मंगलवार, 26 नवंबर 2024

महेंद्र अश्क़ की आहट पर कान किसका है?

 मैंने कानों से मयकशी की है,  जिक्र उसका शराब जैसा है

Il महेंद्र अश्क़ की शायरी का संसार ll 

देवेश त्यागी 


नितांत निजी और सामाजिक अनुभूतियां जब कभी व्यापक और दृष्टिबोध से युक्त अभिव्यक्ति बन जाती हैं, तब  भाषाई संप्रेषण से न तो दामन बताया जा सकता है और न इस अजस्र ऊर्जा के स्रोत को अवशोषित किया जा सकता है।  जब भी ऐसा प्रस्फुटन होता है तब  हिंदी हो या उर्दू दोनों जगह रचनात्मकता किसी परिचय की मोहताज नहीं होती। उर्दू अदब की रोशन मीनारों में से एक शख्स ऐसे भी हैं जिनका ताआर्रुफ़ किसी संज्ञा का मोहताज़ नहीं है।  मैं मकबूल शायर महेंद्र अश्क की बात कर रहा हूं। उनके फन का, उनके मिज़ाज़ का, उनकी काबिलियत का आइए दीदार करते हैं। उर्दू की जुल्फे संवारने में अश्क़ साहब का बड़ा योगदान रहा है।  असरदार तेवर के साथ उन्होंने संतुलित और नए अंदाज में मंजर और पसमंजर पर जो भी लिखा है वह उनकी शख्सियत को उजागर करता है। उनकी गजलों में बौद्धिक स्तर भावुकता के वशीभूत होने से बचता है। भाषा का अनोखा स्वाद महसूस कराता है। मैं तो एक शायर की हैसियत से उनका दर्जा हिंदी गजल के प्रणेता दुष्यंत त्यागी और प्रख्यात कवि रामावतार त्यागी की श्रृंखला को जीवित रखने वाला मानता हूं।  दुष्यंत जी और अश्क़ साहब में एक सबसे बड़ा साम्य ये है कि दोनों ने ही अव्यवस्था पर प्रहार किया है। 

अश्क़ साहब ने  गजलों के तमाम परंपरागत विषयों पर बहुत खूबी से जो भी लिखा है, उसमें  आधुनिकता के साथ बहुत से ऐसी हसीन शेर भी हैं जो अन्यत्र नहीं मिलते।

 जज्बातों को गजल में ढालने का कमाल उनको हासिल है। माहिरे फन हैं । शेरों में जो गहराई है जो कल्पना है , जो शऊर है, जो नर्मी और लोच है, जो नई शैली है, जो नए विषय दिये हैं वो फ़ख़्र के क़ाबिल हैं। उपमा, बिम्बों का बड़े सलीके से उन्होंने इस्तेमाल किया है। सौंदर्यबोध और प्रकृतिबोध अनुपम है तो मनोभाव और अहसास भी उतना ही सुखद।


गजलों की मर्यादा और सीमाओं का कहीं भी उन्होंने अतिक्रमण नहीं किया है।  इसे इन्होंने निश्छल मन से बहुत सहजता के साथ स्वीकारते हुए लिखा है।


 मैं आंसुओं से वजू करके शेर कहता हूं 

किसी का गम भी जरूरी है शायरी के लिए


 दरअसल कल्पनाशीलता और सृजनशीलता  के साथ  जब भी संवेदनशीलता बढ़ जाती है तो गजब की संप्रेषणीयता पैदा होती है।  अच्छा शायर होना या अच्छा शेर कहना बहुत मुश्किल काम है यह कोई मामूली बात नहीं है। चिंतन और जज्बात सदाकत के साथ जब रूह के  अंदर से निकलते हैं तब ऐसा शेर बनता है।

 दिन के माथे पर लिखा जाएगा ये शब का अज़ाब

 वो धुआं छिड़का गया हाथों में लेकर मशअलें


 उन्होंने गजल को कई नए विषय और आयाम भी दिए हैं और नई शैली भी।  सरलता तो उनकी गजलों का जैसे एक आभूषण है।  गहरी सोच सहजता से अपनी बात कहने का गुण और विचारशीलता,  संवेदनाओं का सजीव चित्रण  इस शेर से समझा जा सकता है।


 तमाम उम्र चले खुद तलक़ नहीं पहुंचे 

ये फैसला तो बहुत दूर का सफर निकला


 आम आदमी की पीड़ा, तनाव, संघर्ष का एहसास कराती बहुत सी ऐसी गजलें हैं जो झकझोरती हैं, उद्वेलित करती हैं। इसे  एक जुदा अंदाज में उन्होंने प्रस्तुत किया है।


 आंहों को खींच खींच के नालों में ढाल के

 मैं पी रहा हूं बादा ए हस्ती संभाल के


 रिश्तो में बिखराव, टूटन अलगाव  भी उनकी बेचैनी का सबब है। शेर के चिंतन को भाव में ढालने का हुनर भी उन्हें बखूबी आता है। 


 इस कदर तर्के ताल्लुक से तो मर जाऊंगा 

मुझे मत मिलाना मेरे गांव तो आते रहना


 खूबसूरत और दिलकश अशआर  खासकर छोटी बहर में कहने में तो उन्हें  महारत हासिल है। बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कहना कोई अंतर्मुखी और बहुर्मुखी ही कह सकता है।


