित हुआ और बोला, *"भगवन् मेरी इच्छा है कि मैं संसार की कुछ सेवा करूँ, आप मुझे जहाँ भी भेजना चाहें भेज दें, ताकि मैं लोगों को धर्म का रास्ता दिखाऊँ?"*


बुद्ध हँसे और बोले, *"तात! संसार को कुछ देने के पहले अपने पास कुछ होना आवश्यक है। जाओ पहले अपनी योग्यता बढ़ाओ, फिर संसार की भी सेवा करना।"*


अंकमाल वहाँ से चल पड़ा और कलाओं के अभ्यास में जुट गया। बाण बनाने से लेकर चित्रकला तक, मल्लविद्या से लेकर मल्लाहकारी तक जितनी भी कलाएँ हो सकती हैं, उन सबका उसने १० वर्ष तक कठोर अभ्यास किया। अंकमाल की कलाविशारद के रूप में सारे देश में ख्याति फैल गई।


अपनी प्रशंसा से आप प्रसन्न होकर अंकमाल अभिमानपूर्वक लौटा और तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ। अपनी योग्यता का बखान करते हुए उसने कहा, *"भगवन् ! अब मैं संसार के प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ सिखा सकता हूँ। अब मैं ४२ कलाओं का पंडित हूँ।"*


 भगवान बुद्ध मुस्कराए और बोले, *"अभी तो तुम कलाएँ सीखकर आए हो, परीक्षा दे लो, तब उन पर अभिमान करना।"*


अगले दिन भगवान बुद्ध एक साधारण नागरिक का वेश बदलकर अंकमाल के पास गए और उसे अकारण खरी- खोटी सुनाने लगे। अंकमाल क्रुद्ध होकर मारने दौड़ा, तो बुद्ध वहाँ से मुस्कराते हुए वापस लौट पड़े।


उसी दिन मध्याह्न दो बौद्ध श्रमण वेश बदलकर अंकमाल के समीप जाकर बोले, *"आचार्य ! आपको सम्राट हर्ष ने मंत्रिपद देने की इच्छा की है, क्या आप उसे स्वीकार करेंगे?"*


अंकमाल को भी लोभ आ गया उसने कहा, *"हाँ- हाँ अभी चलो।"*


दोनों श्रमण भी मुस्करा दिए और चुपचाप लौट आए। अंकमाल हैरान था कि बात क्या है ?


थोड़ी देर पीछे भगवान बुद्ध पुनः उपस्थित हुए। उनके साथ आम्रपाली भी थी। अंकमाल, जितनी देर तथागत वहाँ रहे, आम्रपाली की ही ओर बार-बार देखता रहा। बात समाप्त कर तथागत आश्रम लौटे।


सायंकाल अंकमाल को बुद्धदेव ने पुनः बुलाया और पूछा, *"वत्स! क्या तुमने क्रोध, काम और लोभ पर विजय की विद्या भी सीखी है ?"*


अंकमाल को दिन भर की सब घटनाएँ याद हो आईं। उसने लज्जा से अपना सिर झुका लिया और उस दिन से आत्मविजय की साधना में संलग्न हो गया।



*शुभ प्रभात। आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलमय हो।**योग्यता की परख* 


युवक अंकमाल भगवान बुद्ध के सामने उपस्थित हुआ और बोला, *"भगवन् मेरी इच्छा है कि मैं संसार की कुछ सेवा करूँ, आप मुझे जहाँ भी भेजना चाहें भेज दें, ताकि मैं लोगों को धर्म का रास्ता दिखाऊँ?"*


बुद्ध हँसे और बोले, *"तात! संसार को कुछ देने के पहले अपने पास कुछ होना आवश्यक है। जाओ पहले अपनी योग्यता बढ़ाओ, फिर संसार की भी सेवा करना।"*


अंकमाल वहाँ से चल पड़ा और कलाओं के अभ्यास में जुट गया। बाण बनाने से लेकर चित्रकला तक, मल्लविद्या से लेकर मल्लाहकारी तक जितनी भी कलाएँ हो सकती हैं, उन सबका उसने १० वर्ष तक कठोर अभ्यास किया। अंकमाल की कलाविशारद के रूप में सारे देश में ख्याति फैल गई।


अपनी प्रशंसा से आप प्रसन्न होकर अंकमाल अभिमानपूर्वक लौटा और तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ। अपनी योग्यता का बखान करते हुए उसने कहा, *"भगवन् ! अब मैं संसार के प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ सिखा सकता हूँ। अब मैं ४२ कलाओं का पंडित हूँ।"*


 भगवान बुद्ध मुस्कराए और बोले, *"अभी तो तुम कलाएँ सीखकर आए हो, परीक्षा दे लो, तब उन पर अभिमान करना।"*


अगले दिन भगवान बुद्ध एक साधारण नागरिक का वेश बदलकर अंकमाल के पास गए और उसे अकारण खरी- खोटी सुनाने लगे। अंकमाल क्रुद्ध होकर मारने दौड़ा, तो बुद्ध वहाँ से मुस्कराते हुए वापस लौट पड़े।


उसी दिन मध्याह्न दो बौद्ध श्रमण वेश बदलकर अंकमाल के समीप जाकर बोले, *"आचार्य ! आपको सम्राट हर्ष ने मंत्रिपद देने की इच्छा की है, क्या आप उसे स्वीकार करेंगे?"*


अंकमाल को भी लोभ आ गया उसने कहा, *"हाँ- हाँ अभी चलो।"*


दोनों श्रमण भी मुस्करा दिए और चुपचाप लौट आए। अंकमाल हैरान था कि बात क्या है ?


