सोमवार, 17 मार्च 2025

प्रेम रंजन अनिमेष की 12 ग़ज़लें*

 


*प्रेम रंजन अनिमेष की 12 ग़ज़लें*


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*1*


*ख़ुशबू आती है ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                        💟            

             

पहली किलक और कहां कहां की ख़ुशबू आती है

इस   बोली  से   मेरी  माँ  की   ख़ुशबू  आती  है


फूलों   में   अब   रही  नहीं   पहले वाली   रंगत 

इनसां  से भी  कहाँ  इनसां की  ख़ुशबू  आती है


ज़ायक़ा और ही  पहले प्यार के  पहले बोसे का

इक लब पर  ना  इक से  हाँ  की  ख़ुशबू आती है


दिल  तेरा  है  और  तेरी ही  हर  धड़कन  फिर भी

जाने  क्यों   अपने  अरमां  की  ख़ुशबू  आती है


वक़्त ने  उनको भी  कितना  बेगाना  कर  डाला

जिनसे  अपने  जिस्मो जां   की  ख़ुशबू  आती  है


जी  करता है  चूम लूँ   इन  दिल छूते  गीतों  को 

इनसे  अपनी  भूली  ज़ुबां  की  ख़ुशबू  आती  है


औरों की  ख़ातिर  कर दे जो  अपने को  क़ुर्बान 

जां से  जाकर भी  उस  जां की  ख़ुशबू  आती है


माँ  जो भी  कहती थी  उसमें  रहती थी  कविता

मुझसे  उसी  अंदाज़े बयां  की  ख़ुशबू  आती  है


कितनी  नदियों का  संगम है  यह देशों का देश

साथ आरती  अरदास अज़ां की  ख़ुशबू आती है


शायरी और भला क्या जोड़ना दिल के तारों को 

जिनसे   सारे  ग़मे  दौरां  की  ख़ुशबू  आती  है


अपनी  मिट्टी  आबोहवा की  ग़ज़लें ये  'अनिमेष'

लेकिन  इनसे  सारे  जहां  की  ख़ुशबू  आती  है

                         💔

              



*2*


*वो अपनी गोद में...*

                           ~ *


                          💟

वे अपनी गोद में  जीवन को  पाल सकती हैं 

जो घर  सँभालतीं  दुनिया सँभाल  सकती हैं 


हों  चाहे  राह  में   परिवार  पुरखे  पर्वत  से 

ये नदियाँ बहने का रास्ता निकाल सकती हैं 


इन आँचलों से  फ़क़त  दूध ही  नहीं ढलता 

हुआ  ज़रूरी  तो  फ़ौलाद  ढाल  सकती  हैं


यूँ माँयें  लगती हैं धरती  पर अपने छौनों को 

बुलंदियों के  फ़लक तक  उछाल सकती  हैं 


सहर के ख़्वाब में  आती हैं  लड़कियाँ कहने

हम अपने आप रख अपना ख़याल सकती हैं


ख़ुदाई ख़ुद ही बना लें  किसी ख़ुदा के बग़ैर 

जो  ठान लें  तो कर  ऐसा कमाल  सकती हैं 


सवाल   उठाते  रहे  जो   जवाब  अब   ढूँढ़ें 

वे भी  तो  पूछ  बहुत से  सवाल  सकती हैं


कि जिस बिसात पे  शह दे के  मात दी तूने

उसी बिसात पे  चल अपनी  चाल  सकती हैं


जिन्हें है रखना रखें यूँ ही ज़ीस्त की  चादर

वे  उसको  ओढ़े  हुए भी  खँगाल  सकती हैं 


वो  उँगलियाँ  जो  जलाती हैं  आग  चूल्हे में

जब आये वक़्त  जला सौ मशाल सकती हैं


अगर  मिले  नहीं   अपने  ही  नाम  के  दाने

पता है चिड़ियों को उड़ ले के जाल सकती हैं 


भली  तरह से  ख़बर थी  रहे  भले  फिर भी

ये नेकियाँ  कहीं मुश्किल में  डाल सकती हैं


तू सत के पथ पे  बना सत्यवान   बढ़ता जा

सावित्रियाँ तो अजल को भी टाल सकती हैं


पकड़ के  उँगली  चलाती हैं  कहकशां  सारी

तो  अपने आपको  भी  देखभाल सकती  हैं 


अगर हो प्यार निभाने की  बात तो 'अनिमेष'

वफ़ायें  कितनी   मेरी  दे  मिसाल  सकती  हैं

                          🌱

                         

✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*                              



*3*


*तो क्यों...*

                            ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                          💟

जनमती  सँवरती  है   औरत  से  दुनिया 

तो क्यों खेलती उसकी अस्मत से दुनिया 


ज़रा   चूलें   हिलती   सुनायी   तो   देतीं 

चलेगी  अभी  कुछ   मरम्मत  से  दुनिया


तो घिर आये फिर  जंग के  काले बादल

जो निकली बला की  मुसीबत से दुनिया


कहीं  बाढ़  है  तो   कहीं  पर   है  सूखा 

वे कहते हैं  फिर भी  है राहत से  दुनिया


हुकूमत  को  हर  एक  शायर  से  डर है 

बिगड़ जायेगी उनकी सोहबत से दुनिया


अगर पास  है कुछ  तो मिल बाँट लें सब

रहेगी   सभी   की   दयानत  से   दुनिया 


कटें   बेड़ियाँ   सब    हटें   बंदिशें   अब

जुड़े  धड़कनों  की   बग़ावत  से  दुनिया


दिलों  से  अगर  दिल  मिलें   तो  चलेगी

न दहशत न वहशत न नफ़रत से दुनिया


भरे   सपने   सच   रोशनी   और   पानी

इन आँखों के मिलने की चाहत से दुनिया 


ज़हीनों   पे   ही  अब   भरोसा   नहीं  हैं

रखेंगे   दिवाने    हिफ़ाज़त   से   दुनिया


न  रोके   किसी   के   ये    बच्चे    रुकेंगे 

बढ़ेगी   इन्हीं   की    शरारत  से   दुनिया


बचा  रखना   'अनिमेष'   मासूम  बचपन 

सिहरती   सयानी   ज़हानत   से   दुनिया 

                         💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*                   



*4* 


*सहर कहाँ*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                         🌿

