राधाकृष्ण का जन्म रांची के अपर बाजार में 18 सितंबर 1910 को हुआ था और निधन 3 फरवरी 1979 को। उनके पिता मुंशी रामजतन मुहर्रिरी करते थे। उनकी छह पुत्रियां थीं और एक पुत्र राधाकृष्ण, जो बहुत बाद में हुए। पर, राधाकृष्ण के साथ यह क्रम उलट गया यानी राधाकृष्ण को पांच पुत्र हुए व एक पुत्र। राधाकृष्ण जब चार साल की उम्र के थे तो उनके पिता का निधन हो गया। 1942 में इनकी शादी हुई। उनके निधन के सत्रह साल बाद उनकी पत्नी का देहांत भी 1996 में हुआ।
अपनी गुरबत की जिंदगी के बारे में उन्होंने लिखा है, 'उस समय हम लोग गरीबी के बीच से गुजर रहे थे। पिताजी मर चुके थे। घर में कर्ज और गरीबी छोड़ कुछ भी नहीं बचा था। न पहनने को कपड़ा और न खाने का अन्न।Ó अभावों में उनका बचपन बीता। चाह कर भी स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाई। किसी तरह एक पुस्तकालय से पढऩे-लिखने का क्रम बना। कुछ दिन मुहर्रिरी सीखी। वहां मन नहीं लगा तो एक बस में कंडक्टर हो गए। 1937 में यह नौकरी भी छोड़ दी। लेकिन इसी दरम्यान कहानी लेखन में सक्रिय हो गए। सबसे पहले 1929 में उनकी कहानी छपी गल्प माला में। इस पत्रिका को जयशंकर प्रसाद के मामा अंबिका प्रसाद गुप्त निकालते थे। कहानी का शीर्षक था-सिन्हा साहब। इसके बाद तो माया, भविष्य, त्यागभूमि आदि पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपने लगे। प्रेमचंद राधाकृष्ण की प्रतिभा देख पहले ही कायल हो चुके थे। इसलिए हंस में भी राधाकृष्ण छपने लगे थे। जब प्रेमचंद का निधन हुआ तो शिवरानी देवी ने हंस का काम देखने के लिए रांची से बुला लिया। यहीं रहकर श्रीपत राय के साथ मिलकर 'कहानीÓ निकाली। पत्रिका चल निकली, लेकिन वे ज्यादा दिनों तक बनारस में नहीं रह सके। इसके बाद वे बंंबई गए और वहां कथा और संवाद लिखने का काम करने लगे। पर बंबई ने इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाला और वे बीमार होकर रांची चले आए। फिर कभी उधर नहीं देखा। कुछ दिनों कलकत्ते में रहे। वहां मन नहीं लगा। इस बीच मां की मृत्यु ने इन्हें तोड़ दिया। अमृत राय ने लिखा हैै, 'मेरी पहली भेंट (राधाकृष्ण से) 1937 के किसी महीने में हुई। वो हमारे घर आए। हम लोग उन दिनों राम कटोरा बाग में रहते थे। हम दोनों ही उस समय बड़े दुखियारे थे। इधर, मेरे पिता को देहांत अक्तूबर 1936 में हुआ था और उधर लालबाबू (राधाकृष्ण को लोग इसी नाम से पुकारते थेे) की मां का देहांत उसी के दो चार महीने आगे-पीछे हुआ था। एक अर्थ में लालबाबू का दुख मेरे दुख से बढ़कर था, क्योंकि उनके पिता तो बरसों पहले उनके बचपन में ही उठ गए थे और फिर अपनी नितांत सगी एक मां बची थी, जिसके न रहने पर लालबाबू अब बिल्कुल ही अकेले हो गए थे।Ó
राधाकृष्ण 1947 में बिहार सरकार की पत्रिका 'आदिवासीÓ के संपादक बनाए गए। इसका प्रकाशन केंद्र रांची ही था। पहले यह नागपुरी में निकली, लेकिन बाद में हिंदी में निकलने लगी। इस पत्रिका से राधाकृष्ण की एक अलग पहचान बनी। आदिवासियों को स्वर मिला। बाद में वे पटना आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर हो गए। जब रांची में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना (27 जुलाई, 1957)हुई तो वे यहीं आ गए।
बस कंडक्टरी से आकाशवाणी तक के सफर में गरीबी और अभावों ने कभी साथ नहीं छोड़ा। उन्होंने कभी हार नहीं मानी। लेखनी लगातार सक्रिय रही। उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण आदि का क्रम चलता रहा।
