गुरुवार, 11 सितंबर 2025

हिंदी दिवस लेख श्रृंखला 2/3 अतुल प्रकाश

अतुल प्रकाश 


हिंदी निबंध श्रृंखला: हिंदी दिवस पखवाड़ा-२


*हिन्दी के सबसे विवादास्पद शब्द : नीच से गोदी मीडिया तक, शब्दों की समय-यात्रा-

अतुल प्रकाश*

शब्द सिर्फ़ आवाज़ नहीं, ये समय की परतें हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि जिन शब्दों को आप गाली समझते हैं, उनका जन्म किस अर्थ में हुआ था?

हम हिंदी के सबसे विवादास्पद और शक्तिशाली शब्दों की यात्रा पर निकलेंगे। हम जानेंगे कि कैसे 'नीच' एक सामाजिक वर्गीकरण से अपमानजनक गाली बन गया और कैसे 'हरामज़ादा' सिनेमाई इतिहास का हिस्सा बना। हम 'शूद्र' और 'यवन' जैसे प्राचीन शब्दों के बदलते अर्थों को समझेंगे और देखेंगे कि कैसे 'फिरंगी', 'गुलाम' और 'कुली' जैसे शब्द उपनिवेशवाद के प्रतीक बन गए।


आज के दौर के शब्दों, जैसे 'गोदी मीडिया' और 'अर्बन नक्सल' की उत्पत्ति और उनके पीछे छिपी राजनीति को भी समझेंगे। इसके साथ ही, हम 'कमीना', 'लफ़ंगा' और 'भड़वा' जैसे शब्दों की चौंकाने वाली व्युत्पत्ति को भी जानेंगे।

जब आप  भाषा की शक्ति, उसके बदलाव और हमारे जीवन पर उसके प्रभाव के बारे में सोचते हैं तो एक अजीब सा प्रश्न उठता है कि आखिर इन शब्दों की उत्पत्ति कैसे हुई होगी।

👉 चर्चा के मुख्य बिंदु :


*१. विवादित शब्दों की व्युत्पत्ति और इतिहास: 'नीच', 'हरामज़ादा', 'शूद्र', 'यवन'*

*२.उपनिवेशवाद का शब्दों पर प्रभाव: 'फिरंगी', 'गुलाम', 'कुली', 'नेटिव'*

*३. आधुनिक राजनीतिक शब्दों का विश्लेषण: 'गोदी मीडिया', 'अर्बन नक्सल'*

*४.आम बोलचाल की गालियों का मूल: 'गाली', 'भड़वा', 'कमीना', 'लफ़ंगा'*

शब्दों का अर्थ क्यों बदलता है? शब्द सिर्फ़ बोलते नहीं, वे हमारा इतिहास, हमारी सोच और हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य भी तय करते हैं।


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अतुल प्रकाश


 हिंदी निबंध श्रृंखला: हिंदी दिवस पखवाड़ा -3


*दो भाषाओं के मिलावट से बने हिंदी के शब्द -अतुल प्रकाश*


*भाषा का मामला भी तो ‘बहता नीर’ ठहरा। बहने दीजिए, देखिए कहाँ जाकर रुकता है। ज़माना फ्यूज़न का है भाई, मिलावट कहाँ नहीं है!* 

हिंदी में बहुत से शब्द ऐसे भी हैं जो समझ-बूझकर आवश्यकतानुसार दो भाषाओं के मेल-मिलाप से बना लिए गए हैं और प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए ‘डबलरोटी’, ‘रेलगाड़ी’ और ‘नौकर-चाकर’ जैसे शब्दों पर ध्यान दीजिए। शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा मिले जिसकी ज़ुबान पर ये शब्द न आए हों। हमारे रोज़मर्रा के व्यवहार में गहरे तक रचे-बसे हुए हैं ये। लेकिन, क्या कभी आपने ध्यान दिया कि इन शब्दों के मूल में आख़िर भाषा कौन सी है। ध्यान देंगे तो पता चलेगा कि अँग्रेज़ी के ‘डबल’ के साथ हिन्दी की ‘रोटी’, बड़े आराम से हजम की जाने लगी और अँग्रेज़ी की ‘रेल’ के साथ हिन्दी की ‘गाड़ी’ चल निकली। तुर्की के ‘नौकर’ के साथ फ़ारसी का ‘चाकर’ भी हिन्दी में बड़े आराम से गलबहियाँ करने लगा।


हिन्दी के साथ संस्कृत का गहरा नाता है, इसलिए इन दोनों भाषाओं के शब्द एक साथ सङ्गति बैठाते ज़्यादा दिखाई देंगे। ‘अणुबम’, ‘उपबोली’, ‘गुरुभाई’, ‘परमाणु बम’, ‘आवागमन’, ‘खेती-व्यवस्था’, ‘घर-द्वार’, ‘समझौता-प्रेमी’ जैसे शब्दों में ‘अणु’, ‘उप’, ‘गुरु’, ‘परमाणु’, ‘गमन’, ‘व्यवस्था’, ‘द्वार’, ‘प्रेमी’, संस्कृत के तत्सम शब्द हैं तो ‘बम’, ‘बोली’, ‘भाई’, ‘आवा’, ‘खेती’, ‘घर’, ‘समझौता’ जैसे शब्द हिन्दी के अपने हैं। 

इसके अलावा भाषा के विकास क्रम में समय-समय पर अँग्रेज़ी, फ़ारसी, अरबी और तुर्की बोलने वालों के साथ हिन्दीवालों का लेना-देना काफ़ी रहा है तो इन भाषाओं के मेल से शब्द निर्माण की भी एक प्रक्रिया निरन्तर चलती रही है। ‘खानापूरी’ और ‘पेशाबघर’ जैसे शब्द हम अकसर प्रयोग करते हैं। ‘खाना’ और ‘पेशाब’ फ़ारसी के हैं तो ‘पूरी’ और ‘घर’ हिन्दी के। इसी तरह ‘धन-दौलत’, ‘समझौता-परस्त’, ‘काम-धन्धा’, ‘गुलाब-जामुन’, ‘खेल-तमाशा’, ‘चोर-बाज़ार’, ‘दाना-पानी’, ‘बाल-बच्चे’, ‘तन-बदन’, ‘सीधा-सादा’ जैसे संयुक्त शब्दों में पूर्वार्ध हिन्दी है तो उत्तरार्ध फ़ारसी। अरबी के ‘अख़बार’, ‘किताब’ और ‘माल’ में हिन्दी के ‘वाला’, ‘घर’ और ‘गाड़ी’ मिले तो बन गए ‘अख़बारवाला’, ‘किताबघर’ और ‘मालगाड़ी’। ‘टिकटबाबू’, ‘पॉकेटमार’, ‘पार्सल-घर’, ‘पुलिसवाला’, ‘मोटरगाड़ी’, ‘ठलुआ-क्लब’ में हम आसानी से समझ सकते हैं कि ‘टिकट’, ‘पॉकेट’, ‘पार्सल’, ‘पुलिस’, ‘मोटर’ और ‘क्लब’ अँग्रेज़ी के हैं तो ‘बाबू’, ‘मार’, ‘घर’, ‘वाला’, ‘गाड़ी’, ‘ठलुआ’ हिन्दी के। संस्कृत और अँग्रेज़ी के मेल से भी हिन्दी के शब्द बने हैं। उदाहरण के लिए ‘अधिकारी-क्लब’, ‘क्रास-मुद्रा’ ‘प्रेस-सम्मेलन’, ‘प्रेस-वार्ता’ आदि। संस्कृत-फ़ारसी का मेल देखना हो तो ‘छायादार’, ‘विज्ञापनबाज़ी’, ‘गुलाब-वाटिका’, ‘मजदूर-संघ’ जैसे शब्दों पर गौर फ़रमाइए। ‘छाया’, ‘विज्ञापन’, ‘वाटिका’ और ‘सङ्घ’ संस्कृत के हैं तो ‘दार’, ‘बाज़ी’, ‘गुलाब’ और ‘मजदूर’ फ़ारसी के।


ऐसे ही तुर्की की ‘तोप’ में हिन्दी की ‘गाड़ी’ लगाकर ‘तोपगाड़ी’ चलाई गई। इस ‘तोप’ को संस्कृत के ‘सैनिक’ चलाते हैं तो ‘तोप सैनिक’ बन जाते हैं। ‘धन-दौलत’ में संस्कृत के ‘धन’ के साथ अरबी की ‘दौलत’ दिखाई देती है। संस्कृत के ‘विवाह’ में अरबी का ‘ख़र्च’ ‘विवाह-ख़र्च’ की व्यवस्था करता है। किसी ‘शक्कर मिल’ तक आप पहुँचें तो फ़ारसी की ‘शक्कर’ अँग्रेज़ी की ‘मिल’ में ही दिखाई देगी। ‘पॉकेट-ख़र्च’ का इन्तज़ाम अँग्रेज़ी और अरबी मिलकर करते हैं। ‘गोलची’ की कामयाबी भी अँग्रेज़ी के ‘गोल’ और तुर्की के ‘ची’ में है।



मंगलवार, 9 सितंबर 2025

हिंदी दिवस पखवाड़ा धारावाहिक-०१

 

*हिंदी के राह के रोड़े -

अतुल प्रकाश*


आज आपको हिन्दी दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से प्रगति पथ पर बढ़ती हुई दिखाई दे सकती है। हालाँकि, एक अर्थ में यह ग़लत भी नहीं हैं। निश्चित रूप से हिन्दी का संसार विस्तार कर रहा है। राष्ट्र की सीमाएँ पार कर विदेशी धरती पर भी इसने अपनी हैसियत साबित की है। सरहदों के पार निगाह दौड़ाएँगे तो हिन्दी को सम्भावनाओं के संसार में सरपट दौड़ लगाते और सम्भावनाओं का ख़ुद का एक नया संसार रचते हुए पाएँगे। यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि भारतीय बाज़ार में पैठ की लालसा पाले विदेशी भी अब हिन्दी सीखने को आतुर हैं। 

यदि मॉरीशस, त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम तथा फीजी जैसे देशों में प्रवासी भारतीय अपनी विरासत के तौर पर इस भाषा को पाल-पोस रहे हैं तो अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, जर्मनी, पोलैण्ड, रूस, चीन, जापान, कोरिया जैसे अन्यान्य देशों के लिए यह बाज़ार की ज़रूरत बन रही है। यह सोचना भी कम अच्छा नहीं लगता कि दुनिया के डेढ़ सौ से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाने लगी है। और तो और, हिन्दी फिल्में सीमा के पार भी अपना बाज़ार बना रही हैं और हिन्दी गाने अहिन्दीभाषियों के कानों में रस घोलने लगे हैं। ऐसे में, जब हमारी हिन्दी विश्वपटल पर एक बड़ी भूमिका में आने को तैयार दिखाई दे रही हो, तब कोई भी यह सवाल कर ही सकता है कि हमारे जैसे लोग हिन्दी के हाल पर आख़िर क्यों इतने बेहाल हुए जा रहे हैं?

इसी देश में अँग्रेज़ी माध्यम के ऐसे विद्यालय खड़े हो रहे हैं, जहाँ हिन्दी बोलने पर अघोषित सेंसर है। ‘पापा-मम्मी’ के रूप में काफ़ी हद तक हमारे नौनिहालों का संस्कृतीकरण हो चुका है। अब गाँवों में भी ‘माई’, ‘बाबू’, ‘काका’ बोलना दकियानूसी और शर्म का विषय बनने लगा है। जिस गति से कानवेण्टीकरण चल रहा है, उसमें ‘कुकुरमुत्ते’ वाला मुहावरा भी बहुत पीछे छूट गया है।


हिन्दी का हाल हिन्दुस्तान में कैसा है, बयान कर पाना आसान नहीं। उम्मीदों से ज़्यादा आशङ्काएँ हैं। हिन्दी का खा-खाकर मुटिया रहे लोग भी जब अँग्रेज़ी के ढोल-ताशे बजाने लगें तो फिर कहने को रह ही क्या जाता है? आज़ादी के इतने बरस बाद गुलाम मानसिकता घटने की कौन कहे, जैसे दिनोंदिन बढ़ ही रही है। कभी फादर कामिल बुल्के ने कहा था—‘‘संस्कृत माँ, हिन्दी गृहिणी और अँग्रेज़ी नौकरानी है।’’ बेल्जियम से आकर हिन्दी के लिए ख़ुद को समर्पित कर देने वाले फादर ने यह कहते हुए इस बात को गहरे तक महसूस किया था कि इस देश की असल भाषाई ज़रूरत क्या है। वास्तव में उन्होंने संस्कृत, हिन्दी और अँग्रेज़ी के लिए जिन जगहों को रेखाङ्कित किया था, उनकी प्रासङ्गिकता आज भी वैसी-की-वैसी है। लेकिन, दुर्भाग्य कि हमारे सत्ताधीश निरन्तर जैसी परिस्थितियाँ बना रहे हैं उसमें नौकरानी राजरानी बन गई है और माँ और गृहिणी को हर दिन लतियाती-धकियाती हुई दिखाई दे रही है।

 माँ (संस्कृत) को तो इस हाल में लाकर छोड़ दिया गया है कि भूले से भी आप उसके पक्ष में कोई बात करते दिखाई दे जाएँ तो बिना किसी किन्तु-परन्तु के दकियानूसी, मनुवादी, पोंगापन्थी आदि-आदि की चिप्पी आप पर चिपका दी जाएगी। हिन्दी की हालत ज़रूर अभी इतनी दयनीय नहीं है, पर आने वाले कुछ वर्षों में इसका भी हाल वही हो जाय और यह भी विलुप्त होने के कगार पर पहुँचा दी जाए तो आश्चर्य नहीं।


कुछ लोग मेरी बात पर हँस सकते हैं और कह सकते हैं कि मैं बेवजह का स्यापा कर रहा हूँ।


सोमवार, 8 सितंबर 2025

हिंदी पाक्षिक महोत्सव /अतुल प्रकाश

 

हिंदी दिवस पखवाड़ा-१०


*हिंदी भाषा के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द 'हिंदी' भारतीय शब्द नहीं है-


अतुल प्रकाश*


(हिंदी शब्द की उत्पत्ति) 


अधिकांश लोग यह नहीं जानते कि *'हिंदी'* शब्द भारतीय शब्द नहीं है बल्कि एक विदेशी शब्द है । आईए अब हम जानते हैं कि हिंदी शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई? 

हिन्दी शब्द का संबंध 'सिन्धु' (मानक हिन्दी : सिंधु) से माना जाता है। 'सिंधु', सिंधु नदी को कहते थे और उसी आधार पर उसके आस-पास की भूमि को सिंधु कहने लगे। यह सिंधु शब्द ईरानी में जाकर ‘हिन्दू’, हिन्दी और फिर ‘हिन्द’ हो गया। बाद में ईरानी धीरे-धीरे भारत के अधिक भागों से परिचित होते गए और इस शब्द के अर्थ में विस्तार होता गया तथा हिन्द शब्द पूरे भारत का वाचक हो गया। इसी में ईरानी का ईक प्रत्यय लगने से (हिन्द+ईक) ‘हिन्दीक’ बना जिसका अर्थ है ‘हिन्द का’। यूनानी शब्द ‘इंडिका’ या लातिन 'इंडेया' या अंग्रेज़ी शब्द ‘इण्डिया’ आदि इस ‘हिन्दीक’ के ही दूसरे रूप हैं। 

*हिन्दी भाषा के लिए इस शब्द का प्राचीनतम प्रयोग शरफुद्दीन यज्दी’ के ‘जफरनामा’(१४२४) में मिलता है। प्रमुख उर्दू लेखक १९वीं सदी तक अपनी भाषा को हिन्दी या हिन्दवी ही कहते थे।*


प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने अपने "हिन्दी एवं उर्दू का अद्वैत" शीर्षक आलेख में हिन्दी की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए कहा है कि *ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में 'स्' ध्वनि नहीं बोली जाती थी बल्कि 'स्' को 'ह्' की तरह बोला जाता था। जैसे संस्कृत शब्द 'असुर' का* अवेस्ता में सजाति समकक्ष शब्द 'अहुर' था। अफ़ग़ानिस्तान के बाद सिंधु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इलाके को प्राचीन फ़ारसी साहित्य में भी 'हिन्द', 'हिन्दुश' के नामों से पुकारा गया है तथा यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को विशेषण के रूप में 'हिन्दीक' कहा गया है जिसका मतलब है 'हिन्द का' या 'हिन्द से'। यही 'हिन्दीक' शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में 'इंडिके', 'इंडिका', लातिन में 'इंडेया' तथा अंग्रेज़ी में 'इण्डिया' बन गया। दूसरा एक भावना के मुताबिक, अरबी हिन्दीया लफ्ज के साधारण लातिनी कृत रूप है इण्डिया ।  

*साहित्य में भारत (हिन्द) में बोली जाने वाली भाषाओं के लिए 'जुबान-ए-हिन्दी' पद का उपयोग हुआ है।* 

भारत आने के बाद अरबी-फ़ारसी बोलने वालों ने 'जुबान-ए-हिन्दी', 'हिन्दी जुबान' अथवा 'हिन्दी' का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया।



रविवार, 7 सितंबर 2025

हिंदी दिवस पर विशेष

: हिंदी दिवस पखवाड़ा-

08092025


*भारतीय पुरुषों की  आन- बान और शान का प्रतीक 'मूंछ' स्त्रीलिंग होती है तथा भारतीय औरतों की पहचान का प्रतीक 'सिंदूर' स्त्रीलिंग होता है?-


अतुल प्रकाश* 


*(हिंदी शब्दों के लिंगभेद परंपरा और सिद्धांत)*


इस मजे की बात शुरुआत करते हैं भारतीय पुरुषों की आन बान और शान का प्रतीक *"मूंछ"* एक स्त्रीलिंग शब्द है और भारतीय महिलाओं का प्रतीक ' *सिंदूर*' एक पुल्लिंग शब्द है। ऑपरेशन सिंदूर की तो चर्चा आपने सुनी ही होगी। खैर छोड़िए इन सब बातों को अब हम चर्चा करते हैं हिंदी शब्दों के *लिंग भेद* यानी स्त्रीलिंग-पुलिंग विवेचना के संबंध में परंपरा और सिद्धांत के विषय में।

जहां तक मेरी जानकारी है *हिंदी में स्त्रीलिंग-पुलिंग के भेद को परंपरा और सिद्धांत दोनों के अनुसार प्रयोग किया जाता है।* 

अब हम परंपरा की बात करते हैं हिंदी की जननी भाषा संस्कृत में तीन लिंग होते हैं स्त्रीलिंग , पुलिंग तथा नपुंसक लिंग परंतु हिंदी में मात्र दो ही लिंग होते हैं स्त्रीलिंग और पुल्लिंग और प्रश्न उठता है कि नपुंसक लिंग वाले शब्दों की विवेचना कैसे की जाए तो यहां समझना जरूरी है की हिंदी में भी नपुंसक लिंग के शब्द होते हैं। 


