सोमवार, 30 मई 2022

संभोग से समाधि की ओर....

 जितना आदमी प्रेम पूर्ण होता है। उतनी तृप्‍ति, एक कंटेंटमेंट, एक गहरा संतोष, एक गहरा आनंद का भाव, एक उपलब्‍धि का भाव, उसके प्राणों के रग-रग में बहने लगाता है। उसके सारे शरीर से एक रस झलकने लगता है। जो तृप्‍ति का रस है, वैसा तृप्‍त आदमी सेक्‍स की दिशाओं में नहीं जाता। जाने के लिए रोकने के लिए चेष्‍टा नहीं करनी पड़ती। वह जाता ही नहीं, क्‍योंकि वह तृप्‍ति, जो क्षण भर को सेक्‍स से मिलती थी, प्रेम से यह तृप्‍ति चौबीस घंटे को मिल जाती है।


      तो दूसरी दिशा है, कि व्‍यक्‍तित्‍व का अधिकतम विकास प्रेम के मार्गों पर होना चाहिए। हम प्रेम करें, हम प्रेम दें, हम प्रेम में जियें।


      और जरूरी नहीं है कि हम प्रेम मनुष्‍य को ही देंगे, तभी प्रेम की दीक्षा होगी। प्रेम की दीक्षा तो पूरे व्‍यक्‍तित्‍व के प्रेमपूर्ण होने की दीक्षा है। वह तो ‘टू बी लविंग’ होने की दीक्षा है।


      एक पत्‍थर को भी हम उठाये तो हम ऐसे उठा सकते है। जैसे मित्र को उठा रहे है। और एक आदमी का हाथ भी हम पकड सकते है, जैसे शत्रु का पकड़े हुए है। एक आदमी वस्‍तुओं के साथ भी प्रेमपूर्ण व्‍यवहार कर सकता है। एक आदमी आदमियों के साथ भी ऐसा व्‍यवहार करता है, जैसा वस्‍तुओं के साथ भी नहीं करना चाहिए। घृणा से भरा हुआ आदमी वस्‍तुएं समझता है मनुष्‍य को। प्रेम से भरा हुआ आदमी वस्‍तुओं को भी व्‍यक्‍तित्‍व देता है।


      एक फकीर से मिलने एक जर्मन यात्री गया हुआ था। उस फकीर से जाकर नमस्‍कार किया। उसने दरवाजे पर जोर से जूते खोल दिये, जूतों को पटका, धक्‍का दिया जोर से दरवाजे को।


      दरवाजे को धक्‍का देकर वह भीतर गया। उस फकीर से जाकर नमस्‍कार किया। उस फकीर ने कहा: नहीं, अभी मैं नमस्‍कार का उत्‍तर न दे सकूंगा। पहले तुम दरवाजे से और  जूतों से क्षमा मांग कर आओ।


      उस आदमी ने कहा, आप पागल हो गये है? दरवाज़ों और जूतों से क्षमा। क्‍या उनका भी कोई व्‍यक्‍तित्‍व है?


      उस फकीर ने कहा, तुमने क्रोध करते समय कभी भी न सोचा कि उनका कोई व्‍यक्‍तित्‍व है। तुमने जूते ऐसे पटके जैसे उनमें जान हो, जैसे उनका कोई कसूर हो। तुमने दरवाजा ऐसे खोला जैसे तुम दुश्‍मन हो। नहीं, जब तुमने क्रोध करते वक्‍त उनका व्‍यक्‍तित्‍व मान लिया,तो पहले जाओ, क्षमा मांग कर आ जाओ, तब मैं तुमसे आगे बात करूंगा। अन्‍यथा मैं बात करने को नहीं हूं।


      अब वह आदमी दूर जर्मनी से उस फकीर को मिलने गया था। इतनी सी बात पर मुलाकात न हो सकेगी। मजबूरी थी। उसे जाकर दरवाजे पर हाथ जोड़कर क्षमा मांगनी पड़ी कि मित्र क्षमा कर दो। जूतों को कहना पड़ा, माफ करिए,भूल हो गई, हमने जो आपको इस भांति गुस्‍से में खोला।


      उस जर्मन यात्री ने लिखा है कि लेकिन जब मैं क्षमा मांग रहा था तो पहले तो मुझे हंसी आयी कि मैं क्‍या पागलपन कर रहा हूं। लेकिन जब मैं क्षमा मांग चुका तो मैं हैरान हुआ। मुझे एक इतनी शांति मालूम हुई, जिसकी मुझे कल्‍पना तक नहीं थी। कि दरवाजे और जूतों से क्षमा मांग कर शांति मिल सकती है।


      मैं जाकर उस फकीर के पास बैठ गया, वह हंसने लगा। उसने कहां, अब ठीक है, अब कुछ बात हो सकती है। तुमने थोड़ा प्रेम जाहिर किया। अब तुम संबंधित हो सकते हो, समझ भी सकते हो। क्‍योंकि अब तुम प्रफुल्‍लित हो, अब तुम आनंद से भर गये हो।


      सवाल मनुष्‍यों के साथ ही प्रेमपूर्ण होने का नहीं, यह सवाल नहीं है कि मां को प्रेम दो? ये गलत बात है। जब कोई मां अपने बच्‍चे को कहती है कि मैं तेरी मां हूं इसलिए प्रेम कर। तब वह गलत शिक्षा दे रही है। क्‍योंकि जिस प्रेम में इसलिए लगा हुआ है। देअर फोर वह प्रेम झूठा है। जो कहता है, इसलिए प्रेम करो कि मैं बाप हूं, वह गलत शिक्षा दे रहा है। वह कारण बता रहा है प्रेम का।


      प्रेम अकारण होता है, प्रेम कारण सहित नहीं होता है।


      मां कहती है, मैं तेरी मां हूं, मैंने तुझे इतने दिन पाला-पोसा, बड़ा किया, इसलिए प्रेम कर। वह वजह बता रही है, प्रेम खत्‍म हो गया। अगर वह प्रेम भी होगा तो बच्‍चा झूठा प्रेम दिखाने की कोशिश करेगा। क्‍योंकि यह मां है। इसलिए प्रेम दिखाना पड़ रहा है।


      नहीं प्रेम की शिक्षा का मतलब है: प्रेम का कारण नहीं;  प्रेमपूर्ण होने की सुविधा और व्‍यवस्‍था कि बच्‍चा प्रेमपूर्ण हो सके।


ओशो - संभोग से समाधि की और—3

संभोग : समय-शून्‍यता की झलक (पोस्ट 34)


पोस्ट - 234/234

इतिहास की कुंज गलियों का भटकाव / रवि अरोड़ा

 

रवि अरोड़ा की नजर से......


यूं ही खाली बैठा इतिहास की एक किताब टटोल रहा था । किताब में लिखा था कि अंग्रेजों के आगमन से पूर्व तक वाकई भारत सोने की ही चिड़िया था । यही नहीं सोलहवीं सदी के आस-पास भारत की प्रति व्यक्ति आय अमेरिका, जापान, चीन और ब्रिटेन से भी अधिक थी । यानी सैंकड़ों वर्षों के मुगल एवम मुस्लिम आक्रमणकारियों के शासन के बाद भी विश्व की जीडीपी में भारतीय अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी सबसे अधिक थी ।


उधर, सत्रहवीं सदी में अंग्रेजों ने भारत पर कब्ज़ा किया और 1947 में अंगेज जब भारत को छोड़कर गए तब भारत का विश्व अर्थव्यवस्था में योगदान मात्र दो से तीन फीसदी ही रह गया था । बेशक मुगलों के शासन शुरू करने से पहले भी भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी मगर मुगलों के शासन यानी 1526-1793 के बीच भी भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी 1305 डॉलर थी जबकि इसी समय ब्रिटेन की प्रति व्यक्ति जीडीपी 1137 डॉलर, अमेरिका की 897 डॉलर और चीन की 940 डॉलर थी ।

 यही नहीं उस समय दुनिया की कुल आय में भी भारत की हिस्सेदारी 24.5% थी जो कि पूरे यूरोप की आय के बराबर थी । ये सारी जानकारियां आपसे सांझा करते समय मैं हैरान हूं कि आखिर क्या वजह है कि सत्ता पर काबिज़ लोगों की ज़बान पर आज सारी गालियां केवल मुस्लिम और मुगल शासकों के लिए ही आरक्षित हैं  जबकि उनके शासन काल में भी भारत की हालत बेहतर बनी रही और भारत को सही मायने में नोंचने वाले अंग्रेजों के बाबत इनके मुंह से एक शब्द नहीं निकलता ? 


इसमें कोई दो राय नहीं कि मुस्लिम हमलावरों ने भारत को जम कर लूटा और महमूद गजनी जैसे लुटेरे कई कई बार भारत को लूट कर ले गए मगर उस काल में तो यह पूरी दुनिया का चलन था । क्या अकेले भारत के साथ ही ऐसा हुआ था ? मुस्लिम हमलावरों के अतिरिक्त भारत को लूटने तो यूनानी, हूण , शक, कुषाण और न जाने कौन कौन आया ।

आधुनिक काल में भी डच , फ्रांसीसी, पुर्तगाली और अंग्रेज भी तो लूटपाट को ही आए थे। फिर सारा ज़हर मुस्लिम शासकों के हिस्से ही क्यों ? जबकि मुगल ही नहीं मुस्लिम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक, लोधी , गुलाम, खिलजी जैसे वंश तो अपने आठ सौ साल के शासन में यहीं के होकर रह गए और भारत की संपदा बाहर भी नहीं ले गए । तो क्या कारण है कि सही मायनों में भारत को तबाह करने वालों की सही सही शिनाख्त हम नहीं कर रहे ? 


माना मुस्लिम और मुगल शासकों ने मंदिर तोड़े और कई पर मस्जिदें तामीर करा दीं मगर ऐसा भी तो हमेशा से होता रहा है । अपनी शक्ति का एहसास कराने को हमारे हिंदू राजा भी तो दुश्मन हिंदू राजा के मंदिर तोड़ देते थे और उनकी मूर्तियां लूट लेते थे । सनातनी राजा पुष्पमित्र शुंग ने तो बौद्धों के 64 हजार स्तूप , शिलालेख और मठ तोड़े थे ।

बात कड़वी है मगर सच्चाई यही है कि सनातन धर्म में मंदिर और मूर्तियों का चलन तो बौद्ध और जैनियों की देखादेखी ही आया और हजारों की संख्या में मंदिर उनके धार्मिक स्थानों पर कब्जा करके ही बनने के आरोप लगते रहे हैं । जगन्नाथ मंदिर के पहले बौद्ध मंदिर , तिरुपति मंदिर के जैन मंदिर होने के प्रमाण समय समय पर सामने आते रहे हैं । बालाजी और सबरी माला जैसे सैंकड़ों मंदिरों की भी यही कहानी है । अब कहां कहां तक हम पीछे इतिहास में झांकेंगे, कहां कहां खुदाईयां कराएंगे ?

