शनिवार, 30 अप्रैल 2022

गीता ?

 ■ गीता...


"क्या गीता के बारे में जानते हो?"

"हां... मेरे पड़ोस में रहती है! 

अच्छी लड़की है।"


"नहीं वो नहीं, 

वो गीता, जिसके बारे में सब जानते हैं?"

"गीता फोगाट?, जो रेसलर है?, 

उसने कई मेडल जीते हैं।"


"नहीं वो भी नहीं 

वो जो एक धार्मिक पुस्तक है ?"

"अच्छा वो गीता, 

जिस पर अदालत में 

हाथ रखकर कसम खाते हैं?"


"हां वही ... 

क्या कभी पढ़ी है तुमने वह गीता?"

"उस गीता को भला किसने पढ़ा है साहब?

उस गीता को तो ... 

उन जज साहब ने भी नहीं पढ़ा होगा, 

जिनकी अदालत में कसमें खिलाई जाती हैं।"


"कसम खाकर कहना साहब...!

क्या आपने पढ़ा है कभी उस गीता को ?"


"मुझे तो लगता है, 

गीता, कुरान और बाइबल

कोई भी पढ़ने के लिए हैं ही नहीं,

या तो कसमें खाने के लिए हैं ...

या फिर दंगे कराने के लिए हैं साहब ...!"

@उमाकांत दीक्षित

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

बुरा वक्त, कभी पूछकर नहीं आता”

  प्रस्तुति - अनिल  / पुतुल 


किसी ऋषि ने अपने शिष्य को यह सीख दी कि मुसीबत चाहे कितनी भी बड़ी क्यों ना हो, लेकिन भगवान पर भरोसा रखोगे तो कोई विपत्ति तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। एक दिन वह शिष्य जंगल से कहीं जा रहा था कि अचानक एक आदमी पागल हाथियों के इधर आने की बात कहते हुए भागता हुआ सा वहां से गुजरा। उसने ऋषि की बात याद की और सोचा कि मुझे भगवान पर पूरा विश्वास है, इसलिए कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

थोड़ी देर के बाद उसका यह विश्वास गुस्से का रूप लेकर अपने गुरु ऋषि के सामने खड़ा था क्योंकि जब पागल हाथी आया तो उसे धक्का देते हुए आगे बढ़ गया और गिरने से उसे थोड़ी चोट आ गई। उसने गुस्से में यह बात ऋषि को बताई और कहा कि भगवान पर विश्वास करने की उनकी बात गलत थी।

इसपर ऋषि ने मुस्कुराते हुए उससे कहा , “भगवान पर तुम्हें भरोसा था इसीलिए उसने तुम्हें आने वाले खतरे से आगाह किया, ताकि तुम उससे बचने के प्रयास करो। परंतु तुमने वो नहीं किया और अकर्मण्य हो गए। बावजूद इसके तुम्हारी जान बच गई और सिर्फ कुछ खरोंचे ही आईं, अगर प्रयास करते तो यह भी नहीं होता। यही भगवान पर भरोसे का अर्थ है।“

शिष्य को अपनी गलती का ज्ञान हुआ और समझ आया कि भगवान पर विश्वास का अर्थ कभी आलसी बनना नहीं होता। इसका अर्थ केवल यह है कि जिस किसी को भगवान पर भरोसा होता है उसे आने वाले खतरे का संकेत अवश्य मिलता है ताकि वह उससे बचने की तैयारी कर सके। अपने भक्तों को बचाने का यह भगवान का तरीका होता है। किंतु जो विश्वास के नाम पर कुछ करते नहीं, वो वास्तव में आलसी हैं और भगवान आलसियों की मदद नहीं करता।

इसलिए बुरे वक्त का संकेत मिलते ही भगवान से सही मार्ग दिखाने की प्रार्थना करते हुए उससे बचने के प्रयास करें। याद रखें कर्मठ इंसान के सामने प्रलय भी झुक जाता है।

गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

ख़ुशबू की तरह तू मुझे महसूस किया कर/ असद अजमेरी

 (अपने अनुज निशिकांत दीक्षित के पास बम्बई जाना हुआ... तो वहाँ के एक मोहतरम शायर भाई "असद अजमेरी" जी से मुलाकात हुई... उनकी एक यादगार ग़ज़ल जो उन्होंने हमें सुनाई...)


है काम तो मुशकिल मगर फिर भी किया कर

दुनिया से मिले वक़्त तो ख़ुद से भी मिला कर


तू अपनी ज़रूरत को न दुनिया से कहा कर

देता  है   ख़ुदा  मांग   ज़रा  हाथ  उठा  कर


वो  कहता है  नफ़रत है  उसेे  शक्ल से मेरी

तस्वीर  भी   रखता है किताबों  में  छुपाकर


सूरज  भी  कोई.  शै   है  उन्हें  इल्म  नहीं है

कुछ लोग बहुत  ख़ुश हैं चराग़ों को बुझाकर


मै  कैसे  कहूं  ख़ुश  हूं या  नाराज़  हूं  तुझसे

चेहरे  पे  लिखा  है   मेरे  चेहरे को  पढ़ा कर


ख़ुशियों का भरोसा नही कब आयें चली जायें.

दो   चार  ग़मो़  को  रखो  सीने से  लगा  कर


मै  तेरी   निगाहों  से  बहुत  दूर   हूं  लेकिन. 

ख़ुशबू  की  तरह तू  मुझे महसूस  किया कर


उलझी  हुई  बातों से न कर  उलझने  पैदा.

जो दिल  मे तेरे है  तू उसे  साफ़ कहा कर


वो लोग जो बरसों से अंधेरों  मे 'असद' थे.

आये हैं  उजालों मे मेरे  घर  को जला कर

©असद अजमेरी...

जात ना पूछो औरत की

 *जाति औरत की??*

                  


एक आदमी ने महिला से पूछा......

       

  तम्हारी जाति क्या है?

महिला ने उल्टा ही पूछ लिया...

       एक मां की या एक महिला की

उसने कहा....चलो दोनों की बता दो.....

     और चेहरे पर हल्की सी मुस्कान बिखेरी।


महिला ने भी पूरे धैर्य से बताया

            एक महिला जब माँ बनती है, तो वो जाति-विहीन हो जाती है,


उसने फिर आश्चर्य चकित होकर पूछा....

          वो कैसे..?


जबाब मिला कि .....


जब एक माँ अपने बच्चे का लालन पालन करती है,अपने बच्चे की गंदगी साफ करती है,

        तो वो *शूद्र* हो जाती है......


वो ही बच्चा जब बड़ा होता है तो माँ नकारात्मक ताकतों से उसकी रक्षा करती है,

       तो वो *क्षत्रिय* हो जाती है


जब बच्चा और बड़ा होता है,

                तो माँ उसे शिक्षित करती है,

 तब वो *ब्राह्मण* हो जाती है


और अंत में,

        जब बच्चा और बड़ा होता है तो माँ उसके आय और व्यय में उसका उचित मार्गदर्शन कर अपना *वैश्य* धर्म निभाती है                                                                                                                   

         तो अब बताओ कि......                                                                                                                                                                                                                                                                                 हुई ना एक महिला या मां जाति विहीन


       उत्तर सुनकर वो अवाक् रह गया।

उसकी आँखों में महिलाओं या माताओं के लिए सम्मान व आदर का भाव था,

और उधर उस महिला को अपने माँ और महिला होने पर पर गर्व का अनुभव हो रहा था।.                                                                                                                                                                           


*संसार की सभी महिलाओं को समर्पित* 

    🙏🌹🙏🌹🙏🌹🙏

सोमवार, 25 अप्रैल 2022

भाग्य से बढ़कर पुरूषार्थ 🍃*


*जो पुरुषार्थ ते कहूं, संपत्ति मिलत रहित।*

*पेट लागी वैराट घर, तपत रसोई भीम।*


प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 

*🍃


राजा विक्रमादित्य के पास सामुद्रिक लक्षण जानने वाला एक ज्योतिषी पहुँचा। विक्रमादित्य का हाथ देखकर वह चिंतामग्न हो गया। उसके शास्त्र के अनुसार तो राजा दीन, दुर्बल और कंगाल होना चाहिए था, लेकिन वह तो सम्राट थे, स्वस्थ थे। लक्षणों में ऐसी विपरीत स्थिति संभवतः उसने पहली बार देखी थी। ज्योतिषी की दशा देखकर विक्रमादित्य उसकी मनोदशा समझ गए और बोले कि 'बाहरी लक्षणों से यदि आपको संतुष्टि न मिली हो तो छाती चीरकर दिखाता हूँ, भीतर के लक्षण भी देख लीजिए।' इस पर ज्योतिषी बोला - 'नहीं, महाराज! मैं समझ गया कि आप निर्भय हैं, पुरूषार्थी हैं, आपमें पूरी क्षमता है। इसीलिए आपने परिस्थितियों को अनुकूल बना लिया है और भाग्य पर विजय प्राप्त कर ली है। यह बात आज मेरी भी समझ में आ गई है कि 'युग मनुष्य को नहीं बनाता, बल्कि मनुष्य युग का निर्माण करने की क्षमता रखता है यदि उसमें पुरूषार्थ हो, क्योंकि एक पुरूषार्थी मनुष्य में ही हाथ की लकीरों को बदलने की सामर्थ्य होती है।'


अर्थात स्थिति एवं दशा मनुष्य का निर्माण नहीं करती, यह तो मनुष्य है जो स्थिति का निर्माण करता है। एक दास स्वतंत्र व्यक्ति हो सकता है और सम्राट एक दास बन सकता है। 


उपरोक्त प्रसंग से ये बातें प्रकाश में आती हैं- 


हम स्वयं परिस्थितियों को अनुकूल या प्रतिकूल बनाते हैं, अपने विचारों से, अपनी सोच से। जो व्यक्ति यह सोचता है कि वह निर्धन है, तो उसके विचार भी निर्धन होते हैं। विचारों की निर्धनता के कारण ही वह आर्थिक रूप से विपन्न होता है। यह विपन्नता उसे इस कदर लाचार कर देती है, कि उसे धरती पर बिखरी संपन्नता नजर ही नहीं आती। नजर आते हैं सिर्फ संपन्न लोग, उनके ठाठबाट और शानो-शौकत जो उसे कुंठित करते हैं, जबकि उनसे प्रेरणा लेकर वह भी संपन्न होने की कोशिश कर सकता है। अतः जरूरत है अपनी सोच में बदलाव लाने की। 


मन की स्थिती अजेय है, अपराजेय है। उसकी दृढ़ इच्छा-शक्ति मनुष्य को विवश कर देती है कि वह किसी की परवाह किए बिना अपने काम को जी-जान से पूरा करें, अपनी सामर्थ्य से उस काम को पूरा करे। 


मनुष्य निर्धनता और संपन्नता का सम्बन्ध भाग्य से जोड़ता है। वह सोचता है कि जो सौभाग्यशाली है, लक्ष्य उस पर प्रसन्न रहती है और बदकिस्मती का मारा कोशिश करने के बावजूद निर्धन ही बना रहता है। 


निष्कर्ष: 


सफलता की मुख्य शर्त है- पुरूषार्थ। पुरूषार्थ करने से ही 'सार्थक जीवन' बनता है, केवल भाग्यवादी रहकर नहीं। भाग्य तो अतीत में किए गए कर्मों के संचित फलों का भूल है, जो मनुष्य को सुखःदुःख के रूप में भोगने को मिलते हैं और वे फल भोगने के पश्चात क्षीण हो जाते हैं। विशेष बात यह है कि भोग करने का समय भी निश्चित नहीं है। ऐसी स्थिति में वह कब तक भाग्य के भरोसे सुख की प्रतीक्षा करता रहेगा? 


यथार्थ में पुरूषार्थ करने में ही जीवन की सफलता सुनिश्ति है, जबकी व्यक्ति भाग्य के सहारे निष्क्रियता को जन्म देकर अपने सुनहरे अवसर को नष्ट कर देता है। महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण यदि चाहते तो पांडवों को पलक झपकते ही विजय दिला देते, किन्तु वे नहीं चाहते थे कि बिना कर्म किए उन्हें यश मिले। उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का पाठ पढ़ाकर उसे युद्ध में संलग्न कराया और फिर विजय-श्री एवं कीर्ति दिलवाकर उसे लोक-परलोक में यशस्वी बनाया। 


अतः आप विकास की नई-नई मंजिलें तय करने और उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँचने के लिए अपने पुरूषार्थ को कभी शिथिल न होने दें और पूर्ण उत्साह के साथ आगे बढ़ते रहें। 


पुरूषार्थ उसी में है जो संकट की घड़ी में निर्णय लेने में संकोच नहीं करता।

रविवार, 24 अप्रैल 2022

दो कहानी

 *कहानी बड़ी सुहानी*


(1) *कहानी*


*एक गरीब एक दिन एक सिक्ख के पास अपनी जमीन बेचने गया, बोला सरदार जी मेरी 2 एकड़ जमीन आप रख लो.*

 

*सिक्ख बोला, क्या कीमत है ?* 


*गरीब बोला, 50 हजार रुपये.*


*सिक्ख थोड़ी देर सोच कर बोला, वो ही खेत जिसमें ट्यूबवेल लगा है ?*

 

*गरीब: जी. आप मुझे 50 हजार से कुछ कम भी देंगे, तो जमीन आपको दे दूँगा.*


*सिक्ख ने आँखें बंद कीं, 5 मिनट सोच कर बोला: नहीं, मैं उसकी कीमत 2 लाख रुपये दूँगा.*

 

*गरीब: पर मैं तो 50 हजार मांग रहा हूँ, आप 2 लाख क्यों देना चाहते हैं ?*


*सिक्ख बोला, तुम जमीन क्यों बेच रहे हो ?*


*गरीब बोला, बेटी की शादी करना है इसीलिए मज़बूरी में बेचना है. पर आप 2 लाख क्यों दे रहे हैं ?*


*सिक्ख बोला, मुझे जमीन खरीदनी है, किसी की मजबूरी नहीं. अगर आपकी जमीन की कीमत मुझे मालूम है तो मुझे आपकी मजबूरी का फायदा नहीं उठाना, मेरा वाहेगुरू कभी खुश नहीं होगा.*

  

*ऐसी जमीन या कोई भी साधन, जो किसी की मजबूरियों को देख के खरीदा जाये वो जिंदगी में सुख नहीं देता, आने वाली पीढ़ी मिट जाती है.*

 

*सिक्ख ने कहा: मेरे मित्र, तुम खुशी खुशी, अपनी बेटी की शादी की तैयारी करो, 50 हजार की व्यवस्था हम गांव वाले मिलकर कर लेंगे, तेरी जमीन भी तेरी ही रहेगी.*

  

*मेरे गुरु नानक देव साहिब ने भी अपनी बानी में यही हुक्म दिया है.*


*गरीब हाथ जोड़कर नीर भरी आँखों के साथ दुआयें देता चला गया।*

 

*ऐसा जीवन हम भी बना सकते हैं.*


*बस किसी की मजबूरी न खरीदें, किसी के दर्द, मजबूरी को समझ कर, सहयोग करना ही सच्चा तीर्थ है, एक यज्ञ है. सच्चा कर्म और बन्दगी है..!!*


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(2) *कहानी*


          *!! बाज़ की उड़ान*


एक बार की बात है कि एक बाज का अंडा मुर्गी के अण्डों के बीच आ गया. कुछ दिनों बाद उन अण्डों में से चूजे निकले, बाज का बच्चा भी उनमें से एक था. वो उन्हीं के बीच बड़ा होने लगा. वो वही करता जो बाकी चूजे करते, मिट्टी में इधर-उधर खेलता, दाना चुगता और दिन भर उन्हीं की तरह चूँ-चूँ करता. बाकी चूजों की तरह वो भी बस थोडा सा ही ऊपर उड़ पाता, और पंख फड़-फडाते हुए नीचे आ जाता.


फिर एक दिन उसने एक बाज को खुले आकाश में उड़ते हुए देखा. बाज बड़े शान से बेधड़क उड़ रहा था. तब उसने बाकी चूजों से पूछा कि- “इतनी ऊंचाई पर उड़ने वाला वो शानदार पक्षी कौन है?”


तब चूजों ने कहा- “अरे वो बाज है, पक्षियों का राजा, वो बहुत ही ताकतवर और विशाल है. लेकिन तुम उसकी तरह नहीं उड़ सकते क्योंकि तुम तो एक चूजे हो.”

बाज के बच्चे ने इसे सच मान लिया और कभी वैसा बनने की कोशिश नहीं की. वो ज़िन्दगी भर चूजों की तरह रहा और एक दिन बिना अपनी असली ताकत पहचाने ही मर गया.


