बुधवार, 9 अप्रैल 2014


जेल-डायरी
गणेशशंकर विद्यार्थी


''आज लखनऊ जिला जेल में यह डायरी प्राप्‍त हुई। चार डायरियाँ थी, तीन बँट गईं, एक का इस्‍तेमाल मैं करूँगा।'' यह पंक्तियाँ गणेशशंकर विद्यार्थी ने 31 जनवरी 1922 को लिखी थीं। उक्‍त जेलयात्रा विद्यार्थीजी को, जनवरी 1921 में रायबरेली के एक ताल्‍लुकेदार सरदार वीरपाल सिंह द्वारा वहाँ के किसानों पर गोली चलवाने की विस्‍तृत रपट 'प्रताप' के संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी और उसके मुद्रक-प्रकाशक शिवनारायण मिश्र वैद्य पर मानहानि का मुकदमा चलाया, जो लगभग छह महीने चला और 'प्रताप' के कोई 30 हजार रुपए उस पर खर्च हुए। लेकिन उससे 'प्रताप' की ख्‍याति, किसानों के हमदर्द अखबार के रूप में, दूर-दूर तक फैल गई। किसान जनता विद्यार्थीजी को 'प्रताप बाबा' कहकर पुकारने लगी। मुकदमे की पेशियों के दौरान सफाई पक्ष की जो 50 गवाहियाँ हुई उनमे पं. मोतीलाल नेहरू, पं. जवाहरलाल नेहरू, सी.एस. रंगाअय्यर जैसे विशिष्‍ट लोग अदालत के समक्ष पेश हुए। ... किंतु मुकदमे का फैसला अंतत: उक्‍त ताल्‍लुकेदार के पक्ष में हुआ। चूँकि दोनों व्‍यक्तियों पर दो-दो अभियोग थे, अत: दोनों के लिए, विद्यार्थीजी को 3-3 महीने की सादी कैद और पाँच-पाँच सौ रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई। इसी बीच ब्रिटिश नौकरशाही ने भी 'प्रताप' पर एक भीषण प्रहार किया। संपादक और मुद्रक-प्रकाशक से एक वर्ष के लिए पाँच-पाँच हजार के दो मुचलके और दस-दस हजार की दो जमानतें माँगी गई। मुकदमे के दौरान तो मुचलके और जमानतें दे देना ही उचित समझा गया, अन्‍यथा रायबरेली गोलीकांड का पूरा-पूरा रहस्‍योद्घाटन न हो पाता, लेकिन जब उसका फैसला हो गया, तो जेल चले गए। मिश्रजी को वैसा नहीं करने दिया गया, क्‍योंकि वे हृदय-रोग से ग्रस्‍त थे और तकनीकी तौर पर अखबार के मुद्रक-प्रकाशक की जिम्मेदारी से मुक्‍त हो गए थे। उधर रायबरेली केस की अपील भी कर दी गई थी, जो विद्यार्थीजी की जेल-यात्रा के दौरान ही, 4 फरवरी 1922 को खारिज हो गई।
विद्यार्थीजी की यह जेलयात्रा कोई 7 महीने से ऊपर की रही। 16 अक्टूबर 1921 को स्‍वयमेव उन्‍होंने कानपुर में गिरफ्तारी दी और कोई 10 दिन तक कानपुर जेल में रखने के बाद उन्‍हें लखनऊ जिला जेल भेज दिया गया, जहाँ 31 जनवरी 1922 से उन्‍होंने अपनी जेल डायरी लिखनी शुरू की और 17 मई 1922 तक वह विधिवत् लिखी जाती रही। 22 मई 1922 को उन्हें जेल से मुक्‍त किया गया। बाहर आकर उसकी डायरी के आधार पर उन्‍होंने अपने जेल-जीवन के विस्‍तृत संस्‍मरण लिखे, जो 'जेल-जीवन की झलक' शीर्षक से 'प्रताप' के कई अंकों में धारावाहिक प्रकाशित हुए और खूब सराहे गए।