आज हिन्दू अपनी मूर्तियां खोज रहे हैं , कल को जैन और बौद्ध यही मांग करेंगे । क्या पता मुस्लिम भी कोई नई कहानी निकाल लाएं । किस की मांग देश पूरी करेगा और क्यों करेगा ? वैसे भी यदि सारी मशक्कत इतिहास की कुंज गलियों की भटकन में ही करते रहेंगे तो भविष्य की बुलंद इमारत कब तामीर करेंगे ?


शनिवार, 28 मई 2022

"गिरेबां"*/ अनंग

 *


जो   पाक  गिरेबां   रखते   हैं।

महफिल में वही तो जचते हैं।।


सच्चाई   साथ  रही   जिनके।

सदियों  से वही तो  दिखते हैं।।


इस  धरती पर  वीरों के  लिए।

हर  समर  शेष  ही  रहते  हैं।।


जीना  सीखा  लोगों  के  लिए।

हम  अमर उन्हें  ही  कहते  हैं।।


जिन शांखो में है अकड़ अधिक।

तुफां  में   वही  तो   ढहते  हैं ।।


पाकर   दुलार   पानी  का  वे।

पत्थर  भी  गलकर  बहते  हैं।।


करने  आता   है  प्यार   हमे।

इसलिए   थपेड़े   सहते   हैं।।


मेहनत के बिना जिन्हे मिलता।

जब  देखो  खूब   बहकते  हैं।।..

.*"अनंग"*

गुरुवार, 26 मई 2022

सवाल जवाब का saarv



💠 *स्वर्ग* में सब कुछ हैं लेकिन *मौत* नहीं है, 

*गीता* में सब कुछ हैं लेकिन *झूठ* नहीं है, 

*दुनिया* में सब कुछ हैं लेकिन किसी को *सुकून* नहीं है, 

                  और 

आज के *इंसान* में सब कुछ हैं लेकिन *सब्र* नहीं है।


*राजा भोज* ने *कवि कालीदास* से *दस सर्वश्रेष्ठ* सवाल किए..


1- दुनिया में भगवान की *सर्वश्रेष्ठ रचना* क्या है ?

                         उत्तर - *''मां''*

2 - सर्वश्रेष्ठ *फूल* कौन सा है ?

                         उत्तर - *"कपास का फूल"*

3 - सर्वश्र॓ष्ठ *सुगंध* कौनसी है ?

          उत्तर - *वर्षा से भीगी मिट्टी की सुगंध*

4 - सर्वश्र॓ष्ठ *मिठास* कौनसी ?

                        उत्तर - *"वाणी की"*

5 - सर्वश्रेष्ठ *दूध* ?

                        उत्तर - *"मां का"*

6 - सबसे से *काला* क्या है ?

                        उत्तर - *"कलंक"*

7 - सबसे भारी क्या है?

                         उत्तर - *"पाप"*

8 - सबसे *सस्ता* क्या है ?

                         उत्तर -  *"सलाह"*

9 - सबसे *महंगा* क्या है ?

                         उत्तर -  *"सहयोग"*

10 - सबसे *कडवा* क्या है?

                           ऊत्तर - *"सत्य"* 


🎐अगर मेरे पास एक रुपया है एवं आपके पास भी एक रुपया है और हम एक दूसरे से बदल ले तो दोनों के पास एक एक रुपया ही रहेगा ।


                    _किंतु_


अगर मेरे पास एक  अच्छा विचार है एवं आपके पास एक अच्छा विचार है और दोनों आपस में बदल ले तो दोनों के पास दो दो विचार होंगे !


                  _है न ……!!_


तो अच्छे विचारों का आदान प्रदान जारी रखिये...

                       और 

         अपनी मानसिक पूंजी बढ़ाते रहिये ।


   🚩☝ *मंजिल वही, सोच नई*☝🚩

,

ऊपर जाने पर एक सवाल ये भी पूँछा जायेगा कि अपनी अँगुलियों के नाम बताओ ।

जवाब:-

अपने हाथ की छोटी उँगली से शुरू करें :-

(1)जल

(2) पथ्वी

(3)आकाश

(4)वायू

(5) अग्नि

ये वो बातें हैं जो बहुत कम लोगों को मालूम होंगी ।


5 जगह हँसना करोड़ो पाप के बराबर है

1. श्मशान में

2. अर्थी के पीछे

3. शोक में

4. मन्दिर में

5. कथा में


सिर्फ 1 बार भेजो बहुत लोग इन पापो से बचेंगे ।।


अकेले हो?

परमात्मा को याद करो ।


परेशान हो?

ग्रँथ पढ़ो ।


उदास हो?

कथाए पढो ।


टेन्शन मे हो?

भगवत गीता पढो ।


फ्री हो?

अच्छी चीजे फोरवार्ड करो

हे परमात्मा हम पर और समस्त प्राणियो पर कृपा करो......


सूचना

क्या आप जानते हैं ?

हिन्दू ग्रंथ रामायण, गीता, आदि को सुनने,पढ़ने से कैन्सर नहीं होता है बल्कि कैन्सर अगर हो तो वो भी खत्म हो जाता है।


आरती----के दौरान ताली बजाने से

दिल मजबूत होता है ।


ये मेसेज असुर भेजने से रोकेगा मगर आप ऐसा नही होने दे और मेसेज सब नम्बरो को भेजे ।


श्रीमद भगवत गीता पुराण और रामायण ।

🙏🏻🙏🏻🌹🌹🙏🏻🙏🏻```

[5/27, 09:38] D दिलीप कुमार सिन्हा भैया: 🤔🤔🤔🤔🤔


एक व्यक्ति सुबह-सुबह थोड़ा सा आध्यात्मिक हो गया और आंखें बंद करके सोचने लगा :* 🤔


1. कौन हूँ मैं ?

2. कहाँ से आया हूँ ?

3. क्यों आया हूँ ?

4. कहाँ जाना है ?


इन प्रश्नों के चिंतन में वह इतना खो गया कि समय का ध्यान नहीं रहा।

तभी किचन से पत्नी की आवाज़ आई,-


“1. एक नम्बर के आलसी हो तुम, 

2. पता नहीं कौन सी दुनिया से आये हो,

3. मेरा जिंदगी खराब करने,

4. उठो और नहाने जाओ."


चारों प्रश्नों का बड़ी सुगमता से उत्तर मिलने से उसकी आध्यात्मिक यात्रा पूरी होने के साथ संपूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो गई !

 😂😂

पूर्व के पाप से हरिचर्चा नहीं सुहाय।

 "तुलसी पूर्व के पाप से हरिचर्चा नहीं सुहाय।
जैसे ज्वर के जोर से भूख विदा हो जाय।।"🚩

मनुष्य के पूर्वजन्मों के पापों की वजह से बहुत से लोगो को हरी के कीर्तन, हरि की चर्चा, हरि का भजन। चौपाइयां आदि अच्छे नही लगते क्योकि पूर्वजन्म के पाप  उन्हें हरि के नज़दीक नही जाने देते।।।जैसे मनुष्य को बुखार आने पर भूख नही लगती। चाहे आप उसे कितने ही पकवान क्यो न खिलाये भूख विदा हो जाती है। वैसे ही पूर्व जन्म के पापों की वजह भगवान की चर्चा अच्छी नही लगती।


  सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।

                 जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।🚩


भगवान राम कहते है । जीव ज्यों ही मेरे सन्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ो जन्मो के पाप नष्ट हो जाते हैं।


अच्छे कर्म करे। हो सके तो संतो का संग करे , गलत संगत से बचे। अच्छे लोगो का संग करे।।

पापो से दूरी वनाकर रखे। ये जीवन अगले जीवन की तैयारी है। पिछले जीवन को अब हम भोग रहे है।। अब जो करेंगे वो अगले जन्म में काम आयेगा।।


🙏🙏।।मेरे प्रभु राम।। जय हो राजाराम की।🙏🙏

रविवार, 22 मई 2022

मगही के कबीर राम पुकार सिंह / मुकेश प्रत्यूष



मगही  के कबीर के नाम से विख्यात निर्गुण धारा के उपासक कवि राम पुकार सिंह राठौर का निधन हो गया।  वे लगभग 93 वर्ष के थे।  


हमेशा धोती, कुर्ता  और गांधी टोपी पहनने वाले राठौर जी  से मेरी पहली मुलाकात 1976 के आसपास हुई थी।  जब मैंने कविताएं लिखनी शुरू की थी। बाल-सुलभ उत्साह था।  उन दिनों  गया में कई महत्वपूर्ण रचनाकार रहते थे।  मोहनलाल महतो वियोगी, सुरेंद्र चौधरी,  राम नरेश पाठक, नारायण लाल कटारिया,,  योगेन्द्र  चौधरी,   हंसकुमार तिवारी, विश्वनाथ  सिंह,  बैजनाथ प्रसाद खेतान,अवधेन्द्र देव नारायण,  गोपाल लाल सिजुआर,  शिल्पी सुरेंद्र, गोवर्द्धन प्रसाद समय, रामपुकार सिंह राठौर,  राम सिंहासन सिंह विद्यार्थी, मणिलाल आत्मज  और कई  लोग अभी याद नहीं आ रहे  अब ये सभी दिवंगत हो चुके हैं । हम लगभग रोज मिलते। 


प्रवीण परिमल  और सुरेश कुमार  मेरे सहपाठी थे। हम तीनों ने एक पत्रिका निकालने की योजना बनाई।  नाम रखा मृगांक।  

