बुधवार, 29 जून 2016

रसभरी प्रेम कविताओं में कतरा कतरा दर्द








अनमी शरण बबल



कैसे एक दर्द/ किसी की  खुशियों और उम्मीदों पर
अमरबेल सा पसर जाता है
अब वो पहाड़ और मैं / एक ही दर्द के साझीदार है/
अनंतकाल तक के लिए।
  
नागपुर की चर्चित कवयित्री अर्चना राज के पहल काव्य संकलन कतरा कतरा दर्द की अंतिम कविता पहाड़ की आखिरी चार पंक्तियां है। मैं इसका इसलिए खासतौर उल्लेख कर रहा हूं कि इनकी कविताओं में प्रेम केंद्रीय भाव है। मगर उसके प्रति मरने जीने मदहोश रहने और झूठे कसमें वादों मे ही सिमटे रहने की लालसा भर  की ये कविताएं नहीं है। इसमें प्रेम के साथ आत्मसंघर्ष की पीड़ा और सामाजिक नियति से टकराने या विद्रोह करने का हौसला भी है। काव्य संकलन की भूमिका लिखते हुए ओम प्रकाश नौटियाल नें आरंभ में ही लिखा है कि जीवन के विषाद निराशा टीस कसक क्षोभ प्रेम की उहापोह की संवेदना भाव प्रस्फुटन से ये कवितएं पाठकों के मन को झंकृत करने में सामर्थ्थ रखती है।
कतरा कतरा दर्द में छोटी बड़ी 83 छंदमुक्त कविताएं है । जिसको पढ़ना यदि काव्य सौंदर्य के साथ भावों के विराट सागर में पाठक आनंदित महसूसेगा। कहा जाता है कि संक्षेप में लिखना या भावों की प्रस्तुति कठिन होता है. मगर सबसे ,सुखद प्रसंग यही है कि कवयित्री की छोटी कविताएं ज्यादा सारगर्भित और भावों को ज्यादा सरलता के साथ  अभिव्य्क्त करती है।
संग्रह की पहली कविता है ढलती उम्र का प्रेम ।

कभी कभी बहुत गाढा /कभी सेव के रस जैसा/
कभी बुरांश / कभी वोगेनविलिया के फूलो जैसा/
 कभी जड़ तले / तो कभी पोखर की मछलियों जैसा
ढलती उम्र में भी होता है प्रेम
यह कविता सहसा चौंकाती है मगर एक के बाद एक करके आगे बढते हुए करीब 22-23 कविताएं प्रेम की भाव विभोर अनुभूति के साथ पठकों को अपने में बंध लेगी।  

नकार नहीं पाओगे /अपने एक टुकड़ा जीवन पर /
तुम मेरा हक
 मेरा प्रेम

एक तरफ संबंधों को रखने की अंतिम हद तक की यही लालसा एकाएक अगली ही कविता में लुप्त हो जाती है।
समस्त प्रेम के पश्चात भी/ मैं इंकार करती हूं /
तुम्हारी परछाई होने से ।

काव्य संयोजन की नियोजित प्रस्तुति में असमानता दिख रही है।  एकाएक प्रेम में  साकार होने से इंकार के बाद ही  अगली कविता  उल्लास में एक दूसरे में साकार होने का उल्लास है।

कम्पित हथेलियों में
गिरी एक बूंद / मुस्कान की ,जीने की
आज मेरे सामने आईना नहीं /
तुम थे।

इसी तरह की भावनाओं को प्रस्तुत करती एक और छोटी कविता है

कई बार जीतना/जीतने सा नहीं होता /

हार सुखद होती है /
सामने तुम जो थे ।  

यानी एक तरफ बिना शर्ते समर्पण एक दूसरे के प्रति निष्ठा है।

मैं तुम्हें रचती हूं घटक
भरती रहती हूं तुम्हारे भीतर का खालीपन /
तुम छलक उठते हो /अतिरेक से गर्व से ।