थोड़ी देर पीछे भगवान बुद्ध पुनः उपस्थित हुए। उनके साथ आम्रपाली भी थी। अंकमाल, जितनी देर तथागत वहाँ रहे, आम्रपाली की ही ओर बार-बार देखता रहा। बात समाप्त कर तथागत आश्रम लौटे।


सायंकाल अंकमाल को बुद्धदेव ने पुनः बुलाया और पूछा, *"वत्स! क्या तुमने क्रोध, काम और लोभ पर विजय की विद्या भी सीखी है ?"*


अंकमाल को दिन भर की सब घटनाएँ याद हो आईं। उसने लज्जा से अपना सिर झुका लिया और उस दिन से आत्मविजय की साधना में संलग्न हो गया।



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गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

प्रेमचंद / जयचन्द प्रजापति

 कलम के जादूगर-मुंशी प्रेमचंद्र

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आजादी के पहले भारत की दशा दुर्दशा देखकर सबका कलेजा फट रहा था.दयनीय हालत हमारे देश के समाज की हो गई थी.पीड़ा दर्द से कराहता हमारा समाज दुर्दिन के दौर से गुजर रहा था.यह सब देख कर हमारा साहित्य भी कराह उठा.हिन्दी साहित्य की पीड़ा का जगना स्वाभाविक हो गया था.उसी दुर्दिन से हिन्दी साहित्य के महान कथाकार,उपन्यास सम्राट,कलम के सिपाही के नाम से प्रसिध्द मुँशी प्रेमचन्द्रजी का परिवार गुजर रहा था.देख समाज की हालात से मजबूर हो कर कलम उठ गया और मुंशी प्रेमचन्द्र एक से बढ़कर एक रचना देकर हिन्दी साहित्य का एक महान वृक्ष बन गये.सामाजिक गिरे हालात से गुजर रहे लोगों पर लेखनी चला कर समाज के स्वरूप व बिडम्बना को पूरे विश्व मंच पर रखा.गरीबी नजदीक से मुँशी जी ने देखा,झेला,अनुभव लिया और इस कटु अनुभव को अपनी लेखनी में उतारा.


31जुलाई सन1880 को बनारस शहर से करीब चार मील दूर लमही नामक एक छोटे से गाँव में मुंशी अजायबलाल के घर जन्म हुआ.मुंशी प्रेमचन्द्र का वास्तविक नाम धनपत राय था.मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक था.पिताजी डाकमुंशी के पद पर कार्यरत थे. इस प्रकार नौकरी पिताजी की होने के कारण शुरूआती समय में खाने पीने,पहनने ओढ़ने की तंगी नहीं थी लेकिन इतने उच्च स्तर के नहीं हो सके थे कि ठाठ बाट से रह सके.आर्थिक हालातों से जीवन भर जूझते रहने वाले मुँशी जी तंगी में ही 8 अक्टूबर सन 1936 को 56 वर्ष की अल्पआयु में जलोधर रोग से पीड़ित यह महान लेखक हम लोगों से जुदा हो गया.


पाँच छः साल के उम्र में शिक्षा के लिये लमही गाँव के करीब लालगंज नामक गाँव में एक मौलवी साहब के पास फारसी और उर्दू पढ़ने के लिये भेजा गया और उस पढ़ाई के दौरान पढ़ाई कम हुआ करता था लेकिन हुल्लडबाजी ज्यादा हुआ करता था.गाँव की जिन्दगी थी.गाँव की माटी से जुड़ा हृदय था,माँ व दादी के लाड़ प्यार में बचपन मजे से बीत रहा था लेकिन होनी कौन टाल सकता है.खुशी में पता नहीं कौन नजर लगी कि अचानक माँ की तबियत खराब हो गई और तबियत ऐसी खराब हुई की बालक धनपतराय को इस भरे संसार में अकेला छोड़ दी.उस समय बालक धनपतराय की अवस्था बहुत कम की थी.माँ के जाने के बाद बालक धनपयराय के चेहरे पर वह हँसी,ठिठोली,बदमाशियाँ सब छिन गई.बिन माँ का जीवन दुर्दिन का जीवन हो जाता है.


माँ के जाने के बाद प्रेमचन्द्र के जीवन में जो माँ का प्यार,दुलार,स्नेह,संग साथ में खेलना था,सब उजड़ गया.माँ से जो प्यार मिला फिर वह प्यार दुबारा कभी नहीं मिला,थोड़ा बहुत प्यार बहन से मिला लेकिन शादी के पश्चात वह अपने ससुराल चली गई.उस प्यार से भी वंचित हो जाना पड़ा.अब समझिये पूरी दुनिया बालक के लिये सूनी हो गई.यह सूनापन इतनी गहरी थी कि उनका मासूम हृदय तड़प उठा और वही तड़प व पीड़ा अपने कहानियों व उपन्यासों में दुःखित व पीड़ित व्यक्तियों को पात्र बनाया और उनके जीवन में उठे संत्रास को उकेरा और कामयाबी मिली.ऐसे पात्रों को लिया जिनके बचपन में माँ चल बसी थी या जिनके माँ बाप बचपन में बिछड़ गये या ऐसे पात्रों को समाहित किया जिनका जीवन दरिद्रता से परिपूर्ण रहा,दीन हीन जीवन जी रहा होता.विधवा,मजदूरों,शोषितों,पीड़ितों,कल्पितों और अनाथों के जीवन को सजीव चित्रण कर कथा साहित्य को अमर कर दिया.


