सोमवार, 8 अप्रैल 2024

किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं


1.


जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग। 

कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।। 

वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। 

दो दिन पीछे फिर रीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।। 

' रेल-बसों  की दौड़-धूप में तन-मन थक कर  चूर हुए।   ' हारे-हारे भी जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।। 

दफ़्तर की हर ऊँच-नीच को सहते हैं पर कह डालें। 

ऐसे नहीं गए-बीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।। 

रोज़ी-रोटी के चक्कर में सारे मेले छूट गए। 

अपने ज़ख़्मों को सीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।

 2


मैं यूँ तो सबके साथ सदा 

पर मेरा अपना अलग ढंग 


जो बात किसी को चुभ जाए 

मैं ऐसी बात नहीं कहता

हो जहाँ कहीं कुछ ग़लत बात 

मैं क्षण भर वहाँ नहीं रहता


जो बनी-बनाई लीक मिली 

मैं अकसर उस पर चला नहीं 

मुझको वह बात नहीं भाई 

हो जिसमें सबका भला नहीं 


जग जिस प्रवाह में बहता है 

मैं उस प्रवाह में बहा नहीं 

जो भीड़ कहा करती अकसर 

मैंने वह हरगिज कहा नहीं


अपना कुछ काम बनाने को 

मैंने समझौता नहीं किया 

खु़श हो कोई या रुष्ट रहे 

झूठा यशगायन नहीं किया 


मैं सबको रास नहीं आता 

पर इसकी कुछ परवाह नहीं 

सब मुझे सुनें,बस मुझे सुनें

ऐसी कुछ मन में चाह नहीं 


अपनी धुन,अपनी मस्ती है 

अपनी भी कोई हस्ती है। 

*   *   *   *   *   *   *   *



: कुछ लोग जहाँ में हरदम ही तकरार की बातें करते हैं।

कुछ लोग हैं ऐसे दीवाने बस प्यार की बातें करते हैं।। 


ऐसे भी बहुत हैं अहले-चमन करते हैं नज़ारा फूलों का।

कुछ लोग मग़र इस गुलशन में बस ख़ार की बातें करते हैं।। 


बिन सोचे-समझे करते हैं वो बात यहाँ हैरानी की। 

दो-चार कदम जो चल न सकें  रफ़्तार की बातें करते हैं।। 

जो बात पे अपनी ना ठहरें दुनिया से हैं बिलकुल बेगाने। 

वादे की हिमायत करते हैं इकरार की बातें करते हैं।। 

जिनको नग़मों का इल्म नहीं जो दूर रहें हर महफ़िल से। 

वो रक्स की कमियाँ गिनते हैं झनकार की बातें करते हैं।। 

*  *  *  *  *  *  *  *  *  *

4



श्रीराम-जन्म का शुभ अवसर 

*  *  *  *  *  *  *  *  *  *

शुभ चैत्र मास मंगलवेला

श्रीराम-जन्म का शुभ प्रभात 

हो प्रेम-प्रीत छवि चहुँओर

हर्षित-पुलकित हों तात-मात। 


हो दूर दुराशा-दैन्यभाव

जग में फैले चहुँओर शान्ति

 हो नष्ट घृणा सब आपस की,

 सबके मुख चमके विमल कान्ति। 


वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे

दीनों को गले लगाते थे

करुणामय राम की आँखों को

शबरी-निषाद भी भाते थे। 


पर आज तुम्हारे भक्त बहुत

कट्टरता से समझौता कर

कहते हैं खुद को सर्वश्रेष्ठ 

हिंसा-नफ़रत नित फैलाकर।


श्रीराम बुद्ध और महावीर 

का ध्येय प्रेममय समता है 

हम इसको भी सोचें-समझें

सबसे ऊँची मानवता है। 


हों राम हृदय में,कर्मों में 

ईमानभरी सच्चाई हो 

आचरण हमारा श्रेष्ठ रहे 

मन में यह बात समाई हो। 

*  *  *  *  *  *  *  *  *  *

--5

         

 सत्य कहाँ हैे?

             *  *  *  *  *  *

सत्य कहाँ है अब दुनिया में 

कभी-कभी मन होता व्याकुल

'सत्यमेव जयते'  

संसद औ घर-दफ़्तर की दीवारों पर 

टँगा हुआ अच्छा लगता है 

दुनिया चलती नहीं सत्य से 

बड़े-बड़े सच के हामी को 

झूठ यहाँ कहना पड़ता है 

कभी-कभी सोचा करता हूँ 

हरिश्चंद्र या गाँधी

सच की सूली पर चढ़ते आए हैं

आदर्शों की बात करें तो 

अपने सत्पुरुषों की चर्चा करना 

सदा भला लगता है 

पर जीवन के संघर्षों में 

नहीं काम चल पाता सच से

रोज-रोज के व्यवहारों में 

छोटी या फिर बड़ी बात में 

सदा झूठ का डंका बजता 

और सत्य कोने में रोता 

कभी-कभी मन होता व्याकुल 

इस जग में क्यों ऐसा होता

*   *   *   *   *   *   *   *   *

  6  


  ग़ज़ल 

             *  *  *  *  *


 दम भले रौशनी का भरते हैं। 

 नौकरी तीरगी  की करते हैं।।          

  सिर्फ़ दो रोटियाँ जुटाने में ।

 रोज़ जीते हैं  रोज़  मरते हैं।।

 इस कदर ख़ौफ़ हैं फि़जाओं में। 

राह चलते भी लोग डरते हैं।। 

किसकी आँखों में स्वप्न जीवन के?

किसके होठों से फूल झरते हैं?