1911 से 1931 तक, 20 वर्षों के अपने सक्रिय जीवन में विद्यार्थीजी को पाँच बार जेल जाना पड़ा, जिसमें तीन बार तो वह 7 मास से लेकर एक-एक वर्ष तक भीतर रहे और प्रभूत लेखन भी जेल में किया। विक्‍टर ह्यूगो के दो उपन्‍यासों 'नाइंटी-थ्री' और 'ल मिजराब्‍ल' के 'बलिदान' और 'आहुति' नाम से किए गए संक्षिप्‍त रूपांतर और उनकी एकमात्र मौलिक कहानी 'हाथी की फाँसी' की गणना ऐसे लेखन में विशेष रूप से की जा सकती है। किंतु अब तक उपलब्‍ध तथ्‍यों के अनुसार, विधिवत् जेल डायरी विद्यार्थीजी ने केवल एक बार, लखनऊ जेल में लिखी थी, जो लगभग 60 वर्ष तक गुमनामी में रहने के बाद, इसी पंक्तिकार के द्वारा खोजी जाकर, विद्यार्थीजी के बलिदान अर्धशती वर्ष में प्रकाशित हो पाई। इसी वर्ष (1994 में) जेल डायरी का नया संशोधित एवं परिवर्धित संस्‍करण भी प्रकाशित हो गया है। उसमें विद्यार्थीजी के जेल संबंधी संस्‍मरण भी सम्मिलित हैं।
गणेशशंकर विद्यार्थी की रचनाओं के इस चयन को अधिकाधिक प्रतिनिधि स्‍वरूप देने के उद्देश्‍य से उनकी जेल डायरी के कुछ चुने हुए अंश और जेल-संस्‍मरणों के प्रारंभिक अंश यहाँ पुन: प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं।
- संपादक


जेल-डायरी
बुधवार : 1 फरवरी सन् 1922
माघ शुक्‍ल 5, संवत् 1978
सवेरे पत्र आया। उससे मालूम हुआ कि दोनों सजाएँ एक साथ चलेंगी। हमीद अली (संभवत : रायबरेली मुकदमे के एक वकील) ने विरोध किया था, परंतु डेनियल का फैसला यही रहा। पत्र का बड़ा इंतजार था, मिलने और पढ़ने पर कुछ राहत जरूर मिली। तीन महीन की कैद एक प्रकार से कम हुई। परंतु मुझे विश्‍वास नहीं होता कि ऐसा होगा। अब भी डर लगता है मेरे अपने भाग्‍यकूप को देखते हुए, रह-रह कर यही प्रश्‍न होता है कि क्‍या यह ठीक है? यहाँ तो जो कुछ सोचा, इन बीचों में वह उल्‍टा ही पड़ा। देख लिया कि इन बातों में कल्‍याण है और इन्‍हें होना ही चाहिए और नहीं होंगी, तो सिर नहीं डालेंगे। परंतु वे नहीं हुईं और पग-पग पर इतना झुकना पड़ा कि इस समय बिल्‍कुल ही सिर डाले हुए हूँ और केवल ईश्‍वर की इच्‍छा ही का भरोसा है और जो कुछ हो उसी को अपने कल्‍याण की बात समझने में अच्‍छा समझता हूँ। भगवान बल और पथ प्रदान करे।
मंगलवार : 7 फरवरी सन् 1922
माघ शुक्‍ल 10, संवत् 1978
