मंगलवार, 27 जून 2023

इंसानियत की पहचान? / कृष्ण मेहता

 जरुरी नहीं दुनिया आप के सत्कर्म को पहचाने 


एक बादशाह की आदत थी, कि वह भेस बदलकर लोगों की खैर-ख़बर लिया करता था, एक दिन अपने वज़ीर के साथ गुज़रते हुए शहर के किनारे पर पहुंचा तो देखा एक आदमी गिरा पड़ा हैl


बादशाह ने उसको हिलाकर देखा तो वह मर चुका था ! लोग उसके पास से गुज़र रहे थे, बादशाह ने लोगों को आवाज़ दी लेकिन कोई भी उसके नजदीक नहीं आया क्योंकि लोग बादशाह को पहचान ना सके।


बादशाह ने वहां रह रहे लोगों से पूछा क्या बात है? इस को किसी ने क्यों नहीं उठाया? लोगों ने कहा यह बहुत बुरा और गुनाहगार इंसान है। ।


बादशाह ने कहा क्या ये "इंसान" नहीं है?


और उस आदमी की लाश उठाकर उसके घर पहुंचा दी, और उसकी पत्नी को लोगों के रवैये के बारे में बताया। । ।


उसकी पत्नी अपने पति की लाश देख इककर रोने लगी, और कहने लगी "मैं गवाही देती हूँ मेरा पति बहुत नेक इंसान है"!!!!


इस बात पर बादशाह को बड़ा ताज्जुब हुआ कहने लगा "यह कैसे हो सकता है? लोग तो इसकी बुराई कर रहे थे और तो और इसकी लाश को हाथ तक लगाने को भी तैयार ना थे?"


उसकी बीवी ने कहा "मुझे भी लोगों से यही उम्मीद थी, दरअसल हकीकत यह है कि मेरा पति हर रोज शहर के शराबखाने में जाता शराब खरीदता और घर लाकर नालियों में डाल देता और कहता कि चलो कुछ तो गुनाहों का बोझ इंसानों से हल्का हुआ,


और रात में इसी तरह एक बुरी औरत यानी वेश्या के पास जाता और उसको एक रात की पूरी कीमत देता और कहता कि अपना दरवाजा बंद कर ले, कोई तेरे पास ना आए घर आकर कहता ख़ुदा का शुक्र है, आज उस औरत और नौजवानों के गुनाहों का मैंने कुछ बोझ हल्का कर दिया, लोग उसको उन जगहों पर जाता देखते थे,


मैं अपने पति से कहती "याद रखो जिस दिन तुम मर गए लोग तुम्हें नहलाने तक नहीं आएंगे, ना तुम्हारी अर्थी को कंधा देने आएंगे। वह हंसते और मुझसे कहते कि घबराओ नहीं तुम देखोगी कि मेरी अर्थी वक्त का बादशाह और नेक लोग उठाएंगे…


यह सुनकर बादशाह रो पड़ा और कहने लगा मैं बादशाह हूँ, कल हम इसको नहलायेंगे, इसकी अर्थी को कंधा देंगे और इसका दाह संस्कार भी करवाएंगेl


आज हम बज़ाहिर कुछ देखकर या दूसरों से कुछ सुनकर अहम फैसले कर बैठते हैं अगर हम दूसरों के दिलों के भेद जान जाएं तो हमारी ज़बाने गूंगी हो जाएं,


किसी को गलत समझने से पहले देख लिया करें कि वह ऐसा है भी कि नहीं? और हमारे सही या ग़लत कहने से सही ग़लत नहीं हो जायेगा और जो ग़लत है वो सही नहीं हो जायेगा।


हम दूसरों के बारे में फैसला करने में महज़ अपना वक़्त ज़ाया कर रहे हैं..बेहतर ये है कि अपना कीमती वक़्त किसी की बुराई करने की बजाय अच्छी सोच के साथ परोपकार में लगाएं...।


                                                                        .

रविवार, 25 जून 2023

रवीश कुमार के बारे में / संजय सिन्हा-

 संजय सिन्हा-

आप किसी से अपने बारे में कुछ कहने को कह दीजिए तो उन्हें सांप सूंघ जाएगा। लेकिन दूसरों के बारे में वो कुछ भी कह सकते हैं। दूसरों के बारे में वो अपने से अधिक जानते हैं। कमाल है।

कल पटना में मेरी मुलाकात रवीश से हो गई। रवीश कुमार पत्रकार हैं और उनसे मेरा मिलना कोई महान खगोलीय घटना नहीं है। हम दोनों एक ही धंधे के हैं। एक ही शहर में रहते हैं। एक ही संस्थान से पढ़ कर निकले हैं। हमारा मिलना और नहीं मिलना क्या बड़ी बात है? रवीश की अपनी पहचान है। मेरी अपनी। रवीश की पहचान मेरी तुलना में कई गुना अधिक है। मैंने तो जो थोड़ी बहुत पहचान बनाई, वो टीवी से अधिक फेसबुक से बनी। लेकिन रवीश को लोग हार्डकोर जर्नलिस्ट के रूप में जानते हैं। मैं हमेशा पर्दे के पीछे रहा, सिवाय तेज़ चैलन के अपने कार्यकाल में कहानी वाले संजय सिन्हा के रुप में जाने जाने के।

मैं हमेशा संपादकीय विभाग में रहा। जो लोग पत्रकारिता के भीतरी व्याकरण को नहीं समझते उनके लिए बता रहा हूं कि मैं अखबार में डेस्क पर रहा। टीवी में प्रोडक्शन में रहा। मुझे खुद सामने आने का कभी शौक नहीं रहा। मैं लोगों की रिपोर्ट ठीक करने में लगा रहा।

अगर असमय मेरे छोटे भाई का निधन न हो जाता और मैं खुद को व्यस्त करने के लिए फेसबुक पर लिखने न आता तो मैं रोज़ एक कहानी भी नहीं लिखता। मैंने दस साल पहले फेसबुक पर रोज़ एक कहानी लिखने का सिलसिला शुरू किया और मेरी कंपनी के प्रबंधकों को जब पता चला कि मैं रोज़ एक कहानी फेसबुक पर लिखता हूं तो उसे मेरे ही चैनल पर रोज़ सुनाने की मुझे अनुमति मिल गई। मेरी थोड़ी पहचान उसी माध्यम से बनी ‘रिश्ते- संजय सिन्हा की कहानी’। लेकिन रवीश अपनी जन रिपोर्ट के कारण जाने गए।

पत्रकारिता की दुनिया में मेरा कोई आदर्श नहीं। पर मुझे कभी-कभी लगता है कि अगर पत्रकारिता में मैं किसी को अपना आदर्श मान सकता हूं तो वो रवीश ही होंगे। रवीश के अलावा मुझे भड़ास वाले यशवंत सिंह की पत्रकारिता भी कमाल की लगती है। मेरे चाहने वाले हैरान हो सकते हैं कि संजय सिन्हा खुद को प्रभाष जोशी, बनवारी, राजेंद्र माथुर बनते नहीं देखना चाहते हैं और पता नहीं कहां से दो नाम ढूंढ कर ले आए – रवीश और यशवंत।

ये निजी पंसद का मसला है। मैंने अपने जीवन में इन दोनों को फक्कड़ पत्रकारिता करते देखा है। दोनों में तुलना नहीं, लेकिन दोनों मुझे भाते हैं।

इंदौर एयरपोर्ट पर एक बार मुझे यशवंत सिंह मिल गए तो मैंने उनके साथ तस्वीर खिंचवाई थी। कल पटना में मुझे होटल मौर्या में रवीश मिल गए तो मैंने उनके साथ तस्वीर खिंचवाई।

लेकिन कमाल हो गया। रवीश के साथ मेरी तस्वीर देख कर मेरे अपने परिजनों ने इतनी तीखी प्रतिक्रिया जताई है कि मैं हैरान रह गया हूं।

इससे पहले एक बार मैंने राजदीप सरदेसाई के साथ अपनी तस्वीर फेसबुक पर डाली थी तो लोग मेरे पीछे पड़ गए थे। राजदीप हमारे साथ काम करते थे। उनके साथ रोज मेरी तस्वीर हो सकती थी। लेकिन लोगों ने मुझे ट्रोल किया था। क्यों? राजदीप ने ऐसा क्या किया है? आप उन्हें कितना जानते हैं?