पहले से भी कई पत्र-पत्रिकाएं निकल रही  थीं  लेकिन जनभागीदारी या जनस्वीकृति  नहीं थी।  हमारी इस शुरुआत को सबने अपना माना। रचनात्मक सहयोग  पूरे देश  से मिला।   अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपनी एक लंबी  कहानी भेजी जिसे  हमने दो  अंकों  में प्रकाशित  किया था।वियोगीजी से लेकर  लगभग सभी  गयावाल पंडों ने आर्थिक सहायता की। लोग हंसते पंडे सभी से दक्षिणा लेते हैं और ये लोग  पंडों से।  शिल्पी सुरेंद्र ने आवरण से लेकर विमोचन समारोह के   बैनर तक को  बनाया। उन दिनों गया के कलेक्टर थे महेश प्रसाद।  एक दिन हम उनसे  भी मिले।  उन्होंने न केवल आर्थिक मदद की बल्कि प्रवेशांक के  विमोचन के लिए ड्राइवर नहीं रहने के बावजूद  खुद गाड़ी चला   कर आये।  


 इस पूरे उद्यम में रामपुकार सिंह राठौर एक वरिष्ठ सहयोगी या कहें बड़े भाई की तरह हर समय  हमारे साथ रहे और  आश्वस्त करते रहे चिंता की कोई  बात  नहीं, घटे-बढेगा तो देख लेंगे। शिल्पी सुरेंद्र  उनके इसी गुण के कारण  लोडेड गन कहते थे।


बाद के दिनों में स्थानांतरण की विवशता के कारण  मुझे गया छोड़ना पड़ा।  हम एक दूसरे का कुशल-क्षेम लेते रहे। कभी-कभार मुलाकात भी हो जाती। हाल के दिनों में पता चला उम्र और स्वास्थ्य संबंधी कारणों की वजह से  राठौर जी अब  अपने गांव चले गए हैं। हाल-चाल  लेता  रहा और यह सोचता रहा एक बार  उनके गांव जाकर  उनसे मिलूंगा। 


आज जब यह सूचना मिली तो मन पुराने दिनों की ओर लौट गया है। 


मृगांक  विमोचन समारोह की कुछ  तस्वीरें मिली हैं। दूसरी तस्वीर मे बीच में   और तीसरी तस्वीर  में सबसे किनारे  बैठे हुए   राठौर  जी।

रवि अरोड़ा ki नजर से.......

 #खुद_को_पहचानो


एक बार की बात है कि एक बाज का अंडा मुर्गी के अण्डों के बीच आ गया कुछ दिनों बाद उन अण्डों में से चूजे निकले बाज का बच्चा भी उनमे से एक था वो उन्ही के बीच बड़ा होने लगा वो भी वही करता जो बाकी चूजे करते मिटटी में इधर-उधर खेलता दाना चुगता और दिन भर उन्ही की तरह चूँ-चूँ करता बाकी चूजों की तरह वो भी बस थोडा सा ही ऊपर उड़ पाता और पंख फड़-फडाते हुए नीचे आ जाता फिर एक दिन उसने एक बाज को खुले आकाश में उड़ते हुए देखा बाज बड़े शान से बेधड़क उड़ रहा था तब उसने बाकी चूजों से पूछा कि इतनी उचाई पर उड़ने वाला वो शानदार पक्षी कौन है..?


तब चूजों ने कहा-” अरे वो बाज है पक्षियों का राजा, वो बहुत ही ताकतवर और विशाल है लेकिन तुम उसकी तरह नहीं उड़ सकते क्योंकि तुम तो एक चूजे हो!


बाज के बच्चे ने इसे सच मान लिया और कभी वैसा बनने की कोशिश नहीं की वो बिना अपनी ताकत जाने ही चूजों की तरह रह कर अपनी ज़िन्दगी बिताने लगा


एक दिन ऊपर उड़ने वाले बाज की नज़र उन चूजों के झुण्ड में पड़ी और देखा इन चूजों के झुण्ड में एक बाज जो चूजों की तरह ही हरकते कर रहा है थोड़ा ही ऊपर उड़ कर फड़फड़ाकर नीचे गिर जा रहा है.


बाज को उस पर तरस आ गया और उसके पास जा कर उसे कहने लगा तू तो बाज है तू इस चूजों के बीच रहकर क्या कर रहा है तू भी तो मेरी तरह ऊपर ऊँची उड़ान भर सकता है


लेकिन चूजों के बीच बैठा बाज का वो जवान बच्चा इस बात को मानने को तैयार ही नही था वो कह रहा था नहीं मैं तो चूजा हूँ और मुझमे इतनी काबिलियत नहीं कि मैं तुम्हारी तरह ऊँची ऊँची उड़ान भर सकूँ


तब बाज़ से रहा नही गया और उसने उस चूजे के बीच रहने वाले बाज के बच्चे को उसकी काबिलियत दिखाने के लिए उसे समझाने की कोशिश की, कि देख तेरे पंख भी मेरी तरह फैलते हैं चल तू मेरे साथ उड़ना शुरू कर लेकिन वो बाज का बच्चा फिर भी नही माना तो बाज ने चूजों के झुण्ड के बीच उस बाज़ के बच्चे को अपने पैर और चोंच से उठा कर ऊपर आसमान की उचाईयों में ले गया और उस ऊंचाई से ही उस जवान बाज के बच्चे को छोड़ दिया छूटते ही जवान बाज चिल्लाते हुए नीचे की और गिरने लगा ।


तभी बाज़ ऊपर से जोर से चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा तू बाज़ है तू बाज़ है तू अपने पँखों को फैला कर तो देख तू नीचे गिरते जा रहा है और निचे गिरते तेरी मौत निश्चित है इसलिए तू अपने आप को पहचान तू अपनी ताकत पहचान तेरा उड़ने का दायरा चूजों से कहीँ ज्यादा है.


उस बाज की आवाज़ सुनकर और खुद को ज़मीन की और गिरता देखकर बाज़ के बच्चे ने जैसे ही अपने पंख फैलने की कोशिश की उसके पँख पूरी तरह से फ़ैल गए और जैसे ही पंखों को हिलाया ऊपर की ओर उड़ने लगा और आखिर आसमान की उचाईयों पर अपनी उड़ान भरने लगा और तब उसे अपनी काबिलियत का अहसास हुआ।


हम जीव आत्माओं को भी परमात्मा ने मालिक तक पहुचने की ने ऐसी उड़ान, ऐसी ताकत बक्शी हुई है कि अपनी उड़ान से अपनी आत्मा को रूहानी मण्डलों की ऊंचाई पर ले जा सकें । लेकिन हमने अपना दायरा उस चूजे के जैसा कर दिया है  एक बार अगर हमने अपनी ताकत को, अपनी प्रतिभा को, अपनी क्षमताओं को पहचान लिया तो फिर हमको उन रूहानी बुलंदियों तक पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता सो हमें चाहिये चूजा समझ कर खुद को छोटे छोटे दायरों में ना सिमटे रहें, बल्कि बाज़ की तरह अपनी ताकत और अपने दायरे को बड़ा करें और खुद को पहचाने, खुद की ताकत को पहचानो

मंगलवार, 17 मई 2022

काश........

( *धीरे धीरे पढ़े.... पूरा पढ़कर बहुत सकूं मिलेगा ✍🏻✍🏻*)


प्रस्तुति  - सीताराम मीणा 


▪︎प्यास लगी थी गजब की मगर पानी मे जहर था...

पीते तो मर जाते और ना पीते तो भी मर जाते


▪︎बस यही दो मसले, जिंदगीभर ना हल हुए!!!

ना नींद पूरी हुई, ना ख्वाब मुकम्मल हुए!!!


▪︎वक़्त ने कहा.....काश थोड़ा और सब्र होता!!!

सब्र ने कहा....काश थोड़ा और वक़्त होता!!!


▪︎सुबह सुबह उठना पड़ता है कमाने के लिए साहेब...।। 

आराम कमाने निकलता हूँ आराम छोड़कर।।


▪︎"हुनर" सड़कों पर तमाशा करता है और "किस्मत" महलों में राज करती है!!


"शिकायते तो बहुत है तुझसे ऐ जिन्दगी, 

पर चुप इसलिये हु कि, जो दिया तूने,

 वो भी बहुतो को नसीब नहीं होता"..


▪︎अजीब सौदागर है ये वक़्त भी!!!!

जवानी का लालच दे के बचपन ले गया....

अब अमीरी का लालच दे के जवानी ले जाएगा. ......


▪︎लौट आता हूँ वापस घर की तरफ हर रोज़ थका-हारा...

आज तक समझ नहीं आया की जीने के लिए काम करता हूँ या काम करने के लिए जीता हूँ।


▪︎भरी जेब ने 'दुनिया' की पहचान करवाई और खाली जेब ने 'अपनो' की.


▪︎जब लगे पैसा कमाने, तो समझ आया,

शौक तो मां-बाप के पैसों से पुरे होते थे,

अपने पैसों से तो सिर्फ जरूरतें पुरी होती है। ...!!!


▪︎हंसने की इच्छा ना हो तो भी हसना पड़ता है...

कोई जब पूछे कैसे हो...??

तो मजे में हूँ कहना पड़ता है...


▪︎ये ज़िन्दगी का रंगमंच है दोस्तों....

यहाँ हर एक को नाटक करना पड़ता है.


▪︎"माचिस की ज़रूरत यहाँ नहीं पड़ती...

यहाँ आदमी आदमी से जलता है...!!"