प्रकाश (पत्‍नी) का पत्र आज मिला। हरि (विद्यार्थीजी के ज्‍येष्‍ठ पुत्र हरिशंकर विद्यार्थी) अच्‍छा है। परमात्‍मा के चरणों में अत्‍यंत विनय से बारम्‍बार प्रणाम। बहुधा अपनी कमजोरियों और पापों पर दृष्टि डालते हुए यह मालूम पड़ता है कि मुझे जा कुछ भी प्राप्‍त है, वह बहुत है और मैं इसके योग्‍य भी नहीं। इसीलिए, प्रकृति के जिस अंचल से जो कुछ मिले, उसके लिए कृतज्ञता से सिर झुकाना और जो कुछ छिन जाए उसके लिए शिकायत की बात मुँह से न निकालना अपना धर्म समझता हूँ। इस धर्म का पालन कहाँ तक होता है - यह दूसरी बात है। संसार में क्‍या होना चाहिए और क्‍या हो रहा है - यह विवेचना बड़ी कौतूहलजनक है। विचार और कार्य के भेद के कम होने के लिए, ईश्‍वर से प्रार्थना करना सच्‍चे आदमी का काम अवश्‍य है। ईश्‍वर, सच्‍चे आदमी की श्रेणी में होने के लिए बल प्रदान कर! आज चौबेजी और रामनाथ (जेल के साथी) में रात को मारपीट हो गई। आज गोरखपुर और बरेली के समाचार 'लीडर' में पढ़े।
गुरुवार : 9 फरवरी सन् 1922
माघ शुक्‍ल 12, संवत् 1978
कल एकादशी का व्रत रखने के कारण, आज यार लोगों को बेतरह भूख लगी थी, इसीलिए, बहुत सबेरे भोजन तैयार हो गया था। यह खबर थी कि डॉ. इब्राहीम हैई कल छूटेंगे। इसलिए उन्‍हें हम लोगों ने दावत दी थी। परंतु हैई के मुँह में खाना न धँसा। अंडा और मुर्गी खाने वाला आदमी साधारण अन्‍न और साग कैसे खा सके! की दावत और हो गई अदावत। अंत में, बेचारा किसी तरह से चार कौर खाकर उठ बैठा। यह आदमी भी विचित्र जीव है। सदा जेलर की दाढ़ी उखाड़ने और सबसे लड़ने-भिड़ने के लिए तैयार। लड़कपन इसमें इतना कि हर काम में प्रकट होता है। न कोई जिम्‍मेदारी और न संजीदगी। जबान बिल्‍कुल बेलगाम। अब बाहर जाएँगे और बड़े भारी नेता कहलाएँगे। पब्लिक रुझान की विचित्र महिमा है।
रविवार : 12 फरवरी सन् 1922
माघ शुक्‍ल 15, संवत् 1978
आज प्रकाश, बच्‍चे, भाई, माँ, पिता और बदरी (बदरीनाथ अग्निहोत्री : प्रताप कार्यालय के एक कर्मचारी) मिलने आए थे। बाहर मुलाकात हुई। विमला (श्रीमती विमला विद्यार्थी : गणेश जी की चार पुत्रियों में से दूसरी) दुबली हो गई है। वह गले में लिपटकर बोली, 'बाबू हमारे घर चलो।' फिर वह 'तुम्‍हारा घर' देखने के लिए बहुत जिद करती रही। एक नारंगी लाई थी। बोली, 'बाबू, तुम्‍हारे लाए लाई हूँ, इसे खाओ।' मैंने खाया और उसे दिया। अम्‍माँ झटक गई हैं। बिटोला (विद्यार्थीजी की छोटी बहिन रुक्मिणी देवी) और उसका छोटा बच्‍चा भी था, प्रकाश का हाल तो प्रकट है ही, बिटोला भी दुबली थी। बाबूजी पहिले के इतने घबड़ाए हुए नहीं है। परंतु गाँधीजी को खूब गालियाँ देते हैं। ओंकार (विद्यार्थीजी के कनिष्‍ठ पुत्र प्रोफ. ओंकारशंकर विद्यार्थी {अब स्‍व.}) अच्‍छा था। बड़ा सुंदर लगता था। हरि अब भी बहुत अच्‍छा नहीं है। कृष्‍णा (विद्यार्थीजी की बड़ी बेटी) अभी तक वैसी ही सिलबिल्‍ली थी। आज दीक्षित कंपनी के मुकदमे में एक कमिश्‍नर साहब मथुरा प्रसाद की तरफ से मेरी गवाही लेने आए थे। जगन्‍नाथ प्रसाद और मथुरा प्रसाद दोनों आए थे। भाई (अग्रज श्री शिवव्रत नारायण, जिन्‍होंने विद्यार्थीजी के बलिदान के पश्‍चात् उनकी एक संक्षिप्‍त जीवनी लिखी) कहते थे कि गाँधीजी के पकड़े जाने का समाचार गरम है।