यशवंत को भी आप बहुत नहीं जानते। उन्हें मीडिया के लोग अधिक जानते हैं। उनके साथ तसवीर खिंचवाने पर मीडिया के लोगों ने मुझे टोका था कि आप यशवंत के साथ? क्यों? क्या परेशानी है जो संजय सिन्हा किसी के साथ तस्वीर खिंचवाएं?

खैर, मेरी सारी तस्वीरें मेरी पिछली पोस्ट में होंगी। आप ढूंढ कर लोगों के कमेंट पढ़ लीजिएगा। लेकिन कल तो हद ही हो गई।

मैंने रवीश के साथ अपनी तस्वीर साझा की तो मेरे कई परिजन मुझे छोड़ देने की धमकी देने लगे। एक भाई (कोई प्रमोद मिश्रा हैं) ने तो कहा कि संजय सिन्हा जी, आज से आपकी वॉल पर आना बंद। आज से आपको पढ़ना बंद। एक भाई ने कहा कि संजय सिन्हा जी आप देशद्रोही के साथ? एक ने रवीश को पनौती कहा। कुछ लोगों ने मजे लिए और पूछा कि क्यों आपने उनसे उनकी जाति नहीं पूछी – कौन जात हो भाई?

और तो और कुछ लोगों ने बताया कि वो ब्राह्मण नहीं, भूमिहार ब्राह्मण हैं। लोगों ने बहुत कुछ कहा रवीश के साथ मेरी उस तस्वीर पर। कुछ ने खुल कर निंदा की तो कुछ लोगों ने सराहा भी। लेकिन सच्चाई यही है कि रवीश से नाराज़ लोगों ने कल मुझे घेरने की बहुत कोशिश की।

मेरे एक साथी उनके पूरे खानदान की कुंडली मेरे सामने लेकर चले आए। उनके पिता, उनके भाई सभी की कहानी। एक भाई ने दावा किया कि रवीश ने बहुत पैसे बनाए हैं। ओ उनके पास मर्सडीज कार है। मैंने बताने वाले से पूछा कि क्या आपने उनकी कार देखी है?

वो चुप हो गए।

मैंने अपने परिचित से कहा कि मैंने दो बार मर्सडीज कार खरीदी है। दो बार बेच चुका हूं। दो बार बीएमडब्लू कार भी खरीद कर बेच चुका हूं तो क्या आप मुझे भी चोर समझते हैं? वो चुप हो गए।

असल में जब आप किसी के बारे में जाने बिना राय बनाते हैं तो आपको चुप हो जाना पड़ता है।

मैं दावे से कह सकता हूं कि मुझे मेरी वॉल पर घेरने वाले रवीश कुमार को नहीं जानते हैं। मैं रवीश को जानता हूं। इसलिए कि वो मेरे बाद के बैच में आईआईएमसी (भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली) के छात्र रहे हैं। उस संस्थान में दाखिला मिलना ही पत्रकारिता के छात्र के लिए सम्मान की बात है। रवीश मेरी जानकारी में इकलौते ऐसे छात्र हैं जिन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई छोड़ दी थी। छोड़ना आसान नहीं होता है। वही छोड़ सकता है, जिसे खुद पर भरोसा हो, जो डिग्री से ऊपर की सोच रखता हो।

संजय सिन्हा ने तो जनसत्ता में नौकरी मिलने के बाद आईआईएमसी की पढ़ाई शुरू की थी, जिसकी उन्हें कतई ज़रूरत नहीं थी, फिर भी डिग्री पाने का मोह मैं नहीं छोड़ पाया था। उनकी तरह ही यशवंत सिंह (भड़ास वाले) ने हम दोनों से पहले नौकरी छोड़ने का दम दिखलाया था।

रवीश चाहते तो उन्हें आराम से नौकरी मिल सकती थी और लाखों की मिल सकती थी। पर उन्होंने नौकरी से जब इस्तीफा दिया तो उस कहानी को सार्वजनिक किया था। क्यों छोड़नी पड़ी उन्हें नौकरी।

संजय सिन्हा आज तक ये दम नहीं दिखला पाए हैं। नौकरी मैंने भी छोड़ी। पर किसी से कह नहीं पाया कि क्यों? आसान नहीं होता है सारा सच उड़ेल देना।

मैं जानता हूं कि रवीश आज कहीं ज्वाइन करना चाहें तो लोग उन्हें हाथोंहाथ ले लेंगे। उनकी लोकप्रियता किसी कार्यक्रम को हिट कर देने के लिए काफी है। नौकरी की कमी मेरे पास भी नहीं थी, नहीं है। मेरे नौकरी छोड़ने के बाद कई ऑफर आए। लेकिन मेरा मन नहीं किया कहीं बंधने का।

आसान नहीं होता है लाखों की सैलरी का हर महीने का मोह छोड़ना। पर मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि जो उसे छोड़ने का दम दिखलाते हैं, उनकी आप सराहना मत कीजिए, पर झूठी कहानियां भी मन में मत पालिए। आप में अधिकतर लोग न रवीश को जानते हैं, न संजय सिन्हा को। आपके मन में जो भी राय है, वो सिर्फ आपकी सुनी सुनाई राय है।

आसान नहीं होता है इतने साल तक काजल की कोठरी में काम करते हुए बिना कालिख के बाहर निकल आना। आसान नहीं होता है लाइट, कैमरा और ऐक्शन की दुनिया को यूं मिनटों में छोड़ देना। आसान नहीं होता है अपने मीडिया के परिचय पत्र की उस हनक से बाहर हो जाना, जिसे दिखला कर आप देश के किसी विभाग में कहीं भी आसानी से प्रवेश पा लेते रहे हैं।

आप कुछ भी कह देते हैं। दलाल, चोर, भांड। जो मुंह में आता है लिख देते हैं। आप नहीं सोचते कि मीडिया को जिंदा रवीश जैसे पत्रकारों ने रखा है। उन लोगों ने नहीं, जो मुंह पर पाउडर लगा कर कैमरे के आगे चीख रहे हैं। हर विधा का एक काल होता है। मुझे नौकरी छोड़ने का अधिक अफसोस इसलिए नहीं हुआ क्योंकि मैं बचपन से नौकरी के बंधन में बंधना ही नहीं चाहता था। मैं बहुत देर तक किसी की धौंस सह ही नहीं सकता हूं। मेरा स्वभाव मुझे किसी सरकारी या वैसी प्राइवेट नौकरी से जुड़ने से रोकता रहा और इसीलिए मैं मीडिया में आया था कि वहां किसी की नहीं सहनी होगी।