*नपुंसक शब्द:* - 

हिंदी व्याकरण में, नपुंसक शब्द वे होते हैं जो न तो स्त्रीलिंग होते हैं और न ही पुल्लिंग। ये शब्द अक्सर निर्जीव वस्तुओं, भावनाओं, या अमूर्त चीजों को दर्शाते हैं।


नपुंसक शब्द की विशेषताएं


- *लिंग*: नपुंसक शब्द किसी विशिष्ट लिंग (स्त्री या पुरुष) से संबंधित नहीं होते।

- *उदाहरण*: पानी, दूध, ज्ञान, प्रेम, सुख, दुख।

- *प्रयोग*: इन शब्दों के लिए विशेष लिंग चिह्न नहीं होते, और ये अक्सर एकवचन या बहुवचन में प्रयोग होते हैं।

नपुंसक शब्द हिंदी व्याकरण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और ये विशिष्ट लिंग वर्गीकरण से अलग होते हैं। ये शब्द अक्सर वस्तुओं, भावनाओं, या अमूर्त अवधारणाओं को दर्शाते हैं।

*हिंदी में लिंग भेद-* 

हिंदी  में शब्द दो लिंगों के होते हैं: *पुल्लिंग और स्त्रीलिंग।*

 *पुल्लिंग*

- हिंदी के वैसे शब्द जिससे पुरुष जाति का बोध हो (जैसे छात्र, शेर) और *स्त्रीलिंग* वह संज्ञा है जिससे स्त्री जाति का बोध हो (जैसे छात्रा, शेरनी)।

कभी-कभी सिद्धांत के विपरीत भी परंपरा अनुसार स्त्रीलिंग-पुलिंग का भेद किया जाता है। ऐसे कई उदाहरण आप सभी को हिंदी में मिल जाएंगे।

: *हिंदी में लिंग के प्रकार-* 

*1. पुल्लिंग:*

जिस संज्ञा शब्द से पुरुष जाति का बोध होता है, वह पुल्लिंग कहलाता है।

उदाहरण: लड़का, राजा, शिक्षक, छात्र, शेर।

*2. स्त्रीलिंग:*

जिस संज्ञा शब्द से स्त्री जाति का बोध होता है, वह स्त्रीलिंग कहलाता है।

उदाहरण: लड़की, रानी, शिक्षिका, छात्रा, शेरनी।

लिंग भेद के सिद्धांत (नियम)


*लिंग निर्धारण के कई सिद्धांत हैं:* 

*पुरुष और स्त्री जाति का बोध:*

पुरुषों के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द पुल्लिंग होते हैं (जैसे - चाचा, नौकर)। 

स्त्रियों के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द स्त्रीलिंग होते हैं (जैसे - चाची, नौकरानी)। 

*प्राकृतिक लिंग:*

कुछ शब्दों का लिंग प्राकृतिक होता है, जैसे – पर्वत, समुद्र, ग्रह आदि प्रायः पुल्लिंग होते हैं (जैसे हिमालय, हिंद महासागर), जबकि नदी, पृथ्वी आदि प्रायः स्त्रीलिंग होती हैं (जैसे गंगा)। 

*प्रत्यय के आधार पर:*

*आमतौर पर 'आ' और 'इ' में समाप्त होने वाले संज्ञा शब्द पुल्लिंग होते हैं।"*


*'ई' से समाप्त होने वाले शब्द अक्सर स्त्रीलिंग होते हैं, जैसे - भाषा, आशा।* 

*कुछ प्रत्यय लगाकर स्त्रीलिंग* बनाया जाता है, जैसे 'लड़का' से 'लड़की', 'बंदर' से 'बंदरिया'। 

*निर्जीव वस्तुओं का लिंग:*

कई निर्जीव वस्तुएँ भी व्याकरणिक रूप से पुल्लिंग या स्त्रीलिंग होती हैं। 

पुल्लिंग के उदाहरण: घर, शहर, बगीचा, बंगला, दूध, चावल। 

स्त्रीलिंग के उदाहरण: भाषा, आशा, किताब, मिठाई, रोटी, दाल, दाल। 

*कुछ महत्वपूर्ण समूह:*

धातुएँ: पारा, पीतल, सोना, तांबा पुल्लिंग होते हैं, अपवाद स्वरूप चाँदी स्त्रीलिंग है। 

रत्न: नीलम, पुखराज, मोती पुल्लिंग होते हैं। 

*पर्वत और देशों के नाम:* पर्वतों के नाम प्रायः पुल्लिंग होते हैं, जैसे हिमालय, भारत। 

नदियों के नाम: ये प्रायः स्त्रीलिंग होते हैं, जैसे गंगा, यमुना परंतु सोन नदी और ब्रह्मपुत्र नदी पुलिंग है।


: *हिंदी के प्रशासनिक शब्दों का लिंगनिर्णय-* 


हिंदी में प्रयुक्त होने वाले प्रशासनिक शब्द जैसे- राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति, न्यायाधीश, अधिवक्ता, प्रधानमंत्री, उप प्रधानमंत्री, मंत्री, उपमुख्यमंत्री , जिलाधिकारी, समाहर्ता, उपसमाहर्ता, आरक्षी अधीक्षक आदि:-आदि शब्द हिंदी में पुलिंग होते हैं और वे रूढ़ होते हैं अर्थात  उनके अर्थ तथा लिंग में परिवर्तन नहीं किया जा सकता।


*निष्कर्ष-* 

हिंदी शब्दों  के प्राकृतिक या व्याकरणिक लिंग के अनुसार क्रिया, विशेषण और सर्वनाम बदलते हैं, जिससे वाक्य में एकरूपता आती है।

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

भिखारी ठाकुर और बिदेसिया /



बिदेसिया यानी सामूहिक त्रासदी की कलात्मक अभिव्यक्ति


कुमार नरेन्द्र सिंह


भिखारी ठाकुर की जयंती पर उनके नाटक बिदेसिया के संदर्भ में मेरा लेख। मित्रों से निवेदन है कि वे इस लेख को पढ़ें और हो सके तो अपनी प्रतिक्रिया भी दे। धन्यवाद।


‘भोजपुरी के शेक्सपियर’ भिखारी ठाकुर का बिदेसिया नाटक, सच कहें तो भोजपुरी लोकजीवन की जीवंत दस्तावेज है, भोजपुरी अस्मिता की पहचान है, भोजपुरियों के दिल की धड़कन है और सृजनशीलता की अनूठी मिसाल है। शहरीकरण और औद्योगीकरण की आंधी में उजड़ते भोजपुरिया परिवार और उसके साथ ही कलकत्ता (कोलकाता), असम के चटकलों में काम की तलाश में पहुंचे भोजपुरिया मजदूरों की जिंदगी की दारुण दास्तान है बिदेसिया।

नृत्य-नाट्य की बिदेसिया शैली भोजपुरी लोक-संस्कृति की अनोखी उपलब्धि तो है ही, लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के कवित्तमय और कलात्मक सौंदर्य-बोध की विशिष्ट पहचान भी है। वास्तव में बिदेसिया नाटक वैयक्तिक प्रतिभा और संस्कृति के अंतर्मेल की उपज है। यही कारण है कि शायद ही कोई ऐसा खांटी भोजपुरिया मिले, जो बिदेसिया के अभाव में भोजपुरी संस्कृति की कल्पना कर सके। बिदेसिया शैली की अपार लोकप्रियता का सबसे महत्वपूर्ण कारण इसका परंपरा-स्युत होना ही है। भोजपुरी संस्कृति मूल रूप से मौखिक परंपरा पर आधारित रही है और गेयता इसका स्वभाव है। भोजपुरी के प्रसार में गीतों की बड़ी प्रधान भूमिका रही है। आज मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, फिजी, हॉलैंड, साउथ अफ्रीका आदि देशों में यदि भोजपुरी जिंदा है, तो बहुत हद तक इसका कारण उसकी गेयता ही है। अमिताभ घोष ने अपनी पुस्तक ‘सी ऑफ दी पॉपीज में’ इस तथ्य का उल्लेख विस्तार से किया है। वह कहते हैं कि गिरमिटिया मजदूरों में भोजपुरियों के अलावा अन्य भाषा-भाषियों की संख्या भी अच्छी-खासी थी, लेकिन जब उनके जहाज उपरोक्त देशों के तटों पर उतरे, तो सबकी भाषा भोजपुरी बन चुकी थी। वह बताते हैं कि इसका कारण यह था कि भोजपुरी संस्कृति में गायन की जबर्दस्त परंपरा रही है। गिरमिटिया मजदूर बनकर बाहर जानेवाले लोगों में केवल भोजपुरिया ही ऐसे थे, जिनके पास गीत-गवनई की परंपरा थी। वे यात्रा के दौरान जहाज पर गीत गाते थे। चूंकि अन्य समूह के पास ऐसी कोई परंपरा नहीं थी, इसलिए वे भी भोजपुरिया लोगों के साथ बैठकर उनकी देखादेखी गीत गाते थे। दुनिया के सबसे बड़े कोरस यानी सामूहिक गान की परंपरा और शेली को भोजपुरियों ने ही संजो रखा है – होली और चैता के रूप में। अपने गीतों की बदौलत भोजपुरी अन्य भाषाओं की रानी बन बैठी। ऐसे में यह अन्यथा नहीं कि भिखारी ठाकुर के नाटकों में परंपरा और गेयता का अनुपम साहचर्य देखने को मिलता है। अकारण नहीं कि भिखारी ठाकुर के नाटकों के पात्र बहुधा गीतों के माध्यम से ही अपने मनोभावों का इजहार करते हैं।

भोजपुरी यदि लोक परंपरा से विमुख नहीं हुई, तो इसका कारण ऐतिहासिक है। अपनी तमाम लोकप्रियता और भाषा के रूप में अपनी उपादेयता साबित कर चुकने के बावजूद अवधी, ब्रज और मैथिली की तरह भोजपुरी को हिंदी क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान का वहन कर सकने वाली भाषा के रूप में प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी। इसका एक कारण तो यह प्रतीत होता है कि इतिहास के किसी भी दौर में उसे राज्याश्रय प्राप्त नहीं हो सका और दूसरा की भोजपुरी जनता की सांस्कृतिक और भाषिक चेतना भी कई ऐतिहासिक और अनैतिहासिक कारणों से विकसित नहीं हुई। राष्ट्र की मुख्य धारा में भरपूर सहयोग करते रहने के बावजूद भोजपुरी के प्रति सरकारी रवैया नकारात्मक ही रहा।

इस सम्यक उपेक्षा का एक संतोषजनक परिणाम भी निकला और वह यह कि भोजपुरी भाषा और संस्कृति लोकधारा की सहजता से विमुख नहीं हो पाई। भावपथ की यह सरसता ही शैली के स्तर पर गेयता को जन्म देती है। लोक-चेतना के प्रतिनिधि कलाकार भिखारी ठाकुर से यह समझने में कोई भूल नहीं हुई कि सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा और उसका विकास चिर-परिचित परंपरा के स्वीकार में ही निहित है। परंपरा से भिखारी ठाकुर का आत्यांतिक जुड़ाव ही उन्हें भोजपुरी गीतों की विविध शैलियों के प्रयोग के लिए उकसाता रहा। यह आकस्मिक नहीं था कि उनकी रचनाओं में कजरी, सोरठी, झूमर, पूर्वी तथा आल्हा छंद के दर्शन होते हैं। नाटक के गीतों में वे पारंपरिक तर्जों को ही तरजीह देते नजर आते हैं। परंतु अनुकरण तो अनुकरण ही है। कलाकार के जीवन में यही वह बिंदु होता है, जहां उसकी समस्त आंतरिक संभावनाएं किसी अज्ञात बल से एकजुट होकर सर्वथा नवीन का निर्माण करती है। कहना न होगा कि बिदेसिया इसी सर्वथा नवीन की शोध-प्रक्रिया की अन्यतम उपलब्धि है। यदि कहा जाए कि बिदेसिया भिखारी ठाकुर के समग्र नाट्य-चिंतन की परमाभिव्यक्ति है, तो शायद गलत नहीं होगा।

भिखारी ठाकुर ने बिदेसिया नाट्य-शैली का प्रयोग सामूहिक त्रासदी की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए किया है। यह सामूहिक त्रासदी औद्योगीकरण की कोख से पैदा हुई थी. जिसने पुरबियों का सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न करके रख दिया। इतिहास गवाह है कि भारत में ब्रिटिश उपनिवेश की स्थापना के साथ ही भोजपुरी क्षेत्र के मजदूरों का पलायन कोलकाता और असम ही नहीं, वरन फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम आदि ब्रिटिश उपनिवेशों में भी हुआ। अंग्रेजी हुकूमत की सबसे गहरी मार भोजपुरियों को ही सहनी पड़ी थी। देश के अंदर भोजपुरियों ने कोलकाता को ही अपना आशियाना बनाया। सिपाही और मजदूर से लेकर दरबान बनने के लिए सबसे ज्यादा भोजपुरिया वहीं पहुंचे।

भोजपुरी प्रदेशों के लिए कोलकाता महज एक शहर का नाम नहीं है, बल्कि बिरह का एक ऐसा सैलाब है, जिसमें हजारों-हजार आंखों का काजल बह चुका है। इन प्रदेशों के नौजवान रोजगार और खुशी की तलाश में असम और कोलकाता के चटकलों में श्रम बेचने पहुंचते थे। बहुधा वे लौटकर नहीं आते थे, क्योंकि लौटने लायक उनकी स्थिति ही नहीं बन पाती थी और यदि लौटते भी थे, तो खुशहाली के बदले तंगहाली और बीमारी लेकर। अकारण नहीं कि भोजपुरी प्रदेश की औरतों के लिए कोलकाता किसी सौत से कम नहीं था। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुर के गांवों की औरतों में आज भी यह मान्यता प्रचलित है कि बंगाल और असम की औरतें उनके मर्दों को जादू से तोता और भेड़ा बनाकर रख लेती हैं। भिखारी ठाकुर की इन निम्नलिखित पंक्तियों में इस विश्वास की ललिताभिव्यक्ति देखिए –

मोर पिया मत जा हो पुरुबवा।

पुरुब देश में टोना बेस बा, पानी बड़ा कमजोर

मोर मत जा हो पुरुबवा।

(हे मेरे पति, पुरब की तरफ मत जाइए। पुरुब देश में जादू-टोना बहुत है और वहां का पानी भी कमजोर यानी खराब है।

औद्योगीकरण की आंधी में उड़कर पुरुष के प्रदेश जाने पर नारियों को ही सबसे ज्यादा पीड़ा झेलनी पड़ती थी। अकारण नहीं कि भोजपुरी गीतों में औद्योगीकरण के खिलाफ आक्रोश दिखाई देता है और दिलचस्प है कि सबसे पहले औरतों ने ही औद्योगीकरण की मुखालफत। देखिए यह बानगी –

कलवा के पानी पी के भइलन पियवा करिया

कल में डाढ़ा लागो ना......

अर्थात नलके का पानी पीकर मेरे पति काले हो गए हैं, इसलिए यह कल ही नष्ठ हो जाए (यहां कल का मतलब नलका तो है ही, कल-कारखाना भी है। पूरब के लोग नलके के पानी को कल का पानी ही कहते हैं)।

भिखारी ठाकुर ने इन स्थितियों को अपनी लेखनी से स्वर दिया और दस्तावेज बना बिदेसिया। ठाकुर जी ने अपने प्रातिनिधिक नाटक बिदेशिया में नाटक की नायिका प्यारी सुंदरी के आध्यम से उन तमाम विरहिणी नारियों की मनोदशा का वर्णन किया है, जिनके कंत कमाने के लिए कोलकाता गए हैं। इसके साथ ही उन्होंने अन्य पात्रों के संवाद के माध्यम से उन नारियों के प्रति समाज के नजरिए को भी उकेरा है।

प्यारी सुंदरी का पति गवना करा के उसे अपने घर ले आता है। कुछ दिन रहने के बाद वह एक दिन नौकरी की तलाश में घर से निकल जाता है और कोलकाता चला जाता है। वहां के चटकल में उसे नौकरी मिल जाती है। वहीं रहते हुए उसकी मुलाकात एक औरत से होती है। धीरे-धीरे यह मुलाकात मुहब्बत में बदल जाती है और वे पति-पत्नी की तरह एक साथ रहने लगते हैं। समय बीतने के साथ प्यारी का पति बिदेसिया प्यारी को भूल जाता है। अब यह दूसरी औरत ही उसकी जिंदगी है। प्यारी का पति तो प्यारी को भूल जाता है, लेकिन प्यारी अपने पति को कैसे भूल जाए। उसका तो सर्वस्व उसका पति ही है। देवर सहित गांव के अनेक युवक उससे संबंध बनाने के लिए प्रलोभन देते हैं, लेकिन प्यारी सभी प्रलोभनों को ठुकरा कर 12 वर्षों तक अपने पति का इंतजार करती है, लेकिन उसका पति वापस घर नहीं आता है। प्यारी की स्थिति यह है कि करे तो करे क्या और जाए तो जाए कहां। वह तिल-तिलकर जी रही है। वह समझ नहीं पाती है कि अपने मन की व्यथा अपने पति को पहुंचाए तो पहुंचाए कैसे। अपने पति का पता-ठिकाना भी तो नहीं जानती है वह। भिखारी ठाकुर ने विरहिणी नारी प्यारी की इस मनोदशा का क्या ही मार्मिक वर्णन किया है –

अमवा मोजरी गइले लगले टिकोरवा, दिन पर दिन पियरात रे बिदेसिया।

एक दिन बही जइहें जुलुमी बेयरिया, डार-पात जइहें भहराई रे बिदेसिया।

(आम का पेड़ मंजरों सो भर गया है और अब तो टिकोले भी लग चुके हैं, लेकिन ये टिकोले बढ़ने के बजाए धीरे-धीरे पीले होते जा रहे हैं। डर लगता है कि एक दिन जुल्मी बयार बहेगी और डाल-पात सहित पेड़ गिर जाएगा)।

एक विरहिणी नारी की मनोदशा का इतना शूक्ष्म चित्रांकन विरले कवियों और लेखकों ने किया है। पति-पत्नी के संबंधों में फिसलन की आशंका की इतनी लालित्यपूर्ण प्रस्तुति अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। लेकिन प्यारी सुंदरी की इस मनोदशा का एहसास उसके पति बिदेसिया को हो तब न। छ: महीने के लिए ही तो कहकर कोलकाता गया था बिदेसिया परंतु 12 वर्ष बाद भी नहीं लौटा। इसी मनोदशा में प्यारी की मुलाकात बटोही से होती है। मालूम हो कि बटोही की भूमिका भिखारी ठाकुर स्वयं करते थे। जब प्यारी को मालूम होता है कि बटोही कोलकाता जा रहा है, तो वह उससे मुलाकात करती है और अर्ज करती है कि वह उसका संदेश उसके पति बिदेसिया तक पहुंचा दे। प्यारी से बटोही उसके पति का नाम-पता पूछता है परंतु प्यारी अपने पति का नाम बताने के बदले उसकी पहचान बताती है और पता तो वह जानती ही नहीं है। वह बटोही को अपने पति की पहचान यूं बताती है –