कतरा कतरा दर्द की सबसे बड़ी खासियत है कि प्रेम की लालसा और चाहत के साथ ज्यादातर कविताओं में दर्द पीडा का भाव शिकायतों के लहजे में नहीं आया है।
वियोग कविता को देखे

तुम्हारे वियोग ने नकारात्मक कर दिया /
दर्द मन कलश में/
 कष्ट देह की अंतिम सीमा तक /
क्रम अनवरत ।

एक और कविता रात में इनकी अभिव्यक्ति इस तरह है

लगातार जोड़ता रहता है प्रेम/
 तोड़ती रहती है तकलीफ/
रात दोनों है एक साथ/
प्रेम भी तकलीफ भी / मैं रात होना चाहती हूं।

ठीक यहीं पर प्रेम में एकांत या अकेलेपन की सार्थकत को सुदंर ढंग से सामने लाया गया है। जहां पर प्रेम में फिर किसी की जरूरत ही खत्म सी हो जाती है।

 तमाम उदसियॉ -तन्हाईयॉ कोख की नमी हो जाती है /
महसूस होता है स्वंय का स्वंय के लिए प्रेम हो जाना
अब और किसी की दरकार नहीं /
बहुत सुदंर है प्रेम होकर आईन देखना /
अकेले मे ।



एक स्त्री कविता में उसकी पीडा नियति सौभग्य और सपनो के चक्रव्यूह के बीच एक छवि उभरती है।

एक स्त्री मुस्कुरती है /
रोती है तब भी/
रौंदी जाती है तब भी।
एक स्त्री खिलखिलती है /
अपमनित होती है तब भी /
अतिरिक्त होती है तब भी/ अपने भीतर मात्र अकेली /
एक स्त्री ।


तयशुदा कविता की अंतिम पंक्ति है , जो सामान्य.होकर भी विवशता को परिभषित करती है।
मजबूरियं भी / कई बार
जिंदगी का रूख तय करती हैं।

अनिता राज की कविताओं में मौन बेहद मुखर है। यह मौन कभी प्रेम तो कभी पीड़ा तो कभी अंर्तेद्वंद को रेखाकिंत करती है।

मौन ही एक अकेली दरख्वस्त है / तुम्हारे आने की /
तुम्हारे न आने की।

एक और कविता उम्मीद में मौन कुछ इस तरह मुखर हुआ है।

मौन को उम्मीद की
अंगूली थामें बरसों हुए / कभी कुछ अनकहा रह गया था
शायद अनसुना भी।
मौन को फिर शब्दार्थ करती एक और कविता है खुद ही खुद में।

मौन दर मौन एक  कविता गढ़ती गयी/
खुद ही खुद में 

मगर मौन की शब्दावली में कविताओं के कई रंग है। अनकहा कवित में मौन इस तरह खुद को परिभाषित करती है। ।
मौन के धरातल पर विचरते कुछ शब्द/
समस्त भावनात्मक तीव्रता के साथ भी /
अनकहे ही रह जाते है।

कविता के मौन भाव पर एक पाठक नवीन कुमर चौरसिया की यह टिप्पणी एकदम सटीक सी है कवयित्री अर्चन की मौन की अगर कई भाषा होती तो मौन आज फफक पड़ती बिलख पडती और सारे संयम के बांध को तोड़कर लिपट जाती आपसे और आपके शब्दों के जरिए सीने में उतर कर जी भर स्नेह बरसती और कहती कि तुम मेरी आवाज हो तुम धड़कन हो और आज तुमने मेरी खवाहिश पूरी करके मेरी जिंदगी बन गयी हो। किसी और कवि ने शायद ही मौन को मर्मज्ञ होकर समझा हो। नवीन की इस टिप्पणी मे काव्यसार निहित है।

