शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

काशी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं / दिग्विजय त्रिपाठी


 
दिग्विजय त्रिपाठी
 भारत में यदि कलकत्ता पत्रकारिता का जन्मस्थली रहा है तो काशी ने इसे पुष्ट किया है। खासकर हिन्दी पत्रकारिता तो काशी में ही पली-बढ़ी और जवां हुई। आदर्श पत्रकारिता के मूल्यों पर कलम के सिपाहियों ने समाज को आईना दिखाया। साथ ही निर्भीक रूप से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कलम चलाई और लोगों को पत्रकारिता के जरिये नवजागृत भी किया। इस दौरान सिर्फ गंभीर पत्रकारिता ही नहीं हो रही थी बल्कि उसके सभी आयामों पर कलम चले। जैसे- व्यंग्य, महिलाओं से जुड़ी पत्रिकाएं, बच्चों पर आधारित पत्रिकायें भी लोगों की पहुंच में थी। समाचार पत्रों में दैनिक सूचानाओं के साथ गंभीर लेख, साहित्य से जुड़े लेख, अग्रलेख, संपादकीय छपते थे। भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरूआत सन् 1826 में कलकत्ता से युगल किशोर शुक्ल ने उदन्त मार्तन्ड साप्ताहिक् पत्र निकालकर किया। वहीं, काशी से निकलने वाला पहला समाचार पत्र बनारस अखबार था, जिसे राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने 1845 में निकाला था। पत्रकारिता के मूल्यों से इतर यह समाचार पत्र ब्रिटिश हुकूमत के पक्ष में लिखता था। साथ ही हिन्दी अखबार होते हुए भी इसके लेखों में अरबी तथा फारसी शब्दों का प्रयोग होता था। 1850 में समाचार पत्र सुधाकरका प्रकाशन तारामोहन मित्र के संपादन में शुरू हुआ। इसके बाद के वर्षों में कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ लेकिन वे ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पायीं। काशी की पत्रकारिता में अहम योगदान देने वाले कालजयी साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1867 में कवि वचन सुधा मासिक पत्रिका निकालना शुरू किया। कुछ ही समय में यह पत्रिका काफी लोकप्रिय हो गयी। इसके बढ़ते प्रसार को देखते हुए इसे साप्ताहिक कर दिया गया। वहीं, पत्रकारिता के हर पहलुओं को छूने के लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने महिलाओं से जुड़ी पत्रिका बालाबोधिनी 1874 में निकाली। इसी बीच संस्कृत पत्रिका पण्डित का भी प्रकाशन भी हुआ; जो काफी लोकप्रिय हुई। 1873 में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने एक और पत्रिका हरिश्चन्द्र मैगजीन का प्रकाशन शुरू किया। जिसका नाम 1974 में बदलकर ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ कर दिया गया। इसके अतिरिक्त भारतेन्दु जी ने भगवत भक्ति तोषिणी और वैष्णव तोषिणी मासिक पत्रों को निकालकर पत्रकारिता के नये आदर्श गढ़े। 1882 में बनारस समाचार और नवजीवन का प्रकाशन हुआ। यह दोनों पत्र साप्ताहिक थे और यूरोपीय व्यवस्था के विरोध में आवाज बुलंद कर रहे थे। 1883 में अम्बिका दत्त व्यास ने वैष्णव का प्रकाशन शुरू किया। यह पत्र मासिक था जो बाद में ‘पीयूष पत्रिका’ हो गया। 1884 में एक और सरकार समर्थित पत्र भारत जीवन का प्रकाशन शुरू हुआ। यह पत्र साप्ताहिक था। धर्म आधारित समाचार पत्र 1888 में सनातन धर्म से प्रेरित मासिक पत्र धर्म प्रचारकको राधाकृष्ण दास और धर्मसुधावर्षण को कुल यशस्वी शास्त्री ने संपादित किया। 1890 में सरस्वतीविलास और 1891 में नौकाजगहित पत्र भी निकाले गये। 