हमरो बलमू जी के बड़े-बड़े अंखिया, चोखे-चोखे हउवे नयना कोर रे बटोहिया।

ओठवा तो हउवे जइसे कतरल पनवा, नकवा सुगनवा के ठोर रे बटोहिया।

करिया न गोर बाड़े लामा नाहीं हउवन नाटे, मझिला जवान साम सुन्दर बटोहिया।

घुठी प ले धोती कोर नकिया सुगा के ठोर, सिर पर टोपी छाती चाकर बटोहिया।

                   प्यारी से विदा लेकर बटोही चल देता है और कोलकाता पहुंचता है। प्यारी के बताए रंगरूप वाला व्यक्ति खोजने के लिए वह गली-गली घूमता है और आखिरकार बिदेसिया को ढूंढ़ने में सफल हो जाता है। जब बटोही देखता है कि बिदेसिया वहां किसी दूसरी औरत के साथ रह रहा है, तो वह उसे फटकार लगाता है और समझा-बुझाकर तथा प्यारी की व्यथा-कथा सुनाकर उसकी गलती का एहसास कराता है। अंत में बिदेसिया बटोही की बात मानकर अपने गांव वापस लौटने की तैयारी करने लगता है। यह उसकी दूसरी पत्नी को नागवार गुजरता है और वह बिदेसिया पर दबाव डालती है कि वह उसे छोड़कर न जाए, लेकिन बिदेसिया उसकी बात नहीं मानता है औऱ उसे छोड़कर वापस अपने घर अपनी पत्नी प्यारी सुंदरी के पास लौट आता है। कथा यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि आगे भी बढ़ती है। होता यह है कि बिदेसिया के घर वापस लौट जाने के बाद कोलकाता वाली बिदेसिया की दूसरी पत्नी भी बिदेसिया को ढूंढ़ते-ढूढते उसके गांव पहुचं जाती है। कहानी कई नाटकीय परिस्थितियों से गुजरते हुए दोनों पत्नियों द्वारा बिदेसिया को स्वीकार कर लिए जाने के साथ समाप्त हो जाती है। सभी खुशीपूर्वक एक साथ रहने लगते हैं। 

बिदेसिया नाटक की कथा-वस्तु देखकर तुरंत ही यह स्पष्ट हो जाता है कि भिखारी ठाकुर भोजपुरी की क्षेत्रीय परंपरा से गहरे स्तर पर जुड़े हुए थे। जब बटोही प्यारी सुंदरी से उसके पति का नाम पूछता है, तो प्यारी अपने पति का नाम नहीं बताती है, बल्कि नाम के बदले उसकी पहचान बताती है। ऐसा नहीं हो सकता कि प्यारी अपने पति का नाम नहीं जानती होगी, परंतु यदि भिखारी ठाकुर प्यारी से उसके पति का नाम कहलवाते, तो वह क्षेत्रीय परंपरा का उल्लंघन होता। कहने की आवश्यकता नहीं कि उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में आज भी स्त्रियां अपने पति का नाम लेने में शर्माती हैं। यदि भिखारी ठाकुर इस परंपरा का निषेध करते, तो जाहिर है कि ऐसे में नाटक का दृश्य लोगों को खटकता और तब संभव था कि इसका असर नाटक की लोकप्रियता पर भी पड़ता। भिखारी ठाकुर जैसा सजग और सिद्ध कलाकार ऐसी गलती कैसे कर सकता था।

बिदेसिया, सही मायने में लोक-नाट्य परंपरा का वायवीय विकास का परिणाम है। नौटंकी की तरह बिदेसिया नाटक में भी पात्रों का कथन-उपकथन काव्य रूप में ही बयान होता है। दरअसल, संपूर्ण भोजपुरी साहित्य ही काव्य की काया में लिपटा हुआ है। भिखारी ठाकुर इसी परंपरा को और समृद्ध कर आगे बढ़ाने का काम करते हैं। संस्कृत नाट्य परंपरा की तर्ज पर बिदेसिया में भी मंगलाचरण की परंपरा है। बिदेसिया नाटक में सूत्रधार की आवश्यक उपस्थिति भी संस्कृत की रंगमंचीय परंपरा का ही विस्तार है। बिदेसिया नाटक में सूत्रधार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि नाटक के कथा-प्रवाह में वह सशक्त उत्प्रेरक का काम करता है। सूत्रधार की तरह बिदेसिया नाटक में जोकर यानी विदूषक की उपस्थिति भी अनिवार्य होती है। भिखारी ठाकुर के समय में बिदेसिया नाटक में जोकर की भूमिका निभाने वाले पात्र की लोकप्रियता का आलम यह था कि अनेक नृत्य-मंडलियों में जोकर का नाम वही रहता था।

बिदेसिया नाटक में पात्रों के विशिष्टीकरण का अभाव होता है। क्षण भर पहले बिदेसिया या बटोहिया की भूमिका निभाने वाला पात्र दूसरे ही क्षण मंच पर ढोलक, खंजड़ी या हारमोनियम बजाते नजर आता है। इसी तरह चरित्र के अनुरूप पात्रों का नामकरण बिदेसिया नाटक की अपनी मौलिक विशेषता है। उदाहरण के लिए पात्रों के बिदेसिया, बटोहिया आदि नाम उनके गुण-कर्म के अनुसार ही दिए गए हैं। वैसे उनके अन्य नाटकों में पात्रों का नामकरण उनकी बर्गीय स्थिति के अनुसार भी किए गए हैं।

बिदेसिया नाटक को बहुधा हम एक सांसारिक लीला के रूप में ही देखते हैं, जिसमें तत्कालीन भोजपुरिया समाज का उत्स उभरता है। लेकिन सामाजिक पक्ष के अलावा बिदेसिया का आध्यात्मिक पक्ष भी है। बिदेसिया नाटक में जीव, माया और ईश्वर के बीच स्थित आध्यात्मिक संबंधों को दर्शाने का प्रयास भी परिलक्षित होता है। भिखारी ठाकुर ने स्वयं इसके आध्यात्मिक पक्ष का उल्लेख किया है। वे कहते हैं - बिदेसिया जीव का प्रतीक है, जो उपना उद्देश्य पाने के लिए संसार में भटक रहा है और यह उद्देश्य है ईश्वर से एकाकार हो जाना। बिदेसिया की दूसरी पत्नी, जिसे भिखारी ठाकुर ने पतुरिया की संज्ञा दी है, माया की प्रतीक है। जीव यानी बिदेसिया उसमें उलझकर अपना उद्देश्य भूल जाता है। बटोही धर्म या संत का प्रतीक है, जो बिदेसिया को उसका उद्देश्य बताकर सीधी राह पर ले आता है और प्यारी सुंदरी तो स्वयं ईश्वर का प्रतीक है। जब बटोही कोलकाता पहुंचकर बिदेसिया को खोज लेता है, तो बिदेसिया उससे पूछता है कि आप हैं कौन और आपने मेरा पता कैसे ढूंढ़ लिया। बटोही के इस जबाव में बिदेसिया नाटक का आध्यात्मिक पक्ष स्पष्ट दिखाई देता है –

कायापुर घर हउवे पानी से बनावल गउवे, अचरज अकथ हउवे नाम हो बिदेसिया।

चललीं बहरवा से कानवां परल मोरा, सती के विपति के मोटरिया बिदेसिया।

                  हम देखते हैं कि भिखारी ठाकुर ने अपने बिदेसिया नाटक में जीव, माया और ईश्वर का एक अनोखा रूपक तैयार किया है। भारतीय वांग्मय में यूं तो ईश्वर की कल्पना अर्द्धनारीश्वर के रूप मे जरूर मिलती है, लेकिन किसी भी संत या कवि ने नारी रूप में ईश्वर की कल्पना नहीं की है। वैसे भी बिदेसिया नाटक का मूल स्वर त्रासदी और करुणा है और कहने की आवश्यकता नहीं कि इसकी प्रतिमूर्ति नारी ही हो सकती है। कहा जाना उचित होगा कि यह आध्यात्मिक अवधारणा भिखारी ठाकुर की मौलिक प्रतिभा का परिचायक है। बिदेसिया नाटक के जरिए ठाकुर जी ने परदेश में रहने वालों को घर की सुध लेने की सलाह भी दी है।

                 इतनी समृद्ध और रचनात्मक शैली के बावजूद बिदेसिया नाटक अब अपना वजूद खोता जा रहा है। वैसे यह कहना ज्यादा सही है कि वजूद खो चुका है। आनन-फानन में 15-20 हजार लोगों की भीड़ जुटा लेना जिस नाटक का अनिवार्य गुण रहा हो, जो नाटक दर्शकों को घंटों बैठकर देखने को मजबूर करने की हैसियत रखता रहा हो, वह आज लोगों से दूर हो चुका है। इसकी लोकप्रियता में कमी आने का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि भिखारी ठाकुर की मृत्यु के बाद उनकी मंडली के अन्य सदस्यों में न तो उतनी प्रतिभा थी और न उत्साह कि वे नाटक को परिमार्जित कर समीचीन बनाए रखते यानी समय के साथ बिदेसिया नाटक में आवश्यक परिवर्तन नहीं किया जा सका। जब तक भिखारी ठाकुर जिंदा थे, अपने नाटकों में आवश्यक परिवर्तन कर और उसे मनोरंजक बनाकर प्रांसंगिक बनाए रखते थे, अपने नाटकों को सुधारने-संवारने का काम करते रहते थे। उनके नहीं रहने के बाद सार्थक परिवर्तन की यह प्रक्रिया बंद हो गई।

बहरहाल, पिछले कुछ वर्षों में देश के रंगकर्मियों का ध्यान बिदेसिया शैली की तरफ आकृष्ट हुआ है। सतीश आनंद ( अब वे नहीं रहे) बिदेसिया शैली के विकास और प्रचार का काम करते रहे थे। उन्होंने बिदेसिया शैली पर आधारित ‘अमली’ नाटक का मंचन न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी किया था और हर जगह वाहवाही लूटी थी। बिहार के एक अन्य रंगकर्मी संजय उपाध्याय तो मूल बिदेसिया नाटक का ही मंचन करते हैं। यह अलग बात है कि कई बार वे बिदेसिया के नाम पर भोंडी प्रस्तुति करते हैं, लेकिन इसे बाजारवाद के दबाव के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। वैसे हाल के वर्षों में बिहार की लगभग सभी नाट्य-मंडलियां बिदेसिया शैली पर आधारित नाटकों का मंचन करने में रुचि ले रही है, जो उत्साहजनक है और संतोषजनक भी।

हिंदुस्तान के सारे रंगकर्मी और नाट्य-शास्त्र के विद्वान मुक्त कंठ से बिदेसिया की प्रशंसा करते हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन बिदेसिया नाटक के बहुत बड़े प्रशंसक थे। बिदेसिया नाटक को देखकर ही उन्होंने भिखारी ठाकुर को ‘एक अनगढ़ हीरा’ कहा था। वह मानते थे कि यदि भिखारी ठाकुर की कृतियों का सही आकलन नहीं हो सका, तो इसके लिए पढ़ुआ (पढ़े-लिखे) लोग ही जिम्मेदार हैं। यदि भिखारी ठाकुर को पढ़े-लिखों का सहयोग मिला होता, तो उनकी प्रतिभा में और भी अधिक निखार आता।

संक्षेप में कहें तो बिदेसिया शब्द नहीं, यथार्थ है – एक ऐसा यथार्थ जिसमें माटी की महक है, फूलों का सुगंध है और जीवन की आलोचना है। श्रृंगार और वियोग की चादर पर करुणा का रंग बिखेरने और सामूहिक त्रासदी की कलात्मक अभिव्यक्ति का नाम है बिदेसिया।

कुछ प्रेरक कथाएं/ वीरेंद्र सिंह

 


प्रस्तुति/ वीरेंद्र सिंह 

Ex. MP & MLA 

AURANGABAD


🌳प्रेरक कहानी🌳*



💐हाँ भगवान है💐* 


 एक मेजर के नेतृत्व में 15 जवानों की एक टुकड़ी हिमालय के अपने रास्ते पर थी।

 बेहताशा ठण्ड में मेजर ने सोचा की अगर उन्हें यहाँ एक कप चाय मिल जाती तो आगे बढ़ने की ताकत आ जाती।


 लेकिन रात का समय था आपस कोई बस्ती भी नहीं थी,लगभग एक घंटे की चढ़ाई के पश्चात् उन्हें एक जर्जर चाय की दुकान दिखाई दी।


लेकिन अफ़सोस उस पर ताला लगा था

भूख और थकान की तीव्रता के चलते जवानों के आग्रह पर मेजर साहब दुकान का ताला तुड़वाने को राज़ी हो गया खैर ताला तोड़ा गया, तो अंदर उन्हें चाय बनाने का सभी सामान मिल गया।

 जवानों ने चाय बनाई साथ वहां रखे बिस्किट आदि खाकर खुद को राहत दी। थकान से उबरने के पश्चात् सभी आगे बढ़ने की तैयारी करने लगे लेकिन मेजर साहब को यूँ चोरो की तरह दुकान का ताला तोड़ने के कारण आत्मग्लानि हो रही थी।


उन्होंने अपने पर्स में से एक हज़ार का नोट निकाला और चीनी के डब्बे के नीचे दबाकर रख दिया तथा दुकान का शटर ठीक से बंद करवाकर आगे बढ़ गए।


तीन महीने की समाप्ति पर इस टुकड़ी के सभी 15 जवान सकुशल अपने मेजर के नेतृत्व में उसी रास्ते से वापिस आ रहे थे।


रास्ते में उसी चाय की दुकान को खुला देखकर वहां विश्राम करने के लिए रुक गए।


उस दुकान का मालिक एक बूढ़ा चाय वाला था ।जो एक साथ इतने ग्राहक देखकर खुश हो गया और उनके लिए चाय बनाने लगा।  


चाय की चुस्कियों और बिस्कुटों के बीच वो बूढ़े चाय वाले से उसके जीवन के  अनुभव पूछने लगे खासतौर पर। 

इतने बीहड़ में दूकान चलाने के बारे में बूढ़ा उन्हें कईं कहानियां सुनाता रहा और साथ ही भगवान का शुक्र अदा करता रहा।


तभी एक जवान बोला " *बाबा आप भगवान को इतना मानते हो अगर भगवान सच में होता तो फिर उसने तुम्हे इतने बुरे हाल में क्यों रखा हुआ है"। 


बाबा बोला *"नहीं साहब ऐसा नहीं कहते भगवान के बारे में,भगवान् तो है और सच में है .... मैंने देखा है।


आखरी वाक्य सुनकर सभी जवान कोतुहल से बूढ़े की ओर देखने लगे।


बूढ़ा बोला "साहब मै बहुत मुसीबत में था एक दिन मेरे इकलौते बेटे को आतंकवादीयों ने पकड़ लिया उन्होंने उसे बहुत मारा पिटा लेकिन उसके पास कोई जानकारी नहीं थी इसलिए उन्होंने उसे मार पीट कर छोड़ दिया।मैं दुकान बंद करके उसे हॉस्पिटल ले गया मै बहुत तंगी में था साहब  और आतंकवादियों के डर से किसी ने उधार भी नहीं दिया।


मेरे पास दवाइयों के पैसे भी नहीं थे और मुझे कोई उम्मीद नज़र नहीं आती थी उस रात साहब मै बहुत रोया और मैंने भगवान से प्रार्थना की और मदद मांगी "और साहब ...  उस रात स्वयं भगवान मेरी दुकान में  आए।


मै सुबह अपनी दुकान पर पहुंचा ताला टूटा देखकर मुझे लगा की मेरे पास जो कुछ भी थोड़ा बहुत था वो भी सब लुट गया।


मै दुकान में घुसा तो देखा  1000 रूपए का एक नोट, चीनी के डब्बे के नीचे भगवान ने मेरे लिए रखा हुआ है"।   


"साहब ..... उस दिन एक हज़ार के नोट की कीमत मेरे लिए क्या थी शायद मै बयान न कर पाऊं ... लेकिन भगवान् है साहब ... भगवान् तो है" बूढ़ा फिर अपने आप में बड़बड़ाया।


भगवान् के होने का आत्मविश्वास उसकी आँखों में साफ़ चमक रहा था


यह सुनकर वहां सन्नाटा छा गया


पंद्रह जोड़ी आंखे मेजर की तरफ देख रही थी जिसकी आंख में उन्हें अपने  लिए स्पष्ट आदेश था "चुप  रहो "


*मेजर साहब उठे, चाय का बिल अदा किया और बूढ़े चाय वाले को गले लगाते हुए बोले "हाँ बाबा आप सही कह रहे हैं , भगवान् तो है.... और तुम्हारी चाय भी शानदार थी"*


*और उस दिन उन पंद्रह जोड़ी आँखों ने पहली बार मेजर की आँखों में चमकते पानी के दुर्लभ दृश्य का साक्ष्य किया*


*और सच्चाई यही है की भगवान हमें कब किसी का सहायक बनाकर कहीं भेज दे। ये खुद तुम भी नहीं जानते........... इसलिए जीवन में प्रयास करना चाहिए कि हम किसी अच्छे कार्य में किसी की मदद कर सके*🙏


वीरेंद्र सिंह *🌳🌳*



*💐ईश्वर पर भरोसा💐*



एक राजा बहुत दिनों से पुत्र की प्राप्ति के लिए आशा लगाए बैठा था लेकिन पुत्र नहीं हुआ। उसके सलाहकारों ने तांत्रिकों से सहयोग लेने को कहा।


सुझाव मिला कि किसी बच्चे की बलि दे दी जाए तो पुत्र प्राप्ति हो जायेगी।


राजा ने राज्य में ढिंढोरा पिटवाया कि जो अपना बच्चा देगा,उसे बहुत सारा धन दिया जाएगा।


एक परिवार में कई बच्चें थे,गरीबी भी थी।एक ऐसा बच्चा भी था,जो ईश्वर पर आस्था रखता था तथा सन्तों के सत्संग में अधिक समय देता था।


परिवार को लगा कि इसे राजा को दे दिया जाए क्योंकि ये कुछ काम भी नहीं करता है,हमारे किसी काम का भी नहीं है।


इसे देने पर राजा प्रसन्न होकर बहुत सारा धन देगा

ऐसा ही किया गया। बच्चा राजा को दे दिया गया।


राजा के तांत्रिकों द्वारा बच्चे की बलि की तैयारी हो गई।


राजा को भी बुलाया गया। बच्चे से पूछा गया कि तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है ?