आपसे दूरियाँ नहीं मिटती।

कैसे औरों की पीर हरते हैं।। 

*   *   *   *   *   *    *   *

7


             

आया वसंत सखे,छाया वसंत


वन-वन में बेला पलाश फूल फूले

आम नीम मेंहदी पर बौर-मौर  झूले

बहता है मस्ती में पवन दिग्-दिगंत

आया वसंत सखे- - -


सरसों की पियराई फैली चहुँओर

कलियों के घूँघट लख नाचे मन-मोर

मेला उमंगों का मस्ती अनंत

आया वसंत सखे- - -


फूलों को छेड़ भ्रमर करते ठिठोली 

राहों में मौसम ने मस्ती सी घोली

कंतों की कौन कहे बहके हैं संत


आया वसंत सखे,छाया वसंत

*   *   *   *   *   *   *   *   *

--8


ये ज़िन्दगी है प्यार की

-  -  -  -  -  -  -  -  -  -  -

ये ज़िन्दगी है प्यार की 

तू हर बशर से प्यार कर


सवेरे तुझको राह में 

मिलेंगे अजनबी कई

तू मुस्कराता गाता चल 

कि ज़िन्दगी लगे नई

कहीं से कोई आएगा,

मिलेगा ख़ूब बाँह भर 

न ऐसी आस पाल तू,

न उसका इंतज़ार कर। 


तू हर बशर से प्यार कर 



चले थे शहंशाह कुछ 

भरे हुए गुमान में 

करेंगे राज ठाठ से 

डटे हुए जहान में 

मगर दिलों में प्यार के 

जला न पाए दीप कुछ

नहीं हुए सफल कभी

चले गए वे हार कर


तू हर बशर से प्यार कर 


ये ज़िन्दगी है कितने दिन 

किसी को भी नहीं पता 

तो किसलिए घमंड में 

तू घूमता है,यह बता

न कोई पास आएगा

जो साँस जाएगी निकल

बनेगा राख ये बदन 

रखा जिसे सँभालकर


तू हर बशर से प्यार कर


झगड़ रहे जो रात-दिन 

ज़मीन धन के वास्ते 

किये हैं बन्द धर्म के 

जिन्होंने नेक रास्ते 

उन्हें मिलेगा स्वर्ग क्या

जो बाँटते रहे सदा

जिन्हें बशर से प्यार की

समझ न आई उम्र भर 


तू हर बशर से प्यार कर 


यही कहा है वेद ने 

यही लिखा कुरान में 

नहीं है कोई  देवता 

कमी है हर इंसान में 

बनाया जिसने आदमी

बसाया जिसने ये जहाँ

उसी का मंत्र है यही

लुटा दे प्यार हर डगर


तू हर बशर से प्यार कर। 

 *  *  *  *  *  *  *  *  *

--- 9            


    गीत

                *  *  *

मर्यादाएँ जीवन भर अड़ी रही, 

वरना मैं भी कुछ खुलकर जी लेता।


मैं रहा बनाता संबंधों के पुल, 

आने-जाने वालों का ध्यान किया।

मेरे अपने ही मुझसे रूठ गए,

 जिनका मैंने दिल से सम्मान किया।।

 कोई बाधा यूंँ अड़कर खड़ी रही,

वरना मैं भी कुछ खुलकर जी लेता।।


 जिम्मेदारी घर की पूरी करते, 

कर पाते हम कोई संकल्प नहीं,

 बच्चों की खातिर जीते हैं अब तो,

अपनी इच्छा का कहीं विकल्प नहीं।।

समझौते करने पड़ते हैं अक्सर, 

वरना फूलों सा खिलकर जी लेता।।


 कुछ बंधन होते हैं इतने सुखकर, 

जिनको हम खुश होकर अपनाते हैं,

 कुछ बंधन ढोने पड़ते हैं यूंँ ही,

 जिसमें जीवन भर बँध पछताते हैं।।

 करुणा बरसाने वाले नहीं मिले,

वरना घावों को सिलकर जी लेता।। 

*   *   *   *   *   *   *   *   *

10



 ग़ज़ल 



जो गुल करते चरागों को उमर भर हाथ मलते हैं।

मिसालें जिनकी बनती हैं, मशालें लेके चलते हैं।।


जहाँ में लोग अक्सर वक्त पर मुँह फेर लेते हैं।

भले इंसान आड़े वक्त में भी साथ चलते हैं।।


जिसे पत्थर समझ कर देखते हैं सब हिकारत से।

उसी परबत के सीने में कई दरिया मचलते हैं।।


थकन से चूर आते शाम अपने आशियाने पर।



सवेरे बन-सँवर के रोज़ फिर घर से निकलते हैं।।


खटकता है बुजुर्गों को यही इस दौर में "कौशल"।

 नई पीढ़ी के ठंडी रेत पर भी पाँव जलते हैं।।

*   *   *   *   *   *   *   *   *

--किशोर कुमार कौशल 

   मो0- 98998 31002

शुक्रवार, 29 मार्च 2024

हरिवंश रॉय बच्चन और उनका साहित्य


प्रस्तुति - A. न कॉलेज. पटना (मगध विश्वविद्यालय )


 रात आधी, खींच कर मेरी हथेली 

एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।


फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में

और चारों ओर दुनिया सो रही थी,

तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं

जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,

मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे

अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,


रात आधी खींच कर मेरी हथेली

एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।


एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,

कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,

इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू

बह रहे थे इस नयन से उस नयन में,

मैं लगा दूँ आग इस संसार में है

प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,

जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने

के लिए था कर दिया तैयार तुमने!


रात आधी, खींच कर मेरी हथेली 

एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।


प्रात ही की ओर को है रात चलती

औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,

मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,

खूबियों के साथ परदे को उठाता,

एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,

और मैंने था उतारा एक चेहरा,

वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर

ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।


रात आधी, खींच कर मेरी हथेली 

एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।


और उतने फ़ासले पर आज तक सौ

यत्न करके भी न आये फिर कभी हम,

फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका

उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,

और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,

क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं--

बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो

रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।


रात आधी, खींच कर मेरी हथेली 

एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।


~ हरिवंश राय बच्चन


आज, मॉं हिंदी की वीणा को अपनी सरल व सरस शैली द्वारा झंकृत करके कविता को जन-जन के कंठ तक पहुँचाने वाले समर्थ गीत-ऋषि तथा मधुशाला व निशा-निमंत्रण जैसी अमर काव्य-कृतियों के रचनाकार स्व हरिवंश राय 'बच्चन' जी का जन्मदिन है। अपनी सम्मोहक कविताओं के जरिए खड़ी बोली की कविता को लोक-रूचि का केन्द्र बनाने वाले स्व. हरिवंश राय बच्चन जी को जन्मदिन पर कृतज्ञ प्रणाम। 🙏🏻🙏🏻

