रविवार, 11 अगस्त 2013




चतुर्वेदी इतिहास 16

माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

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जयपुर राज्य

अकबर कल में श्री उजागर देवजी के नेतृत्व में माथुर सरदारों के एक शिष्ट मंडल ने राजा मानसिंह से यह अनुरोध किया कि वे मथुरा नगर की रक्षा के लिये कोई बड़ा प्रयास आयोजित करें । उस समय यमुना की जल धारा वर्षा ऋतु में स्वामीघाट से चौक मैदान तथा घीयामंडी भरतपुर दरवाजा तक और वृन्दावन दरवाजा तक अपनी पुरानी धारा के प्रवाह क्षेत्र में घुस जाती थी जिससे बाज़ार मकानों और दुकानों को अपार क्षति उठानी पड़ती थी । जयपुर नरेश ने तब सुविज्ञ शिल्पयों बुलाकर परामर्श किया और उसमें कुशिकपुर के एक टेकरे पर सुदृढ़ बुजों बनवाकर यमुना की धारा को मोड़ देने का सुझाव था । राजा ने सोचा क्यों न एक अपना सुरक्षित दुर्ग बनाकर इस कार्य की पूर्ति की जाय । तभी राजा ने वहाँ एक सुविशाल अति सुदृढ़ लाल पत्थरों से कला पूर्ण शिल्प युक्त एक ऐसे दुर्ग का निर्माण कराया जिससे यमुना की धारा के नगर प्रवेश और क्षति विस्तार का मार्ग बन्द हो गया जिसका भग्नाशेष अभी भी मथुरा नगर की रक्षा कर रहा है और लोग उसे 'कंस किलौ' विशालता के कारण कहने लगे ।
इस काल में मथुरा आगरा के सूवे के राजा मानसिंह सूबेदार थे । उनका परिवार मथुरा में निवास करता था । राजा भगवानदास की माता यमुना तट पर सती हुई उनका सती बुर्ज यमुना तट पर हैं, राजा की बहिन जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ हुआ, मानसिंह की बहन जहांगीर को ब्याही । इन संबंधों से मानसिंह अकबर के प्रधान सेनापति का दायित्व सम्हालते थे । राजा मानसिंह ने मथुरा के प्रचीन गोविन्द मन्दिर की पूर्ति में जहां सिकन्दर लोदी के ध्वंस के बाद मुसलमान पठान बसकर मेवा और किराने की मंडी लगाते थे उस चकाबू स्थान को छोड़कर वृन्दावन में गोविन्द भगवान का विशाल मंदिर 1650 वि0 में बनवाया इसके पिता भगवानदास ने 1947 वि0 में गोवर्धन में सुप्रसिद्ध हरदेव मंदिर मनसा देवी तथा मानसी गंगा नदी का बांध उसके पक्के घाट बनवाये ।
राजा द्वितीय जयसिंह ने चौबेजी का बुर्ज तथा जयसिंहपुरा उपनगर उसमें सम्राट दीक्षित के निर्देशन में खगोल वेधशाला स्थापित की । ये सुप्रसिद्ध खगोल विद सम्राट दीक्षित जगन्नाथ पंडितराज बृद्धावस्था में मथुरा में दशावतार गली की अपनी दक्षिणियों की हवेली में रहते थे । यहाँ के तांत्रिक घरानों को उनने श्री यंत्रराज तथा पूजा रत्न ग्रंथ दिये थे । जयपुर बसाने में इसने मथुरा के मूर्तिकार चित्रकार लडाकूबीर नागा दल, रंगाई और छपाई करने वाले कारीगर कवि और विद्वानों को प्रोत्साहन देकर अपने साथ लेजाकर जयपुर में बसाया ।
सतसई के कर्ता विश्व मान्यता प्राप्त महाकवि बिहारी मथुरा से जयपुर दरबार में ले जाये गये उन्हें प्रति दोहा स्वर्ण मुहरें भेंट की गयी तथा बसुआ गोविन्द पुरा गांव उन्हें जागीरी में दिए गए । इनके ही भानजे मथुरा के कृष्णकवि ककोर ने जयपुर के कोषपाल राजा आयामल के आदेश पर बिहारी सतसई की काव्यमयी टीका की वे लिखते है- माथुर विप्रलकोर कुल कह्मौ कृष्ण कवि नांउ । बिहारी सतसई की 1790 वि0 की मेघराज लेखक की लिखी सबसे प्राचीन प्रति हमारे संग्रह में सुरक्षित है । 1652 वि0 में जयपुर के तोमर गोविन्ददास हरीदास ने बृन्दावन में युगल घाट पर जुगलकिशोर मंदिर बनाया तथा लूनकरण कछवाहा ने केशीघाट पर युगलकिशोर मन्दिर बनाया, यह गोपीनाथ मन्दिर निर्माता रायसेन कछवाह का भाई था ।