बच्चे ने कहा कि ठीक है ! मेरे लिए रेत मँगा दिया जाए रेत आ गया।


बच्चे ने रेत से चार ढेर बनाए। एक-एक करके तीन रेत के ढेरों को तोड़ दिया और चौथे के सामने हाथ जोड़कर बैठ गया उसने कहा कि अब जो करना है करें।


यह सब देखकर तांत्रिक डर गए उन्होंने पूछा कि ये तुमने क्या किया है?


 पहले यह बताओ। राजा ने भी पूछा तो बच्चे ने कहा कि

पहली ढेरी मेरे माता पिता की है मेरी रक्षा करना उनका कर्त्तव्य था परंतु उन्होंने पैसे के लिए मुझे बेच दिया।


 इसलिए मैंने ये ढेरी तोड़ी दूसरी मेरे सगे-सम्बन्धियों की थी। उन्होंने भी मेरे माता-पिता को नहीं समझाया।


 तीसरी आपकी है राजा क्योंकि राज्य की प्रजा की रक्षा करना राजा का ही धर्म होता है परन्तु राजा ही मेरी बलि देना चाह रहा है तो ये ढेरी भी मैंने तोड़ दी।


अब सिर्फ अपने सद् गुरु और ईश्वर पर ही मुझे भरोसा है इसलिए यह एक ढेरी मैंने छोड़ दी है।


राजा ने सोचा कि पता नहीं बच्चे की बलि देने के पश्चात भी पुत्र प्राप्त हो या न हो,तो क्यों न इस बच्चे को ही अपना पुत्र बना ले।


इतना समझदार और ईश्वर-भक्त बच्चा है।इससे अच्छा बच्चा कहाँ मिलेगा ?


राजा ने उस बच्चे को अपना पुत्र बना लिया और राजकुमार घोषित कर दिया।


जो ईश्वर और सद् गुरु पर विश्वास रखते हैं,उनका बाल भी बाँका नहीं होता है।


हर मुश्किल में एक का ही जो आसरा लेते हैं,उनका कहीं से किसी प्रकार का कोई अहित नहीं होता है।🙏


वीरेंद्र सिंह *


🌳प्रेरक कहानी🌳*



*💐हमसे आगे हम💐*



टीचर ने सीटी बजाई और स्कूल के मैदान पर 50 छोटे छोटे बालक-बालिकाएँ दौड़ पड़े।

सबका एक लक्ष्य। मैदान के छोर पर पहुँचकर पुनः वापस लौट आना।


प्रथम तीन को पुरस्कार। इन तीन में से कम से कम एक स्थान प्राप्त करने की सारी भागदौड़।


सभी बच्चों के मम्मी-पापा भी उपस्थित थे तो, उत्साह जरा ज्यादा ही था।


मैदान के छोर पर पहुँचकर बच्चे जब वापसी के लिए दौड़े तो पालकों में " और तेज...और तेज... " का तेज स्वर उठा। प्रथम तीन बच्चों ने आनंद से अपने अपने माता पिता की ओर हाथ लहराए।


चौथे और पाँचवे अधिक परेशान थे, कुछ के तो माता पिता भी नाराज दिख रहे थे।


उनके भी बाद वाले बच्चे, ईनाम तो मिलना नहीं सोचकर, दौड़ना छोड़कर चलने भी लग गए थे।


शीघ्र ही दौड़ खत्म हुई और 5 नंबर पर आई वो छोटी सी बच्ची नाराज चेहरा लिए अपने पापा की ओर दौड़ गयी।


पापा ने आगे बढ़कर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और बोले : " वेल डन बच्चा, वेल डन....चलो चलकर कहीं, आइसक्रीम खाते हैं। कौनसी आइसक्रीम खाएगी हमारी बिटिया रानी ? "



" लेकिन पापा, मेरा नंबर कहाँ आया ? " बच्ची ने आश्चर्य से पूछा।


" आया है बेटा, पहला नंबर आया है तुम्हारा। "


" ऐंसे कैसे पापा, मेरा तो 5 वाँ नंबर आया ना ? " बच्ची बोली।


" अरे बेटा, तुम्हारे पीछे कितने बच्चे थे ? "


थोड़ा जोड़ घटाकर वो बोली : " 45 बच्चे। "


" इसका मतलब उन 45 बच्चों से आगे तुम पहली थीं, इसीलिए तुम्हें आइसक्रीम का ईनाम। "




" और मेरे आगे आए 4 बच्चे ? " परेशान सी बच्ची बोली।


" इस बार उनसे हमारा कॉम्पिटीशन नहीं था। "


" क्यों ? "


" क्योंकि उन्होंने अधिक तैयारी की हुई थी। अब हम भी फिर से बढ़िया प्रेक्टिस करेंगे। अगली बार तुम 48 में फर्स्ट आओगी और फिर उसके बाद 50 में प्रथम रहोगी। "


" ऐंसा हो सकता है पापा ? "


" हाँ बेटा, ऐंसा ही होता है। "


" तब तो अगली बार ही खूब तेज दौड़कर पहली आ जाउँगी। " बच्ची बड़े उत्साह से बोली।


" इतनी जल्दी क्यों बेटा ? पैरों को मजबूत होने दो, और हमें खुद से आगे निकलना है, दूसरों से नहीं। "


पापा का कहा बेटी को बहुत अच्छे से तो समझा नहीं लेकिन फिर भी वो बड़े विश्वास से बोली : " जैसा आप कहें, पापा। "


" अरे अब आइसक्रीम तो बताओ ? " पापा मुस्कुराते हुए बोले।


तब एक नए आनंद से भरी, 45 बच्चों में प्रथम के आत्मविश्वास से जगमग, पापा की गोद में शान से हँसती बेटी बोली : " मुझे बटरस्कॉच आइसक्रीम चाहिए। "


क्या अपने बच्चो के रिजल्ट के समय हम सभी माता पिता का व्यवहार कुछ ऐसा ही नही होना चाहिए ....विचार जरूर करे और सभी माता पिता तक जरुर पहुचाये।।🙏

 वीरेंद्र सिंह 


🌳प्रेरक कहानी🌳*


💐ईर्ष्या से दूरी💐*

                                                                                                     

एक बार की बात है, अरुण और करण दो अच्छे दोस्त थे। वे बचपन से ही साथ पढ़ रहे थे। पढ़ाई हो या खेल-कूद या कोई पढ़ाई के अलावा कोई गतिविधि, अरुण हमेशा करण से आगे रहता था।


अरुण को हमेशा स्कूल के सभी कार्यक्रमों में प्रदर्शन करने के लिए चुना जाता था और वह पूरे स्कूल में प्रसिद्ध था। करण हर बार अरुण को पछाड़ने की कोशिश करता लेकिन वह कभी सफल नहीं होता।


एक दिन जब करण घर लौटा तो उसका चेहरा उदास था। जब उसकी माँ ने देखा तो उसने कहा, "तुम इतने उदास क्यों दिख रहे हो?"


करण ने गुस्से वाले चेहरे से जवाब दिया,“इन सबकी वजह अरुण है। एक बार फिर उसने मुझसे अधिक अंक प्राप्त किए हैं। मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ लेकिन वह हमेशा मुझसे आगे ही रहता है। मुझे समझ नहीं आता कि मैं हमेशा पीछे क्यों रहता हूँ?" 

माँ ने पूछा, "क्या तुम अरुण से ईर्ष्या करते हो?"


करण ने जवाब दिया, "नहीं.. नहीं, मुझे उससे जलन क्यों होगी। वह तो मेरा अच्छा दोस्त है।"


माँ ने उत्तर दिया, "ठीक है! मेरी बात ध्यान से सुनो और बताओ कि तुम सहमत हो या नहीं?"


करण मान गया और सुनने लगा। 


माँ ने आगे कहा, "जब लोग अरुण की तारीफ करते हैं तो तुमको अच्छा नहीं लगता!, जब वह हार जाता है तो तुमको खुशी होती है! वह जो कुछ भी करता है तुम वह सब करने के लिए कोशिश करते हो! तुम उसमें नकारात्मक गुण देखते रहते हो और उसके प्रति नापसंद का भाव रखते हो! तुम्हारा मन, दूसरों को उसकी नकारात्मक बातों के बारे में बताने का करता है! तुम दिन भर ईर्ष्या की आग में जलते रहते हो! मुझे बताओ, क्या तुम यह सब महसूस करते हो या नहीं?"


करण ने जो कुछ सुना उससे वह दंग रह गया और बोला, "यह सच है लेकिन आपको इसके बारे में कैसे पता चला?"


माँ ने उत्तर दिया, "तुम्हारा उदास चेहरा देख कर! लेकिन मेरे पास तुम्हारी इस ईर्ष्या को दूर करने का एक बढ़िया उपाय है।"


करण ने जवाब दिया, "वह क्या है? कृपया मुझे बताओ।"


माँ ने उत्तर दिया, “जब तुम दूसरों में सकारात्मक गुणों की दिल से सराहना करते हैं, तो वे गुण आप में भी प्रकट हो जाते हैं। हमारी ताकत बढ़ती जाती है और दूसरों में सकारात्मकता को दिल से स्वीकार करने से उस व्यक्ति के प्रति हमारी ईर्ष्या पूरी तरह से विलीन हो जाती है। इसलिए तुमको भी अरुण के सकारात्मक गुणों की, अपने दिल की गहराई से सराहना करनी चाहिए।"


यह सुनकर करण ने गुस्से भरे चेहरे से उत्तर दिया, "सकारात्मक गुण? और वह भी अरुण में? ढूँढने पर भी मुझे उनमें एक भी सकारात्मक गुण नहीं मिल रहा है।" 


माँ ने जोर देकर पूछा, "तुम्हे मिल नहीं रहा है या तुम ढूँढना नहीं चाहते हो?"


करण ने अवाक होकर नजरें नीची कर लीं ।


माँ ने कहा, "ठीक है! बताओ तुम परीक्षा की तैयारी कब से शुरू करते हो?"


करण ने जवाब दिया, "एक हफ्ते पहले।" 


माँ ने पूछा, "और अरुण?"


करण ने सोचा और जवाब दिया,“वह रोज पढ़ता है। एक बार उनके पिता ने मुझसे कहा कि अरुण हमेशा अपनी समय सारणी का पालन करता है। उसने टीवी देखने, खेलने और दोस्तों के साथ बातें करने के लिए समय निश्चित कर रखा है और वह समय इस सारिणी का लगन से पालन करता है।”


माँ ने उत्तर दिया, "तो यही सही प्रबंधन कौशल है। और यह साबित करता है कि वह ईमानदार और मेहनती है।"

करण ने हाँ में सिर हिलाया। 



माँ ने कहा, "ईर्ष्या करने के बजाय, यदि तुम उसके सकारात्मक गुणों की सराहना करोगे, तो यह गुण भी तुम में विकसित होने लगेंगे।"


करण को एक नई प्रेरणा मिल गई और उस दिन के बाद, उसे अपनी माँ की शिक्षा हमेशा याद रखी और उसने अरुण के अनुशासन, ईमानदारी, एकाग्रता और मेहनती गुण को पहचान कर उनकी सराहना करनी शुरू कर दी।


कुछ ही समय में वह भी अरुण की तरह ईमानदार और मेहनती हो गया।


परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद करण माँ के पास गया तो वह बहुत खुश लग रहा था। माँ मुस्कुराई और बोली, "क्या बात है? तुम आज बहुत खुश लग रहे हो!"


करण ने जवाब दिया, "हाँ! मुझे आज मेरी बदली सोच का परिणाम मिल गया है। अरुण फिर प्रथम रहा जबकि मैं द्वितीय स्थान पर रहा हूँ। 


सबसे अच्छी बात यह है कि आज मुझे उससे बिल्कुल भी जलन नहीं हो रही है। मैं अपनी प्रगति को देखकर खुश हूँ और साथ ही मैं उसके परिणाम से भी खुश हूँ।"


करण ने आगे कहा, "धन्यवाद माँ। आपने मुझे ईर्ष्या को दूर करने का उत्कृट उपाय दिया। ईर्ष्या के कारण मेरी सारी ऊर्जा नष्ट हो गई थी।

अब, मैं अपनी ताकत को प्रगति के पथ पर ले जा सकता हूँ।"


माँ ने खुश होकर करण को गले लगाया और उसके अच्छे काम और प्रगति के लिए बधाई दी।


हमें अपनी ऊर्जा को सकारात्मकता पर केंद्रित करना चाहिए जिससे समय के साथ हम उन चीजों को करने में भी सक्षम होंगे जो हम पहले करने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। 


*"स्वीकार्यता अहम् की प्रतिकारक औषधि (एंटीडोट) है। जब हम दूसरों के विचारों और सुझावों को स्वीकार करते हैं, अहम् समाप्त हो जाता है और जब अहम् समाप्त हो जाता है तो वहाँ उत्कृष्टता आ जाती है।"*🙏


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*💐बिल्ली और कुत्ते💐*



एक दिन की बात है।एक बिल्ली कहीं जा रही थी, तभी अचानक एक विशाल और भयानक कुत्ता उसके सामने आ गया। कुत्ते को देखकर बिल्ली डर गई. कुत्ते और बिल्ली जन्म-बैरी होते हैं । बिल्ली ने अपनी जान का ख़तरा सूंघ लिया और जान हथेली पर रखकर वहाँ से भागने लगी, किंतु फुर्ती में वह कुत्ते से कमतर थी. थोड़ी ही देर में कुत्ते ने उसे दबोच लिया।


बिल्ली की जान पर बन आई. मौत उसके सामने थी. कोई और रास्ता न देख वह कुत्ते के सामने गिड़गिड़ाने लगी। किंतु कुत्ते पर उसके गिड़गिड़ाने का कोई असर नहीं हुआ. वह उसे मार डालने को तत्पर था। तभी अचानक बिल्ली ने कुत्ते के सामने एक प्रस्ताव रख दिया, “यदि तुम मेरी जान बख्श दोगे, तो कल से तुम्हें भोजन की तलाश में कहीं जाने की आवश्यता नहीं रह जायेगी. मैं यह ज़िम्मेदारी उठाऊंगी। मैं रोज़ तुम्हारे लिए भोजन लेकर आऊंगी. तुम्हारे खाने के बाद यदि कुछ बच गया, तो मुझे दे देना. मैं उससे अपना पेट भर लूंगी।”


कुत्ते को बिना मेहनत किये रोज़ भोजन मिलने का यह प्रस्ताव जम गया. उसने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।लेकिन साथ ही उसने बिल्ली को आगाह भी किया कि धोखा देने पर परिणाम भयंकर होगा. बिल्ली ने कसम खाई कि वह किसी भी सूरत में अपना वादा निभायेगी.


कुत्ता आश्वस्त हो गया. उस दिन के बाद से वह बिल्ली द्वारा लाये भोजन पर जीने लगा. उसे भोजन की तलाश में कहीं जाने की आवश्यकता नहीं रह गई. वह दिन भर अपने डेरे पर लेटा रहता और बिल्ली की प्रतीक्षा करता. बिल्ली भी रोज़ समय पर उसे भोजन लाकर देती. इस तरह एक महिना बीत गया. महीने भर कुत्ता कहीं नहीं गया. वह बस एक ही स्थान पर पड़ा रहा. एक जगह पड़े रहने और कोई  भागा-दौड़ी न करने से वह बहुत मोटा और भारी हो गया.


एक दिन कुत्ता रोज़ की तरह बिल्ली का रास्ता देख रहा था. उसे ज़ोरों की भूख लगी थी. किंतु बिल्ली थी कि आने का नाम ही नहीं ले रही थी. बहुत देर प्रतीक्षा करने के बाद भी जब बिल्ली नहीं आई, तो अधीर होकर कुत्ता बिल्ली को खोजने निकल पड़ा.


वह कुछ ही दूर पहुँचा था कि उसकी दृष्टि बिल्ली पर पड़ी. वह बड़े मज़े से एक चूहे पर हाथ साफ़ कर रही है. कुत्ता क्रोध से बिलबिला उठा और गुर्राते हुए बिल्ली से बोला, “धोखेबाज़ बिल्ली, तूने अपना वादा तोड़ दिया. अब अपनी जान की खैर मना.”


इतना कहकर वह बिल्ली की ओर लपका. बिल्ली पहले ही चौकस हो चुकी थी. वह फ़ौरन अपनी जान बचाने वहाँ से भागी. कुत्ता भी उसके पीछे दौड़ा. किंतु इस बार बिल्ली कुत्ते से ज्यादा फुर्तीली निकली. कुत्ता इतना मोटा और भारी हो चुका था कि वह अधिक देर तक बिल्ली का पीछा नहीं कर पाया और थककर बैठ गया. इधर बिल्ली चपलता से भागते हुए उसकी आँखों से ओझल हो गई.



मित्रों! दूसरों पर निर्भरता अधिक दिनों तक नहीं चलती. यह हमें कामचोर कमज़ोर बना देती है. जीवन में सफ़ल होना है, तो आत्मनिर्भर बनो!🙏


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*💐चार आने का हिसाब💐


बहुत समय पहले की बात है, चंदनपुर का राजा बड़ा प्रतापी था। दूर-दूर तक उसकी समृद्धि की चर्चाएं होती थी, उसके महल में हर एक सुख-सुविधा की वस्तु उपलब्ध थी पर फिर भी अंदर से उसका मन अशांत रहता था। बहुत से विद्वानों से मिला, किसी से कोई हल प्राप्त नहीं हुआ.. उसे शांति नहीं मिली।


एक दिन भेष बदल कर राजा अपने राज्य की सैर पर निकला। घूमते- घूमते वह एक खेत के निकट से गुजरा, तभी उसकी नज़र एक किसान पर पड़ी, किसान ने फटे-पुराने वस्त्र धारण कर रखे थे और वह पेड़ की छाँव में बैठ कर भोजन कर रहा था।


किसान के वस्त्र देख राजा के मन में आया कि वह किसान को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दे दे ताकि उसके जीवन में कुछ खुशियां आ पाये।


राजा किसान के सम्मुख जा कर बोला- मैं एक राहगीर हूँ, मुझे तुम्हारे खेत पर ये चार स्वर्ण मुद्राएँ गिरी मिलीं, चूँकि यह खेत तुम्हारा है इसलिए ये मुद्राएं तुम ही रख लो।


किसान ना - ना सेठ जी, ये मुद्राएं मेरी नहीं हैं, इसे आप ही रखें या किसी और को दान कर दें, मुझे इनकी कोई आवश्यकता नहीं।


किसान की यह प्रतिक्रिया राजा को बड़ी अजीब लगी, वह बोला- धन की आवश्यकता किसे नहीं होती भला आप लक्ष्मी को ना कैसे कर सकते हैं?