मातृत्व स्नेह से वंचित यह बालक कुछ इस तरह का रास्ता चुना कि आगे चल महान कथाकार,उपन्यास सम्राट तथा कलम के सिपाही के नाम से पूरे विश्व साहित्य के लिये आदरणीय बन गये.तमाम विभूतियों से अलंकृत यह महान रचना कार साधारण सा ही जिन्दगी जिया.दिखावे के चीज से सदैव दूर रहे.स्वाभिमानी थे.सादा जीवन में पूर्ण भरोसा था और इसी तरह जीवन को आत्मसात किया.साधारण से जीवन में एक महान व्यक्तित्व का निर्माण किया.


विवाह छोटी सी अवस्था में हो गया जब लगभग पन्द्रह-सोलह बरस के रहे थे.यह विवाह इनके लिये कष्टकारी रहा यानी दुर्भाग्य से भरा रहा लेकिन विवाह के साथ एक संयोग जुड़ा.बनारस के पास चुनार में एक स्कूल में मास्टरी मिल गई.सन 1899 से सन1821 तक मास्टरी किया.नौकरी करते हुये अपनी शिक्षा भी ली.इंटर और बीए तक पढ़ाई नौकरी के दरम्यान पूरी कर ली.इसी नौकरी के समय तबादलों का सामना करना पड़ा.इस नौकरी के सिलसिले में घाट घाट का पानी पीना पड़ा.इन्हीं तबादलों के साथ साथ नये लोगों से मिलने का अवसर मिला.सामाजिक ताने बाने को और करीब से जानने का मौका मिला.सामाजिक समस्याओं से रूबरू भी हुये.ये सारी चीजें एक साहित्यकार के लिये सोने में सुहागा सिध्द हुआ और इन्हीं सब चीजों को देखकर अपनी आत्मा तक साहित्य के लिये समर्पित कर दिया.साहित्य में यह महान रचनाकार कूद पड़ा और जमकर साहित्य की रचना की. ऐसा लिखा की पूरे समाज की नब्ज को लिख दी.साहित्य को नई ऊँचाई दी.


साहित्य का महान पुरोधा प्रेमचन्द्र लगभग तीन सौ कहानिया और चौदह छोटे बड़े उपन्यास की रचना की.रचना इतनी सुंदर रही कि कोई अगर थोड़ा पढ़ना शुरू किया तो बिना पूरा पढ़े रहा नहीं.यही वजह रहा कि पाठकों की संख्या बहुत रही है.इसी प्रकार इस महान साहित्यकार की गिनती दुनिया के महान लेखकों में होती है.इनके साहित्य का अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में किया जा चुका है.


कानपुर में भी मारवाड़ी स्कूल में काम किया लेकिन स्वाभिमानी स्वभाव के कारण मैनेजर से नहीं बनी और वहाँ से तत्काल इस्तीफा दे दिया और बनारस चले आये.बनारस में 'मर्यादा' पत्रिका का संपादन किया.कुछ समय तक काशी विद्यापीठ में शिक्षक रहे.लखनऊ से बुलावा आने पर 'माधुरी' के संपादन के लिये गये.लगभग छः सात वर्ष तक रहे फिर हंस के संपादन के लिये पुनः बनारस चले गये.हंस मुंशी जी की पत्रिका रही.आजकल हंस का प्रकाशन दिल्ली से होता है.यह एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका है.मुंशी जी कुछ समय बाद 'जागरण' निकाला.


प्रेमचन्द्रजी अपने सशक्त लेखनी के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों,रूढ़िवादियों एवं शोषणकर्ताओं के खिलाफ जमकर लिखा.तमाम सामाजिक विद्रुपताओं पर कुठाराघात करके अपने पाठकों को स्वस्थ मनोरंजन परोसने में कामयाब रहे.सामाजिक दुष्परिणाम को उजागर कर उनको जड़ से मिटाने का संदेश पूरे समाज को दिया.अमर कथाकार ऐसे नक्षत्र हैं जिनकी रोशनी में साहित्यप्रेमियों को आम भारतीय जीवन का सच्चा दर्शन मिलता है.अपनी बेमिशाल लेखनी चलाकर गरीब,बेबस,दबे कुचले लोगों की आवाज को रखा.पाठकों के मन में बेबस लोगों को पढ़कर मन में टीस व भावुकता का भाव उमड़ने लगता है.कथानक के पात्र चलचित्र की तरह पाठकों का सजीव दर्शन कराती है.सच्चे भावों को रखा है.मानवीय संवेदनाओं को उकेरा है.नपे तुलेे शब्दों के प्रयोग से रचना अंदर तक बेधती है.इसी खासियत के चलते आम जन में लोकप्रिय रहे.आज भी उतने प्रासंगिक हैं जितने उस समय रहे.आज भी इनकी रचनायें चाव से पढ़ी जाती है.प्रेमचन्द्र समाज के कुशल चितेरे थे.


प्रेमचन्द्र जी को सामाजिक लेखक भी कह सकते हैं.19वीं सदी के अंतिम दशक तथा 20वीं सदी के तीसरे दशक तक सामाजिक समस्याओं एव भारत की दुर्दशा पर अपनी सशक्त लेखनी चलाई.

देशभक्ति की भावना भी कूट कूट कर भरी थी.चौरी चौरा काण्ड से दुःखी होकर चौथे दिन सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया.यह लेखक की देश के प्रति अगाध प्रेम दर्शाता है.अंग्रेजों द्वारा महान क्रांतिकारी खुदीरामबोस की फांसी से उनका मन बहुत आहत हुआ.कई दिन तक दुःखी रहे.बाजार से खुदीरामबोस की तस्वीर लाकर अपने घर में टांग दी.