दोस्तों! हममें से बहुत से लोग उस बाज की तरह ही अपना असली Potential जाने बिना एक Second-Class ज़िन्दगी जीते रहते हैं. हमारे आस-पास की Mediocrity हमें भी Mediocre बना देती है. हम ये भूल जाते हैं कि हम अपार संभावनाओं से पूर्ण एक प्राणी हैं. हमारे लिए इस जग में कुछ भी असंभव नहीं है, पर फिर भी बस एक औसत जीवन जी के हम इतने बड़े मौके को गँवा देते हैं.


*शिक्षा:-*

आप चूजों की तरह मत बनिए। अपने आप पर, अपनी काबिलियत पर भरोसा कीजिए। आप चाहे जहाँ हों, जिस परिवेश में हों, अपनी क्षमताओं को पहचानिए और आकाश की ऊँचाइयों पर उड़ कर दिखाइए, क्योंकि यही आपकी वास्तविकता है।


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(3) *कहानी*


         *असली गहना*


एक राजा थे , उनका नाम था चक्ववेण , वह बड़े ही धर्मात्मा थे। राजा जनता से जो भी कर लेते थे सब जनहित में ही खर्च करते थे उस धन से अपना कोई कार्य नहीं करते थे। अपने  जीविकोपार्जन हेतु राजा और रानी दोनोँ खेती किया करते थे। उसी से जो पैदावार हो जाता उसी से अपनी गृहस्थी चलाते , अपना जीवन निर्वाह करते थे। राजा रानी होकर भी साधारण से वस्त्र और साधारण सात्विक भोजन करते थे। 

    एक दिन नगर में कोई उत्सव था तो राज्य की तमाम महिलाएं बहुत अच्छे वस्त्र और गहने धारण किये हुए जिसमें रेशमी वस्त्र तथा हीरे ,पन्ने , जवाहरात आदि के जेवर आदि पहने थीँ आई और जब रानी को साधारण वस्त्रों में देखा तो कहने लगी कि आपतो हमारी मालकिन हो और इतने साधरण वस्त्रों में बिना गहनों के जबकि आपको तो हम लोगों से अच्छे वस्त्रों और गहनों में होना चाहिए। यह बात रानी के कोमल हृदय को छू गई और रात में जब राजा रनिवास में आये तो रानी ने सारी बात बताते हुए कहा कि आज तो हमारी बहुत फजीहत बेइज्जती हुई। सारी बात सुनने के बाद राजा ने कहा क्या करूँ मैं खेती करता हूँ जितना कमाई होती है घर गृहस्थी में ही खर्च हो जाता है , क्या करूँ ? प्रजा से आया धन मैं उन्हीं पर खर्च कर देता हूँ , फिर भी आप परेशान न हों , मैं आपके लिए गहनों की ब्यवस्था कर दूंगा। तुम धैर्य रखो।

     दूसरे दिन राजा ने अपने एक आदमी को बुलाया और कहा कि तुम लंकापति रावण के पास जाओ और कहो कि राजा चक्रवेणु ने आपसे कर मांगा है और उससे सोना ले आओ। वह ब्यक्ति रावण के दरबार मे गया और अपना मन्तब्य बताया इस पर रावण अट्टहास करते हुए बोला अब भी कितने मूर्ख लोग भरे पड़े है , मेरे घर देवता पानी भरते हैं और मैं कर दूंगा। उस ब्यक्ति ने कहा कि कर तो आप को अब देना ही पड़ेगा , अगर स्वयं दे दो तो ठीक है , इस पर रावण क्रोधित होकर बोला कि ऐसा कहने की तेरी हिम्मत कैसे हुई , जा चला जा यहां से -,

      रात में रावण मन्दोदरी से मिला तो यह कहानी बताई मन्दोदरी पूर्णरूपेण एक पतिव्रता स्त्री थीँ , यह सुनकर उनको चिन्ता हुई और पूँछी कि फिर आपने कर दिया या नहीं ? तो रावण ने कहा तुम पागल हो मैं रावण हूँ , क्या तुम मेरी महिमा को जानती नहीं। क्या रावण कर देगा। इस पर मन्दोदरी ने कहा कि महाराज आप कर दे दो वरना इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। मन्दोदरी राजा चक्रवेणु के प्रभाव को जानती थी क्योंकि वह एक पतिव्रता स्त्री थी। रावण नहीं माना , जब सुबह उठकर रावण जाने लगा तो मन्दोदरी ने कहा कि महाराज आप थोड़ी देर ठहरो मैं आपको एक तमाशा दिखाती हूँ। रावण ठहर गया , मन्दोदरी प्रतिदिन छत पर कबूतरों को दाना डाला क़रतीं थी , उस दिन भी डाली और जब कबूतर दाना चुगने लगे तो बोलीं कि अगर तुम सब एक भी दाना चुगे तो तुम्हें महाराजाधिराज रावण की दुहाई है , कसम है। रानी की इस बात का कबूतरों पर कोई असर नहीं हुआ और वह दाना चुगते रहे। मन्दोदरी ने रावण से कहा कि देख लिया न आपका प्रभाव , रावण ने कहा तू कैसी पागल है पक्षी क्या समझें कि क्या है रावण का प्रभाव तो मन्दोदरी ने कहा कि ठीक है अब दिखाती हूँ आपको फिर उसने कबूतरों से कहा कि अब एक भी दाना चुना तो राजा चक्रवेणु की दुहाई है। सारे कबूतर तुरन्त दाना चुगना बन्द कर दिया। केवल एक कबूतरी ने दाना चुना तो उसका सर फट गया , क्योंकि वह बहरी थी सुन नही पाई थी। रावण ने कहा कि ये तो तेरा कोई जादू है ,मैं नही मानता इसे। और ये कहता हुआ वहां से चला गया।

      रावण दरबार मे जाकर गद्दी पर बैठ गया तभी राजा चक्रवेणु का वही व्यक्ति पुनः दरबार मे आकर पूंछा की आपने मेरी बात पर रात में विचार किया या नहीं। आपको कर रूप में सोना देना पड़ेगा। रावण हंसकर बोला कि कैसे आदमी हो तुम देवता हमारे यहां पानी भरते है और हम कर देंगे। तब उस ब्यक्ति ने कहा कि ठीक है आप हमारे साथ थोड़ी देर के लिए समुद्र के किनारे चलिये , रावण किसी से डरता ही नही था सो कहा चलो और उसके साथ चला गया। उसने समुद्र के किनारे पहुंचकर लंका की आकृति बना दी और जैसे चार दरवाजे लंका में थे वैसे दरवाजे बना दिये और रावण से पूंछा की लंका ऐसी ही है न ? तो रावण ने कहा हाँ ऐसी ही है तो ? तुम तो बड़े कारीगर हो। वह आदमी बोला कि अब आप ध्यान से देखें , " महाराज चक्रवेणु की दुहाई है " ऐसा कहकर उसने अपना हाथ मारा और एक दरवाजे को गिरा दिया। इधर बालू से बनी लंका का एक एक हिस्सा बिखरा उधर असली लंका का भी वही हिस्सा बिखर गया। अब वह आदमी बोला कि कर देते हो या नहीं?  नहीं तो मैं अभी हाथ मारकर सारी लंका बिखेरता हूँ। रावण डर गया और बोला हल्ला मत कर ! तेरे को जितना चाहिए चुपचाप लेकर चला जा। रावण उस ब्यक्ति को लेजाकर कर के रूप में बहुत सारा सोना दे दिया। 

      रावण से कर लेकर वह आदमी राजा चक्रवेणु के पास पहुंचा और उनके सामने सारा सोना रख दिया चक्ववेण ने वह सोना रानी के सामने रख दिया कि जितना चाहिए उतने गहने बनवा लो। रानी ने पूंछा कि इतना सोना कहाँ से लाये ? राजा चक्ववेण ने कहा कि यह रावण के यहां से कर रूप में मिला है। रानी को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ कि रावण ने कर कैसे दे दिया? रानी ने कर लाने वाले आदमी को बुलाया और पूंछा कि कर कैसे लाये तो उस ब्यक्ति ने सारी कथा सुना दी। कथा सुनकर रानी चकरा गई और बोली कि मेरे असली गहना तो मेरे पतिदेव जी हैं , दूसरा गहना मुझे नहीं चाहिए। गहनों की शोभा पति के कारण ही है। पति के बिना गहनों की क्या शोभा ? जिनका इतना प्रभाव है कि रावण भी भयभीत होता है , उनसे बढ़कर गहना मेरे लिए और हो ही नहीं सकता। रानी ने उस आदमी से कहा कि जाओ यह सब सोना रावण को लौटा दो और कहो कि महाराज चक्ववेण तुम्हारा कर स्वीकार नहीं करते। 

       कथा का सार है कि मनुष्य को देखा देखी पाप देखादेखी पुण्य नहीं करना चाहिए और सात्विक रूप से सत्यता की शास्त्रोक्त विधि से कमाई हुई दौलत में ही सन्तोष करना चाहिए। दूसरे को देखकर मन को बढ़ावा या पश्चाताप नहीं करना चाहिए। धर्म मे बहुत बड़ी शक्ति आज भी है। करके देखिए निश्चित शांति मिलेगी । आवश्यकताओं को कम कर दीजिए जो आवश्यक आवश्यकता है उतना ही खर्च करिये शेष परोपकार में लगाइए। भगवान तो हमारे इन्हीं कार्यो की समीक्षा में बैठे हैं, मुक्ति का द्वार खोले , किन्तु यदि हम स्वयं नरकगामी बनना चाहें तो उनका क्या दोष ? 


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(4) *कहानी*


      *#पत्नि_हो_तो_ऐैसी*


बेटा अब खुद कमाने वाला हो गया था ...इसलिए  बात-बात पर  अपनी माँ से झगड़ पड़ता था .... ये  वही माँ थी जो बेटे के  लिए पति से भी लड़ जाती थी।मगर अब फाइनेसिअली   इंडिपेंडेंट बेटा  पिता के कई बार समझाने पर भी  इग्नोर  कर देता और कहता, "यही तो उम्र है शौक की, खाने पहनने की, जब  आपकी तरह मुँह में दाँत और पेट में आंत ही नहीं रहेगी तो क्या करूँगा।"

*

बहू खुशबू  भी भरे पूरे परिवार से आई थी, इसलिए बेटे की गृहस्थी की खुशबू में रम गई थी। बेटे की नौकरी  अच्छी थी तो  फ्रेंड सर्किल  उसी हिसाब से मॉडर्न थी । बहू को अक्सर वह पुराने स्टाइल के कपड़े छोड़ कर मॉडर्न बनने को कहता, मगर बहू मना कर देती .....वो कहता "कमाल करती हो तुम, आजकल सारा ज़माना ऐसा करता है, मैं क्या कुछ नया कर रहा हूँ। तुम्हारे सुख के लिए सब कर रहा हूँ और तुम हो कि उन्हीं पुराने विचारों में अटकी हो। क्वालिटी लाइफ क्या होती है तुम्हें मालूम ही नहीं।"

*

और बहू कहती "क्वालिटी लाइफ क्या होती है, ये मुझे जानना भी नहीं है, क्योकि  लाइफ की क्वालिटी क्या हो, मैं इस बात में विश्वास रखती हूँ।"

*

आज अचानक पापा   आई. सी. यू. में एडमिट  हुए थे। हार्ट अटेक आया  था। डॉक्टर ने पर्चा पकड़ाया, तीन लाख और जमा करने थे। डेढ़ लाख का बिल तो पहले ही भर दिया था मगर अब ये तीन लाख भारी लग रहे थे। वह बाहर बैठा हुआ सोच रहा था कि अब क्या करे..... उसने कई दोस्तों को फ़ोन लगाया कि उसे मदद की जरुरत है, मगर किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ बहाना कर दिया। आँखों में आँसू थे और वह उदास था।.....तभी खुशबू  खाने का टिफिन लेकर आई और बोली, "अपना ख्याल रखना भी जरुरी है। ऐसे उदास होने से क्या होगा? हिम्मत से काम लो, बाबू जी को कुछ नहीं होगा आप चिन्ता मत करो । कुछ खा लो  फिर पैसों का इंतजाम भी तो करना है आपको।.... मैं यहाँ बाबूजी के पास रूकती हूँ आप खाना खाकर पैसों का इंतजाम कीजिये। ".......पति की आँखों से टप-टप आँसू झरने लगे।

*

"कहा न आप चिन्ता मत कीजिये। जिन दोस्तों के साथ आप मॉडर्न पार्टियां करते हैं आप उनको फ़ोन  कीजिये , देखिए तो सही, कौन कौन मदद को आता हैं।"......पति खामोश और सूनी निगाहों से जमीन की तरफ़ देख रहा था। कि खुशबू का   का हाथ  उसकी पीठ  पर आ गया। और वह पीठ  को सहलाने लगी।

*

"सबने मना कर दिया। सबने कोई न कोई बहाना बना दिया खुशबू ।आज पता चला कि ऐसी दोस्ती तब तक की है जब तक जेब में पैसा है। किसी ने  भी  हाँ नहीं  कहा  जबकि उनकी पार्टियों पर मैंने लाखों उड़ा दिये।"

*

"इसी दिन के लिए बचाने को तो माँ-बाबा कहते थे। खैर, कोई बात नहीं, आप चिंता न करो, हो जाएगा सब ठीक। कितना जमा कराना है?"

*

"अभी तो तनख्वाह मिलने में भी समय है, आखिर चिन्ता कैसे न करूँ खुशबू ?"

*

"तुम्हारी ख्वाहिशों को मैंने सम्हाल रखा है।"

*

"क्या मतलब?"

*

"तुम जो नई नई तरह के कपड़ो और दूसरी चीजों के लिए मुझे पैसे देते थे वो सब मैंने सम्हाल रखे हैं। माँ जी ने फ़ोन पर बताया था, तीन लाख जमा करने हैं। मेरे पास दो लाख थे। बाकी मैंने अपने भैया से मंगवा लिए हैं। टिफिन में सिर्फ़ एक ही डिब्बे में खाना है बाकी में पैसे हैं।" खुशबू  ने थैला टिफिन सहित उसके हाथों में थमा दिया।

*

"खुशबू ! तुम सचमुच अर्धांगिनी हो, मैं तुम्हें मॉडर्न बनाना चाहता था, हवा में उड़ रहा था। मगर तुमने अपने संस्कार नहीं छोड़े.... आज वही काम आए हैं। "

*

सामने बैठी माँ के आँखो में आंसू थे  उसे आज  खुद के नहीं  बल्कि पराई माँ के संस्कारो पर नाज था  और वो  बहु के सर पर हाथ फेरती हुई ऊपरवाले का शुक्रिया अदा कर रही थी।


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(5) *कहानी*


*कर्मों का हिसाब किताब* 


एक स्त्री थी जिसे 20 साल तक संतान नहीं हुई, फिर कर्म संजोग से 20 वर्ष के बाद उसे पुत्र संतान की प्राप्ति हुई। किन्तु दुर्भाग्य वश 20 दिन में ही वह संतान मृत्यु को प्राप्त हो गयी। वह स्त्री हद से ज्यादा रोई और उस मृत बच्चे का शव ले कर एक सिद्ध महात्मा जी के पास पहुच गई। वह महात्मा जी से रो रो कर कहने लगी, मुझे मेरा बच्चा एक बार जीवित कर के दीजिये। मात्र एक बार मैं उस के मुख से *"माँ"* शब्द सुनना चाहती हूँ। स्त्री के बहुत जिद करने पर महात्मा जी ने 2 मिनट के लिए उस बच्चे की आत्मा को बापिस बुलाया। तब उस स्त्री ने उस आत्मा से कहा तुम मुझे क्यों छोड़ कर चले गए मेरे बच्चे? मैं तुम से सिर्फ एक बार 'माँ' शब्द सुनना चाहती हूँ। तभी उस आत्मा ने कहा कौन माँ? कैसी माँ ! *मैं तो तुम से कर्मों का हिसाब किताब करने आया था। स्त्री ने पूछा कैसा हिसाब! आत्मा ने बताया पिछले जन्म में तुम मेरी सौतन थी, और मेरी आँखों के सामने तू मेरे पति को ले गई। मैं बहुत रोई तुम से अपना पति मांगा। पर तुम ने मेरी एक नही सुनी, तब मैं रो रही थी और आज तुम रो रही हो। बस मेरा तुम्हारे साथ जो कर्मों का हिसाब था, वह मैंने पूरा किया और मर गया। इतना कह कर वह आत्मा वापिस चली गयी। उस स्त्री को यह सब देख और सुन कर ऐसा झटका लगा कि उसकी आंखें खुल गई। फिर उसे महात्मा जी ने समझाया कि देखो मैने कहा था कि यह सब रिश्तेदार माँ, पिता, भाई-बहन सब कर्मों के कारण जुड़े हुए हैं। उस औरत ने महात्मा जी से कहा, जी महात्मा जी! आप सच बोल रहे थे, अब मेरी आंखें खुल चुकी है।* हम सब यहां पर कर्मो का हिसाब किताब करने आये हैं। इस लिए सदा अच्छे कर्म करो, ताकि हमे बाद में यह सब भुगतना ना पड़े। वो स्त्री समझ गयी और अपने घर लौट गयी ।

 इसलिए हमें हमेशा अच्छे कर्म करने चाहिए हमारा यह शरीर एक किराये का घर है। *जैसे कि जब हम "किराए का मकान" लेते है तो "मकान मालिक" कुछ शर्तें रखता है!*  मकान का किराया समय पर देना। मकान में गंदगी नही फैलाना, उसे साफ सुथरा रखना। मकान मालिक का कहना मानना,और  मकान मालिक जब चाहे मकान को खाली करवा सकता है!! *इसी प्रकार परमात्मा ने भी जो हमें यह शरीर दिया है, यह भी एक किराए का मकान ही है। हमें परमात्मा ने जब यह शरीर दिया है, तो यह सारी शर्ते हमारे लिये भी लागू होती है।*


1 किराया है। (भजन -सिमरन)

2. गन्दगी (बुरे विचार और बुरी भावनाये) नही फैलानी।

3. जब मर्जी होगी परमात्मा अपनी आत्मा को वापिस बुला लेगा!! 

