शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

लोक कलाकार रसूल मियां / सुभाष कुशवाहा

 रसूल मियां / सुभाष कुशवाहा 

क्यों गुमनाम रहे लोक कलाकार रसूल?

 (Why folk artist Rasul remained unknown to us)



भोजपुरी के शेक्सपियर नाम से चर्चित भिखारी ठाकुर, नाच या नौटंकी की जिस परम्परा के लोक कलाकार थे, उस परम्परा के पिता थे रसूल मियां (रसूल अंसारी )। भिखारी ठाकुर की महानता में कुछ योगदान रसूल का भी है। देखा जाए तो बीसवीं सदी के पहले-दूसरे दशक में अंकुरित बिदेशिया के बीज रसूल में मिलते हैं। बिदेशिया फिल्म की यह देन है कि भोजपुरिया समाज ने न केवल भिखारी ठाकुर की शक्ल देखी अपितु उस महान लोक कलाकार से परिचित हुआ। लेकिन रसूल के साथ न तो ऐसा संयोग बना और न उनके दौर में भोजपुरी फिल्में बननीं शुरू हुई थीं। हमारे पास भिखारी ठाकुर के बारे में प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। बिहार सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया था पर उसी प्रदेश के रसूल का कोई नामलेवा नहीं रहा। जबकि रसूल ने अपने नाट्य मंचों और रचनाओं के माध्यम से न केवल आजादी की लड़ाई में योगदान दिया है अपितु विदेशी सत्ता का विरोध कर जेल भी गए हैं । हिन्दू-मुस्लिम एकता की जो छाप रसूल छोड़ गए हैं वह अन्यत्र दुर्लभ है। वह अल्लाह, राम, कृष्ण, वेद, पुराण सबके साथ रच-बस गए हैं। वह भारतीय जीवन मीमांसा का वर्णन करते हुए कबीर की वाणी में प्रवेश कर जाते हैं ।

रसूल, भिखारी से लगभग 14-15 वर्ष बड़े थे। नाच-गाना तो उनका खानदानी पेशा था। उन्होंने लोगों के मनोरंजन के अलावा तत्कालीन समाज की पीड़ा व्यक्त करने में चूक नहीं की । विदेशी गुलामी के विरूद्ध लगातार लेखनी चलाने वाले रसूल की पीड़ा भारत-पाक बंटवारे पर और महात्मा गांधी की हत्या पर फूट पड़ी थी । तत्कालीन समाज के स्वाभिमानी स्वर जिस तरह रसूल में मिलते हैं वे उनकी उपेक्षा के लिए हमें धिक्कारते भी हैं ।
वह बाबू रघुबीर नारायण और महेन्द्र मिश्र के समकालीन थे। रसिक मनोवृत्ति के प्रेमी जीव महेन्द्र मिश्र को तो याद रखा गया जब कि वह जाली नोट छापने के जुर्म में जेल तक जा चुके थे, पर देश-प्रेम के लिए जेल जाने वाले रसूल मियां को भुला दिया गया । किसी भी दृष्टि से रसूल, भिखारी ठाकुर या महेन्द्र मिश्र से कमतर नहीं थे। उनके लिखे और मंचित तमाम नाटकों के विषयवस्तु के आधार पर फिल्में बनाई गईं पर उस लोक कलाकार के लिए कहीं किसी संग्रह में एक पन्ना भी खर्च नहीं किया गया। एक सशक्त लोक कलाकार की इस कदर उपेक्षा चिंता का विषय है ।

लिखित रूप में रसूल के बारे में कुछ भी उपलब्ध न हो पाने के बावजूद, उनकी मृत्यु के 55-56 वर्षों बाद भी जनमानस में इतना कुछ बचा था जो मुझे उत्साहित करने के लिए पर्याप्त था। मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद् द्वारा श्री दुर्गाशंकर प्रसार सिंह के संपादन में सन् 1958 में `भोजपुरी के कवि और काव्य´ नामक किताब का प्रकाशन हुआ लेकिन उसमें रसूल का जिक्र तक नहीं है ।

