साहित्य
भारत यायावर
राजेन्द्र यादव अस्सी की उम्र पार करने के बाद भी साहित्य में सक्रिय हैं. कहानियाँ तो दो-चार वर्षों में एक-दो अब भी लिख डालते हैं और 'चालीस बरस पहले' के अपने यौन-संबंधों को याद कर लेते हैं. किन्तु 'हंस' में हर महीना अपना संपादकीय अवश्य लिखते हैं. संपादकीय स्तम्भ का शीर्षक है- 'मेरी, तेरी, उसकी बात'. किन्तु, प्राय: उनका लेख एकालाप ही होता है, उसमें 'तेरी' और 'उसकी बात' नहीं होती. वे 'अपनी बात' ही लिखते हैं और 'दिल से' लिखते हैं. 'हंस' का हर पाठक उसे पढ़ता है. पढ़ते हुए मेरा भी पच्चीसवाँ वर्ष गुजर रहा है, और अगस्त, 1986 ई. में मैं जवान था, अब बूढ़ा हो रहा हूँ. किन्तु एक ताजगी के साथ 'मेरी, तेरी ....' हर महीने पढ़ता हूँ. गुनता हूँ. राजेन्द्र यादव के दुख, खीझ और गुस्से को समझता हूँ और गहराई से अनुभव करता हूँ.
हिन्दी में, नहीं दिल्ली में, दो बुजुर्ग साहित्यकार हैं- नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव ! ( वैसे तो दिल्ली में बुजुर्ग साहित्यकार कई हैं. मसलन, रामदरश मिश्र. ये चालीस वर्षों से वृद्ध दीख रहे हैं और इन्होंने साहित्य की हर विधा में विपुल साहित्य लिखा है और अच्छा लिखा है. फिर, कुँवरनारायण, जो चिंतक कवि हैं और ज्ञानपीठ से नवाजे जा चुके हैं. साहित्यिक दुनिया से कुछ ऊपर रहते हैं. केदारनाथ सिंह भी अस्सी की उम्र के करीब हैं लेकिन कोई उनको बुजुर्ग नहीं समझता, वे चिर नवीन हैं. लेकिन, चर्चा सिर्फ दो की ही होती है - नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव. ये हिन्दी साहित्य में 'मील के पत्थर' हैं और दोनों मठाधीश या महंत हैं. 'पाखी' ने नामवर सिंह पर एक स्थायी महत्व का बड़ा विशेषांक निकाला है और अब राजेन्द्र यादव की बारी है.) इन दोनों को दिल्ली की प्राय: साहित्यिक गोष्ठियों, पुस्तक-विमोचन-समारोहों में आदर के साथ बुलाया जाता है. कई सम-सामयिक विषयों पर इनके विचार लिए जाते हैं, इनके साक्षात्कार प्रकाशित होते हैं. कभी-कभी किसी 'विवाद-प्रसंग' में टेली-मिडिया में भी इनकी पूछ होती है.
हिन्दी साहित्य की वर्तमान अवस्था में वृद्धावस्था के ये दो सुमन हैं, जिनके आशीर्वचनों को लोग अपने गले में लटकाये फिरते हैं. इन्हें माल, मान, यश हद से ज्यादा (बेहद) मिला.
नामवर सिंह को हिन्दी से, हिन्दी वालों से कोई शिकायत नहीं, किन्तु राजेन्द्र यादव को है. उनकी शिकायतों की फेहरिश्त लम्बी है. उनकी पहली शिकायत है कि हिन्दी वाले हर विषय पर उनकी राय क्यों पूछते हैं ? क्या वृद्ध होने का यह अभिशाप नहीं है ? दिसम्बर, 2010 की 'मेरी, तेरी ....' में वे लिखते हैं - ''वरिष्ठ और बुजुर्ग होने का यही अभिशाप है कि दुनिया के हर विषय पर आपकी राय होनी ही चाहिए. शायद यही आक्रमण नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी पर भी रोज होता होगा, वे मुझसे ज्यादा प्रबुद्ध और आर्टिकुलेट (शब्दवीर !) हैं. लेकिन मैं इधर बार-बार उन्हीं सवालों और जवाबों के दुहराव से आजिज आ गया हूँ: न कोई नई बात, न कोई मौलिक कोण-खास तौर से साहित्य-केंद्रित लोगों के पास तो निश्चय ही कुछ भी विचारोत्तोजक नहीं बचा है. सभी कुछ पूर्व-ज्ञात और घिसा-पिटा है.''
राजेन्द्र यादव इस 'घिसे-पिटे' हिन्दी साहित्य से आजिज आ गए हैं. वे मानते हैं कि हिन्दी की गोबर-पट्टी में पिछड़ेपन की बदबू से बजबजाते परिवेश की एक तरफ घिनौनी तस्वीर है और दूसरी तरफ- ''अपने छायावादी संसार में आंतरिक सुकून खोजते निरुपाय बुद्धिजीवी अपनी-अपनी पुस्तकों और गोष्ठियों में छटपटाते अकेलों की यह बेचैन भीड़, आपस में संवाद खोजती और फिर कछुए की तरह वापस खोल में सिमटती हुई.''