मतलब यह है, कि यह जीवन हमे बहुत थोड़े समय के लिए मिला है। इसे लड़ाई -झगड़े कर के या मन में द्वेष भावना रख कर नही। बल्कि प्रभु जी के नाम का सिमरन करते हुए बिताना चाहिए और हर समय उस सच्चे मालिक के आगे विनती करनी है कि *हे मेरे प्रभु जी! इतनी कृपा करना कि आप की आज्ञा  में रहे और भजन -सुमिरन करते रहे!! "ये जन्म मनुष्य शरीर जो हमे मिला है। गुरु किरपा का प्रशाद समझें, हम इस की बेकदरी ना करे और अपने हर स्वास के साथ नाम जपन और जीवन का राज समझे !!"*


*रात गंवाई सोय कर दिवस गंवायो खाय।*

*हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय॥*

अर्थ: रात सो कर बिता दी, दिन खा कर बिता दिया हीरे के समान कीमती जीवन को .......


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बिहारी जी किसी का उधार नही रखते../ कृष्णमेहता ...

 


एक बार की बात है। वृन्दावन में एक संत रहा करते थे। उनका नाम था कल्याण बाँके बिहारी जी के परमभक्त थे एक बार उनके पास एक सेठ आया। अब था तो सेठ लेकिन कुछ समय से उसका व्यापार ठीक नही चल रहा था। 


उसको व्यापार में बहुत नुकसान हो रहा था। अब वो सेठ उन संत के पास गया और उनको अपनी सारी व्यथा बताई और कहा महाराज आप कोई उपाय करिये। उन संत ने कहा देखो अगर मैं कोई उपाय

जानता तो तुम्हे अवश्य बता देता मैं तो ऐसी कोई विद्या जानता नही जिससे मैं तेरे व्यपार को ठीक कर सकूँ। 


ये मेरे बस में नही है हमारे तो एक ही आश्रय है बिहारी जी। इतनी बात हो ही पाई थी कि बिहारी जी के मंदिर खुलने का समय हो गया। अब उस संत ने कहा तू चल मेरे साथ ऐसा कहकर वो संत उसे बिहारी जी के मंदिर में ले आये और अपने हाथ को बिहारी जी की ओर करते हुए उस सेठ को बोले तुझे जो कुछ मांगना है। 


जो कुछ कहना है इनसे कह दे ये सबकी कामनाओ को पूर्ण कर देते है। अब वो सेठ बिहारी जी से प्रार्थना करने लगा दो चार दिन वृन्दावन में रुका फिर चला गया। कुछ समय बाद उसका सारा व्यापार धीरे धीरे ठीक हो गया फिर वो समय समय पर वृन्दावन आने लगा। बिहारी जी का धन्यवाद करता फिर कुछ समय बाद वो थोड़ा अस्वस्थ हो गया वृन्दावन आने की शक्ति भी शरीर मे नही रही। 


लेकिन उसका एक जानकार एक बार वृन्दावन की यात्रा पर जा रहा था तो उसको बड़ी प्रसन्नता हुई कि ये बिहारी जी का दर्शन करने जा रहा है, तो उसने उसे कुछ पैसे दिए 750 रुपये और कहा कि ये धन तू बिहारी जी की सेवा में लगा देना और उनको पोशाक धारण करवा देना।


अब बात तो बहुत पुरानी है ये, अब वो भक्त जब वृन्दावन आया तो उसने बिहारी जी के लिए पोशाक बनवाई और उनको भोग भी लगवाया लेकिन इन सब व्यवस्था में धन थोड़ा ज्यादा खर्च हो गया लेकिन उस भक्त ने सोचा कि चलो कोई बात नही थोड़ी सेवा बिहारी जी की हमसे बन गई कोई बात नही।


 लेकिन हमारे बिहारी जी तो बड़े नटखट है ही अब इधर मंदिर बंद हुआ तो हमारे बिहारी जी रात को उस सेठ के स्वप्न में पहुच गए अब सेठ स्वप्न में बिहारी जी की उस त्रिभुवन मोहिनी मुस्कान का दर्शन कर रहा है। उस सेठ को स्वप्न में ही बिहारी जी ने कहा तुमने जो मेरे लिए सेवा भेजी थी वो मेने स्वीकार की लेकिन उस सेवा में 249 रुपये ज्यादा लगे है। 


तुम उस भक्त को ये रुपये लौटा देना ऐसा कहकर बिहारी जी अंतर्ध्यान हो गए अब उस सेठ की जब आँख खुली तो वो आश्चर्य चकित रह गया कि ये कैसी लीला है बिहारी जी की। 


अब वो सेठ जल्द से जल्द उस भक्त के घर पहुच गया तो उसको पता चला कि वो तो शाम को आएंगे। जब शाम को वो भक्त घर आया तो सेठ ने उसको सारी बात बताई तो वो भक्त आश्चर्य चकित रह गया कि ये बात तो मैं ही जानता था और तो मैने किसी को बताई भी नही। सेठ ने उनको वो 249 रुपये दिए और कहा मेरे सपने में श्री बिहारी जी आए थे वो ही मुझे ये सब बात बता कर गए है।


 ये लीला देखकर वो भक्त खुशी से मुस्कुराने लगा और बोला जय हो बिहारी जी की इस कलयुग में भी बिहारी जी की ऐसी लीला। तो भक्तो ऐसे है हमारे बिहारी जी ये किसी का कर्ज किसी के ऊपर नही रहने देते।


 जो एक बार इनकी शरण ले लेता है फिर उसे किसी से कुछ माँगना नही पड़ता उसको सब कुछ मिलता चला जाता है।


बोलो श्री वृन्दावन बिहारी लाल की जय।राधेश्याम राधेश्याम सब को मिले वृन्दावन धाम

दोहरा दूं, ताकि तुम्हें भूल न जाए। / ओशो


प्रेम के संबंध में तुम्हारी धारणा गलत है, उसे छोड़ दो।


प्रेम का अर्थ वासना नहीं है। प्रेम का अर्थ सबके लिए सदभावना है।


गौतम बुद्ध के जीवन में यह उल्लेख है कि वह अपने हर भिक्षु को यह कहते कि जब तुम ध्यान करो और जब आनंद से भर जाओ तो एक काम करना मत भूलना। जब तुम आनंद से भर जाओ, तो अपने आनंद को सारे जगत को बांट देना। तभी उठना ध्यान से। ऐसा न हो कि ध्यान भी कंजूसी बन जाए। ऐसा न हो कि ध्यान को भी तुम तिजोड़ी में बंद करने लगो। जो पाओ, उसे लुटा देना। फिर कल और आएगा, उसे भी लुटा देना। और जितना तुम लुटाओगे, उतना ज्यादा आएगा।


एक आदमी खड़ा हुआ। उसने कहा और सब ठीक है, आपकी आज्ञा शिरोधार्य लेकिन एक अपवाद मांगना चाहता हूं।


बुद्ध ने कहा, क्या अपवाद?


उसने कहा कि मैं ध्यान करता हूं, ध्यान करूंगा। और आप जैसा कहते हैं, वैसा ही ध्यान के बाद जो आनंद की अनुभूति होती है—प्रार्थना करूंगा कि है विश्व, इस अनुभूति को संभाल ले। लेकिन इसमें मैं एक छोटा सा अपवाद चाहता हूं। वह यह कि मैं अपने पड़ोसी को इसके बाहर छोड़ना चाहता हूं, क्योंकि वह कम्बख्त मेरे ध्यान का लाभ उठाए, यह मैं नहीं देख सकता। बस इतनी सी स्वीकृति…एक पड़ोसी। सारी दुनिया को ध्यान बांटने को राजी हूं। दूर से दूर तारों पर कोई रहता हो, मुझे कोई चिंता नहीं। मगर इस हरामखोर को…


बुद्ध ने कहा, तब मुश्किल है। तब तुम बात समझे ही नहीं। सवाल यह नहीं था कि इसको देना है या उसको देना है। सवाल यह नहीं था कि अपने को देना है और पराए को नहीं देना है। सवाल यह नहीं था कि दोस्त को जरा ज्यादा दे देंगे, दुश्मन को जरा कम दे देंगे। सवाल यह था कि देंगे, बेशर्त देंगे। और यह न पूछेंगे कि लेने वाला कौन है। और तुम वहीं अटक गए हो। तुम्हारा ध्यान आगे न बढ़ सकेगा। ये चांदत्तारे तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं रखते; इसलिए तुम तैयार हो इनको प्रेम देने को, ध्यान देने को, आनंद देने को। मगर वह पड़ोसी…


तो बुद्ध ने कहा, मैं तुमसे यह कहता हूं कि तुम सबकी फिकर छोड़ो—चांद की और तारों की। तुम इतनी ही प्रार्थना करो रोज ध्यान के बाद कि मेरा सारा आनंद मेरे पड़ोसी को मिल जाए। बस, तुम्हारे लिए इतना काफी है। दूसरों के लिए पूरी दुनिया भी छोटी है, तुम्हारे लिए तुम्हारा पड़ोसी भी सारी दुनिया से बड़ा मालूम होता है।


प्रेम का इतना ही अर्थ है कि मेरा आनंद, मेरे जीवन की खुशी, मेरे जीवन की खुशबू बेशर्त, बिना किसी कारण के सब तक पहुंच जो।


तो पहली तो बात यह याद कर लो कि प्रेम तुम्हारी पुरानी धारणा गलत है। और दूसरी बात कि वह जो क्षण आता है ध्यान में, घबराकर छोड़ मत देना। क्योंकि वही क्षण…जैसे गंगा गंगोत्री में छोटी सी होती है। इतनी छोटी होती है कि हिंदुओं ने वहां एक गौमुख बना रखा है। पत्थर के गौमुख से गंगोत्री निकलती है। और वही गंगोत्री हजारों मिल की यात्रा करके इतनी बड़ी हो जाती है कि जब वह सागर से मिलती है तो उसका नाम गंगासागर है। उसको एक पार से दूसरे पार तक देखना मुश्किल हो जाता है।


वह जो छोटा सा क्षण है, वह अभी गंगोत्री है। अगर तुम प्रेम के संबंध में सुधार कर लिया तो उस गंगोत्री को गंगा—सागर बनने मग देर न लगेगी। उसका गंगा—सागर बनना निश्चित है। इस अस्तित्व के नियम बदलते नहीं;: वे सदा से वही हैं। अगर कभी कोई भूल—चूक हमारी है। जगत के नियमों का कोई पक्षपात नहीं है।


ओशो

वैभव के बीच (अभाव ) संवेदना

 पुत्र अमेरिका में जॉब करता है। 

उसके माँ बाप छोटे शहर में रहते हैं।

अकेले बुजुर्ग हैं, बीमार हैं, लाचार हैं।

जहां पुत्र की आवश्यकता है। वहां पैसा भी काम नहीं आता। 

 पुत्र वापस आने की बजाय पिता जी को एक पत्र लिखता है। 


 😔😔😔                      

  *पुत्र का पत्र पिता के नाम*


*पूज्य पिताजी!*


*आपके आशीर्वाद से आपकी भावनाओं इच्छाओं के अनुरूप मैं, अमेरिका में व्यस्त हूं।*

*यहाँ पैसा, बंगला, साधन सुविधा सब हैं,*

*नहीं है तो केवलसमय।*


*आपसे मिलने का बहुत मन करता है। चाहता हूं,* 

*आपके पास बैठकर बातें करता रहूं हूँ।*

*आपके दुख दर्द को बांटना चाहता हूँ,*


*परन्तु क्षेत्र की दूरी,*

*बच्चों के अध्ययन की मजबूरी,*

*कार्यालय का काम करना भी जरूरी,*

*क्या करूँ? कैसे बताऊँ ?*

*मैं चाह कर भी स्वर्ग जैसी जन्म भूमि*

*और देव तुल्य माँ बाप के पास आ नहीं सकता।*


*पिताजी।!*

*मेरे पास अनेक सन्देश आते हैं -*

*"माता-पिता जीवन भर  अनेक कष्ट सह कर भी बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाते हैं,*

*और बच्चे मां-बाप को छोड़ विदेश चले जाते हैं,*


*पुत्र, संवेदनहीन होकर माता-पिता के किसी काम नहीं आते हैं। "*


*पर पिताजी,*

*मैं बचपन मे कहाँ जानता था इंजीनियरिंग क्या होती है?*

*मुझे क्या पता था कि पैसे की कीमत क्या होती है?*

*मुझे कहाँ पता था कि अमेरिका कहाँ है ?*

*, योग्यता नाम पैसा सुविधा और अमेरिका तो बस,*

*आपकी गोद में बैठ कर ही समझा था न?*


*आपने ही मंदिर न भेजकर कॉन्वेंट स्कूल भेजा,*

*खेल के मैदान में नहीं कोचिंग भेजा,*

*कभी आस पडोस के बच्चों से दोस्ती नहीं करने दी*

*आपने अपने मन में दबी इच्छाओं को पूरा करने के लिए दिन रात समझाया की*


*इंजीनियरिंग /पैसा /पद/ रिश्तेदारों में नाम की वैल्यू क्या होती है,*


*माँ ने भी दूध पिलाते हुये रोज दोहराया की ,*

*मेरा राजा बेटा बड़ा आदमी बनेगा खुब पैसा कमाऐगा,*

*गाड़ी बंगला होगा हवा में उड़ेगा कहा था।*

*मेरी लौकिक उन्नति के लिए,*

*जाने कितने मंदिरों में घी के दीपक जलाये थे।।*


*मेरे पूज्य पिताजी!*

*मैं बस आपसे इतना पूछना चाहता हूं कि,*


*संवेदना शून्य मेरा जीवन आपका ही बनाया हुआ है*😕

 

*मैं आपकी सेवा नहीं कर पा रहा,*

*होते हुऐ भी आपको पोते पोती से खेलने का सुख नहीं दे पा रहा*

*मैं चाहकर भी पुत्र धर्म नहीं निभा पा रहा,*

*मैं हजारों किलोमीटर दूर बंगले गाडी और जीवन की हर सुख सुविधाओं को भोग रहा हूं*

आप, उसी पुराने मकान में वही पुराना अभावग्रस्त जीवन जी रहे हैं

*क्या इन परिस्थितियों का सारा दोष सिर्फ़ मेरा है?*


*आपका पुत्र,*

  ******


*अब यह फैंसला हर माँ बाप को करना है कि अपना पेट काट काट कर, तकलीफ सह कर, अपने सब शौक समाप्त करके ,बच्चों के सुंदर भविष्य के सपने क्या इन्हीं दिनों के लिये देखते हैं?*


 *शिक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है  पर साथ में नैतिक मूल्यों की शिक्षा, राष्ट्र प्रेम और सनातन संस्कार भी उतना ही जरूरी है, क्या वास्तव में हम कोई गलती तो नहीं कर रहे हैं.....?????*

*(साभार)*


Must read  it ✍️

शनिवार, 23 अप्रैल 2022

जब सफ़ेद बालों पर....