मंगलवार : 14 फरवरी सन् 1922
फाल्‍गुन कृष्‍ण 2, संवत् 1978
गाँधीजी के सत्‍याग्रह स्थगित कर देने से बड़ा तहलका मच गया है। बाज-बाज साहब तो उन पर बेतरह बिगड़ उठे हैं। मौलाना शौकत अली साहब और मीर अब्‍बास बे-तरह हाथ-पैर फेंक रहे हैं। मोतीलालजी बे-तरह बिगड़े हुए। वैसे निराशा तो सब पर छायी हुई है। निराशा के कारण दासी का होना और चीज है, परंतु बिगड़ना और अकड़ना और। अब 15 दिन में पत्र भेजे जा सकेंगे और 15 दिन ही में वे पाए जा सकेंगे। मुलाकात हर सप्‍ताह हो सकेगी।
रविवार : 19 फरवरी सन् 1922
फाल्‍गुन कृष्‍ण 8, संवत् 1978
आज समाचार आया कि मोतीलालजी की मोटर मुर्माने के बदले में ले ली गई है। इस पर जवाहरलाल, मोतीलाल और श्‍यामलाल की बहस, जो मेरे सामने हुई, मजेदार थी। जवाहरलाल की बातें ऊँची थीं, मोतीलाल ऊँचे उठते थे और नीचे गिरते थे, श्‍यामलाल तो पृथ्‍वी पर रेंगने वाले कीड़े हैं। रात को यहाँ मेरी मोहनलाल सक्‍सेना से बहस रही। बदरदोली के फैसले से हम लोगों को बड़ी निराशा हुई है। मैं उस प्रस्‍ताव में अधिक बुराई नहीं पाता, परंतु बहुत जोशीले लोग उसके फीकेपन पर तिलमिला उठे हैं और कहते हैं कि अब तो कुछ भी न हो सकेगा।
आज कानपुर से कोई भी नहीं आया।
बुधवार : 22 फरवरी सन् 1922
फाल्‍गुन कृष्‍ण 11, संवत् 1978
मैं नहीं समझता था कि लोग बरदोली प्रस्‍ताव के कारण गाँधी से इतने नाराज होंगे जितना कि आज की लखनऊ की बारक की बहस में प्रकट हुआ। बालमुकुंद बाजपेयी ऐसे आदमी कहते सुने जाते हैं कि गाँधी तो अंत में बनिया है। डॉक्‍टर शिवराज नारायण, भुवनेश्‍वरी नारायण आदि बहुत निराश हैं। और लोगों का भी यही हाल है। केवल बेनीप्रसाद सिंह, जो कुछ हुआ उसे, उचित समझते हैं। श्‍यामलाल नेहरू और लखनऊ का वह लौंडा-मीर अब्‍बास-यह कहते थे कि हजारों आदमियों को तो जेल भेज दिया, जब अपनी बारी आयी तब कावा काट गए। पं. मोतीलाल नेहरू ने कहा कि मैं गोरखपुर के प्रायश्चित के लिए कैदखाने में नहीं रहना चाहता। मैं एक सिद्धांत के लिए आया हूँ, उसी के लिए जब तक मियाद है तब तक रहूँगा। आज बृजबिहारी महरोत्रा (कानपुर के खादी भंडार के संस्‍थापकों में से एक) मन्‍नीलाल (विद्यार्थीजी के, कानपुर के सार्वजनिक जीवन के एक साथी मन्‍नीलाल नेवटिया) आदि आए थे। हसरत मोहानी जोर के साथ देहली में बारदोली प्रस्‍ताव का विरोध करेंगे। वे इसी प्रकार के काम के लिए 'इस्‍तकलाल' नाम का दैनिक पत्र निकालना चाहते हैं।
बुधवार : 8 मार्च सन् 1922
फाल्‍गुन शुक्‍ल 10, संवत् 1978