उनकी खीझ का दूसरा कारण है कि विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग अभी तक पुराने साहित्य से चिपके हुए हैं. इस तरह वे आधुनिक नहीं हैं. 'पाखी' के जनवरी, 2011 अंक में प्रकाशित 'संवाद' में वे कहते हैं- ''सन् सैंतालीस से पहले का या बीसवी सदी से पहले का जो साहित्य है, वह सब हमें छोड़ देना चाहिए क्योंकि उस जबान को जिसमें वह लिखा गया, कोई नहीं समझता.''
अब पहले वाक्य पर गौर करें. यहाँ दो विकल्प हैं - सैंतालीस के पहले और दूसरा बीसवीं शताब्दी के पहले. यदि सैंतालीस के पहले के साहित्य को छोड़ दिया जाए तो महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, नन्ददुलारे वाजपेयी जैसे आलोचक, प्रेमचन्द, अज्ञेय, जैनेन्द्र, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा जैसे कथाकार, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, दिनकर, बच्चन जैसे कवि को भी छोड़ देना पड़ेगा. इससे हंगामा मच सकता है.
यदि बीसवीं शदी के पूर्व के साहित्य को छोड़ दिया जाए तो मध्यकालीन लोकभाषाओं में रचित भक्ति-साहित्य और भारतेन्दुयुगीन साहित्यकार छुट जाएँगे. यादवजी मानते हैं कि जो पुराना सामंती या धर्माधारित है, उसे सिर्फ इतिहास की चीज बना देना चाहिए और उसे अल्मारियों में बन्द कर देना चाहिए. पर यादवजी की बात कोई मानता नहीं. वे हिन्दीवाले, गोबरपट्टी के लोग कब आधुनिक होंगे? वे अभी तक कबीर, सूर, तुलसी से लिपटे हैं.
नामवर सिंह 'कबीर का दुख' लेख लिख रहे हैं, मैनेजर पाण्डेय सूर पर किताब छपवा रहे हैं और क्या हो गया इस प्रतिभाशाली प्रखर आलोचक को, जो 'अकथ कहानी प्रेम की' शीर्षक देकर कोई मजेदार कहानी नहीं लिखकर कबीर का एक नया पाठ-विश्लेषण कर रहा है ? इस पुरुषोत्तम अग्रवाल की बुद्धि क्यों भ्रष्ट हो गई? और वह दलित चिन्तक डॉ. धर्मवीर 'जारज-सम्बन्ध' खोजता फिर रहा है, वह तो ठीक, किन्तु कबीर पर इतनी सारी पुस्तकें क्यों लिख डाली ? एक तो कबीर की भाषा को समझना मुश्किल है. अहिन्दी भाषी लोग 'गुरु गोविन्द दोऊ' का मतलब 'गुरुगोविन्द अंकल' समझते हैं !
बेचारे राजेन्द्र यादव इस तरह की आलोचना से क्षुब्ध हैं. अब उनकी सुनिए. क्या कह रहे हैं वे- ''इस बासीपने को सबसे ज्यादा समृद्ध किया है विश्वविद्यालयों से जुड़े तथाकथित आलोचकों ने. कोई कबीर का कबाड़ा करने पर तुला है तो कोई भारतेन्दु-मैथिलीशरण को धोबीपाट दे रहा है. किसी को निराला, मुक्तिबोध, अज्ञेय ने काटा है तो कोई नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल के प्राण लिए ले रहा है. चार कवियों का शताब्दी वर्ष क्या हुआ, अशोक वाजपेयी विस्मरण के खिलाफ झंडा लेकर निकल पड़े; मुक्तिबोध, अज्ञेय, नागार्जुन और केदारनाथ के कीर्तन कराने. अब जिसे देखो, वह इन्हीं में से किसी पर जगराता आयोजित कर रहा है.''
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और.... और सबसे ज्यादा खीझ उन्हें होती है अपनी दिनचर्या पर. सुबह उठना, चाय पीना, कुछ पढ़ना-लिखना, नहाना, कपड़े पहनना, अक्षर प्रकाशन जाना, चिट्ठियाँ पढ़ना, कोई मित्र आ गया तो देश-दुनिया की बखिया उधेड़ना, संजीव के साथ छेड़-छाड़, फिर घर लौटकर टी.वी. देखना, रात ग्यारह बजे बत्तियाँ बुझाकर सो जाना. बहुमूत्र रोग के कारण पाँच-छह बार रात में उठकर बाथरूम जाना. इस दिनचर्या से उन्हें खीझ होती है.