शबे ग़म  बता है  सहर  कहाँ

यूँ घिरी  अँधेरों  में  कहकशां


कहाँ  हाथों  में  कोई  हाथ है

कई    मंज़िलें   कई   कारवां


न  जुटा  मिटाने  के  असलहे

तेरे पास तो है  बस इक जहां


सरे आम  होंठों पे  होंठ  रख

मुझे   दर्द  कर  गया   बेज़ुबां


ये दो  मिसरे  चूम के  जोड़ दे

कहीं लब पे ना कहीं दिल में हाँ


यहाँ   इश्तेहारों  से   इश्क़  हैं

मेरा प्यार  अच्छा  यूँ ही  निहां


जहाँ   बहरी   बहरी  अदालतें

वहाँ  अनकहा  ही  हरेक बयां


कभी  बन सकेंगी  सदा कोई 

ये जो चुप्पियाँ ये जो सिसकियाँ


कभी फ़ासलों में  भी पास था

अभी  क़ुर्बतों  में  भी   दूरियाँ


जहाँ जा  सका  न कभी कोई 

मुझे ले के चल  ऐ क़लम वहाँ


है ज़रूरी  जाना  तो  जा मगर

ज़रा कह ले सुन तो  ले दास्तां


'अनिमेष' पहली किलक ग़ज़ल 

नयी  ज़िंदगी  की  कहां  कहां

                         🌱

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*



*5*


*साथ यहाँ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                           💟

माहताब   आफ़ताब    साथ  यहाँ 

धड़कें सच और ख़्वाब  साथ यहाँ


होंठों  पर  होंठ  रख के  सुन लेना

सब सवाल और जवाब साथ यहाँ


दिल की दुनिया  नहीं हसीं  यूँ ही

दफ़्न   सारे   अज़ाब   साथ  यहाँ


शहर  से   है  बड़ा   कहाँ   सहरा

रखना आँखों का आब साथ यहाँ


सोच  में  है  ख़ुदा  भी  जन्नत  भी

लाया  कौन  इनक़लाब  साथ यहाँ


क़ब्र   में    चैन   से    कटेंगे   दिन 

ज़िंदगी  की   किताब   साथ  यहाँ


भूलेगी   कैसे   ये  गली  'अनिमेष'

थे  बुने  कितने  ख़्वाब  साथ यहाँ

                          💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*



*6*


*घर कोई ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                       🏨                          

हो  सफ़र  मक़सद-ए-सफ़र  कोई

राह  आने  की   तकता  घर  कोई


एक  दर  हो  कि  दे  सकें  दस्तक 

चाहे    हो   रात   का   पहर  कोई


देखा   अकसर   है   धूपराहों   पर

ले के  चलता है   इक शजर  कोई


रिश्ते  रखिये   मगर  नहीं   उम्मीद 

साथ   देगा   न   उम्र   भर   कोई 


छोड़  कर   ये   जहां   चले  जाना

इससे   बेहतर  मिले  अगर  कोई 


टूट    जाता     कोई    थपेड़ों   से 

और  जाता   निखर   सँवर   कोई  


लब से लब जोड़  शायद आ जाये

इन  दुआओं   में  भी  असर कोई


जान  कर  भी  कहे  किसे औरत

आदमी   में    है    जानवर   कोई


लौट कर  आज   जो   नहीं  आया 

हो  न जाये  वो  कल  ख़बर  कोई  


जाना तो सबको  एक दिन लेकिन 

ऐसे   जाये   न   छोड़  कर   कोई 


ख़ाक मिल जाती  ख़ाक में आख़िर 

जाता   'अनिमेष'  है   किधर  कोई 

                         💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*



*7*


*आज वो है ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                          💝

आज    वो   है    यही   ग़नीमत   है

अब   मुहब्बत  में  भी  सियासत  है


दिल  ये   टूटा  ही  काम  आ जाता

इसकी    होती   कहाँ   मरम्मत  है


भर  के   उभरे   यूँ   ही  नहीं  सीने

रोज़ इस घर में  दुख की  बरकत है


क्योंकि  इसको   बनाती  है  औरत

ज़िंदगी      इतनी     ख़ूबसूरत    है


और  भी   झलके    जो   अँधेरे   में 

ऐसी    चाहत  की   ये   इबारत  है


बंदिशें    प्यार   पर  ही   हैं   सारी

फिरती आज़ाद  कितनी नफ़रत है


हो   गयी  है   बहुत  बड़ी   दुनिया 

खोयी  बच्चों  की   हर  शरारत  है


मंदिरों   मस्जिदों   को    रहने  दो

मेल   रखना  भी  इक  इबादत  है  


हाँ  हिमाक़त है  शायरी  इस वक़्त 

इस  हिमाक़त  की ही  ज़रूरत  है 


पढ़ के औरों को भी सुना 'अनिमेष'

ज़िंदगी  क्या है   इक  खुला ख़त है

                        💔

                        ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                 


*8*


*अजनबी शहर है ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                         💝

अजनबी  शहर  है   किधर  जाऊँ 

दर   खुले  कोई   तो  ठहर  जाऊँ  


आज की  रात  रख ले  आँखों  में 

तेरे   सपने   तो   देख  कर   जाऊँ


जैसे    परसें    हवायें    पानी   को 

तुझको  छूकर  यूँ  ही  गुज़र जाऊँ


होंठों  पर  आँच  अपने  होठों  की 

रख अगर दे  तो सच में  तर जाऊँ 


राह    तकना   न   देर   होने   पर

चाहा तो  था  कि  बोल कर  जाऊँ


हाथ  पहुँचे न  जिनके  दामन  तक

उनकी पलकें ही कुछ तो भर जाऊँ 


इस  तरह  मत  सहेज कर  रखना

तेरे   जाते    बिखर   बिखर  जाऊँ


जिससे मिलना है  वो तो मुझमें ही

किसलिए  फिर  इधर  उधर  जाऊँ 


इतनी   ऊँचाई  दे   मुझे  ऐ  दोस्त

टूटकर   हर  तरफ़   बिखर   जाऊँ 


चाँद    सूरज    पुकारती   थी   माँ 

ले    उजाला    हरेक    घर   जाऊँ 


दिल  हूँ   वो  सोना   चाहता   होना 

और   हर  चोट  से   निखर  जाऊँ


कौन    अपना    है    धूपराहों   में 

साथ  लेकर   कोई   शजर   जाऊँ  


हो    रही    शाम     लौटते    पंछी 

घर  कहीं  हो  अगर तो  घर जाऊँ 


शायरी  हूँ   मैं   प्यार  का  ख़त  हूँ 

हो  न  अख़बार  की   ख़बर  जाऊँ


धड़कूँ   जीवन   के   पन्ने  पन्ने  पर 

बस  सियाही सा  मत बिसर जाऊँ


वक़्त  के  काटे   कटने  के  पहले 

पकती फ़सलों सा झूम कर  जाऊँ 


मेरे  पीछे  भी  तुझको   देखा  करें 

दे  किसी  को  तो  ये  नज़र  जाऊँ


तू  कहीं भी  हो  ज़िंदगी  'अनिमेष'