1892 और 1893 में ब्राह्मण हितकारी‘ ’व्यापार हितैषी और सरस्वती प्रकाश जैसे पत्रों का प्रकाशन हुआ। इसी दौरान गो सेवा नामक समाचार पत्र भी पाठकों के बीच आया। 1894 में भारत भूषण साप्ताहिक समाचार पत्र रामप्यारी जी के संपादन में निकला। 1895 में पत्रकारिता को समृद्ध करने की कड़ी में प्रश्नोत्तर को भिखारीशरण ने और कुसुमांजलिको बाबू बटुक प्रसाद ने निकाला। 1896 में नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ बाबू श्यामसुन्दर दास के संपादन में प्रकाशित हुई। यह पत्रिका वर्तमान में भी प्रकाशित होती है। पण्डित समाज की ओर से 1898 में पण्डित पत्रिका शुरू हुई। 1901 में मासिक पत्र मित्र का प्रकाशन बाल मुकुन्द वर्मा और वाणिज्यसुखदाय को जगन्नाथ प्रसाद ने संपादित किया। 1905 में ‘भारतेन्दु इतिहासमाला’ और ‘सनातन धर्म’ पत्रों का प्रकाशन हुआ। ये तीनों पत्र मासिक थे। 1906 में बालप्रभाकर और ‘उपन्यास’ मासिक पत्र को किशोरी लाल गोस्वामी ने निकाला। गंभीर पत्रकारिता से इतर इसी वर्ष हास्य पत्रिका ‘विनोद वाटिका’ भी निकली। 1909 में क्षत्रियमित्रसमाचार पत्र लाल सिंह गाहड़वाल के संपादन में निकला। इन्दु नामक पत्रिका का प्रकाशन भी इसी वर्ष से हुआ। इसके संपादक अम्बिका प्रसाद थे। 1910 में जातीय पत्र त्रिशूल और ‘नवजीवन’ का प्रकाशन शुरू हुआ। इस दौरान बहुत से ऐसे पत्र भी रहे जो ज्यादा दिनों तक प्रकाशित नहीं हो पाये। 1913 में नारायण गर्दे के संपादन में नवनीत का प्रकाशन शुरू हुआ। पत्र-पत्रिकाओं के इस क्रम में 1914 में तिमिरनाशक को कृष्ण राय बिहारी सिंह तथा दामोदर सप्रे ने मित्र साप्ताहिक पत्रों को प्रकाशित किया। इन पत्रों में आम लोगों से जुड़ी हुई कई खबरें प्रकाशित होती थीं। काशी से 1915 से 1920 के मध्य कई समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। उसमें प्रमुख रूप से ओदुम्बर और कालिन्दी रही। दैनिक समाचार पत्र आज का प्रकाशन 1920 में जन्माष्टमी के दिन शुरू हुआ। इसे शिव प्रसाद गुप्त ने निकला। इस सम्मानित अखबार के पहले संपादक ओम प्रकाश रहे। कुछ समय बाद यशस्वी पत्रकार बाबू विष्णूराव पराड़कर इस समाचार पत्र के संपादक हुए। इस समाचार पत्र की काशी सहित अन्य स्थानों पर बड़ी ख्याति रही। कुछ वर्षों बाद ही अपने प्रकाशन का शताब्दी वर्ष मनाने जा रहे इस समाचार पत्र की वर्तमान में स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। 1942 में स्वतन्त्रता आंदोलन की लड़ाई को बल देने के लिए पराड़कर जी एवं कमलापति त्रिपाठी ने मिलकर खबरमासिक पत्र निकाला। 1943 में पराड़कर जी ने ही संसार दैनिक पत्र का संपादन किया। स्वतन्त्रता के पहले निकले लगभग हर समाचार पत्र आजादी की लड़ाई को गति देने, जनता को जगाने एवं सामाजिक बुराइयों को इंगित करने पर जोर देते थे। काशी से 1921 में मर्यादा पत्र प्रकाशित हुआ। इसके संपादक सम्पूर्णानंद थे। कुछ समाचार पत्र जो ब्रिटिश हुकूमत की खुलकर खिलाफत करते थे वे भूमिगत निकले। इन पत्रों में ‘रणभेरी’,तूफान’ एवं ‘शंखनाद’ समाचार पत्र 1930 में प्रकाशित हुए। इसी दौरान मासिक पत्रिका कमला का प्रकाशन भी शुरू हुआ। यह पत्रिका महिलाओं में काफी लोकप्रिय हुई। 