प्रभा वर्मा और केरल साहित्य हिंदी और मीडिया में योगदान

 प्रस्तुति - केरल यूनिवर्सिटी

 (हिंदी विभाग)


कवि, साहित्यकार, गीतकार प्रभा वर्मा,  पारंपरिक मीडिया के साथ साथ इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया में काम करने वाले मीडियाकर्मी तथा एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं । वे समकालीन मलयालम साहित्य के महत्वपूर्ण स्वारों में से एक हैं। उनकी कविताएं परंपरा एवं आधुनिकता का समुचित समागम प्रस्तुत करती हैं। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक और विधि संबंधी उपाधि प्राप्त की है। मलयालम और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में समान रूप से अधिकार रखने वाले इस द्विभाषिक साहित्यकार ने इस वर्ष अपने सृजनात्मक लेखन के पचास वर्ष पूर्ण किए हैं। ऐतिहासिक पंपा नदी के तट पर बसे तिरुवल नामक कस्बे में उनका जन्म सन् १९५९ में हुआ था। उनकी कविताएं अपने कोमल रोमानी भावों, काव्य बिंबों के एक विशिष्ट संगुम्फन, मौलिक और रचनात्मक अख्यान की क्षमता, दार्शनिक अन्तर्दृष्टि और जीवन के व्यापक अर्थों की एक गहरी समझ के लिए सुविख्यात हैं । उनकी काव्य प्रज्ञा अनुभववाद और प्रयोगवाद का एक अद्भुत सामंजस्य प्रकट करती है। अपने सांस्कृतिक विरासत में व्याप्त सूक्ष्म यथार्थ को आत्मसात् करते हुए वह ऐसी आधुनिक संवेदना को जन्म देते हैं जो न केवल समकालीन पीढ़ी बल्कि आने वाले कल के लिए भी उतनी ही प्रेरणादायी है।


उनके साहित्यिक योगदान में तीस से अधिक पुस्तकें शामिल हैं, जिसके अंतर्गत लगभग दर्जन भर कविता संग्रह, तीन काव्यात्मक उपन्यास, समकालीन  सामाजिक राजनैतिक परिवेश और साहित्य पर आठ पुस्तकें, सात आलोचनात्मक निबंध संग्रह, मीडिया संबंधित एक विश्लेषणात्मक पुस्तक, एक अंग्रेजी उपन्यास,  एक संस्मरण और एक यात्रा वृतांत आते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने एक मलयालम उपन्यास और प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीतकार शादकला गोविंदा मरार के जीवन पर आधारित शादकलम नामक एक पटकथा भी लिखी है। 


उनकी प्रसिद्ध रचनायें, मुख्यतः काव्याखिकाओं में  ‘श्यामामाधवम’ (सांवले भगवान का विलाप), कनल चिलंब (अग्नि पायल) और रौद्र सातविकम आदि को गिना जा सकता है। ‘श्यामामाधवम’ पंद्रह अध्यायों वाली ऐसी पुस्तक है जो भगवान कृष्ण के पृथ्वी पर  अवतरित जीवन में आये पात्रों पर आधारित पुनर्रचना है। कनल चिलंब सात अध्यायों में प्रेम, वासना, शक्ति, कौतूहल, प्रतिशोध और व्यभिचार की कथा है। 


उनका पुरस्कृत छंदबध उपन्यास रौद्र सातविकम राजनीति और सत्ता, व्यक्ति और राज्य, कला और शक्ति के संबंधों में व्याप्त अंतर्विरोधों की एक विशिष्ट शैली में विश्लेषण करता है । यह किताब काल और गति की अवधारणा से परे धर्म और धर्मिकताओं को पुनर्व्याख्यायिक करता है।प्रत्येक व्यक्ति धर्म की अवधारणा से अवगत है  लेकिन वह इसका अभ्यास करने में विफल रहता है। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि अधर्म क्या है...फिर भी वह इससे विरक्त नहीं रहता। 


इस पुस्तक में धर्म संबंधी इस विरोधभास की दार्शनिक, रचनात्मक व्याख्या के साथ इस विषय में अन्य दूरदर्शी आयामों को अभिव्यक्त किया गया है। संक्षेप में रौद्र सातविकम अपने महाकाव्यात्मक स्वरूप में एक आधुनिक महाकाव्य है। रौद्र और सात्विकम  जैसे  विरोधी पर्याय वाले  दो संस्कृत शब्दों से गढ़े गये  इस शीर्षक का सामान्य अनुवाद सतोगुणी क्रोध के तौर पर किया जा सकता है।

हर व्यक्ति जीवन की उतार चढ़ाव वाली परिस्थितियों के मध्य जूझते हुए जिन दो विरोधाभासी भावों का किसी न किसी समय अनुभव करता है, उनके रचनात्मक समेकन द्वारा गठित इस नए शब्द से लेखक की काव्य प्रज्ञा लक्षित की जा सकती है। प्रभा वर्मा कहते हैं कि “बरसे बिना बादल, खिले बिना कली और रोदन बिना वेदनामय हृदय के पास अन्य कोई विकल्प नहीं बचता है, कविता भी इसी तरह जन्म लेती है।”

प्रभा वर्मा को सत्तर से अधिक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिसमें राष्ट्रीय साहित्य अकादमी सम्मान, रजत कमल राष्ट्रीय फिल्म सम्मान, केरल साहित्य अकादमी सम्मान, केरल संगीत नाटक अकादमी सम्मान, केरल राजकीय फिल्म सम्मान, वायलार सम्मान, पद्मप्रभा पुरुष्कार इत्यादि सम्मिलित हैं। उन्होंने मोहिनीअट्टम और भरतनाट्यम के लिए दर्जनों कार्नाटिक संगीत कृतियों, भजनों, और पद्मों को शब्दबध कर शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में अपना महान योगदान दिया है। 

वर्तमान में वह केरल के मुख्यमंत्री के मीडिया सचिव के रूप में कार्यरत हैं।

शुक्रवार, 15 मार्च 2024

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे मुलाकात के लिए पहुंचे।

उस दिन साहिर ने जावेद के चेहरे पर उदासी देखी और कहा, “आओ नौजवान, क्या हाल हैं, उदास हो?” 