लोककवि रसूल मियां, गांव- जिगना मजार टोला, डाकखाना- जिगना मठ, थाना- मीरगंज, जिला- गोपालगंज के रहने वाले थे। इनकी मृत्यु 1952 के किसी सोमवार के दिन हुई थी । तब वह लगभग अस्सी वर्ष के थे। रसूल मियां, भिखारी की तुलना में कुछ पढ़े-लिखे थे। उन्होंने कक्षा पांच तक की स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी । रसूल मियां के पिता फतिंगा अंसारी गाने-बजाने का काम करते थे। उनके दादा भी संगीतकार थे। चाचा मोहर्रम मियां और गौहर मियां कुशल सारंगी वादक थे। फूफा, हुना मियां भी सारंगी बजाते थे । इस प्रकार रसूल को संगीत और नाच-गाने की प्रारिम्भक शिक्षा अपने पिता और परिवार से ही मिली । पिता के पेशे को अपना कर रसूल ने अपने नाच की नई शैली तैयार की । परंपरागत नाटकों का त्याग किया और स्वयं नाटक लिखे, नाटकों को लोकप्रिय बनाने के लिए गेय संवादों की रचना की ।

बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भोजपुरी समाज के हजारों मजदूरों ने रोजी-रोटी की तलाश में पूरब की ओर प्रस्थान शुरू किया था । चटकल जूट फैक्ट्री कलकत्ता में बिहारी और पुरबिया मजदूरों की भरमार थी । रसूल के पिता फतिंगा अंसारी भी कलकत्ता छावनी (मार्कुस लाइन)में अंग्रेजों के यहां बावर्ची का काम करते थे। भोजपुरी समाज के आमंत्रण पर रसूल अपना नाच दिखाने कलकत्ता जाया करते थे। कलकत्ता प्रवास के दौरान रसूल की भेंट जगदल के हलीम मास्टर से हुई । हलीम मास्टर ने उन्हें मात्रा गणना सिखाया । उन्हीं की प्रेरणा से रसूल ने कविताएं और गीत लिखना प्रारम्भ किया। कविताई करने की कुछ तालीम उन्हें गांव के बैजनाथ चौबे, गिरिवर चौबे और बच्चा पांडेय से भी मिली ।

कलकत्ता में रसूल का डेरा मार्कुस लाइन में लगता था। वहीं से वह बिहारियों के बीच जाकर अपना नाच दिखाया करते थे। 1947 के पूर्व की (संभवत: 1945-46 की ) एक महत्वपूर्ण घटना की जानकारी मुझे गांव के बुजुर्गों से मिली है। कलकत्ता के लाल बाजार पुलिस लाइन में रसूल का नाच चल रहा था। नाच देखने वाले ज्यादातर भोजपुरी- भाषी सैनिक थे। वहीं रसूल ने एक कविता सुनाई –
छोड़ द गोरकी के अब तू खुशामी बालमा ।

एकर कहिया ले करब  गुलामी बालमा ।

देसवा हमार, बनल ई आ के रानी

करे ले हमनीं पर ई हुक्मरानी

एकर छोड़ द अब दीहल सलामी बालमा

एकर कहिया ले करब  गुलामी बालमा ।

रसूल के इस गाने ने तमाम सिपाहियों को प्रभावित किया । कुछ बिहारी सिपाहियों ने नौकरी छोड़ दी । पुलिस के अधिकारियों को लगा कि और सिपाही नौकरी छोड़ कर जाने का मन बना रहे हैं । बस क्या था, अंग्रेजी सरकार हरकत में आई और रसूल को मार्कुस लाइन डेरे से गिरफ्तार कर लिया गया । मार्कुस लाइन के बगल में वेश्याओं की धकुरिया गली थी । रसूल को उसी गली से ले जाया जा रहा था । आगे-पीछे पुलिस वाले और बीच में रसूल, वेश्याओं की गली से गाते हुए जा रहे थे-
भगिया हमार बिगड़ल, अइनीं कलकतवा, बड़ा मन के लागल ।