सेठ जी, मैं रोज चार आने कमा लेता हूँ और उतने में ही प्रसन्न रहता हूँ... किसान बोला।


क्या ? आप सिर्फ चार आने की कमाई करते हैं और उतने में ही प्रसन्न रहते हैं, यह कैसे संभव है ! राजा ने अचरज से पुछा।


सेठ जी किसान बोला- प्रसन्नता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि आप कितना कमाते हैं या आपके पास कितना धन है... प्रसन्नता उस धन के प्रयोग पर निर्भर करती है।


तो तुम इन चार आने का क्या-क्या कर लेते हो? राजा ने उपहास के लहजे में प्रश्न किया।


किसान भी बेकार की बहस में नहीं पड़ना चाहता था उसने आगे बढ़ते हुए उत्तर दिया, इन चार आनों में से एक मैं कुएं में डाल देता हूँ, दूसरे से कर्ज चुका देता हूँ, तीसरा उधार में दे देता हूँ और चौथा मिटटी में गाड़ देता हूँ... राजा सोचने लगा, उसे यह उत्तर समझ नहीं आया। वह किसान से इसका अर्थ पूछना चाहता था, पर वो जा चुका था।


राजा ने अगले दिन ही सभा बुलाई और पूरे दरबार में कल की घटना कह सुनाई और सबसे किसान के उस कथन का अर्थ पूछने लगा।


दरबारियों ने अपने-अपने तर्क पेश किये पर कोई भी राजा को संतुष्ट नहीं कर पाया, अंत में किसान को ही दरबार में बुलाने का निर्णय लिया गया।


बहुत खोज-बीन के बाद किसान मिला और उसे कल की सभा में प्रस्तुत होने का निर्देश दिया गया।


राजा ने किसान को उस दिन अपने भेष बदल कर भ्रमण करने के बारे में बताया और सम्मान पूर्वक दरबार में बैठाया।


मैं तुम्हारे उत्तर से प्रभावित हूँ और तुम्हारे चार आने का हिसाब जानना चाहता हूँ; बताओ, तुम अपने कमाए चार आने किस तरह खर्च करते हो जो तुम इतना प्रसन्न और संतुष्ट रह पाते हो ? राजा ने प्रश्न किया।


किसान बोला- हुजूर, जैसा कि मैंने बताया था, मैं एक आना कुएं में डाल देता हूँ, यानि अपने परिवार के भरण-पोषण में लगा देता हूँ, दूसरे से मैं कर्ज चुकता हूँ, यानि इसे मैं अपने वृद्ध माँ-बाप की सेवा में लगा देता हूँ , तीसरा मैं उधार दे देता हूँ, यानि अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में लगा देता हूँ, और चौथा मैं मिटटी में गाड़ देता हूँ, यानि मैं एक पैसे की बचत कर लेता हूँ ताकि समय आने पर मुझे किसी से माँगना ना पड़े और मैं इसे धार्मिक, सामजिक या अन्य आवश्यक कार्यों में लगा सकूँ।


राजा को अब किसान की बात समझ आ चुकी थी। राजा की समस्या का समाधान हो चुका था, वह जान चुका था की यदि उसे प्रसन्न एवं संतुष्ट रहना है तो उसे भी अपने अर्जित किये धन का सही-सही उपयोग करना होगा।


देखा जाए तो पहले की अपेक्षा लोगों की आमदनी बढ़ी है पर क्या उसी अनुपात में हमारी प्रसन्नता भी बढ़ी है? 



 अर्थात पैसों के मामलों में हम कहीं न कहीं गलती कर रहे हैं, जीवन को संतुलित बनाना ज़रूरी है और इसके लिए हमें अपनी आमदनी और उसके इस्तेमाल पर ज़रूर गौर करना चाहिए, नहीं तो भले हम लाखों रूपये कमा लें पर फिर भी प्रसन्न एवं संतुष्ट नहीं रह पाएंगे..!!🙏

🌳🌳*




*💐पिता-पुत्र💐*



एक बाप अदालत में दाखिल हुआ। ताकि अपने बेटे की शिकायत कोर्ट में कर सके। जज साहब ने पूछा, आपको अपने बेटे से क्या शिकायत है। बूढ़े बाप ने कहा, की मैं अपने बेटे से उसकी हैसियत के हिसाब से हर महीने का खर्च मांगना चाहता हू। 

जज साहब ने कहा, वो तो आपका हक है। इसमें सुनवाई की क्या जरूरत है। आपके बेटे को हर महीने, खर्च देना चाहिए।

बाप ने कहा की मेरे पास पैसों की कोई कमी नहीं है। लेकिन फिर भी मुझे हर महीना, अपने बेटे से खर्चा लेना चाहता हू। वो चाहे कम का ही क्यों न हो।

जज साहब आश्चर्यचकित होकर, बाप से कहने लगा, आप इतने मालदार हो, तो आपको बेटे से क्यों पैसे की क्या आवश्यकता है। 

बाप ने अपने बेटे का नाम और पता देते हुए, जज साहब से कहा,  की आप मेरे बेटे को अदालत में बुलाएंगे। तो आपको बहुत कुछ पता चल जाएगा। जब बेटा अदालत में आया, तो जज साहब ने बेटे से कहा, की नवनीत आपके पिता जी, आपसे हर महीना खर्चा लेना चाहते हैं। चाहे वह कम क्यों न हो। 

बेटा भी जज साहब की बात सुनकर ,आश्चर्यचकित हो गया कहने लगा। मेरे पिता जी बहुत अमीर हैं, उनके पास पैसे की भला क्या जरूरत है। 

जज साहब ने कहा, यह आपके पिता की मांग है। और वह अपने में स्वतंत्र है। पिता ने जज साहब से कहा, की आप मेरे बेटे से कहिए। की वह मुझे हर महीना 100 रूपए देगा। और वो भी अपने हाथों से। और उस पैसे में बिल्कुल भी देरी न करेगा। 

फिर जज साहब ने  बूढ़े आदमी के बेटे से कहा, की तुम हर महीने 100 रूपए, बिना देरी के उनके हाथों में देंगे। ये आपको अदालत हुक्म देती है। 

मुकदमा खत्म होने के बाद, जज साहब बूढ़े आदमी को अपने पास बुलाते हैं। उन्होंने बूढ़े आदमी से पूछा की, अगर आप बुरा न मानें, तो मैं आप से एक बात पूछूंगा। आपने बेटे के खिलाफ यह केस क्यों किया। आप तो बहुत अमीर आदमी हो। और ये इतनी छोटी सी कीमत। 

बूढ़े आदमी ने रोते हुए कहा, जज साहब मैं अपने बेटे का चेहरा देखने के लिए तरस गया था। वह अपने कामों में इतना व्यस्त रहता है। एक जमाना गुजर गया, उससे मिला नहीं, और ना ही बात हुई, ना आमने सामने, और न फोन पर। मुझे अपने बेटे से बहुत मोहब्बत है। इसलिए मैंने उसपर ये केस किया था। ताकि हर महीने मैं उससे मिल सकूं। और मैं उसको देख कर खुश हो लिया करूंगा। ये बात सुनकर जज की भी आंखों में आंसू आ गए। 

जज साहब ने बूढ़े आदमी से कहा की अगर आप पहले बताते, तो मैं उसको नजरअंदाज, और ख्याल न रखने के जुल्म में सजा करा देता। 

बूढ़े बाप ने जज साहब की तरफ मुस्कराते हुए देखा, और कहा अगर आप सजा कराते, तो मेरे लिए ये दुख की बात होती। क्योंकि सच में उससे मैं बहुत मोहब्बत करता हूं। और मैं हरगिज नहीं चाऊंगा, मेरी वजह से मेरे बेटे को कोई सजा मिले। या उसे कोई तकलीफ हो। 


*इस कहानी से ये प्रेरणा मिलती है, मां बाप को आपके पैसे की जरूरत नहीं है, उनको आपके समय की जरूरत है। वक्त के रहते उनसे रोज बातें कर लिया करो। आपका कुछ नहीं जाएगा, परंतु आपको अपने बाप का मां का आशीर्वाद जरूर प्राप्त होगा। वरना एक दिन याद करके पछताओगे, और उनको याद करके अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाओगे। आज से ये प्रण लें, की आप हर रोज अपने मां बाप से बात करेंगे और उनका आशीर्वाद लेंगे।*🙏

[30/06, 05:05] Vs वीरेंद्र सिंह Ex. MP ABD: *🌳प्रेरक कहानी🌳*



*💐सास बहू💐*



करूणा जी बाजार से सब्जी खरीद कर घर जा रही थीं। रास्ते में उनकी मुलाकात उनकी जेठानी की बहु शारदा से हो गई।


शारदा: नमस्ते मांजी, आप सब्जी लेकर जा रही हैं। संजना कहीं गई हुई है क्या?


करूणा: नमस्ते बहु कैसी हो? संजना घर पर ही है। वो उसने क्लाउड किचन का काम शुरू किय है। इसलिये मैं उसकी हैल्प कर रही हूं।


शारदा: माफ करना मांजी लेकिन अभी कुनाल जी की शादी को छः महीने ही हुए हैं और आपने अपनी बहु को सिर पर चढ़ा लिया है। वह सारा काम आपसे करवाती है।


करूणा: नहीं बहु ऐसी बात नहीं है। हम दोंनो मिल बाट कर काम कर लेते हैं। जब उसके पास ऑडर नहीं होते तो वह मुझे काम नहीं करने देती। लेकिन जब ऑडर आ जाते हैं तो कुछ काम मुझसे करवा लेती है।


शारदा: अब मैं क्या बोलूं मांजी जैसी आपकी मर्जी। अच्छा अब मैं चलती हूं।


घर आकर करूणा जी देखती हैं, कि संजना किसी से फोन पर बात कर रही थी। वह बात खत्म करके करूणा जी के पास आई।


संजना: मम्मी जी आप आ गईं। काफी थक गई होंगी। बताईये क्या लेंगी। कुछ ठंडा ले आउं या चाय बना दूं। माफ करना मैं आपसे काम नहीं करवाना चाहती, लेकिन कभी कभी इतने ऑडर आ जाते हैं, कि अकेले संभालना मुश्किल हो जाता है।


करूण: मैं सब समझती हूं। वैसे भी सब्जी खरीदना, मार्किट जाना घर आ सामान लाना ये सब काम तो मैं बहुत सालों से कर रही हूं। परेशानी कैसी, तू बस अपने काम पर फोकस कर। जा एक कप चाय बना ला।


दूसरी ओर शारदा अपने घर पहुंचती है और अपनी सास रश्मी जी को सारी बात बताती है।


रश्मि जी: मैं तो पहले ही जानती थी, मैंने तो शादी में ही कह दिया था, कि बहु के लक्ष्ण सही नहीं हैं। देखा नहीं था। स्टेज पर कैसे अपने दूल्हे से हस हस कर बात कर रही थी। मेरी देवरानी सीधी है, तो उसे नौकरानी बना कर रख दिया है। खैर हमें क्या वो जाने अपने घर की, लेकिन तू ये मत समझियो, कि मैं तुझे भी इतनी छूट दे दूंगी।


शारदा: नहीं मांजी मैं तो बस आपको इसलिये बता रही थी, कि मुझे चाची जी को देख कर तरस आ रहा था।


एक दिन करूणा जी खाना खाने के बाद दोपहर को आराम कर रही थीं। शाम के समय डोर बेल बजी। संजना ने गेट खोला तो सामने अविनाश जी खड़े थे। वे अन्दर आकर बैठे।


तभी करूणा जी बाहर आईं और बोली


करूणा जी: आज आप बहुत जल्दी आ गये। संजना अपने ससुर जी के लिये चाय बना ला।


अविनाश जी: रहने दो चाय नहीं चाहिये। आज भाई साहब से मिलने गया था। उनकी तबियत थोड़ी खराब थी। राकेश ने बताया था।


करूणा जी: क्या हो गया जेठ जी को मुझे भी ले चलते साथ में।


अविनाश जी: नहीं ऐसा कुछ खास नहीं था, बस थोड़ा सा बी पी बढ़ गया था। राकेश नहीं आया अभी तक।


करूणा जी: राकेश आज देर से आयेगा।


अविनाश जी फ्रेश होकर अपने कमरे में बैठे थे।


अविनाश जी: करूणा आज भाभी कह रही थीं, कि तुमने अपने बहु को सिर पर चढ़ा लिया है, घर का सारा काम करूणा से करवाती है।


करूणा जी कुछ बोल पाती, इससे पहले संजना कमरे में आ गई। उसने सब सुन लिया था। उसने खाने की थाली रखते हुए कहा।


संजना: पापा जी मुझे माफ कर दीजिये, आज से मैं मम्मी जी से कुछ नहीं करवाउंगी। चाहें मुझे अपना काम बंद करना पड़े।


करूणा जी: चुप रह बहु मैंने तुझसे कोई शिकायत की है। बोलने दे जिसे जो बोलना है। मैं अपनी बहु का हर काम में साथ दूंगी। तू काम बंद नहीं करेगी, नहीं तो मैं गुस्सा हो जाउंगी।


संजना की आंखों से आंसू बह रहे थे।


अविनाश जी: बेटी मैं तो बस ये बता रहा था, कि भाभी क्या कह रहीं थीं। तुम चिन्ता मत करो। हमें तुम्हारे काम से कोई परेशानी नहीं है।


संजना: लेकिन मम्मी जी आपको बहुत परेशानी होती है। सारा दिन कुछ न कुछ काम लगा रहता है।


करूण जी: बहु मैंने तुझे हमेशा अपनी बेटी माना है। तेरे लिये मैं कुछ भी कर सकती हूं। हमारा रिश्ता सास बहु का नहीं मां बेटी का है। चिन्ता मत कर जिसे जो बोलना है बोलने दे।


इसी तरह समय बीत रहा था। एक दिन करूणा जी सुबह उठ कर ड्राइंग रूम में आईं तो देखा संजना किचन में नहीं है। करूणा जी उसके बेडरूम के पास पहुंची और आवाज दी।


करूणा जी: राकेश, संजना को जगा दे। आज के ऑडर के लिये क्या सामान लाना है। उसकी लिस्ट बना दे।


राकेश: मम्मी वो संजना को तेज बुखार है।


करूणा जी ने अन्दर जाकर देखा संजना को तेज बुखार था।


संजना: मम्मी जी मैं बस अभी गोली खाकर आती हूं किचन में देखूंगी क्या सामान है क्या नहीं।


करूणा जी: नहीं तू बस आराम कर मैं अभी तूझे दवाई देती हूं। आज तू कुछ नहीं करेगी।


संजना: नहीं मम्मी जी अगर ऑडर टाईम पर पूरे नहीं हुए तो रेटिंग गिर जायेगी। मैं बस थोड़ी देर में आती हूं।


करूणा जी: नहीं ला अपना फोन दे, मैं देखती हूं। क्या भेजना है।


संजना के मना करने पर भी करूणा जी नहीं मानी और उसका फोन लेकर ऑडर चेक करने लगीं।


फिर वो फटा फट किचन में गईं और सारे ऑडर एक के बाद एक पूरे करने लगीं।


शाम तक सारा काम निबट गया। रात को करूणा जी संजना के कमरे में गईं।


करूणा जी: बहु तुझे तो अभी भी तेज बुखार है। राकेश एक काम कर तू अपने पापा के पास सो जा मैं आज संजना के पास रुकुंगी।


संजना: मम्मी जी मैं ठीक हूं। आप अपने कमरे में सो जाईये यहां आपको नींद नहीं आयेगी।


करूणा जी: चुप रह बस तू आराम कर बाकी हम पर छोड़ दे।


करूणा जी रात भर संजना की देखभाल करती रहीं। सुबह तक संजना बिल्कुल ठीक हो गई थी।


करूणा जी सो रही थीं। संजना आकर उनके पास बैठ गई। वह मोबाईल देख रही थी। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे।


करूणा जी: अरे पता ही नही चला कब नींद आ गई। तू रो क्यों रही है। तू ठीक तो है।


संजना: मम्मी जी मैं बिल्कुल ठीक हूं। कल आपने बारह ऑडर भेज दिये वो भी अकेले।


करूणा जी: क्या हुआ कहीं कुछ गलत तो नहीं चला गया। किसी ने कम्पलेंट तो नहीं की न। बता न रो क्यों रही है।


संजना: मम्मी जी आपका बना खाना कस्टमर को बहुत पसंद आया, सबने अच्छी रेटिंग दी है। मुझे गोल्डन मेंम्बर बना दिया है। आप दिन भर खाना बनाती रहीं और रात भर मेरी देखभाल करती रहीं।


करूण: हे भगवान तूने तो डरा दिया। पागल मैंने कहा था, कि तू मेरी बहु नहीं मेरी बेटी है। क्या एक मां अपनी बेटी के लिये इतना भी नहीं कर सकती।


संजना अपनी सास से लिपट गई।🙏





*💐कर्मो का फल💐*


अपनी ज़िंदगी में बहुत से लोगों को बजुर्गों की सेवा करते और उनका आशीर्वाद लेते और फिर बजुर्गों के दिल से निकली दुआओं को फलते फूलते तो बहुत देखा लेकिन जो लोग बजुर्गों की सेवा तो क्या करनी उनको तंग करते हैं उनका क्या हाल होता है इस को घटित होते हुए भी बहुत करीब से देखा है

कुछ दिन पहले की बात है मैं अपने भाई के घर यानी अपने मायके गयी।वहां अपनी मम्मी और भाभी के साथ बैठ कर बातें कर रही थी।कि बाहर की घण्टी बजी देखा तो एक औरत अंदर आयी बड़ी दीन हीन सी लग रही थी। सादे से कपड़े, कैंची चप्पल, मैं एक दम से तो उसको पहचान ही नही पायी। 

भाभी ने जब उसको पानी दिया तब मम्मी ने बताया कि ये नीलिमा है पहचाना नही तुमने?