जिस समय प्रेमचन्द्र हिन्दी में उभर रहे थे.वह युग छायावाद का युग रहा लेकिन वे किसी वाद के चक्कर में नहीं पड़े .अलग रह कर हिन्दी साहित्य को समृध्य किये.जिस रूप में समाज को देखा वैसा ही अपने लेखनी में चित्रण किया.समाज में हो रहे अत्याचारों को पात्र का माध्यम बनाकर कहानिया व उपन्यास लिखे.समाज के हर बुराई को लिखा.संवेदनाओं को  दिखाया.लोगों को जागृति करने का भरसक प्रयत्न किया.सामाजिक ढोंग पर सीधे प्रहार किये.सामाजिक भेदभाव को करारा तमाचा जड़ा.हिन्दु व मुस्लिम के दिखावे पर करारा प्रहार किया.स्त्रियों की दुर्दशा पर उनका रूह कांप गया.कहानियों व उपन्यास में स्त्री को केन्द्र बिन्दु मान कर रचना की.समस्याओं पर बेबाक लिखने वाले मुंशी जी सामाजिक समस्याओं का समाधान भी खोजते हैं.कैसे समस्याओं से निदान हो सकता है .इस पर भी प्रकाश डाला है.भारतीयों के ऊपर हो रहे अत्याचार से आहत मुंशीजी अंग्रेजों पर भी करारा प्रहार किये.हिम्मती थे जो इतने साहसी विषय पर लिखा.हार मानने वाले नहीं थे.


मुंशीजी दलितों के हालत पर समाज के उच्च वर्गों पर प्रहार करने से नहीं चूके.भेदभाव पर वे भरोसा नहीं करते थे.सामाजिक कलंक इसे मानते थे.दलित को भी समाज में हक है जीने का .तमाम चीजें लेकर वे खुद मुद्दा बनाते और दलितों के हक के लिये लड़ाई लड़ी.सामाजिक भेदभाव को हटाने का प्रयत्न किये.हिन्दु व मुश्लिम के बीच जो असमानता का भेदभाव था.उस पर करारा प्रहार किया.अगर हम आपस में लड़ेगें तो फिर हमारा देश कैसे आजाद होगा.इस प्रकार कहा जा सकता है कि सामाजिक समरसता लाने में मुंशी जी का विशेष योगदान रहा है.


किसानों पर जमकर लिखा.किसानों की हालत दयनीय थी जो देश के लिये अन्न उपजा रहा है वही भूखा सोता है.वही नंगधडंग है.उसके बच्चे गरीबी में हैं.स्कूल नहीं जा पा रहें है.किसानों की दयनीय हालत पर लिखा और किसानों की समस्याओं को दिखाया और समाधान भी खोजा.गबन,गोदान,निर्मला प्रसिध्द कृतियां रहीं हैं.नमक का दारोगा,पूस की रात,ईद,काकी इत्यादि कई रचनाये पढ़ने से मन हर्षित हो जाता है.सामाजिक भावों को दिखाती रचना अतीव सुंदर है.


वैसे मुंशी जी की रचनायें आज भी प्रासंगिक है.समाज में हो रहे अत्याचार,सामाजिक भेदभाव,स्त्रियों के उपर हो रहे दुराचार,अमानवीय भाव से इनकी रचनाओं की यहाँ जरूरत है.अगर सामाजिक समरसता नहीं बनी तो वह दिन दूर नहीं फिर जब वही पुराने दौर से गुजरना पड़े.चिन्तन बहुत जरूरी है.भेदभाव खत्म करना है.स्त्रियों का सम्मान करना है.किसानों के बारे में सोंचना है.गरीबों के बारे कुछ करना होगा .बदलाव लाना ही पड़ेगा.तभी रामराज्य की कल्पना गांधी जी का साकार होगा.


                                                                 लेखक

                                                          

जयचन्द प्रजापति 

                                                               प्रयागराज

बुधवार, 14 फ़रवरी 2024

अपने हिस्से का भाग्य*


*प्रस्तुति - *स्वामी शरण 

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एक आदमी एक सेठ की दुकान पर नौकरी करता था। वह बेहद ईमानदारी और लगन से अपना काम करता था। 

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उसके काम से सेठ बहुत प्रसन्न था और सेठ द्वारा मिलने वाली तनख्वाह से उस आदमी का गुज़ारा आराम से हो जाता था। ऐसे ही दिन गुज़रते चले गये और वो बाल बच्चेदार हो गया तब भी काम करता रहा...!

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एक दिन वह आदमी बिना बताए काम पर नहीं गया। उसके न जाने से सेठ का काम रूक गया।  

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तब उसने सोचा कि *यह आदमी इतने वर्षों से ईमानदारी से काम कर रहा है। मैंने कबसे इसकी तन्ख्वाह नहीं बढ़ाई। इतने पैसों में इसका गुज़ारा कैसे होता होगा ?*

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सेठ ने सोचा कि *अगर इस आदमी की तन्ख्वाह बढ़ा दी जाए, तो यह और मेहनत और लगन से काम करेगा। उसने अगले दिन से ही उस आदमी की तनख्वाह बढ़ा दी।*

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उस आदमी को जब एक तारीख को बढ़े हुए पैसे मिले, तो वह हैरान रह गया। लेकिन वह बोला कुछ नहीं और चुपचाप पैसे रख लिये...