दुनिया के बड़े से बड़े साइंटिस्ट,

ये ढूँढ रहे है की मंगल ग्रह पर जीवन है या नहीं...पर आदमी ये नहीं ढूँढ रहा

कि जीवन में मंगल है या

मंगल में ही जीवन है.....✍

शुक्रवार, 13 मई 2022

-पता ही-नहीं-चला*.li/


पता-ही-नहीं-चला*.li


अरे सखियो कब 30+, 40+, 50+ के हो गये 

                        पता ही नहीं चला। 

कैसे कटा 21 से 31,41, 51 तक का सफ़र 

                       पता ही नहीं चला 

क्या पाया  क्या खोया  क्यों खोया 

                       पता ही नहीं चला 

बीता बचपन  गई जवानी  कब आया बुढ़ापा 

                      पता ही नहीं चला 

कल बेटी थे  आज सास हो गये 

                       पता ही नहीं चला 

कब मम्मी से नानी बन गये 

                        पता ही नहीं चला 

कोई कहता सठिया गयी  कोई कहता छा गयीं

                  क्या सच है 

                       पता ही नहीं चला 


पहले माँ बाप की चली  फिर पतिदेव की चली 

              अपनी कब चली    

                       पता ही नहीं चला 


पति महोदय कहते अब तो समझ जाओ 

             क्या समझूँ  क्या न समझूँ न जाने क्यों 

                        पता ही नहीं चला 

        

दिल कहता जवान हूं मैं उम्र कहती नादान हुं मैं 

               इसी चक्कर में  कब घुटनें घिस गये 

                        पता ही नहीं चला 


झड गये बाल  लटक गये गाल  लग गया चश्मा 

                             कब बदलीं यह सूरत 

                       पता ही नहीं चला 


मैं ही बदली  या बदली मेरी सखियां 

                             या समय भी बदला 

     कितनी छूट गयीं    कितनी रह गयीं सहेलियां 

                      पता ही नहीं चला 


कल तक अठखेलियाँ करते थे सखियों के साथ 

                 आज सीनियर सिटिज़न हो गये 

                       पता ही नहीं चला 


अभी तो जीना सीखा है   कब समझ आई

                                 

पता ही नहीं चला 


आदर  सम्मान  प्रेम और प्यार 

          वाह वाह करती कब आई ज़िन्दगी 

                       पता ही नहीं चला 


बहु  जमाईं नाते पोते  ख़ुशियाँ लाये  ख़ुशियाँ आई 

               कब मुस्कुराई   उदास ज़िन्दगी 

                        पता ही नहीं चला 


 जी भर के जी लो प्यारी सखियो  फिर न कहना

                               

 *पता ही नहीं चला*

मंगलवार, 10 मई 2022

विद्रोही " / अनंग

 " 

नया - नया  इतिहास  बताने लगता है।

वह  मेरा  विश्वास   डिगाने  लगता  है।।

दिखा-दिखाकर उंगली विद्रोही कहता। 

तथ्य   बताने  पर  घबराने   लगता  है।।

कायर अज्ञानी क्या-क्या कहने लगता। 

खुद  को  देशभक्त दिखलाने लगता है।। 

मनवाने को व्याकुल अपनी बात सभी। 

भड़काऊ   पुस्तकें  जुटाने  लगता  है।। 

अब तक लिखी-सुनी बातें सब झूठी हैं।

वह  तो  उल्टी  धार  बहाने  लगता  है।। 

सभी  बुजुर्गों - विद्वानों को झूठा कह।

जाने   कैसी   बात  सुनाने  लगता  है।।

आजादी के जो  नायक थे उन पर ही।

नए - नए  इल्जाम  लगाने  लगता  है।। 

अंग्रेजों  की  तरह  तोड़ने  वालों  का। 

विरुदावली गुणगान वो गाने लगता है।। 

चमन  सजाया  जाने  कितने फूलों ने।

वह सब पर अधिकार जताने लगता है।।..."

अनंग "

माँ का पल्लू

 *गुरुजी ने कहा कि मां के पल्लू पर निबन्ध लिखो..*🙏🏻


 *तो लिखने वाले छात्र ने क्या खूब लिखा.....*

     

*"पूरा पढ़ियेगा आपके दिल को छू जाएगा"* 🥰


       आदरणीय गुरुजी जी...

    माँ के पल्लू का सिद्धाँत माँ को गरिमामयी

 छवि प्रदान करने के लिए था.


  इसके साथ ही ... यह गरम बर्तन को 

   चूल्हा से हटाते समय गरम बर्तन को 

      पकड़ने के काम भी आता था.


        पल्लू की बात ही निराली थी.

           पल्लू पर तो बहुत कुछ

              लिखा जा सकता है.


 पल्लू ... बच्चों का पसीना, आँसू पोंछने, 

   गंदे कान, मुँह की सफाई के लिए भी 

          इस्तेमाल किया जाता था.


   माँ इसको अपना हाथ पोंछने के लिए

           तौलिया के रूप में भी

           इस्तेमाल कर लेती थी.


         खाना खाने के बाद 

     पल्लू से  मुँह साफ करने का 

      अपना ही आनंद होता था.


      कभी आँख में दर्द होने पर ...

    माँ अपने पल्लू को गोल बनाकर, 

      फूँक मारकर, गरम करके 

        आँख में लगा देतीं थी,

   दर्द उसी समय गायब हो जाता था.


माँ की गोद में सोने वाले बच्चों के लिए 

   उसकी गोद गद्दा और उसका पल्लू

        चादर का काम करता था.


     जब भी कोई अंजान घर पर आता,

           तो बच्चा उसको 

  माँ के पल्लू की ओट ले कर देखता था.


   जब भी बच्चे को किसी बात पर 

    शर्म आती, वो पल्लू से अपना 

     मुँह ढक कर छुप जाता था.


    जब बच्चों को बाहर जाना होता,

          तब 'माँ का पल्लू' 

   एक मार्गदर्शक का काम करता था.


     जब तक बच्चे ने हाथ में पल्लू 

   थाम रखा होता, तो सारी कायनात

        उसकी मुट्ठी में होती थी.


       जब मौसम ठंडा होता था ...

  माँ उसको अपने चारों ओर लपेट कर 

    ठंड से बचाने की कोशिश करती.

          और, जब बारिश होती तो,

      माँ अपने पल्लू में ढाँक लेती.


  पल्लू --> एप्रन का काम भी करता था.

  माँ इसको हाथ तौलिया के रूप में भी 

           इस्तेमाल कर लेती थी.


 पल्लू का उपयोग पेड़ों से गिरने वाले 

  मीठे जामुन और  सुगंधित फूलों को

     लाने के लिए किया जाता था.


     पल्लू में धान, दान, प्रसाद भी 

       संकलित किया जाता था.


       पल्लू घर में रखे समान से 

 धूल हटाने में भी बहुत सहायक होता था.


      कभी कोई वस्तु खो जाए, तो

    एकदम से पल्लू में गांठ लगाकर 

          निश्चिंत हो जाना ,  कि 

             जल्द मिल जाएगी.


       पल्लू में गाँठ लगा कर माँ 

      एक चलता फिरता बैंक या 

     तिजोरी रखती थी, और अगर

  सब कुछ ठीक रहा, तो कभी-कभी

 उस बैंक से कुछ पैसे भी मिल जाते थे.


       *मुझे नहीं लगता, कि विज्ञान पल्लू का विकल्प ढूँढ पाया है !*


*मां का पल्लू कुछ और नहीं, बल्कि एक जादुई एहसास है !*


स्नेह और संबंध रखने वाले अपनी माँ के इस प्यार और स्नेह को हमेशा महसूस करते हैं, जो कि आज की पीढ़ियों की समझ में आता है कि नहीं........

*अब जीन्स पहनने वाली माएं, पल्लू कहाँ से लाएंगी*

            *पता नहीं......!!*

*सभी माताओं को नमन*


🙏🏻🌹🙏🏻

सोमवार, 9 मई 2022

रवि अरोड़ा की नजर से.......

 रहनुमाओं की अदा / रवि अरोड़ा


इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो ।


आज सुबह से मशहूर शायर दुष्यंत कुमार बहुत याद आ रहे हैं । एक दौर था जब साहित्य, समाज और राजनीति शास्त्र के सभी विद्यार्थियों को दुष्यंत की किताब 'साये में धूप' की तमाम गज़लें गीता कुरान की तरह कंठस्थ होती थीं । सातवें दशक के जेपी आंदोलन से लेकर अन्ना आंदोलन तक ऐसा कोई राजनीतिक सामाजिक मुहिम नहीं गुजरा जिसमें दुष्यंत कुमार के शेर पूरी शिद्दत से न गूंजे हों।

बेशक आज भी दुष्यंत के चाहने वाले कम नहीं हैं मगर फिर भी हाल ही के वर्षों में राजनैतिक सामाजिक मूल्य जिस तेज़ी से बदले हैं , दुष्यंत कुमार जैसे लोगों और उनके कलाम को आम आदमी के जेहन से मिटाने के प्रयासों ने भी गति पकड़ी है । अब ये प्रयास कितने सफल होंगे यह तो पता नहीं मगर इतना तय है कि दुष्यंत कुमार के शेर आज के दौर में और अधिक मौजू होकर सामने आए हैं । अब दुष्यंत के इस शेर को ही लीजिए-  


इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां।


दुष्यंत कुमार का यह शेर आज आपके सम्मुख रखने का एक खास कारण है । हाल ही में ऐसा बहुत कुछ मुल्क में गुजरा है जिन पर किसी बड़े राजनीतिक सामाजिक आंदोलन की उम्मीद की जानी चाहिए थी मगर कहीं पत्ता भी नहीं खड़का । हैरानी होती है कि क्या यह वही मुल्क है जो जरा जरा सी बात पर भी तीखी प्रतिक्रिया देता था । महंगाई तो जैसे उसे बर्दाश्त ही नहीं होती थी और मात्र प्याज के दाम बढ़ने पर वह सरकारें बदल देता था ।

झूठे वादे करने वालों से लोगों को ऐसी चिढ़ थी कि दुबारा उन्हें कभी सत्ता ही नहीं दी । राष्ट्रीय ही नहीं अंतराष्ट्रीय मामलों में भी जनता बेहद जागरूक थी और सन 1962 में चीन द्वारा दिए गए धोखे को उसने मुल्क के नहीं वरन पंडित नेहरू के खाते में डाला और आज तक उनकी नीतियों पर उंगलियां उठाती हैं । आपातकाल में लोगों पर जुल्म ढाने पर इंदिरा गांधी को भी जनता ने एक बार सत्ताच्युत कर दिया था ।

मगर कमाल है यही जनता अब गहरी नींद सो रही है ? उस पर अब किसी बात का असर नहीं होता ? महंगाई दो गुना बढ़े या तीन गुना उसे फर्क नहीं पड़ता । बेरोजगारी सारे रिकॉर्ड तोड़ दे तो भी उसे कोई चिंता नहीं सताती 

 एक नहीं दो नहीं सारी की सारी सरकारी कंपनियां बिक जाएं तो भी उसे कुछ लेना देना नहीं । विदेशी कर्ज बढ़ना तो खैर उसे कतई चिंतित करता ही नहीं । कोरोना से लाखों लोग मारे गए मगर मरने से पूर्व उन्हें इलाज की सुविधा देना तो दूर सरकार ने अपनी गिनती में उनका नाम तक शामिल करने की जहमत नहीं उठाई ।

अब विश्व स्वास्थ्य संगठन सरकार को बता रहा है कि भारत में इस महामारी से पांच लाख नहीं वरन पैंतालीस लाख लोग मरे थे मगर इस बात पर भी इस देश की महान जनता ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी । बेशक मरने वाले लोग भारतीय ही थे मगर उनके अपने भी उनकी मौत की हुई उपेक्षा से कतई उत्तेजित नही हुए ।

पिछले आठ साल में और उससे पूर्व हुए वादे तो शायद लोग ही भूल चुके हैं सो सरकार को याद दिलाने का तो सवाल ही नहीं । चीन हमारे मुल्क में कहां कहां घुसा बैठा है इसकी खबर जब सरकार को ही नहीं तो सारा दोष पब्लिक को भी कैसे दें । 


देख कर कई दफा हैरानी होती है कि सदा नेताओं को छकाने वाली इस देश की जनता अब इतनी उदासीन क्यों हो गई है ? माना आज के नेताओं में इतनी कूवत है कि वे गोल पोस्ट को जन सरोकारों से बदल कर धर्म कर देने की सलाहियत रखते हैं मगर इसकी भी तो कोई सीमा जनता ने तय की होगी या वाकई ये किसी अंतहीन सिलसिले की शुरुआत है ?