नाहक में जात बानी जेल, बड़ा मन के लागल ।

भुखिया लागल गइनीं, हलुवइया दुकनिया, बड़ा मन के लागल ।

देला नरियलवा के तेल, कहे घीउवे के छानल ।

नाहक में जात बानी जेल, बड़ा मन के लागल ।

कहा जाता है कि रसूल की जमानत वेश्याओं ने दी थीं । इसके लिए उन्होंने अपने जेवर बेच दिए थे। रसूल की शोहरत ऐसी थी कि पास के नवाब की बेटी भी थाने गई थी ।

रहमत और गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि संगीत निर्देशक चित्रगुप्त, रसूल के समकालीन थे और उनके बगल के गांव- सरवेजी, थाना- मीरगंज जिला- गोपालगंज के रहने वाले थे। संगीत निर्देशक चित्रगुप्त के माध्यम से रसूल के कई नाटकों की विषयवस्तु बंबई पहुंची और उन पर फिल्में बनीं । गांव के बुजुर्गों का कहना है कि रसूल के `चंदा कुदरत´ नाच की तर्ज पर `लैला-मजनू´ (1976)फिल्म बनाई गई । `वफादार हैवान का बच्चा उर्फ सेठ-सेठानी´ नाच पर `इंसानियत´(1955) फिल्म बनी या `गंगा नहान´ नामक नाटक पर `गंगा मइया तोहे पिअरी चढ़ईबो´ (1961) फिल्म बनी । गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि भिखारी ठाकुर के नाटक `बिदेसिया´ पर फिल्म बनाने के पूर्व, निर्माता-निर्देशक रसूल के नाटक- `गंगा नहान´ पर फिल्म बनाना चाहते थे। परन्तु जयप्रकाश नारायण ने अपने क्षेत्र के भिखारी ठाकुर के `बिदेसिया´ नाटक की ओर उन्हें आकर्षित कर लिया ।

रसूल के मुख्य नाचों(नाटकों ) के जो नाम ज्ञात हो सके हैं वे हैं – गंगा नहान, वफादार हैवान का बच्चा उर्फ सेठ-सेठानी, आजादी, सती बसंती-सूरदास, गरीब की दुनिया साढ़े बावन लाख, चंदा कुदरत, बुढ़वा-बुढ़िया, शान्ती, भाई- विरोध, धोबिया-धोबिन आदि । यहां यह बता देना जरूरी होगा कि `भाई-विरोध´ भिखारी ठाकुर का भी एक नाटक है। इसलिए मेरे पास यह प्रमाणित करने का कोई साधन नहीं है कि `भाई-विरोध´ रसूल का था या भिखारी का या दोनों का भाई-विरोध´ अलग-अलग था। शेष नाटकों के बारे में स्थिति बिल्कुल साफ है, क्योंकि कुछ के गीतों में रसूल का नाम आया है और उनमें जो अभिनय रसूल करते थे वह भी ज्ञात है, जिसका आगे उल्लेख किया गया है ।

शादी -ब्याह में रसूल सेहरा खुद बनाते और गाते। उनका एक सेहरा जो उनके बेटों को याद है-

गमकता जगमगाता है अनोखा राम का सेहरा

जो देखा है वो कहता है रमेती राम का सेहरा

हजारों भूप आये थे, जनकपुर बांध कर सेहरा

रखा अभिमान सेहरों का सलोने श्याम ने सेहरा

उधर है जानकी के हाथ में जयमाल शादी की

इधर है राम के सर पर विजय प्रणाम का सेहरा

लगा हर एक लड़ियों में ये धागा बंदेमातरम का

गुँथा है सत के सूई से सिरी सतनाम का सेहरा

हरी, हरीओम पढ़कर के ये मालन गूंथ लाई है

नंदन बन स्वर्ग से लायी है मालन श्याम का सेहरा

कलम धो-धो के अमृत से लिखा है मास्टर ने ये सेहरा,

सुनाया है रसूल ने आज ये इनाम का सेहरा ।

ऐसा लगता है कि इस सेहरे की शुरूआती पंक्तियों को रसूल के उस्ताद हलीम मास्टर ने लिखा होगा और रसूल ने इसे पूरा किया होगा ।