सोच  कर   मैं  तुझे   सँवर   जाऊँ                                         

                          💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*

           


*9*


*कहाँ से ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                          💝

चार   काँधे   कहाँ  से  आयेंगे

इतने  अपने  कहाँ  से  आयेंगे


सब  यहाँ  तो  गिराने  वाले  हैं

तब   उठाने   कहाँ  से  आयेंगे


प्यार  गहरा न हो  तो मेंहदी के

रंग   पक्के   कहाँ  से   आयेंगे


ज़िंदगी   झूठ  की   गुज़ार  रहे

लफ़्ज़   सच्चे   कहाँ   से   आयेंगे


शहर बस सिगनलों में ही है हरा

फिर   परिंदे   कहाँ  से  आयेंगे


टूट  जायें  भी  तो  नहीं  चटकें

ऐसे   धागे    कहाँ   से   आयेंगे


रिश्ते   इनसान   ही  बनाते  हैं 

अब  फ़रिश्ते  कहाँ  से  आयेंगे


हैं बशर जैसे  उनको अपना लो 

सारे   अच्छे   कहाँ   से  आयेंगे


इस क़दर सच से भर गयीं पलकें 

इनमें   सपने   कहाँ  से  आयेंगे


इतने   माँ  बाप  जब  सयाने  हैं

भोले   बच्चे   कहाँ   से   आयेंगे


दिल ही जब है नहीं तो फिर 'अनिमेष'

दिल  के  रिश्ते  कहाँ  से  आयेंगे

                          💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*



*10*


*फिर भी*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                            🌿

फिर भी सच का  साथ निभाना

चाहे     कहे     कोई     दीवाना 


अपनी   राह  पे   बढ़ते   जाना

आये   साथ    जिसे   है  आना


प्यार  भले ही  भूल  या  ग़लती

ये  ग़लती   फिर  फिर  दुहराना


तिनका तिनका जोड़ ले चुन के

आशियां  पिंजरे  को  न बनाना


इक लब पर  ना  है इक पर  हाँ

चाहत   है   दोनों  को  मिलाना


कोई  बहाना   कर  के  आ  जा

जाते    चलेगा    कौन   बहाना


छूआछूत  हो  क्यों   उल्फ़त  में

नज़रों   का   ही   रहे  नज़राना 


इससे  पहले  तो   कुछ  कर ले

इक  दिन  होगा  सबको  जाना


उसका  भी  तो  हक़ है  अपना

तूने    जिसको    अपना   माना


झूठ   की  भीड़  जुटाने  से  तो

अच्छा  अकेले   ही   रह  जाना


करना  हिफ़ाज़त अपने गले की 

सबके  लिए   आवाज़   उठाना


नेकियाँ  लौटेंगी  फिर तुझ तक

सोच  के  ये  काँधा  न  लगाना


जीवन नाम है जिस चिड़िया का

मौत  तलक  है   किसने  जाना


भूल न सकता  उसको  'अनिमेष'

भूलूँ    भले   अपना   सिरहाना

                         🌱

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*      

                    


*11*


*माँ आ ही जाती है ...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                       ✡️                         

सच  के  आँसू  पीती  सपनों  में  मुसकाती  है

कुछ भी लिखता हूँ उसमे  माँ  आ ही जाती है 


साँझ  सवेरे   नेह  भरे  जो   दिये   जलाती  है 

किसे पता  ये बात  कि वो ख़ुद उसकी बाती है


हद  जब हो  जाये तो  धरती भी  फट जाती है 

सब कुछ  सह लेती है जो  औरत की छाती है 


नाम लिये बिन नाम किसी के जीवन कर देना

ऐसी  मुहब्बत  और  कहाँ पर  पायी  जाती है


कितनी भूख उदासी कितना दर्द है क्या मालूम 

सुबह सवेरे जग कर  जो हर चिड़िया  गाती है 


साँसों में  जो  बसते थे  अब  कितनी  दूर हुए 

उनकी  ख़ैर ख़बर  जब तब    पुरवाई  लाती है 


खींच रही कुछ पकने की  सोंधी सोंधी ख़ुशबू 

खेल रहे  बच्चों  को  माँ  घर  यूँ ही  बुलाती है 


कुछ भी छुपाना इसको तो आया ही नहीं अब तक

नागर  बड़ा नगर  और  अपना  दिल देहाती है


कितने   अच्छे   कितने  सच्चे   हैं  अपने  बच्चे 

नींद  में  अकसर  बाबूजी  से  माँ  बतियाती है


नाम  न लें  चाहे  बच्चे  पर  नाम  कमाते  ख़ूब

सोच यही  छाती  गज़ भर  चौड़ी  हो  जाती  है 


जो भी मिला है हमको उन पुरखों के पसीनों से

अपने पास  'अनिमेष' जो इन छौनों की थाती है

                         💔

                         ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*     

                   


*12*

                        