आज जवाहरलाल नेहरू अपनी बहिन सहित पं. मोतीलाल से मिलने आए थे। कहते थे, दमन का जोर होगा, बटलर बदमाशी पर कमर कसे हुए हैं। मालवीय जी ने कहला भेजा है कि बहुत आगे मत बढ़ो! सरकार तुम्‍हें पकड़ना चाहती है। गाँधीजी के शीघ्र ही पकड़े जाने का समाचार है।
चंद्रवार : 13 मार्च सन् 1922
फाल्‍गुन शुक्‍ल 15, संवत् 1978
आज होली मनाई गई। 4 बजे सबेरे नीम की पत्तियों की होली मनाई गई और दोपहर को रंग खेला गया, जिसमें सब मुसलमान मित्र अच्‍छी तरह शामिल हुए। केवल मोतीलालजी ने न केवल शामिल होने से इनकार किया, किंतु सुपरिंटेंडेंट से, जो उस समय वहाँ उपस्थित था, अपनी रक्षा के लिए मदद माँगी, ''आइ अपील जेल अथॉरिटीज...'' (यह वाक्‍यांश तथा अन्‍य अंग्रेजी शब्‍द मूल डायरी में अंग्रेजी लिपि में हैं) सुपरिंटेंडेंट के चले जाने पर जब हम लोगों ने कहा कि आपकी आज्ञा काफी होती, तब अपने कहा कि यह सब 'फूलहार्डीनेस' और 'रोडिइज्‍म' है, यहाँ नॉन-कोआपरेशन नहीं। मैं हजार बार कहता हूँ कि यदि तुम कुछ भी करो तो मैं जेलवालों से मदद माँगूँगा। हम लोग केवल गुलाल का टीका भर लगाना चाहते थे, परंतु 'नॉट ऍन ऍटम' उनका स्‍वर था। शाम को जो जलपान हुआ था उसमें वे शरीक हुए। शायद कुछ झेंपे। रात को जवाहर लाल (कानपुर के जवाहरलाल रोहतगी), मुरारीलाल (कानपुर के डॉ. मुरारीलाल) और बालकृष्‍ण(प्रसिद्ध कवि और प्रखर वक्‍ता पं. बालकृष्‍ण शर्मा नवीन, जो विद्यार्थीजी के संरक्षण और मार्गदर्शन में विकसित हुए) से भेंट हुई और उनके साथ रात को कुछ देर के लिए पाँच नं. में गया था।
चंद्रवार : 27 मार्च सन् 1922
चैत्र कृष्‍ण 14, संवत् 1979
आज वजन किया गया। एक मन ग्‍यारह सेर निकला। जेल की तौल जाली होती है। आने पर एक मन साढ़े सात सेर तोला गया था, फिर दस दिन के भीतर ही एक मन दस सेर हो गया था। यही दशा... (अपठनीय) की हुई थी। चरखा कातना सीख रहा हूँ। आशा है, दो-तीन दिन में आने लगेगा। संयुक्‍त फंड के लिए अब लोगों में चिड़चिड़ाहट पैदा होती जा रही है। अभी तक भोजन का ठीक नहीं हो रहा है।
बुधवार : 12 अप्रैल सन् 1922
बैसाख कृष्‍ण 1, संवत् 1979
टंडनजी (रणेंद्रनाथ बसु) अपनी पत्‍नी और दामाद से नहीं मिले। इसलिए कि बाहर तंबू में जमीन पर बैठने को उनसे कहा गया। जेल वालों का रंग-ढंग बहुत बदल गया है और वे अशिष्‍ट व्‍यवहार भी करने लगे हैं। रानो बाबू (मदन मोहन चौबे) को, कुर्सी रहते हुए भी, जेलर ने कहा कि कुर्सी छोड़ दीजिए, बेंच लीजिए। इन लोगों ने मोतीलाल को प्रसन्‍न कर रखा है, दूसरों की परवाह नहीं करते। मोतीलाल आदि के छूटने की खबर है। यदि जुर्माना अदा हो जाय, जैसा कि जेलर से मोहनलालजी ने कहा कि बैंक से क्‍यों नहीं वसूल कर लिया जाता, तो शायद ये लोग वक्‍त से बहुत पहिले छोड़ दिए जाएँ। मथुरा के हकीम, बृजलाल भार्गव और चौबे को देखने आए थे। चौबे जी की निखरी सूरत देखकर वे बोले, ''ये तो खूबसूरत बला या नाटक की परी बन गए।''
