सोमवार, 10 जुलाई 2023

,,रवि अरोड़ा की नज़र से.....

 रवि अरोड़ा:/  

बराबरी का हक या यूसीसी



यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी यूसीसी में क्या होगा अथवा क्या नहीं यह तो अभी किसी को नहीं मालूम मगर यह सबको पता है कि देश की 17 करोड़ मुस्लिम आबादी की चूड़ियां कसने के इरादे से यह कानून बनाया जाना है। अब जिनकी एक भी बीवी न हो अथवा जिन्होंने होने के बावजूद उसे छोड़ रखा हो, वे भला कैसे बर्दाश्त कर लें कि हमेशा से उनकी आंख की किरकिरी रहे मुस्लिम चार चार रख सकते हैं। कोई माने अथवा नहीं मगर इस कानून की कवायद की असली वजह यही है। तलाक, भरण पोषण, विरासत और बच्चा गोद लेने जैसी बातें तो मुलम्मा भर हैं। हालांकि इस कानून की जुगत कर रहे लोग भी अच्छी तरह जानते हैं कि बहु विवाह के मामले में हिन्दू भी कुछ कम नहीं हैं । मुस्लिम आबादी के 1.9 फीसदी लोग एक से अधिक शादी करते हैं तो हिन्दू समेत बाकी आबादी में भी यह आंकड़ा 1.6 फीसदी का है। मगर चार बीवी-चार बीवी का इतना हल्ला जिन्होंने खुद ही मचाया हो वो भला कैसे अब जनता को सच बता दें । काश इश्वर इन्हें सद्बुद्धि दे और मुस्लिमों का राग अलापने की बजाय वे पहले अपने उन सामंती सोच वाले लोगों की चूड़ियां कसें जो मजलूम आदिवासियों के सिर पर न केवल पेशाब कर रहे हैं, अपितु उसका वीडियो बनाकर प्रसारित भी कर रहे हैं।  


 मध्य प्रदेश में एक आदिवासी के सिर पर सवर्ण जाति के भाजपाई द्वारा मूत्र विसर्जन का वीडियो किसी भी सभ्य समाज के चेहरे पर कलंक से कम नहीं है। आजादी के 75 साल बाद भी यदि हम लोग उसी सामंती मानसिकता से घिरे हुए हैं तो यह आजादी भी झूठी ही मानी जायेगी । अजब विडंबना है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को हमेशा मुस्लिम ही दिखते हैं और आदिवासियों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता जबकि देश में उनकी आबादी भी दस करोड़ से अधिक है। मुल्क में सर्वधिक ज्यादतियां भी इन्हीं के साथ होती हैं और संविधान की रौशनी से वे आज भी महरूम हैं।  नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का ही आंकड़ा है कि इनके साथ हुए अत्याचार के  मामलों में सबसे कम यानी मात्र दो फीसदी में ही न्याय हो पाता है। हैरत है कि कुछ सवर्ण बिरादरियों में जातीय दंभ इस कदर है कि वे आदमी के ओहदे अथवा सामाजिक कद की भी परवाह नहीं करते और केवल उसकी जाति देखते हैं। पांच साल पहले तत्कालीन दलित राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद का परिवार समेत राजस्थान के एक मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ कर पूजा करना और अब आदिवासी समाज से आईं राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू का जगन्नाथ मंदिर में गर्भ गृह के बाहर से दर्शन करना अनेक सवाल खड़े करता है। सबको पता है कि मुल्क में आज भी ऐसे मंदिर और पूजा स्थल बहुतायत में हैं जहां दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को जाने की इजाज़त नहीं है। हो सकता है कि देश में सभी धर्मो के लिए एक जैसे सामाजिक नियम कानून यानी यूसीसी जरूरी हो मगर यकीनन इससे भी अधिक जरूरी है प्रत्येक नागरिक को बराबरी का अधिकार। मजलूमों का मूत्राभिषेक करते रहो और यूसीसी यूसीसी चिल्लाते रहो, इससे आपका भला बेशक हो जाए मगर मुल्क का भला कतई नहीं होगा।



 