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धीरे-धीरे बात आई गई हो गयी। कुछ महीनों बाद वह आदमी फिर फिर एक दिन ग़ैर हाज़िर हो गया। 

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यह देखकर सेठ को बहुत गुस्सा आया। वह सोचने लगा- *कैसा कृतघ्न आदमी है। मैंने इसकी तनख्वाह बढ़ाई, पर न तो इसने धन्यवाद तक दिया और न ही अपने काम की जिम्मेदारी समझी। इसकी तन्खाह बढ़ाने का क्या फायदा हुआ ? यह नहीं सुधरेगा !*

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*और उसी दिन सेठ ने बढ़ी हुई तनख्वाह वापस लेने का फैसला कर लिया।*

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अगली 1 तारीख को उस आदमी को फिर से वही पुरानी तनख्वाह दी गयी। लेकिन हैरानी यह कि इस बार भी वह आदमी चुप रहा। उसने सेठ से ज़रा भी शि‍कायत नहीं की। यह देख कर सेठ से रहा न गया और वह पूछ बैठा-

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*बड़े अजीब आदमी हो भाई। जब मैंने तुम्हारे ग़ैरहाज़िर होने के बाद पहले तुम्हारी तन्ख्वाह बढ़ा कर दी, तब भी तुम कुछ नहीं बोले।*

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*और आज जब मैंने तुम्हारी ग़ैर हाज़री पर तन्ख्वाह फिर से कम कर के दी, तुम फिर भी खामोश रहे। इसकी क्या वजह है ?*

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उस आदमी ने जवाब दिया- *"जब मैं पहली बार ग़ैर हाज़िर हुआ था तो मेरे घर एक बच्चा पैदा हुआ था। उस वक्त आपने जब मेरी तन्ख्वाह बढ़ा कर दी, तो मैंने सोचा कि ईश्वर ने उस बच्चे के पोषण का हिस्सा भेजा है। इसलिए मैं ज्यादा खुश नहीं हुआ। ...*

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*जिस दिन मैं दोबारा ग़ैर हाजिर हुआ, उस दिन मेरी माता जी का निधन हो गया था। आपने उसके बाद मेरी तन्ख्वाह कम कर दी, तो मैंने यह मान लिया कि मेरी माँ अपने हिस्से का अपने साथ ले गयीं.... फिर मैं इस तनख्वाह की ख़ातिर क्यों परेशान होऊँ ?*

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यह सुनकर सेठ गदगद हो गया। उसने फिर उस आदमी को गले से लगा लिया और अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी। उसके बाद उसने न सिर्फ उस आदमी की तनख्वाह पहले जैसे कर दी, बल्कि उसका और ज्यादा सम्मान करने लगा. 

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*

❤️❤️

शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

महाभारत और हनुमान जी


महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ पर बैठे हनुमानजी.. कभी-कभी खड़े हो कर कौरवों की सेना की और घूर कर देखते.. 

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तो उस समय कौरवों की सेना तूफान की गति से युद्ध भूमि को छोड़ कर भाग जाती... हनुमानजी की दृष्टि का सामना करने का साहस किसी में नही था... 

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उस दिन भी ऐसा ही हुआ था.. जब कर्ण और अर्जुन के बीच युद्ध चल रहा था।

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कर्ण अर्जुन पर अत्यंत भयंकर बाणों की वर्षा किये जा रहा था... उनके बाणों की वर्षा से श्रीकृष्ण को भी बाण लगते गए... 

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अतः उनके बाण से श्रीकृष्ण का कवच कटकर गिर पड़ा और उनके सुकुमार अंगो पर बाण लगने लगे।

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रथ की छत पर बैठे पवनपुत्र हनुमानजी  एक टक नीचे अपने इन आराध्य की और ही देख रहे थे।

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श्रीकृष्ण कवच हीन हो गए थे.. उनके श्री अंग पर कर्ण निरंतर बाण मारता ही जा रहा था.. 

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हनुमानजी से यह सहन नही हुआ.. आकस्मात् वे उग्रतर गर्जना करके दोनों हाथ उठाकर कर्ण को मार देने के लिए उठ खड़े हुए।

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हनुमानजी की भयंकर गर्जना से ऐसा लगा मानो ब्रह्माण्ड फट गया हो.. कौरव- सेना तो पहले ही भाग चुकी थी.. अब पांडव पक्ष की सेना भी उनकी गर्जना के भय से भागने लगी...

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हनुमानजी का क्रोध देख कर कर्ण के हाथ से धनुष छूट कर गिर गया।

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भगवान श्रीकृष्ण तत्काल उठकर अपना दक्षिण हस्त उठाया.. और हनुमानजी को स्पर्श करके सावधान किया.. रुको ! आपके क्रोध करने का समय नही है।

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श्रीकृष्ण के स्पर्श से हनुमान जी रुक तो गए किन्तु उनकी पूंछ खड़ी हो कर आकाश में हिल रही थी.. 

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उनके दोनों हाथों की मुठ्ठियाँ बन्द थीं.. वे दाँत कट- कटा रहे थे.. और आग्नेय नेत्रों से कर्ण को घूर रहे थे.. 

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हनुमानजी का क्रोध देख कर कर्ण और उनके सारथी काँपने लगे।

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हनुमानजी का क्रोध शांत न होते देख कर श्रीकृष्ण ने कड़े स्वर में कहा.. हनुमान ! मेरी और देखो.. 

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अगर तुम इस प्रकार कर्ण की ओर कुछ क्षण और देखोगे तो कर्ण तुम्हारी दृष्टि से ही मर जाएगा।

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यह त्रेतायुग नहीं है... आपके पराक्रम को तो दूर आपके तेज को भी कोई यहाँ सह नही सकता..