1939 में ‘सरिता’, सुखी बालक’ पत्रिकाएं भी निकाली गईं। ‘नारी’ पत्रिका का प्रकाशन इसी वर्ष हुआ। यह पत्रिका भी महिलाओं पर आधारित थी। इसके बाद कई और समाचार पत्र जैसे- ‘ग्राम संसार’, एशिया’, किसान’, नया जमाना’, गीताधर्म’, चिंगारी’, चित्ररेखा’, धर्मदूत’, धर्मसंदेश’, सात्विक जीवन’, युगधारा’ पत्र-पत्रिकाएं निकाली। 1947 में ‘सन्मार्ग’ साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ। मूर्धन्य साहित्यकार प्रेमचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका हंस का प्रकाशन शुरू किया। साहित्य से ओत-प्रोत यह पत्रिका काफी लोकप्रिय हुई। स्वतन्त्रता के बाद काशी में कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। स्वतन्त्रता के पूर्व जहां पत्रकारिता मिशन थी वहीं, उसके बाद मिशन के साथ प्रोफेसन भी हो गई है। वर्तमान में काशी से सैकड़ों  पत्र-पत्रिकाएं निकल रही हैं। लेकिन प्रमुख रूप से दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, आज, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स दैनिक समाचार पत्र है। वहीं सान्ध्यकालीन पत्रों में गान्डीव एवं सन्मार्ग समाचार पत्र प्रमुख हैं। वर्तमान में काशी से कई अंग्रेजी अखबार भी निकलते हैं उनमें प्रमुख रूप से टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स एवं पॉयनियर है।
कविवचन सुधा
    भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने इस पत्रिका का सम्पादन 5 अगस्त 1867 (संवत् 1924 आश्विन शुक्ल 15) में आरम्भ किया था। काशी में प्रकाशित यह पत्रिका आरम्भ में मासिक थी, बाद में यह पाक्षिक रूप में प्रकाशित होने लगी। 1875 से यह पत्रिका साप्ताहिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित होने लगी। इसकी केवल 250 प्रतियाँ मुद्रित होती थी। प्रत्येक अंक में 22 पृष्ठ होते थे। कहने को तो यह विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका थी, परन्तु अपने पहले अंक से ही इसने जो दिशा निर्देश दिया उसके परिणामस्वरूप हिन्दी जगत् में ऐसी पत्रकारिता का प्रचलन हुआ, जो किसी सामाजिक सुधार, जाति या मत विशेष के समर्थन में नहीं चल रही थी, बल्कि उसका उद्देश्य समूचे पाठकों को चाहे वे किसी भी क्षेत्र, धर्म या जाति के हो देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से परिचित कराना था। इसमें विविध विषयक निबन्ध और समाचार प्रकाशित होते थे। इसकी प्रकाशन नीति इन पंक्तियों में स्पष्ट की गयी है-
खल जनन सों सज्जन दुखी मत हों हि हरि पद मति रहै।
अपधर्म छूटैं सत्त्व निज भारत गहैं कर दुःख बहैं।।
बुध तजहिं मल्सर नारिनर सम होंहि जग आनंद लहैं।
तजि ग्रामकविता सुकविजन की अमृत बानी सब कहैं।।
      आरम्भ में इस पत्र को सरकारी सहायता भी प्राप्त होती थी परन्तु भारतेन्दु जी जनता के शोषण तथा उनके उत्पीड़न की व्यथा को अपनी पत्रिका के माध्यम से उद्घाटित करना शुरू कर दिये। उन्होंने ‘लेवी प्राणलेवी’ तथा ‘मर्सिया’ नामक लेख लिखकर किसानों और मजदूरों की शोषण पर करारा प्रहार किया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप तत्कालीन लेफ्टिनेन्ट गवर्नर विलियम म्योर के आदेश से सरकार द्वारा खरीदी जा रही इस पत्रिका की खरीद बन्द कर दी गयी। बाद में सन् 1885 में प्रकाशन बन्द हो गया। भारतेन्दु बाबू स्वदेशी के समर्थन और प्रचारक थे। उनके द्वारा 23 मार्च 1874 की कविवचन सुधा में स्वदेशी के व्यवहार हेतु जो प्रतिज्ञा पत्र प्रकाशित किया गया, उसका अंश द्रष्टव्य है-