 खैर अपनी समझ तो सीमित है हम क्या कहें मगर हां दुष्यंत कुमार होते तो इस बात जरूर बहुत ऊंची आवाज़ में दोहराते-

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया 

इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो ।


शनिवार, 7 मई 2022

"भीषण वीरानी"* / अनंग

 


घर घर की है , एक कहानी।

रूठी  दादी  , खुश है नानी।।


महंगाई   ने  मार  दिया  है।

सता रही है बिजली पानी।।


मांगो कुछ भी नही मिलेगा।

फिर भी सब बनते हैं दानी।।


भाव  बहाकर  ठगने वाले।

रोज -रोज करते बेईमानी।।


जो छलते हैं अपनों को ही।

करते  हैं  बिल्कुल नादानी।।


घर  के अंदर बिल्ली मौसी।

बाहर  बैठी  कुतिया कानी।।


बढ़ते  देखा  दुःखी पड़ोसी।

 क्या कहना ये बात पुरानी।।


 तरस  रहे  हैं सभी प्यार को।

 तने हुए फिर भी अभिमानी।।


छोटी  बात  बड़े झगड़े हैं।

घुल जाती है नई जवानी।।


सुख को है परहेज महल से।

कितनी प्यारी अपनी छानी।।


सब खुद में मशगूल हो गए।

छाई   है   भीषण   वीरानी।।


इज्जत दो अपनाओ सबको।

ये  दुनिया  है  आनी  जानी।।.

..*"अनंग"*

शुक्रवार, 6 मई 2022

ऐ भौरे तुमसे जग सुंदर / अनंग

 "तुमसे जग सुंदर "/ अनंग 


तुम इतना समझाते क्यों हो ?

थमकर चल इठलाते क्यों हो ??

अपना समझा प्यार दिया,पर। 

इतना  तुम  इतराते  क्यों हो ?? 

समझ रहे हैं हम भी तुमको।

थोड़े  हैं , शरमाते  क्यों  हो ??

कोई  छोटा  बड़ा  नहीं  है।

तुम इतना घबराते क्यों हो ??

जितना है उतना दिखलाओ।

बहुत अधिक दर्शाते क्यों हो ??

अंदर से तुम पत्थर दिल हो।

इतना प्यार जताते क्यों हो ?? 

उसे बुलाओ जो अपना हो।

सबको पास बुलाते क्यों हो ?? 

दिखती है औकात तुम्हारी।

चिल्लाकर बतलाते क्यों हो ??

खुद को देखो खोया कितना।

हमको और जगाते क्यों हो ??

अंगड़ाई लेती कलियों को।

अपने पास बुलाते क्यों हो ?? 

ऐ  भौरें  तुमसे  जग सुंदर।

अपने को भरमाते क्यों हो ??..

."अनंग "

रवि अरोड़ा की नजर से.......

 आखिर अब तक / रवि अरोड़ा



याददाश्त अच्छी होने के भी बहुत नुकसान हैं । हर बात पर दिमाग अतीत की गलियों में भटकने चला जाता है और हुई प्रत्येक घटना की तुलना इतिहास की मिलती जुलती किसी घटना से करने लगता है । हो सकता है कोई इसे दिमागी फितूर कहे और इसे ही पागलपन की शुरुआत माने मगर हो तो यह भी सकता है कि कोई कोई इसे अतीत से सबक सीखने का हुनर ही करार दे दे । बहरहाल जो भी हो, हाल ही में पटियाला में खालिस्तान समर्थकों और शिवसेना के बीच हुई हिंसा ने मुझ जैसे खाली दिमाग लोगों को फिर इतिहास की गलियों में छोड़ दिया है और आशंकाएं जन्म लेने लगी हैं कि कहीं पंजाब में फिर से तीस चालीस साल पुराना इतिहास दोहराने की कोशिशें तो नहीं की जा रहीं ? पंजाब की गंदी राजनीति और ताज़ा घटनाक्रम तो कम से कम इसी ओर इशारा कर रहा है ।


हाल ही में संपन्न हुए पंजाब के विधानसभा चुनावों से पहले ही राजनीतिक गलियारों में यह चर्चाएं शुरू हो गईं थीं कि कट्टरपंथी सिक्खों के वोट हासिल करने के लिए आम आदमी पार्टी खालिस्तानी मूवमेंट को हवा दे रही है । आप पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल के पुराने साथी रहे कवि कुमार विश्वास ने भी कुछ ऐसा आरोप लगाया था । खालिस्तान आंदोलन के नेता और आतंकी गुरपतवंत सिंह पन्नू ने हाल ही में पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को अपनी संस्था सिख फॉर जस्टिस के लेटरहेड पर पत्र लिख कर दावा भी किया है कि आप पार्टी की सरकार खालिस्तान समर्थकों के चंदे और वोट से बनी है अतः अब वे खालिस्तान बनाने में सहयोग करें। खालिस्तान समर्थकों का पंजाब में इनदिनों अचानक से दिख रहा जोश भी अनेक सवाल खड़े कर रहा है । उधर आप की इतनी बड़ी जीत को भाजपा पचा पा रही है और न ही अकाली और कांग्रेसी। सो आप की सरकार को असफल करने को वे भी आग में दौड़ दौड़ कर घी डाल रहे हैं । पटियाला की घटना से कुछ ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं ।


आजादी के बाद सबसे संपन्न राज्य के रूप में उभरे पंजाब को देश की राजनीति ने ही हमेशा से कुतरा है । अपने वोट बैंक को बढ़ाने के लिए सातवें दशक में शिरोमणि अकाली दल ने अलगाववाद की राजनीति शुरू की तो उसके जवाब में कांग्रेस ने भिंडरवाला को खड़ा कर दिया । जब भिंडरवाला कांग्रेस के हाथ से निकल कर कांग्रेस और सरकार को ही चुनौती देने लगा तो कांग्रेस ने उसे और उसके साथियों को ही खत्म कर दिया । बदले की कार्रवाई में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई और फिर उसके बाद देश में हुई सिख विरोधी इकतरफा नृशंस हिंसा । बेशक कोई कहे कि कांग्रेस ने ही खालिस्तान आंदोलन को कुचला मगर यह अधूरी सच्चाई ही होगी । सच्चाई का एक बड़ा भाग यह भी था कि स्वयं पंजाब की जनता ने ही उकता कर अलगाववाद को नकार दिया था और इसी के चलते खालिस्तान आंदोलन जमीदोज हो गया । लगभग डेढ़ दशक तक चले इस आंदोलन में हजारों लोगों की जानें गईं और ऑपरेशन ब्लूस्टार में स्वर्ण मंदिर में टैंक घुसने, प्रधान मंत्री की हत्या और हजारों मासूम सिक्खों के निर्मम कत्ल से दुनिया भर में देश की छवि इतनी खराब हुई कि उससे बाहर आने में दशकों लगे । पंजाब के करोड़ों लोगों ने जो दशकों तक नारकीय जीवन जीया सो अलग । 


सभी जानते हैं कि पंजाब इस वैहशियाना दौर को भूल कर फिर तरक्की की राह पर सरपट दौड़ रहा है मगर हाय री हमारी राजनीति , पता नहीं क्यों उससे पंजाब की खुशी देखी नहीं जाती । बॉर्डर से सटे इस सूबे पर पहले से ही पड़ोसी देश पाकिस्तान की तिरछी निगाह रहती है और विदेशों में बैठे देश विरोधी संघटन भी समय समय पर पंजाब की शांति में व्यवधान डालने से बाज नहीं आते और अब रही सही कसर मुल्क की गंदी राजनीति पूरी कर रही है । पटियाला कांड इसका उदाहरण है । पता नहीं क्या होगा पंजाब का ? बेशक यहां के लोग अभी तक इस नेताओं की चालों को नाकाम करते आ रहे हैं मगर मुझ जैसे कमजोरमना लोगों को तो यह आशंका हो ही रही है कि आखिर कब तक ?



रंग गोरा गुलाब लै बैठा / शिव बटालवी / विवेक शुक्ला

 शिव बटालवी खालसा कॉलेज में../


. मैंनू तेरा शबाब लै बैठा...