जावेद ने बताया कि दिन मुश्किल चल रहे हैं, पैसे खत्म होने वाले हैं.. 

उन्होंने साहिर से कहा कि अगर वो उन्हें कहीं काम दिला दें तो बहुत एहसान होगा।


जावेद अख़्तर बताते हैं कि साहिर साहब की एक अजीब आदत थी, वो जब परेशान होते थे तो पैंट की पिछली जेब से छोटी सी कंघी निकलकर बालों पर फिराने लगते थे। जब मन में कुछ उलझा होता था तो बाल सुलझाने लगते थे। उस वक्त भी उन्होंने वही किया। कुछ देर तक सोचते रहे फिर अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में बोले, “ज़रूर नौजवान, फ़कीर देखेगा क्या कर सकता है”।


फिर पास रखी मेज़ की तरफ इशारा करके कहा, “हमने भी बुरे दिन देखें हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है”, जावेद अख़्तर ने देखा तो मेज़ पर दो सौ रुपए रखे हुए थे।


वो चाहते तो पैसे मेरे हाथ पर भी रख सकते थे, लेकिन ये उस आदमी की सेंसिटिविटी थी कि उसे लगा कि कहीं मुझे बुरा न लग जाए। ये उस शख़्स का मयार था कि पैसे देते वक़्त भी वो मुझसे नज़र नहीं मिला रहा था।

 

साहिर के साथ अब उनका उठना बैठना बढ़ गया था क्योंकि त्रिशूल, दीवार और काला पत्थर जैसी फिल्मों में कहानी सलीम-जावेद की थी तो गाने साहिर साहब के। 

अक्सर वो लोग साथ बैठते और कहानी, गाने, डायलॉग्स वगैरह पर चर्चा करते। इस दौरान जावेद अक्सर शरारत में साहिर से कहते, “साहिर साब, आपके वो दौ सौ रुपए मेरे पास हैं, दे भी सकता हूं लेकिन दूंगा नहीं”, साहिर मुस्कुराते। साथ बैठे लोग जब उनसे पूछते कि कौन से दो सौ रुपए तो साहिर कहते, “इन्हीं से पूछिए”, ये सिलसिला लंबा चलता रहा। 

साहिर और जावेद अख़्तर की मुलाकातें होती रहीं, अदबी महफिलें होती रहीं, वक़्त गुज़रता रहा।


और फिर एक लंबे अर्से के बाद तारीख़ आई #25अक्टूबर 1980की। वो देर शाम का वक्त था, जब जावेद साहब के पास साहिर के फैमिली डॉक्टर, डॉ कपूर का कॉल आया। उनकी आवाज़ में हड़बड़ाहट और दर्द दोनों था। उन्होंने बताया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे। हार्ट अटैक हुआ था। जावेद अख़्तर के लिए ये सुनना आसान नहीं था।


वो जितनी जल्दी हो सकता था, उनके घर पहुंचे तो देखा कि उर्दू शायरी का सबसे करिश्माई सितारा एक सफेद चादर में लिपटा हुआ था। वो बताते हैं कि वहां उनकी दोनों बहनों के अलावा बी आर चोपड़ा समेत फिल्म इंडस्ट्री के भी तमाम लोग मौजूद थे।


मैं उनके करीब गया तो मेरे हाथ कांप रहे थे, मैंने चादर हटाई तो उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे, मेरी आंखों के सामने वो वक़्त घूमने लगा जब मैं शुरुआती दिनों में उनसे मुलाकात करता था, मैंने उनकी हथेलियों को छुआ और महसूस किया कि ये वही हाथ हैं जिनसे इतने खूबसूरत गीत लिखे गए हैं लेकिन अब वो ठंडे पड़ चुके थे।


जूहू क़ब्रिस्तान में साहिर को दफनाने का इंतज़ाम किया गया। वो सुबह-सुबह का वक़्त था, रातभर के इंतज़ार के बाद साहिर को सुबह सुपर्दे ख़ाक किया जाना था। ये वही क़ब्रिस्तान है जिसमें मोहम्मद रफी, मजरूह सुल्तानपुरी, मधुबाला और तलत महमूद की क़ब्रें हैं। 

साहिर को पूरे मुस्लिम रस्म-ओ-रवायत के साथ दफ़्न किया गया। साथ आए तमाम लोग कुछ देर के बाद वापस लौट गए, लेकिन जावेद अख़्तर काफी देर तक क़ब्र के पास ही बैठे रहे।


काफी देर तक बैठने के बाद जावेद अख़्तर उठे और नम आंखों से वापस जाने लगे। वो जूहू क़ब्रिस्तान से बाहर निकले और सामने खड़ी अपनी कार में बैठने ही वाले थे कि उन्हें किसी ने आवाज़ दी। जावेद अख्तर ने पलट कर देखा तो साहिर साहब के एक दोस्त अशफाक़ साहब थे।


अशफाक़ उस वक्त की एक बेहतरीन राइटर वाहिदा तबस्सुम के शौहर थे, जिन्हें साहिर से काफी लगाव था। अशफ़ाक हड़बड़ाए हुए चले आ रहे थे, उन्होंने नाइट सूट पहन रखा था, शायद उन्हें सुबह-सुबह ही ख़बर मिली थी और वो वैसे ही घर से निकल आए थे। उन्होंने आते ही जावेद साहब से कहा, “आपके पास कुछ पैसे पड़े हैं क्या? 

वो क़ब्र बनाने वाले को देने हैं, मैं तो जल्दबाज़ी में ऐसे ही आ गया”, जावेद साहब ने अपना बटुआ निकालते हुआ पूछा, “हां-हां, कितने रुपए देने हैं’, उन्होंने कहा, “दो सौ रुपए"...!!