      “हम लोग  सर्वान्तर्थामी, सब स्थल में वर्तमान स्वद्रष्टा और नित्य परमेश्वर को साक्षी देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा नहीं पहिनेंगे और जो कपड़ा पहिले से मोल ले चुके हैं और आज की मिती तक हमारे पास है। उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगे पर नवीन मोल नहीं पहिरेंगे, हिन्दुस्तान ही का बना कपड़ा पहिरेंगे।”
(डॉ0 राम विलास शर्मा, भारतेन्दु युग पृ0-33)
      कविवचन सुधा हिंदी साहित्य और हिन्दी पत्रकारिता के लिए अपने नाम को सार्थक करती हुई साक्षात् अमृतवाणी सिद्ध हुई। इसके माध्यम से हिंदी गद्य-पद्य दोनों का ही विकास हुआ और जो बातें उस समय हिन्दी जानने वाले को ज्ञात भी नहीं थी वे ज्ञात हुई। साथ ही भारतेन्दु ने इस पत्रिका के माध्यम से ऐसे लेखक मंडल और पत्रकार मंडल का निर्माण किया, जिससे विभिन्न हिन्दी भाषी प्रदेशों में हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ निकालने तथा उनमें लिखने की इच्छा लोगों में जाग्रत की।
मर्यादा
      पण्डित मदन मोहन मालवीय ने मर्यादा का प्रकाशन सन् 1910 ई0 में अय्यूवया कार्यालय प्रयाग से शुरू किया था। जो एक मासिक पत्रिका थी। इसके सम्पादक पण्डित कृष्णकांत मालवीय थे जो बाद में केन्द्रीय विधान सभा के सदस्य बने। 10 वर्ष के पश्चात सन् 1921 में इसका प्रकाशन काशी के ज्ञान मंडल को सौंप दिया गया। इसका संचालन बाबू शिव प्रसाद गुप्त ने किया तथा श्री सम्पूर्णानंद इसके सम्पादक बने जब असहयोग आन्दोलन में सम्पूर्णानंद जेल में थे तो श्री धनपतराय (प्रेमचन्द) ने भी इसके कई अंको का संपादन किया था। सन् 1923 में इसका प्रकाशन बन्द हो गया। परंतु इसने अल्पकाल में अपने विद्वत्तापूर्ण लेखों और पैनी राजनीतिक दृष्टि के कारण इस पत्रिका ने हिंदी जगत में अपना स्थान बना लिया था। श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखा है कि ‘जिस समय वे छात्र थे उस समय ‘सरस्वती’ के बाद मर्यादा ही सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका मानी जाती थी। जब उनका लेख ‘मर्यादा’ में छप गया तो उसकी बड़ी प्रशंसा हुई। तत्कालीन हिन्दी पत्रकारिता में ‘मर्यादा’ का योगदान महत्वपूर्ण था।
      ‘मर्यादा’ का मुख्य उद्देश्य यद्यपि हिन्दी साहित्य का उन्नयन करना था तथापि राष्ट्रीय विचारधारा का प्रबल समर्थक होने के कारण इसका स्वर प्रायः सरकार विरोधी रहा। इसके राजनीतिक स्वरूप का प्रमाण रौलट बिल के सम्बन्ध में प्रकाशित इसकी सम्पादकीय टिप्पणी में देखा जा सकता है- “अनेक में एक का युम प्रतिप्रादित करने को रौलट बिलों का जन्म हुआ है। भारतवासियों को कमर कसकर आन्दोलन के लिए खड़ा हो जाना चाहिए। शहर-शहर में ग्राम-ग्राम में सभाएँ होनी चाहिए, मानवीय स्वत्वों की पुकार झोपड़ी से उठनी चाहिए। हमारी जय होगी, विजय होगी और हमारे सामने संसार सिर झुकाएगा।” (‘मर्यादा’ जनवरी 1919, भाग-17, सं01, पृ0-7)
‘मर्यादा’ में प्रकाशित अधिसंख्य रचनाओं में राजनीति का यही मुख्य स्वर दृष्टिगोचर होता है। इसमें महात्मा गाँधी, लाला लाजपत राय, सरोजनी नायडू, यदुनाथ सरकार, एनी बेसेन्ट, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन आदि प्रमुख राजनीतिज्ञों के राजनीतिक लेख प्रकाशित होते रहते थे।
दिग्विजय त्रिपाठी

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