प्रस्तुति - संत शरण 


प्रेम उस उम्र तक बना रहे 

ज़ब गीली रेत परt

खींची लकीर की तरह

चेहरे पर झुर्रियां उभर आये


प्रेम उस उम्र तक बना रहे

जब देखने के लिए

एक मोटा ऐनक

आँखों पर लग न जाये


शब्द उलझने लगे

कदमों में थरथराहट हो

नि:शब्द हो नयन

और मौन सब कहने लगे

उम्र के उस पड़ाव तक

प्रेम बना रहे

जब बोलने से ही

साँसे भर जाये


तब खूबसूरत दिखने से ज्यादा

खूबसूरत अहसास जरूरी होगा

प्रेम तब तक बना रहे

जब सफेद बालों पर

कोई रंग न भाये


जीवन के लम्बे सफर के बाद

मंजिल होगा वह स्पर्श 

जिसमें काँपती,मुरझाई हथेलियाँ 

चेहरे को हाथों में भर लेंगे 

और यही होगी औषधि 

हर उस रोग के लिए

जिसका कोई इलाज़ बाकि न होगा...!!

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

कुछ तो अपना रहने दे / पवन दीक्षित

 कोई भूमिका नही ... बस ... भाई पवन दीक्षित को पढ़ कर देखिये....


मुझसा लगना रहने दे

कुछ तो अपना रहने दे


अपनी हसरत पूरी कर

मेरा सपना रहने दे


सिर्फ भरम ही टूटेंगे 

छोड़ परखना रहने दे


सच्चा होना काफी है

गंगा जमना रहने दे


सच कहने की हिम्मत कर

यूँ दिल रखना रहने दे


उकता गया ख़ुशी से मन

आज अनमना रहने दे

पवन दीक्षित

ज़िंदगानी है / प्रेम रंजन अनिमेष

 *ज़िंदगानी...*

                        🍁 🍁

                                    ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                              💧

ये   जो   पानी   है

ज़िंदगानी         है


हैं     निशां    इतने

क्या   निशानी   है


रंग     धरती    का

सुर  भी  धा नी  है


आँखों  में   सपना

आसमानी        है


कोरा  कागद  तन 

मन   ही  मानी  है


अब तो हर लब पर

बेज़ुबानी          है 


मुझमें    मिट्टी   की

बोली    बानी     है


दिन को महकाती  

रातरानी          है 


प्यार   तो   ख़ुशबू

जाफ़रानी        है


और  जवानी  क्या 

बस     रवानी    है 


पूछे   ख़ुद  मछली  

कितना   पानी   है


दौड़ती   दिल   पर

राजधानी          है


तंत्र  की  जन  पर

हुक्मरानी         है   


देख    ले    हालत

क्या    बतानी    है  


क्या    कहीं   कोई 

दुख  का  सानी  है


झाँस     देगी     ही

कच्ची    घानी    है 


बरसे   बच्ची   ज्यों 

दादी     नानी     है


एक  ख़ुद को  छोड़ 

सबकी    मानी    है


तुझमें   अपनी   ही

ख़ाक     छानी    है  


फूँका सब अब बस

राख    उठानी    है


तोड़    कर     मूरत

फिर    बनानी    है 


इश्क़  का  ये रोग

ख़ानदानी        है


जीते  जी   जी  लें

जी   में    ठानी  है


उसको शह दे ख़ुद

मात    खानी     है


अब  कफ़न में भी 

खींचातानी       है


फ़ानी   है   दुनिया 

आनी   जानी    है  


साथ   में     सबके

कुछ   कहानी    है 


जान की क्यों फ़िक्र 

ये    तो   जानी   है


अनकही  सुन  ली

अब    सुनानी    है


शेर  हर  'अनिमेष'

इक    कहानी    है

                              💔

                                ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*

रवि अरोड़ा की नजर से......

 ओंकार सिंह का घरौंदा /  रवि अरोड़ा


 

उनका नाम ओंकार सिंह है । मूलतः मोदी नगर के रहने वाले ओंकार सिंह पेशे से वकील हैं । उन्हें छोटे बच्चों से इतनी मोहब्बत है कि कुछ साल पहले उन्होंने लावारिस बच्चों के लिए एक आश्रम ही बना डाला । आश्रम का नाम रखा घरौंदा । आज सिंह साहब ऐसे तीन आश्रम चलाते हैं और उनके माध्यम से लगभग पचास बच्चों का लालन पालन हो रहा है । यहां शास्त्री नगर के पास वाले उनके आश्रम में 36 बच्चे हैं और खास बात यह है कि उनमें से दस दुधमुहे हैं । कोई बच्चा रेलवे स्टेशन से बरामद हुआ था तो कोई बस अड्डे से । किसी किसी को तो उसके अभिभावक कूड़े के ढेर में मरने के लिए फेंक गए । जाहिर है कि लावारिस बरामद हुए बच्चों में कन्याएं ही अधिक हैं ।  इन बच्चों का घर अब यह घरौंदा ही है और ओंकार सिंह उनके पापा। घरौंदा की ही एक परिचारिका लता को बच्चे मम्मी कह कर बुलाते हैं । हाल ही इस आश्रम में जाना हुआ और भारी मन से वापिस लौटा । हालांकि वहां की बातें बता कर मैं आपका भी मन भारी नहीं करना चाहता मगर लावारिस बच्चों को लेकर हमारे समाज की क्या स्थिति है, यह हमें जानना तो चाहिए ही । 


घरौंदा के पास लगभग 16 लोगों की टीम है , जो दिन रात बच्चों की देखभाल करती है । कुछ बच्चे स्कूल जाते हैं तो कुछ को वहीं घरौंदा में पढ़ाया जाता है । छोटे बच्चों के लिए विशेष तौर पर कई आया वहां बड़ी ममता से काम करती दिखीं । इन बच्चों के लालन पालन में लाखों रुपए खर्च हो रहे हैं मगर सरकार इसके लिए फूटी कौड़ी भी नहीं देती । हां गाहे बगाहे जांच के नाम पर सरकारी अफसर जरूर वहां आ धमकते हैं  । पता चला कि ओंकार सिंह समाज के सहयोग और अपनी जेब से सारा खर्च वहन कर रहे हैं । इस कहानी का एक दर्दनाक पहलू यह भी है कि दस साल से बड़ी बच्चियों को सरकार जबरन अन्यत्र किसी बालिका आश्रम में भिजवा देती है और ये बच्चियां एक बार फिर अपने माता पिता से बिछड़ जाती हैं । बेशक बच्चियों की सुरक्षा के मद्देनजर ही ऐसा किए जाने का दावा किया जाता है मगर नजदीक जाकर देखने से पता चलता है कि बेसहारा बच्चों को लेकर हमारा समाज ही नहीं पूरा सिस्टम ही बेहद क्रूर है । 


एक गैरसरकारी आंकड़े के अनुसार देश भर में तीन करोड़ से अधिक लावारिस बच्चे हैं । लगभग इतनी ही संख्या में निसंतान दंपत्ति हैं जो ऐसे बच्चों को गोद लेना चाहते हैं । कोविड जैसी महामारी ने जहां इन लावारिस बच्चों की संख्या में अचानक वृद्धि कर दी है तो वहीं दूसरी ओर ऐसे कामकाजी दंपत्ति की संख्या भी बढ़ी है जो पैदा करने की बजाय बच्चा गोद लेना ज्यादा उचित समझ रहे हैं । मगर हाय रे हमारी व्यवस्था ! ऐसे ऐसे कानून हैं , ऐसे ऐसे नियम हैं कि आसानी से तो कोई व्यक्ति किसी लावारिस बच्चे को गोद नहीं ले सकता । कहने को तो सारी प्रक्रिया ऑनलाइन व पारदर्शी है मगर उसमें इतनी पेचीदगियां हैं कि साल भर में चार हजार से अधिक लोग इसमें सफल ही नहीं हो पाते । उन्हें भी बच्चा गोद लेने में एक से डेड साल लग जाता है । हालांकि एक दौर में रिश्तेदारी में बच्चा गोद ले अथवा दे दिया जाता था मगर प्रॉपर्टी संबंधी विवादों से बचने को लोगबाग अब इससे बचते हैं । वैसे आपको सुनकर हैरानी होगी कि सरकार बच्चा गोद देने की कीमत वसूलती है और इच्छुक दंपत्ति को चालीस हजार रुपए का विधिवत भुगतान करना होता है । शुक्र है अदालत के एक फैसले का वरना एक साल पहले तक सरकार इस चालीस हजार रुपए पर जीएसटी भी चार्ज करती थी । लावारिस बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया को सरल करने की मांग दशकों से की जाती रही है । हाल ही में सुप्रीम कोर्ट तक भी यह मामला पहुंचा था मगर पता नहीं हमारी सरकारें इतनी निर्दयी क्यों हैं कि उसे इन करोड़ों बच्चों का रूदन सुनाई ही नहीं देता । शुक्र मनाइए कि समाज में अभी ओंकार सिंह जैसे लोग हैं जो हमारी गैरत को ललकारने को ही सही मगर घरौंदा जैसे आश्रम तो चला ही रहे हैं , वरना ..।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

वेदना

 *भूलने वाली दवाई*

   

*मेरी दवा की दुकान थी और उस दिन दुकान पर काफी भीड़ थी मैं ग्राहको को दवाई दे रहा था.. दुकान से थोड़ी दूर पेड़ के नीचे वो बुजुर्ग औरत खड़ी थी। मेरी निगाह दो तीन बार उस महिला पर पड़ी तो देखा उसकी निगाह मेरी दुकान की तरफ ही थी।*


*मैं ग्राहकों को दवाई देता रहा लेकिन मेरे मन में उस बुजुर्ग महिला के प्रति जिज्ञासा भी थी कि वो वहां खड़े खड़े क्या देख रही है। जब ग्राहक कुछ कम हुए तो मैंने दुकान का काउंटर दुकान में काम करने वाले लड़के के हवाले किया और उस महिला के पास गया*

      

*मैंने पूछा.."क्या हुआ माता जी कुछ चाहिए आपको..*


*मैं काफी देर से आपको यहां खड़े देख रहा हूं गर्मी भी काफी है इसलिए सोचा चलो मैं ही पूछ लेता हूं आपको क्या चाहिए?*:

      

*बुजुर्ग महिला इस सवाल पर कुछ सकपका सी गई फिर हिम्मत जुटा कर  उसने पूछा...*


 *"बेटा काफी दिन हो गए मेरे दो बेटे हैं। दोनो दूसरे शहर में रहते हैं। हर बार गर्मी की छुट्टियों में बच्चों के साथ मिलने आ जाते हैं। इस बार उन्होंने कहीं पहाड़ों पर छुट्टियां मनाने का निर्णय लिया है।*


*बेटा इसलिए इस बार वो हमारे पास नही आएंगे यह समाचार मुझे कल शाम को ही मिला.. कल सारी रात ये बात सोच सोच कर परेशान रही.. एक मिनट भी सो नही सकी..*


*आज सोचा था तुम्हारी दुकान से दवाई लूंगी लेकिन दुकान पर भीड़ देखकर यही खड़ी हो गई सोचा जब कोई नही होगा तब तुमसे दवा पूछूंगी..*


*"हां हां बताइये ना मां जी.. कौन सी दवाई चाहिये आपको अभी ला देता हूं.. आप बताइये..*


*_"बेटा कोई बच्चों को भूलने की दवाई है क्या..? अगर है तो ला दे बेटा.. भगवान तुम्हारा भला करेगा..?_*


*इससे आगे के शब्द सुनने की मेरी हिम्मत ना थी। मेरे कान सुन्न हो चूके थे। मैं उसकी बातों का बिना कुछ जवाब दिये चुपचाप दुकान की तरफ लौट आया।*


*क्योंकि उस बुजुर्ग महिला की दवा उसके बेटों के पास थी। जो शायद विश्व के किसी मैडिकल स्टोर पर नही मिलेगी.. अब मैं काउंटर के पीछे खड़ा था..*



*मन में विचारों की आंधी चल रही थी लेकिन मैं उस पेड़ के नीचे खड़ी उस मां से नजरें भी नही मिला पा रहा था.. मेरी भरी दुकान भी उस महिला के लिए खाली थी..*



*मै कितना असहाय था.. या तो ये मैं जानता था या मेरा भगवान...!*


*अब जब भी अपने शहर में ये सुनता हूं कि "इस बार गर्मी की छुट्टियों में हम गांव न जाकर कहीं और घूमने जा रहे हैं तो वो पेड़ के नीचे उन माता जी की वेदना अंदर तक झंझोड़ देती है ।*

मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

शादी नहीं संस्कार / *संजय सिन्हा


...

*विवाह उपरांत जीवन साथी को छोड़ने के लिए 2 शब्दों का प्रयोग किया जाता है* 

*1-Divorce (अंग्रेजी)* 

*2-तलाक (उर्दू)* 

*कृपया हिन्दी का शब्द बताए...??*


.  


तब मैं... 'जनसत्ता' में... नौकरी करता था...। एक दिन खबर आई कि... एक आदमी ने झगड़े के बाद... अपनी पत्नी की हत्या कर दी...। मैंने खब़र में हेडिंग लगाई कि... *"पति ने अपनी बीवी को मार डाला"...!* खबर छप गई..., किसी को आपत्ति नहीं थी...। पर शाम को... दफ्तर से घर के लिए निकलते हुए... *प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी...* सीढ़ी के पास मिल गए...। मैंने उन्हें नमस्कार किया... तो कहने लगे कि... *"संजय जी..., पति की... 'बीवी' नहीं होती...!"*


*“पति की... 'बीवी' नहीं होती?”* मैं चौंका था


*" “बीवी" तो... 'शौहर' की होती है..., 'मियाँ' की होती है..., पति की तो... 'पत्नी' होती है...! "*


भाषा के मामले में... प्रभाष जी के सामने मेरा टिकना मुमकिन नहीं था..., हालांकि मैं कहना चाह रहा था कि... *"भाव तो साफ है न ?"* बीवी कहें... या पत्नी... या फिर वाइफ..., सब एक ही तो हैं..., लेकिन मेरे कहने से पहले ही... उन्होंने मुझसे कहा कि... *"भाव अपनी जगह है..., शब्द अपनी जगह...! कुछ शब्द... कुछ जगहों के लिए... बने ही नहीं होते...! ऐसे में शब्दों का घालमेल गड़बड़ी पैदा करता है...।"*


खैर..., आज मैं भाषा की कक्षा लगाने नहीं आया..., आज मैं रिश्तों के एक अलग अध्याय को जीने के लिए आपके पास आया हूं...। लेकिन इसके लिए... आपको मेरे साथ... निधि के पास चलना होगा...।


निधि... मेरी दोस्त है..., कल उसने मुझे फोन करके अपने घर बुलाया था...। फोन पर उसकी आवाज़ से... मेरे मन में खटका हो चुका था कि... कुछ न कुछ गड़बड़ है...! मैं शाम को... उसके घर पहुंचा...। उसने चाय बनाई... और मुझसे बात करने लगी...। पहले तो इधर-उधर की बातें हुईं..., फिर उसने कहना शुरू कर दिया कि... नितिन से उसकी नहीं बन रही और उसने उसे तलाक देने का फैसला कर लिया है...।


मैंने पूछा कि... "नितिन कहां है...?" तो उसने कहा कि... "अभी कहीं गए हैं..., बता कर नहीं गए...।" उसने कहा कि... "बात-बात पर झगड़ा होता है... और अब ये झगड़ा बहुत बढ़ गया है..., ऐसे में अब एक ही रास्ता बचा है कि... अलग हो जाएं..., तलाक ले लें...!"


निधि जब काफी देर बोल चुकी... तो मैंने उससे कहा कि... "तुम नितिन को फोन करो... और घर बुलाओ..., कहो कि संजय सिन्हा आए हैं...!"


निधि ने कहा कि... उनकी तो बातचीत नहीं होती..., फिर वो फोन कैसे करे...?!!!


अज़ीब सँकट था...! निधि को मैं... बहुत पहले से जानता हूं...। मैं जानता हूं कि... नितिन से शादी करने के लिए... उसने घर में कितना संघर्ष किया था...! बहुत मुश्किल से... दोनों के घर वाले राज़ी हुए थे..., फिर धूमधाम से शादी हुई थी...। ढ़ेर सारी रस्म पूरी की गईं थीं... ऐसा लगता था कि... ये जोड़ी ऊपर से बन कर आई है...! पर शादी के कुछ ही साल बाद... दोनों के बीच झगड़े होने लगे... दोनों एक-दूसरे को खरी-खोटी सुनाने लगे... और आज उसी का नतीज़ा था कि... संजय सिन्हा... निधि के सामने बैठे थे..., उनके बीच के टूटते रिश्तों को... बचाने के लिए...!


खैर..., निधि ने फोन नहीं किया...। मैंने ही फोन किया... और पूछा कि... "तुम कहां हो...  मैं तुम्हारे घर पर हूँ..., आ जाओ...। नितिन पहले तो आनाकानी करता रहा..., पर वो जल्दी ही मान गया और घर चला आया...।


अब दोनों के चेहरों पर... तनातनी साफ नज़र आ रही थी...। ऐसा लग रहा था कि... कभी दो जिस्म-एक जान कहे जाने वाले ये पति-पत्नी... आंखों ही आंखों में एक दूसरे की जान ले लेंगे...! दोनों के बीच... कई दिनों से बातचीत नहीं हुई थी...!!