पंजाबी के निश्चित रूप से सबसे सशक्त  गीतकारों में से एक शिव बटालवी को करोल बाग के खालसा कॉलेज में आए हुए आधी सदी से ज्यादा का वक्त गुजर गया है, पर अब भी कुछ लोगों को याद है जब उनकी रचनाओं पर सैकड़ों श्रोता झुम उठे थे।

 शिव बटालवी कविता पाठ करते हुए रो भी रहे थे।  यह बात 1970 की है।शिव बटालवी तब अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे। उन्होंने अपना कविता पाठ इस रचना से शुरू किया-


मैंनू तेरा शबाब लै बैठा,


रंग गोरा गुलाब लै बैठा।


किन्नी पीती ते किन्नी बाकी ए


मैंनू एहो हिसाब लै बैठा


चंगा हुंदा सवाल ना करदा,


मैंनू तेरा जवाब लै बैठा


दिल दा डर सी किते न लै बैठे


लै ही बैठा जनाब लै बैठा।


 शिव कुमार बटालवी की आज 6 मई को पुण्यतिथि है। विरह के कवि शिव बटालवी को खालसा कॉलेज में पंजाबी के साहित्यकार डॉ हरभजन सिंह लेकर आए थे। वहां पर हरमीत सिंह भी मौजूद थे। वे तब खालसा क़ॉलेज के छात्र थे और आगे चलकर यहां के शिक्षक और फिर प्रिंसिपल भी बने। 


 

की पुछ दे ओ हाल फ़कीरां दा


शिव कुमार 'बटालवी' ने जैसे ही अपना गीत... की पुछ दे ओ हाल फ़कीरां दा


साडा नदियों बिछड़े नीरां दा


साडा हंज दी जूने आयां दा


साडा दिल जलया दिलगीरां दा...(हम जैसे फ़कीरों का हाल आप क्या पूछते हैं, हम तो नदियों से बिछड़े पानी जैसे हैं। जैसे किसी आंसू से निकले हैं) सुनाया तो खालसा कॉलेज में मौजूद श्रोता, जिनमें मुख्यरूप से पंजाबी थे, की आंखें छलकने लगीं। 


शिव कुमार बटालवी (1936 -1973) की उन कविताओं को सबसे ज्यादा  पसंद किया गया, जिनमें करुणा, जुदाई और प्रेमी के दर्द का बखूबी चित्रण है।वे 1967 में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले सबसे कम उम्र के साहित्यकार बने। शिव कुमार बटालवी अपने दिल्ली के कार्यक्रमों में अपनी इन कालजयी पंक्तियों-


पिच्छे मेरे, मेरा साया


अग्गे मेरे, मेरा न्हेरा


किते जाए न बाहीं छड्ड


वे तेरा बिरहड़ा


(पिच्छे – पीछे, अग्गे – आगे, न्हेरा – अँधेरा, बाहीं – बाँह, छड्ड – छोड़) तथा


बिरहा बिरहा आखिए


बिरहा तूं सुल्तान


जिस तन बिरहा न उपजे


सो तन जान मसान (आखिए – पुकारिए, कहिए) अवश्य सुनाया करते थे। कह सकते हैं कि सुनाते इसलिए थे क्योंकि श्रोताओं की मांग होती थी। शिव ने Sapru House और Chamesford club में भी कई बार अपनी रचनाएं पढ़ी! उनके कार्यक्रमों में पाकिस्तान उच्चायोग के पंजाबी मुलाजिम सपरिवार आते थे. 


 अमृता प्रीतम के घर में शिव


 दिल्ली में शिव कुमार बटालवी आएं और अमृता प्रीतम के 25 हौज ख़ास वाले घर में ना हाजिरी दें और अपनी ताजा रचनाए ना सुनाएं यह संभव नहीं था। अमृता प्रीतम जी का घर पंजाबी साहित्य की अनमोल धरोहर था। शिव कुमार बटालवी के आने पर एक महफिल खासतौर पर आयोजित होती थी। उसमें चित्रकार इमरोज़,हिन्दी, पंजाबी, अंग्रेजी और उर्दू के लेखक करतार सिंह दुग्गल, सरदार नानक सिंह ( पवित्र-पापी फिल्म के निर्माता), डॉ. हरभजन, गुरुबख्श सिंह, महेन्द्र सिंह सरना ( भारत के अमेरिका में एंबेसेडर रहे नवतेज सरना के पिता), कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी, उद्य़ोगपति सागर सूरी, पंजाबी के गायक केसर सिंह नरूला ( जसपिंदर नरूला के पिता) वगैरह अवश्य मौजूद रहते थे।


 एक बार काव्य की धारा बहने लगती तो फिर वे अलसुबह तक जारी रहती। इस बीच, केसर सिंह नरूला और उनकी पत्नी मोहिनी नरूला किसी महफिल में पंजाबी का सदाबहार लोकगीत लट्ठे दि चादर, उत्ते सलेटी रंग माइया गाने के बाद शिव बटालवी की रचनाएं सुनाते थे। नरूला जी बताते थे कि अमृता प्रीतम के दिल के बहुत करीब थीं शिव बटालवी की रचनाएं। वह शिव की रचनाएं बार-बार पढ़ा करती थीं।


Vivekshukladelhi@gmail.com 

Navbharattimes 6.5.2022

गुरुवार, 5 मई 2022

प्रभु की माया

 प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


 एक बार नारद जी ने बड़ी ही उत्सुकता पूर्वक भगवान विष्णु से पूछा “प्रभु आपकी माया क्या हैं? क्योंकि भू लोक पर सभी मनुष्य आपकी माया से प्रेरित होकर दुःख अथवा सुख भोगते है। लेकिन वास्तव में आपकी माया क्या हैं? विष्णु भगवान बोले, “नारद! यदि तुम्हें मेरी माया जाननी है, तो तुम्हें मेरे साथ पृथ्वी लोक चलना होगा। जहां मैं तुम्हें अपनी माया का प्रमाण दे सकूँगा।

 नारद को अपनी माया दिखाने के लिए भगवान विष्णु नारद को लेकर एक विशाल रेगिस्तान से पृथ्वी लोक जा रहे थे, यहाँ दूर-दूर तक कोई मनुष्य तो क्या जीव-जंतु भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। नारद जी विष्णु भगवान के पीछे-2 रेगिस्तान की गर्म रेत को पार करते हुए आगे बढ़ते रहे। चलते-2 नारद जी को मनुष्य की ही भांति गर्मी और भूख प्यास का एहसास होने लगा।

 तभी कुछ दूरी पर उन्हें एक छोटी सी नदी दिखाई दी, नारद जी अपनी प्यास बुझाने के लिए उस नदी के पास पहुँच गये। तभी उन्हें कुछ दूरी पर एक सुंदर कन्या दिखाई दी। जिसके रूप को देखकर नारदमुनि उस कन्या पर मोहित हो गए, नारद जी ने उसके पास जाकर उससे वीरान जगह पर आने का कारण पूछा, कन्या ने बताया कि वह पास के ही एक नगर की राजकुमारी है और अपने कुछ सैनिकों के साथ रास्ता भटक गयी है ।

 नारद मुनि भी राजकुमारी के साथ उसके राज्य में पहुंच जाते हैं। राज कुमारी सब हाल अपने पिता को बताती है। राजा प्रसन्न होकर अपनी पुत्री का विवाह नारद जी से कर देते हैं और सारा राज पाठ नारदमुनि को सौंप कर स्वयं सन्यासी बन जाते है। अब नारद मुनि राजा के सामान पूरे ऐशोआराम से अपनी जिंदगी का यापन करने लगते है, नारद इन सब में यह भी भूल चुके थे कि वह प्रभु को नदी किनारे बैठा ही छोड़ आये।

 समय बीतने के साथ नारद को उस राज कुमारी से दो संताने भी हो गयी। नारद मुनि अपने फलते-फूलते राज्य और पुत्रों को देखकर बहुत ही खुश थे। एक दिन उस राज्य में 3 दिन लगातार इतनी घनघोर वर्षा हुई की पूरे राज्य में बाढ़ आ गयी। सभी लोग अपनी सुरक्षा के उद्देश्य से इधर-उधर भागने लगे। नारद भी एक नाव में अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को लेकर सुरक्षित स्थान की खोज में चल दिये।

 बाढ़ इतना भयानक रूप ले चुकी थी कि राज्य से निकलते हुए नारद की पत्नी नाव से नीचे गिर गयी और तेज बहाव के साथ ही बह गयी। नारद शोक करते हुए। जैसे-तैसे राज्य से बाहर उसी नदी आ पहुंचे जहां नारद जी प्रभु के साथ अपनी प्यास बुझाने के लिए आये थे। नारद मुनि नदी के किनारे पर बैठकर शोक करते हुए जोर-जोर से रोने लगते है।

 मेरे बच्चे, पत्नी सब कुछ तो नष्ट हो गया। अब मैं इस जीवन को जी कर क्या करूँगा। जैसे ही नारदमुनि नदी में कूद ने की कोशिश करते है तभी भगवान विष्णु उनका हाथ पकड़ लेते है, और कहते है, ठहरो नारद! ये ही तो थी मेरी माया। जो अब तक तुम्हारे साथ घटित हुआ वह सब मेरी ही माया थी। अब नारदमुनि भली- भांति समझ जाते है अब तक जो कुछ भी उनके साथ घटित हुआ वह सब कुछ केवल प्रभु की ही माया थी।


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बोल कि... लब कितने आज़ाद हैं मेरे / आलोक यात्री


इन दिनों लोग कुछ अधिक बोल रहे हैं। कहा जा सकता है कि काफी मुखर हैं। लोगों के मुखर होने की कई वजह हैं। हमारी मुखरता कई बार हमें वहां ले जाती है जहां पहुंच कर लगता है कि मौन ही बेहतर था। किसी संत ने कहा भी है 'एक मौन सौ को साधे'। मुद्दा यह है कि हम कह क्या रहे हैं? किसके लिए कह रहे हैं? क्यों कह रहे हैं? और... कहां कह रहे हैं? यदि हम यह जानते हैं और इसी दायरे में कह रहे हैं तो हमारा कहा सार्थक होगा। लेकिन यदि हम बगैर यह ख्याल किए कि हम किसलिए, क्यों और... क्या, कह रहे हैं तो हमारे कथन और हमारा दोनों का भटकना संभव है‌। 

  हाल ही के दिनों में 'बोल के लब आज़ाद हैं तेरे...' के हिमायतियों के कई ऐसे जुमले सामने आए हैं जिन्होंने संवाद की भूमिका पर तो खतरा खड़ा किया ही साथ ही इस विमर्श के भी दरवाज़े खोले कि हम क्या कह रहे हैं, कैसे कह रहे हैं और कहां कह रहे हैं? साठ साल की जीवन यात्रा के कच्चे-पक्के अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि कहना और सुनना दोनों ही एक कला हैं। हमारे बोल ही नहीं बिगड़े हैं, हमने सुनने का धीरज भी खो दिया है। सुन कर गुनने के गुण का लोप तो लगभग पूरी तरह से ही हो गया है।

  शाब्दिक मुठभेड़ से पहला आघात मुझे तीन दशक पहले लगा था। विख्यात लेखक मुद्राराक्षस जी के ड्राइंगरूम में एक संवाद विशेष में मैं पिताश्री के साथ शामिल था। किसी बात पर मैंने मुद्रा जी से 'आप समझे नहीं...' कह दिया। एक-दो दिन तक पिताश्री अबोले से रहे तो मेरा ध्यान उधर गया। मैंने उनसे कहा क्या बात है फ्यूज क्यों हैं। पिताश्री बोले 'तुमने मुद्राराक्षस से क्या कहा?' :अरे जाने दीजिए वह बात ही ऐसी कर रहे थे...' मैंने अपना पक्ष रखा।

  'तुम क्या समझा रहे थे मुद्राराक्षस को, यह कह कर कि आप समझे नहीं... वह पूरी दुनिया को समझाता है। पूरी दुनिया उसे गौर से सुनती है।‌ तुमसे बात करना व्यर्थ है... तुम्हारे पास तो शब्दावली ही नहीं है' पिताश्री ने अपना रोष व्यक्त करते हुए कहा।

  मुझे वास्तविकता का बोध हुआ। 'आप समझे नहीं...' वास्तव में पत्थर मारने जैसा प्रहार है। जो सामने वाले का पूरा वज़ूद ही ख़ारिज कर देता है। पिताश्री की बात ने मुझे दुविधा में फंसा दिया। जिज्ञासावश मैं उनसे पूछ बैठा 'अच्छा... फिर क्या कहता?'