 लौटती रुत के साथ आ जाओ

 शहर का दिल पड़ा है गांवों में।


 अनुभूति की गहराई, कोमलता  जैसे तत्वों का समावेश तो उन्होंने किया ही है। एहसास की पगडंडी पर चलते हुए आम आदमी की मुफलिसी का दर्द साझा करते हुए अपनेपन को भूल चुके समाज पर भी उन्होंने तीखा प्रहार किया है  लेकिन नए अंदाज में महसूस कराते हुए।


 हम गरीबों से न बच कर चलो के वक्त पड़े

 काम आ जाता है टूटा हुआ पैमाना भी


 उनकी शायरी के अनेक पहलू हैं। जिनमें उनकी सोच व्यापक आकार लेती हुई साफ दिखाई देती है।  शेरों का एक एक लफ्ज़ पुरमानी है।  यूं तो मयखाना, रिंद, सागर, शराब और साक़ी पर बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन यह शेर  उनकी मकबूलियत बयान करता है।


 मैंने कानों से मयकशी की है

 जिक्र उसका शराब जैसा है


 उनके जज्बातों में जहां समंदर की ऊंची ऊंची लहरों का अक़्स है वहीं पहाड़ जैसी  बुलंदी भी नजर आती है। जिंदगी की कड़वी सच्चाइयों को उजागर करने का यह नया अंदाज देखिए। 


 लोग जब तर्के ताल्लुक का सबक पूछेंगे

 मुझे कुछ भी ना कहा जाएगा तुम साथ चलो


 जैसा मैंने पहले कहा सरल शब्दों में दिल को छू लेने वाले अशआर उनकी सजीवता, उत्कृष्टता संतृप्तता और व्यापकता को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करते हैं। व्यवस्था पर कुठाराघात करता यह शेर देखिए। इसमें डुबिये और उतराइए।


 हम यहां आफताब लाए थे 

जब यहां पर नहीं थे जुगनू भी


  कोई ऐसा विषय अछूता नहीं रहा जिस पर उन्होंने नहीं लिखा। सुखद अनुभूति कराता उनकी प्रखर लेखनी की एक और बानगी देखिए।  मां के प्रति समर्पण,  निष्ठा उनकी ही बयानी।


 महक रहे हैं उजालों के फूल बूढी मां

 के सांस सांस जले हैं तेरी दुआ के चिराग


 मकबूल शायर फिराक गोरखपुरी ने कहा था कि शायरी जिंदगी में इस तरह डूब जाने का नाम है कि जब जब हम इस गोताज़नी से उभरे तो हर बार हमें जिंदगी का एक नया एहसास हो।  फ़िराक़ साहब का जिक्र मैंने यहां इसलिए किया क्योंकि अश्क़ साहब भी ऐसा ही फरमा रहे हैं।


 लफ्जों के अदाकारों की एक भीड़ बहुत है

 कोई ग़ज़ल का दर्द समझता ही नहीं है


 अश्क़ साहब की शायरी में अलंकारों और प्रतीकों का शानदार प्रयोग बहुतायत में है। दिलचस्प ये है ये अभिनव है। उनका मिज़ाज़, उनका अंदाज , साफगोई लोगों के दिलों तक पहंचने में कामयाब रहा है।  मजबूरी की बेड़ियों की झनझनाहट में भी जलतरंग या सितार जैसी झंकार भी वही पैदा कर सकता है जो समाज को जीता रहा हो।


 हमारी जिंदगी एक बांझ औरत

 किसी बच्चे का स्वेटर बना रही थी


 सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्होंने एक भी शेर बिना वजह के नहीं कहा और एक भी शेर ऐसा नहीं है जिसको नजरअंदाज किया जा सके।  गजल की बारीकियों से वह कितने वाकिफ हैं , देखिए।

 न जाने कितने ही पेड़ों के अधबने सपने 

इन्हीं गिने चुने कुछ बरगदों में रखे हैं


 हर गजल में उनकी ईमानदारी, दयानतदारी,  मन और दिल को छू लेने वाली, हर किसी को लुभाने वाली बातें,  नवीनतम पहलू सबको आश्चर्यचकित करते हैं।


 तुझे पता नहीं मैं भी तो अपना दुश्मन हूं

 कुछ ऐसे मुझ में उतर जा मुझे पता ना लगे


 अश्क़ साहब ने पत्थरों से पानी निकाला है । अगर मैं ऐसा कहूं तो यह गलत नहीं होगा।  इससे बेहतर और कोई मिसाल उनके बारे में हो सकती है क्या।


 मैं अगर जिंदा हूं इस अंधे कुएं में तो फिर

 एक मुद्दत से क्यों आवाज ना आई मेरी


 उनके साहित्य संसार में घनीभूत संवेदनाओं की अभिव्यक्ति,  रचनात्मक वैशिष्टय क्या कुछ नहीं है। 


 हमें भूल बैठे हैं जीने का मकसद

 तेरे गम का एजाज अपनी जगह है


 हालात से मजरूह बदन सेकने वाला 

सूरज भी नहीं अब तो हमें देखने वाला


 जिंदगी तूने बहुत तंग किया है मुझको 

ख्वाब तक देखना दुश्वार रहा है मुझको


 लिबास तैरते हैं आंख आंख लफ्जों के

 हमारी फिक्र की आहट पर कान किसका है


_ देवेश त्यागी, 

पूर्व वरिष्ठ समाचार संपादक/ 

केंद्रीय समीक्षक जागरण समूह

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