जनसत्ता में नौकरी मिली, शुद्ध योग्यता की बदौलत। वहां नौकरी करते हुए साल भर में मैं ट्रे़ड यूनियन की हड़ताल में शामिल हो गया था। उसका नतीजा ये रहा कि मैं अपने प्रधान संपादक प्रभाष जोशी और जेनरल मैनेजर सुदर्शन कुमार कोहली की नज़र में आ गया और मेरा प्रमोशन दस साल नहीं हुआ। मुझ पर रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा। जब प्रभाष जोशी हटे, राहुल देव संपादक बने तो जनसत्ता में मेरा पहला प्रमोशन हुआ था सब एडिटर से सीनियर सब एडिटर। पर मुझे न प्रमोशन नहीं होने का दुख था, न हो जाने की खुशी हुई थी। जो था, मेरा चुना रास्ता था।

उन दिनों मेरी दोस्ती ज़ी टीवी नेटवर्क के मैनेजिंग डाइरेक्टर विजय जिंदल जी से हो गई थी। उन्होंने मुझे प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आने के लिए प्रेरित किया। वही मुझे ज़ी न्यूज़ लेकर गए। वहां से मैं इसी विधा में आगे बढ़ता रहा, कछुआ चाल से। बीच में मेरी पत्नी का इंडिया से अमेरिका नौकरी में ट्रांसफर हो गया तो मैं अमेरिका चला गया, पत्नी भक्ति में ज़ी न्यूज़ की नौकरी छोड़ कर। मुझे बिना नौकरी के रहने का अभ्यास है। घर की साफ-सफाई करने, बर्तन धोने, खाना बनाने और कपड़े धोकर प्रेस करने का भी अभ्यास है। मेरे मन में इन बातों को लेकर कभी हीन भावना नहीं आती कि मैं नौकरी नहीं करता, घर के काम करता हूं। मेरी नज़र में नौकरी सिर्फ जीने का जरिया है। काम तो इतना ही है कि कुछ गलत न करूं। पैसे की सीमा नहीं होती। जितना हो अधिक है। जितना हो कम है।

बात रवीश की हो रही थी। रवीश से चाहे आप नफरत करें या प्यार पर सच्चाई यही है कि अभी वो सही मायने में पत्रकार हैं।

याद रखिएगा पत्रकार के तीन ही काम होते हैं और रवीश कुमार उन तीनों में अव्वल है। पत्रकार का काम होता है खबरें पहुंचाना। जन सरोकार के काम से जन को जोड़ना और सरकार की आखों मे आंख डाल कर प्रश्न पूछना। रवीश का इन तीनों कामों में किसी से मुकाबला नहीं। सही कहूं तो दूर-दूर तक उन जैसा कोई नहीं। मैं भी नहीं।

तो प्लीज़ आप रवीश को लाइक करें न करें फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन याद रखिएगा, जब आपका कोई साथ नहीं देता है तो आखिरी उम्मीद पत्रकार ही होते हैं। मेरी आपसे गुजारिश है कि आप कम से कम रवीश जैसे पत्रकारों का हौसला तोड़ने वाली बातें न कहें ( सच ये है कि आप उनके विषय में कुछ नहीं जानते)। आपकी राय किसी के लिए कुछ भी हो सकती है। पर ये मत भूलिए कि आपके पास अपने ही कहे को साबित करने का एक भी साधन उपलब्ध नहीं है।

फिर भी आप रवीश से नफरत करते हैं, उनके साथ मेरी तस्वीर पर मेरी खिंचाई करते हैं तो मैं कुछ अधिक नहीं कहूंगा। आप एक आजाद देश के आजाद नागरिक हैं। आपको हक है किसी के लिए कुछ भी कहने का। पर जैसे आप खुद को नहीं बदल सकते, संजय सिन्हा से आप क्यों उम्मीद करते हैं कि वो बदल जाएं? मेरा भी जो मन होगा, लिखूंगा। जिसके साथ मन होगा, तस्वीर खिंचवाऊंगा। पर इतने के लिए आप ये न कहें कि संजय सिन्हा अब आपको छोड़ कर चला जाऊंगा।

मत जाइए मुझे छोड़ कर। आप हैं तो मैं हूं। आपको तो पता ही है कि मैं भाव का भूखा हूं। आपसे जुड़ कर तो मैंने जीना सीखा, नहीं तो अपने छोटे भाई के निधन के बाद मेरी ज़िंदगी में क्या बचा था?

आप मुझे कोसिए। आप मेरी सराहना मत कीजिए। ये सब चलता रहेगा। पर प्लीज़ मुझे छोड़ कर जाने की बात न कीजिए। मेरा दिल टूट जाएगा। बाकी पत्रकार खबरों को जीते होंगे, संजय सिन्हा तो रिश्तों को जीते हैं। मुझे रवीश मिलते रहेंगे, मैं उनके संग तस्वीर खिंचवाता रहूंगा। वो मेरी व्यक्तिगत पसंद हैं। इतनी आज़ादी तो आप मुझे देंगे न?

आप जिसे पसंद करते हैं, जिनकी स्तुति में फेसबुक रंगते हैं तो क्या मैं आपको कभी टोकता हूं? रिश्ते निभाने की पहली और आखिरी शर्त यही होती है कि एक-दूसरे की निजता की कद्र करें। आपकी पसंद आपको मुबारक। मेरी पसंद मुझे मुबारक। संपूर्ण सत्य कुछ नहीं होता है। सम्पूर्ण सत्य सिर्फ मृत्यु है। बाकी जो है, उसे धारणा कहते हैं। धारणा भ्रम है। भ्रम में रिश्ते न छोड़ें। न जाओ भईया, छुड़ा कर बईंया, कसम आपकी मैं रो पड़ूंगा।

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बुधवार, 14 जून 2023

हिंदी के चंबल का एक बाग़ी मुद्राराक्षस / दयानंद पांडेय

 