रविवार, 3 मार्च 2024

परख


*योग्यता की परख*


प्रस्तुति - उषा रानी- राजेंद्र प्रसाद सिन्हा 


युवक अंकमाल भगवान बुद्ध के सामने उपस्थित हुआ और बोला, *"भगवन् मेरी इच्छा है कि मैं संसार की कुछ सेवा करूँ, आप मुझे जहाँ भी भेजना चाहें भेज दें, ताकि मैं लोगों को धर्म का रास्ता दिखाऊँ?"*


बुद्ध हँसे और बोले, *"तात! संसार को कुछ देने के पहले अपने पास कुछ होना आवश्यक है। जाओ पहले अपनी योग्यता बढ़ाओ, फिर संसार की भी सेवा करना।"*


अंकमाल वहाँ से चल पड़ा और कलाओं के अभ्यास में जुट गया। बाण बनाने से लेकर चित्रकला तक, मल्लविद्या से लेकर मल्लाहकारी तक जितनी भी कलाएँ हो सकती हैं, उन सबका उसने १० वर्ष तक कठोर अभ्यास किया। अंकमाल की कलाविशारद के रूप में सारे देश में ख्याति फैल गई।


अपनी प्रशंसा से आप प्रसन्न होकर अंकमाल अभिमानपूर्वक लौटा और तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ। अपनी योग्यता का बखान करते हुए उसने कहा, *"भगवन् ! अब मैं संसार के प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ सिखा सकता हूँ। अब मैं ४२ कलाओं का पंडित हूँ।"*


 भगवान बुद्ध मुस्कराए और बोले, *"अभी तो तुम कलाएँ सीखकर आए हो, परीक्षा दे लो, तब उन पर अभिमान करना।"*


अगले दिन भगवान बुद्ध एक साधारण नागरिक का वेश बदलकर अंकमाल के पास गए और उसे अकारण खरी- खोटी सुनाने लगे। अंकमाल क्रुद्ध होकर मारने दौड़ा, तो बुद्ध वहाँ से मुस्कराते हुए वापस लौट पड़े।


उसी दिन मध्याह्न दो बौद्ध श्रमण वेश बदलकर अंकमाल के समीप जाकर बोले, *"आचार्य ! आपको सम्राट हर्ष ने मंत्रिपद देने की इच्छा की है, क्या आप उसे स्वीकार करेंगे?"*


अंकमाल को भी लोभ आ गया उसने कहा, *"हाँ- हाँ अभी चलो।"*


दोनों श्रमण भी मुस्करा दिए और चुपचाप लौट आए। अंकमाल हैरान था कि बात क्या है ?


थोड़ी देर पीछे भगवान बुद्ध पुनः उपस्थित हुए। उनके साथ आम्रपाली भी थी। अंकमाल, जितनी देर तथागत वहाँ रहे, आम्रपाली की ही ओर बार-बार देखता रहा। बात समाप्त कर तथागत आश्रम लौटे।


सायंकाल अंकमाल को बुद्धदेव ने पुनः बुलाया और पूछा, *"वत्स! क्या तुमने क्रोध, काम और लोभ पर विजय की विद्या भी सीखी है ?"*


अंकमाल को दिन भर की सब घटनाएँ याद हो आईं। उसने लज्जा से अपना सिर झुका लिया और उस दिन से आत्मविजय की साधना में संलग्न हो गया।



*शुभ प्रभात। आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलमय हो।**योग्यता की परख* 


युवक अंकमाल भगवान बुद्ध के सामने उपस्थित हुआ और बोला, *"भगवन् मेरी इच्छा है कि मैं संसार की कुछ सेवा करूँ, आप मुझे जहाँ भी भेजना चाहें भेज दें, ताकि मैं लोगों को धर्म का रास्ता दिखाऊँ?"*


बुद्ध हँसे और बोले, *"तात! संसार को कुछ देने के पहले अपने पास कुछ होना आवश्यक है। जाओ पहले अपनी योग्यता बढ़ाओ, फिर संसार की भी सेवा करना।"*


अंकमाल वहाँ से चल पड़ा और कलाओं के अभ्यास में जुट गया। बाण बनाने से लेकर चित्रकला तक, मल्लविद्या से लेकर मल्लाहकारी तक जितनी भी कलाएँ हो सकती हैं, उन सबका उसने १० वर्ष तक कठोर अभ्यास किया। अंकमाल की कलाविशारद के रूप में सारे देश में ख्याति फैल गई।


अपनी प्रशंसा से आप प्रसन्न होकर अंकमाल अभिमानपूर्वक लौटा और तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ। अपनी योग्यता का बखान करते हुए उसने कहा, *"भगवन् ! अब मैं संसार के प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ सिखा सकता हूँ। अब मैं ४२ कलाओं का पंडित हूँ।"*


 भगवान बुद्ध मुस्कराए और बोले, *"अभी तो तुम कलाएँ सीखकर आए हो, परीक्षा दे लो, तब उन पर अभिमान करना।"*


अगले दिन भगवान बुद्ध एक साधारण नागरिक का वेश बदलकर अंकमाल के पास गए और उसे अकारण खरी- खोटी सुनाने लगे। अंकमाल क्रुद्ध होकर मारने दौड़ा, तो बुद्ध वहाँ से मुस्कराते हुए वापस लौट पड़े।


उसी दिन मध्याह्न दो बौद्ध श्रमण वेश बदलकर अंकमाल के समीप जाकर बोले, *"आचार्य ! आपको सम्राट हर्ष ने मंत्रिपद देने की इच्छा की है, क्या आप उसे स्वीकार करेंगे?"*


अंकमाल को भी लोभ आ गया उसने कहा, *"हाँ- हाँ अभी चलो।"*


दोनों श्रमण भी मुस्करा दिए और चुपचाप लौट आए। अंकमाल हैरान था कि बात क्या है ?