शुक्रवार : 21 अप्रैल सन् 1922
बैसाख कृष्‍ण 10, संवत 1979
चंदनू आज रिहा हुआ। सीधा यहाँ तक कि मूर्ख, परंतु सच्‍चा और सेवा में सदा तत्‍पर। किसान आदमी-खिलाफत के झगड़े में आया। हम लोग विशेष व्‍यवहार वह अपने अनेक साथियों के साथ महीनों हिरासत में रहा, फिर छह मास की सजा पाई। चलते समय उसके नेत्र में आँसू आ गए। डॉ. शिवराज नारायण आज कुछ मिनट के लिए आए थे। अपने भाई के लिए तरकारी लाए थे। उसके नीचे श्रीकृष्‍ण के सौ चित्र थे। इस समय सुपरिंटेंडेंट को चिढ़ाने के लिए ये चित्र भीतर की सब बारकों में लगी (होना चाहिए : 'बारकों में लगे हैं') है। बस्‍ती के जो महाशय हंगर स्‍ट्राइक से मरे, उनके नाम पर आज भूखे रहे।
शुक्रवार : 5 मई सन् 1922
बैसाख शुक्‍ल 9, संवत् 1979
रंगा अय्यर अभी तक सेंट्रल जेल में था, अब उसे फैजाबाद बेड़ी डालकर भेज दिया गया और अब वह द्वितीय श्रेणी का हो गया।
अपनी पुरानी विचार शैली पर ध्‍यान देते हुए बड़ा परिवर्तन दिखाई देता है। रायबरेली केस के दिनों में, हृदय में एक घमंड-सा था। ईश्‍वर के संमुख सत्‍पथ पर बने रहने का गर्व था। खयाल था-जो हो, अपना दोष नहीं और इसलिए क्‍यों गिड़गिडाऊँ निश्‍चय था कभी न गिड़गिड़ाऊँगा। आज वर्ष भर से अधिक से, बहुत-सा नीचा-ऊँचा देख लेने के पश्‍चात् अपने पक्ष के सत्‍य और असत्‍य को जान लेने के पश्‍चात् सारी शेखी हवा खाने चली गई। और, चारों ओर की मारामार ने निर्बल हृदय को और भी इतना निर्बल कर दिया कि न केवल वह बुरी तरह गिड़गिड़ाता ही भर है, किंतु किसी स्‍थल पर और किसी समय स्थिर होने का नाम ही नहीं लेता। यह भी कैसी बुरी दशा है। भगवान दया कीजिए!
रविवार : 7 मई सन् 1922
बैसाख शुक्‍ल 11, संवत् 1979
एक बड़ी दुर्घटना हो गई। देवरिया के अवधनारायण मुख्‍तार का देहांत हो गया। हम लोग वाली-बाल खेल रहे थे, उसी वक्‍त डॉ. मुरलीलाल ने उनके देहांत की खबर दी। उसके पहिले चार पक्‍के डॉ. जवाहरलाल को बुलाने आया। 15 मिनट पहिले तक क्‍लीमेंट्स कहता रहा कि बीमार पहले से बहुत अच्‍छा है। नब्‍ज डूब रही थी और वह जवाहरलाल से बहस कर रहा था और कह रहा था much better now. तीन-चार दिन से बीमार थे, परंतु कभी ठीक इलाज नहीं किया गया। आज तीन घंटे तक वे फटफटाते रहे, परंतु जेल वालों ने एक न सुनी और मरने के वक्‍त डॉक्‍टर बुलाए गए। अस्‍पताल (में-सं.) चम्‍मच तक न मिला। कहते हैं, मरने के कुछ पहिले घबड़ा-घबड़ा कर उन्‍होंने 6-7 जगह अपनी चारपाई बदली और रात-भर परेशान रहे। हाथ भी पहिले से ठंडे हो गए थे। देवीप्रसाद शुक्‍ल, बेनी प्रसाद, बिक्रमाजीत सिंह, बालाजी, सत्‍यव्रत, प्‍यारेलाल आदि आए थे।