राजेन्द्र यादव संवेदनशील हैं, इसलिए बहुत जल्दी बोर हो जाते हैं. एक बार (यह बात 1988 की है) मैं उनसे मिलने गया तो वे कुछ बोझिल लगे. मैंने पूछा - ताऊ, उदास क्यों हैं ? उन्होंने तुरत कहा- यार, एक कवि आया था, साले ने ढेर सारी कविताएँ पेल दी ! और फिर हंस पड़ें.
पहले, यादव जी अपनी खीझ और ऊब को एक हँसी में उड़ा देते थे, फिर वह हँसी धीरे-धीरे गायब हो रही है. अब वे 'हर फिक्र को धुएँ में उड़ाते' नहीं चले जाते. जिन विषयों में उनकी गति नहीं है, उन पर चर्चा हो, और जोरदार हो तो उन्हें ऊब तो होगी ही. उनके 'होने-सोने' के विमर्श को छोड़कर, सेक्स और जनवाद, महिला-संवाद और दलित-दर्शन जैसे उनके 'हंस' के द्वारा शुरू किए गए मुहिम को छोड़कर लोग पुराने और बासीपन लिये हुए साहित्कारों पर क्यों लिख-पढ़ रहे हैं ? विभूतिनारायण राय जो म.गां.अं.हिं.वि.वि. के कुलपति हैं, उन्होंने कह दिया- यादव जी, आपने हिन्दी साहित्य को बहुत नुकसान पहुँचाया है. हिन्दी के एक आलोचक ने कहा- राजनीति में लालू यादव और साहित्य में राजेन्द्र यादव के दिन अब गए! किन्तु, यादव जी को आप धिक्कारें तो क्या फर्क पड़ता है ? उन्हें तो हिन्दी की विरासत से ही चिढ़ है.
वे कहते हैं- ''जिस चीज से मुझे चिढ़ है वह है आत्मधिक्कार. अपने को प्रबुद्ध कहने वाला शायद ही कोई हो जो हिन्दी धिक्कार में अपने भीतर का प्रायश्चित न करता हो. 'हम हिन्दी वाले ये- हम हिन्दी वाले वो' का कीर्तन सुनते-सुनते कान पक गए हैं.''
हिन्दीवालों से उनकी चिढ़ इसलिए भी है कि हिन्दी समाज एक आडम्बरी और ढोंगी समाज है. वह सारी आधुनिक सुविधाएँ, ज्ञान-विज्ञान का इस्तेमाल सिर्फ अपनी सामंती मानसिकता और धार्मिक आग्रहों को मजबूत करने के लिए करता है और हिन्दी के अध्यापकों के कारण विश्वविद्यालय ज्ञान के कब्रिस्तान हैं. जहाँ बस वही ज्ञान दिया जाता है, जो उन्हें बताया गया. और जो बताया गया वह निहायत पुराना, सामंती यानी क्लास्ट्रोफोबिक और घुटन भरा है. धन्य हैं राजेन्द्र यादव, जो हिन्दी से एम.ए. प्रथम श्रेणी में प्रथम आने के बाद भी किसी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नहीं बने और सामंती तथा घुटन भरे माहौल से बचे रहे. फिर वे इतना क्यों घुट रहे हैं ? इतना क्यों तड़प रहे हैं ? इतना क्यों जल और कुढ़ रहे हैं ? इतना क्यों खीझ रहे हैं ?
वे 'हंस' निकाल रहे हैं और निकालते ही जा रहे हैं, अब तक नहीं ऊबे हैं. 2010 के फरवरी में मैं उनके साथ कुछ समय रहा. मैं सुबह-सुबह मयूर विहार में भारत भारद्वाज के घर गया. वे सो रहे थे. फिर भी उन्होंने उठकर दरवाजा खोला. मैं उनका मीत हूँ. वे मुझे मीता कहते हैं. मुझसे स्नेह करते हैं. एक मीठा-सा अपनापन उनसे शुरू से ही रहा है. वे 'हंस' में प्रतिमास 'समकालीन सृजन संदर्भ' लगभग बीस वर्षों से नियमित लिख रहे हैं. इसके लिए वे प्रतिमास प्रकाशित साहित्यिक पत्रिकाओं, पुस्तकों, समारोहों, गोष्ठियों, पुरस्कारों के अलावा भी काफी कुछ ज्ञान-वर्धक लिखते हैं. वे 'हंस' में चित्रगुप्त महाराज की भूमिका निभाते हैं. सबका लेखा-जोखा रखते हैं. साहित्यकारों का नाप-तौल भी करते हैं. यादव जी को वर्षों से साधे हुए हैं. तो जब उनसे मिला, लगभग दस वर्षों बाद, तो गले लगकर मिला. उनसे यादव जी के बारे में बातें हुईं. लगभग ग्यारह बज गए थे. उन्होंने यादव जी के फ्लैट का पता दिया और फिर सोने चले गए. वे रातभर जागकर पढ़ते-लिखते रहते हैं. सुबह सोते हैं और दोपहर में जागते हैं.