  'तुम कह सकते थे कि मैं आपको अपनी बात नहीं समझा पाया... या मैं आपकी बात समझ नहीं पाया' नसीहत के तौर पर पिताश्री ने कहा।

  'आप समझे नहीं की जगह अब मैं, मैं आपको अपनी बात समझा नहीं पाया' ही कहता हूं और सुखी रहता हूं। लेकिन 'बोल के लब आज़ाद हैं तेरे...' की तर्ज़ पर मेरे फिसले बोल ने हाल ही में मेरा गिरहबान फिर थाम लिया। विश्व पृथ्वी दिवस पर एक स्कूल के आयोजन में निर्णायक की भूमिका निभा रहा था। चार नुक्कड़ नाटकों में छात्रों ने हर क्षेत्र में ऐसी प्रतिभा का परिचय दिया कि प्रथम, द्वितीय, तृतीय का चयन करना मुश्किल हो गया। उनकी प्रशंसा में शाब्दिक अनुशासन की सीमारेखा पार करते हुए यह कह गया 'सभी पप्पू पास हो गए...'। मेरे यह कहते ही स्कूल की प्रधानाचार्या अपने आसन से खड़ी हो गईं और उन्होंने मेरे कहे को शालीनता से दुरुस्त किया। लेकिन मैं मौके पर ही गलती सुधारने के बजाए अपनी बात से उधड़े आशय की तुरपाई की बेवजह कोशिश करता रहा। प्रधानाचार्या जी की आपत्ति पर मुझे आत्मबोध हो गया था, बावजूद इसके मै माइक पर अपने कहे को जस्टिफाई करने की कोशिश कर रहा था।

  अब खुद इस प्रश्न को हल करने बैठा हूं कि उन प्रतिभावान बच्चों से मैं कहना क्या चाहता था? क्या उन्हें मैं अपनी बात समझा पाया...?


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बुधवार, 4 मई 2022

ताज से भी सुंदर है यह समर्पण

 #प्रेम का स्मारक ताजमहल नहीं यह है..



चित्र में दिखाई गई महिला की फोटो को ज़ूम करके देखेंगे तो उनके गले में पहना हुआ एक बड़ा डायमंड दिखाई देगा ..... यह 254 कैरेट का #जुबली डायमंड है जो आकार और वजन में विश्व विख्यात "कोह-ए-नूर" हीरे से दोगुना है ...


ये महिला मेहरबाई टाटा हैं जो जमशेदजी टाटा की बहू और उनके बड़े बेटे सर दोराबजी टाटा की पत्नी थीं ...


सन 1924 में प्रथम विश्वयुद्ध के कारण जब मंदी का माहौल था और #टाटा कंपनी के पास कर्मचारियों को वेतन देने के पैसे नहीं थे... तब मेहरबाई ने अपना यह बेशकीमती जुबली डायमंड *इम्पीरियल बैंक में 1 करोड़ रुपयों में गिरवी* रख दिया था ताकि कर्मचारियों को लगातार वेतन मिलता रहे और कंपनी चलती रहे ...


इनकी ब्लड #कैंसर से असमय मृत्यु होने के बाद सर दोराबजी टाटा ने भारत के कैंसर रोगियों के बेहतर इलाज के लिये यह हीरा बेचकर ही टाटा मेमोरियल कैंसर रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की थी ...


प्रेम के लिये बनाया गया यह स्मारक #मानवता के लिये एक उपहार है .... विडम्बना देखिये हम प्रेम स्मारक के रुप मे ताजमहल  को महिमामंडित करते रहते हैं ,और जो हमें जीवन प्रदान करता है, उसके इतिहास के बारे में जानते तक नहीं ....!

साभार

मंगलवार, 3 मई 2022

वो इंसान बुरा है 🙃🙃🙃

 "मंदिर"में दाना चुगकर चिड़ियां


प्रस्तुति - कमल शर्मा 

👍🏼👌🏽👌🏽✌🏼🙏🏿😀😀😀😀😃😃😃


"मस्जिद" में पानी पीती हैं

मैंने सुना है "राधा" की चुनरी 

कोई "सलमा"बेगम सीती हैं                         


एक "रफी" था महफिल महफिल 

"रघुपति राघव" गाता था 

एक "प्रेमचंद" बच्चों को

"ईदगाह" सुनाता था 


कभी "कन्हैया"की महिमा गाता

 "रसखान" सुनाई देता है 

औरों को दिखते होंगे "हिन्दू" और "मुसलमान"

मुझे तो हर शख्स के भीतर "इंसान"

दिखाई देता है...


क्योंकि...

ना हिंदू बुरा है ना मुसलमान बुरा है

जिसका किरदार बुरा है वो इन्सान बुरा है !!!🙃🙃🙃


सभी को ईद, अक्षय तृतीया , परशुराम जयन्ति की शुभकामनाएं  |


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संभोग से समाधि तक (पर) तर्क वितर्क

 बड़े विनीत भाव से कहना चाहूंगा कि न तो मैं ओशो का शिष्य हूं, न ही ओशो दर्शन में मेरी कोई विशेष आस्था है।फिर भी जहां तक और जितना भी ओशो का साहित्य मैंने पढ़ा है, उसमें सिद्धार्थ ताबिश के आलेख का कथ्य कहीं मिला नहीं। इसलिए कहीं न कहीं आलेख से मेरी असहमति भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धार्थ भाई ने भी ओशो को नया-नया पढ़ा है, इसलिए “खुलकर लिख” रहे हैं।

ओशो दर्शन और साहित्य में इस बात का शायद ही कहीं उल्लेख हो कि अति की अवस्था से विरक्ति पैदा होती है।आलेख के मुताबिक अति मयनोशी, कामक्रीड़ा या हिंसाचार एक समय कर्ता में विरक्ति का भाव पैदा करता है। लेखक (सिद्धार्थ ताबिश) ने शायद ओशो की कृति “संभोग से समाधि तक” के कथ्य को इसी तरह से हृदयंगम किया है या समझा है। यह पुस्तक मैंने भी पढ़ी है, लेकिन इसमें मुझे तो ऐसा कहीं कुछ मिला नहीं। हां, संभोग क्रिया से विरक्ति या मोहभंग की बात इसमें ज़रूर है, लेकिन यह विरक्ति या वितृष्णा अति-काम से पैदा नहीं होती। दूसरी बात कि यह विरक्त भाव ही परमानंद की अवस्था का आरंभ है, सर्वशक्तिमान से साक्षात्कार का अनुभव है।

इस विरक्ति की प्राप्ति के लिए मनुष्य को संभोग के दौरान कठिन अभ्यास से गुजरना पड़ता है। कुछ इतना कठिन कि हम जैसे भोग में आकंठ लिप्त आम इंसान के लिए तो वह लगभग असंभव है। ओशो ने इसके लिए स्खलन पर संपूर्ण नियंत्रण के अभ्यास को निरंतर मज़बूत करने की बात कही है। इस अभ्यास के आरंभ में कुछ सेकेंडों का यह समय बढ़ाते-बढ़ाते घंटों तक और अंतत: आपकी इच्छा के वशवर्ती हो जाने तक ले जाना है। यह स्खलन से पार पाने की अवस्था होगी और तब आप निश्चित रूप से विरक्ति या अहोभाव के प्रांगण में प्रवेश पाएंगे। संभोग या सेक्स की अति से इस विरक्ति का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक या संपूर्ण ओशो दर्शन में ऐसा कहीं लिखा या कहा भी नहीं गया है।

बक़ौल ओशो, संभोग और स्खलन एक दूसरे से जुड़ी हुई, लेकिन दो भिन्न अवस्थाएं हैं। संभोग घंटा-दो घंटा चल सकता है, लेकिन स्खलन अधिकतम मिनट भर की क्रिया है। हमें संभोग नहीं, स्खलन को साधना है, उसका अभ्यास करना है, उसके पार जाना है। ध्यान रहे कि वियाग्रा या शिलाजीत जैसे कृत्रिम उपायों से हम संभोग क्रिया की अवधि तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन स्खलन की अवस्था आते ही ये उपाय बेअसर साबित हो जाते हैं। ओशो के मुताबिक हमें स्खलन के ऐन चंद सेकेंड पहले के आनंदित क्षणों को दीर्घावधि और आखिरकार स्थायी बनाना है। इस क्षण के पहले की अवस्था कामक्रीड़ा है और इसके बाद की अवस्था स्खलन यानी प्रशांति और क्लांति की है। लिहाजा महत्वपूर्ण वह मध्यकाल है, जब स्खलन से ठीक पहले मेरूदंड में झुरझुरी या सिहरन शुरू होती है। सिहरन की इसी अवस्था को दीर्घकालिक और स्थायी बनाना है। तब जाकर खुलता है विरक्ति का दरवाजा। इस अवस्था में स्खलन कोई मुद्दा या विषय रह ही नहीं जाता है। आप संभोग करें या न करें, स्खलन पूर्व के आनंद का अहसास आपके मन-मस्तिष्क पर हमेशा रहता है। तब संभोग या स्खलन की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। ओशो ने इसके लिए श्वास और मस्तिष्क पर नियंत्रण समेत कई विधियां बताई हैं।

यदि स्खलन पर आपका वश नहीं है तो फिर आपका इस विरक्ति या परमानंद से साक्षात्कार असंभव है। एक साधारण मनुष्य तो संभोग से विरत नहीं हो पाता है! समय और सामर्थ्य उपलब्ध होने तक वह भोग में लिप्त ही रहता है या रहना चाहता है। भोग में इस कदर पिले पड़े रहने के बावजूद उसमें सेक्स से कभी विरक्ति पैदा ही नहीं होती। इसलिए बेतहाशा संभोग विरक्ति नहीं, भोगलिप्सा की अभिवृद्धि करता है। यही कारण है कि मनुष्य में भोग की लालसा जरायु तक जिंदा रहती है। उम्मीद है कि मेरी असहमति का कोई साथी अन्यथा नहीं लेंगे। सिद्धार्थ जी भी नहीं।

एक  पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित


साभार  B4M.

