hursday, January 7, 2010
मुगलों का महल बना बच्चों की क्रिकेट पिच
पार्थिव कुमार
फारुखनगर के रिटायर्ड टीचर राज कंवर गुप्ता तकरीबन 300 साल पुराने इस कस्बे के हर बाशिंदे को इसके शानदार माजी के बारे में बता देना चाहते हैं। उन्हें उम्मीद है कि ऐसा करके वह बादशाह फर्रुखसियर के नाम पर बसे इस कस्बे की ऐतिहासिक विरासत को बचा सकेंगे। लेकिन उन्हें अपनी मुहिम में अब तक कोई ज्यादा कामयाबी नहीं मिल सकी है। मुगल हुकूमत के ढलते सूरज की मटमैली रोशनी में इस कस्बे में बनाई गई बेहतरीन इमारतों में से कई जमींदोज हो चुकी हैं और बाकी की हालत भी खस्ता है।
कस्बे के पांच दरवाजों में से चार का वजूद पूरी तरह मिट चुका है। भीड़भाड़ वाले बाजार के बीच में खड़े एक खूबसूरत महल के चबूतरे को बच्चों ने क्रिकेट की पिच में तब्दील कर दिया है। नाजुक पच्चीकारी वाली पौने दो सौ साल पुरानी एक छतरी निजी जायदाद बन कर अपनी आखिरी सांसें गिन रही है। कस्बे का फैलाव बढने के साथ ही इसके दिल में अतीत के लिए जगह कम होती जा रही है।
हरियाणा में गुड़गांव से 20 किलोमीटर दूर फारुखनगर को फर्रुखसियर के कमांडर मोहम्मद फौजदार खान ने बसाया था। मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला ने 1734 में फौजदार खान को फारुखनगर का नवाब बना दिया। भरतपुर के महाराज ने 1757 में फारुखनगर पर हमला किया और यह कस्बा सात साल तक उसके कब्जे में रहा। बाद में बादशाह शाह आलम के वजीर गाजीउद्दीन ने नवाब को फारुखनगर वापस दिलाया।
1857 के गदर के समय फौजदार खान का वारिस अहमद अली फारुखनगर का नवाब था। उसके अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में हिस्सा लेने के कारण इस कस्बे को गुड़गांव में मिला दिया गया। उस समय फारुखनगर में बड़े पैमाने पर नमक बनाया जाता था और इसलिए इस कस्बे में तभी से रेलवे स्टेशन भी है।
फारुखनगर मुगलों के आलीशान स्थापत्य और उनके बाद की वास्तुकला की कई मिसालों को अपने आंचल में समेटे है। कस्बे के उथलपुथल भरे इतिहास में इन इमारतों के मालिक बदलते रहे लेकिन इनकी सुध किसी ने भी नहीं ली। आजादी मिलने के 20 साल बाद ये इमारतें सरकार के कब्जे में आईं मगर इनमें से कुछ अब भी निजी जायदाद हैं।
बाजार के बीच में लाल बलुआ पत्थर, लाखौरी ईंटों और झज्जर स्टोन से बना शीश महल खड़ा है। इसकी चहारदीवारी में घुसने के लिए एक मेहराबदार दरवाजे से होकर गुजरना होता है। चहारदीवारी में महल के बीचोंबीच से नहर बनी है जिसमें पानी नजदीक की बावली से आता था। महल के मेहराबों और खंभों पर नफीस पच्चीकारी थी जो अब नजर नहीं आती। बावली भी वक्त के आगोश में दफन हो चुकी है। बारादरी में शीशों के काम की वजह से इसका नाम शीश महल पड़ा था मगर इनकी चमक बीते कल की बात हो गई है।
दो मंजिले शीश महल की हाल ही में कुछ हद तक मरम्मत की गई थी। लेकिन इसके पीछे और एक बगल का हिस्सा पूरी तरह घ्वस्त हो चुका है। बच्चे इसके चबूतरे का इस्तेमाल क्रिकेट खेलने के लिए करते हैं। यह महल 1857 तक आबाद था। इसकी चहारदीवारी के अंदर गदर के शहीदों की याद में एक स्मारक भी बना है।
महल से कुछ ही दूरी पर जामा मस्जिद है जिसकी दोनों मीनारें और तीन में से दो गुंबद बुरी तरह टूटे हुए हैं। लाल बलुआ पत्थर की इस मस्जिद को फौजदार खान ने बनवाया था। इस मस्जिद का इस्तेमाल अब मंदिर और गुरुद्वारे के तौर पर और सामाजिक समारोहों के लिए किया जाता है।