जाट मरहटा काल

ओरंगजेबी शासन का अंत करने को ब्रज में जाट शक्ति का उदय हुआ । बीरपुंगव गोकुलाजाट ने उसके सामने ही ब्रज में विद्रोह का झंडा खड़ा किया । चौबौ ने काजी को मारा और मुग़लों की बिखरी लोथों के ऊपर छत पर बैठकर विवाह की बरात के पकवान उड़ाये । जाट ब्रज के राजा और रक्षक कहे जाते थे । 1777 वि0 में राजा चूरामन ने जाट शासन की नींव रक्खी थी । 1779 वि0 में बदनसिंह तथा 1812 वि0 में शूर शिरोमणि राजा सूरजमल तथा 1820 वि0 में इनके पुत्र नरकेहरी जवाहरसिंह ने जाट शौर्य का सर्वोपरि प्रताप प्रवर्तित किया । जाटों के सहायक मथुरा के चौबे थे और जाट उनके परम भक्त शिष्य और सम्मानित पदों पर उनकी प्रतिष्ठा करने वाले थे । 1894 वि0 में जब नादिरशाह दुर्रानोने दिल्ली भी लूट में 30 हज़ार प्रजाजन कत्ल लिये 10 करोड का धन शाही खजाना और तख्त लाऊस लूटा और उसकी निर्दय सेंनाने भागते हुए प्रजा के लोगों का मथुरा वृन्दावन तक पीछा किया तो इससे जोटों का ख़ून उवल उठा । वीर सूरजमल ने अपने 7 जंग लड़कर शत्रुओं के दांत खट्टे किये ।
1805 वि0 में जब सूरजमल दिल्लीशाह के बजीर-सलावतखाँ से युद्ध कर रहा था तभी उसके मन में परलोक में बैकुंठ पद या मुक्ति प्राप्ति की प्रबल इच्छा जगीं । मथुरा में जन्म यज्ञीपवीत मृत्यु या दाहसंस्कारों में से एक भी हो जाने से मुक्ति पद निश्चित हो जाता है यह जान वे युद्ध से समय निकाल दौड़े हुए मथुरा आये और माथुर गुरुओं से यज्ञोपकीत संस्कार करा कर हंसियारानी से विवाह किया तथा उस स्थान पर हंसीय घाट तथा हंसगंजपुर बसाकर रानी को उसके नये रामभवन में निवास दिया । करौ व्याहु मथुरापुरी कृपा पायि जदुनाथ । अपने शौर्य की धाक जमाने की जाट गूजरमैना गुरु चौबों के दल के साथ 1942 वि0 में सिनसिनी के जाट राजाराम ने आगरा पर धावा बोला और सिकंदर में बनी अकबर की वैभवपूर्ण मजार को लूटकर क़ब्र से अकबर की अदस्थियों को निकाल कर उनका दाह संस्कार किया जिसे लोगों ने 'मियांकी होली' कहा । फिर जोरावर भज्जा चूरामन बदनसिंह ने मुग़लों की नाक में दमकरदी तथा बदनसिंह ने जैपुर से मित्रता की तब जैपुर नरेश ने इन्हें 'ब्रजराज' पदवी से अलंकृत किया ।
इस समय का शौर्य चित्र कविवर सूदन ने इन शब्दों में मुसलिम भावना के रूप में चित्रित किया है-'रव भी रजा है हमें सहना ही बजा है बक्त हिन्दू का जगा है आया ओर तुरकानीका । सूरजमल दिल्ली के समीप शाहदरा में थोड़े से साथियों के साथ मुग़लों से घिर कर मारे गये थे । एक दिन जवाहरसिंह पाग का पेचउमैंठ रहे थे तब माता ने कहा- 'बेटारे तेरे पिता की पगड़ी तो दिल्ली के रणक्षेत्र में पड़ी है और तू यहाँ पगी उमैंठ देता है' माता के बचन जवाहर के कलेजे में से आरपार हो गये उसने दिल्ली के मुग़लों को इसका परिणाम चखाने की गरज से 'दिल्ली दलेल' के नाम से दिल्ली पर हमला करने का निश्चय कर लिया 'संवत 1810 के वैसाख मास में जवाहरसिंह ने एक बहुत बड़ी ब्रज के वीरों की सेना लेकर दिल्ली पर चढ़ाई थी । 3 मास दिल्ली नगर को अपने घेरे में कैद रखते और तीन दिन तक दुश्मनों की कटा करके दिल्ली की विपुल संपत्तिओं को अधिकार में किया जिससे दिल्ली की लूट कहा जाता है । महत्व की बात यह है कि ब्रजवीरों ने किसी प्रकार जन निरपराध प्रजाजनों का कत्ल नहीं किया ।
केवल दंड रूप में नगर की और बादशाह की राज लक्ष्मी को अपने आधीन बनाया । बादशाह महलों में किवाड बन्द किये चूहे की तरह छिपा रहा खजाना 14 वर्ष पूर्व ही नादिरशाह द्वारा लूटाजा चुका था । जाटों ने जो हाथ आया छीना । इस ब्रज जागरण जंग का वर्णन माथुर कवि सूदन ने अपने वीर काव्य सुजान चरित्र की जंग 6 में बड़े ओज पूर्ण छंदों में किया है । इस विजय में जाटों को अपार धन और सम्पत्ति हाथ आयी जिसे उन्होंने अपने वीर यौद्धाओं को बाँटा तथा ब्रज में अनेक स्थलों का निर्माण किया । मथुरा के चौबे इस युद्ध में ब्रज भर में ब्रजरक्षक विप्र प्रसिद्ध हुए । उनके हज़ारों सैनिकों के अतिरिक्त 30 प्रमुख सूरवीर सेनाध्यक्ष इस सेना में अग्रवर्ती थे । इनमें से कुछ के नाम सूदन ने सुजान चरित्र में दिये हैं जो इस प्रकार हैं- मोहनराममाथुर, चन्द्रभान, राजाराम, दौलतराम, हरनागरमथुरिया, कृपाराम, दानीरामचौबे, लछमनगुरु, जैकृष्ण, मंसाराम, सुखराममाथुर, चंके, बंके, मानसिंह, उद्धतराम, जुआरसिंह, बुद्धिबलचौबे, लोकमन, श्यौसिंह, उदैभान, नैंनू, झग्गा, खिल्लू, सभाराम, मितमंता, अनूपचौबे, उदोती, जैतसिंह, आदि । सोमनाथमिश्र, के सुजान विलास में भी इस युद्ध का वर्णन है । इस धन से ब्रज में भारत प्रसिद्ध डीग के भवन चंद्रसरोवर, नवल अप्सराकुंड, हरजी पोखर, बलभद्रकुंड बलभद्र मन्दिर मथुरा, धाऊ की हवेली, जाटवाले चौबों की हवेली, टौंटावारी वक्शी शिवनाथ मिश्र द्वारा इनकी पगड़ी मुकुट छत्र आदि राज चिन्ह धारण कर इन्हैं सुरक्षित साधारण भेष में निकाल कर इनकी संकट में प्राणरक्षा करने पर चौबेजी को प्राणरक्षक के रूप में बड़ी सम्पत्ति दी गयी जिससे उन्हौंने मथुरा चूना कंकड़ मुहल्ले में प्राचीन करागार भवन कारा महल लेकर बड़ी प्रतिष्ठा के साथ जीवन विताया । कुल पति मिश्र की हवेली गली पीर पंच में हैं तथा महाकवि बिहारीलाल का निवास स्थल बिहारी पुरा के नाम से अभी प्रसिद्ध है जाटों की दिल्ली विजय के उत्सव रूप हरदेव पूजन (गोर्धनपूजा अन्नकूट) तथा मानसी गंगा पर अदभुत दीपदान की परंपरा वहाँ आज भी मनायी जाती है । अंगेज़ों से जाटों का युद्ध भी इतिहास प्रसिद्ध है, इसमें भी मथुरा और भरतपुर के कितने ही चतुर्वेदी परिवारों के वीर जूझे थे । राजा रंधीरसिंह के नेतृत्व में लड़े गये इस युद्ध में 4 बार अंग्रेजी सेना पराजित हुई जसराज कवि ने लिखा है-
छोटौ सौ इक किलौ भरतपुर सातौ बिलासत चढ़ आई ।
खट्टे दाँत किये गीरेन के जाट वीरता परिचायी ।।
बोटी बोटी काटे गोरे खाइन में वे लुढ़काये ।
ऊपर कूदपरे आपुन हूगुत्थम पुत्था गरकाये ।।
मरहटा और पेशवा- मरहटा दक्षिण से आये थे ये वैदिक देवता रूद्र गणों में मरूत गणों के वंशज राठोरों के वंशज रूद्र उपासक हैं जो भस्म त्रिपुंड धारी हैं और कुशल लड़ाकू वंशज हैं मुग़लक्षीणता के काल में इन्हौंने दिल्ली सल्तनत पर कब्जा जमाया । इनका संगठन केन्द्र मथुरा में अर्जुनपुरा के समीप एक ऊँचे टेकरे पर था जहाँ इनके मरहटों के महल अब शेष अभी देखे जा सकते हैं शिवाजी के रक्षण के बाद इनका मथुरा और माथुरों पर पूर्णविश्वास और भक्ति हो गयी थी । 1785 वि0 के बाद जो सूबेदार जगीरदार थे वे सभी स्वतेत्र राजा महाराजा बनवैठे इनमें मरहटों के सिंधिया, गवालियर, होल्कर, इन्द्रौर, गायकबाढ बड़ौदा प्रमुख थे । लोकख्यति और सच्चे आचरण मान प्रतिष्ठा के कारण तथा मल्लविद्या की महान उपलब्धियों के कारण ये सभी माथुर चौबों के परम भक्त थे- उनका आदर पूजन और सम्मान करते थे । राजनीति कुशल महादजी सिंधिया तो मथुरा में ही रहकर दिल्ली दरवार की शाही सल्तनत का संचालन करते थे । वे परम कृष्ण भक्त थे, विश्राम घाट पर मुकुट मंडल का मंन्दिर बनाया था पोतराकुंड बनाकर उसके समीप ही बनी एक सुन्दर छत्री और बाग में तन्मय भाव से कृष्ण कीर्तन और सेवा करते थे पोतरकुंड के जल खींचने के मरकंडों की विशालता से ही इनके योगके विस्तार और वैभव का पता लगाया जा सकता है । इनके सतय ब्रज की राधा कंजरी ने इनपर जादू चलाया जिससे चौबों ने ही इन्है। संकटमुक्त कराया माथुरों की सलाह से ही इन्होंने 1847 वि0 में द्वितिय शाह आलम से समस्त भारत में गोवध निषोध का शाही फर्मान घोषित कराया । 1894 वि0 में मथुरा ज़िले में भयानक सूखा और अकाल पड़ा जिसमें महादजी ने माथुरों और ब्रजवासियों की सराहनीय सेवा की ।
1825 वि0 में मराठों ने अंगेज़ों को मथुरा से भगा दिया तब 1860 वि0 में मराठों की अंगेज़ों से मथुरा अर्जुनपुरा के मरहठों के महल में संधि हुई और मथुरा अंगेज़ों को दे दी गयी ।