मैं तो एक दम से हैरान ही रह गयी देख कर के ये वो ही नीलिमा भाभी है जिसके कभी शाही ठाठ हुआ करते थे।मेरी शादी से पहले नीलिमा भाभी का और हमारा परिवार एक ही गली में रहते थे। एक दूसरे के घर आना जाना भी था क्योंकि दूर की रिश्तेदारी भी थी। मेरी शादी के बाद मेरे दोनो भाईयों ने वो मोहल्ला छोड़ दिया और अपने अपने घर दूसरी जगह पर बना लिए। 

नीलिमा की शादी  तो मेरे सामने ही हुई थी ।उसकी सास कितने चाव से बहु ले कर आई थी ।बेटे की शादी के कितने ही सपने देखे होंगे उसने।बहु के आने से ऐसा लग रहा था कि जैसे उसको जमाने भर की खुशियाँ मिल गयी हों। लेकिन ईशवर की मर्जी थी या शायद उसके भाग्य में ये खुशियां थोड़े दिन के लिए ही थी कि शादी के दो ही महीने बाद वो रात को सोई तो सुबह उठी ही नही। तब तो सबको लग रहा था कि बहु को बहुत दुख हुआ है सासु माँ के जाने का ,बहुत जोर जोर से रो रही थी।

लेकिन सास के जाते ही बहु ने अपने असली रंग दिखाने शुरू कर दिए। घर की मालकिन तो वो बन ही गयी थी लेकिन उसके अंदर जो गरूर था वो भी अब बाहर आने लगा। बात बात पर सब से लड़ पड़ती। ससुर का तो उसने जीना हराम कर दिया। वो बेचारे एक तो असमय जीवन साथी का बिछोह, ऊपर से बहु के जुल्म बुढ़ापे में सहने को मजबूर हो गए थे। एक समय पर बहुत खुशदिल इंसान अब बेचारे को देखकर ही तरस आता था। बहु ने घर के मालिक होते हुए भी उन्हें तीसरी मंजिल पर एक छोटे से कमरे में रहने को मजबूर कर दिया था। फिर येभी सुना कि बहु उन्हें पेटभर खाना भी नही देती और न ही उनके कपड़े धो कर देती है। बेचारे मैले कुचैले कपड़ों में कभी गली में आते तो ही दिखते लेकिन किसी से ज्यादा बात नही करते। जैसे ज़िन्दगी से रूष्ट हो गए हों।लेकिन बहु बिना बात के ही उन पर चिल्लाती रहती। कब तक सहते बेचारे। एक दिन वो भी चुपचाप चल दिये इस दुनिया को अलविदा कह कर।

नीलिमा को मेरी भाभी ओर मम्मी ने कुछ कपड़े और खाने पीने का समान दिया ।चाय पिलाई और वो चुपचाप चली गयी। जितनी देर वो बैठी एक अक्षर भी नही बोली उसने जितनी भी बात की इशारे से ही की।

उसके जाने के बाद मम्मी ने बताया कि ससुर के जाने के कुछ समय बाद ही नीलिमा की उल्टी गिनती शुरू हो गयी। पहले तो उसके पति को बिज़नेस में घाटा पड़ गया और उस पर कर्जा चढ़ गया।और इसी के चलते उन्हें अपनी दुकान ओर मकान दोनो बेचने पड़े। पति ने कही नोकरी कर ली और किराये के घर मे आ गए।नीलिमा के तीन बेटे थे। बड़ा बेटा अभी कॉलेज में था और उससे छोटा बारहवीं कक्षा में कि एक दिन उसके पति अपने आफिस गए और अचानक से चक्कर आया और गिर गए और फिर उठे ही नही। मुसीबतों का जैसे उन पर पहाड़ टूट पड़ा। किसी तरह किसी पहचान वाले को बोल कर बड़े बेटे की पढ़ाई छुड़ा कर नोकरी लगवाई ओर फिर दूसरे बेटे को भी पढ़ाई छोड़नी पड़ी क्योंकि एक की तनख्वाह से घर का गुजारा ही नही हो रहा था तो पढ़ाई का खर्चा कैसे पूरा होता।

ओर एक दिन नीलिमा को इन्ही सब टेंशनो के चलते पैरालिसिस का अटैक आया। मायके वालों की मदद से दवाईयों ओर इलाज से वो थोड़ी बहुत ठीक तो हो गयी लेकिन उसकी जुबान चली गयी।


अब ये हाल है कि बेटे भी उसको नही पूछते ना ही कुछ खर्चादेते हैं।एक कमरे में अलग से रखा हुआ है जहां वोअकेली पड़ी रहती है। कभी कभी मेरे भाई के घर आ कर जरूरत का समान ले जाती है। वहां आने के लिए भी ऑटो वाले को समझाने के लिए घर से लिख कर ले आती है। मम्मी कहते कि जब रोती है तो सिर्फ आंसू ही बहते है क्योंकि आवाज तो भगवान ने छीन ही ली। 

जिस मुँह से उसने ससुर को गालियां दी होंगी आज उसमे बोलने की शक्ति भी नही बची। सच मे  घर के बजुर्गों का दिल दुखाने वाला इन्सान कभी न कभी तो अपने कर्मो का भुगतान  अवश्य करता है ये तो आंखों से देख लिया।🙏



*💐मन-मुटाव💐*



तलाक़ के दस साल बाद वे दोनों एक शादी मे मिले। नीरज ने निशा को अकेली देखा तो वह उसके पास कुर्सी पर जाकर बैठे गया। काफी देर तक दोनों एक दूसरे को देख कर अनदेखा करते रहे। दोनों ने सात वर्ष साथ गुजारे थे। झगड़ों के अलावा कुछ मिठी यादें भी दोनों के दिलो मे बसी हुई थी। आखिर नीरज ने ही बात शुरू की " कैसी हो? " निशा अभिमान के साथ बोली " मजे मे हूँ। दूसरी शादी को नौ साल हो गए है। दो बच्चे भी है। " नीरज ने गौर से उसका चेहरा देखा। वह पहले से बहुत ज्यादा दुबली पतली हो गई थी। चेहरे पर जरा भी रौनक नही थी। ना शरीर पर महंगे कपड़े थे। वह सोचने लगा कि जब उसके साथ रहती थी तब कितनी सुंदर थी। नीरज को अपनी और ताकते देखकर वह दूसरी तरफ देखने लगी। फिर खुद को नियंत्रित करते हुए बोली " तुम कैसे हो? और हमारा बच्चा कैसा है? नीरज भी अकड़ के साथ बोला " मै भी मजे मे हूँ। दूसरी शादी को 6 वर्ष हो गए है। एक बेटी भी है। और हमारा बन्टी अब नौवी कक्षा मे हो गया है।। " मेरी पत्नी भी बहुत अच्छी है हम दोनों बहुत खुश है।" ये सुनकर निशा को जलन हुई। मगर उसने चेहरे पर उजागर नही होने दिया। मगर उसने गौर से नीरज का चेहरा देखा। ऐसे लग रहा था जैसे चालीस साल की उम्र मे बूढ़ा हो गया हो। सर के सारे बाल सफेद हो गए थे। डाई के कारण ऊपर से काले थे मगर नीचे जड़ों मे सफ़ेदी साफ दिख रही थी। पेट भी काफी निकल आया था। फिर वे काफी देर तक चुपचाप बैठे रहे। शादी के कार्य क्रम मे दोनों दिन भर करीब ही रहे। मगर बातें और नही हो पाई। मगर जब दोनों अपने अपने घर जाने की तैयारी कर रहे थे तब नीरज निशा के पास आया और बोला " एक बात कहूँ? " निशा बोली " क्या? " वह उदास होकर बोला " जिंदगी वही थी जो तेरे साथ गुजरी। अब तो दिन काट रहा हूँ। " इतना सुनते ही निशा के दिल मे खुशी और दुख का मिलाजुला गुब्बार सा फूटा। ऐसे लगा जैसे गले मे कुछ फंस गया हो। वह आँसुओ को जबरन रोकते हुए बोली " मै भी पछता रही हूँ। एक शराबी और गन्दा आदमी पल्ले पड़ गया है। रो रोकर दिन काट रही हूँ। " नीरज ने भर आई आँखों का पानी छुपाने के लिए मुँह दूसरी तरफ कर लिया। फिर बोला " हम दोनों मुर्ख थे। जो छोटी छोटी बातों को बड़ी बनाकर अलग हो गए। मै आज तुम्हे इतना ही कहना चाहता हूँ कि तुम बहुत अच्छी हो। तुम्हारे साथ गुजरे लम्हो की यादों मे दिन बिता रहा हूँ। निशा रो पड़ी । रोते रोते बोली " मै भी उन्ही पलो को याद करके जी रही हूँ। " कह कर उसने बैग उठाया और चल पड़ी। नीरज उसे तब तक देखता रहा जब तक वह आँखों से ओझल न हो गई।


अर्थात छोटी छोटी बातों को लेकर मनमुटाव नही करना चाहिए,क्योंकि यही छोटी छोटी बातें कब बड़ी बन जाती है पता ही नही चलता और बाद में पछताना पड़ता है।🙏



💐महिला के शुभ कदम💐


एक आदमी ने दुकानदार से पूछा: केले और सेव फल क्या भाव लगाऐ है? दुकानदार: केले 20 रु. दर्जन और सेव 100 रु. किलो


उसी समय एक गरीब सी औरत दुकान में आयी और बोली मुझे एक किलो सेव और एक दर्जन केले चाहिए, क्या भाव है? भैया दुकानदार: केले 5 रु दर्जन और सेब 25 रु किलो। औरत ने कहा: जल्दी से दे दीजिए। दुकान में पहले से मौजूद ग्राहक ने खा जाने वाली निगाहों से घूरकर दुकानदार को देखा, इससे पहले कि वो कुछ कहता, दुकानदार ने ग्राहक को इशारा करते हुए थोड़ा सा इंतजार करने को कहा। औरत खुशी-खुशी खरीदारी करके दुकान से निकलते हुए बड़बड़ाई हे भगवान! तेरा लाख-लाख शुक्र है, मेरे बच्चे फलों को खाकर बहुत खुश होंगे।

औरत के जाने के बाद, दुकानदार ने पहले से मौजूद ग्राहक की तरफ देखते हुए कहा: ईश्वर गवाह है, भाई साहब मैंने आपको कोई धोखा देने की कोशिश नहीं की। यह विधवा महिला है, जो चार अनाथ बच्चों की मां है। किसी से भी किसी तरह की मदद लेने को तैयार नहीं है। मैंने कई बार कोशिश की है और हर बार नाकामी मिली है। तब मुझे यही तरकीब सूझी है कि जब कभी ये आए तो, मैं उसे कम से कम दाम लगाकर चीज़े दे दूँ। मैं यह चाहता हूँ कि उसका भ्रम बना रहे और उसे लगे कि वह किसी की मोहताज नहीं है।


मैं इस तरह भगवान के बन्दों की पूजा कर लेता हूँ। थोड़ा रूक कर दुकानदार बोला: यह औरत हफ्ते में एक बार आती है। भगवान गवाह है, जिस दिन यह आ जाती है उस दिन मेरी बिक्री बढ़ जाती है और उस दिन परमात्मा मुझ पर मेहरबान हो जाता है।


ग्राहक की आंखों में आंसू आ गए, उसने आगे बढ़कर दुकानदार को गले लगा लिया और बिना किसी शिकायत के अपना सौदा खरीदकर खुशी-खुशी चला गया। खुशी अगर बांटना चाहो तो तरीका भी मिल जाता है।🙏




*💐पत्नी का सम्मान💐*



ग्रामीण बैंक में मैनेजर की पोस्टिंग होने के बाद पहली बार विजय किराए के नए घर में शिफ्ट हुआ था. पर आज ही सीढ़ियों से फिसलने के कारण रागिनी के पैरों में जबरदस्त मोच आ गयी थी. डॉक्टर ने घर पर आकर पट्टियाँ तो बाँध दी. साथ ही साथ सख्त हिदायत दे दीं कि चलना फिरना बिल्कुल मना है.


एक सप्ताह पहले आये नए घर के आस पास कोई जान पहचान के लोग भी नहीं थे. ये तो बहुत अच्छी बात रही कि पिछले कुछ दिनों में रागिनी ने किचन के साथ साथ पूरे घर को व्यवस्थित कर लिया था.


चार साल पहले विजय और रागिनी की परिवार वालों की सहमति से अर्रेंज मैरेज हुई थी. रागिनी खुद भी पढ़ने में काफी तेज थी और पढ़ लिख कर जीवन मे कुछ बनना चाहती थी. लेकिन पापा को कैंसर का पता चला और उसी वक़्त विजय के यहाँ से रिश्ता आया तो मजबूरी के चलते शादी करनी पड़ी.


शादी के बाद रागिनी पूरी तरह से ससुरालवालों की खुशियों के लिए खुद को न्योछावर कर दी. वो पूरी तरह से आदर्श बहू बन गयी. ससुराल में सब उसकी तारीफ करते नहीं थकते थे. उसके व्यवहार ,कार्यकुशलता से सभी प्रभावित थे.


कुछ ही दिनों में उसने अपने ससुराल की काया बदल कर रख दी थी. पहले हर चीज जैसे तैसे होती थी. अब हर चीज साफ सुथरी और व्यवस्थित रहने लगी. खाना भी वो बड़े जतन से बनाती थी. हर लोग उसके बनाये लजीज खाने की खूब तारीफ करते. सिवाय उसके पति विजय के।


विजय को जरा भी खाने में नमक कम या ज्यादा लगता या मसाला कम होता तो वो एक कोर खाना खाकर छोड़ देता था. परसों खीर में थोड़ी चीनी कम क्या हुई? रागिनी के लाख मिन्नतों के बाद भी उसने खाने को दुबारा हाथ तक नहीं लगाया।


सबसे ज्यादा विजय को मटर पनीर पसंद थी. कुछ दिनों पहले जब मटर पनीर बनी और मटर थोड़ी गल गयी तो भी विजय ने खाना नहीं खाया. जबकि घर के सभी सदस्यों ने खूब मजे से खाये।


रागिनी के लाख मिन्नतें करने और मनाने के बाद भी विजय खाना नहीं खाता था. और विजय जब भूखा सो जाता तो रागिनी भी भूखी सो जाती थी. महीने में कई बार ऐसा होता था. अब पहली बार विजय नौकरी के लिए घर से दूर आया था।


रागिनी को पलँग पर अच्छे से सुलाकर विजय आज जिंदगी मे पहली बार खाना बनाने के ख्याल से घुसा. किचन में हर चीज रागिनी ने व्यवस्थित रखा था. विजय ने एक तरफ थोड़ा सा चावल गैस चूल्हे पर चढ़ा दिया और दूसरी तरफ थोड़ी सी दाल एक पतीले में चढ़ा दी।


फिर वो थोड़े आलू प्याज लेकर भुजिया काटने लगा. काफी मेहनत के बाद बहुत ही बेतरतीब ढंग से आलू और प्याज कटे. उसे आभास होने लगा था खाना बनाने में बहुत मेहनत लगती है. दो घंटे की मेहनत के बाद उसने किसी तरह खाना बनाने में सफलता पाई।


एक थाली में भात और कटोरी में दाल और प्लेट में भुजिया लेकर वो पलँग पर रागिनी को अपने हाथों से खाना खिलाने लगा. वो कोर कोर रागिनी को खाना खिलाता जाता था और रागिनी बड़े आराम से खुशी-खुशी खाना खाती जाती थी।


खाना खत्म होने के बाद विजय ने रागिनी से पूछा कैसा लगा खाना? रागिनी ने कहा बहुत अच्छा. मैं कितनी खुशनसीब हूँ आज जिन्दगी में पहली बार पति के हाथों बना गरमागरम खाना खाने को मिला. विजय से सुनकर बहुत खुश हुआ. आखिर दो घंटे कड़ी मेहनत करके उसने खाना बनाया था।


खाने की तारीफ सुनकर वह फूला न समाया। उसे लगा उसकी मेहनत सफल रही. रागिनी को खाना खिलाने के बाद वो खुद खाना खाने बैठा. उसे जोरों की भूख लगी थी. दाल भात मिलाकर थोड़ी भुजिया का कोर बनाकर जैसे ही मुँह में डालकर विजय ने चबाना शुरू किया. तेजी से बेसिन की तरफ दौड़ा और मुँह का सारा खाना बेसिन में उगल दिया।


चावल अधपका था. दाल में नमक बहुत ज्यादा था. भुजिया भी कच्चा था. ऐसा घटिया खाना रागिनी ने बिना कोई शिकवा शिकायत के खा लिया. सिर्फ इसलिए कि मैंने इतनी मेहनत से बनाया था. छोटी-छोटी बात पर पिछले सारे खाना न खाने वाले वक़्त की उसे याद आने लगी। 


उसके दोनों आँखों से आँसू निकल पड़े। अपने बनाये जिस जिस खाने को वो एक कोर भी न खा सका. रागिनी ने बिना कुछ कहे पूरे खाने को खा लिए. विजय रागिनी के सामने सर झुकाए हाथ जोड़े धीरे से बोला- "पिछले चार सालों में कई बार खाना न खाकर मैंने तुम्हारा जो अपमान किया. आज खाना खाकर तुमने मेरा कितना बड़ा सम्मान किया मुझे माफ कर दो।


रागिनी ने मुस्कुराते हुए कहा, दूध गर्म कर चूड़ा के साथ आज खा लीजिए. एक दो दिनों में मैं ठीक हो जाऊँगी. फिर आपको कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।


इसके बाद कोई भी ऐसा वक़्त नहीं आया. जब रागिनी का बनाया खाना विजय ने खुशी खुशी न खाया हो. एक बार खाना बनाने में लगी मेहनत ने विजय पत्नी का सम्मान करना सीख गया था।🙏

[05/07, 05:01] Vs वीरेंद्र सिंह Ex. MP ABD: *🌳प्रेरक कहानी🌳*


*💐अनंत की तलाश💐*



एक बहुत मशहुर चित्रकार था । उसकी बनाई पेन्टींग तुरन्त बिक जाती। बहुत लोग उसके पेन्टींग के दीवाने थे और उसके बनाई पेन्टींग का मुँहमाँगा दाम देने के लिये तैयार रहते थे। चित्रकार भी पेन्टींग के प्रति इतना समर्पित था कि अभी तक शादी नही किया था। 


   ढलती उम्र मे चित्रकार एकबार सोचने लगा कि मेरी बनाई चित्रकारी को लोग इतना पसंद करते हैं, मुझे खुश करने के लिए मुँहमाँगा दाम देते है लेकिन जिसने मेरा सृजन किया, जिसने इस खूबसूरत सृष्टि का सृजन किया है, उस सृष्टिकर्ता को खुश करने के लिए मै आजतक कुछ नही किया।उनकी कलाकृतियोँ (संसार) को तो मै दिल खोलकर निहारा भी नही। प्रकृति के सुन्दर रुपों को अपने कलाकृतियोँ में चित्रित किया, लेकिन उसके मधुर सुरम्य धीमी आवाज को सुना ही नही। यह सोचते सोचते उसकी तुलिका रुक गयी।


उसने निश्चय किया कि अब वो भगवान के बनाये रचना को निहारेगा और भगवान को खुश करने के लिए कुछ करेगा। उसे अपने काम से विरक्ति होने लगा। 


    एकदिन चित्रकार घर द्वार छोड़कर अनन्त की खोज में निकल पडा। चलते चलते शाम ढलने लगी थी। एक पेंड़ के नीचे बैठकर रात्रि विश्राम  के लिए सोचने लगा। आसपास कोई घर नजर नही आ रहा था।


     उसी समय उधर से गुजर रही एक नन्ही सी प्यारी सी बच्ची की नजर चित्रकार पर पडी। बच्ची चित्रकार से बोली कि आप कौन हैं,आप को कहाँ जाना है,रात होने को हैं, चलिएन हमारे घर ,आपको अपने बाबा से मिलवाती हुँ । बच्चे वैसे भी भगवान का रुप होते है, बच्चे सभी को प्यारे लगते है। बच्ची के बालहठ और  प्यार पुर्वक आग्रह  से चित्रकार की दुविधा समाप्त हो गयी। वह बच्ची के साथ उसके घर चल दिया।


   अतिथि देवो भव के भाव से उस घर के बुजुर्ग ने चित्रकार का स्वागत खुशी मन से किया। उसने चित्रकार को आदरपूर्वक खाना खिलाने के बाद रात्रि विश्राम की व्यवस्था कर दी। 


   चित्रकार ने महसूस किया कि परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। जीवनमें पहलीबार उसे पराये भी अपने लगने लगे थे। चित्रकार उस बच्ची और बुजुर्ग के प्यार और सम्मान से भावविभोर हो गया, बरबस उनके आँखो से आँसू निकल पडे़। चित्रकार ने बुजुर्ग से कलर पेन्ट तथा ब्रश मँगा कर उसके घर के सामने जो लकडी का बाड़ (फेंसिंग) लगा था उसको पेन्ट कर दिया। इसके बाद उनलोगो से विदा लेकर    चित्रकार वहाँ से चला गयाा।

    इधर जब चर्चा हुई कि चित्रकार घर छोड़कर कही चले गये है । चित्रकार के प्रसंसक उनकी खोज करते करते बुजुर्ग के घर पहुँचे। हुलिया सुनकर बुजुर्ग ने बताया कि वे मेरे यहाँ रात्रि विश्राम के बाद मेरे बाड़े (फेंसिंग) को पेन्ट करके कहीं चले गये।


    चित्रकार के प्रसंसको ने जब उसके द्वारा पेन्ट किये बाड़ को देखा तो उनके खुशी का ठिकाना नही रहा। चित्रकार बाड़ के सभी खम्भों पर अपना हस्ताक्षर कर दिये था। वो बाड देखते ही देखते लाखों रुपयों मे बिक गये।यह चित्रकार द्वारा बच्ची को दिया गया तुच्छ उपहार था।


  उधर चित्रकार अनन्त की तलाश मे अनन्त की तरफ चलते जा रहा था।🙏




*💐माया नगरी💐*



सुदामा ने एक बार श्रीकृष्ण से पूछा कान्हा, मैं आपकी माया के दर्शन करना चाहता हूं… कैसी होती है?” 