कस्बे के एक सिरे पर 165 साल पुरानी दो मंजिली छतरी है जिसे किसी सेठ ने अपने आरामगाह के तौर पर बनवाया था। इसकी दोनों मंजिलों पर अंदर घुसने के लिए आठ मेहराबदार द्वार हैं। कभी यह छतरी फूलदार नक्काशी से सजी होती थी जो अब मिट चुकी है। लेकिन छत पर बने रंगीन चित्र समय की मार से काफी हद तक बचे हुए हैं। छतरी किसी की निजी जमीन पर है जिसने इसे बचाए रखने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं ली। कचरे के ढेर के बीच खड़ी इस जर्जर छतरी की दीवारों से पीपल के पेड़ उग आए हैं और यह कभी भी धूल में मिल सकती है। छतरी के नजदीक सेठानी की हवेली हुआ करती थी जहां अब सपाट मैदान बचा है।
फारुखनगर के किले के पांच दरवाजे हुआ करते थे जिनमें से अब सिर्फ दिल्ली दरवाजा ही बचा है। किले की दीवारों और चार दरवाजों का नामोनिशान तक मिट चुका है। दिल्ली दरवाजे की पिछले साल ही मरम्मत कराई गई थी मगर उसके बुर्ज की पुरानी भव्यता लौट नहीं पाई है।
झज्जर रोड पर स्थित गौस अली खान की बावली पुरातत्व की नजर से बहुत अहमियत की है। आठ कोनों वाली इस बावली में नीचे उतरने के लिए पत्थर की सीढ़ियां बनी हुई हैं। बावली तक पहुंचने के सुरंगनुमा रास्ते के अूपर से सड़क गुजरती है। इसकी आठों तरफ कोठरियां बनी हैं जिनकी छत पतले खंभों पर टिकी है। फारुखनगर के ऐतिहासिक विरासतों में यह बावली सबसे अच्छी हालत में है। मगर इसे लोहे की सलाखों से घेरने का काम जमीन को लेकर विवाद के कारण अधूरा पड़ा है।
इंडियन नॅशनल ट्रस्ट फार आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज के गुड़गांव चैप्टर से जुड़े राज कंवर बेशक खंडहरों के बीच खड़े हों मगर उन्होंने उम्मीद की डोर नहीं छोड़ी है। वे कहते हैं, ‘‘ हमें अपने अतीत को आने वाली पीढ़ियों के लिए बचा कर रखना है। यह जरूरी है कि हम अपनी विरासत से प्यार करें और अपनी बाकी जिंदगी मैं इस पैगाम को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने में लगाना चाहता हूं।’’
पार्थिव कुमार
फारुखनगर के रिटायर्ड टीचर राज कंवर गुप्ता तकरीबन 300 साल पुराने इस कस्बे के हर बाशिंदे को इसके शानदार माजी के बारे में बता देना चाहते हैं। उन्हें उम्मीद है कि ऐसा करके वह बादशाह फर्रुखसियर के नाम पर बसे इस कस्बे की ऐतिहासिक विरासत को बचा सकेंगे। लेकिन उन्हें अपनी मुहिम में अब तक कोई ज्यादा कामयाबी नहीं मिल सकी है। मुगल हुकूमत के ढलते सूरज की मटमैली रोशनी में इस कस्बे में बनाई गई बेहतरीन इमारतों में से कई जमींदोज हो चुकी हैं और बाकी की हालत भी खस्ता है।
कस्बे के पांच दरवाजों में से चार का वजूद पूरी तरह मिट चुका है। भीड़भाड़ वाले बाजार के बीच में खड़े एक खूबसूरत महल के चबूतरे को बच्चों ने क्रिकेट की पिच में तब्दील कर दिया है। नाजुक पच्चीकारी वाली पौने दो सौ साल पुरानी एक छतरी निजी जायदाद बन कर अपनी आखिरी सांसें गिन रही है। कस्बे का फैलाव बढने के साथ ही इसके दिल में अतीत के लिए जगह कम होती जा रही है।
हरियाणा में गुड़गांव से 20 किलोमीटर दूर फारुखनगर को फर्रुखसियर के कमांडर मोहम्मद फौजदार खान ने बसाया था। मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला ने 1734 में फौजदार खान को फारुखनगर का नवाब बना दिया। भरतपुर के महाराज ने 1757 में फारुखनगर पर हमला किया और यह कस्बा सात साल तक उसके कब्जे में रहा। बाद में बादशाह शाह आलम के वजीर गाजीउद्दीन ने नवाब को फारुखनगर वापस दिलाया।
1857 के गदर के समय फौजदार खान का वारिस अहमद अली फारुखनगर का नवाब था। उसके अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में हिस्सा लेने के कारण इस कस्बे को गुड़गांव में मिला दिया गया। उस समय फारुखनगर में बड़े पैमाने पर नमक बनाया जाता था और इसलिए इस कस्बे में तभी से रेलवे स्टेशन भी है।
फारुखनगर मुगलों के आलीशान स्थापत्य और उनके बाद की वास्तुकला की कई मिसालों को अपने आंचल में समेटे है। कस्बे के उथलपुथल भरे इतिहास में इन इमारतों के मालिक बदलते रहे लेकिन इनकी सुध किसी ने भी नहीं ली। आजादी मिलने के 20 साल बाद ये इमारतें सरकार के कब्जे में आईं मगर इनमें से कुछ अब भी निजी जायदाद हैं।