लालाबाबू और चौबेजी

1869 वि0 में कलकत्ता के बंगाली जमींदार लालाबाबू कृष्ण भक्ति का आधार लेकर मथुरा आये । उनने व्रन्दावन में एक भव्य विशाल राधा गांविन्द का मंदिर निर्माण कराया । उनकी दृष्टि चौबों की विशाल जमीदांरी और भूसम्पत्ति पर थी । प्रथम उन्हौंने ब्रज के गौरहे ठाकुरों की जमींदारी की यह कहकर कि सरकार जमीदारों की सम्पत्ति शीघ्र ही बिना मुआवजा छीन रहीं हैं, उनसे मात्र 672 रुपयों में उनकी सारी भूमि अपने नाम कराली फिर मथुरा के चौबों को भोला भाला पाकर उन्हैं मंग छना कर नित्य ब्रंन्दावन के मंदिर में छककर बढ़ीया भोजन कराकर यही चकमा देकर 100-100,50-50 रुपया देकर उनकी मथुरा और उसके आसपास की समस्त भूमियों भवनों जालदादों को ये सब ठाकुरजी के लिये है एसा आश्वासन देकर हस्तांतरण कराली । काम बन जाने के बाद भोजन बंद हो गये । लुटे दुखी माथुरों ने तब संतोष किया और उनके बाचिक शाप से लालाबाबू को उनके ही घोड़े ने एसी लात जमायी, कि वे फिर उठ न सके और उनका शब सारे वृन्दावन की गलियों में खसीटा जाकर यमुना में प्रवाहित हुआ । लोक में तब यह कि वदन्ती चालू हुई
'लालाबाबू मरि गये धोड़ा लात लुढकाइ । पारिख कैं कीरा परे बिरधि ते कहा बस्याइ ।।'

नादिरशाह और अब्दाली

1795 वि0 में नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला किया । दिल्ली के साहूकारों से 15 करोड़ रुपया नगद तथा 50 करोड़ का सोना जवाहरात लूटकर प्रजा को जी खोलकर कत्ल किया, । वहाँ से भागते हुए लोग ब्रन्दावन में आ छिपे । नादिरशाह के हत्यारे सिपाहियों ने कीमती जेबर जवाहरात छिपा ले चले हैं इस आशंका से उनका पीछा किया और उनको क्रूरता से कत्ल किया । दिल्ली के भूतपूर्व शाही खजाँची धनानदं कायस्थ जो विरक्त साधु थे, उनके हाथ काट डाले जिससे वे मर गये । मथुरा में उनकी लूट के लिये कुछ न बचा था । मंदिर हवेलियाँ सब पहिले ही औरंगजेब द्वारा लूटे और तोड़े जा चुके थे चौबों के कच्चे टूटे फूटे के कोठे कोठरी थे, जिनके निवासी नरनारी नगर से दूर बनों बगीचियों और खेतों में रहते थे । पहलवान लोग रज में लिपटे लंगोटी लगाये अखाड़ों में ज़मीन पर लुड़का करते थे । घर घर नांदिर के दिल्ली पर अत्याचारों की चर्चा थी । नारियाँ गाती थी- नादर श्याह मरी तेरे हौलों से यह गीत आगमन न होकर भय और आशंका के वातावरण का प्रमाण हैं ।