थोड़ी देर पीछे भगवान बुद्ध पुनः उपस्थित हुए। उनके साथ आम्रपाली भी थी। अंकमाल, जितनी देर तथागत वहाँ रहे, आम्रपाली की ही ओर बार-बार देखता रहा। बात समाप्त कर तथागत आश्रम लौटे।


सायंकाल अंकमाल को बुद्धदेव ने पुनः बुलाया और पूछा, *"वत्स! क्या तुमने क्रोध, काम और लोभ पर विजय की विद्या भी सीखी है ?"*


अंकमाल को दिन भर की सब घटनाएँ याद हो आईं। उसने लज्जा से अपना सिर झुका लिया और उस दिन से आत्मविजय की साधना में संलग्न हो गया।



🙏🏽🌹🙏🏽

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

प्रेमचंद / जयचन्द प्रजापति

 कलम के जादूगर-मुंशी प्रेमचंद्र

++++++++++++++++++


आजादी के पहले भारत की दशा दुर्दशा देखकर सबका कलेजा फट रहा था.दयनीय हालत हमारे देश के समाज की हो गई थी.पीड़ा दर्द से कराहता हमारा समाज दुर्दिन के दौर से गुजर रहा था.यह सब देख कर हमारा साहित्य भी कराह उठा.हिन्दी साहित्य की पीड़ा का जगना स्वाभाविक हो गया था.उसी दुर्दिन से हिन्दी साहित्य के महान कथाकार,उपन्यास सम्राट,कलम के सिपाही के नाम से प्रसिध्द मुँशी प्रेमचन्द्रजी का परिवार गुजर रहा था.देख समाज की हालात से मजबूर हो कर कलम उठ गया और मुंशी प्रेमचन्द्र एक से बढ़कर एक रचना देकर हिन्दी साहित्य का एक महान वृक्ष बन गये.सामाजिक गिरे हालात से गुजर रहे लोगों पर लेखनी चला कर समाज के स्वरूप व बिडम्बना को पूरे विश्व मंच पर रखा.गरीबी नजदीक से मुँशी जी ने देखा,झेला,अनुभव लिया और इस कटु अनुभव को अपनी लेखनी में उतारा.


31जुलाई सन1880 को बनारस शहर से करीब चार मील दूर लमही नामक एक छोटे से गाँव में मुंशी अजायबलाल के घर जन्म हुआ.मुंशी प्रेमचन्द्र का वास्तविक नाम धनपत राय था.मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक था.पिताजी डाकमुंशी के पद पर कार्यरत थे. इस प्रकार नौकरी पिताजी की होने के कारण शुरूआती समय में खाने पीने,पहनने ओढ़ने की तंगी नहीं थी लेकिन इतने उच्च स्तर के नहीं हो सके थे कि ठाठ बाट से रह सके.आर्थिक हालातों से जीवन भर जूझते रहने वाले मुँशी जी तंगी में ही 8 अक्टूबर सन 1936 को 56 वर्ष की अल्पआयु में जलोधर रोग से पीड़ित यह महान लेखक हम लोगों से जुदा हो गया.


पाँच छः साल के उम्र में शिक्षा के लिये लमही गाँव के करीब लालगंज नामक गाँव में एक मौलवी साहब के पास फारसी और उर्दू पढ़ने के लिये भेजा गया और उस पढ़ाई के दौरान पढ़ाई कम हुआ करता था लेकिन हुल्लडबाजी ज्यादा हुआ करता था.गाँव की जिन्दगी थी.गाँव की माटी से जुड़ा हृदय था,माँ व दादी के लाड़ प्यार में बचपन मजे से बीत रहा था लेकिन होनी कौन टाल सकता है.खुशी में पता नहीं कौन नजर लगी कि अचानक माँ की तबियत खराब हो गई और तबियत ऐसी खराब हुई की बालक धनपतराय को इस भरे संसार में अकेला छोड़ दी.उस समय बालक धनपतराय की अवस्था बहुत कम की थी.माँ के जाने के बाद बालक धनपयराय के चेहरे पर वह हँसी,ठिठोली,बदमाशियाँ सब छिन गई.बिन माँ का जीवन दुर्दिन का जीवन हो जाता है.


माँ के जाने के बाद प्रेमचन्द्र के जीवन में जो माँ का प्यार,दुलार,स्नेह,संग साथ में खेलना था,सब उजड़ गया.माँ से जो प्यार मिला फिर वह प्यार दुबारा कभी नहीं मिला,थोड़ा बहुत प्यार बहन से मिला लेकिन शादी के पश्चात वह अपने ससुराल चली गई.उस प्यार से भी वंचित हो जाना पड़ा.अब समझिये पूरी दुनिया बालक के लिये सूनी हो गई.यह सूनापन इतनी गहरी थी कि उनका मासूम हृदय तड़प उठा और वही तड़प व पीड़ा अपने कहानियों व उपन्यासों में दुःखित व पीड़ित व्यक्तियों को पात्र बनाया और उनके जीवन में उठे संत्रास को उकेरा और कामयाबी मिली.ऐसे पात्रों को लिया जिनके बचपन में माँ चल बसी थी या जिनके माँ बाप बचपन में बिछड़ गये या ऐसे पात्रों को समाहित किया जिनका जीवन दरिद्रता से परिपूर्ण रहा,दीन हीन जीवन जी रहा होता.विधवा,मजदूरों,शोषितों,पीड़ितों,कल्पितों और अनाथों के जीवन को सजीव चित्रण कर कथा साहित्य को अमर कर दिया.


मातृत्व स्नेह से वंचित यह बालक कुछ इस तरह का रास्ता चुना कि आगे चल महान कथाकार,उपन्यास सम्राट तथा कलम के सिपाही के नाम से पूरे विश्व साहित्य के लिये आदरणीय बन गये.तमाम विभूतियों से अलंकृत यह महान रचना कार साधारण सा ही जिन्दगी जिया.दिखावे के चीज से सदैव दूर रहे.स्वाभिमानी थे.सादा जीवन में पूर्ण भरोसा था और इसी तरह जीवन को आत्मसात किया.साधारण से जीवन में एक महान व्यक्तित्व का निर्माण किया.


विवाह छोटी सी अवस्था में हो गया जब लगभग पन्द्रह-सोलह बरस के रहे थे.यह विवाह इनके लिये कष्टकारी रहा यानी दुर्भाग्य से भरा रहा लेकिन विवाह के साथ एक संयोग जुड़ा.बनारस के पास चुनार में एक स्कूल में मास्टरी मिल गई.सन 1899 से सन1821 तक मास्टरी किया.नौकरी करते हुये अपनी शिक्षा भी ली.इंटर और बीए तक पढ़ाई नौकरी के दरम्यान पूरी कर ली.इसी नौकरी के समय तबादलों का सामना करना पड़ा.इस नौकरी के सिलसिले में घाट घाट का पानी पीना पड़ा.इन्हीं तबादलों के साथ साथ नये लोगों से मिलने का अवसर मिला.सामाजिक ताने बाने को और करीब से जानने का मौका मिला.सामाजिक समस्याओं से रूबरू भी हुये.ये सारी चीजें एक साहित्यकार के लिये सोने में सुहागा सिध्द हुआ और इन्हीं सब चीजों को देखकर अपनी आत्मा तक साहित्य के लिये समर्पित कर दिया.साहित्य में यह महान रचनाकार कूद पड़ा और जमकर साहित्य की रचना की. ऐसा लिखा की पूरे समाज की नब्ज को लिख दी.साहित्य को नई ऊँचाई दी.