मैं यादव जी के घर गया. वे 'हंस' कार्यालय जाने के लिए तैयार हो रहे थे. तैयार होकर मिले, फिर कुछ बातें हुईं. फिर उन्हीं की कार पर बैठकर संजीव के साथ दरियागंज की ओर आया. मैंने उनसे पूछा - 'हंस' निकालते हुए आपको लगभग पच्चीस वर्ष हो गए, क्या इससे आपको अब ऊब नहीं होती ? वे चुप लगा गए. कुछ नहीं कहा और सिर्फ सोचते रहे. क्या ऐसे प्रश्नों से उन्हें चिढ़ नहीं होती ?
'हंस' अगस्त, 1986 से नियमित निकल रहा है, क्या यह कम बड़ी बात है. पहले संपादन में अर्चना वर्मा कुछ सहयोग करती थीं. हरिनारायण लम्बे समय तक सह-संपादक रहे. फिर वे 'हंस' से अलग होकर लम्बे समय से 'कथादेश' निकाल रहे हैं. उनकी जगह सह-संपादक के रूप में नियुक्त हुए गौरीनाथ. यादवजी से अलग होकर वे 'बया' नामक पत्रिका एवं अंतिका प्रकाशन चला रहे हैं. तब उस जगह पर नियुक्त हुए संजीव, जो 'हंस' के सह-संपादक नहीं, 'कार्यकारी संपादक' हैं. यह 'कार्यकारी-संपादक' क्या होता है, बहुत लागों की समझ में नहीं आता.
संजीव के विषय में राजेन्द्र यादव का मानना है कि वे प्रेमचन्द से भी बड़े कथाकार हैं. मैंने जब यादव जी से पूछा कि कैसे, तो उन्होंने उत्तार दिया कि संजीव ने प्रेमचन्द से भी अधिक पात्र दिए हैं, इसीलिए वे प्रेमचन्द से बड़े हैं. संजीव कितने महान कथाकार हैं, इसकी बानगी देखनी हो तो 'हंस' के जनवरी, 2011 के अंक में उनकी 'बात बोलेगी' को पढ़कर देखें कि वे कैसे नागार्जुन से पेश आते थे. वे लिखते हैं - ''मैंने उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'बलचनमा' का जिक्र करते हुए पहली ही मुलाकात में वार किया, 'बाबा बलचममा की उठान और उसकी संभावना का जो क्षितिज क्रमश: खुलता जा रहा था और वहाँ जहाँ दोनों लौट रहे हैं, शौच के बाद नीचे पोखर में पानी छूने की 'छप-छप' की आवाज तक ले आते हैं आप ... वहीं हठात् विराम लगा दिया आपने उपन्यास पर. इतने बड़े काम में इतनी हड़बड़ी क्यों ?' मैं तैश में था. बाबा ठमक गए, ठमके रह गए थोड़ी देर तक. फिर बोले, 'मुड़िये मचोड़ दिए न ?' 'हाँ !' मैंने कहा था.''
तो ऐसे हैं संजीव ! उन्होंने नागार्जुन ही नहीं, हिन्दी के बड़े-बड़े कथाकारों की 'मुंडी' मचोड़ दी है. वे अपने सामने किसी को नहीं समझते. और जब यादव जी उन्हें प्रेमचन्द से भी बड़ा कथाकार मानते हैं, तो थोड़े ही गलत मानते हैं. वे 1976 ई. से लिख रहे हैं. वे हिन्दी साहित्य में उग्र वामपंथी तेवर के साथ, हाथ में क्रांति की मशाल लिये हुए गुस्से और तैश से भरे हुए आये, शब्दों के गोला-बारूद छोड़ते रहे.
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'पाखी' में प्रकाशित संवाद में शीबा असलम फातमी ने एक प्रश्न उनसे पूछा - राजेन्द्र यादव की विरासत क्या है ? यादव जी इस प्रश्न से कन्नी काट गए और इसका गोल-मोल जवाब दिया- ''यह मैं खुद 'डिफाइन' नहीं कर सकता. हाँ, वो दृष्टि है, जो जैसा है उसे वैसा स्वीकार न करने की, क्वैश्चनिंग की. हमारे लिए पवित्रता किसी चीज की नहीं है.''
अब सवाल उठता है कि उनकी दृष्टि क्या है? जो जैसा है, उसे स्वीकार नहीं करने की वजह क्या है ? क्या वे मुक्तिबोध की तरह मानते हैं- 'जो है, उससे बेहतर होना चाहिए.' उनकी क्वैश्चनिंग क्या है? और 'पवित्रता किसी चीज की नहीं' का फलसफा क्या है? और सबसे बड़ा अह्म प्रश्न - राजेन्द्र यादव की विरासत क्या है?