अब्दाली आक्रमण

1814 वि. में अहमद अब्दाली ने दिल्ली से मथुरा पर आक्रमण किया । ग्वालियर का मरहटा सेनापति अंताजी जो मथुरा अन्तापाड़ा में था 3 हज़ार सेना लेकर उससे लड़ने गया तथा जाटों की बड़ी सेना ने भी चौमां में अब्दाली से मोर्चा लिया । उस समय होली का अवसर था अब्दाली ने चौबों को बुलाकर कहा- 'मेरे अजीजो ! ब्रज की होली नामी है आप हमारे दोस्त हो बादशाहों ने इज्जत दी है, मुझे भी कुछ होली का रंग दिखलाओ' चौबों ने हँस कर कहा- 'वेशक मालिक जरूर दिखलायेंगे, तीन चीज यहाँ की ख़ास हैं- रबड़ी का भोजन, जमना की सैर और लोगों की मस्ती नाच रंग' । अब्दाली ने कहा- 'यह सारा सरंजाम आप लोगों को ही जुटाना है' इस वार्तालाप से चौबों के रंगीले ज्वान काफ़ी प्रभावित हुए, उनने 5 बड़े मटकों में गोबर भरकर ऊपर से रबड़ी सजायी और उन्हैं अब्दाली के शिविर में पहुँचाए । अब्दाली के सामने वे मटके पेश हुए उसने खुश होकर कहा- चौबों की सौगात सब को बाँट दो ? बाँटने के लिए प्यालियों में रखने को जैसे ही मटकों में हाथ डाला गया गोवर निकल पड़ा और अब्दाली गुस्से से चिल्लाया-'ओफ ? यह गुस्ताखी, इतना गन्दा मजाक, इन शैतानों को आज ही इसका मजा चखाया जाय'
शाम का समय आया- चतुर्वेदी जवान छैला सज सजकर चौपई की तैयारी करने लगे । नारियाँ छतों छज्जों चबूतरों पर झूमने लगीं, तभी अब्दाली की केशोपुरा में पड़ी सेना लपलपाली तलवारें लेकर नगला पाइसा की गली में घुसीं- जो सामने आया तलवार से काट डाला- चौबे वेख़बर थे, देखते ही पुकारे- मुसल्टरा आइ धरती पर लुढ़कने लगे- भागती नवयुवतियों के ऊपर तलवारों के प्रहार होने लगे । देखते देखते सारा नाच रंग ख़ून की कीच रूदन हाहाकार और चीत्कारों में बदल गया । 'आगे मत बढ़ना चौबों का मजबूत गढ़ है' कह कर पठान सेना पीछे लौट गई ।
रात भर चौबों में कल की आशंका पर विचार चलता रहा । दूसरे दिन नई चौपाई थी । चौबेपुर के प्रवेश के 14 मार्गों में से 6 जो संकीर्ण थे पत्थर के टीलों ईंट भाटाओं से बन्दकर दिये गये । 6 मार्ग भी ईंट खंगड़ों से दुर्गम बनाकर उन पर 400-400, 500-500 ज्वान बजरंगी लठा, जोड़ी, मुगदर, फरसा, बल्लमों से लैस होकर आ डटे । गूजर जादों अहीर भी अपने मोर्चों पर थे । दोपहर होते ही अफ़ग़ानी सेना दलबादल सह उमड़ कर आयी- 'या अली' वे चिल्लाये 'जै बजरंगा ' इधर से जबाब मिला । माथुर पहलवानों का दल शूरवीर और मस्ताना था । जिन्होंने रीछों से कुश्ती लड़ी, बवरशेर पछाड़े, हाथी दबोचे, मगरों से युद्ध किया विशाल वृक्षों को चीरकर बल अजमाया वे वीर घोड़ों पर कुदकते सिपाहियों को मच्छर भुनगा समझते थे । उन्होंने कलाई तोड़कर तलवारें छीन लीं, घोड़ों पर चढ़े सवारों को घोड़ों सहित जोड़ी मुगदरों से कूट डाला, जो आगे बढ़ा उसे फरसा से काटकर या टांग पकड़कर पछाड़ कर अथवा पैर पर पैर रखकर चीर कर दो पला कर दिया । यवन सेना घबरा गयी और भाग उठी । मोर्चा चौबों के हाथ रहा । उनके लठा भादों की घटा की तरह बरस रहे थे । हार कर पठानों ने मोर्चें से बाहर चौबेजी के बुर्ज पर हमला किया जहां एक छोटी सी टोली ने उनके सैंकड़ों सिपाही मार डाले तथा बगल से एक बरछा लगने से खुश्यालासिंह नाम के एक चौबेजी परम गति को प्राप्त हुए, जो भुमिया बाबा के थान के रूप में पूजे जाते हैं- बुर्ज नहीं टूट सका ।
तीसरे दिन अब्दाली ने हुकम दिया - 'चौबों की तरफ कोई न जाय- साहूकारों व्यापारियों को लूटो काटो मारो ।' और सेना का रूख घीया मन्डी, रामदास की मन्डी, गुड़हाई, ब्रन्दावन दरबाजा, गौघाट, बैराग पुरा की ओर घुमा दिया गया । भारी मारकाट और लूट की गई परन्तु धन कुछ ज़्यादा हाथ न लगा क्योंकि औरंगजेब ने पहले ही सब कुछ सफाया कर दिया था । तीन दिन के बाद पस्त हौसले वाला अब्दाली महावन पर किले में भारी दौलत है यह सोच कर चढ़ चला, किन्तु वह किला राजा सकीट (राणा शक्तिसिंह) का था हरदत्त द्रोण उसका रक्षक था उसके आज्ञा देते ही 5000 नागवंशी महाविषवर्षक नागा साधु चमचमाती तलवारें लेकर निकल पड़े- उनने जो युद्ध मचाया उससे अब्दाली का कलेजा बैठ गया । 20 हज़ार अफ़ग़ान सेना के सिपाही और सिपहसालार इन वीरों ने 4 घण्टे में कचरघान कर दिये । मुसलमान इतिहास लेखकों के अनुसार इनके 2000 नागा मरे ऐसा लिखा गया है । इस घटना के वर्णन में जिसे माथुर छोटा साका कहते थे मुसलमान शाहों और नवाबों के टुकड़ों पर पलने वाले खुशामदसे मालिकों को फुलाकर उनसे मन चाहे इनाम पाने वाले मुसलिम लेखकों तथा उनहीं को शिरोधार्य मानकर इतिहास को कुरूप करने वाले लेखकों ने जो बढ़ाचढ़ा कर लूट के धन और गुलामों की संख्या का उल्लेख किया है वह सर्वथा मान्य नहीं है ।
हिन्दू ख़ासकर चौबों की एक भी नारी कैद में नहीं पड़ी । गूजर अहीर माली खत्री कायस्थ वैश्यों की जो कुछ थोड़ी सी रूपवती युवतियाँ इनके हाथ पड़ीं उनने सिर पटककर अन्न जल त्याग कर यहीं प्राण विसर्जित कर सती धर्म का पालन किया । एतिहासिक प्रबल तथ्य यह भी है कि गजनी गोरी के समय में जो हिन्दू गुलाम बनाकर ले जाये जाते थे वे सुलेमान ओर हिन्दूकुश पर्वतों की चढ़ाई पर ही कड़ाके की ठन्ड से (चीथड़ों में लिपटे अधभूखे) कांपते हुए मर जाते थे, इसी से उस पर्वत का नाम हिन्दुकुश (हिन्दू की मौत) रक्खा गया और भविष्य में भारत से गुलाम ले जाने की निषेध नीति स्थिर कर ली गई थी । साधुओं की झौंपड़ियाँ तो मथुरा के घाटों पर श्रीं ही नहीं- जो निम्बार्क और गौड़ीय सम्प्रदाय के साधु मथुरा में मथूकरी भिक्षा करने आते थे वे भी भिक्षा पाकर दूरदूर गिरिराज तरह राधाकुंड कामां वृन्दावन आदि में चले जाते थे । अही भी अपनी गायों को लेकर मांट नौहझील के गहन बनों में चले गये थे । इनके सम्बन्ध में गढ़े गये गपोड़े बिलकुल ही अविश्वस्त है ।