राधाकृष्ण ने अपनी कहानियों की लीक खुद ही बनाई। उस दौर में, जब कहानी के कई स्कूल चल रहे थे, प्रसाद की भाव व आदर्श से युक्त, प्रेमचंद की यथार्थवाद से संपृक्त, जैनेंद्र, अज्ञेय के साथ माक्र्सवादी विचारों से प्रभावित कहानियों का चलन था। पर राधाकृष्ण ने किसी भी बड़े नामधारी रचनाकारों का अनुसरण नहीं किया। न उनकी प्रतिभा से कभी आक्रांत हुए। उन्हें अपने जिए शब्दों, अनुभवों पर दृढ़ विश्वास था। आंखन देखी ही वे कहानियां लिखा करते थे। पर, कभी सुदूर देश की समस्या पर भी ऐसी कहानी लिख मारते थे, जैसे वह आंखों देखी हो। आदिवासियों के जीवन और उनकी विडंबना, सहजता और सरलता को भी अत्यंत निकट से जाना-समझा। यह भी देखा कि इनकी ईमानदारी का दिकू (बाहरी आदमी) कैसे लाभ उठाते हैं, उन्हें कैसे ठगते हैं। इसके साथ ही यह भी देखा कि आदिवासी कैसे अपने ही बनाए टोटमों में बर्बाद हो रहे हैं। उनकी 'मूल्यÓ कहानी ऐसी ही एक प्रथा से जुड़ी है। आदिवासियों के उरांव जनजाति में प्रचलित ढुकू प्रथा को लेकर लिखी गई है। इसी तरह उनकी कहानी 'कानूनी और गैरकानूनीÓ जमीन से जुड़ी हुई है। लेखक की जिंदगी, वसीयतनामा, परिवर्तित, रामलीला, अवलंब, एक लाख सत्तानवे हजार आठ सौ अ_ïासी, कोयले की जिंदगी, गरीबी की दवा निम्र मध्य वर्ग से सरोकार रखने वाली कहानियां हैं। इंसानियत के स्खलन, आदमी की बदनीयती, संवेदनाओं का घटते जाना आदि को बहुत बेधक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। विश्वनाथ मुखर्जी ने लिखा है, हिंदी में कुछ कहानियां आई हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। गुलेरी जी की 'उसने कहा थाÓ, प्रेमचंदजी की 'मंत्रÓ, कौशिक जी की 'ताईÓ...रांगेय राघव की 'गदलÓ आदि कहानियां भुलाई जाने वाली नहीं हैं। ठीक उसी प्रकार राधाकृष्ण की 'एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासीÓ भी। अमृत राय ने भी माना कि 'अवलंबÓ और 'एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासीÓ जैसी कहानियां हिंदी में बहुत नहीं हैं।Ó
उनकी एक और कहानी जिसकी चर्चा या ध्यान लोगों का नहीं गया, वह है 'इंसान का जन्मÓ। श्रवणकुमार गोस्वामी ने भी राधाकृष्ण पर लिखे अपने विनिबंध में इस कहानी की चर्चा नहीं की है। बंगलादेश पर पाकिस्तानी फौजों के अत्याचार और बाद में भारतीय फौजों के आगे उनके सपर्मण को केंद्र में रखकर बुनी गई है यह कहानी। यह उनके किसी संग्रह में शामिल नहीं है। जबकि रामलीला, सजला (दो खंड), गेंद और गोल संग्रह हैं। इनमें कुल मिलाकर 56 कहानियां हैं। इसके अलावा फुटपाथ, रूपांतर, सनसनाते सपने, सपने बिकाऊ हैं आदि उनके प्रकाशित उपन्यास हैं। नाटक, एकांकी, बाल साहित्य भी अकूत हैं। उनकी ढेर सारी रचनाएं अप्रकाशित भी हैं। अपने समय की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में वे प्रकाशित होते रहे, जिनमें साप्ताहिक हिंदुस्तान, आजकल, कादंबिनी, नई कहानियां, विश्वमित्र, विशाल भारत, सन्मार्ग, प्राची, ज्ञानोदय, चांद, औघड़, धर्मयुग, सारिका, नवनीत, बोरीबंदर, माया, माध्यम, संगम, परिकथा, क ख ग, माधुरी, गंगा, त्रिपथगा, प्रताप, वर्तमान प्रमुख हैं।
राधाकृष्ण घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी नाम से व्यंग्य भी लिखते थे। इनके लिखे व्यंग्य पर आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है, 'घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी के उपनाम से कहानियां लिखकर हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में युगांतर लाने वाले व्यक्ति आप ही हैं। ...आयासहीन ढंग से लिखा गया ऐसा व्यंग्य हिंदी साहित्य में विरल है।Ó
ऐसा विरल साहित्यकार हिंदी जगत में उपेक्षित रह गया। आखिर जिस कथाकार ने अपने समय में जयशंकर प्रसाद गुप्त, प्रेमंचद, डा. राजेंद्र प्रसाद, भगवतीचरण वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त, आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी, अमृत राय, विष्णु प्रभाकर, फादर कामिल बुल्के को अपना प्रशंसक बना लिया था, उसे हमारे आलोचकों ने क्यों उपेक्षित छोड़ दिया?द्
तीन फरवरी को राधाकृष्ण की पुण्यतिथि है। उनकी स्मृति को समर्पित है यह लेख।
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