इन प्रश्नों में उलझने और माथापच्ची करने के पहले संक्षेप में राजेन्द्र यादव की जिंदगी का लेखा-जोखा कर लेना आवश्यक है.
राजेन्द्र यादव आगरा के रहने वाले हैं. वहीं से उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और लिखाई शुरू की- कहानियाँ और कविताएँ. तब आगरा में हिन्दी के दो दिग्गज विद्वान विराजमान थे- रामविलास शर्मा और रांगेय राघव. दोनों घनघोर मेहनती, कुशाग्र, अध्ययनशील और जुझारू थे.
यादव जी ने रांगेय राघव पर संस्मरण लिखते हुए आगरा के अपने प्रारम्भिक दिनों को भी याद किया है. स्वाभाविक है, इस वातावरण में रहते हुए यादव जी चार घंटे प्रतिदिन लिखते तो आठ घंटे पढ़ते. वे प्रगतिशील आन्दोलन में शामिल हुए. इनके प्रारंभिक दोनों कहानी-संग्रह उनकी प्रगतिशील दृष्टि का द्योतक है. छठे दशक में जब नई कहानी आन्दोलन की शुरुआत हुई तो मोहन राकेश एवं कमलेश्वर के साथ मिलकर उन्होंने इस आन्दोलन को तीव्र और प्रखर किया. तब वे कलकत्ता में 'ज्ञानोदय' पत्रिका में सहायक थे. वहीं मन्नु भण्डारी से उनका सम्बन्ध बना और हिन्दी के दो कथाकार जीवन-साथी बने. तब यादव जी बहुत खुश रहते थे और पति-पत्नी का समवेत उपन्यास 'एक ईंच मुस्कान' का लेखन हुआ.
सातवें दशक में हंगरी जेनेरेशन का व्यापक प्रभाव हिन्दी साहित्य पर पड़ा. मन्नू जी तो इससे प्रभावित नहीं हुईं, पर यादव जी पर इसका गहरा असर पड़ा. यौन-बिम्बों को बढ़चढ़कर प्रदर्शित करने वाला यह साहित्य एक प्रकार से नकारात्मक था. यही वह दृष्टि है, जो जैसा है, उसे वैसा स्वीकार नहीं करने की, क्वैश्चनिंग की, जो किसी चीज में पवित्रता नहीं देखती. यही राजेन्द्र यादव की दृष्टि भी है और विरासत भी.
इस बात को और स्पष्ट करने के लिए मैं एक छोटा-सा संस्मरण प्रस्तुत कर रहा हूँ. 1986 ई. में मैं लगभग एक महीना अमृत राय के घर पर रहा. अमृत जी एवं सुधा चौहान जी मुझसे बहुत स्नेह करते थे. (उन्होंने जो बताया उसी के आधार पर लिख रहा हूँ) 1967 ई. में जब राजकमल प्रकाशन ने 'नई कहानियाँ' बन्द करने की घोषणा कर दी, तब ये दम्पत्ति छोटे पुत्र की अकालमृत्यु से मरनासन्न हो रहे थे. इस दुख से उबरने के लिए उन्होंने निर्णय किया कि एक पत्रिका निकाली जाए. 'हंस' को बन्द हुए लम्बा समय हो चुका था और प्रगतिशील आन्दोलन भी बिखर चुका था. उन्होंने राजकमल प्रकाशन से 'नई कहानियाँ' पुन: निकालने की स्वीकृति माँगी, जो सहज ही मिल गई. अमृत जी ने यादव जी से प्रकाशनार्थ कहानी माँगी. यादव जी ने अपनी 'फ्रैंचलेदर' कहानी उन्हें भेजते हुए पत्र लिखा कि इस कहानी को छापने की तुम्हारी हिम्मत नहीं होगी. और वास्तव में अमृत जी इस कहानी को छापने की हिम्मत न जुटा पाये.