अंगरेजी राज्य

1859 वि0 में पेशवा से मथुरा के अर्जुनपुरा में सन्धि करके अंगेज़ों ने अपना कम्पनी राज्य स्थिर कर लिया । अंगेज़ों की राज्यव्यवस्था देखने में उदार और रक्षात्मक थी, किन्तु अपने देश का पक्षपात, भारतियों से राजकार्यों में भेदभाव तथा हीनता की दृष्टि से भारतियों के हृदयों में विदेशी शासन के प्रति आशंकायें जाग्रत होने लगीं थी । इस भावना ने जब उग्र रूप धारण किया तो 1857 (1914 वि0) का सेना विद्रोह प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम' के रूप में फूट पड़ा । आरम्भ में माथुर अंगेज़ों के प्रशंसक थे किन्तु राजनीति नग्नता प्रकट होने पर वे उनके कट्टर विरोधी बन गये । विद्रोह के प्रकट होने से पहिले से ही वे सेना में स्वाधीनता की भावना के प्रचारक बन चुके थे । फौजी सिपाही और अफसर जो यमुना स्नान को आते उन्हैं वे अंगेज़ों की गुलामी से छूटने के लिए प्रेरित करते थे । गदर में जब मथुरा कचहरी का खजाना लूटा गया तब नागरिकों के दल में 200 चौबे शामिल थे । इन्होंने कोष लूटा उसे आगरा नहीं जाने दिया अंगरेजों की कचहरी बँगले जलाये गये तथा कप्तान बार्लटन सहित अनेक गौरे अफसरों को मार डाला ।
अंग्रेजी शासन की जड़ उखाड़ने के प्रयासों में चौबे सबसे आगे रहते थे उन्हैं 'अगलगी कौ बरा' कहा जाता था- उस समय के अंग्रेज़ लेखक ग्राउस और ड्रेक ब्लैक मैंन ने अपने मथुरा गजेटियरों में लिखा है- मथुरा के क्रांतिकारियों को मथुरा के चौबों से बड़ी सहायता प्राप्त हुई इस क्रांति के जन्म दाता भी चौबे ही थे । क्रांति के पूर्व ही उन्होंने महोली (मधुवन ध्रुवजी की कदम खंडी) में क्रांति आयोजकों का एक सम्मेलन किया और उसमें मथुरा के उग्र विचारों वाले विद्यागुरु स्वामी विरजानन्द को एक पालकी में बैठाकर वहाँ ले गये, उनका भेट पूजा से समादर किया और उनके प्रभावशाली भाषण से उपस्थित जनों को अपने निश्चय में दृढ़ प्रयासी बनाया ।
इस सम्मेलन में बादशाह बहादुर शाह के शहजादे, मरहटा सरदार रंगोबापू तथा शाही इमाम अजी मुल्ला खाँ, तात्या टोपे तथा जगदीशपुर के कुंवरसिंह उपस्थित थे ।
इस राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चे में मथुरा के सेठ गोविन्दास राधाकिशन ने जो अँग्रेजी अफसरों की रक्षा की उससे कुपित विद्रोहियों के सेना प्रहार से मुनीम मंगीलाल श्रीनिवास माहेश्वरी चौबे रामदास जी तथा उनके प्रमुख निर्देशक चौबे छंगालाल जी ने मथुरा नगर की बड़े गम्भीर संकट में रक्षा की । अषाढ़ मास में फौजी विद्रोहियों का एक दल मथुरा में दो दिन रूका, उस समय नगर निवासियों से कुछ धन इकट्ठा कर मुनीम मंगीलाल ने उन्हें आगे बढ़ा दिया । कार्तिक के बाद एक दूसरा दल फिर आया जो मथुरा को तोपों से उड़ा देने के इरादे में था । श्रीचिंतामणि शुक्ल अपने मथुरा जनपद के राजनैतिक इतिहास में लिखते हैं- '26 दिसम्बर को दिल्ली से वापिस आते हुए क्रांतिकारियों का एक दल मथुरा आया । यह दल की 72 वी नाम की पल्टन से मिल गया , इस दल के नायक सूबेदार हीरासिंह थे । सेना की इस ब्रिगेड ने यमुना के पास सेठ की हवेली की ओर मुँह करके तोपैं लगा दीं, जिससे नगर आतंकित हो उठा । सूबेदार हीरासिंह इलाहाबाद ज़िले के ब्राह्मण थे तथा चौबे छंगालालजी के यजमान थे । मुनीम मंगीलाल ने तथा चौबे रामदास जी ने जो इन्हीं के मकान में रहते थे उनसे प्रार्थना की कि वे हीरासिंह को इस कार्य से विरत करैं और सामदाम नीति से मथुरा नगर की रक्षा करैं । श्री छंगालाल जी तब अकेले नाव लेकर यमुना पार 72 वी सेना के शिविर में गये । सूबेदार हीरासिंह को समझाया और मन का आशय लिया कि उनके पास रसद की कमी है, वे एक लाख रुपया नगद तथा रसद चाहते हैं । तत्काल उन्हौंने सेना को आटा दाल आदि खाद्य सामिग्री पहुँचवादी । तब हीरासिंह ने सरकारी कलक्टरी कचहरी कोतवाली तहसील पर कब्जा किया । इस समय मथुरा की जामा मसजिद के मौलवी करामात अली बादशाह के प्रतिनिधि (बायसराय) घोषित किए गये- रहमतुल्ला सदर कानूगो, मनोहरलाल सरिश्तेदार, वजीर अली को कलक्टरी के औहदेदारों के पद दिये गये- नये नये राजाज्ञा पत्र (आर्डर) जारी किए गए हीरासिंह 15 दिन मथुरा में रहे तब तक मुनीम मंगीलाल ने बड़ी चतुराई से मथुरा से सेठों से 1 लाख रुपया (1000-1000रुपया) इकट्ठा करके उनके अर्पण कर दिये ।
दुर्भाग्य से इसी समय तीसरी बार बरेली की बागी पल्टन ने मथुरा में प्रवेश किया । उसने भी अपनी तोपें विश्रान्त और असिकुन्डा के घाटों के सामने लगाकर उनके मुँह सेठ की हवेली की तरफ कर दिये । अब मंगीलाल मुनीम घबड़ाये, तुरन्त सूबेदार हीरासिंह के पास गये, उनसे नंगी तलवारें लिए 100 घुड़सवार मौके पर भेजे- बरेली के फौजी दस्ते के सूबेदार को समझाया और उनके न मानने पर उनकी तोपों हथियारों पर कब्जा कर उन्हैं बलपूर्वक मार कर भगा दिया । फिर सूबेदार हीरासिंह अपनी फौजी टुकड़ी को लेकर हाथरस बरेली को चले गये । आश्विन मास में क्रांन्ति की ज्वाला मन्द पड़ने लगी और तब तक अँग्रेजों ने अपना सैन्य बल पुन: संगठित कर कठोर दमन का चक्र चलाना आरम्भ कर दिया । लोगों को खोज खोज कर सार्वजनिक स्थानों पर फाँसी पर लटकाया गया और उन्हैं गोलियों से उड़ा कर बदला लिया गया । चतुर्वेदियों के वे उत्साही शूरवीर जिन्हौंने इस क्रांति में आगे बढ़कर भाग लिया था शत्रुओं के हाथों अपराधियों की मौत मरने को तैयार न थे अत: वे अपने 40 साथियों के साथ विभिन्न स्थानों में बिलीन हो गये जिनका फिर कोई पता न चला । चौबों में जो दैनी के गिदौड़ा बांटे जाते हैं उनमें उस समय 'गदर के 40 आँक' धड़े दारों को दिए जाते थे । उस समय इन वीरों के नाम लेने पर भी कड़ी पाबन्दी थी अत: लोग उन्हैं भूल गये । अति महत्व की बात यह है कि किसी अज्ञात प्रयत्न से उस समय के कंपनी के सरकारी गदर के कागजात भी गुम हो गये, अत: यह जानना दुष्कर हो गया कि इस साल में मथुरा में कितने किन व्याक्तियों को क्या कुछ हुआ ।
चौबों की उत्कट देश भक्ति और बलिदान भावना की एक घटना जो परम अद्भुद है राजक्रांति के इतिहास में अमर हैं । जिस समय सदर बाज़ार में निरपराध रोते बिलखते लोगों को फांसी दी जा रही थी उस समय अचानक कहीं से आकर नरसीं चौबे नाम के एक निर्भय देश भक्त ने ललकार कर कहा- 'कायरो, रूको इन निरपराधों को क्यों फाँसी दे रहे हो- गोरों का मारने वाला तो मैं हूँ-मुझे जो कुछ बने करो' गोरे सत्र रह गये, काना फूँसी की और उस बहादुर वीर को फांसी पर लटका दिया । इस सम्बन्ध में एक गोपनीय रहस्य मयी और घटना है । हीरा सिंह जब मथुरा से जाने लगे तो उनके साथ के एक राजस्थानी गूजर सिपाही ने उनसे आज्ञा ले मथुरा में ही रहना निश्चय किया । वह व्यक्ति जो अपना नाम भवानी नाम बतलाता था और अर्ध विक्षिप्त की तरह सारे दिन एक कोठरी में अपने आश्रयदाता श्री द्वारिका नाथ जी के पुत्र श्री लालजी महाराज की हवेली में बन्द पड़ा रहता था तथा जब बाहर जाता सड़क पर पड़े कागज चिथड़े कील पत्ती लोहा झोली में भर लाता था आजीवन यहीं रहा । उसने अपना गाँव जाति कभी किसी को नहीं बतलाया- लेखकने स्वयं उसे अपनी बाल्य अवस्था में देखा था । अँग्रेजों की सहायता के पुरस्कार में सेठों को 'राजा' का तथा चौबे रामदासजी को 'राय बहादुर' का खिताब एवं सेठों को बागी देशभक्तों की जप्त की गई 16 लाख सालाना की जमींने गांव और जमीदारियाँ दी गई । मथुरा में जयसिंहपुरा में गणेश टीले के पास पेशवावंशज नाना साहब की एक भव्य कोठी तथा बाग था अँग्रेजों ने इसे ध्वस्त करके बाग के वृक्षों को भी काट कर अपना कलेजा ठन्डा किया ।