*बाबूजी की बातें...*

                           ~ *प्रेम रंजन अनिमेष*

                        🌳    

अब भी   खेतों  खलिहानों  में   बाबूजी  की  बातें 

गूँजा   करती   हैं   कानों   में   बाबूजी  की  बातें 


सुबह  सवेरे  चहके  चिड़िया  ये ही  बतलाने  को

सरगम  की   सारी   तानों  में   बाबूजी  की  बातें 


मिट्टी के हैं  हर्फ़  कहीं पर  और  पानी की  पाती

मिलती   किन  तानों  बानों  में  बाबूजी  की  बातें 


सिखवन समझावन मीठी झिड़की और डाँट कड़ी सी

कैसे    कैसे    परिधानों   में    बाबूजी  की   बातें 


अनजाने   रस्तों  पर   जैसे    पहचानी   मुसकानें 

भीड़ों   के    इन  वीरानों  में   बाबूजी   की   बातें 


भूखे  रहते  बच्चों  की  ख़ातिर   जब   रातें  जगते 

याद  आतीं  उन  बलिदानों  में  बाबूजी  की  बातें 


जो भी मिला जीवन में वो ही सिखलाता जीना भी

ऐसे   ही   कुछ   वरदानों   में   बाबूजी  की  बातें 


और ख़ज़ाने  औरों की  ख़ातिर  पर  मेरे  लिए तो

इस  धरती  के   धन धानों  में   बाबूजी  की  बातें 


हौसले को पतवार बनातीं और हिम्मत की कश्ती 

बीच  भँवर   और  तूफ़ानों  में   बाबूजी  की  बातें 


बँटते  बँटते  बँटवारों  में   रह पाता  क्या  कितना

जाने  कहाँ  किन  सामानों  में   बाबूजी  की  बातें 


अब भी कितने हैं जो  उनके नाम से  जानें हमको

दर्ज़  समय  की   पहचानों  में   बाबूजी  की  बातें  


हम जो  न कर पायें  वो अपने बच्चे  ज़रूर करेंगे 

धड़कें   हमारे   अरमानों   में    बाबूजी  की  बातें 


अम्मा अपनी कहानी कह ना तुझको भी कुछ समझें 

तेरे   सारे   अफ़सानों    में     बाबूजी    की   बातें 


इक  दीवाने  ने    कितने   दीवान   रचे   देखो  तो

और   सारे   ही   दीवानों   में    बाबूजी  की   बातें 


कविता  ग़ज़लें  गीत  कहानी  नाटक  याद-दहानी 

कितने    सारे    उन्वानों   में    बाबूजी   की   बातें 


कौन  फ़रिश्ता  शायर कैसा  मैं तो  बस  करता हूँ 

इनसानों    से    इनसानों   में    बाबूजी  की   बातें 


होंगे कहीं क्या हो के नहीं भी कल हम तुम ऐसे ही 

जैसे    अपनी    संतानों    में    बाबूजी   की   बातें  


कोई गीता ज्ञान कहाँ बस अपने लिए तो  'अनिमेष'

जीवन   के   इन   मैदानों   में    बाबूजी   की  बातें 

                       

   ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*



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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

पृथ्वीराज चौहान की शौर्य गाथा

 *मत चूको चौहान*


वसन्त पंचमी का शौर्य


*चार बांस, चौबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण!*

*ता उपर सुल्तान है, चूको मत चौहान!!* 


वसंत पंचमी का दिन हमें "हिन्दशिरोमणि पृथ्वीराज चौहान" की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी इस्लामिक आक्रमणकारी मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ बंदी बनाकर काबुल  अफगानिस्तान ले गया और वहाँ उनकी आंखें फोड़ दीं।


पृथ्वीराज का राजकवि चन्द बरदाई पृथ्वीराज से मिलने के लिए काबुल पहुंचा। वहां पर कैद खाने में पृथ्वीराज की दयनीय हालत देखकर चंद्रवरदाई के हृदय को गहरा आघात लगा और उसने गौरी से बदला लेने की योजना बनाई। 


चंद्रवरदाई ने गौरी को बताया कि हमारे राजा एक प्रतापी सम्राट हैं और इन्हें शब्दभेदी बाण (आवाज की दिशा में लक्ष्य को भेदनाद्ध चलाने में पारंगत हैं, यदि आप चाहें तो इनके शब्दभेदी बाण से लोहे के सात तवे बेधने का प्रदर्शन आप स्वयं भी देख सकते हैं। 


इस पर गौरी तैयार हो गया और उसके राज्य में सभी प्रमुख ओहदेदारों को इस कार्यक्रम को देखने हेतु आमंत्रित किया।


पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पहले ही इस पूरे कार्यक्रम की गुप्त मंत्रणा कर ली थी कि उन्हें क्या करना है। निश्चित तिथि को दरबार लगा और गौरी एक ऊंचे स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ बैठ गया। 


चंद्रवरदाई के निर्देशानुसार लोहे के सात बड़े-बड़े तवे निश्चित दिशा और दूरी पर लगवाए गए। चूँकि पृथ्वीराज की आँखे निकाल दी गई थी और वे अंधे थे, अतः उनको कैद एवं बेड़ियों से आजाद कर बैठने के निश्चित स्थान पर लाया गया और उनके हाथों में धनुष बाण थमाया गया।


इसके बाद चंद्रवरदाई ने पृथ्वीराज के वीर गाथाओं का गुणगान करते हुए बिरूदावली गाई तथा गौरी के बैठने के स्थान को इस प्रकार चिन्हित कर पृथ्वीराज को अवगत करवाया


‘‘चार बांस, चैबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण।

ता ऊपर सुल्तान है, चूको मत चौहान।।’’


अर्थात् चार बांस, चैबीस गज और आठ अंगुल जितनी दूरी के ऊपर सुल्तान बैठा है, इसलिए चौहान चूकना नहीं, अपने लक्ष्य को हासिल करो।


इस संदेश से पृथ्वीराज को गौरी की वास्तविक स्थिति का


आंकलन हो गया। तब चंद्रवरदाई ने गौरी से कहा कि पृथ्वीराज आपके बंदी हैं, इसलिए आप इन्हें आदेश दें, तब ही यह आपकी आज्ञा प्राप्त कर अपने शब्द भेदी बाण का प्रदर्शन करेंगे। 


इस पर ज्यों ही गौरी ने पृथ्वीराज को प्रदर्शन की आज्ञा का आदेश दिया, पृथ्वीराज को गौरी की दिशा मालूम हो गई और उन्होंने तुरन्त बिना एक पल की भी देरी किये अपने एक ही बाण से गौरी को मार गिराया।


गौरी उपर्युक्त कथित ऊंचाई से नीचे गिरा और उसके प्राण पंखेरू उड़ गए। चारों और भगदड़ और हाहाकार मच गया, इस बीच पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार एक-दूसरे को 

कटार मार कर अपने प्राण त्याग दिये।


*"आत्मबलिदान की यह घटना भी 1192 ई. वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।"*