बाजार के बीच में लाल बलुआ पत्थर, लाखौरी ईंटों और झज्जर स्टोन से बना शीश महल खड़ा है। इसकी चहारदीवारी में घुसने के लिए एक मेहराबदार दरवाजे से होकर गुजरना होता है। चहारदीवारी में महल के बीचोंबीच से नहर बनी है जिसमें पानी नजदीक की बावली से आता था। महल के मेहराबों और खंभों पर नफीस पच्चीकारी थी जो अब नजर नहीं आती। बावली भी वक्त के आगोश में दफन हो चुकी है। बारादरी में शीशों के काम की वजह से इसका नाम शीश महल पड़ा था मगर इनकी चमक बीते कल की बात हो गई है।
दो मंजिले शीश महल की हाल ही में कुछ हद तक मरम्मत की गई थी। लेकिन इसके पीछे और एक बगल का हिस्सा पूरी तरह घ्वस्त हो चुका है। बच्चे इसके चबूतरे का इस्तेमाल क्रिकेट खेलने के लिए करते हैं। यह महल 1857 तक आबाद था। इसकी चहारदीवारी के अंदर गदर के शहीदों की याद में एक स्मारक भी बना है।
महल से कुछ ही दूरी पर जामा मस्जिद है जिसकी दोनों मीनारें और तीन में से दो गुंबद बुरी तरह टूटे हुए हैं। लाल बलुआ पत्थर की इस मस्जिद को फौजदार खान ने बनवाया था। इस मस्जिद का इस्तेमाल अब मंदिर और गुरुद्वारे के तौर पर और सामाजिक समारोहों के लिए किया जाता है।
कस्बे के एक सिरे पर 165 साल पुरानी दो मंजिली छतरी है जिसे किसी सेठ ने अपने आरामगाह के तौर पर बनवाया था। इसकी दोनों मंजिलों पर अंदर घुसने के लिए आठ मेहराबदार द्वार हैं। कभी यह छतरी फूलदार नक्काशी से सजी होती थी जो अब मिट चुकी है। लेकिन छत पर बने रंगीन चित्र समय की मार से काफी हद तक बचे हुए हैं। छतरी किसी की निजी जमीन पर है जिसने इसे बचाए रखने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं ली। कचरे के ढेर के बीच खड़ी इस जर्जर छतरी की दीवारों से पीपल के पेड़ उग आए हैं और यह कभी भी धूल में मिल सकती है। छतरी के नजदीक सेठानी की हवेली हुआ करती थी जहां अब सपाट मैदान बचा है।
फारुखनगर के किले के पांच दरवाजे हुआ करते थे जिनमें से अब सिर्फ दिल्ली दरवाजा ही बचा है। किले की दीवारों और चार दरवाजों का नामोनिशान तक मिट चुका है। दिल्ली दरवाजे की पिछले साल ही मरम्मत कराई गई थी मगर उसके बुर्ज की पुरानी भव्यता लौट नहीं पाई है।
झज्जर रोड पर स्थित गौस अली खान की बावली पुरातत्व की नजर से बहुत अहमियत की है। आठ कोनों वाली इस बावली में नीचे उतरने के लिए पत्थर की सीढ़ियां बनी हुई हैं। बावली तक पहुंचने के सुरंगनुमा रास्ते के अूपर से सड़क गुजरती है। इसकी आठों तरफ कोठरियां बनी हैं जिनकी छत पतले खंभों पर टिकी है। फारुखनगर के ऐतिहासिक विरासतों में यह बावली सबसे अच्छी हालत में है। मगर इसे लोहे की सलाखों से घेरने का काम जमीन को लेकर विवाद के कारण अधूरा पड़ा है।
इंडियन नॅशनल ट्रस्ट फार आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज के गुड़गांव चैप्टर से जुड़े राज कंवर बेशक खंडहरों के बीच खड़े हों मगर उन्होंने उम्मीद की डोर नहीं छोड़ी है। वे कहते हैं, ‘‘ हमें अपने अतीत को आने वाली पीढ़ियों के लिए बचा कर रखना है। यह जरूरी है कि हम अपनी विरासत से प्यार करें और अपनी बाकी जिंदगी मैं इस पैगाम को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने में लगाना चाहता हूं।’’
नोटः दिल्ली से फारुखनगर तक पहुंचने के लिए नॅशनल हाइवे संख्या आठ पर गुड़गांव तक जाएं। गुड़गांव के राजीव गांधी चोक से दाहिने मुड़ें। यह सड़क सुलतानपुर नॅशनल पार्क के सामने से होती हुई फारुखनगर जाती है। पक्षी प्रेमियों के लिए सुलतानपुर नॅशनल पार्क देखने लायक जगह है। मगर याद रखें कि इसमें पिकनिक मनाने, शोर मचाने या खानेपीने की चीजें ले जाने की इजाजत नहीं है।
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