नितिन मेरे सामने बैठा था...। मैंने उससे कहा कि... "सुना है कि... तुम निधि से... तलाक लेना चाहते हो...?!!!


उसने कहा, “हाँ..., बिल्कुल सही सुना है...। अब हम साथ... नहीं रह सकते...।"


मैंने कहा कि... *"तुम चाहो तो... अलग रह सकते हो..., पर तलाक नहीं ले सकते...!"*


*“क्यों...???*


*“क्योंकि तुमने निकाह तो किया ही नहीं है...!”*


*"अरे यार..., हमने शादी तो... की है...!"*


*“हाँ..., 'शादी' की है...! 'शादी' में... पति-पत्नी के बीच... इस तरह अलग होने का... कोई प्रावधान नहीं है...! अगर तुमने 'मैरिज़' की होती तो... तुम "डाइवोर्स" ले सकते थे...! अगर तुमने 'निकाह' किया होता तो... तुम "तलाक" ले सकते थे...! लेकिन क्योंकि... तुमने 'शादी' की है..., इसका मतलब ये हुआ कि... "हिंदू धर्म" और "हिंदी" में... कहीं भी पति-पत्नी के एक हो जाने के बाद... अलग होने का कोई प्रावधान है ही नहीं....!!!"*


मैंने इतनी-सी बात... पूरी गँभीरता से कही थी..., पर दोनों हँस पड़े थे...! दोनों को... साथ-साथ हँसते देख कर... मुझे बहुत खुशी हुई थी...। मैंने समझ लिया था कि... *रिश्तों पर पड़ी बर्फ... अब पिघलने लगी है...!* वो हँसे..., लेकिन मैं गँभीर बना रहा...


मैंने फिर निधि से पूछा कि... "ये तुम्हारे कौन हैं...?!!!"


निधि ने नज़रे झुका कर कहा कि... "पति हैं...! मैंने यही सवाल नितिन से किया कि... "ये तुम्हारी कौन हैं...?!!! उसने भी नज़रें इधर-उधर घुमाते हुए कहा कि..."बीवी हैं...!"


मैंने तुरंत टोका... *"ये... तुम्हारी बीवी नहीं हैं...! ये... तुम्हारी बीवी इसलिए नहीं हैं.... क्योंकि... तुम इनके 'शौहर' नहीं...! तुम इनके 'शौहर' नहीं..., क्योंकि तुमने इनसे साथ "निकाह" नहीं किया... तुमने "शादी" की है...! 'शादी' के बाद... ये तुम्हारी 'पत्नी' हुईं..., हमारे यहाँ जोड़ी ऊपर से... बन कर आती है...!* तुम भले सोचो कि... शादी तुमने की है..., पर ये सत्य नहीं है...! तुम शादी का एलबम निकाल कर लाओ..., मैं सबकुछ... अभी इसी वक्त साबित कर दूंगा...!"


बात अलग दिशा में चल पड़ी थी...। मेरे एक-दो बार कहने के बाद... निधि शादी का एलबम निकाल लाई..., अब तक माहौल थोड़ा ठँडा हो चुका था..., एलबम लाते हुए... उसने कहा कि... कॉफी बना कर लाती हूं...।"


मैंने कहा कि..., "अभी बैठो..., इन तस्वीरों को देखो...।" कई तस्वीरों को देखते हुए... मेरी निगाह एक तस्वीर पर गई..., जहाँ निधि और नितिन शादी के जोड़े में बैठे थे...। और पाँव~पूजन की रस्म चल रही थी...। मैंने वो तस्वीर एलबम से निकाली... और उनसे कहा कि... "इस तस्वीर को गौर से देखो...!"


उन्होंने तस्वीर देखी... और साथ-साथ पूछ बैठे कि... "इसमें खास क्या है...?!!!"


मैंने कहा कि... "ये पैर पूजन का रस्म है..., तुम दोनों... इन सभी लोगों से छोटे हो..., जो तुम्हारे पांव छू रहे हैं...।"


“हां तो....?!!!"


“ये एक रस्म है... ऐसी रस्म सँसार के... किसी धर्म में नहीं होती... जहाँ छोटों के पांव... बड़े छूते हों...! *लेकिन हमारे यहाँ शादी को... ईश्वरीय विधान माना गया है..., इसलिए ऐसा माना जाता है कि... शादी के दिन पति-पत्नी दोनों... 'विष्णु और लक्ष्मी' के रूप हो जाते हैं..., दोनों के भीतर... ईश्वर का निवास हो जाता है...!* अब तुम दोनों खुद सोचो कि... क्या हज़ारों-लाखों साल से... विष्णु और लक्ष्मी कभी अलग हुए हैं...?!!! दोनों के बीच... कभी झिकझिक हुई भी हो तो... क्या कभी तुम सोच सकते हो कि... दोनों अलग हो जाएंगे...?!!! नहीं होंगे..., *हमारे यहां... इस रिश्ते में... ये प्रावधान है ही नहीं...! "तलाक" शब्द... हमारा नहीं है..., "डाइवोर्स" शब्द भी हमारा नहीं है...!"*


यहीं दोनों से मैंने ये भी पूछा कि... *"बताओ कि... हिंदी में... "तलाक" को... क्या कहते हैं...???"*


दोनों मेरी ओर देखने लगे उनके पास कोई जवाब था ही नहीं फिर मैंने ही कहा कि... *"दरअसल हिंदी में... 'तलाक' का कोई विकल्प ही नहीं है...! हमारे यहां तो... ऐसा माना जाता है कि... एक बार एक हो गए तो... कई जन्मों के लिए... एक हो गए तो... प्लीज़ जो हो ही नहीं सकता..., उसे करने की कोशिश भी मत करो...! या फिर... पहले एक दूसरे से 'निकाह' कर लो..., फिर "तलाक" ले लेना...!!"*


*अब तक रिश्तों पर जमी बर्फ... काफी पिघल चुकी थी...!*


निधि चुपचाप मेरी बातें सुन रही थी...। फिर उसने कहा कि... "भैया, मैं कॉफी लेकर आती हूं...।"


वो कॉफी लाने गई..., मैंने नितिन से बातें शुरू कर दीं...। बहुत जल्दी पता चल गया कि... *बहुत ही छोटी-छोटी बातें हैं..., बहुत ही छोटी-छोटी इच्छाएं हैं..., जिनकी वज़ह से झगड़े हो रहे हैं...।*


खैर..., कॉफी आई मैंने एक चम्मच चीनी अपने कप में डाली...। नितिन के कप में चीनी डाल ही रहा था कि... निधि ने रोक लिया..., “भैया..., इन्हें शुगर है... चीनी नहीं लेंगे...।"


लो जी..., घंटा भर पहले ये... इनसे अलग होने की सोच रही थीं...। और अब... इनके स्वास्थ्य की सोच रही हैं...!


मैं हंस पड़ा मुझे हंसते देख निधि थोड़ा झेंपी कॉफी पी कर मैंने कहा कि... *"अब तुम लोग... अगले हफ़्ते निकाह कर लो..., फिर तलाक में मैं... तुम दोनों की मदद करूंगा...!"*


शायद अब दोनों समझ चुके थे.....


*हिन्दी एक भाषा ही नहीं - संस्कृति है...!*


*इसी तरह हिन्दू भी धर्म नही - सभ्यता है...!!*


👆👏

सर से पानी गुजर रहा है"*/ अनंग

 *"सर से पानी गुजर रहा है"*


रोज  लूटने   को  तैयार।

कितना है बेदर्द बाजार।।


दाम देखकर हर चीजों का।

रोता  है  मन जार - बेजार।।


कैसे आज बचाएं इज्जत।

महंगाई ने  किया  बीमार।।


झूठ  और  बोलेगा  कितना।

केवल धनिकों की सरकार।।


रहा घाट का ना वह घर का।

मध्यम - वर्ग  हुआ  लाचार।।


मिर्च - मसाला  ढूंढ  रहें हैं।

चैनल , चापलूस अखबार।।


डिग्री  लेकर  घूम  रहे  हैं।

युवाओं  की बड़ी कतार।।


नौजवान ,  बूढ़े ,  बच्चों   का।

छीन लिया किसने अधिकार।।


सी-सी कर कब तक ढक लेंगे।

देह   और   अपना  घर   द्वार।।


खून चूस कर गरज रहे हैं।

भोली जनता का हर बार।।


रणभेरी जब बज जाएगी।

तब  भर  देंगे  हम हुंकार।।


चढ़ते -चढ़ते चढ़ जायेगा।

पारा   होगा  तेज  बुखार।।


गिन - गिनकर मारे जाओगे।

गूंजेगी    धनुही     टनकार।।


रहते समय अगर तुम संभले।

दे   देंगे  हम   प्यार   दुलार ।।


सर   से  पानी  गुजर रहा है।

अब बदलो अपना व्यहवार।।...


*"अनंग"*


सोमवार, 18 अप्रैल 2022

रवि अरोड़ा की नजर से......

 धार्मिक गिरोहबंदी / रवि अरोड़ा



बचपन कविनगर के एफ ब्लॉक में बीता । मोहल्ले में बिना नागा हर मंगलवार रात को किसी न किसी के घर भजन-कीर्तन होता था । आयोजन के लिए मंच तैयार करना, दरियां बिछाना, कीर्तन के लिए ढोलक, हरमोनियम और चिमटा आदि इकट्ठा करना तथा धूप बत्ती करना हम बच्चों की जिम्मेदारी होती थी । कीर्तन में शुरू से लेकर आखिर तक मौजूद तो खैर रहना ही होता था । शायद यही वजह रही कि मुझ जैसी फिसड्डी बच्चे को भी हनुमान चालीसा और अनेक श्लोक अच्छी तरह याद हो गए । मोहल्ले में ही पंडित राम सरन शर्मा जी के यहां आए दिन राम चरित मानस का अखंड पाठ होता रहता था और बड़ों की गैर मौजूदगी में सस्वर मानस भी हम बच्चे लोग पढ़ा करते थे। निकट की मार्केट में एक मुस्लिम दर्जी की दुकान थी । उसका लड़का बहुत अच्छा गाता था और कीर्तन में आकर कभी कभी वह भी गाता था- ए मालिक तेरे बंदे हम ...।  हां राम नवमी, शिवरात्रि, जन्माष्टमी और हनुमान जयंती आदि पर आयोजन जरूर मंदिर में ही होता था । दिमाग पर बहुत जोर डालता हूं तब भी याद नहीं आता कि इन धार्मिक आयोजनों में कभी कोई जुलूस आदि निकला हो। जुलूस के नाम पर केवल राम बारात ही होती थी और उसकी खुमारी ही पूरे साल रहती थी । तलवारें और त्रिशूल आदि लहराते और लाउड स्पीकर पर उन्मादी गीत बजाते हुए जानबूझ कर मुस्लिम इलाकों में जुलूस निकालने की तो कल्पना भी तब किसी ने नहीं की थी । आज सोशल मीडिया पर तमाम ऐसे वीडियो दिखाई पड़े जिनमे माथे पर भगवा पट्टी बांधे और गले में इसी रंग का पटका पहने हुए हनुमान भक्त हनुमान चालीसा पाठ के दौरान एक दूसरे का मुंह देख रहे हैं । हैरानी हुई कि हनुमान जी के नाम पर ठेकेदारी कर रहे ये लोग चालीसा के एक शब्द का भी उच्चारण नहीं कर पा रहे हैं । वैसे मुझे पूरा यकीन है कि उन्होंने जीवन में कभी राम चरित मानस भी पढ़ना तो दूर देखी भी नहीं होगी । उनकी यह हालत देख कर कसम से अपनी परवरिश पर गर्व से सीना चौड़ा हो गया ।


हनुमान जयंती पर दिल्ली में जो हुआ अथवा राम नवमी पर देश भर से उत्पात की जो खबरें आईं उससे मन खिन्न है । बेशक इसे क्रिया की प्रतिक्रिया कह कर मैं अपराधियों के पक्ष में खड़ा होना नहीं चाहता मगर फिर भी हमें विचार तो करना ही पड़ेगा कि ऐसा पहले क्यों नहीं होता था ? हाल फिलहाल के वर्षों में देश में ऐसा क्या घटित हुआ है कि तमाम मुसीबतों से अलग हिजाब, धर्मांतरण, लव जेहाद, अजान, कश्मीर फाइल्स, शाकाहार और न जाने कौन कौन से गैर जरूरी मुद्दे हमारे लिए सबसे अहम हो गए हैं ? देश कर्ज में डूब गया । सरकारी संपत्तियां कौड़ियों के दाम पर बिक रही हैं । महंगाई ने जनता की कमर तोड़ दी । नौकरियां खत्म होती जा रही हैं । अस्सी करोड़ लोग मुफ्त के राशन के भरोसे हैं मगर फिर भी हम इस पर बात नहीं करना चाहते ?  चलिए मत कीजिए । यह आपका हक है कि आप किस मुद्दे को जरूरी समझें और किसे नहीं मगर यह तो पता कर ही लीजिए कि देश में अचानक ऐसा कैसे हो गया कि एक ही तरीके से, एक ही यूनिफॉर्म में , एक जैसे गानों के साथ और एक जैसे हथियारों के साथ शहर शहर कथित तौर पर धार्मिक मगर पूर्णतः उन्मादी जुलूस कैसे निकले ? और वह भी इस जिद के साथ कि मस्जिदों पर भी भगवा झंडा लगाएंगे ? पता तो करना चाहिए कि मुसलमानों ने हाल फिलहाल में ऐसा क्या गुनाह कर दिया कि साधुओं के भेष में गुंडे अब मुसलमानों के नरसंहार करने और उनकी बहु बेटियों से बलात्कार करने की बात कर रहे हैं ? और कोढ़ में खाज यह कि इतना कुछ होने पर भी सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग चुप हैं ? कसम से समझ नहीं आ रहा कि ये गिरोहबंदी यदि धर्म है तो वह क्या था जिसे बचपन में मैंने अपने मोहल्ले में देखा था ?