कई पाठकों मे अंजू शर्मा आवेश तिवारी दिवकर विघार्थी, मुकेश मिश्र ,अमन त्यगी
ह्रषीकेश सुलभ की संक्षिप्त टिप्पणी भी कविताओं के सौंदर्य को ही निखारती है। मगर एक पाठक को यदि आपकी कविताएं मनभावन लगेगी तो निसंदेह वह लंबी कविताओं को लेकर थका हुआ सा भी महसूस करेगा. यदि इन कविताओं को निर्ममता के साथ संपादन करके काव्यात्मक लिबास दें तो ये तमाम कविताएं कविता जगत की श्रृंगार बनेगी। 
प्रेम के जीवंतता और प्रेम के सर्वकलीन महत्व को यथार्थ  कविता में अंकित किया है। प्रेम की यह अभिव्यक्ति एकदम दिल में जगह घेर लेती है।
जब तुम नहीं रहोगे जीवित
तब भी रहेगी धरती/ खिलेगा फूल/रहेग आसमान
उगेगा सूरज/ रहेग जल  होगी शीतल......
रहूंगी मैं भी /
कि रहेगा प्रेम ..तब भी।

एक जगह उबाल इस कदर  लावा सा बन गया है कि विद्रोह कविता में इसका स्वर है  
तली से उठा विद्रोह / हाहाकार बन गया/
कि सीमा निश्चित है /सहने की गंगा के लिए

प्रेम की अगन पीडा ललक और नियति को कौन नहीं जानता है। फिर भी जिंदा है प्रेम और जब तक रहेगी सृष्टि तो प्यार भी रहेगा।एक कविता अवशयंभवी में प्रम को ही सुदंर तरीके से परिभाषित किया है।

प्रेम कितना भी दुर्वह हो / दुराध्य हो /
होता अवश्य है।
कभी अतिथि तो कभी शत्रु सा।   

कतर कतरा संकलन में संग्रहित ज्यादातर कवितें छोटी और कई तो बहुत ही छोटी है, मगर यह एक विस्मयकारी  विरोधाभास है कि जिस सहजता सरलता और कोमलता के साथ कोई कविता चंद लाईनों में खत्म होकर प्रभाव छोड़ती है। लगभग तमाम संक्षिप्त  कविताएं प्रेम की पाग से मीठी और रसभरी भी है जो सहसा आकृष्ट करके विभोर कर देती है। यही कवयित्री की सबसे बड़ी ताकत भी लगती है। मगर इनकी लंबी कविताएं शिथिल पड़ने लगती है। ज्यादातर जगह पर भाव सटीक और सुदंर होने के बाद भी प्रभाव नहीं डाल पाती। लंबी कविताएं बहुत सारे अर्थ को विश्लेभित तो करती है मगर अंत अंत तक पाठकों के मन में  ठहर नहीं पाती। यहां पर कवयिज्ञी से एक समीक्षक की बजाय एक पाठक के रूप में कहना चाहूंगा कि वे इन लंबी कविताओं के पुर्नलेखन का मन बनाए। निसंदेह शब्द भाव अक्षरों और कद की परवाह किए बिन यदि निष्ठुरता से इन कविताओं पर फिर से संशोधन या पुर्नलेखन कर सके तो निसंदेह तमाम कवितएं खिल उठेगी और एक नए भाव विचार और काव्य धरातल पर नवीन शब्दावली गढेगी। तमाम विरोधभास के बावजूद अर्चना राज की कविताएं पाठको को रास आएगी। खासकर छोटी कविताएं इनकी काव्य यात्रा को नयी जमीन दे सकती है यदि वे कम शब्दों मे ही या एक एक कर एक बड़ी कविता को क्रमवार अलग रूप में लिखने की चेष्टा करती हैं तो समकालीन बहुत सारे हजारों कविओं से वे काफी आगे भी निकल सकती हैं क्योंकि लंबी कवितएं तो सब लिख लेते हैं मगर छोटी छोटी कवितओं में एक ही भाव को प्रस्तुत करने वाले लेखल कवि तो अंगूलियों पर ही गिने जा सकते है।






1 टिप्पणी:

  1. ...आँखों के समक्ष चलता एक चलचित्र..बहुत मर्मस्पर्शी भावमयी रचना जो अंतस को छू जाती है..

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