शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

उस पार ना जाने क्या होगा?

देश के प्रसिद्ध कवि एवं हालावाद के जनक  डॉ. हरिवंशराय राय बच्चन की पुण्यतिथि पर उनका भावपूर्ण स्मरण करते हुए इस मौके पर उनकी प्रसिद्व कृति मधुशाला से कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत है:-


हरिवंशराय बच्चन की कविता-


इस पार, प्रिये मधु है तुम हो... 


इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,  

उस पार न जाने क्या होगा !  

यह चाँद उदित होकर नभ में  

कुछ ताप मिटाता जीवन का,  

लहरा लहरा यह शाखाएं  

कुछ शोक भुला देती मन का, 

कल मुर्झाने वाली कलियां  

हंसकर कहती हैं मगन रहो,  

बुलबुल तरु की फुनगी पर से  

संदेश सुनाती यौवन का,  

तुम देकर मदिरा के प्याले  

मेरा मन बहला देती हो,  

उस पार मुझे बहलाने का  

उपचार न जाने क्या होगा !  

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,  

उस पार न जाने क्या होगा ! 


जग में रस की नदियां बहती, 

रसना दो बूंदें पाती हैं, 

जीवन की झिलमिल सी झांकी 

नयनों के आगे आती हैं, 

स्वर तालमयी वीणा बजती, 

मिलती है बस झंकार मुझे, 

मेरे सुमनों की गंध कहीं 

यह वायु उड़ा ले जाती है; 

ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, 

ये साधन भी छिन जाएंगे; 

तब मानव की चेतनता का 

आधार न जाने क्या होगा ! 

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 

उस पार न जाने क्या होगा ! 


प्याला है पर पी पाएंगे, 

है ज्ञात नहीं इतना हमको, 

इस पार नियति ने भेजा है, 

असमर्थ बना कितना हमको, 

कहने वाले, पर कहते हैं, 

हम कर्मों में स्वाधीन सदा, 

करने वालों की पर-वशता 

है ज्ञात किसे, जितनी हमको?

कह तो सकते हैं, कहकर ही 

कुछ दिल हलका कर लेते हैं, 

उस पार अभागे मानव का 

अधिकार न जाने क्या होगा ! 

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 

उस पार न जाने क्या होगा !


कुछ भी न किया था जब उसका, 

उसने पथ में कांटे बोये, 

वे भार दिए धर कंधों पर, 

जो रो-रोकर हमने ढोए; 

महलों के सपनों के भीतर 

जर्जर खंडहर का सत्य भरा, 

उर में ऐसी हलचल भर दी, 

दो रात न हम सुख से सोए; 

अब तो हम अपने जीवन भर 

उस क्रूर कठिन को कोस चुके; 

उस पार नियति का मानव से 

व्यवहार न जाने क्या होगा !  

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 

उस पार न जाने क्या होगा !


संसृति के जीवन में, सुभगे 

ऐसी भी घड़ियां आएंगी, 

जब दिनकर की तमहर किरणें 

तम के अन्दर छिप जाएंगी, 

जब निज प्रियतम का शव, रजनी 

तम की चादर से ढक देगी, 

तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी 

कितने दिन खैर मनाएगी ! 

जब इस लंबे-चौड़े जग का 

अस्तित्व न रहने पाएगा, 

तब हम दोनों का नन्हा-सा 

संसार न जाने क्या होगा ! 

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 

उस पार न जाने क्या होगा !


ऐसा चिर पतझड़ आएगा 

कोयल न कुहुक फिर पाएगी, 

बुलबुल न अंधेरे में गा गा 

जीवन की ज्योति जगाएगी, 

अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर 

‘मरमर’ न सुने फिर जाएंगे, 

अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन 

करने के हेतु न आएगी, 

जब इतनी रसमय ध्वनियों का 

अवसान, प्रिये, हो जाएगा, 

तब शुष्क हमारे कंठों का 

उद्गार न जाने क्या होगा ! 

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,

उस पार न जाने क्या होगा !


सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन 

निर्झरिणी भूलेगी नर्तन, 

निर्झर भूलेगा निज 'टलमल',

सरिता अपना 'कलकल' गायन, 

वह गायक-नायक सिन्धु कहीं, 

चुप हो छिप जाना चाहेगा, 

मुंह खोल खड़े रह जाएंगे 

गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण; 

संगीत सजीव हुआ जिनमें, 

जब मौन वही हो जाएंगे, 

तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का 

जड़ तार न जाने क्या होगा ! 

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 

उस पार न जाने क्या होगा !


उतरे इन आखों के आगे 

जो हार चमेली ने पहने, 

वह छीन रहा, देखो, माली, 

सुकुमार लताओं के गहने, 

दो दिन में खींची जाएगी 

ऊषा की साड़ी सिन्दूरी, 

पट  इन्द्रधनुष का सतरंगा 

पाएगा कितने दिन रहने; 

जब मूर्तिमती सत्ताओं की 

शोभा-सुषमा लुट जाएगी, 

तब कवि के कल्पित स्वप्नों का 

श्रृंगार न जाने क्या होगा ! 

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 

उस पार न जाने क्या होगा !


दृग देख जहां तक पाते हैं, 

तम का सागर लहराता है, 

फिर भी उस पार खड़ा कोई 

हम सब को खींच बुलाता है; 

मैं आज चला तुम आओगी 

कल, परसों सब संगी-साथी, 

दुनिया रोती-धोती रहती, 

जिसको जाना है, जाता है; 

मेरा तो होता मन डगडग, 

तट पर ही के हलकोरों से ! 

जब मैं एकाकी पहुंचूंगा 

मंझधार, न जाने क्या होगा !

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 

उस पार न जाने क्या होगा !


-हरिवंशराय बच्चन


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