हिंदी के चंबल का एक बाग़ी मुद्राराक्षस / दयानंद पांडेय 


अगर मुद्राराक्षस के लिए मुझ से कोई एक वाक्य में पूछे तो मैं कहूंगा कि हिंदी जगत अगर चंबल है तो मुद्राराक्षस इस चंबल के बाग़ी हैं । जन्मजात बाग़ी । ज़िंदगी में उलटी तैराकी और सर्वदा धारा के ख़िलाफ़ चलने वाला कोई व्यक्ति देखना हो तो आप लखनऊ आइए और मुद्राराक्षस से मिलिए। आप हंसते , मुसकुराते तमाम मुर्दों से मिलना भूल जाएंगे। हिप्पोक्रेटों से मिलना भूल जाएंगे । मुद्राराक्षस की सारी ज़िंदगी इसी उलटी तैराकी में तितर-बितर हो गई लेकिन इस बात का मलाल भी उन को कभी भी नहीं हुआ । उन को कभी लगा नहीं कि यह सब कर के उन्हों ने कोई ग़लती कर दी हो । वास्तव में हिंदी जगत में वह इकलौते आदि विद्रोही हैं। बहुत ही आत्मीय किस्म के आदि विद्रोही। पल में तोला , पल में माशा ! वह अभी आप से नाराज़ हो जाएंगे और तुरंत ही आप पर फ़िदा भी हो जाएंगे । वह कब क्या कर और कह बैठेंगे , वह ख़ुद नहीं जानते। लेकिन जानने वाले जानते हैं कि वह सर्वदा प्रतिपक्ष में रहने वाले मानुष हैं । वह जब बतियाते हैं और अतीत में जाते हैं तो लगता है कि कोलकाता में ज्ञानोदय की नौकरी का समय उन के जीवन का गोल्डन  पीरियड था। हालां कि वह ऐसा शब्द या कोई भावना व्यक्त नहीं करते । लेकिन जब एक बार मैं नवभारत टाइम्स में था तब बातचीत में जो भाव उन के शब्दों में आए , उन से मैं ने यह निष्कर्ष निकाला है । हो सकता है मेरा यह आकलन सही भी हो , हो सकता है मेरा यह आकलन ग़लत भी हो । कुछ भी हो सकता है । पर कोलकाता के ज्ञानोदय और उस में अपनी नौकरी का ज़िक्र वह तब के दिनों बड़े गुमान से करते मिले थे । मुद्राराक्षस ने आकाशवाणी की गरिमामयी नौकरी भी की है । तब के दिनों वह असिस्टेंट डायरेक्टर हुआ करते थे । पर यूनियनबाज़ी में वह गिरिजा कुमार माथुर से मोर्चा खोल बैठे । झगड़ा जब ज़्यादा बढ़ गया तो वह नौकरी से बेबात इस्तीफ़ा दे बैठे । नौकरी में समझौता कर के जो रहे होते मुद्राराक्षस तो बहुत संभव है वह डायरेक्टर जनरल हो कर रिटायर हुए होते । नहीं डायरेक्टर जनरल तो डिप्टी डायरेक्टर जनरल हो कर तो रिटायर हुए ही होते । जैसे कि उन के साथ के तमाम लोग हुए भी । अच्छी ख़ासी पेंशन पा कर ऐशो आराम की ज़िंदगी गुज़ार रहे होते । लेकिन मुद्रा का चयन यह नहीं था । सुभाष चंद्र गुप्ता उर्फ़ मुद्राराक्षस तो जैसे संघर्ष का पट्टा लिखवा कर आए हैं इस दुनिया में । घर में , बाहर , साहित्य और ज़िंदगी में भी । मुद्रा तो जब दिनकर की उर्वशी की जय जयकार के दिन थे तब के दिनों उन्हों ने अपनी लिखी समीक्षा में उर्वशी की बखिया उधेड़ दी थी । नाराज हो कर दिनकर ने उन से कहा कि  कुत्तों की तरह समीक्षा लिखी है । तो मुद्रा ने पलट कर दिनकर से कहा कि कुत्तों के बारे में कुत्तों की ही तरह लिखा जाता है । दिनकर चुप हो गए थे । ऐसा मुद्रा ख़ुद ही बताते हैं ।


मुद्राराक्षस शुरुआती दिनों में लोहियावादी थे । लोहिया के मित्र भी वह रहे । इतना कि  रंगकर्मी इंदिरा गुप्ता जी से मुद्राराक्षस का विवाह भी लोहिया ने ही करवाया। लेकिन यह देखिए बाद के दिनों में लोहिया से मुद्रा का मोहभंग हो गया । मुद्रा वामपंथी हो गए । लोहिया को फासिस्ट लिखने और बताने लग गए मुद्राराक्षस । बात यहीं नहीं रुकी मुद्रा जल्दी ही वामपंथियों के कर्मकांड पर टूट पड़े । माकपा एम को वह भाजपा एम कहने से भी नहीं चूके । सब जानते हैं कि मुद्राराक्षस एक समय अमृतलाल नागर के शिष्य थे । न सिर्फ़ शिष्य बल्कि उन का डिक्टेशन भी लेते थे । नागर जी की आदत थी बोल कर लिखवाने की । बहुत लोगों ने नागर जी का डिक्टेशन लिया है । मुद्रा भी उन में से एक हैं । मुद्रा नागर जी के प्रशंसकों में से एक रहे हैं । लेकिन कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के एक कार्यक्रम में अमृतलाल नागर पर जब उन्हें बोलने के लिए कहा गया तो मुद्राराक्षस ने जैसे फ़तवा जारी करते हुए कहा कि अमृतलाल नागर बहुत ही ख़राब उपन्यासकार थे । उपस्थित श्रोताओं , दर्शकों में उत्पात मच गया । नागर जी के तमाम प्रशंसक मुद्राराक्षस पर कुपित हो गए । लेकिन मुद्रा अड़ गए तो अड़ गए । नागर जी को वह ख़राब उपन्यासकार बताते ही रहे । इसी तरह एक समय मुद्राराक्षस भगवती चरण वर्मा को जनसंघी बताते नहीं थकते थे ।


लेकिन यह वही मुद्राराक्षस हैं जब दिल्ली में उन्हों ने एक समय साहित्य अकादमी को चुनौती दे दी थी । विष्णु प्रभाकर के आवारा मसीहा के छपने का साल था वह । चहुं और आवारा मसीहा की धूम थी । लेकिन आवारा मसीहा को साहित्य अकादमी नहीं दिया गया ।  मुद्राराक्षस ने तब दिल्ली में साहित्य अकादमी के समानांतर एक कार्यक्रम किया । देश भर के लेखकों को न्यौता भेजा । सब लोग अपने खर्चे पर दिल्ली पहुंचे । और विष्णु प्रभाकर को एक रुपए दे कर सम्मानित किया गया । साहित्य अकादमी के मुंह पर कालिख पोत दी थी मुद्राराक्षस ने तब । लेकिन बाद के दिनों में मुद्राराक्षस का नाम भी साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए एकाधिक बार चला । लेकिन हर बार वह कट गए । काट दिए गए । कथाक्रम के आयोजन का वह डिनर वाला रसरंजन कार्यक्रम मुझे आज भी नहीं भूला है । साहित्य अकादमी पुरस्कार की उन्हीं दिनों घोषणा हुई थी । रसरंजन के कुछ दौर के बाद अचानक चर्चा में साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी आ गया । श्रीलाल शुक्ल पर नशा तारी था । उन्हों ने बगल में बैठे मुद्राराक्षस को अचानक बहुत भावुक हो कर अपनी बाहों में मित्रवत भरा और कहा कि अगर मेरा वश चला होता तो अब की का साहित्य अकादमी पुरस्कार मुद्रा तुम्हें ही मिला होता । मुद्रा भी भावुक हो गए थे तब । लेकिन बाद में मुद्रा को जब पता चला कि  उस बार का साहित्य अकादमी तो मुद्राराक्षस को बस मिलते-मिलते रह गया था । नहीं मिला था तो बस इस लिए कि मुद्राराक्षस के नाम का तब ज्यूरी मेंबर के नाते श्रीलाल शुक्ल ने ही सब से ज़्यादा विरोध किया था । और मुद्रा का नाम तब कट गया था । तो मुद्रा बहुत क्षुब्ध हुए। कोई भी हो जाता । मुद्राराक्षस ने अपना यह क्रोध बाक़ायदा एक लेख में लिख कर व्यक्त भी किया । श्रीलाल जी दुनिया कूच कर गए । पर मुद्राराक्षस के उस सवाल का जवाब नहीं दे पाए । मुद्राराक्षस और श्रीलाल शुक्ल के संबंधों में खाई  पहले भी थी अब और भी चौड़ी हो गई थी । मेरे लिए श्रीलाल शुक्ल,  मुद्राराक्षस और कामतानाथ तीनों ही आदरणीय हैं । तीनों ही लोगों का स्नेह का सौभाग्य मुझे मिलता रहा है । लेकिन एक अप्रिय बात मुझे यहां कहने दीजिए कि श्रीलाल शुक्ल ने मुद्राराक्षस और कामतानाथ को अकेला और अपमानित करने के लिए अनेक यत्न किए । इस विशेष काम के लिए उन्हों ने तीन चार पट्ट शिष्य बड़े मनोयोग से तैयार किए । और दुर्भाग्य से अपने इन पट्ट शिष्यों की मदद से इस मकसद में श्रीलाल शुक्ल सौ फ़ीसदी सफल रहे । लेकिन इस सब में लखनऊ के साहित्यिक हल्के में जो तल्ख़ी के बीज पड़े आज वह फूल-फल कर भड़भाड़ के कांटे में तब्दील हैं , नागफनी में तब्दील हैं । मुझे यह भी ज़रूर कहने दीजिए कि कामतानाथ जी तो इस दुष्चक्र और अपमान की आंधी को पी गए , अकेले किए जाने का विष पी गए और कि अपने को बिखरने से बचा ले गए थे । इस लिए भी कि वह रिज़र्व बैंक से रिटायर्ड थे । पेंशनयाफ़्ता थे । भरा-पूरा परिवार भी उन का संबल था । ट्रेड यूनियन में लड़ने और संभलने का अनुभव था । एकला चलो की ज़िद भी उन में नहीं थी । कायस्थीय कमनीयता और मैनेजमेंट भी था उन में । सो वह किसी तरह अपने को संभाल ले गए । अगर कैंसर न हुआ होता उन्हें तो हंसते , मुसकुराते वह आज भी अपनी रचनाओं की तरह हमारे बीच उपस्थित रहते ।