*ये गौरवगाथा अपने बच्चों को अवश्य बताईये*

बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

रेणु संदर्भ भारत यायावर / विजय केसरी

 एक लेखक सतत विरोध झेल कर भी गतिशील रहता है/ विजय केसरी 


प्रख्यात साहित्यकार कवि, संपादक, आलोचक भारत यायावर ने महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु के संपूर्ण लेखकीय जीवन को आधार बनाकर लेखकों के संदर्भ में एक बड़ी बात कही थी। उन्होंने दर्ज किया था कि 'रेणु की जीवनी का सबसे प्रेरक तत्व यह है कि कैसे एक लेखक पद और लिप्सा से विरत रहकर रत रहता है और नित नूतन संधान में लगा रहता है। लेखक भौतिक उपलब्धियों को ठुकरा कर रचनाशीलता को ही अपना जीवन सौंप देता है और सतत विरोध झेल कर भी गतिशील रहता है।" उपरोक्त दो वाक्यों के माध्यम से भारत यायावर ने यह बताने की कोशिश की थी कि एक लेखक सतत विरोध झेल कर भी गतिशील रहता है। लेखक कोई बाहर के व्यक्ति नहीं होता है बल्कि हमारे ही आसपास रहता है। वह हमारे दैनंदिन जीवन के सुख - दुख को ही आधार बनाकर अपनी कहानियों और कविताओं में बातों को दर्ज करता है। वह हमारे रहन -सहन, भाषा, रीति - रिवाज, संस्कृति  को गहराई से अध्ययन कर कुछ ऐसा रच डालता हैं, जिसे हम सब उनकी कृति  को पढ़े बिना नहीं रह पाते हैं। उनकी कृति में गहरी अर्थवत्ता छुपी रहती है। गहरा संदेश होता है। उनकी कृति समाज को संघर्ष करने की एक नई ऊर्जा प्रदान करती है।

 एक लेखक के गहरे अनुसंधान के बाद रचना के रूप में चंद पंक्तियां उत्पन्न होती हैं। यही कारण है कि इन पंक्तियों की गूंज सदियों तक बनी रहती हैं। यह तभी संभव हो पाता है, जब लेखक पूरी तन्मयता के साथ अपनी साधना में रत होता है।  इस संदर्भ में यह विचार करना  जरूरी हो जाता है कि एक लेखक और आम आदमी में क्या फर्क है ? उदाहरण स्वरूप एक दृश्य को सभी लोग देखते जरूर हैं, लेकिन उसी दृश्य को  एक लेखक  अपने वैचारिक दृष्टिकोण से देखता है। वह उस पर गंभीरता से विचार करता है।  उस दृश्य के कारणों तक जाता है। उस दृश्य के मर्म,  पीड़ा और संवेदना को समझने की कोशिश करता है। तब वह लेखक कुछ पंक्तियों में अपनी बातों को प्रस्तुत कर पाता है। वह दृश्य उस लेखक को वैचारिक रूप से झकझोर कर रख देता है। उस लेखक के मन में कई तरह की बातें उठती हैं। वह गहन शोध में रत हो जाता है । यही भूमिका उसे आम आदमी से अलग करता है। आम आदमी के लिए वह दृश्य एक सामान्य घटना के समान होती है।

  भारत यायावर  ने रेणु के माध्यम से यह बताने की कोशिश की  कि कैसे एक लेखक पद और लिप्सा से विरत रहकर अपनी लेखकीय साधना में रत रहता है। अगर लेखक पद और धन की लिप्सा में दौड़ना प्रारंभ कर दे, तो वह अपनी लेखकीय साधना से विरत हो जाता है।  ऐसी परिस्थिति में वह चाह कर भी महत्वपूर्ण रचनाओं को उत्पन्न नहीं कर पाता है। एक लेखक की रचना समाज के लिए कितना महत्वपूर्ण है ? यह बड़ा सवाल है। कई लेखक गण निरंतर लिख रहे हैं। लेकिन उनकी रचनाएं  समाज में कोई असर पैदा कर नहीं पा रही हैं । ऐसा क्यों ? इस सवाल पर समाज के बुद्धिजीवियों को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

   उसी लेखक की रचना महत्वपूर्ण होती है, जो समाज को एक नई दिशा व रौशनी प्रदान कर सके। महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य की साधना में बीता था।  अगर रेणु चाहते तो कई सरकारी पदों पर विराजमान हो सकते थे।  उनकी प्रसिद्धि देश और देश के बाहर तक  फैली हुई थी। वे धन का अंबार लगा सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया था। उन्होंने  कलम की साधना को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। वे  जीवन के अंतिम क्षणों तक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते ही रहे थे। वे नित  नूतन संधान में रत होते थे। तभी उनकी रचनाएं कालजई बन पाई।

    आज की बदली परिस्थिति में अधिकांश लोगों एवं  लेखकों की  पद प्राप्ति और कई पीढ़ियों के लिए धन संग्रह करने की लालसा ने समाज का रूप ही बदल कर रख दिया है। क्या पद, धन और विलासिता  के बीच  कोई  लेखक अपनी लेखकीय संवेदना को बनाए रख सकता है ? यह यक्ष प्रश्न है। धन के पीछे भागने वाला लेखक क्या धन के अभाव को समझ सकता है ? क्या  पद पर आसीन वह लेखक गरीब, असहाय, मजबूर, बेसहारा दलित लोगों की पीड़ा को महसूस कर सकता है ? क्या विलासिता का जीवन जीने वाला  लेखक समाज में घट रही घटनाओं पर निष्पक्ष होकर रचना कर्म कर सकता है ?