साहित्य का महान पुरोधा प्रेमचन्द्र लगभग तीन सौ कहानिया और चौदह छोटे बड़े उपन्यास की रचना की.रचना इतनी सुंदर रही कि कोई अगर थोड़ा पढ़ना शुरू किया तो बिना पूरा पढ़े रहा नहीं.यही वजह रहा कि पाठकों की संख्या बहुत रही है.इसी प्रकार इस महान साहित्यकार की गिनती दुनिया के महान लेखकों में होती है.इनके साहित्य का अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में किया जा चुका है.


कानपुर में भी मारवाड़ी स्कूल में काम किया लेकिन स्वाभिमानी स्वभाव के कारण मैनेजर से नहीं बनी और वहाँ से तत्काल इस्तीफा दे दिया और बनारस चले आये.बनारस में 'मर्यादा' पत्रिका का संपादन किया.कुछ समय तक काशी विद्यापीठ में शिक्षक रहे.लखनऊ से बुलावा आने पर 'माधुरी' के संपादन के लिये गये.लगभग छः सात वर्ष तक रहे फिर हंस के संपादन के लिये पुनः बनारस चले गये.हंस मुंशी जी की पत्रिका रही.आजकल हंस का प्रकाशन दिल्ली से होता है.यह एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका है.मुंशी जी कुछ समय बाद 'जागरण' निकाला.


प्रेमचन्द्रजी अपने सशक्त लेखनी के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों,रूढ़िवादियों एवं शोषणकर्ताओं के खिलाफ जमकर लिखा.तमाम सामाजिक विद्रुपताओं पर कुठाराघात करके अपने पाठकों को स्वस्थ मनोरंजन परोसने में कामयाब रहे.सामाजिक दुष्परिणाम को उजागर कर उनको जड़ से मिटाने का संदेश पूरे समाज को दिया.अमर कथाकार ऐसे नक्षत्र हैं जिनकी रोशनी में साहित्यप्रेमियों को आम भारतीय जीवन का सच्चा दर्शन मिलता है.अपनी बेमिशाल लेखनी चलाकर गरीब,बेबस,दबे कुचले लोगों की आवाज को रखा.पाठकों के मन में बेबस लोगों को पढ़कर मन में टीस व भावुकता का भाव उमड़ने लगता है.कथानक के पात्र चलचित्र की तरह पाठकों का सजीव दर्शन कराती है.सच्चे भावों को रखा है.मानवीय संवेदनाओं को उकेरा है.नपे तुलेे शब्दों के प्रयोग से रचना अंदर तक बेधती है.इसी खासियत के चलते आम जन में लोकप्रिय रहे.आज भी उतने प्रासंगिक हैं जितने उस समय रहे.आज भी इनकी रचनायें चाव से पढ़ी जाती है.प्रेमचन्द्र समाज के कुशल चितेरे थे.


प्रेमचन्द्र जी को सामाजिक लेखक भी कह सकते हैं.19वीं सदी के अंतिम दशक तथा 20वीं सदी के तीसरे दशक तक सामाजिक समस्याओं एव भारत की दुर्दशा पर अपनी सशक्त लेखनी चलाई.

देशभक्ति की भावना भी कूट कूट कर भरी थी.चौरी चौरा काण्ड से दुःखी होकर चौथे दिन सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया.यह लेखक की देश के प्रति अगाध प्रेम दर्शाता है.अंग्रेजों द्वारा महान क्रांतिकारी खुदीरामबोस की फांसी से उनका मन बहुत आहत हुआ.कई दिन तक दुःखी रहे.बाजार से खुदीरामबोस की तस्वीर लाकर अपने घर में टांग दी.


जिस समय प्रेमचन्द्र हिन्दी में उभर रहे थे.वह युग छायावाद का युग रहा लेकिन वे किसी वाद के चक्कर में नहीं पड़े .अलग रह कर हिन्दी साहित्य को समृध्य किये.जिस रूप में समाज को देखा वैसा ही अपने लेखनी में चित्रण किया.समाज में हो रहे अत्याचारों को पात्र का माध्यम बनाकर कहानिया व उपन्यास लिखे.समाज के हर बुराई को लिखा.संवेदनाओं को  दिखाया.लोगों को जागृति करने का भरसक प्रयत्न किया.सामाजिक ढोंग पर सीधे प्रहार किये.सामाजिक भेदभाव को करारा तमाचा जड़ा.हिन्दु व मुस्लिम के दिखावे पर करारा प्रहार किया.स्त्रियों की दुर्दशा पर उनका रूह कांप गया.कहानियों व उपन्यास में स्त्री को केन्द्र बिन्दु मान कर रचना की.समस्याओं पर बेबाक लिखने वाले मुंशी जी सामाजिक समस्याओं का समाधान भी खोजते हैं.कैसे समस्याओं से निदान हो सकता है .इस पर भी प्रकाश डाला है.भारतीयों के ऊपर हो रहे अत्याचार से आहत मुंशीजी अंग्रेजों पर भी करारा प्रहार किये.हिम्मती थे जो इतने साहसी विषय पर लिखा.हार मानने वाले नहीं थे.


मुंशीजी दलितों के हालत पर समाज के उच्च वर्गों पर प्रहार करने से नहीं चूके.भेदभाव पर वे भरोसा नहीं करते थे.सामाजिक कलंक इसे मानते थे.दलित को भी समाज में हक है जीने का .तमाम चीजें लेकर वे खुद मुद्दा बनाते और दलितों के हक के लिये लड़ाई लड़ी.सामाजिक भेदभाव को हटाने का प्रयत्न किये.हिन्दु व मुश्लिम के बीच जो असमानता का भेदभाव था.उस पर करारा प्रहार किया.अगर हम आपस में लड़ेगें तो फिर हमारा देश कैसे आजाद होगा.इस प्रकार कहा जा सकता है कि सामाजिक समरसता लाने में मुंशी जी का विशेष योगदान रहा है.