 

लेकिन सब कुछ और सारे जीवट के बावजूद मुद्राराक्षस इस सब में बिखर गए । मुद्रा इस अकेले किए जाने के दुष्चक्र और अपमान की आह में बिन कुछ बोले घुलते गए हैं । तिस पर उन की उलटी तैराकी और धारा के विरुद्ध चलने , और एकला चलो की ज़िद उन्हें निरंतर पथरीली राह पर ढकेलती रही है । जवानी में तो सब कुछ संभव बन जाता है । कैसे भी , कुछ भी हो जाता है । लेकिन उम्र के साथ बदलते समय से मुद्राराक्षस ने आज भी समझौता नहीं किया है । एकला चलो की उन की ज़िद और जीवन शैली उन्हें शायद आज भी कहीं सहेजती है , ताकत देती है उन्हें । पर बिखरने से बचा नहीं पाती । तिस पर उन पर किसिम-किसिम के आक्रमण भी दाएं-बाएं से जब-तब होते ही रहते हैं । ख़ास कर प्रेमचंद को दलित विरोधी कह कर जैसे उन्हों ने बर्रइया के छत्ते में हाथ ही डाल दिया था । फिर तो क्या-क्या नहीं कहा गया । यह भी कि वह सुनार भी हैं ।


सच यह है कि लखनऊ में एक समय यशपाल , भगवती चरण वर्मा और अमृतलाल नागर की त्रिवेणी कही जाती थी । मतभेद उन में भी थे । होते ही थे । स्वाभाविक है । लेकिन वह लोग अपने मतभेद भी एक गरिमा के तहत ही निपटा लिया करते थे । वाकये कई सारे हैं । पर प्रसंगवश एक वाकया सुनाता हूं यहां । लखनऊ के महानगर कालोनी में भगवती चरण वर्मा का घर तब के दिनों बन चुका था । यशपाल जी का घर निर्माणाधीन था । भगवती बाबू के घर चित्रलेखा में कई सारे लेखक एक दिन बैठे थे । यशपाल और नागर जी भी थे । किसी ने यशपाल जी को सलाह दी कि आप भी अपने घर का नाम दिव्या रख लीजिए । यशपाल जी सुन कर भी टाल गए यह बात । लेकिन जब यह बात फिर से दुहराई गई तो यशपाल जी ने बहुत धीरे से प्रतिवाद किया और कहा कि मैं ने सिर्फ़ दिव्या ही नहीं लिखा है । बात आई , गई हो गई । किसी ने किसी की बात का बुरा भी नहीं माना । और नागर जी के पास तो जीवन पर्यंत अपना घर नहीं हो पाया । किराए के घर में ही वह अंतिम सांस लिए । ख़ैर , मैं मानता हूं की इस त्रिवेणी के विदा होने के बाद भी लखनऊ में एक त्रिवेणी पुनः उपस्थित थी । श्रीलाल शुक्ल , मुद्राराक्षस और कामतानाथ की त्रिवेणी । तीनों ही बड़े लेखक हैं । पर दुर्भाग्य से यह त्रिवेणी अपनी वह गरिमा शेष नहीं रख पाई । जो यशपाल , भगवती चरण वर्मा और अमृतलाल नागर की त्रिवेणी ने विरासत में छोड़ी थी । इस में श्रीलाल शुक्ल की जो एक्सरसाइज थी , सो तो थी ही , मुद्राराक्षस की एकला चलो की ज़िद , धारा के विरुद्ध चलने की अदा भी कम नहीं रही है । जैसे कि मुझे याद है कि जब कामतानाथ की पचहत्तरवीं जयंती मनाई गई तो उस कार्यक्रम की अध्यक्षता मुद्राराक्षस को ही करनी तय हुई थी । पर ऐन वक़्त पर मुद्रा ने आने से इंकार कर दिया । ऐसे और भी तमाम वाकये मुद्राराक्षस के जीवन में उपस्थित हैं । जैसे कि वह मुद्रा के आला अफसर की बहार के दिन थे । तब सोवियत संघ का ज़माना था । दर्पण के लोगों द्वारा आला अफसर के मंचन का कार्यक्रम सोवियत संघ के कई शहरों में बनाया गया । सोवियत संघ के ख़र्च पर । सभी कलाकारों के पासपोर्ट आदि बन गए । तारीखें तय हो गईं । सब ने जाने की अप्रतिम तैयारी कर ली । ऐन वक्त पर मुद्राराक्षस बिदक गए । सोवियत संघ में एक परंपरा सी थी कि नाटक के मंचन के लिए लेखक की लिखित अनुमति भी ज़रूरी होती थी । मुद्राराक्षस ने लिखित अनुमति देने से साफ इंकार कर दिया । दर्पण के लोगों ने बहुत समझाया । मनुहार किया । कहा कि आप को भी चलना है । मुद्रा बोले , मुझे जाना ही नहीं है । सोवियत संघ में आला अफ़सर का वह मंचन रद्द हो गया । दर्पण के लोग इस बाबत आज भी मुद्राराक्षस को माफ़ नहीं करते । मुद्रा का नाम आते ही किचकिचा पड़ते हैं । गरिया देते हैं । असल में मुद्रा के यहां असहमतियां बहुत हैं और उन से असहमत लोग भी बहुत हैं । बेभाव कहिए या थोक के भाव कहिए । 