रसूल आशु कवि थे । वे अपने नाटकों के कलाकार भी थे। मंच पर ही कविता बनाकर सुना देने की अद्भुत प्रतिभा थी उनमें। जैसा कि मैने शुरू में जिक्र किया है कि रसूल तत्कालीन विदेशी सत्ता के प्रतिकार में जहां रचनाएं लिख रहे थे वहीं देशवासियों में राष्ट्रप्रेम जगाने का काम भी कर रहे थे। यहां जो गीत प्रकाशित किया जा रहा है वह संभवत: तब लिखा गया होगा जब आजादी की लड़ाई के दौरान भारत-पाक बंटवारे का मसला उठ खड़ा हुआ होगा। इस गीत में रसूल अपने राष्ट्रीय, सामाजिक सरोकारों को बखूबी मुखर करते दिखते हैं । गंवई समाज का एक लोक कलाकार उस समस्या से जनमानस को बचाने की किस तरह सलाह दे रहा था, इस गीत से स्पष्ट हो जाता है ।

सर पर चढ़ल आजाद गगरिया, संभल के चल · डगरिया ना ।

एक कुइंयां पर दू पनिहारन, एक ही लागल डोर

कोई खींचे हिन्दुस्तान की ओर,कोई पाकिस्तान की ओर

ना डूबे,ना फूटे ई, मिल्लत1 की गगरिया ना । सर पर चढ़ल ……..

हिन्दू दौड़े पुराण लेकर, मुसलमान कुरान

आपस में दूनों मिल-जुल लिहो,एके रख ईमान

सब मिलजुल के मंगल गावें, भारत की दुअरिया ना । सर पर चढ़ल……

कह रसूल भारतवासी से यही बात समुझाई

भारत के कोने-कोने में तिरंगा लहराई

बांध के मिल्लत की पगड़िया ना । सर पर चढ़ल……

1-मेल-जोल
रसूल ने अपने नाटक `आजादी´ में अंग्रेजों के चाटुकार जमींदारों को, जमींदारी प्रथा छोड़ कर स्वदेशी आंदोलन की ओर बुलाने का उपक्रम किया ऐसा जान पड़ता है –
छोड़ द बलमुआ जमींदारी परथा ।

सइंया बोअ  ना कपास, हम चलाइब चरखा ।

हम कातेब सूत, तू चलइह · करचा ।

हम नारा, नुरी भरब ,तू चलइह · करघा ।

संईया बोअ…………..

कहत रसूल, सईंया जइह · मत भूल ।

हम खादीए पहिन के रहब · बड़का ।

सईंया बोअ……..

इस गीत में भी रसूल हिन्दू-मुसलमान एकता और राष्ट्रभक्ति की बात करते नजर आते हैं ।
पन्द्रह अगस्त सन् सैंतालिस के सुराज मिलल ,

बड़ा कठिन से ताज मिलल  ।

सुन ल हिन्दू-मुसलमान भाई,

अपना देशवा के कर ल भलाई

तोहरे हथवा में हिन्द माता के लाज मिलल । बड़ा कठिन से ताज मिलल ।

अपना देश से दुश्मन भागल,

हम भारतीय के भगिया जागल,

कहे रसूल गा-गा के, अब हमनी के राज मिलल  ।

बड़ा कठिन से ताज मिलल  ।

आजादी की लड़ाई की जो तस्वीर समाज को दिखाई-समझाई गई थी, रसूल भी उसी से परिचित थे। आजादी की मुक्कमल तस्वीर न तो कांग्रेस के पास थी न जनमानस इससे परिचित था। आजादी की लड़ाई के केन्द्र में कांग्रेस पार्टी ही थी लिहाजा वह भी कांग्रेसीनुमा आजादी के मुरीद हो गए था। तब उनके कंठ से `आजादी´ नाटक में यह गाना फूटा था-
मिल जुल गाव · सब भारत के सखिया, आजादी मिलले ।