गुरुवार : 11 मई सन् 1922
बैसाख शुक्‍ल 15, संवत् 1979
मोतीलालजी तो नैनीताल जा रहे थे, इधर जवाहरलाल उन्‍हें देखने आए थे, फाटक पर सुपरिंटेडेंट पुलिस वारंट ले आया, और अंत में, उन्‍हें बुलाते-बुलाते हारकर क्‍लीमेंट खुद लेने आया। वे गिरफ्तार कर लाए गए और जेलवालों के सुपुर्द कर दिए गए, जहाँ से रात को इलाहाबाद भेज दिए गए। कहते हैं, उन पर दफाएँ 124ए, 17ए, 385 और 506 आदि हैं। मोतीलालजी परेशान हैं।
बाबा रामचंद्र (अवध के किसान आंदोलन के नेता) और अब्‍दुल हमीद साधारण कैदी बनाकर कैदी के लिबास में बरेली और बनारस भेज दिए गए। सेंट्रल जेल में असिस्‍टेंट जेलर ने सीतापुर के वालंटियर कैदी को धूप में बार-बार खड़ा किया, इस बात पर कि वह पैर जोड़ कर खड़ा नहीं हुआ था। इस पर दूसरे कैदियों ने कायदे से सजा देने की बात की। इस पर उन पर खूब मार पड़ी-एक नवयुवक लड़के को देखा, जिसे साढ़े तीन वर्ष की सजा मिली। लखीमपुर के वालंटियरों में था। 40 आदमी थे। सब ऐसे ही भेजे गए। इसलिए कि उन्‍होंने किसी मुलजिम को पुलिस की हाजत से छुड़ा लेने की कोशिश की।
सोमवार : 15 मई सन् 1922
ज्‍येष्‍ठ कृष्‍ण 4, संवत् 1979
जेल का शासन बिल्‍कुल बाहर के शासन का चित्र (है-सं.)। झूठ और द्वेष के सहारे सब कुछ होता है। लोग फोड़े जाते हैं। लखीमपुर के 40 लोगों को आड़ के साथ बड़ी-बड़ी सजाएँ दी गई थीं-यहाँ तक कि एक को पाँच वर्ष तक की। इनमें से कुछ लोग पाँच नंबर वालों की सेवा में दिए गए थे जहाँ उनके साथ अच्‍छा बर्ताव किया गया। उसका फल यह हुआ, कि एक पक्‍के ने जेलवालों से बातें जड़ीं और इन लोगों को वहाँ से उठा लिया गया। तो भी गवर्नमेंट के इस (में-सं.) एक बड़ी खूबी है। प्रांत के इतने हिंदू-मुसलमानों को एक साथ रखकर देश में राष्‍ट्रीयता की जड़ों के फैलने और पक्‍के होने का अमूल्‍य अवसर उपस्थित हुआ है। आज से चपरासी, जो फल आदि लाते थे, वह बंद कर दिए गए। अभी तक हमारे यहाँ का चपरासी बंद नहीं हुआ।
बुधवार : 17 मई सन् 1922
ज्‍येष्‍ठ कृष्‍ण 6, संवत् 1979
देवदास गाँधी की नकसीर फूटी। सुपरिंटेडेंट ने देखकर कहा कि यह छोटी बात है। trifle (ट्रिफिल : चुहलबाजी : संपा.) इन लोगों की, नानकोआपरेटर्स का थोड़ा-सा खून निकल जाने से इन्‍हें लाभ होगा, इनका दिमाग, साफ हो जाएगा।
चयन एवं संपादन
सुरेश

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

महेंद्र अश्क़ की आहट पर कान किसका है?

 मैंने कानों से मयकशी की है,  जिक्र उसका शराब जैसा है Il महेंद्र अश्क़ की शायरी का संसार ll  देवेश त्यागी  नितांत निजी और सामाजिक अनुभूतियां ...