रविवार, 17 अप्रैल 2022

श्री “हनुमान बाहुक

 *_श्री गोस्वामी तुलसीदास जी कृत श्री “हनुमान बाहुक” टीका सहित (पद्य १)_*

*_॥छप्पय॥_*

_सिंधु-तरन, सिय-सोच हरन, रवि-बालबरन-तनु।_

_भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको कालजनु॥_

_गहन-दहन-निरदहन-लंक निःसंक, बंक-भुव।_

_जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव॥_

_कह तुलसिदास सेवत सुलभ, सेवक हित सन्तत निकट।_

_गुनगनत, नमत, सुमिरत, जपत, समन, सकल-संकट-बिकट ॥१॥_

*_पद्यार्थ_*

_हे पवनकुमार श्रीहनुमान जी! आप समुद्र को लांघकर श्री सीताजी के शोक का शमन करने वाले हैं, आपका शरीर उदयकाल के सूर्य के समान लाल रंग का है, आपकी भुजाएँ विशाल हैं, रुद्रावेश में आपकी मूर्ति काल के भी काल जैसी भयंकर है, आपने अभेद्य लंका को मात्र भौंहे टेढ़ी करके निःसंकोच भस्म कर डाला तथा समस्त राक्षसों के अभिमान और गर्व का नाश कर दिया। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हे श्री हनुमान जी! आपकी जो सेवा करता है उसे आप सुगमता से प्राप्त हो जाते हैं और उसका हित करने के लिए उसके निकट सर्वदा रहते हैं।आपका स्मरण करने से और सदा आपका नाम जपने से सारे भयानक संकटादि का नाश हो जाता है।_

*_टिप्पणी_*

_यहां उत्तरोत्तर उत्कृष्ट पुरुषार्थो का वर्णन है- समुद्रलंघन की दुष्करता ( ४०० कोश पाट था, बीच में सुरसा छायाग्रहणी सिंहिका और अन्त मे लंकनी द्वारा विघ्न)। श्रीसीताजी को रावण ने ऐसे गुप्त कुंज में रक्खा था कि उनका पता लगाना कठिन था। विभीषणजी की बताई युक्ति से प्रभु वहाँ पहुँचे। *'सिय सोच हरन'* जिस प्रकार किया, यह *भुज-विसाल* से लेकर *'मान-मद-दवन पवनसुव'* तक कहा । यह सबसे दुष्कर कार्य है। -रावण, मेघनाद और अकंपन आदि के रहते उनकी आँखों के सामने सारी लंका को जला डाला । प्रथम *'भुज विशाल'* से अशोक वन उजाड़ा, रक्षको को मारा, अक्ष-कुमार को मारा, इत्यादि । पूँछ में आग लगाई-जाने पर फिर कराल स्वरूप धारणकर, क्रोध में भरकर (भौंह टेढ़ी करके) लंका जलाई।_

_*'मूरति कराल कालहु को काल जनु'* - काल बड़ा कराल है, यथा *काल सदा दुरतिक्रम भारी। तुम्हहि न व्यापत काल, अति कराल कारन कवन ।। ७ । ६४।'* काल के भी काल कहकर काल से अधिक विकराल स्वरूप जनाया। रावण ने स्वयं इनकी निपट निःशंकता और यह करालता स्वीकार की है। *'देखउँ अति असंक सठ तोही।५।२१।२।', कालऊ करालता बड़ाई जीतो बावनो ।क०५६।'*_

_शोचहरण के प्रसंगबसे यहां *'रविबाल वर्ण'* की उपमा दी, क्योंकि प्रातःकाल के सूर्य सुखदायक हैं, यथा *'सुखद भानु भोर को' (पद६)* । श्रीजानकीजी के भय (शोक ) रूप अंधकार को हरण करने में सूर्य के समान कहे भी गए हैं । *'सीतातंक-महान्धकारहरण प्रद्योतनोऽयं हरिः । ह० न० १३ । ३३ ।'* (यह श्रीराम-सुग्रीवादि के वाक्य हैं)।_

_*'सोच हरन'* - वियोग का सोच तो था ही, सबसे बड़ा सोच यह था कि नीच राक्षस के हाथ मरण होगा - *'सीता कर मन सोच । मास दिवस बीते मोहि मारिहि निसिचर पोच ।।*_

_यह शोच दूर किया-- *'जनकसुतहि समुझाइ करि बहु विधि धीरज दीन्ह'*_ 

_वे बराबर उच्च स्वर से घोषणा करते थे- *'जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः । राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः ॥ दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्ट-कर्मणः । हनूमाशत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः ॥ न रावण-सहस्रं मे युद्धे प्रतिवलं भवेत् । शिलाभिश्च प्रहरतः पादपैश्च सहस्रशः।। अर्दीयत्वा पुरीं लङ्कामभिवाद्य च मैथिलीम्। समृद्धार्थो गमिप्यामि मिषतां सर्वरक्षसाम ॥' (वा०२४२।३३-३६)-* 'अत्यंत बलवान् श्रीराम तथा महाबली लक्ष्मण जी की जय हो। श्रीरघुनाथ जीके द्वारा सुरक्षित राजा सुग्रीव की जय हो । मैं अनायास ही महान् पराक्रम करनेवाले कोसलेन्द्र श्रीराम का दूत हूँ। मेरा नाम *हनुमान* है । मैं पवनपुत्र तथा शत्रु सेना का संहार करनेवाला हूँ । हजारों वृक्षों और पत्थरों से प्रहार करने पर सहस्रों रावण मिलकर भी मेरा सामना नहीं कर सकते । मैं लंकापुरी को तहस-नहस कर मिथिलेशनन्दिनी को प्रणाम करके सब राक्षसों के देखते-देखते अपना कार्य सिद्ध करके जाऊँगा।' स्वयं रावण के समस्त महलों मे आग लगा-लगाकर वे प्रलयकाल के मेघ के समान गर्जना करते थे।– *'ननाद हनुमान वीरो युगान्तजलदो यथा । वा० ५/५४२०'* घोषणा करके ललकार-ललकार कर उन्होंने सुभटों को मारा, रावण के पुत्र को मार डाला और रावण-मेघनाद-अकंपन आदि के देखते-देखते लंका-पुरी को भस्मसात कर दिया; कोई कुछ न कर सका । यह *'मान-मद'* का मर्दन है। मंदोदरी और प्रहस्त ने रावण-मेघनाद-आदि से यही प्रमाण देकर कहा था- *'कहाँ रहा बल गर्व तुम्हारा'(६॥३५॥४-६)। 'छुधा न रही तुम्हहि तव काहू । जारत नगर कसन धरि खाहू । ६।६।३।' 'तुलसी बढ़ाई बादि साल तें विसाल बाहैं, याही बल बालिसो विरोध रघुनाथ सों। क० ५॥१३॥'* ( यहलंकादाह के समय मंदोदरी ने मेघनाद, महोदर, अतिकाय और अकम्पन से कहा है)_

_*'जातुधान मान-मद दवन* से जनाया कि इस स्वरूप से रावणादि के मान मद को दलन किया था । आगे *'सेवत सुलभ सेवक हित...'* कहकर जनाया कि शत्रुओं के लिये वे भयदायक हैं और अपने भक्तों का हित करने के लिए, इस रूप से सदा उनके निकट रहते हैं।- *'अमित्राणां भयकरो मित्राणामभयंकरः।वा०७३६।२३।'*_


*_🚩प्रेम बुद्धि विज्ञान बल सदाचार हम में भरें। 🚩_*

*_🚩माया पीड़ा विघ्न से आञ्जनेय रक्षा करें । 🚩_*

विधि का विधान*

 प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


*श्री राम का विवाह और राज्याभिषेक, दोनों शुभ मुहूर्त देख कर किए गए थे; फिर भी न वैवाहिक जीवन सफल हुआ, न ही राज्याभिषेक!* 


*और जब मुनि वशिष्ठ से इसका उत्तर मांगा गया, तो उन्होंने साफ कह दिया* 


*"सुनहु भरत भावी प्रबल,*

*बिलखि कहेहूं मुनिनाथ।*

*हानि लाभ, जीवन मरण,*

*यश अपयश विधि हाथ।।"*


*अर्थात - जो विधि ने निर्धारित किया है, वही होकर रहेगा!*


*न राम के जीवन को बदला जा सका, न कृष्ण के!*


*न ही महादेव शिव जी सती की मृत्यु को टाल सके, जबकि महामृत्युंजय मंत्र उन्हीं का आवाहन करता है!*


*न गुरु अर्जुन देव जी, और न ही गुरु तेग बहादुर साहब जी, और दश्मेश पिता गुरु गोविन्द सिंह जी, अपने साथ होने वाले विधि के विधान को टाल सके, जबकि आप सब समर्थ थे!*


*रामकृष्ण परमहंस भी अपने कैंसर को न टाल सके!*


*न रावण अपने जीवन को बदल पाया, न ही कंस, जबकि दोनों के पास समस्त शक्तियाँ थी!*


*मानव अपने जन्म के साथ ही जीवन, मरण, यश, अपयश, लाभ, हानि, स्वास्थ्य, बीमारी, देह, रंग, परिवार, समाज, देश-स्थान सब पहले से ही निर्धारित करके आता है!*


*इसलिए सरल रहें, सहज, मन, वचन और कर्म से सद्कर्म में लीन रहें!*



*सदैव प्रभुमय रहें, आनन्दित रहें!* 

🌹🌹🙏 जय श्री हरि🙏🌹🌹

स्वस्थ मन का रहस्य-*

 *

 *=============*

*जो अपनी जिन्दगी में कुछ करने में असफल रहते हैं, वे प्रायः आलोचक बन जाते हैं।दूसरों की कमियाँ देखना, निन्दा करना उनका स्वभाव बन जाता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग अपनी कमियों -कमजोरियों का दोष भी दूसरों के सिर मढ़ देते हैं।सच यही है कि जीवन पथ पर चलने में जो असमर्थ हैं, वे राह के किनारे खड़े होकर औरों पर पत्थर फेंकने लगते हैं।दरअसल यह मन की रोगी दशा है। मानसिक ज्वर या मन की रोगग्रस्त स्थिति में ही मनुष्य ऐसे काम करता है।जब भी किसी की निन्दा का विचार मन में उठे तो जानना कि अब हम भी इसी रोग से पीड़ित हो रहे हैं।ध्यान रहे स्वस्थ मन वाला व्यक्ति कभी किसी की निन्दा में संलग्न नहीं होता।यहाँ तक कि जब दूसरे उसकी निन्दा कर रहे होते हैं, तो वह उन पर दया ही अनुभव करता है।शरीर से बीमार ही नहीं, मन से बीमार भी दया के पात्र हैं।लोकमान्य तिलक से किसी ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा, कई बार आपकी बहुत निन्दापूर्ण आलोचनाएँ होती हैं, लेकिन आप तो कभी विचलित नहीं होते। उत्तर में लोकमान्य मुस्कराए और बोले- निन्दा ही क्यों, कई बार लोग प्रशंसा भी करते हैं।ऐसा कहकर उन्होंने पूछने वाले की आँखों में गहराई से झाँका और बोले - यह है तो मेरी जिन्दगी का रहस्य, पर मैं आपको बता देता हूूँ।निन्दा करने वाले मुझे शैतान समझते हैं और प्रशंसक मुझे भगवान् का दर्जा देते हैं। लेकिन सच मैं जानता हूँ और वह सच यह है कि मैं न तो शैतान हूँ और न ही भगवान्। मैं तो एक इन्सान हूँ जिसमें थोड़ी कमियाँ है और थोड़ी अच्छाईयाँ और मैं अपनी कमियों को दूर करने एवं अच्छाईयों को बढ़ाने में लगा रहता हूँ।एक बात और भी है- लोकमान्य ने अपनी बात आगे बढ़ाई। जब अपनी जिन्दगी को मैं ही अभी ठीक से नहीं समझ पाया, तो भला दूसरे क्या समझेंगे। इसलिए जितनी झूठ उनकी निन्दा है, उतनी ही उनकी प्रशंसा है। इसलिए मैं उन दोनों बातों की परवाह न करके अपने आपको और अधिक सँवारने-सुधारने की कोशिश करता रहता हूँ।सुनने वाले व्यक्ति को इन बातों को सुनकर लोकमान्य तिलक के स्वस्थ मन का रहस्य समझ में आया, उसे अनुभव हुआ कि स्वस्थ मन वाला व्यक्ति न तो किसी की निन्दा करता है और न ही किसी निन्दा अथवा प्रशंसा से प्रभावित होता है।*

पेन्सिल के गुण -

 ★★★ हम सभी को सीखने की जरूरत है

पेन्सिल के गुण, एक सन्देश – प्रेरक प्रसंग, 


★एक बालक अपनी दादी मां को एक पत्र लिखते हुए देख रहा था। 


अचानक उसने

अपनी दादी मां से पूछा,” दादी मां !” क्या आप मेरी शरारतों के बारे में लिख रही हैं ?

आप मेरे बारे में लिख रही हैं, ना “यह सुनकर उसकी दादी माँ रुकीं और बोलीं ,


” बेटा मैं लिख तो तुम्हारे बारे में ही रही हूँ, लेकिन जो शब्द मैं यहाँ लिख रही हूँ

उनसे भी अधिक महत्व इस पेन्सिल का है जिसे मैं इस्तेमाल कर रही हूँ।


मुझे पूरी आशा है कि जब तुम बड़े हो जाओगे तो ठीक इसी पेन्सिल की तरह होगे ।”


यह सुनकर वह बालक थोड़ा चौंका और पेन्सिल की ओर ध्यान से देखने लगा,

किन्तु उसे कोई विशेष बात नज़र नहीं आयी। वह बोला, “किन्तु मुझे तो यह पेन्सिल

बाकी सभी पेन्सिलों की तरह ही दिखाई दे रही है।”

इस पर दादी माँ ने उत्तर दिया, “बेटा ! यह इस पर निर्भर करता है कि तुम चीज़ों को

किस नज़र से देखते हो। इसमें पांच ऐसे गुण हैं, जिन्हें यदि तुम अपना लो तो तुम

सदा इस संसार में शांतिपूर्वक रह सकते हो।


पाँच गुण जो हमें सीखना चाहिए-

पहला गुण : तुम्हारे भीतर महान से महान उपलब्धियां प्राप्त करने की योग्यता है,

किन्तु तुम्हें यह कभी भूलना नहीं चाहिए कि तुम्हे एक ऐसे हाथ की आवश्यकता है जो

निरन्तर तुम्हारा मार्गदर्शन करे। हमारे लिए वह हाथ ईश्वर का हाथ है जो सदैव

हमारा मार्गदर्शन करता रहता है।


दूसरा गुण : बेटा ! लिखते, लिखते, लिखते बीच में मुझे रुकना पड़ता है और फ़िर कटर से

पेन्सिल की नोक बनानी पड़ती है। इससे पेन्सिल को थोड़ा कष्ट तो होता है, किन्तु बाद में

यह काफ़ी तेज़ हो जाती है और अच्छी चलती है। इसलिए बेटा ! तुम्हें भी अपने दुखों,

अपमान और हार को बर्दाश्त करना आना चाहिए, धैर्य से सहन करना आना चाहिए।

क्योंकि ऐसा करने से तुम एक बेहतर मनुष्य बन जाओगे।


तीसरा गुण : बेटा ! पेन्सिल हमेशा गलतियों को सुधारने के लिए रबर का प्रयोग करने की

इजाज़त देती है। इसका यह अर्थ है कि यदि हमसे कोई गलती हो गयी तो उसे सुधारना

कोई गलत बात नहीं है। बल्कि ऐसा करने से हमें न्यायपूर्वक अपने लक्ष्यों की ओर

निर्बाध रूप से बढ़ने में मदद मिलती है।


चौथा गुण : बेटा ! एक पेन्सिल की कार्य प्रणाली में मुख्य भूमिका इसकी बाहरी लकड़ी

की नहीं अपितु इसके भीतर के ‘ग्रेफाईट‘ की होती है। ग्रेफाईट या लेड की गुणवत्ता

जितनी अच्छी होगी, लेख उतना ही सुन्दर होगा। इसलिए बेटा ! तुम्हारे भीतर क्या हो रहा है,

कैसे विचार चल रहे हैं, इसके प्रति सदा सजग रहो।


अंतिम गुण : बेटा ! पेन्सिल सदा अपना निशान छोड़ देती है। ठीक इसी प्रकार तुम

कुछ भी करते हो तो तुम भी अपना निशान छोड़ देते हो।अतः सदा ऐसे कर्म करो

जिन पर तुम्हें लज्जित न होना पड़े अपितु तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का सिर

गर्व से उठा रहे। अतः अपने प्रत्येक कर्म के प्रति सजग रहो।


पेन्सिल के याद रखने योग्य संदेश –

1) हमेशा याद रखें कि आपके अंदर जो है वह आपके बाहर की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है। (ग्रेफाइट का हिस्सा)


2) कोई भी गलती स्थायी नहीं होती, उसे मिटाया जा सकता है।


3) खुद का सबसे अच्छा संस्करण बनने के लिए सामने आने वाले हर कष्ट, अपमान, हार को सहना होगा और ऐसा करना हमारी जरूरत है।


4) यदि आप मुसीबत में फंस जाते हैं, तो आप पहले की अपेक्षा और मजबूत हो जाते हैं।


5) आप जो कुछ भी कार्य करें. उसे इस तरह करें कि वह कार्य आपकी छाप से जाना जाए ।


6) आप कुछ भी नहीं हैं, आप उतने ही शक्तिशाली हैं जितना कि वह हाथ जो आपका उपयोग करता है। इसलिए हमेशा अच्छे हाथों में रहें।


       !!!!! इति, सम्पूर्णम !!!!!