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आपको मैंने इस युद्ध मे शांत रहकर बैठने को कहा है।

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🙏🚩फिर हनुमान जी ने अपने आराध्यदेव की और नीचे देखा और शांत हो कर बैठ गए।


।।जय श्री कृष्णा।। 


।।शुभ प्रभात।।

मैं यूँ तो सबके साथ सदा / किशोर कौशल

 मैं यूँ तो सबके साथ सदा 

पर मेरा अपना अलग ढंग



जो बात किसी को चुभ जाए 

मैं ऐसी बात नहीं कहता

हो जहाँ कहीं कुछ ग़लत बात 

मैं क्षण भर वहाँ नहीं रहता


जो बनी-बनाई लीक मिली 

मैं अकसर उस पर चला नहीं 

मुझको वह बात नहीं भाई 

हो जिसमें सबका भला नहीं



जग जिस प्रवाह में बहता है 

मैं उस प्रवाह में बहा नहीं 

जो भीड़ कहा करती अकसर 

मैंने वह हरगिज कहा नहीं



अपना कुछ काम बनाने को 

मैंने समझौता नहीं किया 

खु़श हो कोई या रुष्ट रहे 

झूठा यशगायन नहीं किया



मैं सबको रास नहीं आता 

पर इसकी कुछ परवाह नहीं 

सब मुझे सुनें,बस मुझे सुनें

ऐसी कुछ मन में चाह नहीं 


अपनी धुन,अपनी मस्ती है 

अपनी भी कोई हस्ती है। 

*   *   *   *   *   *   *   *

--- किशोर कुमार कौशल

 मोबाइल:9899831002

मंगलवार, 9 जनवरी 2024

बलिराजगढ़ पुरास्थल ? मुरारी कुमार झा / /

 #बलिराजगढ़ पुरास्थल


     आप तो हद कर दिए, महाराज! बलिराजगढ़ पुरास्थल तक साइकिल🚴 से आ गए! :- माननीय सांसद दरभंगा(गोपाल जी ठाकुर)।(कुल दूरी 200किमी)


  ( इस पोस्ट को पूरा पढ़कर और शेयर कर अनुगृहित करें।)


         25 जनवरी को MLS संग्रहालय पहुंचा तो वहां पूर्व से ही संग्रहाल्याध्यक्ष डा शिव कुमार मिश्र, प्रो जयशंकर झा, वरीय इतिहासकार डा अवनींद्र कुमार झा, डा सुशांत कुमार, श्री कौशल जी, श्रीउज्ज्वल कुमार जी आदि मौजूद थे। शिवकुमार सर ने मिथिला के अति महत्वपूर्ण पुरास्थल बलिराजगढ़ की चर्चा की, जिस पर आदरणीय प्रो झा ने माननीय सांसद, दरभंगा से भ्रमण को कहने संबंधी बात कहते हुए उन्हें फोन कर कहा, डा मिश्र सर से भी बातें हुई, इस दौरान बलिराजगढ़ का सम्पूर्ण उत्खनन कराने हेतु भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, भारत सरकार का ध्यान आकृष्ट किया जाना चाहिए।


      उपरोक्त विषय पर सांसद महोदय का ध्यान आकृष्ट कराया गया, सांसद महोदय हर्ष व्यक्त करते हुए अगले ही दिन बलिराजगढ़ पुरास्थल भ्रमण का योजना बना लिए, जिसमें मुझे इनके पुरातात्विक गाइड लाइन के लिए जाने को कहा गया, मैं तो पुरातत्व के लिए तैयार ही रहता हूं।


            अगले दिन सुबह यानी कि 26 जनवरी(गणतंत्र दिवस) को मैं आदरणीय प्रो जयशंकर झा, मिसेज झा और सामाजिक कार्यकर्ता श्री उज्ज्वल कुमार जी दरभंगा से मधुबनी जिला अतिथि गृह पहुंचे, जहां से सांसद महोदय साथ हुए और हमलोग करीब 03:30 बजे बलिराजगढ़ पुरास्थल पहुंचे।


           वहां प्रो झा(डा मिश्र का दिया हुआ) के द्वारा सांसद महोदय को बलिराजगढ़ पुरास्थल से संबंधित अब तक के कतिपय प्रपत्र दिए गए। उन्होंने इस पुरास्थल का पुनः खुदाई कार्य प्रारंभ करवाने हेतु अपना पूर्ण जोड़ लगाने की बात कही। मैंने उनको पुरास्थल का प्राचीनता, तीनों बार हुए खुदाई कार्य, ऐतिहासिक काल खंड की जानकारी, विशेषता, संभावना आदि विषयों संबंधित विस्तृत विवरणों से अवगत करवाया। तत्पश्चात हमलोग बलीराजपुर स्थित ऐतिहासिक रामजानकी मंदिर भ्रमण कर वापस लौटे।


 #बलिराजगढ

#भारतीय_पुरातत्व_सर्वेक्षण

#Archaeological_survey_of_India

#मिथिला_पर्यटन, #बिहार_पुराविद_परिषद, #Government_of_Bihar, #Government_of_India


      अगर राम का जन्म हुआ तो सीता का भी हुआ होगा......


        अगर राजा दशरथ की #अयोध्या है तो #विदेहराज जनक की राजधानी #मिथिलापुरी भी होगी। राम का मूल आधार #वाल्मीकि_रामायण है। इसी रामायण में कहा गया है कि गौतम आश्रम से ईशान कोण में राजा जनक की राजधानी मिथिला थी। गौतम आश्रम की पहचान #दरभंगा जिला के ब्रह्मपुर से की गई है तो इसके ईशान कोण में मिथिला पुरी की तलाश क्यों नहीं की जाती ?


         #रामजन्म_भूमि को प्रमाणित करने के लिए #पुरातत्व का सहारा लिया गया है तो सीताजी के जन्मभूमि के लिए पुरातत्व की आवश्यकता क्यों नहीं ?