किसानों पर जमकर लिखा.किसानों की हालत दयनीय थी जो देश के लिये अन्न उपजा रहा है वही भूखा सोता है.वही नंगधडंग है.उसके बच्चे गरीबी में हैं.स्कूल नहीं जा पा रहें है.किसानों की दयनीय हालत पर लिखा और किसानों की समस्याओं को दिखाया और समाधान भी खोजा.गबन,गोदान,निर्मला प्रसिध्द कृतियां रहीं हैं.नमक का दारोगा,पूस की रात,ईद,काकी इत्यादि कई रचनाये पढ़ने से मन हर्षित हो जाता है.सामाजिक भावों को दिखाती रचना अतीव सुंदर है.


वैसे मुंशी जी की रचनायें आज भी प्रासंगिक है.समाज में हो रहे अत्याचार,सामाजिक भेदभाव,स्त्रियों के उपर हो रहे दुराचार,अमानवीय भाव से इनकी रचनाओं की यहाँ जरूरत है.अगर सामाजिक समरसता नहीं बनी तो वह दिन दूर नहीं फिर जब वही पुराने दौर से गुजरना पड़े.चिन्तन बहुत जरूरी है.भेदभाव खत्म करना है.स्त्रियों का सम्मान करना है.किसानों के बारे में सोंचना है.गरीबों के बारे कुछ करना होगा .बदलाव लाना ही पड़ेगा.तभी रामराज्य की कल्पना गांधी जी का साकार होगा.


                                                                 लेखक

                                                          

जयचन्द प्रजापति 

                                                               प्रयागराज

बुधवार, 14 फ़रवरी 2024

अपने हिस्से का भाग्य*


*प्रस्तुति - *स्वामी शरण 

.

एक आदमी एक सेठ की दुकान पर नौकरी करता था। वह बेहद ईमानदारी और लगन से अपना काम करता था। 

.

उसके काम से सेठ बहुत प्रसन्न था और सेठ द्वारा मिलने वाली तनख्वाह से उस आदमी का गुज़ारा आराम से हो जाता था। ऐसे ही दिन गुज़रते चले गये और वो बाल बच्चेदार हो गया तब भी काम करता रहा...!

.

एक दिन वह आदमी बिना बताए काम पर नहीं गया। उसके न जाने से सेठ का काम रूक गया।  

.

तब उसने सोचा कि *यह आदमी इतने वर्षों से ईमानदारी से काम कर रहा है। मैंने कबसे इसकी तन्ख्वाह नहीं बढ़ाई। इतने पैसों में इसका गुज़ारा कैसे होता होगा ?*

.

सेठ ने सोचा कि *अगर इस आदमी की तन्ख्वाह बढ़ा दी जाए, तो यह और मेहनत और लगन से काम करेगा। उसने अगले दिन से ही उस आदमी की तनख्वाह बढ़ा दी।*

.

उस आदमी को जब एक तारीख को बढ़े हुए पैसे मिले, तो वह हैरान रह गया। लेकिन वह बोला कुछ नहीं और चुपचाप पैसे रख लिये...

.

धीरे-धीरे बात आई गई हो गयी। कुछ महीनों बाद वह आदमी फिर फिर एक दिन ग़ैर हाज़िर हो गया। 

.

यह देखकर सेठ को बहुत गुस्सा आया। वह सोचने लगा- *कैसा कृतघ्न आदमी है। मैंने इसकी तनख्वाह बढ़ाई, पर न तो इसने धन्यवाद तक दिया और न ही अपने काम की जिम्मेदारी समझी। इसकी तन्खाह बढ़ाने का क्या फायदा हुआ ? यह नहीं सुधरेगा !*

.

*और उसी दिन सेठ ने बढ़ी हुई तनख्वाह वापस लेने का फैसला कर लिया।*

.

अगली 1 तारीख को उस आदमी को फिर से वही पुरानी तनख्वाह दी गयी। लेकिन हैरानी यह कि इस बार भी वह आदमी चुप रहा। उसने सेठ से ज़रा भी शि‍कायत नहीं की। यह देख कर सेठ से रहा न गया और वह पूछ बैठा-

.

*बड़े अजीब आदमी हो भाई। जब मैंने तुम्हारे ग़ैरहाज़िर होने के बाद पहले तुम्हारी तन्ख्वाह बढ़ा कर दी, तब भी तुम कुछ नहीं बोले।*

.

*और आज जब मैंने तुम्हारी ग़ैर हाज़री पर तन्ख्वाह फिर से कम कर के दी, तुम फिर भी खामोश रहे। इसकी क्या वजह है ?*

.

उस आदमी ने जवाब दिया- *"जब मैं पहली बार ग़ैर हाज़िर हुआ था तो मेरे घर एक बच्चा पैदा हुआ था। उस वक्त आपने जब मेरी तन्ख्वाह बढ़ा कर दी, तो मैंने सोचा कि ईश्वर ने उस बच्चे के पोषण का हिस्सा भेजा है। इसलिए मैं ज्यादा खुश नहीं हुआ। ...*

.

*जिस दिन मैं दोबारा ग़ैर हाजिर हुआ, उस दिन मेरी माता जी का निधन हो गया था। आपने उसके बाद मेरी तन्ख्वाह कम कर दी, तो मैंने यह मान लिया कि मेरी माँ अपने हिस्से का अपने साथ ले गयीं.... फिर मैं इस तनख्वाह की ख़ातिर क्यों परेशान होऊँ ?*

.

यह सुनकर सेठ गदगद हो गया। उसने फिर उस आदमी को गले से लगा लिया और अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी। उसके बाद उसने न सिर्फ उस आदमी की तनख्वाह पहले जैसे कर दी, बल्कि उसका और ज्यादा सम्मान करने लगा. 

.

*

❤️❤️

किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...