शनिवार, 16 अप्रैल 2022

दो ग़ज़लें / प्रेम रंजन अनिमेष*

 *गली तो याद है...*


                        🍁 ग़ज़ल 🍁

                                   ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                               🈴

गली  तो  याद है  लेकिन  मकां  मैं  भूलूँगा

तुम्हारा  घर  वहीं  निकले  जहाँ  मैं  भूलूँगा


ख़ामोशियों  की  ज़ुबानें  कई  पता  तुमको

तुम्हारे  साथ  में  अपनी  ज़ुबां   मैं  भूलूँगा


हैं जितनी  सूनी निगाहें ये  उतनी ही  गहरी

जो  इनमें  डूब  गया   दो  जहां  मैं  भूलूँगा


बहुत  बड़ी  है  ये  दुनिया  मगर  है अंदाज़ा

ख़ुद अपनी ख़लवतों के दरमियां मैं भूलूँगा


ख़ुशी  न  पूछो   अगर  प्यार  पूछ  ले  कोई

कि दिल के शोर में  कहना भी हाँ मैं भूलूँगा


ये   ज़िंदगी   तो    मुहब्बत   बग़ैर    बेमानी

किसी के जिस्म में कब अपनी जां मैं भूलूँगा


चमन को भूल गया और वतन भी भूल गया

कहा  तो  था  न  कभी आशियां  मैं  भूलूँगा


मेरी   रगों  में   तेरा  दूध   दौड़ता   हर  पल

भला कभी तुझे  किस तरह  माँ  मैं  भूलूँगा


क़फ़स में आज है  दिल को क़रार सा कैसा

उड़ान  भूला  हूँ   अब  आसमां   मैं  भूलूँगा


वो प्यार  है सही  सब कुछ  नहीं वही  प्यारे

न  एक  गुल के  लिए  गुलसितां  मैं भूलूँगा


तुम्हारे  होंठ   ये   'अनिमेष'   काम   आयेंगे

जो  कहते  कहते   कहीं  दास्तां  मैं  भूलूँगा

                               🏵️

                                ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*

अनंग की दो ग़ज़लें

"दिन बदलेगा "


कर्म करो तुम,केवल अपना।

निश्चित  होगा , पूरा  सपना।।

कोई कुछ भी कहे ,मौन रह। 

हो जाएगा,तब कुछ कहना।। 

करने  वाले तो , व्यंग करेंगे।

बन जाना है ,तुमको गहना।।

बाधाएं   तो ,   रोकेंगी  पर।

नदियों जैसे , केवल बहना।।

तुम मजबूत , दीवारों  जैसे।

तुमको कभी,नहीं है ढहना।।

जब तक बाजी,जीत न जाओ। 

करते रहो सदा,व्यूह  रचना।।

अडिग रहो,उत्तम विचार हो। 

कभी बुराई में , मत फंसना।। 

आज कष्ट सह लो,तुम लेकिन।

दिन बदलेगा ,कल मत सहना।।

बड़े  परिश्रम , से मिलता है। 

अपना बनके ,दिल में रहना।।

कर्म करो तुम केवल अपना।।..."


अनंग "


*"देना सीखो"*


पास  बैठो  जरा , कुछ  सुनाया करो।

बेवजह भी कभी, आया जाया करो।।


यह  जरूरीब नहीं कि, कोई काम हो।

बिना मतलब के भी तो, बुलाया करो।।


तुम खुली छत पे बैठो तो,अच्छा लगे।

चांद  हो ,  रोशनी  में   नहाया   करो।।


कोई  मासूम  दिख  जाए , रोते  हुए।

पोछकर उसके आंसु,खिलाया करो।।


ज्ञान  के  दीप , बुझने  न  देना  कभी।

खुद पढ़ो, जिनको चहिए,पढ़ाया करो।।


पीढियों  में विचारों का, अन्तर बहुत।

इन बुजुर्गों के संग भी, बिताया करो।।


अपने खाने में रोटी, जरा कम करो।

चंद रोटी झोपड़ियों में, लाया करो।।


प्यार से बढ़ के, दुनिया में कुछ भी नहीं।

खुद  बहो , दूसरों  को  बहाया  करो।।


मांगने से तो इज्जत है,मिलती नहीं।

देना  सीखो , सदा मुफ्त पाया करो।।...

*"अनंग"*

बुधवार, 13 अप्रैल 2022

आदिवासी जीवन और साहित्य / विद्याभूषण

 आज पटना से श्रीराम तिवारी का का फोन मिला। उन्हें  'वागर्थ' के अप्रील अंक में  'आधुनिकीकरण और आदिवासी विमर्श'  पर प्रकाशित परिचर्चा में शामिल मेरे आलेख के कई अंश अच्छे लगे। उस आलेख की मूल प्रति आपसे साझा करते हुए यह बताना जरूरी है कि पत्रिका में इसकी कुछेक पंक्तियां नहीं आ पाई हैं :-


आदिवासी जीवन और साहित्य

( परिचर्चा की अग्रसारित प्रश्नावली के संदर्भ में विमर्शमूलक एक टिप्पणी )


1. कभी न कभी हर जाति का जीवन कबीलाई रहा होगा और इस अर्थ में हर जाति के इतिहास का आदिम चरण विकास क्रम के उसी प्रस्थान बिन्दु पर खड़ा होगा जहां आज आदिवासी कही जाने वाली जातियां दिखलायी पड़ रही हैं। इसी तरह प्रायः हर आदिम समुदाय में, गद्यभाषा और लिपि के विकास से पहले तक, पीढ़ी दर पीढ़़ी छंदबद्ध गीतों और लोककथाओं के माध्यम से ही जातीय जीवन के अनुभवों और ज्ञान का अटूट अन्तरण होता रहा है। यह वाचिक परम्परा हजारों वर्षों से लोक जीवन के नियामक सूत्रों को संरक्षित करती आ रही है। सर्वविदित है कि संस्कृत में गणित और ज्योतिष के सूत्र भी छन्दबद्ध पद्धति से ही संचित हुए हैं। समग्रता में देखें तो हर समुदाय में लिखित साहित्य का अभ्युदय एक परवर्ती विकास है। लोकगीतों और लोककथाओं का उद्भव और संरक्षण इसी सामूहिक सहभागिता की उपज है। आज उनके मूल रचनाकारों की नामतः खोज की कोशिश को एक निरर्थक उद्यम माना जा सकता है। वैसे देवेन्द्र सत्यार्थी, जगदीश त्रिगुणायत और नारायण जहानाबादी जैसे अनेक श्रमसाधकों ने लोककथाओं-लोकगीतों के संग्रह और प्रकाशन का शुभारम्भ बहुत पहले कर दिया था। आज इस अध्याय में नये पन्ने भी जोड़े जा रहे हैं। विश्वविद्यालयों के भाषा विभागों में और निजी प्रयत्नों के जरिए। पिछले दिनों केन्द्रीय विश्वविद्यालय, झारखंड के तत्वावधान में लुप्त होती आदिवासी भाषाओं के अस्तित्व पर केन्द्रित एक लंबे विचार सत्र का संयोजन किया गया था।


2. सच है कि साहित्य में आदिवासी अभिव्यक्ति की केन्द्रीय विधाएं हैं कविता और कथा। विमर्श प्रधान लेखन को मैं महत्वपूर्ण मान देते हुए भी सृजनात्मक साहित्य के दायरे से बाहर रखता हूं। जहां तक आत्मकथा, यात्रावृत्त, संस्मरण, नाटक जैसी विधाओं में आदिवासी कलम की क्रियाशीलता का सवाल है, यह मान लेना चाहिए कि हर भाषा में रचनाकार के अनुभवों के मेल में उपयुक्त विधाओं का चयन एक निजी मामला है। ज्ञानपीठ या साहित्य अकादमी जैसे तमाम बड़े साहित्यिक सम्मानों और पुरस्कारों की तालिका देखी जाये तो इन्हीं विधाओं में रचनात्मकता के शिखर की खोज के बहुसंख्यक नतीजे सामने होंगे। लघुकथा और गजल जैसे साहित्य रूपों की जो प्रतिष्ठा आज सुलभ है, वह पिछले दशकों से पहले अप्राप्त थी। निष्कर्षतः, श्रेष्ठ रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए किसी खास विधा के शिल्प-सांचे का निर्देश अर्थहीन है।

इस सवाल के औचित्य को अगर झारखंड के संदर्भ में परखा जाये तो याद रखना होगा कि इसके लिए आदिवासी रचनाकारों के अनुभव संसार की कोई सीमा नहीं बतायी जा सकती। कई आदिवासी हिन्दी लेखकों के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का परिपार्श्व अधिकतर हिन्दी लेखकों से अधिक फैला हुआ है। रामदयाल मुंडा की जीवन यात्रा देश-विदेश की सरहदों से बहुत ऊपर थी। रोज केरकेट्टा गृह मंत्रालय द्वारा गठित झारखंड विषयक समिति में अकेली महिला प्रतिनिधि रहीं, वन्दना टेटे देश की राजधानी समेत सीमान्त राज्यों-क्षेत्रों तक अपने विचार और कार्यक्रमों के लिए निरन्तर गतिशील हैं, जसिन्ता केरकेट्टा की विदेश यात्राओं और अनेक भाषाओं में कृतियों के अनुवाद उनके अनुभवों के व्यापक होने की तस्दीक करते हैं, अनुज लुगुन बिहार के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं, वाल्टर भेंगरा तरुण पटना में रहते हुए कई दशक पहले आठ वर्षों तक कृत संकल्प नाम की मासिक पत्रिका का संपादन करते रहे और दूरदर्शन में वर्षों तक फोटो जर्नलिस्ट के बतौर काम करते रहे, एक समय दिल्ली के जानेमाने हिन्दी लेखकों के निकट संपर्क में रहीं रांची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की पूर्वअध्यक्ष मंजु ज्योत्स्ना, महादेव टोप्पो सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया के हिन्दी अधिकारी के बतौर अपने सेवा काल में बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम तक यायावरी करते रहे, और ग्रेस कुजूर आकाशवाणी के कई केन्द्रों में निदेशक रहने के बाद दिल्ली में कई साल तक उपमहाप्रबंधक का दायित्व निभाती रहीं। ये कुछ ऐसे दृष्टान्त हैं जो यह बताने के लिए यथेष्ट हैं कि आदिवासी कलमकार देश-देशान्तर के भरपूर अनुभवों से लैस रहे हैं। उन सबकी रचनाओं की अन्तर्वस्तु अगर उनकी आंचलिक जमीन से जुड़ी है और शिल्प उसके मेल में गढ़ा हुआ है तो बेशक यह उनके कथन-चयन की प्राथमिकता है, न कि देश-दुनिया के बारे में उनकी समझ की सीमा।


3. विकास की अवधारणा अपने आप में घनघोर मतान्तर का मुद्दा है। आदिवासी इलाकों में सड़कों-इमारतों के निर्माण की मार्फत कस्बों-शहरों की संरचनाओं को कुछ लोग विकास का मानक मानते हैं और होंगे। लेकिन आबादी को उजाड़ कर भूखंड के विकास को विनाश का वाहक भी माना जा सकता है। यही स्थिति भूमंडलीकरण की अवधारणा की भी है। आर्थिक उपनिवेशवाद का स्वागत किया जाये या आत्मनिर्भर और विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था को स्वीकार किया जाये? आज का भारतीय नागरिक, आदिवासी भारत भी उसका  एकअनिवार्य अंग है, इसी द्विधाग्रस्त मानसिकता के दोराहे पर खड़ा है। क्या चुनें या किसे छोड़ दें?

सन 2000 में अलग राज्य के गठन से पहल, झारखंड आन्दोलन के दौर में, केन्द्र और बिहार सरकार  की विकास योजनाओं और बजट आबंटन को इस अंचल में उपनिवेशवादी करार दिया जाता था। राजनीतिक हलकों में कहा जाता था कि इस प्रदेश की हरियाली प्रवासी लोगों के लिए चारागाह बन गयी है। वह बहस जनवादी विकास बनाम धनवादी विकास के फलक पर जारी रही। झारखंडी अस्मिता को सबसे बड़ी चुभन इस अनुभव से होती रही है कि नगरीकरण, औद्योगीकरण, बड़ी बांध परियोजनाएं, वन संपदा का विनाश और खनिज संपदा के अनियोजित दोहन के कारण बड़े पैमाने पर स्थानीय आबादी को विस्थापन का त्रास झेलना पड़ा है। अपनी बुनियाद सेे, गांव-घर, खेत-खलिहान, आजीविका, समाज और संस्कृति से उजड़ने की पीड़ा इतने रूपों और स्तरों पर पसरी रही है कि विकास की सरकारी अवधारणा और उसके क्रियान्वयन को विनाश का वाहक मान लिया  गया। उपनिवेशी विकास की यह संरचना इस इलाके में अस्तित्व और अस्मिता के लिए गंभीर संकट बन कर लंबे समय तक हावी रही। आज भी यह स्थिति कमोबेश जारी है। शहरों, कस्बों और औद्योगिक क्षेत्रों में जितनी चमक-दमक दिखती है, उससे दूर व अनजान है ग्रामीण अंचलों का अंधेरा। आबादी के बीहड़ में नये पैरों की बढ़ती हलचलों की ताजा मिसाल है झारखंड में क्षेत्रीय भाषा और स्थानीय/रोजगार नीति पर भारी विरोध-प्रदर्शन और आबादी के मान्य घटकों में दावों-प्रतिदावों की होड़।


4. इस प्रश्न को परम्परा और आधुनिकीकरण के टकराव से जोड़ कर भी देखा जा सकता है। आजादी के बाद  भारतीय अर्थतंत्र को कृषि आधारित व्यवस्था से निकाल कर औद्योगिक विकास के रास्ते पर ले जाने का फैसला आदिवासी अंचलों के लिए खास असर डालने वाला साबित हुआ। उद्योगों के लिए कच्चा माल और खनिज इन्हीं क्षेत्रों में अकूत सुलभ थे। लिहाजा जंगलों और पहाड़ों का सन्नाटा टूटा और कल तक उपेक्षित रहे दुर्गम क्षेत्र नयी आर्थिक-औद्योगिक हलचलों के केन्द्र बनते गये। इस तरह इन इलाकों में कथित आधुनिकीकरण का राजमार्ग खुला। नये नगर और कस्बे बनने लगे, ढेर सारी खनन परियोजनाएं चालू हुईं, सुगम यातायात के लिए सड़कें और रेल मार्ग तैयार हुए। उद्योगों और परियोजनाओं को संचालित करने वाला तकनीकी और प्रशासनिक ढांचा बना। अफसरों और कामगारों का संजाल क्रियाशील हुआ। पंचायती राज कायम हुआ और प्रखंड विकास कार्यालय नयी व्यवस्था लादने लगे। उन्हीं दिनों अनेक सरकारी-गैरसरकारी संस्थान और संगठन भी सक्रिय हुए।

इन तमाम गतिविधियों के चलते नयी आबादी के आने-बसने की रफ्तार तेज हुई और एक अजनबी कार्यसंस्कृति से आदिवासियों का परिचय हुआ। नतीजतन शिक्षा और रोजगार के आरक्षण-अवसरों का लाभ उठाते हुए जनजातीय समुदायों में एक नया मध्यवर्ग उठ खड़ा हुआ। इसी दौर में स्थानीय आबादी को विस्थापन के दंश का अपूर्व अनुभव मिला। परम्परा की विरासत से जुड़े आदिवासी जन इस नयी व्यवस्था में अपने को मिसफिट पाने लगे। परिणामतः विकास की पूरी अवधारणा तीखे सवालों के घेरेे में आ गयी। झारखंड आन्दोलन की पृष्ठभूमि में इस ऐतिहासिक बदलाव के असरदार निशान खोजे जा सकते हैं।

क्या इसे आधुनिकता के अभ्युदय का मान दिया जा सकता है? क्या आदिवासी आबादी के एक छोटे से तबके को सरकारी कार्यालयों और औद्यागिक प्रतिष्ठानों में तीसरे व चौथे दर्जे की नौकरियों में जगह पा लेने को आधुनिकीकरण की आधारभूूमि के रूप में स्वीकार किया जा सकता है? बेशक इस ऐतिहासिक मोड़ के बाद आदिवासियों के बीच शिक्षा और रोजगार की पात्रता धीरे-धीरे विकसित होती गयी। परिवर्तन के इस दौर ने आदिवासी समाज को नये विचारों और संस्कारों से जुड़ने के अवसर भी दिये। लेकिन परम्परा और आधुनिकता के बीच टकराव की स्थितियां आज भी प्रभावी हैं। इस दिशान्तर के विवेचन और व्याख्या के लिए संस्कृति के समाजशास्त्र की एक पूरी परिक्रमा जरूरी है। सिर्फ इस बुनियाद पर आदिवासियों के मानसिक बदलाव की पहचान किसी संक्षिप्त चर्चा से परिभाषित नहीं हो सकती।


5. जब इस बड़े देश में, अरुणाचल से केरल तक और झारखंड से गुजरात तक, मूल्य परम्परा, आस्था और आहार से आचार तक की कसौटियों पर आदिवासी जीवन शैली एक समान नहीं है, तो इस वि-सम सांस्कृतिक धरातल पर उनके साहित्य का स्वर एक कैसे हो सकता है! जब सिर्फ झारखंड प्रदेश में कथाकार हांसदा सोवेन्द्र शेखर और पीटर पॉल एक्का की समाज दृष्टि एक दूसरे से अलहदा है तो समग्र आदिवासी लेखन को एक ही लय में कैसे समेटा जा सकता है? रमणिका गुप्ता द्वारा संपादित संकलन-पुस्तक ‘आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी‘ (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित) में विविध विधाओं में आदिवासी लेखन की वैविध्यपूर्ण बानगी को मानक मान लेने में किसी को एतराज नहीं हो सकता। इसी तरह समकालीन आदिवासी रचनाशीलता के व्यापक रुझानों को  प्रस्तुत करने के लिहाज से वंदना टेटे की पत्रिका ‘अखड़ा‘ के दर्जनों अंक धरोहर की तरह याद आते हैं।