आखिर क्या है इस कहानी में ? यहाँ पूरी कहानी का पाठ-विवेचन करने की आवश्यकता नहीं है. इसके कुछ अंशों को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिससे राजेन्द्र यादव की क्रांतिकारी दृष्टि का पता चलता है. ''एक दिन कोई बता रहा था कि फ्रांस में, या पता नहीं कहाँ, कोई बहुत बड़ा फिलॉस्फर है. वह कहता है कि आदमी कभी स्वतंत्र हो ही नहीं सकता .... हजारों सालों से साले पर धरम-करम, पाप-पुण्य, अच्छे-बुरे और परिवार-समाज कल्चर का इतना बोझ लदा है, दिमाग में इतना कचरा भरा है कि चाहे तो भी छुटने की कोशिश नहीं कर सकता.'' यह विचारधारा फ्रांस से पैदा हुई, फिर यूरोप-अमेरिका में फैली और धीरे-धीरे भारत जैसे परम्परावादी देश में भी आई. फ्रांस से ही 'फ्रैंचलैदर' (एक प्रकार का कंडोम) भारत आया और राजेन्द्र यादव ने उसको प्रतीक बनाकर कहानी लिखी. इस कहानी का नायक फ्रैंचलैदर का प्रयोग कर अपनी मौसी के साथ सहवास करता है और फिर उसे एक खाली फिफाफे में डाल कर अपने साथ रखता है. दफ्तर के माहौल में हर समय यह 'फ्रैंच-लैदर' उसकी मानसिकता में छाया रहता है. उसे अपनी मौसी की नंगी देह बार-बार याद आती है - ''पता नहीं, बगलों में कौन-सा पाउडर लगाती है, तबियत मस्त हो जाती है. गोरी-गोरी छातियों पर कनपटी टिकाकर, उधर नाक किये हुए मन होता है, गहरी-गहरी सांसें ही खींचता रहे .... माँ की सगी छोटी बहन ... अरे होगी भी यार, ऐसे मौकों पर ये सारी बातें नहीं सोची जातीं .... फैली टाँगों, पेड़ू और छातियों पर चुपचाप ऑंखें बन्द करके लेटे हुए वही समुद्र के किनारे, पहाड़ों की चोटियाँ, हरे-हरे खेतों की पगडंडियाँ ही नाचती रहती हैं .....'' ऐसा करते हुए कभी पाप-बोध होता है, तो वह इस विचार को झटक कर फिर उस 'चरम आनंद' को याद करने लगता है - ''पाप और अपराध की माँ की .... वहाँ लेटकर तो लगता है जैसे बरसों पानी में डूबकर ऊपर सतह पर तैर आया हो ..... हजारों साल का बोझ पानी की लहरों की तरह गुजरता चला जा रहा हो ... मौसी-भाभी, अमीर-गरीब, क्लर्क-मालिक इन सब में क्या रखा है. आदमी आदमी है और औरत औरत.'' हर आदमी नर है और औरत मादा. इनके बीच सिर्फ, सिर्फ यौनिकता का रिश्ता है. अपनी माँ की सगी बहन भी उस नर के लिए सिर्फ मादा है. यही है राजेन्द्र यादव की क्रांतिकारी दृष्टि की विरासत. इस विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने 'हंस' पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन प्रारम्भ किया.
1986 में वे जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे. उन्होंने जनवादी साहित्य को धारदार बनाने के लिए 'सेक्स और जनवाद' नामक बहस चलाया. फिर स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श प्रारम्भ किया. आप देखें, कि इन दोनों विमर्शों में प्रभुत्वशाली और परम्परावादी विचारधारा को चुनौती दी गई है. रूढ़ियों को तोड़ने का यह माद्दा राजेन्द्र यादव में है. उनकी नकारवादी मान्यता इन दोनों विमर्शों के केन्द्र में हैं.
अब दलित-विमर्श को देखें. वह मौजूदा व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता. प्रेमचन्द का भी वह विरोधी है, जिन्होंने हिन्दी साहित्य को घीसू-माधव जैसे पात्र दिए. आज घीसू-माधव की संतानें प्रेमचन्द की मिट्टी-पलीद करने में जुटी हैं. मुझे 1997 ई. में रमणिका गुप्ता द्वारा हजारीबाग में आयोजित अखिल भारतीय दलित लेखक सम्मेलन की याद आ रही है, जब मैनेजर पाण्डेय एक सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे और दलित लेखकों द्वारा उन्हें मंच से नीचे उतार दिया गया था - ''एक ब्राह्मण दलित-लेखकों के सम्मेलन की अध्यक्षता करे, यह बर्दाश्त नहीं.'' राजेन्द्र यादव जब माइक पर बोल रहे थे, तब उनसे बदसलूकी करते हुए उनसे 'माइक' छीन ली गई थी और उन्हें बोलने से रोक दिया गया था. दलितों में इतनी शक्ति और साहस आखिर कहाँ से आया ? यह राजेन्द्र यादव की ही विरासत है.
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स्त्री-विमर्श में सबसे बड़ा सवाल है देह-मुक्ति का. राजेन्द्र यादव का ही यह अभूतपूर्व, क्रांतिकारी और ऐतिहासिक योगदान है कि हिन्दी की कुछ लेखिकाएँ 'कितनी बिस्तरों में कितनी बार' के अनुभवों को अपनी-अपनी आत्मकथाओं में बढ़-चढ़कर प्रदर्शित कर रही हैं.