श्री कृष्ण ने टालना चाहा, लेकिन सुदामा की जिद पर श्री कृष्ण ने कहा, “अच्छा, कभी वक्त आएगा तो बताऊंगा। एक दिन कृष्ण कहने लगे… सुदामा, आओ, गोमती में स्नान करने चलें। 

दोनों गोमती के तट पर गए, वस्त्र उतारे| दोनों नदी में उतरे। श्रीकृष्ण स्नान करके तट पर लौट आए, पीतांबर पहनने लगे।…सुदामा ने एक और डुबकी मारी तो भगवान कृष्ण ने उन्हें अपनी माया का दर्शन करा दिया। 

सुदामा को लगा, नदी में बाढ़ आ गई है। वह बहे जा रहे हैं, सुदामा जैसे- तैसे घाट के किनारे रुके। घाट पर चढ़े, घूमने लगे। घूमते-घूमते गांव के पास आए, वहां एक हथिनी ने उनके गले में फूल माला पहनाई। 

बहुत से लोग एकत्रित हो गए, लोगों ने कहा, “हमारे देश के राजा की मृत्यु हो गई है। यहां का नियम है, राजा की मृत्यु के बाद हथिनी, जिस भी व्यक्ति के गले में माला पहना दे, वही हमारा राजा होता है। 

हथिनी ने आपके गले में माला पहनाई है, इसलिए अब आप हमारे राजा हैं। सुदामा हैरान, राजा बन गया और एक राज कन्या विवाह भी हो गया। दो पुत्र भी पैदा हो गए, जीवन प्रसन्नता पूर्वक बीतने लगा। एक दिन सुदामा की पत्नी बीमार पड़ गई और काल के गाल में समा गई।… सुदामा पत्नी वियोग में रोने लगा, राज्य के लोग भी पहुंचे।


उन्होंने सुदामा को कहा, आप रोएं नहीं, आप हमारे राजा हैं। वैसे भी दुख की कोई बात नहीं, आपको भी रानी के साथ ही जाना है। बताया कि यह मायापुरी का नियम है। आपकी पत्नी को चिता में अग्नि दी जाएगी, आपको भी अपनी पत्नी की चिता में प्रवेश करना होगा।

यह सुनकर सुदामा और जोर से रोने लगा लेकिन लोग नहीं माने। सुदामा अपनी पत्नी की मृत्यु को भूल गया,…उसका रोना भी बंद हो गया। अब वह स्वयं की चिंता में डूब गया।…जब लोग नहीं माने तो सुदामा ने कहा, चिता में जलने से पहले मुझे स्नान तो कर लेने दो…’ इस पर कुछ लोग पहरे में सुदामा को स्नान कराने नदी में ले गए।


सुदामा रोये जा रहे थे और उनके हाथ-पैर कांप रहे थे।

आखिर उन्होंने डुबकी लगाई…और फिर जैसे ही बाहर निकले तो देखा कि मायानगरी कहीं भी नहीं। किनारे पर तो कृष्ण अभी अपना पीतांबर ही पहन रहे थे और वह एक दुनिया घूम आए हैं। सुदामा नदी से बाहर निकले, साथ ही जोर-जोर से रो जाए रहे थे। 

श्रीकृष्ण ने सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनकर पूछा, सुदामा से रोने का कारण पूछा। सुदामा ने सारा वृतांत कह सुनाया और पूछा कि यह जो मैं जो देख रहा हूं यह स्वप्न है या जिस माया नगरी से मैं अभी-अभी आया हूं वह स्वप्न था।

भगवान कृष्ण बोले, यही सच है,…मैं ही सच हूं। 

मेरे से भिन्न, जो भी है, वह मेरी माया ही है। जो मुझे ही सर्वत्र देखता है,महसूस करता है, उसे मेरी माया स्पर्श नहीं करती। जो श्रीकृष्ण से जुड़ा है, वह नाचता नहीं…भ्रमित नहीं होती🙏



*💐आशा 💐*



1950 के दशक में हावर्ड यूनिवर्सिटी के विख्यात साइंटिस्ट कर्ट रिचट्टर ने चूहों पर एक अजीबोगरीब शोध किया था।


कर्ड ने एक जार को पानी से भर दिया और उसमें एक जीवित चूहे को डाल दिया। 


पानी से भरे जार में गिरते ही चूहा हड़बड़ाने लगा औऱ

जार से बाहर निकलने के लिए लगातार ज़ोर लगाने लगा। 


चंद मिनट फड़फड़ाने के पश्चात चूहे ने जार से बाहर निकलने का अपना प्रयास छोड़ दिया और वह उस जार में डूबकर मर गया। 


कर्ट ने फ़िर अपने शोध में थोड़ा सा बदलाव किया।


उन्होंने एक दूसरे चूहे को पानी से भरे जार में पुनः डाला। चूहा जार से बाहर आने के लिये ज़ोर लगाने लगा। 


जिस समय चूहे ने ज़ोर लगाना बन्द कर दिया और वह डूबने को था......ठीक उसी समय कर्ड ने उस चूहे को मौत के मुंह से बाहर निकाल लिया। 


कर्ड ने चूहे को उसी क्षण जार से बाहर निकाल लिया जब वह डूबने की कगार पर था। 


चूहे को बाहर निकाल कर कर्ट ने उसे सहलाया ......कुछ समय तक उसे जार से दूर रखा और फिर एकदम से उसे पुनः जार में फेंक दिया। 


पानी से भरे जार में दोबारा फेंके गये चूहे ने फिर जार से बाहर निकलने की अपनी जद्दोजेहद शुरू कर दी। 


लेकिन पानी में पुनः फेंके जाने के पश्चात उस चूहे में कुछ ऐसे बदलाव देखने को मिले जिन्हें देख कर स्वयं कर्ट भी बहुत हैरान रह गये। 


कर्ट सोच रहे थे कि चूहा बमुश्किल 15 - 20 मिनट तक संघर्ष करेगा और फिर उसकी शारीरिक क्षमता जवाब दे देगी और वह जार में डूब जायेगा। 


लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 


चूहा जार में तैरता रहा। अपनी जीवन बचाने के लिये लगातार सँघर्ष करता रहा। 


60 घँटे .......जी हाँ .....60 घँटे तक चूहा पानी के जार में अपने जीवन को बचाने के लिये सँघर्ष करता रहा। 


कर्ट यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये। 

जो चूहा महज़ 15 मिनट में परिस्थितियों के समक्ष हथियार डाल चुका था ........वही चूहा 60 घंटों तक कठिन परिस्थितियों से जूझ रहा था और हार मानने को तैयार नहीं था। 


कर्ट ने अपने इस शोध को एक नाम दिया और वह नाम था......." The HOPE Experiment".....! 


Hope........यानि आशा। 


कर्ट ने शोध का निष्कर्ष बताते हुये कहा कि जब चूहे को पहली बार जार में फेंका गया .....तो वह डूबने की कगार पर पहुंच गया .....उसी समय उसे मौत के मुंह से बाहर निकाल लिया गया। उसे नवजीवन प्रदान किया गया। 


उस समय चूहे के मन मस्तिष्क में "आशा" का संचार हो गया। उसे महसूस हुआ कि एक हाथ है जो विकटतम परिस्थिति से उसे निकाल सकता है। 


जब पुनः उसे जार में फेंका गया तो चूहा 60 घँटे तक सँघर्ष करता रहा.......

वजह था वह हाथ...वजह थी वह आशा ...वजह थी वह उम्मीद!!!

इसलिए हमेशा........


उम्मीद बनाये रखिये, सँघर्षरत रहिये, 

सांसे टूटने मत दीजिये, मन को हारने मत दीजिये🙏

🦚*



*💐चेहरों के पीछे की सच्चाई💐*


वह बहुत सीधा-सादा लड़का था — नाम था रामलाल। गाँव से शहर पढ़ने आया था। आँखों में सपने थे, दिल में सच्चाई और व्यवहार में विनम्रता। वह हर किसी पर विश्वास कर लेता था। कोई मदद माँगता तो बिना सोचे कर देता, कोई साथ बैठना चाहता तो जगह दे देता, कोई दोस्ती का हाथ बढ़ाता तो वह मन से पकड़ लेता।


शहर की दुनिया उसके लिए नई थी, लेकिन वह सोचता था — “लोग भले होंगे, जैसे हमारे गाँव में होते हैं। यहाँ भी दिल होंगे, बस चेहरे अलग होंगे।”


शुरुआत में सब कुछ अच्छा लगा। नए दोस्त मिले, जो हर दिन मुस्कराते, बातें करते, सेल्फी लेते, ज़िंदगी को रंगीन दिखाते। लेकिन एक दिन अचानक, सब बदल गया।


एक झूठी अफवाह फैली — कि रामलाल चोरी करता है।


उसने किसी का मोबाइल छूआ तक नहीं, लेकिन दोस्तों की मंडली ने बिना पूछे उसे दूर करना शुरू कर दिया। जिसने उसके साथ सबसे ज्यादा बातें की थीं, उसने उसे देखकर मुँह फेर लिया।


*"जो सबसे ज़्यादा हँसकर मिला करते थे, आज ऐसे नज़रें चुराने लगे जैसे पहचानते ही न हों।"*


रामलाल अकेला रह गया। उसने सबसे सफाई देने की कोशिश की, लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं था। जो लड़के दिनभर उसके साथ घूमते थे, अब सोशल मीडिया पर उसके ख़िलाफ़ जोक्स बना रहे थे।


एक दिन वह बेहद टूट चुका था। बैठा था एक खाली बेंच पर, और खुद से एक ही सवाल पूछ रहा था –

*"क्या मैं इतना बुरा हूँ? या फिर दुनिया सच में इतनी नकली है?"*


उसी वक्त एक बुज़ुर्ग आदमी पास आकर बैठा। उन्होंने उसका चेहरा देखा और पूछा, "बेटा, क्या हुआ?"


रामलाल ने सब बता दिया।


बुज़ुर्ग मुस्कराए और बोले —

*"बेटा, इस दुनिया में हर मुस्कराता चेहरा अच्छा नहीं होता। लोग अपनी असलियत छुपाकर, चेहरे पर अच्छाई का मुखौटा पहनते हैं। ये वही लोग होते हैं जो सामने हँसते हैं, लेकिन पीछे वार करते हैं।"*


*"तू टूट मत। ये मत भूल कि जब सच्चाई अकेली पड़ जाती है, तभी वो सबसे ज्यादा मजबूत होती है।"*


उनकी बातों ने रामलाल को एक नई सोच दी। उसने अब अकेले रहना सीखा, लेकिन खुद को कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया। वह पढ़ाई में और मेहनत करने लगा। दिन-रात की लगन से उसने टॉप किया। वही लोग जो उसे छोड़ गए थे, अब उसके पास आने लगे।


लेकिन इस बार, उसने मुस्कराकर बस इतना कहा –

*“अब मैं चेहरे नहीं, दिल पहचानता हूँ। तुमने मुझे बहुत कुछ सिखाया है – किस पर भरोसा करना चाहिए और किस पर नहीं।”*


*हर मुस्कुराता चेहरा सच्चा नहीं होता।*


*लोग दिखाते कुछ हैं, होते कुछ हैं – पहचान बनाने में नहीं, पहचानने में समय लगाओ।*


दुनिया की सबसे बड़ी कला अब ‘फरेब’ बन चुकी है। इसलिए हर चमकती चीज़ को सोना न समझो।


जो तुम्हारे साथ सिर्फ अच्छे समय में हो, वह दोस्त नहीं – दर्शक होता है। 🙏




*💐मनुष्य की कीमत💐*


लोहे की दुकान में अपने पिता के साथ काम कर रहे एक बालक ने अचानक ही अपने पिता से पूछा – “पिताजी इस दुनिया में मनुष्य की क्या कीमत होती है ?”


पिताजी एक छोटे से बच्चे से ऐसा गंभीर सवाल सुन कर हैरान रह गये।


फिर वे बोले, “बेटे एक मनुष्य की कीमत आंकना बहुत मुश्किल है, वो तो अनमोल है।”


बालक – क्या सभी उतना ही कीमती और महत्त्वपूर्ण हैं ?


पिताजी – हाँ बेटे।


बालक कुछ समझा नहीं, उसने फिर सवाल किया – तो फिर इस दुनिया में कोई गरीब तो कोई अमीर क्यों है? किसी की कम रिस्पेक्ट तो किसी की ज्यादा क्यों होती है?


सवाल सुनकर पिताजी कुछ देर तक शांत रहे और फिर बालक से स्टोर रूम में पड़ा एक लोहे का रॉड लाने को कहा।


रॉड लाते ही पिताजी ने पूछा – इसकी क्या कीमत होगी?


बालक – 200 रूपये।


पिताजी – अगर मैं इसके बहुत से छोटे-छटे कील बना दू तो इसकी क्या कीमत हो जायेगी ?


बालक कुछ देर सोच कर बोला – तब तो ये और महंगा बिकेगा लगभग 1000 रूपये का।


पिताजी – अगर मैं इस लोहे से घड़ी के बहुत सारे स्प्रिंग बना दूँ तो?


बालक कुछ देर गणना करता रहा और फिर एकदम से उत्साहित होकर बोला, “तब तो इसकी कीमत बहुत ज्यादा हो जायेगी।”


फिर पिताजी उसे समझाते हुए बोले – “ठीक इसी तरह मनुष्य की कीमत इसमें नहीं है कि अभी वो क्या है, बल्की इसमें है कि वो अपने आप को क्या बना सकता है।”


बालक अपने पिता की बात समझ चुका था।


 

अक्सर हम अपनी सही कीमत आंकने में गलती कर देते हैं। हम अपनी वर्तमान स्थिति को देख कर अपने आप को बेकार समझने लगते हैं। लेकिन हममें हमेशा अथाह शक्ति होती है। हमारा जीवन हमेशा सम्भावनाओं से भरा होता है। हमारी जीवन में कई बार स्थितियाँ अच्छी नहीं होती है पर इससे हमारी इज्जत कम नहीं होती है। मनुष्य के रूप में हमारा जन्म इस दुनिया में हुआ है, इसका मतलब है हम बहुत खास और महत्वपूर्ण हैं। हमें हमेशा अपने आप को सुधार करते रहना चाहिये और अपनी सही कीमत प्राप्त करने की दिशा में बढ़ते रहना चाहिये..!!🙏


प्रस्तुति / वीरेंद्र सिंह 

EX MP & MLA / ABD BIHAR 

824101



सोमवार, 17 मार्च 2025

प्रेम रंजन अनिमेष की 12 ग़ज़लें*

 


*प्रेम रंजन अनिमेष की 12 ग़ज़लें*


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*ख़ुशबू आती है ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                        💟            

             

पहली किलक और कहां कहां की ख़ुशबू आती है

इस   बोली  से   मेरी  माँ  की   ख़ुशबू  आती  है


फूलों   में   अब   रही  नहीं   पहले वाली   रंगत 

इनसां  से भी  कहाँ  इनसां की  ख़ुशबू  आती है


ज़ायक़ा और ही  पहले प्यार के  पहले बोसे का

इक लब पर  ना  इक से  हाँ  की  ख़ुशबू आती है


दिल  तेरा  है  और  तेरी ही  हर  धड़कन  फिर भी

जाने  क्यों   अपने  अरमां  की  ख़ुशबू  आती है


वक़्त ने  उनको भी  कितना  बेगाना  कर  डाला

जिनसे  अपने  जिस्मो जां   की  ख़ुशबू  आती  है


जी  करता है  चूम लूँ   इन  दिल छूते  गीतों  को 

इनसे  अपनी  भूली  ज़ुबां  की  ख़ुशबू  आती  है


औरों की  ख़ातिर  कर दे जो  अपने को  क़ुर्बान 

जां से  जाकर भी  उस  जां की  ख़ुशबू  आती है


माँ  जो भी  कहती थी  उसमें  रहती थी  कविता

मुझसे  उसी  अंदाज़े बयां  की  ख़ुशबू  आती  है


कितनी  नदियों का  संगम है  यह देशों का देश

साथ आरती  अरदास अज़ां की  ख़ुशबू आती है


शायरी और भला क्या जोड़ना दिल के तारों को 

जिनसे   सारे  ग़मे  दौरां  की  ख़ुशबू  आती  है


अपनी  मिट्टी  आबोहवा की  ग़ज़लें ये  'अनिमेष'

लेकिन  इनसे  सारे  जहां  की  ख़ुशबू  आती  है

                         💔

              