     भारत यायावर ने अपनी पंक्तियों के माध्यम से यह बताने की कोशिश की कि एक लेखक का जीवन सिर्फ और सिर्फ साहित्य साधना में रत होना चाहिए । पद, धन और विलासिता का जीवन उनके स्वतंत्र विचार व संवेदना के पंखों को कतर कर रख देता है।  देश के महान कवि निराला जी ने इलाहाबाद एक मोड़ पर  तपती धूप में एक महिला को पत्थर को तोड़ते हुए देखा था । उसके बाद कुछ पंक्तियां उनकी कलम से पैदा होती है। यह पंक्तियां कालजई बन जाती है । यह उनकी सतत साधना का प्रतिफल था। आज भी उनकी पंक्तियां पढ़ी जाती है । उनकी पंक्तियों में  पसीने से लथपथ, पत्थर तोड़ती महिला की तस्वीर साफ उभर कर सामने आ जाती है।

      फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियां  समय के साथ संवाद करती नजर आती है । उनकी कहानियों  जितनी बार भी पढ़ी जाती है ,  कुछ न कुछ नूतन विचार प्रकट होते रहते हैं।  कई नई बातें निरंतर उभरकर सामने आती रहती है । यह इसलिए हो पाता है कि रेणु  पद और लिप्सा से पूरी तरह विरत होकर अपनी साहित्य साधना में रत थे ।   एक लेखक का जीवन कैसा होना चाहिए ? इस विषय पर यायावर ने बहुत ही मंथन के बाद यह दर्ज किया कि एक लेखक को भौतिक उपलब्धियों से मुक्त होना चाहिए और रचनाशीलता को ही अपना जीवन सौंप देना चाहिए । तभी कुछ बातें उत्पन्न होती है। अगर  लेखक भौतिक उपलब्धियों को ही बटोरने में लगा रहेगा, तब वह चाह कर भी लेखकीय साधना से रत नहीं हो पाएगा। लेखक का जीवन सहज, सरल और संवेदना से भरी होनी चाहिए । 

      फणीश्वर नाथ रेणु की तमाम रचनाएं एक नई बात कहती नजर आती हैं। एक नया संदेश देता नजर आता है। उनका व्यक्तिगत जीवन बहुत ही सहज  और सरल था। उनका जीवन कभी भी भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने में नहीं लगा ।   फणीश्वर नाथ रेणु अपना संपूर्ण जीवन रचनाशीलता को समर्पित कर दिया था। भारत यायावर नए लेखकों को फणीश्वर नाथ रेणु के माध्यम से यह बताना चाहते थे कि चंद रचनाएं लिख कर, छप कर कोई महान लेखक नहीं बन सकता है। उन्होंने साफ शब्दों में दर्ज किया कि एक लेखक सतत विरोध झेल कर भी साहित्य साधना में रत रहता है। 

  अब विचारणीय बात यह है कि आज के लेखक कितना विरोध झेल कर अपनी साधना में रत हैं ?  थोड़ी सी परेशानी आने पर कई भाग खड़े होते हैं । क्या रेणु  अपनी परेशानियों से कभी भागे ? अगर वे भाग खड़े होते तो उनकी रचनाएं समय से संवाद करती नजर नहीं आती। लेखक का जीवन निश्चित तौर पर सतत विरोध झेल कर भी साधना में रत रहने वाला होता है । तभी वह कुछ महत्वपूर्ण रच पाता है। आज की बदली परिस्थिति में जहां चंहुओर  लोग धन के पीछे भाग रहे हैं। पद के पीछे भाग रहे हैं । भाई भतीजावाद के पीछे भाग रहे हैं । समाज जाए भाड़ में । 

   इन विषम परिस्थितियों में एक सच्चे लेखक का उत्पन्न होना भी अपने आप में बड़ी बात है । मैंने पूर्व में दर्ज किया है कि लेखक हमारे ही समाज के बीच के होते हैं । जब सब लोग धन और पद के पीछे भाग रहे हैं, तो कैसे कोई  खुद को इन विकृतियों से बचा पाएगा । इन्हीं  परिस्थितियों और लोगों के बीच एक सच्चा लेखक जन्म लेता है, जो भौतिक उपलब्धियों को ठुकरा कर रचनाशीलता को ही अपना जीवन सौंप देता है। वह लेखक सतत विरोध झेल कर भी वह  गतिशील रहता है।


विजय केसरी

(कथाकार / स्तंभकार),

पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301

मोबाइल नंबर : 92347 99550,

गुरुवार, 9 जनवरी 2025

निंदा का फल"


प्रस्तुति - कृष्ण मेहता 


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एकबार की बात है की किसी राजा ने यह फैसला लिया के वह प्रतिदिन 100 अंधे लोगों को खीर खिलाया करेगा !


एकदिन खीर वाले दूध में सांप ने मुंह डाला और दूध में विष डाल दी और ज़हरीली खीर को खाकर 100 के 100 अंधे व्यक्ति मर गए !

राजा बहुत परेशान हुआ कि मुझे 100 आदमियों की हत्या का पाप लगेगा ! राजा परेशानी की हालत में अपने राज्य को छोड़कर जंगलों में

भक्ति करने के लिए चल पड़ा ताकि इस पाप की माफी मिल सके !


रास्ते में एक गांव आया ! राजा ने चौपाल में बैठे लोगों से पूछा कि क्या इस गांव में कोई भक्ति भाव वाला परिवार है ? ताकि उसके घर रात काटी जा सके !


चौपाल में बैठे लोगों ने बताया कि इस गांव में दो बहन भाई रहते है जो खूब बंदगी करते है !राजा उनके घर रात ठहर गया !


सुबह जब राजा उठा तो लड़की सिमरन पर बैठी हुई थी ! इससे पहले लड़की का रूटीन था की वह दिन निकलने से पहले ही सिमरन से उठ जाती थी और नाश्ता तैयार करती थी ! लेकिन उस दिन वह लड़की बहुत देर तक सिमरन पर बैठी रही !


जब लड़की सिमरन से उठी तो उसके भाई ने कहा कि बहन तू इतना लेट उठी है अपने घर मुसाफिर आया हुआ है !


इसने नाश्ता करके दूर जाना है तुझे सिमरन से जल्दी उठना चाहिए था !


तो लड़की ने जवाब दिया कि भैया ऊपर एक ऐसा मामला उलझा हुआ था !


धर्मराज को किसी उलझन भरी स्थिति पर कोई फैसला लेना था और मैं वो फैसला सुनने के लिए रुक गयी थी इसलिए देर तक बैठी रही सिमरन पर ?


उसके भाई ने पूछा ऐसी क्या बात थी तो लड़की ने बताया कि फलां राज्य का राजा अंधे व्यक्तियों को खीर खिलाया करता था ! लेकिन सांप के दूध में विष डालने से 100 अंधे व्यक्ति मर गए !

अब धर्मराज को समझ नही आ रही कि अंधे व्यक्तियों की मौत का पाप राजा को लगे सांप को लगे या दूध नंगा छोड़ने वाले रसोईए को लगे !


राजा भी सुन रहा था ! राजा को अपने से संबंधित बात सुन कर दिलचस्पी हो गई और उसने लड़की से पूछा कि फिर क्या फैसला हुआ ?