युग-परिवर्तन करनेवाले ऐसे कालजयी लेखक को जानने और मानने वाले आज लाखों लोग हैं. नई पीढ़ी के लेखक तो उनके आगे-पीछे घूमते ही रहते हैं. अखबारों और टी.वी. के पत्रकार हर अहम् सवाल पर उनका इंटरव्यू लेते रहते हैं, फिर भी वे 'ऊब' महसूस करते हैं और खीझते रहते हैं. इसका कारण है कि विश्वविद्यालयों के विद्वान आलोचक उनकी विरासत की पड़ताल नहीं करते. वे पुराने साहित्यकारों के पीछे पड़े रहते हैं. अभी तक किसी आलोचक ने उनके ऐतिहासिक योगदान का मूल्यांकन नहीं किया. भारत भारद्वाज और साधना अग्रवाल ने उनपर एक मोटा ग्रंथ संपादित किया है - 'हमारे युग का सबसे बड़ा खलनायक : राजेन्द्र यादव'. उनकी 23 लेखिकाओं ने उन पर लिखा है, जो पुस्तक रूप में प्रकाशित है. इस पुस्तक की एक दिलचस्प समीक्षा कांतिकुमार जैन ने 'राजेन्द्र यादव पर अन्तिम बोली लगाने का समय अभी नहीं आया है' शीर्षक देकर 'पुस्तक-वार्ता' (अंक-25, नवम्बर-दिसम्बर, 2009) में लिखी है, जो यादव जी को बहुत पसंद है. इसके बावजूद यदि वे आलोचकों से चिढ़े हुए रहते हैं और हिन्दी की गोबरपट्टी से ऊबे हुए रहते हैं तो इसलिए कि वे दकियानूसी से उबार कर उसे अपनी तरह क्रांतिकारी बनाना चाहते हैं.
रावण के समर्थक राजेन्द्र यादव यदि सबसे बड़े खलनायक हैं तो नायक कौन है, इसकी भी तलाश करनी चाहिए.
साहित्य-सेवा के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्रदान किए जाते हैं. यादव जी को भी कुछ मिल चुके हैं. किन्तु, किसी लेखक को अन्य साहित्यकारों के द्वारा जो उपाधि प्रदान की जाती है, वह लेखक के नाम के साथ जुड़ जाती है. अब देखिए, हरिश्चन्द्र अग्रवाल नामक लेखक को कौन जानता है. 'भारतेन्दु' की उपाधि तो उन्हें बनारस के कुछ साहित्यकारों ने दी थी और वही नाम रह गया. शिवप्रसाद जैन को पहले 'राजा' की उपाधि दी गई, फिर 'सितारे-हिन्द' की. प्रेमचन्द को लोगों ने 'मुंशी' की उपाधि दे दी, जबकि उनके जीवन-काल में प्रकाशित रचनाओं एवं पुस्तकों पर कहीं 'मुंशी' नहीं मिलता. हिन्दी के पहले आलोचक महावीर प्रसाद द्विवेदी थे, जिन्हें 'आचार्य' की उपाधि प्रदान की गई और इसकी उन्हें भनक भी नहीं लगी. इस उपाधि पर उन्हें आश्चर्य हुआ था. फिर, रामचन्द्र शुक्ल, नन्ददुलारे वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी को भी 'आचार्य' की उपाधि से नवाजा गया. यह 'आचार्य' की उपाधि कितनी दमदार है कि जिसके नाम के पहले लग गया, वह भारी-भरकम लेखक हो गया और उसके शिष्यों ने उनका झंडा बुलंद किया.
इस 'आचार्य' की उपाधि के सामने 'हिन्दी-भूषण' शिवपूजन सहाय, 'महाकवि' प्रसाद, 'महाप्राण' निराला भी फीके हैं. इसलिए मैं राजेन्द्र यादव को 'आचार्य' की उपाधि देना चाहता हूँ. पर इस उपाधि से उन्हें चिढ़ होगी, हो सकता है वे मुझसे नाराज हो जाएँ. और हिन्दी का इतना बड़ा महंत, डिक्टेटर, 'हंस' जैसी महान् पत्रिका का महा संपादक यदि मुझसे नाराज हो जाए तो मैं तो गया काम से ! भारत भारद्वाज ने उन्हें अपने समय का सबसे बड़ा खलनायक कहा है और इससे वे इतने खुश हुए कि उनकी मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ाने वाली टिप्पणियों को भी 'ऑंखें मूँदकर' छापते रहते हैं.
किन्तु, मुझे 'खलनायक' वाली उपाधि ठीक नहीं लगती, इसलिए 'आचार्य' को दिमाग में रहकर कोई और उपाधि सोचता हूँ, जो उनके व्यक्तित्व पर सटीक हो और उनके 'होना, सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ' के मौलिक दर्शन से भी मेल खाता हो.