सोमवार, 2 मई 2022

काश / रतन कुमार अगरवाला

 कविता /: काश


लोग सपने तो बहुत देखते हैं, पर उन्हे पूरा करने के लिए कर्म पथ पर पूरे उद्यम के साथ बिरले ही आगे बढ़ते हैं । भाग्य के सहारे बैठे रहने से भाग्योदय नहीं होता । इसी भाव को शब्दों में पिरोने की एक छोटी सी कोशिश है मेरी रचना “काश”…………..


काश ऐसा होता, काश वैसा होता,

काश ये न होता, काश वो न होता ।

काश, “काश” से पूरी होती आस,

बन गया “काश” सिर्फ सपनो का आकाश ।


काश में जो सिमट कर रहता,

मिलता नही उसे आज से अवकाश ।

कल की राह वह ढूंढ न पाता,

काश ही उसके सपनो का आकाश ।


काश की कैद से निकल अगर,

कल पर करता गहरी शोध,

और भी बहुत हो जाता हासिल,

प्रगति में होता न यूं अवरोध ।


बुरी होती यह काश की बंदिशें,

दिमाग हो जाता काश से कुंद ।

काश से न मिलता आकाश,

कल का मार्ग हो जाता रूद्ध ।


मिलता उन्हीको अपना आकाश,

जो न रहते काश के साथ ।

छोड़ कर लगाम इस काश की,

आगे बढ़ते जोश के साथ ।


काश का चोगा पहनते जो,

छोटी लड़ाई भी जाते हार ।

लक्ष्य की ओर जो बढ़ते जाते,

जीत जाते हर बड़ा समर ।


काश तो होता सपनो का वास,

पूरे करने को करो साधना ।

काश में ही मिट जायेंगे सब,

अगर न हो लक्ष्य की आराधना ।


छोड़ो अभी से काश का दामन,

कर्म पथ का करो आचमन ।

बढ़ो सदा गंतव्य की ओर,

शिखर से होगा आर्लिंगन् ।


काश तो है बहाना आलस्य का,

कुछ न करने का आलम है काश ।

काश की वेदना काश कोई जाने,

काश में है हताशा और संत्रास ।


काश से कभी न पूरे होते सपने,

रह जाते सपने यूहीं आधे अधूरे ।

काश का दामन न छोड़ें तो,

रह जाएंगे पीछे कदम बहुतेरे ।


काश से न होता जीवन यापन,

काश ही में रह जाओगे आजीवन ।

काश से न होता जीवन का आकलन,

काश नहीं कभी कर्म का साधन । 


काश के स्वप्नजाल में फंसे लोगों को आगाह करती हुई रचना ।



  रतन कुमार अगरवाला

गुवाहाटी, असम

सृजन तिथि : १५.०८.२०२१


हिन्दी विभाग मगध विवि

राणा प्रताप तेरा घोड़ा भी रजपूती धर्म निभाता था ।।

 भस्म उड़ा कर मिट्टी की, सर हाथी के चढ़ जाता था।

राणा प्रताप तेरा घोड़ा भी रजपूती धर्म निभाता था ।।


चेतक की हस्ति मिटा सकें अकबर तेरी औकात नहीं।

मेरे ह्रदय में राणा धड़कता है जिसका तुमको आभास नही ।।


रामप्रसाद से हाथी ने जीवन को अर्पित कर डाला   ।

सौगंध वीर महाराणा की एक कण भी मुख में नही डाला।


रोइ थी हल्दी घाटी मंजर रक्त विलीन था।

दिल्ली की गद्दी कंपि है  जिसपर अकबर आसीन था।।


चीख पड़ी है हल्दी घाटी  चेतक अध बेहोश है।

अखंड सौर्य ले उड़ा है चेतक मृत्यु तक ख़ामोश है।।


हरण करे तलवार प्राण जिन्हें बरन करे म्रत्यु रानी।

लाखों जाने अर्पित हैं चेतक को छोड़ दे महारानी।।


चेतक की चिंघाड़ बिना मेरा सूर्य उदय क्या होयगा।

चेतक की यादों में राणा पल पल आँख भिगोएगा।।


चेतक चढ़के युद्ध में दुश्मन भगा भगा के मारे हैं।

उछल उछल के चेतक ने कई दबा दबा के गाड़े हैं।।


गिरा धरा पर धड़ चेतक का कैसी मदहोशी छाई है।

आँख खोल मेरे प्यारे चेतक आगे और लड़ाई    हैं।।


चिर हवा को उड़ता चेतक पवन देख   थर्राता है  ।

महाराणा में तेरा सिंघासन मृत्यु तक का नाता है।।


ठुमक ठुमक के चेतक चलता   नंगी तलवार दीवानी हैं।

घोड़े हाथी बलिदान दिये इतिहासों में अमर कहानी है।।


जय महाराणा 🙏

जय राजपुताना

रविवार, 1 मई 2022

*!! कभी किसी को छोटा न समझें !!*

 *⚜️ आज का प्रेरक प्रसंग ⚜️*


 कभी किसी को छोटा न समझें !!*-


प्रस्तुति - उषा रानी /राजेंद्र प्रसाद सिन्हा 


       



एक जंगल में एक शेर सो रहा था। अचानक एक चूहा शेर को सोता देखकर उसके ऊपर आकर खेलने लगा। जिसके कारण उछलकूद से शेर की नींद खुल गयी और उसने उस चूहे को पकड़ लिया। चूहा डर से कांपने लगा और शेर से बोला- हे राजन! हमें माफ़ कर दो। जब कभी आपके ऊपर कोई दुःख आएगा तो मैं आपकी सहायता कर दूंगा। तो शेर हंसते हुए बोला- मैं सबसे अधिक शक्तिशाली हूं, मुझे किसी की सहायता की क्या जरूरत, यह कहते हुए उसने चूहे को छोड़ दिया।


कुछ दिनों बाद वही शेर शिकारी द्वारा फैलाये गये जाल में फंस गया और फिर खूब जोर लगाया लेकिन वह जाल से छुटने की अपेक्षा और अधिक फंसता चला गया। यह सब देखकर पास में ही उस चूहे की नजर शेर पर पड़ी तो उसने शेर की सहायता वाली बात याद दिलाकर अपने नुकीले दांतों से जाल काट दिया और फिर शेर जाल से आजाद हो गया। इस प्रकार चूहे ने अपने जान की कीमत शेर की जान को बचाकर पूरा किया।


*शिक्षा:-*

कभी किसी को छोटा समझकर उसकी शक्ति नहीं आंकनी चाहिए क्यूंकी मुसीबत में किसी की भी सहायता की जरूरत पड़ सकती है।


*सदैव प्रसन्न रहिये।*

*जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।*

अच्छाई की तलाश करें !!*

 *⚜️ ⚜️*


        

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किसी गाँव में एक किसान को बहुत दूर से पीने के लिए पानी भरकर लाना पड़ता था. उसके पास दो बाल्टियाँ थीं जिन्हें वह एक डंडे के दोनों सिरों पर बांधकर उनमें तालाब से पानी भरकर लाता था. उन दोनों बाल्टियों में से एक के तले में एक छोटा सा छेद था जबकि दूसरी बाल्टी बहुत अच्छी हालत में थी. तालाब से घर तक के रास्ते में छेद वाली बाल्टी से पानी रिसता रहता था और घर पहुँचते-पहुँचते उसमें आधा पानी ही बचता था. बहुत लम्बे अरसे तक ऐसा रोज़ होता रहा और किसान सिर्फ डेढ़ बाल्टी पानी लेकर ही घर आता रहा.


अच्छी बाल्टी को रोज़-रोज़ यह देखकर अपने पर घमंड हो गया. वह छेदवाली बाल्टी से कहती थी की वह आदर्श बाल्टी है और उसमें से ज़रा सा भी पानी नहीं रिसता. छेदवाली बाल्टी को यह सुनकर बहुत दुःख होता था और उसे अपनी कमी पर लज्जा आती थी. छेदवाली बाल्टी अपने जीवन से पूरी तरह निराश हो चुकी थी. एक दिन रास्ते में उसने किसान से कहा – “मैं अच्छी बाल्टी नहीं हूँ. मेरे तले में छोटे से छेद के कारण पानी रिसता रहता है और तुम्हारे घर तक पहुँचते-पहुँचते मैं आधी खाली हो जाती हूँ.”


किसान ने छेदवाली बाल्टी से कहा – “क्या तुम देखती हो कि पगडण्डी के जिस और तुम चलती हो उस और हरियाली है और फूल खिलते हैं लेकिन दूसरी ओर नहीं. ऐसा इसलिए है कि मुझे हमेशा से ही इसका पता था और मैं तुम्हारे तरफ की पगडण्डी में फूलों और पौधों के बीज छिड़कता रहता था जिन्हें तुमसे रिसने वाले पानी से सिंचाई लायक नमी मिल जाती थी. दो सालों से मैं इसी वजह से अपने देवता को फूल चढ़ा पा रहा हूँ. यदि तुममें वह बात नहीं होती जिसे तुम अपना दोष समझती हो तो हमारे आसपास इतनी सुन्दरता नहीं होती.”


*शिक्षा:-*

मुझमें और आपमें भी कई दोष हो सकते हैं. दोषों से कौन अछूता रह पाया है. कभी-कभी ऐसे दोषों और कमियों से भी हमारे जीवन को सुन्दरता और पारितोषक देनेवाले अवसर मिलते हैं. इसीलिए दूसरों में दोष ढूँढने के बजाय उनमें अच्छाई की तलाश करें..!! 


*सदैव प्रसन्न रहिये।*

*जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।*

✍️✍️✍️✍️✍️✍️✍️✍️✍️✍️✍️

किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...