वर्तमान समय में आदिवासी साहित्य की प्रवृत्तियों और उपलब्धियों के बारे में कहने योग्य बातें कई हैं। बात यहां से भी शुरू हो सकती है कि आदिवासी साहित्य किसे कहा जाये? क्या आदिवासी समाज जीवन  पर केन्द्रित गैरआदिवासी लेखकों के साहित्य को भी इस दायरे में रखा जाये या सिर्फ आदिवासी लेखकों द्वारा लिखा जा रहा साहित्य ही यहां प्रासंगिक है? महाश्वेता या संजीव जैसे अनेक लेखकों को किस शिविर में बिठाया जाये? एक और मुद्दा भी फिलहाल चर्चा में है। जैस,े आदिवासी साहित्य वही है जिसमें आदिवासी जीवन दर्शन है।  अभिप्राय यह कि वही आदिवासी लेखन मान्य है जो आदिवासी दर्शन की कसौटी पर खरा उतरे और उसमें विजातीय दृष्टि का हस्तक्षेप नहीं हो। इस मान्यता के अपने पक्ष हो सकते हैं, लेकिन जरूरी सवाल यह भी है कि क्या देशज सृजन का रिमोट अब जीवन दर्शन के नियामक सूत्रों से अनुशासित होगा ? फिर इस ‘दर्शन‘ का दायरा कहां से कहां तक फैला होगा? राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक ? ईसाई, सरना या हिन्दू अवधारणाओं के विवादित परिदृश्य में उसका पहचान योग्य चेहरा कैसा होगा? अभिव्यक्ति की सार्थकता की कसौटी अरस्तू के आचार-विचार के आसपास होगी या मार्क्स, गांधी और बिरसा या फ्रायड-युंग की मान्यताओं के अनुरूप होने की छूट भी मिलेगी? सभी जानते हैं कि इतिहास की प्रयोगशाला में ऐसी कसौटियां कालजीवी नहीं होतीं। अगर इस नजरिए से सिर्फ झारखंड की आदिवासी कविता-कलम को परखा जाये तो रामदयाल मुंडा, ग्रेस कुजूर, रोज केरकेट्टा, मंजु ज्योत्स्ना, निर्मला पुतुल, वंदना टेटे, जसिन्ता केरकेट्टा, सरिता सिंह बड़ाइक, ज्योति लकड़ा, महादेव टोप्पो, अनुज लुगुन और सावित्री बड़ाइक की रचनाओं की जमीन तलाशने के लिए एक से अधिक कसौटियों की जरूरत होगी।

सच है कि वैचारिकता के इन विवादी सुरों के पीछे चिन्ताओं का लंबा काफिला है। अगर खोजी नजर से देखा जाये तो कई सांस्कृतिक चुनौतियों के बीच से गुजरना एक अनिवार्य विवशता है। सच यह भी है कि सांस्कृतिक संदर्भों में इन प्रतिप्रश्नों की अनदेखी नहीं हो सकती। पिछले सौ-सवा सौ वर्षों से देश के आदिवासी अंचलों में औद्योगिक विकास के जो मॉडल लागू हुए हैं, और आज भी कमोबेश जारी हैं, अगर उनके साथ बड़े बांधों और खनन परियोजनाओं को भी जोड़ दें तो कहना होगा कि उनके चौतरफा असर से इन क्षेत्रों के जनजीवन में उजाड़ का मौसम सदाबहार बन गया है। केद्रीय एजेंसियों की ओर से उपभोग और मुनाफे के लिए देशज संसाधनों का बेहिसाब इस्तेमाल आन्तरिक उपनिवेश जैसा ट्रीटमेंट लगे तो अचरज नहीं।

सनद रहे कि हम संस्कृति को रूपंकर कलाओं यानी परफॉर्मिंग आर्ट का संग्रहालय समझने की गलती नहीं करंे चूंकि वह लोकजीवन का मूल्यमान भी है और नैसर्गिक प्रवाह का गतिमान भी। ध्यान दीजिये कि आज सत्ता संस्कृति सभागारों में है जबकि प्रतिरोध की संस्कृति सड़कों पर। इनदिनों जन संस्कृति को अपसंस्कृति के रास्ते पर मोड़ा जा रहा है और मूल संदेशों को छोड़ा जा रहा है। अब मूल प्रश्न की ओर एक बार फिर लौटें। समग्रता में अगर विस्तृत दृष्टि से देखें तो आदिवासी पृष्ठभूमि के साहित्य लेखन के सौ साल अब पूरे हो चुके हैं। निजी और सामाजिक मनोभावों की तमाम विभिन्नताओं के बीच वह आज भी प्रकृति और मनुष्य के आत्मीय लगाव से जुड़ी है। खिलाफ हवाओं से संघर्ष, आक्रोश और प्रतिरोध उसके मिजाज पर तारी हैं।


6. नयी सदी के पिछले दो दशकों में आदिवासी जीवन और साहित्य में युगान्तरकारी परिवर्तन सामने आये हैं। रामदयाल मुंडा की कविता पुस्तकें ‘नदी और उसके संबंधी और अन्य नगीत‘ और ‘वापसी, पुर्नमिलन और अन्य नगीत‘ की अन्तर्वस्तु से लेकर ट्रीटमेंट तक में जमीन से लेकर आसमान जैसा अन्तर दिखता है। इस दिशान्तर को अगर कोई नाम देना हो तो कहेंगे कि मुंडा जी ने सदाबहार रूमानी रुझान की बिदाई के बाद सामयिक चुनौतियों के दबाव में देशकाल से यथार्थपरक नाता जोड़ा था। बाद के समय में जसिन्ता केरकेट्टा के कविकर्म में परिपार्श्व से अन्तःक्रिया के समान्तर राजनीतिक विवेक का उद्घोष भी सामने आया। विवेक और संवेदना की यह कौंध अनुज लुगुन की रचनाशीलता में मुखर होती दिखी। अगर पीढ़ियों के अन्तराल की ओर मुखातिब होना चाहें तो दिखेगा कि कविता की अन्तर्वस्तु के स्तर पर निर्मला पुतुल से लेकर सरिता सिंह बड़ाइक तक बरास्त ग्रेस कुजूर, वंदना टेटे और महादेव टोप्पो में प्रकृति, परिवेश और परिवार से सहज मानवीय जुड़ाव के साथ बाहरी दखलंदाजी के प्रति आक्रोश और प्रतिरोध की मनःस्थितियां भी बारबार आवाजाही कर रही हैं। इसी तरह, बदलाव की दृष्टि से समग्रता में देखें तो हिन्दी संसार में आदिवासी कलम की धार समय की शिला पर घिसते हुए बहुत नुकीली हो चुकी है। बेशक अबतक कविता की विधा आदिवासी मानस की सर्वाधिक मुखर अभिव्यक्ति बनी हुई है, शेष प्रतिपूर्ति के लिए अनवरत हो रहे विमर्शपरक लेखन की टेक अनिवार्य है। इस निष्कर्ष की प्रासंगिक विवेचना के लिए न सामग्री की कमी है, न उद्धरणों की।

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मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

एक हसरत थी कि आंचल का मुझे प्यार मिले

 एक हसरत थी कि आंचल का मुझे प्यार मिले।

मैंने मंजिल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले।।


रामावतार त्यागी के इस गीत को अधिकांश लोगों ने सुना है। मैं भी इस गीत को बचपन से सुनता आ रहा हूँ। वेदना का यह गीत घोर निराशा से आशा की ओर ले जाता है। फिल्म ‘ज़िंदगी और तूफ़ान’ (1975) के इस गीत में विशेष बात यह रही कि इसमें कवि रामावतार त्यागी ने जीवन की उस सच्चाई का प्रदर्शन किया है, जिसे स्वीकारने से तत्कालीन समाज डरता रहा।

कवि रामावतार त्यागी के समय के साहित्य की बात करें तो सन् 1936 ई. के आस-पास कविता में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक शोषण से मुक्ति का स्वर अभिव्यक्त होने लगा था। इसी नवीन धारा को प्रगतिवाद नाम दिया गया। जिसका प्रारंभ पंत व निराला ने किया। यह कविता व्यक्तिवाद, कलावाद के कारण चर्चा में रहीं। परंतु कवि रामावतार त्यागी ने जिस शैली को अपनाया वह आम पाठक की समझ में खूब आती थी।

कवि रामावतार त्यागी की लगभग पंद्रह पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उनकी कुछ कविताएँ एनसीईआरटी के हिंदी पाठ्यक्रम में भी शामिल की गईं। उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षा के कक्षा आठ के पाठ्यक्रम में भी उनकी ‘समर्पण’ नामक कविता शामिल है। यही नहीं बल्कि उनके जीवन की खास बात यह भी रही कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा ने उन्हें राजीव गांधी और संजय गांधी हिंदी वाचन के लिए निजी शिक्षक भी नियुक्त किया। घर की रूढ़िवादिता से विद्रोह कर त्यागी ने अत्यंत विषम परिस्थितियों में शिक्षा प्राप्त की।

अंत में दिल्ली आकर इन्होंने वियोगी हरि और महावीर अधिकारी के साथ संपादन कार्य किया। त्यागी पीड़ा के कवि हैं। इनकी शब्द-योजना सरल तथा अनुभूति गहरी है। इनका कविता संग्रह ‘आठवाँ स्वर’ पुरस्कृत है। उन्होंने नवभारत टाइम्स के लिए एक क्राइम रिपोर्टर के रूप में काम किया। उन्होंने साप्ताहिक लेख ‘मलूक दास की क़लम से’ भी लिखा।

यह महान कवि 12 अप्रैल सन 1985 को इस नश्वर दुनिया को छोड़ सदा के लिए चला गया। वह देशप्रेमी कविताएँ भी खूब लिखते थे। उनकी ‘समर्पण’ कविता विभिन्न पाठ्यक्रम में शामिल की गई है। कविता का पाठ करते-करते मन में जो देशभावना उमड़ती है वह देखने लायक होती है- तन समर्पित मन समर्पित / और यह जीवन समर्पित / चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ 

उन्होंने जितना प्रेम अपने गाँव को किया उससे कहीं अधिक अपने देश को भी किया। प्रकृति प्रेम उनके साहित्य में स्पष्ट झलकता है तो सामाजिक ताने-बाने को भी उन्होंने अपने साहित्य की विषयवस्तु बनाया है। किंतु दुःख का विषय है कि रामावतार त्यागी जैसे महान साहित्यकार और उनके साहित्य पर अभी आवश्यक प्रकाश नहीं डाला गया है। ऐसे में रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व एवं उनके कृतित्व पर शोधपूर्ण अध्ययन की आवश्यकता है।


विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें -

 ‘शोधादर्श’ 

(संदर्भित एवं समीक्षित शोध आलेखों की त्रैमासिक पत्रिका) का अंक 

(मार्च - मई, 2022)

RNI- UPHIN/2018/77444

ISSN 2582-1288

मूल्य- 200 रुपए

अमन कुमार

मोबा.- 9897742814

20 अप्रैल से सभी के लिए उपलब्ध


शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022

किससे किससे दूर करोगे / अनंग

 *"संभलना सीखा"*

हमको  क्या  मजबूर करोगे।

किससे - किससे दूर करोगे।।


जब  देखो  तब  मेरी  चर्चा।

अब कितना मशहूर करोगे।।


इतना हमको याद करो मत।

लगता   है   मगरुर  करोगे।।


कहीं   बुराई  कहीं   दुहाई।

अपने दिल को चूर करोगे।।


खुशियां देकर खुश हो जाओ।

नया  -  नया   दस्तूर  करोगे।।


जान  लगाकर  पीछे  खींचो।

एक दिन तुम्हीं गुरूर करोगे।।


अब आदत से बाज तो आओ।

कितना  अधिक कसूर करोगे।।


चुगली हुईं संभालना सीखा।

भ्रम  में   हो   बेनूर   करोगे।।...*"अनंग"*

रवि अरोड़ा की नजर से....

 कहां लिखा हैं / रवि अरोड़ा 


 

हालांकि धर्म कर्म में अपना हाथ जरा हल्का है मगर फिर भी धार्मिक स्थलों पर आना जाना लगा ही रहता है । हाल ही में मित्रों के साथ वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर भी गया था । वैसे तो पहले भी कई बार वहां गया हूं मगर इस बार का अनुभव ऐसा रहा कि फिर वहां जाने की तौबा ही कर ली है । वृंदावन में बंदर चश्मे , मोबाइल फोन और पर्स आदि लूट लेते हैं और फिरौती वसूलने के बाद ही वापिस करते हैं , यह तो पता था मगर कभी झेला नहीं था । इस बार झेला तो उन तीर्थयात्रियों का दर्द महसूस हुआ जो इस लूट का शिकार रोज़ होते हैं । वृंदावन ही क्यों अन्य धार्मिक स्थलों और दिल्ली समेत तमाम बड़े शहरों की भी तो यही गाथा है । बंदरों का आतंक पूरे मुल्क में है । बंदरों की लूटपाट और अपने घर में गमलों और कपड़ों को तहस नहस करने का गवाह तो मैं खुद आए दिन बनता हूं । 


वृंदावन भ्रमण के दौरान बंदरों से बचाने की गर्ज से इस बार भी मैंने अपना चश्मा, मोबाइल फोन और पर्स भीतरी कपड़ों में छुपा लिए थे । कुल मिला कर लगभग एक घंटा इस धार्मिक नगरी में रहा मगर भरपूर असुविधा के बावजूद चश्मा जेब से नहीं निकाला । मगर वापसी में कार में बैठते समय तो चश्मा निकालना ही था । बस इसी पल एक बंदर आया और चश्मा झपट कर ले गया । आसपास खड़े एक दो लोगों ने फ्रूटी लाने की सलाह दी और हम लोग दौड़ कर लाए भी मगर तब तक बंदर नाराज़ हो चुका था और उसने मेरा महंगा चश्मा अपने पैने दांतों से चूर चूर कर दिया । दुखी मन वृंदावन से लौटने पर मैंने अपने परिचित वहां के एक गोस्वामी जी को फोन किया और जानना चाहा कि यह सारा माजरा क्या है ? उनके द्वारा बताई गई बातें बेहद चौंकाने वाली थीं । गोस्वामी जी ने बताया कि सवा लाख की आबादी वाले वृंदावन में साठ हजार से अधिक बंदर हैं । उन बंदरों में से कुछ बंदर ही झपटमार हैं और वे भी कुछ दुकानों के नियमित कर्मचारी की तरह काम करते हैं । सामान झपटने वाली सभी जगह वही हैं जहां कोई दुकानदार फ्रूटी बेच रहा होता है । बंदर से सामान वापिस दिलवाने वाला कोई स्थानीय व्यक्ति भी वहीं खड़ा आपको मिल जायेगा जो बंदर को फ्रूटी देकर आपका सामान वापिस दिलवाएगा । महंगा सामान वापिस मिलने पर आप उस व्यक्ति को स्वेच्छा से जो नज़राना देंगे , उसमें भी दुकानदार का हिस्सा होता है । बेशक शुरू शुरू में स्थानीय लोग इसे खेल तमाशा समझ कर कुछ नहीं कहते थे मगर अब सभी तंग आए हुए हैं । बंदरों के खौफ से सभी को अपने घरों में लोहे के बड़े बड़े जाल लगवाने पड़ रहे हैं । बंदरों के खौफ से छत से गिर कर अथवा उनके द्वारा काटे जाने से हर साल कई लोग मर भी रहे हैं । इलाके के हर चुनाव में बंदरों का आतंक बड़ा मुद्दा रहता है मगर धार्मिक संगठनों , दुकानदारों और कुछ धर्मभीरू लोगों के कारण अभी तक कोई समाधान नहीं हो पाया है । 


वैसे तो इस मुल्क में इतनी समस्याएं हैं कि उसने समक्ष बंदर जैसे मुद्दे पर बात करना अजीब लगता है मगर फिर भी हमें यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि बेशक छोटी सही मगर ये बंदर भी हमारे शहरों की एक समस्या हैं । यह समस्या नहीं होते तो संसद में इस पर कई बार चर्चा नहीं हुई होती । स्वयं उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने संसद में इनके बाबत अपना दुखड़ा न रोया होता । सुप्रीम कोर्ट ने अपने जजों को इस बंदरों से बचाने के लिए टेंडर न निकाला होता । राष्ट्रपति भवन और संसद समेत पूरे लुटियंस जोन को बंदरों से बचाने को लंगूरों की तैनाती न करनी पड़ती । कमाल है हमारे बड़े बड़े लोग इन बंदरों से त्रस्त हैं मगर इनके खिलाफ कुछ ठोस करने का साहस नहीं करते । माना हमारे धर्म ग्रंथों में बंदरों का जिक्र है मगर ये बंदर हमारा जीना दूभर कर दें , यह तो कहीं नहीं लिखा ।



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