*2*


*वो अपनी गोद में...*

                           ~ *


                          💟

वे अपनी गोद में  जीवन को  पाल सकती हैं 

जो घर  सँभालतीं  दुनिया सँभाल  सकती हैं 


हों  चाहे  राह  में   परिवार  पुरखे  पर्वत  से 

ये नदियाँ बहने का रास्ता निकाल सकती हैं 


इन आँचलों से  फ़क़त  दूध ही  नहीं ढलता 

हुआ  ज़रूरी  तो  फ़ौलाद  ढाल  सकती  हैं


यूँ माँयें  लगती हैं धरती  पर अपने छौनों को 

बुलंदियों के  फ़लक तक  उछाल सकती  हैं 


सहर के ख़्वाब में  आती हैं  लड़कियाँ कहने

हम अपने आप रख अपना ख़याल सकती हैं


ख़ुदाई ख़ुद ही बना लें  किसी ख़ुदा के बग़ैर 

जो  ठान लें  तो कर  ऐसा कमाल  सकती हैं 


सवाल   उठाते  रहे  जो   जवाब  अब   ढूँढ़ें 

वे भी  तो  पूछ  बहुत से  सवाल  सकती हैं


कि जिस बिसात पे  शह दे के  मात दी तूने

उसी बिसात पे  चल अपनी  चाल  सकती हैं


जिन्हें है रखना रखें यूँ ही ज़ीस्त की  चादर

वे  उसको  ओढ़े  हुए भी  खँगाल  सकती हैं 


वो  उँगलियाँ  जो  जलाती हैं  आग  चूल्हे में

जब आये वक़्त  जला सौ मशाल सकती हैं


अगर  मिले  नहीं   अपने  ही  नाम  के  दाने

पता है चिड़ियों को उड़ ले के जाल सकती हैं 


भली  तरह से  ख़बर थी  रहे  भले  फिर भी

ये नेकियाँ  कहीं मुश्किल में  डाल सकती हैं


तू सत के पथ पे  बना सत्यवान   बढ़ता जा

सावित्रियाँ तो अजल को भी टाल सकती हैं


पकड़ के  उँगली  चलाती हैं  कहकशां  सारी

तो  अपने आपको  भी  देखभाल सकती  हैं 


अगर हो प्यार निभाने की  बात तो 'अनिमेष'

वफ़ायें  कितनी   मेरी  दे  मिसाल  सकती  हैं

                          🌱

                         

✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*                              



*3*


*तो क्यों...*

                            ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                          💟

जनमती  सँवरती  है   औरत  से  दुनिया 

तो क्यों खेलती उसकी अस्मत से दुनिया 


ज़रा   चूलें   हिलती   सुनायी   तो   देतीं 

चलेगी  अभी  कुछ   मरम्मत  से  दुनिया


तो घिर आये फिर  जंग के  काले बादल

जो निकली बला की  मुसीबत से दुनिया


कहीं  बाढ़  है  तो   कहीं  पर   है  सूखा 

वे कहते हैं  फिर भी  है राहत से  दुनिया


हुकूमत  को  हर  एक  शायर  से  डर है 

बिगड़ जायेगी उनकी सोहबत से दुनिया


अगर पास  है कुछ  तो मिल बाँट लें सब

रहेगी   सभी   की   दयानत  से   दुनिया 


कटें   बेड़ियाँ   सब    हटें   बंदिशें   अब

जुड़े  धड़कनों  की   बग़ावत  से  दुनिया


दिलों  से  अगर  दिल  मिलें   तो  चलेगी

न दहशत न वहशत न नफ़रत से दुनिया


भरे   सपने   सच   रोशनी   और   पानी

इन आँखों के मिलने की चाहत से दुनिया 


ज़हीनों   पे   ही  अब   भरोसा   नहीं  हैं

रखेंगे   दिवाने    हिफ़ाज़त   से   दुनिया


न  रोके   किसी   के   ये    बच्चे    रुकेंगे 

बढ़ेगी   इन्हीं   की    शरारत  से   दुनिया


बचा  रखना   'अनिमेष'   मासूम  बचपन 

सिहरती   सयानी   ज़हानत   से   दुनिया 

                         💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*                   



*4* 


*सहर कहाँ*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                         🌿

शबे ग़म  बता है  सहर  कहाँ

यूँ घिरी  अँधेरों  में  कहकशां


कहाँ  हाथों  में  कोई  हाथ है

कई    मंज़िलें   कई   कारवां


न  जुटा  मिटाने  के  असलहे

तेरे पास तो है  बस इक जहां


सरे आम  होंठों पे  होंठ  रख

मुझे   दर्द  कर  गया   बेज़ुबां


ये दो  मिसरे  चूम के  जोड़ दे

कहीं लब पे ना कहीं दिल में हाँ


यहाँ   इश्तेहारों  से   इश्क़  हैं

मेरा प्यार  अच्छा  यूँ ही  निहां


जहाँ   बहरी   बहरी  अदालतें

वहाँ  अनकहा  ही  हरेक बयां


कभी  बन सकेंगी  सदा कोई 

ये जो चुप्पियाँ ये जो सिसकियाँ


कभी फ़ासलों में  भी पास था

अभी  क़ुर्बतों  में  भी   दूरियाँ


जहाँ जा  सका  न कभी कोई 

मुझे ले के चल  ऐ क़लम वहाँ


है ज़रूरी  जाना  तो  जा मगर

ज़रा कह ले सुन तो  ले दास्तां


'अनिमेष' पहली किलक ग़ज़ल 

नयी  ज़िंदगी  की  कहां  कहां

                         🌱

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*



*5*


*साथ यहाँ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                           💟

माहताब   आफ़ताब    साथ  यहाँ 

धड़कें सच और ख़्वाब  साथ यहाँ


होंठों  पर  होंठ  रख के  सुन लेना

सब सवाल और जवाब साथ यहाँ


दिल की दुनिया  नहीं हसीं  यूँ ही

दफ़्न   सारे   अज़ाब   साथ  यहाँ


शहर  से   है  बड़ा   कहाँ   सहरा

रखना आँखों का आब साथ यहाँ


सोच  में  है  ख़ुदा  भी  जन्नत  भी

लाया  कौन  इनक़लाब  साथ यहाँ


क़ब्र   में    चैन   से    कटेंगे   दिन 

ज़िंदगी  की   किताब   साथ  यहाँ


भूलेगी   कैसे   ये  गली  'अनिमेष'

थे  बुने  कितने  ख़्वाब  साथ यहाँ

                          💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*



*6*


*घर कोई ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                       🏨                          

हो  सफ़र  मक़सद-ए-सफ़र  कोई

राह  आने  की   तकता  घर  कोई


एक  दर  हो  कि  दे  सकें  दस्तक 

चाहे    हो   रात   का   पहर  कोई


देखा   अकसर   है   धूपराहों   पर

ले के  चलता है   इक शजर  कोई


रिश्ते  रखिये   मगर  नहीं   उम्मीद 

साथ   देगा   न   उम्र   भर   कोई 


छोड़  कर   ये   जहां   चले  जाना

इससे   बेहतर  मिले  अगर  कोई 


टूट    जाता     कोई    थपेड़ों   से 

और  जाता   निखर   सँवर   कोई  


लब से लब जोड़  शायद आ जाये

इन  दुआओं   में  भी  असर कोई


जान  कर  भी  कहे  किसे औरत

आदमी   में    है    जानवर   कोई


लौट कर  आज   जो   नहीं  आया 

हो  न जाये  वो  कल  ख़बर  कोई  


जाना तो सबको  एक दिन लेकिन 

ऐसे   जाये   न   छोड़  कर   कोई 


ख़ाक मिल जाती  ख़ाक में आख़िर 

जाता   'अनिमेष'  है   किधर  कोई 

                         💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*



*7*


*आज वो है ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                          💝

आज    वो   है    यही   ग़नीमत   है

अब   मुहब्बत  में  भी  सियासत  है


दिल  ये   टूटा  ही  काम  आ जाता

इसकी    होती   कहाँ   मरम्मत  है


भर  के   उभरे   यूँ   ही  नहीं  सीने

रोज़ इस घर में  दुख की  बरकत है


क्योंकि  इसको   बनाती  है  औरत

ज़िंदगी      इतनी     ख़ूबसूरत    है


और  भी   झलके    जो   अँधेरे   में 

ऐसी    चाहत  की   ये   इबारत  है


बंदिशें    प्यार   पर  ही   हैं   सारी

फिरती आज़ाद  कितनी नफ़रत है


हो   गयी  है   बहुत  बड़ी   दुनिया 

खोयी  बच्चों  की   हर  शरारत  है


मंदिरों   मस्जिदों   को    रहने  दो

मेल   रखना  भी  इक  इबादत  है  


हाँ  हिमाक़त है  शायरी  इस वक़्त 

इस  हिमाक़त  की ही  ज़रूरत  है 


पढ़ के औरों को भी सुना 'अनिमेष'

ज़िंदगी  क्या है   इक  खुला ख़त है

                        💔

                        ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                 


*8*


*अजनबी शहर है ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                         💝

अजनबी  शहर  है   किधर  जाऊँ 

दर   खुले  कोई   तो  ठहर  जाऊँ  


आज की  रात  रख ले  आँखों  में 

तेरे   सपने   तो   देख  कर   जाऊँ


जैसे    परसें    हवायें    पानी   को 

तुझको  छूकर  यूँ  ही  गुज़र जाऊँ


होंठों  पर  आँच  अपने  होठों  की 

रख अगर दे  तो सच में  तर जाऊँ 


राह    तकना   न   देर   होने   पर

चाहा तो  था  कि  बोल कर  जाऊँ


हाथ  पहुँचे न  जिनके  दामन  तक

उनकी पलकें ही कुछ तो भर जाऊँ 


इस  तरह  मत  सहेज कर  रखना

तेरे   जाते    बिखर   बिखर  जाऊँ


जिससे मिलना है  वो तो मुझमें ही

किसलिए  फिर  इधर  उधर  जाऊँ 


इतनी   ऊँचाई  दे   मुझे  ऐ  दोस्त

टूटकर   हर  तरफ़   बिखर   जाऊँ 


चाँद    सूरज    पुकारती   थी   माँ 

ले    उजाला    हरेक    घर   जाऊँ 


दिल  हूँ   वो  सोना   चाहता   होना 

और   हर  चोट  से   निखर  जाऊँ


कौन    अपना    है    धूपराहों   में 

साथ  लेकर   कोई   शजर   जाऊँ  


हो    रही    शाम     लौटते    पंछी 

घर  कहीं  हो  अगर तो  घर जाऊँ 


शायरी  हूँ   मैं   प्यार  का  ख़त  हूँ 

हो  न  अख़बार  की   ख़बर  जाऊँ


धड़कूँ   जीवन   के   पन्ने  पन्ने  पर 

बस  सियाही सा  मत बिसर जाऊँ


वक़्त  के  काटे   कटने  के  पहले 

पकती फ़सलों सा झूम कर  जाऊँ 


मेरे  पीछे  भी  तुझको   देखा  करें 

दे  किसी  को  तो  ये  नज़र  जाऊँ


तू  कहीं भी  हो  ज़िंदगी  'अनिमेष'

सोच  कर   मैं  तुझे   सँवर   जाऊँ                                         

                          💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*

           


*9*


*कहाँ से ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                          💝

चार   काँधे   कहाँ  से  आयेंगे

इतने  अपने  कहाँ  से  आयेंगे


सब  यहाँ  तो  गिराने  वाले  हैं

तब   उठाने   कहाँ  से  आयेंगे


प्यार  गहरा न हो  तो मेंहदी के

रंग   पक्के   कहाँ  से   आयेंगे


ज़िंदगी   झूठ  की   गुज़ार  रहे

लफ़्ज़   सच्चे   कहाँ   से   आयेंगे


शहर बस सिगनलों में ही है हरा

फिर   परिंदे   कहाँ  से  आयेंगे


टूट  जायें  भी  तो  नहीं  चटकें

ऐसे   धागे    कहाँ   से   आयेंगे


रिश्ते   इनसान   ही  बनाते  हैं 

अब  फ़रिश्ते  कहाँ  से  आयेंगे


हैं बशर जैसे  उनको अपना लो 

सारे   अच्छे   कहाँ   से  आयेंगे


इस क़दर सच से भर गयीं पलकें 

इनमें   सपने   कहाँ  से  आयेंगे


इतने   माँ  बाप  जब  सयाने  हैं

भोले   बच्चे   कहाँ   से   आयेंगे


दिल ही जब है नहीं तो फिर 'अनिमेष'

दिल  के  रिश्ते  कहाँ  से  आयेंगे

                          💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*



*10*


*फिर भी*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                            🌿

फिर भी सच का  साथ निभाना

चाहे     कहे     कोई     दीवाना 


अपनी   राह  पे   बढ़ते   जाना

आये   साथ    जिसे   है  आना


प्यार  भले ही  भूल  या  ग़लती

ये  ग़लती   फिर  फिर  दुहराना


तिनका तिनका जोड़ ले चुन के

आशियां  पिंजरे  को  न बनाना


इक लब पर  ना  है इक पर  हाँ

चाहत   है   दोनों  को  मिलाना


कोई  बहाना   कर  के  आ  जा

जाते    चलेगा    कौन   बहाना


छूआछूत  हो  क्यों   उल्फ़त  में

नज़रों   का   ही   रहे  नज़राना 


इससे  पहले  तो   कुछ  कर ले

इक  दिन  होगा  सबको  जाना


उसका  भी  तो  हक़ है  अपना

तूने    जिसको    अपना   माना


झूठ   की  भीड़  जुटाने  से  तो

अच्छा  अकेले   ही   रह  जाना


करना  हिफ़ाज़त अपने गले की 

सबके  लिए   आवाज़   उठाना


नेकियाँ  लौटेंगी  फिर तुझ तक

सोच  के  ये  काँधा  न  लगाना


जीवन नाम है जिस चिड़िया का

मौत  तलक  है   किसने  जाना


भूल न सकता  उसको  'अनिमेष'

भूलूँ    भले   अपना   सिरहाना

                         🌱

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*      

                    


*11*


*माँ आ ही जाती है ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                       ✡️                         

सच  के  आँसू  पीती  सपनों  में  मुसकाती  है

कुछ भी लिखता हूँ उसमे  माँ  आ ही जाती है 


साँझ  सवेरे   नेह  भरे  जो   दिये   जलाती  है 

किसे पता  ये बात  कि वो ख़ुद उसकी बाती है


हद  जब हो  जाये तो  धरती भी  फट जाती है 

सब कुछ  सह लेती है जो  औरत की छाती है 


नाम लिये बिन नाम किसी के जीवन कर देना

ऐसी  मुहब्बत  और  कहाँ पर  पायी  जाती है


कितनी भूख उदासी कितना दर्द है क्या मालूम 

सुबह सवेरे जग कर  जो हर चिड़िया  गाती है 


साँसों में  जो  बसते थे  अब  कितनी  दूर हुए 

उनकी  ख़ैर ख़बर  जब तब    पुरवाई  लाती है 


खींच रही कुछ पकने की  सोंधी सोंधी ख़ुशबू 

खेल रहे  बच्चों  को  माँ  घर  यूँ ही  बुलाती है 


कुछ भी छुपाना इसको तो आया ही नहीं अब तक

नागर  बड़ा नगर  और  अपना  दिल देहाती है


कितने   अच्छे   कितने  सच्चे   हैं  अपने  बच्चे 

नींद  में  अकसर  बाबूजी  से  माँ  बतियाती है


नाम  न लें  चाहे  बच्चे  पर  नाम  कमाते  ख़ूब

सोच यही  छाती  गज़ भर  चौड़ी  हो  जाती  है 


जो भी मिला है हमको उन पुरखों के पसीनों से

अपने पास  'अनिमेष' जो इन छौनों की थाती है

                         💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*     

                   


*12*

                        

*बाबूजी की बातें...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                        🌳    

अब भी   खेतों  खलिहानों  में   बाबूजी  की  बातें 

गूँजा   करती   हैं   कानों   में   बाबूजी  की  बातें 


सुबह  सवेरे  चहके  चिड़िया  ये ही  बतलाने  को

सरगम  की   सारी   तानों  में   बाबूजी  की  बातें 


मिट्टी के हैं  हर्फ़  कहीं पर  और  पानी की  पाती

मिलती   किन  तानों  बानों  में  बाबूजी  की  बातें 


सिखवन समझावन मीठी झिड़की और डाँट कड़ी सी

कैसे    कैसे    परिधानों   में    बाबूजी  की   बातें 


अनजाने   रस्तों  पर   जैसे    पहचानी   मुसकानें 

भीड़ों   के    इन  वीरानों  में   बाबूजी   की   बातें 


भूखे  रहते  बच्चों  की  ख़ातिर   जब   रातें  जगते 

याद  आतीं  उन  बलिदानों  में  बाबूजी  की  बातें 


जो भी मिला जीवन में वो ही सिखलाता जीना भी

ऐसे   ही   कुछ   वरदानों   में   बाबूजी  की  बातें 


और ख़ज़ाने  औरों की  ख़ातिर  पर  मेरे  लिए तो

इस  धरती  के   धन धानों  में   बाबूजी  की  बातें 


हौसले को पतवार बनातीं और हिम्मत की कश्ती 

बीच  भँवर   और  तूफ़ानों  में   बाबूजी  की  बातें 


बँटते  बँटते  बँटवारों  में   रह पाता  क्या  कितना

जाने  कहाँ  किन  सामानों  में   बाबूजी  की  बातें 


अब भी कितने हैं जो  उनके नाम से  जानें हमको

दर्ज़  समय  की   पहचानों  में   बाबूजी  की  बातें  


हम जो  न कर पायें  वो अपने बच्चे  ज़रूर करेंगे 

धड़कें   हमारे   अरमानों   में    बाबूजी  की  बातें 


अम्मा अपनी कहानी कह ना तुझको भी कुछ समझें 

तेरे   सारे   अफ़सानों    में     बाबूजी    की   बातें 


इक  दीवाने  ने    कितने   दीवान   रचे   देखो  तो

और   सारे   ही   दीवानों   में    बाबूजी  की   बातें 


कविता  ग़ज़लें  गीत  कहानी  नाटक  याद-दहानी 

कितने    सारे    उन्वानों   में    बाबूजी   की   बातें 


कौन  फ़रिश्ता  शायर कैसा  मैं तो  बस  करता हूँ 

इनसानों    से    इनसानों   में    बाबूजी  की   बातें 


होंगे कहीं क्या हो के नहीं भी कल हम तुम ऐसे ही 

जैसे    अपनी    संतानों    में    बाबूजी   की   बातें  


कोई गीता ज्ञान कहाँ बस अपने लिए तो  'अनिमेष'

जीवन   के   इन   मैदानों   में    बाबूजी   की  बातें 

                       

   ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*



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