प्रमुख महापुरूषों का मथुरा पदार्पण

1893 वि0 में रामकृष्ण परमहंस, 1945 वि0 में स्वामी विवेकानन्द, 1962 वि0 में स्वामी रामतीर्थ, 1974 वि0 में लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय, 952 वि0 में विनोबा भावे, 1976, 78,86 में महात्मा गाँधी, 1978 वि0 में लाला लाजपतराय, अबुल कलाम आजाद, डा॰ अन्सारी, आसिफ अली, पं0 मोतीलाल नेहरू, 1974 वि. में लोकमान्य तिलक, 1983 वि. में जवाहरलाल नेहरू, 1987 वि. में विठ्ठलभाई पटेल, 1988 वि. में सुभाषचन्द्र बोस, अरूणाआसिफ अली, 1994 वि. में लाल बहादुर शास्त्री, 2011 में पुरूषोत्तमदास टन्डन, 2016 वि. में बाबू राजेन्द्र प्रसाद, इन्दिरा गांधी मथुरा पधारे, इनमें से प्राय: सभी ने यमुना जी के स्नान दर्शन कर माथुर चतुर्वेदियों का यथोचित सम्मान किया ब्रज संस्कृति का सुमधुर रसास्वादन किया और जनता में जन जाग्रति का शंखनाद किया ।

धर्माचार्यों का आगमन

धर्मचार्यों में जगदगुरु श्री शंकराचार्य, रामानुज जीयर स्वामी, मैसूर के राजगुरु स्वामी, झालरिया नागौरी मठों के स्वामीजी, माध्वाचार्य, बल्लभ संप्रदाय के गोस्वामी गण, चैतन्य महाप्रभु श्री सनातनरूपजी तथा अन्य गौड़ीय आचार्य, निम्बाकै के आचार्य, रामानंदी पयहारीजी, अनंतजी कीलजी नाभाजी प्रियादास हितंहरिवंश आदि अनेकानेक महानुभाव मथुरा पधारे जिनके परंपराबद्ध हस्तलेख माथुरों के पास हैं ।