डाल · जवाहर गले हार, आजादी मिलले ।

कोई सखी गावे, कोई ताल बजावे,

कोई सखी झूम-झूम गूंथेली हार, आजादी मिलले ।

डाल · जवाहर गले हार, आजादी मिलले ।

रसूल का एक और गाना पन्द्रह अगस्त 1947 के संदर्भ में मिलता है –
पन्द्रह अगस्त स्वतंत्रता दिवस आया है, आता रहेगा ।

जब तलक देशवासी रहेंगे, ये तिरंगा लहराता रहेगा ।

माल का, जां का दे के सहारा,

इसको बापू ने ऐसा संवारा,

देश भारत है ऐसा नगीना, ये हमेशा चमकता रहेगा ।

प्यारे नेहरू के हैं शान इसमें,

कितने वीरों के हैं जान इसमें,

इसके साए में देश का आदमी, यूं ही फूला औ फलता रहेगा ।

इसी धरती पर है राम आए,

कृष्ण, शंकर औ गौतम भी आए,

ऐ रसूल भारत है ऐसा, स्वर्ग बनकर हमेशा रहेगा ।

महात्मा गांधी की जिस दिन हत्या हुई उस दिन रसूल अपनी नाच मंडली के साथ कलकत्ता में थे । हत्या से आहत रसूल के कंठ से यह गीत वहीं फूट पड़ा था-
के मारल हमरा गांधी के गोली हो, धमाधम तीन गो ।

कल्हीये आजादी मिलल, आज चलल · गोली ,

गांधी बाबा मारल गइले देहली के गली हो, धमाधम तीन गो ।

पूजा में जात रहले बिरला भवन में,

दुशमनवा बैइठल रहल पाप लिये मन में,

गोलिया चला के बनल बली हो, धमाधम तीन गो ।

कहत रसूल, सूल सबका के दे के,

कहां गइले मोर अनार के कली हो, धमाधम तीन गो ।

के मारल हमरा गांधी के गोली हो, धमाधम तीन गो । 

गांधी पर रसूल ने यह गीत भी लिखा था-

समधी बनले गांधी बाबा हाय रे जियरा

कहत रसूल नेता सब बराती

सजधज के चलले गांधी बाबा हाय रे जियरा ।

कहा जाता है कि गांधी की हत्या की खबर जैसे ही कलकत्ता पहुंची, फैक्ट्री के मालिक ने उस रात नाटक न खेलने का निर्देश दिया । पर रसूल ने मालिक को यह कह कर राजी कर लिया कि बापू की दुखद हत्या पर ही वह नाटक खेलना चाहते हैं जो बापू के प्रति श्रद्धांजलि होगी । मालिक मान गया। उधर रसूल नाटक में जरूरी बदलाव करने में जुट गए । नाटक देख कर लोगों की आंखें भर आईं थीं । नाटक को लोगों ने बेहद पसंद किया था। मालिक ने कुल छ: घड़ियां इनाम स्वरूप दीं थीं ।
`धोबिया-धोबिनिया´ नाटक का एक अधूरा गीत मिला है । इसमें जहां एक ओर रसूल की दार्शनिकता उभरती है, वहीं दूसरी ओर हिन्दू-मुसलमान के एकाकार संस्कृति के दर्शन भी होते हैं –

धोबिया धोवे धोबी-घाट आली

सत् के साबुन, प्रेम के पानी, नेह के मटकी में संउनन1 डाली ।

पाप,पुण्य के धोवे धोबिया, सत् के घाट पर धोवे धोबिया,

सूखे धरम के डाली । धोबिया धोवे धोबी-घाट आली ।

1- सउनना-, पानी, साबुन और कपड़े को एक में मिलाकर मसलना ।
`वफादार हैवान का बच्चा उर्फ सेठ-सेठानी´ नाटक में रसूल ने शंकर जी की आरती लिखी थी वह इस प्रकार है-
आवो सखी आवो, आरती उतारो