        हमारे देश के लोग अपनी सारी ऊर्जा राम जन्मभूमि के लिए लगा रहे हैं थोड़ी तो सीता जी के लिए भी लगाया जाना चाहिए।


                        -:बलिराजगढ़:-


         भारत के दार्शनिक, उद्भव, सांस्कृतिक और साहित्यिक विकास के क्षेत्र में मिथिला का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। मिथिला का इतिहास निस्संदेह गौरवमय रहा है. पुरातत्व के अवशेषों का अन्वेषण, विश्लेषण में पूरा #पाषाणकाल, मध्यकाल और नव पाषाण काल के कई अवशेष अभीतक प्रकाश में नहीं आए हैं। उत्तर बिहार के #तीरभुक्ति क्षेत्र में पुरातात्विक दृष्टिकोण से वैशाली पुरास्थल के बाद अगर कोई दूसरा महत्वपूर्ण पुरातत्व स्थल प्रकाश में आया तो वह है बलिराजगढ़। जिसे #डी०_आर_पाटिल बलराजपुर लिखते हैं। बलिराजगढ़ #हिमालय की तराई में भारत-नेपाल के सीमा से लगभग 15 किलोमीटर दूर बिहार प्रान्त में अवस्थित है।


          प्राचीन मिथिला के लगभग मध्यभाग में #मधुबनी जिला से 30 किलोमीटर की दुरी पर #बाबूबरही थाना के अन्तर्गत आता है। यहां पहुंचने के लिए रेल और सड़क मार्ग दोनों की सुविधा उपलब्ध है। बलिराजगढ़ कामला बलान नदी से 7 किलोमीटर पूर्व और कोसी नदी से 35 किलोमीटर पश्चिम में मिथिला के भूभाग पर अवस्थित है। #वैदिक_काल और उत्तर वैदिक काल में मिथिला अति प्रसिद्ध विदेह राज्य के रूप में जाना जाता था। द्वितीय नगरीकरण अथवा महाजनपद काल में वज्जि संघ, लिच्छवी संघ आदि नाम से प्रसिद्ध रहा है। बलिराजगढ़ का महत्व देखते हुए कुछ विद्वान् इसे प्राचीन मिथिला की राजधानी के रूप में संबोधित करते हैं। यहां का विशाल दुर्ग रक्षा प्राचीर से रक्षित पूरास्थल निश्चित रूप से तत्कालीन नगर व्यवस्था में सर्वोत्कृष्ट स्थान रखता था।


          175 एकड़ वाले विशाल भूखंड को बलिराजगढ़, बलराजगढ़ या बलिगढ़ कहा जाता है। स्थानीय लोगों का मानना है की महाकाव्यों और पुराणों में वर्णित दानवराज बलि की राजधानी का ये ध्वंष अवशेष है। ओ मैले के अनुसार स्थानीय लोगों का विश्वास है की इस समय भी रजा बलि अपने सैनिकों के साथ इस किले में निवास करते हैं. सम्भवतः इसी वजह से कोई भी खेती के लिए जोतने की हिम्मत नही करता है। इसी अफवाह के चलते इस भूमि और किले की सुरक्षा अपने आप होती रही।  बुकानन के अनुसार वेणु, विराजण और सहसमल का चौथा भाई बलि एक राजा था। यह बंगाल के राजा बल का किला था जिसका शासनकाल कुछ दिनों के लिए मिथिला पर भी था। बुकानन के अनुसार वे लोग दोमकटा ब्राह्मण थे जो महाभारत में वर्णित राजा युधिष्ठिर के समकालीन थे। किन्तु डीआर पाटिल इसे ख़ारिज करते हुए कहते हैं कि वेणुगढ़ तथा विरजण गढ़ के किले से बलिराजगढ़ की दूरी अधिक है।


         एक अन्य विद्वान् इस गढ़ को विदेह राज जनक के अंतिम सम्राट द्वारा निर्मित मानते हैं। उनके अनुसार जनक राजवंश के अंतिम चरण में आकर वंश कई शाखों में बंट गया और उन्ही में से एक शासक द्वारा किले का नाम बलिगढ़ रखा गया।

प्रो उपेन्द्र ठाकुर ने बलिराजगढ़ का उल्लेख करते हुए लिखा है कि प्रख्यात #चीनी_यात्री_ह्वेनसांग ने तीरभुक्ति भ्रमण करते हुए वैशाली गए थे। वैशाली (चेन-सुन-ना) संभवतः बलिगढ़ गए और वहां से बड़ी नदी अर्थात महानन्दा के निकट गए। बलिराजगढ़ के ऐतिहासिक महत्व के लिए एक तर्क यह है कि विदेह राज जनक की राजधानी अर्थात रामायण में वर्णित मिथिलापुरी यहीं स्थित थी। यधपि मिथिलापुरी की पहचान आधुनिक जनकपुर (नेपाल) से की गयी है किन्तु पुरातात्विक सामग्रियों के आभाव में इसे सीधे मान लेना कठिन है।


          रामायण के अनुसार राम, लक्ष्मण और विश्वामित्र गौतम आश्रम से ईशाणकोण को ओर चलकर मिथिला के यज्ञमण्डप पहुंचे। गौतम आश्रम की पहचान दरभंगा जिले के ब्रह्मपुर गांव से की गयी है। जिसका उल्लेख स्कन्दपुराण में भी मिलता है। आधुनिक जनकपुर गौतम आश्रम अर्थात ब्रह्मपुर से ईशाणकोण न होकर उत्तर दिशा में है। इस तरह गौतम आश्रम से ईशाणकोण में बलिराजगढ़ के अलावा और कोई ऐतिहासिक स्थल दिखाई नहीं देता है, जिसपर प्राचीन मिथिलापुरी होने की सम्भावना व्यक्त की जा सके। अतः बलिराजगढ़ के पक्ष में ऐसे तर्क दिए जा सकते हैं कि मिथिलापुरी इस स्थल पर स्थित थी।