लड़की ने बताया कि अभी तक कोई फैसला नही हो पाया था !


राजा ने पूछा कि क्या मैं आपके घर एक रात के लिए और रुक सकता हूं ?


दोनों बहन भाइयों ने खुशी से उसको हां कर दी !

राजा अगले दिन के लिए रुक गया, लेकिन चौपाल में बैठे लोग दिन भर यही चर्चा करते रहे कि ....


कल जो व्यक्ति हमारे गांव में एक रात रुकने के लिए आया था और कोई भक्ति भाव वाला घर पूछ रहा था ?


उस की भक्ति का नाटक तो सामने आ गया है ! रात काटने के बाद वो इस लिए नही गया क्योंकि जवान लड़की को देखकर उस व्यक्ति की नियत खोटी हो गई !


इसलिए वह उस सुन्दर और जवान लड़की के घर पक्के तौर पर ही ठहरेगा या फिर लड़की को लेकर भागेगा !


दिनभर चौपाल में उस राजा की निंदा होती रही !


अगली सुबह लड़की फिर सिमरन पर बैठी और रूटीन के टाइम अनुसार सिमरन से उठ गई !

राजा ने पूछा .... "बेटी अंधे व्यक्तियों की हत्या का पाप किसको लगा ?"


लड़की ने बताया कि .... "वह पाप तो हमारे गांव के चौपाल में बैठने वाले लोग बांट के ले गए !"


निंदा करना कितना घाटे का सौदा है ! निंदक हमेशा दुसरों के पाप अपने सर पर ढोता रहता है ! और दूसरों द्वारा किये गए उन पाप- कर्मों के फल को भी भोगता है ! अतः हमें सदैव निंदा से बचना चाहिए !

             

भक्त कबीर जी ने कहा है ....


जन कबीर को नींद सार !

निंदक डूबा हम उतरे पार !!

मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

साहित्य के माध्यम से कौशल विकास ( दक्षिण भारत के साहित्य के आलोक में )

 14 दिसंबर, 2024


केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के हैदराबाद केंद्र केंद्रीय हिंदी संस्थान हैदराबाद 


साहित्य के माध्यम से मूलभूत कौशल विकास (दक्षिण भारत के साहित्य के विशेष संदर्भ में) 


(संगोष्ठी का उद्घाटन सत्र) 


इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रो सुनील बाबुराव कुलकर्णी ने कहा कि साहित्य को व्यापक दायरे में विश्लेषित करना चाहिए और उसके माध्यम से श्रवण, पठन, वाचन और लेखन कौशल के साथ साथ अभिव्यक्ति, प्रबंधन और संवाद कौशलों को भी विकसित करना चाहिए। समय समय पर साहित्य का पूनर्मूल्यांकन आवश्यक है। 


मुख्य वक्ता प्रो आर एस सर्राजु, केंद्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद ने यह कहा कि नई शिक्षा नीति के अनुरूप हमें कौशल विकास की ओर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि जीवन के सभी आयामों पर कौशल विकास होता है।


इस संगोष्ठी के बीज बोते हुए मानू के परामर्शी प्रो ऋषभदेव शर्मा Rishabha Deo Sharma ने कहा कि कौशल विकास को दो तरह से बाँटा जा सकता है - हार्ड स्किल्स और सॉफ्ट स्किल्स। हार्ड स्किल्स में तकनीकी और ज्ञानात्मक साहित्य आता है, जबकि सॉफ्ट स्किल्स में संप्रेषण, भाषा, व्यक्तित्व विकास, मूलभूत कौशल, जीवन प्रबंधन और विशेष रूप से इन सबकी ललित साहित्य के माध्यम से सिद्धि आती है। आगे उन्होंने इनको चार वर्गों में बाँटा है -

1. संचार कौशल ; भाषा और संप्रेषण (ये ही मूलभूत कौशल हैं। भाषा और संप्रेषण के विकास में साहित्य की भूमिका पर विचार करना होगा) 

2. नेतृत्व कौशल : व्यक्तित्व विकास और सार्वजनिक जीवन 

3. प्रबंधन कौशल : समय प्रबंधन, तनाव प्रबंधन, अवसर और आपदा प्रबंधन 

4. जीवन कौशल : सामंजस्य और अनुकूलन कौशल 


काव्यशास्त्र के हवाले प्रो ऋषभदेव शर्मा ने अभिव्यक्ति कौशल को रेखांकित किया है। 


इस अवसर पर कार्यक्रम के संयोजक क्षेत्रीय निदेशक प्रो गंगाधर वानोडे ने संगोष्ठी के मूल उद्देश्य को स्पष्ट किया तथा सह संयोजक डॉ फ़त्ताराम नायक (सहायक प्रोफेसर) ने सबका स्वागत किया। 


सत्र का संचालन डॉ सुषमा देवी ने किया।

रविवार, 15 दिसंबर 2024

दूसरा मिसरा ही नामी हो गया

 ऐसे बहुत से शायर हैं, जिनका दूसरा मिसरा इतना मशहूर हुआ कि लोग पहले मिसरे को तो भूल ही गये। ऐसे ही चन्द उदाहरण यहाँ पेश हैं:



"ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है,

*वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है।*"

 

*- मिर्ज़ा रज़ा बर्क़*

 

"भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया,

*ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं।"*

 

*- माधव राम जौहर*

 

"चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले,

*आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले।"*

 

*- मिर्ज़ा मोहम्मद अली फिदवी*

 

"दिल के फफूले जल उठे सीने के दाग़ से,

*इस घर को आग लग गई,घर के ही चराग़ से।"*

 

*- महताब राय ताबां*

 

"ईद का दिन है, गले आज तो मिल ले ज़ालिम,

*रस्म-ए-दुनिया भी है,मौक़ा भी है, दस्तूर भी है।"*

 

*- क़मर बदायुनी*

 

"क़ैस जंगल में अकेला ही मुझे जाने दो,

*ख़ूब गुज़रेगी, जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।"*

 

*- मियाँ दाद ख़ां सय्याह*

 

'मीर' अमदन भी कोई मरता है,

*जान है तो जहान है प्यारे।"*

 

*- मीर तक़ी मीर*

 

"शब को मय ख़ूब पी, सुबह को तौबा कर ली,

*रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई।"*

 

*- जलील मानिकपूरी*

 

"शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी,

*कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को।"*

 

*- शैख़ तुराब अली क़लंदर काकोरवी*

 

"ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने,

*लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।"*

 

*- मुज़फ़्फ़र रज़्मी* 🌹🌹

डाकिया और अम्मा

 


"अम्मा!.आपके बेटे ने मनीआर्डर भेजा है।"

डाकिया बाबू ने अम्मा को देखते अपनी साईकिल रोक दी। अपने आंखों पर चढ़े चश्मे को उतार आंचल से साफ कर वापस पहनती अम्मा की बूढ़ी आंखों में अचानक एक चमक सी आ गई..