उमापति के, उमापति के, जगतपति के ।

अच्छत, चंदन, बेल के पाती,

घी पड़े धेनुगइया के ।

मिलीजुली-मिलीजुली आज रिझाओ ।

उमापति के, उमापति के, जगतपति के ।

भंग, धतूर के भोग लगावो,

बसहा बैल चढ़वइया के ।

आवो सखी आवो, आरती उतारो,

उमापति के, उमापति के, जगतपति के ।

कहत रसूल गले हार पेन्हाओ,

डमरू के बजवइया के ।

आवो सखी आवो, आरती उतारो,

उमापति के, उमापति के, जगतपति के ।

`सती बसंती-सूरदास´ नाटक का एक भजन लोगों के मस्तिष्क में आज भी जिंदा है –
रब के बोली बोल रे मैना, रब के बोली बोल ।

क्यों सोये गफलत में मैंना, होवन लागी भोर ।

रे मैना रब के बोली बोल ।

अइहें बिलरिया झपट ले जइहें,

बस न चलिहें तोर, रे मैना रब के बोली बोल ।

कहे रसूल भूल मत जइहो,

भजन करो दिन रोज, रे मैना रब के बोली बोल ।

रसूल की भारतीय जीवन मीमांसा पर कितनी पकड़ थी यह प्रस्तुत गीत से स्पष्ट हो जाता है ।
घट ही में सहर बसवलू हो, तू त पांचों रनिया ।

पांचों रनियां, पच्चीसों बैरनियां

एही में तीन गो सेयनिया हो, तू त पांचों रनिया ।

घट ही में सेल्ही, घट ही मे धागा

घट ही में चौपट करवलू हो, तू त पांचों रनिया ।

ब्रह्मा के मोहलू, विष्णु के मोहलू

शिव जी के भंगिया पियवलू हो, तू त पांचों रनिया ।

बिना जड़ पेड़ लगवलू हो,

बिना फूल भंवरा लोभवलू हो, तू त पांचों रनिया ।

लोभ-मोह के महल बना के,

माया में सबके फंसवलू हो, तू त पांचों रनियां ।

कहत रसूल छब-ढब दिखा के,

सबके नाच नचवलू हो, तू त पांचों रनियां ।

प्रस्तुत गीत सांप्रदायिक शक्तियों के गाल पर तमाचा जड़ने के लिए काफी है। यहां एक लोक कलाकार धर्म और संप्रदाय की दीवारों को ढाह कर सामाजिक सस्कृति को, चाहें वह किसी मजहब का क्यों न हो, अपना लेता है –
हरिओम् तत्-सत्

हरिओम् तत्-सत्

काम करते रहो, नाम जपते रहो,

हरिओम् तत्-सत्

हरिओम् तत्-सत्

लगी आग लंका में हलचल मची थी,

विभीषण की कुटिया क्यूं फिर भी बची थी,

लिखा था यही नाम कुटिया के ऊपर,

हरिओम् तत्-सत्

हरिओम् तत्-सत्

रसूल का एक और भजन जो अधूरा प्राप्त हुआ है –
जग में तेरा नाम प्यारा, जग में तेरा नाम प्यारा

जो दिल से तेरा गुन गावे, भवसागर से पार उ पावे

तुमसे तीनों जग उजियारा, यही रसूल पुकारा ।

पूर्वांचल में होली और मुहर्रम पर्व किसी संप्रदाय के नहीं होते, बल्कि हर पूरबिया के होते हैं । रसूल होली के रंग में कैसे रंगीले हो जाते थे, प्रस्तुत खूबसूरत होली गीत में देखा जा सकता है –
खेलन चली होरी गोरी मोहन संग ।

कोई लचकत कोई हचकत आवे

कोई आवत अंग मोड़ी ।

कोई सखी नाचत, कोई ताल बजावत

कोई सखी गावत होरी ।

मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।

सास ननद के चोरा-चोरी,

अबहीं उमर की थोड़ी ।

कोई सखी रंग घोल-घोल के

मोहन अंग डाली बिरजवा की छोरी ।

मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।

का के मुख पर तिलक बिराजे,

का के मुख पर रोड़ी ।

गोरी के मुख पर तिलक विराजे,

सवरों के मुख पर रोड़ी ।

मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।

कहत रसूल मोहन बड़ा रसिया

खिलत रंग बनाई ।

भर पिचकारी जोबन पर मारे

भींजत सब अंग साड़ी ।

हंसत मुख मोड़ी ।

मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।

रसूल शादी के अवसर पर जनवासे में एक गीत गाते थे जो अधूरा ही मिल पाया है –
तोड़हीं राज किशोर धनुष प्रण को