बहुत कठिन है डगर ज्योति मोर्यों की 


रवि अरोड़ा


कायदे से तो इस महिला का नाम ही सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए था मगर अब ज्योति मोर्या केवल नाम भर भी कहां रह गया है । ' बेटी पढ़ाओ-पत्नी नहीं ' का नारा बुलंद करने वाली पुरूष सत्तात्मक शक्तियां छाती पीट रही हैं और दावा कर रही हैं कि सफाई कर्मी आलोक ने मेहनत मशक्कत कर अपनी बीवी ज्योति को पढ़ाया लिखाया और अब बड़ी अधिकारी बनने के बाद वह एक अन्य पीसीएस अधिकारी से पींघें बढ़ा रही है और तलाक के लिए उस पर दबाव डाल रही है। हालांकि यह पति पत्नी का निजी मामला था और इसकी सार्वजनिक रूप से चर्चा भी नहीं की जानी चाहिए थी मगर जब ऐसी खबरें सामने आने लगी हों कि इस मामले की आड़ लेकर लोग बाग अपनी बीवियों की पढ़ाई लिखाई छुड़वा रहे हैं तो जाहिर है कि इस पर विमर्श होगा ही । 


समाचारों की दुनिया का मूल मंत्र है कि कुत्ता यदि आदमी को काट ले तो यह ख़बर नहीं है । मगर आदमी किसी कुत्ते को काट ले तो बेशक तूफानी खबर बनती है। ज्योति मोर्या का मामला भी कुछ ऐसा नहीं है क्या ? पत्नी द्वारा पति को छोड़ने पर उस मुल्क में बवाल हो रहा है जहां तमाम कथानकों के भगवान मार्का लोग अपनी निर्दोष पत्नियों को छोड़ने के बावजूद भगवान के अपने ओहदे से पदावनित नहीं किए गए ? नाम लिखने की भला क्या आवश्यकता है जब हमारा लगभग हर भगवान भगवान बीवी छोड़ अथवा बहु पत्नी वाला है। कथानकों से इतर आधुनिक काल भी भला ऐसे पुरूषों से कहां रिक्त है जिन्होंने सफलता के लिए अथवा सफल होने के बाद अपनी पत्नी को छोड़ दिया । फिल्मी दुनिया ही नहीं राजनीति, ब्यूरोक्रेसी और मीडिया जगत के अनगिनत ऐसे लोगों को हम आप जानते हैं। फिर सारा नजला अपने पति को छोड़ना चाह रही एक स्त्री पर ही क्यों ? हो सकता है कि आलोक के आरोप सही हों मगर इससे उसका यह अधिकार कैसे सिद्ध हो जाता है कि अब उसकी पत्नी को सारी उम्र उसके पल्लू से ही बंधा रहना चाहिए ? पत्नी को पीसीएस अधिकारी बनवाने में ' पढ़ने की अनुमति देने ' के अतिरिक्त उसकी अन्य भूमिका और भला क्या रही होगी ? इस अनुमति के बदले में क्या पत्नी की तमाम उम्र की कमाई चाहिए उसे अब ? हो सकता है कि ज्योति के किसी अन्य पुरूष से रिश्ते हों मगर यह अपराध तो नहीं है। पांच साल पहले सर्वोच्च न्यायालय डेढ़ सौ साल पहले के इस दकियानूसी कानून को समाप्त कर चुका है और उसने स्पष्ट कर दिया है कि यदि किसी अन्य से रिलेशन में हैं तो औरतें भी स्वतंत्र निर्णय ले सकती हैं। साथ ही किसी की भी शादीशुदा जिंदगी यदि खराब चल रही है तो वह तलाक ले सकता है। ऐसे में भला ज्योति की तलाक की अर्जी पर बवाल क्यों ?  मामला अब अदालत में है और सभी पक्षों को न्याय मिलने की उम्मीद की जानी चाहिए मगर प्रदेश सरकार को क्या सूझी जो उसने निजी मामला होने के बावजूद दोनो पीसीएस अधिकारियों पर तबादले की गाज गिरा दी और उनसे जवाब तलब कर लिया ?  क्या सरकार भी पुरूष सत्तात्मक मानसिकता की शिकार है ? 


पिछली आधी सदी में स्त्री सशक्तिकरण पर बहुत काम हुआ है और उसी का नतीजा है कि हर वह कार्य जिस पर पुरूषों का विशेषाधिकार था स्त्रियां भी कर रही हैं। कम पढ़े लिखे और विकास में पीछे छूटे परिवारों में भी स्त्रियों को आगे बढ़ाने की सकारात्मक प्रवृत्ति देखी जा रही है। जाहिर है कि इससे आने वाले वक्त में ज्योति मोर्या जैसे अन्य मामले भी सामने आएंगे। क्या ही अच्छा हो कि इसके प्रतिउत्तर में ज्योतियों का रास्ता काटने के बजाय हमारा पुरूष वर्ग खुद पर काम कर अपने को उनके लायक बनाए । लायक पत्नी की चाह नालायक पति करें यह भी तो उचित नहीं ?

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