"बेटा!.पहले जरा बात करवा दो।"

अम्मा ने उम्मीद भरी निगाहों से उसकी ओर देखा लेकिन उसने अम्मा को टालना चाहा..

"अम्मा!. इतना टाइम नहीं रहता है मेरे पास कि,. हर बार आपके बेटे से आपकी बात करवा सकूं।"

डाकिए ने अम्मा को अपनी जल्दबाजी बताना चाहा लेकिन अम्मा उससे चिरौरी करने लगी..

"बेटा!.बस थोड़ी देर की ही तो बात है।"

"अम्मा आप मुझसे हर बार बात करवाने की जिद ना किया करो!"

यह कहते हुए वह डाकिया रुपए अम्मा के हाथ में रखने से पहले अपने मोबाइल पर कोई नंबर डायल करने लगा..

"लो अम्मा!.बात कर लो लेकिन ज्यादा बात मत करना,.पैसे कटते हैं।"

उसने अपना मोबाइल अम्मा के हाथ में थमा दिया उसके हाथ से मोबाइल ले फोन पर बेटे से हाल-चाल लेती अम्मा मिनट भर बात कर ही संतुष्ट हो गई। उनके झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान छा गई।

"पूरे हजार रुपए हैं अम्मा!"

यह कहते हुए उस डाकिया ने सौ-सौ के दस नोट अम्मा की ओर बढ़ा दिए।

रुपए हाथ में ले गिनती करती अम्मा ने उसे ठहरने का इशारा किया..

"अब क्या हुआ अम्मा?"

"यह सौ रुपए रख लो बेटा!" 

"क्यों अम्मा?" उसे आश्चर्य हुआ।

"हर महीने रुपए पहुंचाने के साथ-साथ तुम मेरे बेटे से मेरी बात भी करवा देते हो,.कुछ तो खर्चा होता होगा ना!"

"अरे नहीं अम्मा!.रहने दीजिए।"

वह लाख मना करता रहा लेकिन अम्मा ने जबरदस्ती उसकी मुट्ठी में सौ रुपए थमा दिए और वह वहां से वापस जाने को मुड़ गया। 

अपने घर में अकेली रहने वाली अम्मा भी उसे ढेरों आशीर्वाद देती अपनी देहरी के भीतर चली गई।

वह डाकिया अभी कुछ कदम ही वहां से आगे बढ़ा था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा..

उसने पीछे मुड़कर देखा तो उस कस्बे में उसके जान पहचान का एक चेहरा सामने खड़ा था।

मोबाइल फोन की दुकान चलाने वाले रामप्रवेश को सामने पाकर वह हैरान हुआ.. 

"भाई साहब आप यहां कैसे?. आप तो अभी अपनी दुकान पर होते हैं ना?"

"मैं यहां किसी से मिलने आया था!.लेकिन मुझे आपसे कुछ पूछना है।" 

रामप्रवेश की निगाहें उस डाकिए के चेहरे पर टिक गई..

"जी पूछिए भाई साहब!"

"भाई!.आप हर महीने ऐसा क्यों करते हैं?"

"मैंने क्या किया है भाई साहब?" 

रामप्रवेश के सवालिया निगाहों का सामना करता वह डाकिया तनिक घबरा गया।

"हर महीने आप इस अम्मा को भी अपनी जेब से रुपए भी देते हैं और मुझे फोन पर इनसे इनका बेटा बन कर बात करने के लिए भी रुपए देते हैं!.ऐसा क्यों?"

रामप्रवेश का सवाल सुनकर डाकिया थोड़ी देर के लिए सकपका गया!. 

मानो अचानक उसका कोई बहुत बड़ा झूठ पकड़ा गया हो लेकिन अगले ही पल उसने सफाई दी..

"मैं रुपए इन्हें नहीं!.अपनी अम्मा को देता हूंँ।"

"मैं समझा नहीं?"

उस डाकिया की बात सुनकर रामप्रवेश हैरान हुआ लेकिन डाकिया आगे बताने लगा...

"इनका बेटा कहीं बाहर कमाने गया था और हर महीने अपनी अम्मा के लिए हजार रुपए का मनी ऑर्डर भेजता था लेकिन एक दिन मनी ऑर्डर की जगह इनके बेटे के एक दोस्त की चिट्ठी अम्मा के नाम आई थी।"

उस डाकिए की बात सुनते रामप्रवेश को जिज्ञासा हुई..

"कैसे चिट्ठी?.क्या लिखा था उस चिट्ठी में?"

"संक्रमण की वजह से उनके बेटे की जान चली गई!. अब वह नहीं रहा।"

"फिर क्या हुआ भाई?" 

रामप्रवेश की जिज्ञासा दुगनी हो गई लेकिन डाकिए ने अपनी बात पूरी की..

"हर महीने चंद रुपयों का इंतजार और बेटे की कुशलता की उम्मीद करने वाली इस अम्मा को यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई!.मैं हर महीने अपनी तरफ से इनका मनीआर्डर ले आता हूंँ।"

"लेकिन यह तो आपकी अम्मा नहीं है ना?"

"मैं भी हर महीने हजार रुपए भेजता था अपनी अम्मा को!. लेकिन अब मेरी अम्मा भी कहां रही।" यह कहते हुए उस डाकिया की आंखें भर आई।

हर महीने उससे रुपए ले अम्मा से उनका बेटा बनकर बात करने वाला रामप्रवेश उस डाकिया का एक अजनबी अम्मा के प्रति आत्मिक स्नेह देख नि:शब्द रह गया.......


प्रेम रंजन अनिमेष की 12 ग़ज़लें*

  *प्रेम रंजन अनिमेष की 12 ग़ज़लें* 💌💌💌💌💌💌💌💌💌                             *1* *ख़ुशबू आती है ...*                            ~ *प्रे...