कोसिला नरेश जब धनुष को उठाई लियो ,

मन में विचार किन्ह चार बातों का।

तोड़ूं तो कैसे तोड़ूं, शंकर चाप त्रिपुरारी का ।

तोड़ूं तो कुल का कलंक हो,

नहीं तोड़ूं तो जनक प्राण रहे कइसे ।

तोड़ूं तो लोग कहें लोभ किन्ह नारी का ।

………………..

जनक जी के आंगन में खम्भ गाड़े कंचन का,

चारु कोन पर नग जड़ दीन्ह दिये हैं ।

सोने की अंगूठी राम सांवरो नगीना है ।

रसूल का एक भजन जो तत्कालीन समाज की व्याख्या भी करता दिख रहा है –
बिना विद्या के भारत देश, कैसी हुई गति तुम्हारी ।

लोग कहत हैं मोटर गाड़ी बहुत चलत है रेस

काठ का घोड़ा घंटा भर में चले सत्तासी कोस

राजा भोज के सवारी । विना विद्या ………

ग्रामोंफोन के बोली सुन के लोग भयो लवलीन ।

विक्रमादित्य के तख्त के नीचे बत्तीस लगे मशीन,

जेहिमें बोली निकले न्यारी-न्यारी ।

बिना विद्या के ……… ।

दुल्हन के दरवाजे पर रसूल द्वारा गाये जाने वाले दो गीत पूर्वांचल के वैवाहिक संस्कृति का दर्शन कराते हैं –
1 समधिन तोहार जोड़ा, बलइयां लीह ·।

समधिन हो तनी समधी के दीह · ,

समधीन हो तनी समधी के दीह · ,

समधी चढ़न जोगे घोड़ा ।

बलइयां लीह · ।

सरहज हो तनी नौसे के दीह ·,

सरहज हो तनी नौसे के दीह ·,

अशरफी भरा-भर तोड़ा1 ।

बलइयां लीह · ।

पड़ोसन हो सहबलिया के दीह ·,

पड़ोसन हो सहबलिया के दीह ·,

दूध पिअन जोग खोरा ।

बलइयां लीह · ।

कहत रसूल सब बरिअतिया के दीह ·,

कहत रसूल सब बरिअतिया के दीह ·,

पिअरी रंगा-रंग जोड़ा ।

बलइयां लीह · ।

1-बटुआ

2 समधिन हो मैं तो खड़ा किया,

नौसे को आज तोहरे दुआर ।

समधिन हो मिसवइबू की नाहीं,

मिट्टी से आपने सर के बार ।

समधिन हो ………..।

समधिन हो लगवइबू की नाहीं,

नाउन से तेल अपने कपार ।

समधिन हो ………..।

समधिन हो गुथवइबू की नाहीं,

मोती, मूंगा अपने गर के हार ।

समधिन हो …….. ।

बुजुर्गों द्वारा दी गई मौखिक जानकारियों के आधार पर जो सामग्री हमें प्राप्त हुई है उससे कहा जा सकता है कि भिखारी ठाकुर की तरह ही रसूल ने अपने नाटकों को खुद लिखा और मंचित किया। रसूल की भाषा में हिन्दी, भोजपूरी और उर्दू के शब्दों का प्रयोग हुआ है। ठेठ भोजपुरी के अलावा रसूल ने खड़ी भाषा में भी लिखा। उन्होंने आजादी की लड़ाई में हस्तक्षेप किया, तत्कालीन अंग्रेजी सत्ता का विरोध कर जेल गए जो उन्हें भिखारी से अलग पहचान दिलाता है।
– सुभाष चन्द्र कुशवाहा

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