लेकिन मुद्राराक्षस तो ऐसे ही हैं । वह अमूमन किसी के शादी - व्याह में  या पारंपरिक कार्यक्रम में भी कहीं नहीं देखे जाते । वह बुलाने पर भी नहीं जाते । एक समय एक फीचर एजेंसी राष्ट्रीय फ़ीचर्स नेटवर्क में मैं संपादक था । इस का कार्यालय तब विधानसभा मार्ग पर आकाशवाणी से सटा हुआ था । एक बार वहां मुद्राराक्षस अचानक आ गए । मैं बहुत ख़ुश हुआ । उन से लिखने का आग्रह किया । वह तुरंत मान गए । यह वर्ष 1994 -1995 का समय था । वह पहले हफ्ते में एक लेख लिखते थे । बाद में दो लेख लिखने लगे । विविध विषयों पर । बस उन की शर्त होती थी कि हर हफ़्ते भुगतान मिल जाना चाहिए । लेख चाहे जब छपे । तो वह हफ़्ते में तीन बार आते । दो बार लेख देने , एक बार भुगतान लेने । मुझ पर प्यार भी बहुत लुटाते । इसी प्यार के वशीभूत एक बार पारिवारिक कार्यक्रम में बुलाते हुए निमंत्रण पत्र दिया उन्हें । उन्हों ने आने से साफ इंकार कर दिया । कहने लगे ऐसे किसी कार्यक्रम में नहीं आता-जाता । मैं चुप रह गया था तब । बहुत बार किसी के निधन आदि पर अंत्येष्टि में भी वह अनुपस्थित होते हैं। हां  , लेकिन तीन बार अभी तक मैं ने उन्हें लोगों के निधन पर ज़रूर देखा है । एक अमृतलाल नागर के निधन पर वह बहुत ग़मगीन मिले भैसाकुंड पर । दूसरी बार राजेश शर्मा की आत्महत्या के बाद उन के घर पर उन के परिवार को सांत्वना देते हुए । और तीसरी बार श्रीलाल शुक्ल के निधन पर फिर भैसाकुंड पर । बहुत विचलित मुद्रा में । मुद्राराक्षस को जितना परेशान और विचलित श्रीलाल शुक्ल के निधन पर  देखा , उतना परेशान और विचलित मैं ने उन्हें कभी नहीं देखा । लगता था कि जैसे उन से , उन का क्या छिन गया है । ऐसे जैसे वह किसी गहरी यातना में हों । उन के चेहरे पर छटपटाहट की वह अनगिन रेखाएं मेरी आंखों में जैसे आज भी जागती मिलती हैं । तो इस का कारण भी है । श्रीलाल शुक्ल और मुद्राराक्षस दोनों का विविध विषयों पर अध्ययन लाजवाब था । विद्वता की प्रतिमूर्ति हैं दोनों । हिंदी , अंगरेजी , संस्कृत और संगीत पर दोनों की ही अद्भुत पकड़ थी , है ही । फ़र्क बस यह रहा कि मुद्राराक्षस ने कई बार अपने अतिशय अध्ययन का अतिशय दुरूपयोग किया है । ध्वंस की हद तक दुरुपयोग किया है । और उसे एकला चलो की ज़िद पर कुर्बान कर दिया है । बारंबार । श्रीलाल जी ने अपने अध्ययन का सुसंगत उपयोग किया है । कहूं कि मैनेज किया है । और इसी ' मैनेज ' के दम पर अनगिन बार मुद्राराक्षस को वह प्रकारांतर से उकसाते रहे हैं और मुद्राराक्षस अतियों की भेंट चढ़ते गए हैं । निरंतर ।


मुद्राराक्षस से जब मैं पहली बार मिला तब बीस साल का था । यह 1978 की बात है । गोरखपुर में मैं विद्यार्थी था । संगीत नाटक अकादमी की नाट्य प्रतियोगिता में मुद्राराक्षस बतौर ज्यूरी मेंबर गोरखपुर गए थे । लखनऊ से विश्वनाथ मिश्र और दिल्ली से देवेंद्र राज अंकुर भी बतौर ज्यूरी मेंबर पहुंचे थे गोरखपुर । अमृतलाल नागर ने उद्घाटन किया था । मुद्रा उन दिनों हाई हिल का जूता , मोटी नाट वाली टाई बांधे छींटदार बुश्शर्ट और कोट पहने मिले थे । सब लोग होटल में ठहरे थे पर मुद्राराक्षस परमानंद श्रीवास्तव के घर पर ठहरे थे । तब मुद्रा से मैं ने एक इंटरव्यू भी किया था । और उन से मिल कर एक नई ऊर्जा से भर गया था । उन दिनों वह रामसागर मिश्र कालोनी में रहते थे, जो अब इंदिरा नगर है । उन से चिट्ठी-पत्री होने लगी थी । वह इंटरव्यू दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्ठ पर तब के दिनों छपा भी था । उन्हीं दिनों मैं परिचर्चाएं भी बहुत लिखता था । रंगकर्मियों को ले कर एक परिचर्चा खातिर उन्हों ने तब न सिर्फ़ कई सारे नाम सुझाए बल्कि सब के पते भी लिखवाए । बंशी कौल , सुरेका सीकरी , मनोहर सिंह , उत्तरा  बावकर जैसे कई रंगकर्मियों के पते उन्हें तब जुबानी याद थे । कहा कि सब को मेरा नाम भी लिख सकते हैं , जवाब आएगा । सचमुच सब का जवाब आया था तब । बाद के दिनों मैं लखनऊ आता तो शाम के समय काफी हाऊस में प्रबोध मजूमदार , राजेश शर्मा के साथ वह एक कोने की मेज पर बैठे मिल जाते थे ।


मुद्राराक्षस ने राजनीतिक जीवन भी जिया है । दो बार चुनाव भी लड़ा है इसी लखनऊ में और अपनी ज़मानत भी ज़ब्त करवाई है । लेकिन राजनीति में भी कभी उन्हों ने समझौता नहीं किया है । कभी किसी के पिछलग्गू नहीं बने हैं । किसी की परिक्रमा नहीं की है । गरज यह कि साहित्य और ज़िंदगी की तरह वह राजनीति में भी सर्वदा अनफिट ही रहे हैं । नरसिंहा राव तब के दिनों प्रधानमंत्री थे । मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे । डंकल प्रस्ताव की दस्तक थी । पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह लखनऊ के एक सेमिनार में आए थे । सहकारिता भवन में  आयोजित डंकल प्रस्ताव के खिलाफ यह सेमिनार था । तमाम ट्रेड यूनियन के लोग उस में उपस्थित थे । विश्वनाथ प्रताप सिंह तब जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे । मुद्राराक्षस तब के दिनों लखनऊ शहर जनता दल के अध्यक्ष थे । कार्यक्रम शुरू होने की औपचारिकता हो चुकी थी । विश्वनाथ प्रताप सिंह मंच पर उपस्थित थे । अचानक मुद्राराक्षस आए । सुरक्षा जांच के तहत मेटल डिटेक्टर से गुज़रने को उन्हें कहा गया । मुद्रा बिदक गए । सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें समझाया कि पूर्व प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़ी यह प्रक्रिया है । मुद्रा का बिदकना जारी रहा । कहा कि मैं उन की पार्टी का शहर अध्यक्ष हूं , मुझ से भी ख़तरा है उन्हें ? और जब बिना जांच के उन्हें घुसने से मना कर दिया गया तो वह पलट कर कार्यक्रम से बाहर निकल गए । विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंच पर बैठे ही बैठे सब देख रहे थे । उन्हों ने कुछ कार्यकर्ताओं से कहा कि अरे , मुद्रा जी नाराज़ हो कर जा रहे हैं । उन्हें मना कर ले आइए । उन्हों ने पूर्व विधायक डी पी बोरा और उमाशंकर मिश्रा को इंगित भी किया । यह लोग लपक कर मुद्रा के पीछे लग गए । मुद्रा को मनाने लगे । लेकिन मुद्रा तो यह गया , वह गया हो गए । विधान भवन तक लोग मुद्रा को मनाते हुए आए । लेकिन मुद्रा नहीं लौटे तो नहीं लौटे । मैं उन दिनों नवभारत टाइम्स में था । कार्यक्रम की रिपोर्टिंग के लिए आया था । लेकिन कार्यक्रम छोड़ कर मैं भी साथ-साथ लग लिया यह देखने के लिए कि मुद्रा मानते हैं कि नहीं । मैं ने देखा कि मुद्रा किसी की बात सुनने को भी तैयार नहीं थे । लगातार कहते रहे कि अब इस अपमान के बाद लौटना मुमकिन नहीं है । 