ब्रज यात्रा आयोजन

ब्रजयात्रा मथुरा मंडल ब्रजभूमि की अति प्राचीन यात्रा पद्धति है । प्रभु आदिवाराह 9260 भगवान राम 4035 वि0 पू0 , भक्त प्रहलाद 9254 वि0 पू0, श्री नारदजी 9000 वि0 पू0, उद्धवजी 3100 वि0 पू0, वज्रनाभ 3042 वि0पू0 , तथा निम्बार्क संप्रदाय, बल्लभ संप्रदाय गौड़ीय संप्रदाय, राधा बल्लभ, राधा रमण, संप्रदायों के आचार्यों ने ब्रज यात्रायें की है इनमें माथुरों की अपनी ब्रजयात्रा लठामार सब से पुरातन थी जो अब साधु संतो द्वारा की जाती है । बल्लभ संप्रदाय की ब्रज यात्रा तो प्रति वर्ष तथा कभी कभी कई कई गोस्वामियों द्वारा बड़े समारोह और राजसी ठाठ से की जाती है । मथुरा के चौबेजी जो ब्रज चौरासी कोस के तीर्थ पुरोहित है वे ही इन यात्राओं में साथ साथ चलकर यात्रा के तीर्थों का तीर्थ विधान दान दक्षिणा दर्शन महात्म परिचय आदि की विधि सम्पन्न कराकर अपना सनातन कर्तव्य निभाते हैं । अनेक श्रद्धालुजनों को इन ब्रजयात्राओं में भगवद् साक्षात्कार और आलौकिक अनुभव दिव्य रसास्वादन आत्मतत्वबोध आदि की परम दुर्लभ अनुभूतियाँ प्रत्यक्ष होती हैं जो जीव के लिये जीवन का परम लाभ है ।

भक्त और संत महात्मा

माथुरों द्वारा मथुरा का दिव्य रसास्वादन प्राप्ति हेतु यहाँ आने वाले भक्तों और संतों की सूची लंबी है । उनमें से कुछ प्रमुख महानुभावों के नाम यहाँ देना संभव है । म0 विष्णुस्वामी महाराज 1257 वि0 । श्री भट्टजी 1344 वि0, रामानंदजी 1356 वि0, श्री स्वामी हरिदासजी 1541 वि0, श्री हितहरिवंशजी 1559 वि0, भक्त नाभादासजी 1600 वि0, पयहारीजी 1572 वि., स्वामी अग्रदास 1632 वि0, श्री अनंतदास 1645 वि0, श्रीहरिराम व्यास 1541 वि0, रानाकुँभा 1490 वि0, तानसेन 1624 वि, मीराबाई 1592- 1620 वि0, गो0 तुलसीदास 1628 वि0, महात्मासूरदासजी 1565 वि0, पशुराम देव 1450 वि0, श्री गो0 बल्लभाचार्य 1549 वि0, श्री चैतन्यमहाप्रभु 1572 वि0 राना सांगा (संग्राम सिंह) 1584 वि0, चंद्रसखी 1648 वि0, भक्त कवि सेनापति 1680 वि, श्री विठ्ठुलजी , बिहासन दास जी, भगवद्रसिकजी, ललितमोहिनीजी, ललित किशोरी जी, रंछोर दासजी, स्वामी कील ध्रुवदासजी, गो0 बिठ्ठलनाथजी 1600 वि0, 'भक्त रसखान 1592 वि0, श्री माधवेन्द्र पुरीजी 1507 वि0, श्री ईश्वर पुरीजी 1538 वि0, पद्मना दास 1560 वि, श्री रूप जी 1572 वि0, श्री सनातनजी 1592 वि0, श्री जीव गोस्वामी 1592 वि, श्री रघुनाथ गो0 रघुनाथ भट्ट, गदाधर भट्ट, श्री गोपाल भट्टजी(राधारमणी गो0) 1616 वि0, श्री नारायण भट्ट 1602 वि0, श्री केशव काश्मीरी 1598 वि, भक्त महाकवि बिहारी लाल चौबे 1660 वि0, बेगम ताज 1580 वि0 नागरी दासजी 1622 वि0, भक्त जगतानंद कवि 1658 वि, ब्रन्दावन देव हरिदासी 1754 वि0, मुकुँद हाड़ा बूँदी के 1635 वि, अमरसिंह हाड़ा जोधपुर के 1621 वि0, राजा पृथ्वीराज बीकानेर के 1624 वि, घमंडीराम करहला के 1549 वि0, उदैकरण 1700 वि0, खेमकरण 1755 वि0,विक्रम 1735 राजामानसिंह 1597 वि0, राजाजयसिंह 1760 वि0, रहीम खान खाना 1580 वि0, बीर सिंह बुँदेला 1671 वि0, आनंदधन गोस्वामी नंदगाँव के 1620 वि0, प्राणनाथ स्वामी परनामी 1628 वि0, हठी बरसानियाँ 1622 वि0, ओलीराम 1621 वि0, भक्त नाभादासजी 1600 वि, प्रियादासजी 1719 वि0, लालाबाबू 1866 वि0, भक्त कवि छीतस्वामी 1572 वि0, तपस्वी भक्त द्वारिकानाथजी मिहारी 1896 वि, बूटी सिद्धजी 1744 वि, राज पटनीमल काशी 916 वि, पंडितराम जगत्राथ सम्राट दीक्षित 1767 वि, । राधेबाबा 2028 वि, गुदारिया बाबा 2030 वि, ग्वारिया बाबा 2000 वि, । देवा सिद्ध योगीराज 1838 वि, । श्री रज्जू जी महाराज 1980 वि, ।