राजेन्द्र यादव कितने भी रावण के पक्षधर हों, कितनी भी नकारात्मक दृष्टि रखते हों, किन्तु वे 'खलनायक' तो कत्तई नहीं हैं. उनके जैसा 'प्रेमी' साहित्यकार हिन्दी में दूसरा कोई नहीं. वे सरल, सहज और उदार हैं. जनवादी हैं. विद्रोही हैं. विनम्र और मिलनसार हैं. सहनशील हैं. सामाजिक हैं. अपने साथ के लोगों की चिन्ता करते हैं. मिलने पर आत्मीयता से बतियाते हैं, चाय पिलवाते हैं. छोटों से भी दोस्ताना अंदाज में बतियाते हैं. विरोधी बातें करने वालों को भी तरजीह देते हैं. वे हिन्दी लेखकों के हमदम हैं, हमप्याले हैं. मैं उनसे उम्र में पच्चीस वर्ष छोटा हूँ, किन्तु मुझसे जब भी मिले समान स्तर पर मिले और मुझे लगा कि इतना खुला हुआ आदमी तो हिन्दी साहित्य में कोई दूसरा नहीं !
उनके व्यक्तित्व के बारे में सोच रहा हूँ तो अचानक स्मृति जग गई है. 1991 ई. में मैं रेणु पर एक किताब 'फणीश्वरनाथ रेणु अर्थात् मृदंगिये का मर्म' संपादित कर छपवा रहा था. अक्षर प्रकाशन के बगल में ही राधाकृष्ण प्रकाशन में मेरा अड्डा हुआ करता था और अशोक महेश्वरी के साथ ही प्राय: दिन भर रहना होता था. उन्हीं के मकान में रहना भी. उन्हीं के भाई अतुल महेश्वरी मेरी किताब कम्प्यूटर में टंकित कर रहे थे. दोपहर के बाद प्राय: यादवजी के पास एक घंटा गपशप के लिए चला जाता.
एक दिन बनारस के शुकदेव सिंह वहीं बैठे हुए मिले. उन्होंने भुवनेश्वर की कहानी 'भेड़िए' अपनी टिप्पणी के साथ 'हंस' में प्रकाशित करवाई थी. वे बनारस के कबीर-मठ से भी जुड़े होने के कारण अनेक विदेशी बालाओं के आचार्य ओशो की तरह गुरु थे. कुछ देर के बाद वे उठकर चले गए. उनके जाने के बाद यादव जी ने मुझसे पूछा - ''यार, ये शुकदेव सिंह तुमको किस तरह के आदमी लगते हैं ?'' मैंने कहा - ''सीधे-सरल लगते हैं.'' मैं उनके विषय में ज्यादा जानता भी नहीं था. उन्होंने बताया, ''आज शुकदेव सिंह बहुत प्रसन्न मुद्रा में थे. मैंने पूछा, गुरु बहुत खुश नजर आ रहे हो. इसपर शुकदेव सिंह ने कहा - आज मैंने 'सैंचुरी' पूरी कर ली, इसलिए खुश हूँ. मैंने पूछा - काहे की सैंचुरी ? इसपर गुरु ने बताया कि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि 'एक सौ रमणियों से रमण करूँगा, तभी सिद्धावस्था को प्राप्त करुँगा.' सो, यह प्रतिज्ञा आज पूरी कर ली.'' यादव जी शुकदेव सिंह का यह प्रकरण सुनाकर खिलखिलाकर हँसे थे.
इस शुक-प्रकरण को याद करते हुए फणीश्वरनाथ रेणु के 1975 ई. में 'पटना-जलप्रलय' पर लिखे रिपोर्ताज का अंतिम अंश हठात् याद हो आया है. इस रिपोर्ताज में रेणु ने पटना के कई लेखक-मित्रों का जिक्र किया है. रेणु लिखते हैं - ''हमारे कॉफी हाउस के एक एडवोकेट मित्र हैं. पिछले साल हिन्दी में यौन-मनोविज्ञान की कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित करवाया है. पुस्तक प्रकाशन के बाद मित्रों ने उन्हें 'यौनाचार्य' की उपाधि प्रदान की तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया.'' रेणु के इस 'यौनाचार्य' मित्र का कहना था - 'साहब, आदमी क्या ? इस बाढ़ में तो मछलियाँ भी 'सेक्सी' हो गई थीं ....''
साहित्य की दुनिया में तब इक्के-दुक्के ऐसे लेखक थे. आज राजेन्द्र यादव और उनके 'हंस' की ही यह विरासत है कि देश भर में ऐसे यौनाचार्यों की संख्या बहुतायत है. क्यों न राजेन्द्र यादव को 'हिन्दी का सबसे बड़ा यौनाचार्य' कहा जाए ? वैसे मैं तो उन्हें 'आचार्य राजेन्द्र यादव' ही कहना चाहता हूँ, यदि वे बुरा न मानें!
02.06.2011, 19.03 (GMT+05:30) पर प्रकाशित
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