मुद्राराक्षस के साथ ऐसी अनगिन घटनाएं उन के जीवन में उपस्थित हैं । भारत में उन दिनों विदेशी चैनलों की दस्तक और आहट के दिन थे । वर्ष 1996 की बात है । मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक ने स्टार में एडवाइजर बनाने के लिए बात करने को बुलाया था । निमंत्रण प्रस्ताव के साथ ही डॉलर वाला चेक भी नत्थी था । उन दिनों मैं राष्ट्रीय सहारा में आ चुका था । एक दिन मुद्रा जी राष्ट्रीय सहारा आए और रूपर्ट मर्डोक की वह चिट्ठी दिखाई सब के बीच और डॉलर वाला चेक भी । कहने लगे कि लेकिन मैं जाऊंगा नहीं । मेरे मुंह से निकल गया कि फिर यह चेक भी क्यों दिखा रहे हैं ? मुद्रा हंसे । और वह डॉलर वाला चेक तुरंत फाड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल दिया । मुद्राराक्षस के बहुत से उपकार मुझ पर हैं । पर एक उपकार के ज़िक्र का मोह छोड़ नहीं पा रहा हूं । एक बार नागर जी पर लिखे एक संस्मरणात्मक लेख में संकेतों में ही सही उन की ज़िंदगी में आई कुछ स्त्रियों का ज़िक्र कर दिया था । नागर जी से अपनी एक पुरानी बातचीत के हवाले से । राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय पृष्ठ पर यह संस्मरणात्मक लेख छपा था । उस में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था । लेकिन दफ़्तर के ही कुछ सहयोगियों ने नागर जी के सुपुत्र शरद नागर को भड़का दिया । शरद नागर मेरे ख़िलाफ़ लिखित शिकायत ले कर उच्च प्रबंधन के सम्मुख उपस्थित हो गए । मुझ से स्पष्टीकरण मांग लिया गया । मैं ने स्पष्टीकरण तो दे दिया पर संकट फिर भी टला नहीं था । जाने कैसे मुद्राराक्षस को यह सब पता चल गया । फोन कर के मुझ से दरियाफ़्त किया । मैं ने पूरा वाकया बताया । मुद्रा बोले , इस में ग़लत तो कुछ भी नहीं है । तुम ने कुछ भी ग़लत नहीं लिखा है । बल्कि बहुत कम लिखा है । ऐसे विवरण तो बहुत हैं नागर जी के जीवन में । मुझे बहुत पता है । और फिर कई और सारे वाकये बताए उन्हों ने । मुद्रा यहीं नहीं रुके । बिना मेरे कहे उच्च प्रबंधन से भी वह अनायास मिले और मेरी बात की पुरज़ोर तस्दीक की । कहा कि कुछ भी ग़लत नहीं लिखा है । बात ख़त्म हो गई थी । 


हज़रतगंज के काफी हाऊस में उन के साथ बैठकी के तमाम वाकये हैं । लेकिन एक वाकया भुलाए नहीं भूलता।  एक जर्मन स्कालर आई थी । वह भारतीय नाटकों और संगीत के बारे में जानना चाहती थी । वीरेंद्र यादव , राकेश , आदि कुछ और लोग भी थे । हिंदी उस की सीमा थी । अंगरेजी और संस्कृत लोगों की सीमा थी । अचानक मुद्राराक्षस ने हस्तक्षेप किया । और जिस तरह बारी-बारी संस्कृत और अंगरेजी में धाराप्रवाह बोलना शुरू किया , वह अद्भुत था । हम अवाक् देखते रहे मुद्रा को । एक बार ऐसे ही कैसरबाग़ के कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में संस्कृत के कोट दे-दे कर भरत मुनि के नाट्य शास्त्र की धज्जियां उड़ाते मैं मुद्रा को देख चुका था । लेकिन काफी हाऊस में मुद्रा की यह विद्वता देख कर मैं ही क्या सभी दंग थे । काफी हाऊस में पिन ड्राप साइलेंस था तब । भारतीय नाटकों और संगीत पर ऐसी दुर्लभ जानकारियां मुद्रा जिस अथॉरिटी के साथ परोस रहे थे , जिस तल्लीनता से परोस रहे थे वह विरल था । वह जर्मन स्कालर जैसे गदगद हो कर गई थी । उस की गगरी भर गई थी , ज्ञान के जल से । मुद्रा के लिए उस के पास आभार के शब्द नहीं रहा गए थे । निःशब्द थी वह । और हम मोहित । बाद के दिनों में एक दोपहर रस रंजन के समय इस घटना का ज़िक्र बड़े सम्मोहन के साथ मैं ने श्रीलाल शुक्ल से एक बैठकी में किया । श्रीलाल जी अभिभूत थे यह सुन कर। फिर धीरे से बोले अध्ययन तो है ही उस आदमी के पास । मैं ने जोड़ा , और शार्पनेस भी । श्रीलाल जी ने हामी भरी, सांस ली । और अफ़सोस के साथ बोले पर इस सब का तो वह लगभग दुरूपयोग ही कर रहे हैं ! लखनऊ मेरा लखनऊ में मनोहर श्याम जोशी ने आज के मुद्राराक्षस को तब के सुभाष चंद्र गुप्ता को जिस तरह उपस्थित किया है वह भी अविस्मरणीय है । 