          पाल साहित्य में कहा गया है कि अंग की राजधानी आधुनिक भागलपुर से मिथिलापुरी साठ योजन की दूरी पर थी। महाउम्मग जातक के अनुसार नगर के चारों द्वार पर चार बाजार थे जिसे यवमज्क्ष्क कहा जाता था बलिराजगढ़ से प्राप्त पुरावशेष इस बात की पुष्टि करता है. बौद्धकालीन मिथिलानगरी का ध्वंशावशेष भी बलिराजगढ़ ही है। बलिराजगढ़ के पुरातात्विक महत्व को सर्वप्रथम 1884 में प्रसिद्ध प्रसाशक, इतिहासकार और भाषाविद् जार्ज ग्रीयर्सन ने उत्खनन के माध्यम से उजागर करने की चेष्टा की, किन्तु बात यथा स्थान रह गयी। ग्रियर्सन के उल्लेख के बाद भारत सरकार 1938 में इस महत्वपूर्ण पुरास्थल को #राष्ट्रीय_धरोहर के रूप में घोषित कर दिया गया।


          सर्वप्रथम इस पुरास्थल का उत्खनन 1962-63 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण रघुवीर सिंह के निर्देशन संपादित हुआ। इस उत्खनन से ज्ञात हुआ की जो इस विशाल सुरक्षा दीवाल के निर्माण में पकी ईट के साथ मध्यभाग में कच्ची ईट का प्रयोग किया गया है। सुरक्षा प्राचीर के दोनों ओर पककी ईटों का प्रयोग दीवार को मजबूती प्रदान करती है। सुरक्षा दीवार की चौड़ाई सतह पर 8.18 मी. और 3.6 मी. तक है। सुरक्षा दीवार का निर्माण लगभग तीसरी शताब्दी ई.पू. से लेकर लगातार पालकालीन अवशेष लगभग 12-13 शताब्दी पर प्राप्त होता है। पुरावशेष में सुंदर रूप से गढ़ित मृण्मूर्ति महत्वपूर्ण है।


         इसके बाद 1972-73 और 1974-75 में बिहार राज्य पुरातत्व संग्रहालय द्वारा उत्खनन किया गया। इस उत्खनन कार्य में बी.पी सिंह के समान्य निर्देशन में सीता राम रॉय द्वारा के.के सिन्हा, एन. सी.घोष, एल. पी. सिन्हा तथा आर.पी सिंह के सहयोग से किया गया। उक्त खुदाई में पुरावशेषों तथा भवनों के अवशेष प्राप्त हुए। इस उत्खनन में उत्तर कृष्ण मर्जित मृदभांड से लेकर पालकाल तक के मृदभांड मिला है। सुंदर मृण्मूर्ति अथाह संख्या में मिला है, अर्ध्यमूल्यवाल पत्थर से बनी मोती, तांबो के सिक्के,मिट्टी के मुद्रा प्राप्त हुआ है। अभी हाल में 2013-14 में एक बार फिर उत्खनन कार्य #भरतीय_पुरातत्व_सर्वेक्षण_पटना मण्डल के मदन सिंह चौहान, सुनील कुमार झा और उनके मित्रों द्वारा उत्खनन कार्य किया गया।


         इस स्थल के उत्खनन में मुख्य रूप से चार संस्कृति काल प्रकाश में आए।

1-उत्तर कृष्ण मर्जित मृदभांड

2-शुंग कुषाण काल

3-गुप्त उत्तर गुप्तकला

4-पाककालीन अवशेष


           इस स्थल से अभी तक पुरावशेष में तस्तरी, थाली,पत्थर के वस्तु, हड्डी और लोहा, बालुयुक्त महीन कण, विशाल संग्रह पात्र, सिक्के, मनके, मंदिर के भवनावशेष प्राप्त हुए है और एक महिला की मूर्ति भी प्राप्त हुई है जो कि गोदी में बच्चे को स्तन से लगायी हुई है।


            यहाँ सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य में प्राचीर दीवार है जो पकी ईट से बनी हुई है और अभी तक सुरक्षित अवस्था में है दीवार में कहीं कहीं कच्ची ईटों का प्रयोग किया गया है। यहां प्रयोग की गयी ईटों की लंबाई 25" और चौड़ाई 14" तक है।


        पाल काल या सेन काल के अंत में भीषण बाढ़ द्वारा आयी मिट्टी के जमाव कही कही 1 मीटर तक है। इससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है की इस महत्वपूर्ण कारक रहा है। इस समय में कोई पुरास्थल मिथिला क्षेत्र में इतना वैभवशाली नही प्राप्त हुआ है। कुछ विद्वान द्वारा इस पुरास्थल की पहचान प्राचीन मिथिला नगरी के राजधानी के रूप में चिन्हित करते है। ये पुरास्थल मिथिला की राजधानी है की नहीं इस विषय में और अधिक अध्ययन और पुरातात्विक उत्खनन और अन्वेषण की आवश्यकता है।


           इस भ्रमण कार्य के लिए आदरणीय सांसद, दरभंगा(#गोपाल_जी_ठाकुर) डा मिश्र, डा झा सहित प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करने वाले सभी महानुभावों के प्रति आभार 🙏🙏🙏


                           

-मुरारी कुमार झा

(पुरातत्व)

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...