बर्तमान कालीन सन्त महात्मा

युगल बिहार उपासी अनन्य रसिकवर श्री स्वामी हरिदास जी महाराज के गादीस्थ श्री राधाचरणदास जी टटिया स्थान वृन्दावन, श्रीयोगीराज महाराज के गोपाल पीठ के आचार्य श्री विट्ठलेराजी महाराज मथुरा, विरक्त सन्त कौशल किशोर मन्दिर वृन्दावन के महंतपस्वी श्री कौशल किशोरजी महाराज, पनकी कानपुर के हनुमान मन्दिर गादी के महन्त श्री भुवनेश्वरनाथ जी (मत्रू बाबा) पनकी कानपुर ।
माथुरों के भेद उपभेद-
माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों के दो भेद हैं- 1. कड्डए चौबे 2- मीठे चौबे ।
कडुओं में 1- मथुरास्थ, 2-प्रवासस्थ दो भेद हैं । प्रवासी बन्धुओं में 1- कुलीन, 2 कदलुआ, 3- सैंगबार तीन उपभेद हैं ।
खड़ग कवि ने कहा है-
करूऔ बौलैं मीठौ खाँइ, मथुरा छांड़ कहूं नहीं जांइ ।
मथुरा के हित सीस कटाये, पुरखा पंगत पैज निभाये ।।
राउरंक की करैं न कान, करूऔ पीतौ राखै आन ।
हित की बात गरजकैं कहैं, राग द्वेषते न्यारे रहैं ।।
कठिन खरखरे खरे सुहाये, करूए पीते करूए कहाए ।।
मिठबोला जो मीठे रहे, जीव बचात धाम तजि गये ।
करूएन नैं जब सीस कटाए, खीर खांड़ मीठेन नें खायें ।।
करूएन झेले संकट घोर, बने न कुल कीरति के चोर ।
अचल रहे ब्रत मेरू समान, धीरज धरम तेज की खान ।।
माथुर तीन लोक ते न्यारे, चौबे तीन लोक के प्यारे ।
जमुना मैया सदा सहाई, अमर कीरति भूमण्डल छाई ।
मथुरास्थ- मथुरास्थ माथुरों की प्रधान शाखा है जो अपने मूल उत्पत्ति केन्द्र मथुरा नगर में बसी है । इसी में से समय समय पर उक्त सभी शाखायें निकल कर बाहर फैली हैं । मथुरास्थों के आचार विचार स्वधर्म और कुल परम्परा की दृढता सभी के लिए अनुकरणीय और प्रेरणा दायक है । अपने कठोर संयम और अविचल भाव तथा आत्मगौरव के लिए मरमिटने की दृढनिष्टा के कारण ही ये कडुए चौबे नाम के विख्यात हुए हैं । इनका कुलाचारा आज भी आदर्श है जिसकी विशेषता यह है कि- 1 ये कच्ची रसोई किसी ब्राह्मण या अन्य जाति के हाथ की ग्रहण नहीं करते । 2 इनके यज्ञोपवीत आदि संस्कार शास्त्रानुसार यथा समय होते हैं । 3 ये हुक्का चिलम तमाखू बीड़ी सिगरेट नहीं पीते, मद्य मांस प्याज लशुन सुलफा गांजा अन्डा केक होटल का किसी भी प्रकार का भोजन स्वीकार नहीं करते 4 ये चोटी यज्ञोपवीत कंठी तिलक धारण करते, स्नान के बाद ही भोजन पाते तथा यथावकाश गायत्री संध्या तर्पण श्राद्ध देवपूजन नैवेद्यनिवेदन देव स्तुति आदि ब्राह्मण कर्मों का दृढता से पालन करते हैं, 5 ये अपने को श्री यमुना माता का पुत्र मानते हैं तथा माता जी की रक्षा कृपा पर पूर्ण भरोसा रखते हैं ।
कुलीन- ये मथुरास्थ गुरुओं के आचरण को निष्ठाऔर श्रद्धा के साथ धारण करने से प्रयासी माथुर कुल के गौरव को स्वाभिमान के साथ निर्वाह करने वनाये रखने के कारण ये अपने को श्रेष्ठ माथुर कुल धारी होने के गौरव के हेतु से कुलीन कहते हैं ।
बदलुआ- अपनी मध्यमवर्गीय आर्थिक स्थिति के कारण बड़े धनी समृद्ध वर्ग में विवाह सम्बन्ध न कर पाने के कारण परस्पर में कन्या के बदले में कन्या लेने के सामाजिक व्यवहार के कारण ये बदलुआ कहे गए । यह बदले की प्रथा पहलवानी काल में पुत्रों की बहुवृद्धि के कारण मथुरा के मथुरास्थों में भी प्रचलित हो गयी थी ।
सैंगवार- सैंगरपुरा मथुरा से अपने प्रयाण के कारण ये अपने को सैंगरवार या सैंगवार कहते थे । 'कैमर पूजै सैंगरखांइ' कहावत के आशय से यह भी सिद्ध होता है कि त्रेता द्वापर युगों के समय में ये सैंगर (शमीवृक्ष) की फली, सैंगरफरी को सुखाकर उनका आहार में पुरोडाश (हलुआ लापसी) बनाकर प्रयोग करते थे । शमी वृक्ष को छौकर खेजड़ी कीकर कई नाम से जाना जाता है । महर्षि वेद व्यास के तपोवन शम्याप्राश के मुनिजन शमी आहारी थे । राजस्थान में त्स्य देश में कैर सांगरी एक बहुप्रचलित सुखाया हुआ शाक है । खेजड़ी को आहार मे प्रयुक्त करने वाले केजड़ीवाल, छौंकर भक्षी छौंकर, कीकर भोजी काकड़ा व्यास ब्रह्मर्षि देश में हैं ।
मीठे चौबे- मीठों में उपभेद नहीं हैं । वे सभी 'रचनं मधुरं बचनं मधुर' की मीठी चाशनी में पगे हैं । अति मधुरता के कारण इनके ब्रज तथा राजस्थान के किसानों जाटों गूजर मैंना अहीरों के साथ घुल मिल जाने के कारण इनके माथुरी आचार में काफ़ी ढिलाई आ गई । ये हुक्का पीने लगे खाट पर बैठ कर जाट गूजरों के साथ दालरोटी खाने लगे, समय पर संस्कार यज्ञोपवीत आदि से विरहित हो गये, स्नान करके भोजन करना गायत्री जाप आदि कर्म उपेक्षित पड़ गये, इतना ही नहीं जबकि चीतौड़ा भदौरिया आदि बन्धुओं ने दूर से आकर मथुरा में अपने आवास पुन: स्थापित किये तब इन्हौनें समीप ही रहते हुए भी मथुरा में अपना कोई दस बीस घरौं का मुहल्ला भी नहीं बसाया । इन्होंने मथुरा और मथुरास्थ बन्धुओं से आत्मीय सम्बन्ध भी शिथिल कर लिए और कुछ अंशों में कटु जैसे बना लिए । इनकी यह मनोदशा और आचार स्खलन को देखकर मथुरास्थों का इस दिशा में कोई संगठित या सुनिश्चित निर्णय नहीं था केवल व्यक्तिगत भावनाओं से लोगों को यह अरूचिकर बन गया । अब समय बदला है इनमें शिक्षित संस्कारित और संगठन भावी लोग आगे बढ़ते आ रहे हैं । प्रेमपरक माधुर्य और स्नेह के सरस सौम्यरूप श्री बाबूजी मुनीन्द्र नाथजी जैसे सत्पुरूषों के संगठन प्रयासरूप समय पलटेगा ।

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