स्त्री और दलित विमर्श के लिए झंडा भले राजेंद्र यादव के हाथ में चला गया था लेकिन मुद्राराक्षस के ज़रूरी हस्तक्षेप को हम भला कैसे भूल सकते हैं ? हां , यह भी ज़रूर है कि मुद्रा इस विमर्श में अति की हद तक निकल जाते रहे हैं । शायद इसी लिए वह कई बार बहुत लोगों को हजम नहीं हो पाते । उन की बात लोगों को चुभ-चुभ जाती है । मुद्रा का मकसद भी यही  होता है कि उन की बात लोगों को चुभे और ख़ूब चुभे । लेकिन इस फेर में वह दाल में नमक की जगह नमक में दाल भी ख़ूब करते रहे हैं । और बहुतेरे लोगों के लिए जहरीले बन कर उपस्थित होते रहे हैं । लेकिन मुद्रा ने कभी इस सब की परवाह नहीं की है । शायद करेंगे भी नहीं । उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने के लिए भी उन के संघर्ष को कैसे भूला जा सकता है ? कई-कई दिन तक उन्हें विधान भवन के सामने हमने धरना देते देखा है । बार-बार इस के लिए लड़ते देखा है । एक समय दलित मुद्दों को ले कर वह बहुत सक्रिय थे । मायावती उन्हीं दिनों मुख्यमंत्री बनीं । लोग कहने लगे कि हिंदी संस्थान की कुर्सी हथियाने का उपक्रम है यह । मैं ने लोगों से कहा कि फिर आप लोग मुद्राराक्षस को नहीं जानते । वह कैसे बन सकते थे ? बाग़ी और किसी कुर्सी पर ? नामुमकिन ! समाज के और ज़रूरी मसलों पर भी उन्हें जूझते देखा ही है लखनऊ की सड़कों ने , लोगों ने । मुद्रा चुप मार कर बैठ जाने वालों में से नहीं हैं । हार शब्द तो जैसे उन की डिक्शनरी में ही नहीं है । अख़बारी कालमों में उन की आग की तरह दहकती टिप्पणियां अभी भी मन में सुलगती मिलती हैं । वैसे भी वह कहानी , उपन्यास , नाटक आदि की जगह विचार को ज़्यादा तरजीह देते रहते हैं । घर की उन की लाइब्रेरी में भी साहित्य से ज़्यादा वैचारिक किताबें ज़्यादा मिलती हैं । रंगकर्मी राकेश उन्हें बुद्ध , कबीर और ग़ालिब का समुच्चय मानते हैं । राकेश ठीक ही कहते हैं । हां , यह ज़रूर है कि ग़ालिब और कबीर उन में ज़्यादा हैं । बुद्ध कम । ऐसा मेरा मानना है । राकेश ग़ालिब का एक क़िस्सा सुनाते हैं । कि ग़ालिब मस्जिद , नमाज़ , वमाज के फेर में नहीं पड़ते थे । पर एक बार शराब का टोटा पड़ा तो वह नमाज़ के लिए मस्जिद गए । अभी वजू कर ही रहे थे कि उन का एक साथी उन्हें पुकारते हुए , बोतल दिखाते हुए बोला कि , ग़ालिब साहब , ले आया हूं ! ग़ालिब बिना नमाज़ के लौटने लगे तो मौलवी ने टोका कि बिना नमाज़ के क्यों जा रहे हैं ? ग़ालिब बोले , जब वजू में ही क़ुबूल हो गई तो नमाज़ का क्या करना ! और मस्जिद से बाहर आ गए । मुद्रा के साथ भी यह सब है । मुद्रा के साथ रस-रंजन के भी कई क़िस्से हैं । लेकिन अभी एक ताज़ा क़िस्सा सुनिए । कथाक्रम में डिनर की रात शैलेंद्र सागर ने मुद्रा को घर पहुंचाने का जिम्मा मुझ पर डाल दिया । मैं ने सहर्ष स्वीकार लिया । अब हम दुर्विजय गंज की गलियों में भटक गए । मुद्रा जी भी अपनी गली नहीं पहचान पा रहे थे । भटकते-भटकते हम लोग मोती नगर की गलियों में बड़ी देर तक घूमते रहे । खैर किसी तरह पहुंचे 78 दुर्विजय गंज । अब दूसरे दिन भी लंच के बाद शैलेंद्र सागर ने फिर मुझे मुद्रा जी को घर पहुंचाने का जिम्मा दे दिया । मैं अचकचाया । उन्हें रात का क़िस्सा बयान किया । और बताया कि कल तो रात थी , अब दिन है , कार को बैक करने मोड़ने में भीड़ के कारण मुश्किल होगी । गलियां पतली हैं । शैलेंद्र सागर नहीं माने । एक सहयोगी ज़रुर साथ दे दिया । मदद के लिए । कि अगर घर तक कार न भी पहुंच पाए तो यह सहयोगी घर तक मुद्रा को पहुंचा देगा । अब यूनिवर्सिटी पेट्रोल  पंप पर पेट्रोल डलवाते समय मुद्रा ने उस सहयोगी से कुछ कहा । कहा कि पुल पार करते ही बाईं तरफ दुकान है । अब पुल पार करते ही उन्हों ने रुकने को कहा । मैं रुक गया । अब वह सहयोगी कार से उतरने को तैयार नहीं हो रहा था । मुद्रा बुदबुदाते हुए ह्विस्की की बात कर रहे थे । मैं ह्विस्की को बिस्किट सुन रहा था । मैं ने कहा भी कि आगे भी बहुत दुकानें मिलेंगी । मुद्रा बोले , यहीं ठीक रहेगा ।  मैं ने कहा कि कोई खास ब्रांड का बिस्किट है क्या ? साथ में एक कवियत्री भी थीं । वह बोलीं , बिस्किट नहीं , ह्विस्की कह रहे हैं । तब मैं अचकचाया । उस सहयोगी का कहना था कि मेरे गांव का या कोई परिचित देख लेगा तो क्या कहेगा ? और उस ने शराब की दुकान पर ह्विस्की लेने जाने से साफ इंकार कर दिया । मैं शराब आदि कभी ख़रीदता नहीं । सो मैं ने भी मना कर दिया । रास्ते में मुद्रा लगातार कहते  रहे अब तुम  मेरे दोस्त नहीं रहे । बुदबुदाते रहे , तुम कितने अच्छे दोस्त थे । लेकिन अब दोस्त नहीं रहे । आदि-आदि । मैं चुपचाप सुनता रहा । खैर इतवार होने के नाते बहुत भीड़ नहीं थी । सो कार कहीं फंसी नहीं । उन के घर आराम से पहुंच गए हम लोग । मुद्रा को कार से उतार कर उन के घर में दाखिल करते हुए  लगभग उन से माफ़ी मांगते  हुए कहा कि  माफ़ कीजिए , आप की फरमाइश पूरी नहीं कर पाया । मुद्रा ने मेरी पूरी बात सुने बिना कहा कोई माफ़ी नहीं , मुझे आग्नेय नेत्रों से देखा और फिर दुहराया कि अब तुम मेरे दोस्त नहीं रहे , भाग जाओ ! और घर में अकेले घुस गए । बाद में उन कवियत्री ने शिकायत भी की थी क़ि ऐसा कुछ हो सकने की संभावना थी तो आप मुझे पहले ही बता देते । मै कैसे भी आ जाती ? मैं ने उन से कहा अब यह सब मुझे भी कहां पता था ? लेकिन कल जब मुद्रा जी अपनों के बीच कार्यक्रम में वह मिले तो लपक कर गले लगा लिया मुझे । वैसे ही बच्चों की तरह निश्छल हंसी में मुदित । सर्वदा की तरह । 


कल उन के  जन्म-दिन की पूर्व संध्या पर यह कार्यक्रम सचमुच मुद्रा जी के लिए ही नहीं , लखनऊ के लिए भी सौभाग्य बन कर आया । जिस तरह तमाम लेखक , रंगकर्मी मुद्रा जी से सारे भेद-मतभेद बुला कर इकट्ठा हुए वह बहुत ही सैल्यूटिंग है । पूरा कार्यक्रम सब को ही इतना भावुक कर देने वाला था कि पूछिए मत । धाराप्रवाह बोलने वाले , बोलने में हरदम कठोर रहने वाले मुद्रा कल किसी मोमबत्ती की तरह पिघलते रहे , किसी बर्फ़ की सिल्ली की तरह गल-गल कर बहते रहे भावनाओं में । इतना कि जब उन के बोलने का समय आया तो वह ठीक से बोल नहीं पाए । कहा भी कई बार कि मैं आज ठीक से बोल नहीं पा रहा । लोगों ने समझा कि अस्वस्थता के कारण , कमजोर हो जाने के कारण वह नहीं बोल पा रहे । लेकिन सच यह नहीं था । सच यह था कि वह बहुत भावुक हो गए थे अपने सम्मान में बिछे सब को देख कर । इतना अपनत्व पा कर । अब तक उपेक्षित चले आ रहे व्यक्ति को अगर समूचा लखनऊ एक साथ सैल्यूट करने उतर आया हो तो कोई भी हो  , भले ही वह मुद्राराक्षस जैसा बाग़ी ही क्यों न हो , भावुक तो हो ही जाएगा । वह तो मुद्राराक्षस थे , उन की जगह जो कोई और होता तो वह मारे ख़ुशी के विह्वल हो कर रो पड़ता । सच मुद्रा को मैं ने जाने कितनी गरमी , बरसात , जाड़ा भोगते देखा है । जाने कितने संघर्ष , जीते-मरते और लड़ते देखा है । पर जितना भावुक होते कल उन्हें देखा है , कभी नहीं देखा । इस तरह तो नहीं ही देखा । एक बाग़ी भी भावुक हो सकता है , फिल्मों में तो बहुत बार देखा है , जीवन में पहली बार कल देखा है । हिंदी जगत के इस चंबल के बाग़ी को बयासी बरस का होने पर बहुत बधाई , बहुत प्रणाम ! वह शतायु हों , सकारात्मक विचार और जीवन जीएं अपने समूचे बागीपन के साथ यही कामना है ।



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किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...