इन दिनों लोग कुछ अधिक बोल रहे हैं। कहा जा सकता है कि काफी मुखर हैं। लोगों के मुखर होने की कई वजह हैं। हमारी मुखरता कई बार हमें वहां ले जाती है जहां पहुंच कर लगता है कि मौन ही बेहतर था। किसी संत ने कहा भी है 'एक मौन सौ को साधे'। मुद्दा यह है कि हम कह क्या रहे हैं? किसके लिए कह रहे हैं? क्यों कह रहे हैं? और... कहां कह रहे हैं? यदि हम यह जानते हैं और इसी दायरे में कह रहे हैं तो हमारा कहा सार्थक होगा। लेकिन यदि हम बगैर यह ख्याल किए कि हम किसलिए, क्यों और... क्या, कह रहे हैं तो हमारे कथन और हमारा दोनों का भटकना संभव है।
हाल ही के दिनों में 'बोल के लब आज़ाद हैं तेरे...' के हिमायतियों के कई ऐसे जुमले सामने आए हैं जिन्होंने संवाद की भूमिका पर तो खतरा खड़ा किया ही साथ ही इस विमर्श के भी दरवाज़े खोले कि हम क्या कह रहे हैं, कैसे कह रहे हैं और कहां कह रहे हैं? साठ साल की जीवन यात्रा के कच्चे-पक्के अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि कहना और सुनना दोनों ही एक कला हैं। हमारे बोल ही नहीं बिगड़े हैं, हमने सुनने का धीरज भी खो दिया है। सुन कर गुनने के गुण का लोप तो लगभग पूरी तरह से ही हो गया है।
शाब्दिक मुठभेड़ से पहला आघात मुझे तीन दशक पहले लगा था। विख्यात लेखक मुद्राराक्षस जी के ड्राइंगरूम में एक संवाद विशेष में मैं पिताश्री के साथ शामिल था। किसी बात पर मैंने मुद्रा जी से 'आप समझे नहीं...' कह दिया। एक-दो दिन तक पिताश्री अबोले से रहे तो मेरा ध्यान उधर गया। मैंने उनसे कहा क्या बात है फ्यूज क्यों हैं। पिताश्री बोले 'तुमने मुद्राराक्षस से क्या कहा?' :अरे जाने दीजिए वह बात ही ऐसी कर रहे थे...' मैंने अपना पक्ष रखा।
'तुम क्या समझा रहे थे मुद्राराक्षस को, यह कह कर कि आप समझे नहीं... वह पूरी दुनिया को समझाता है। पूरी दुनिया उसे गौर से सुनती है। तुमसे बात करना व्यर्थ है... तुम्हारे पास तो शब्दावली ही नहीं है' पिताश्री ने अपना रोष व्यक्त करते हुए कहा।
मुझे वास्तविकता का बोध हुआ। 'आप समझे नहीं...' वास्तव में पत्थर मारने जैसा प्रहार है। जो सामने वाले का पूरा वज़ूद ही ख़ारिज कर देता है। पिताश्री की बात ने मुझे दुविधा में फंसा दिया। जिज्ञासावश मैं उनसे पूछ बैठा 'अच्छा... फिर क्या कहता?'
'तुम कह सकते थे कि मैं आपको अपनी बात नहीं समझा पाया... या मैं आपकी बात समझ नहीं पाया' नसीहत के तौर पर पिताश्री ने कहा।
'आप समझे नहीं की जगह अब मैं, मैं आपको अपनी बात समझा नहीं पाया' ही कहता हूं और सुखी रहता हूं। लेकिन 'बोल के लब आज़ाद हैं तेरे...' की तर्ज़ पर मेरे फिसले बोल ने हाल ही में मेरा गिरहबान फिर थाम लिया। विश्व पृथ्वी दिवस पर एक स्कूल के आयोजन में निर्णायक की भूमिका निभा रहा था। चार नुक्कड़ नाटकों में छात्रों ने हर क्षेत्र में ऐसी प्रतिभा का परिचय दिया कि प्रथम, द्वितीय, तृतीय का चयन करना मुश्किल हो गया। उनकी प्रशंसा में शाब्दिक अनुशासन की सीमारेखा पार करते हुए यह कह गया 'सभी पप्पू पास हो गए...'। मेरे यह कहते ही स्कूल की प्रधानाचार्या अपने आसन से खड़ी हो गईं और उन्होंने मेरे कहे को शालीनता से दुरुस्त किया। लेकिन मैं मौके पर ही गलती सुधारने के बजाए अपनी बात से उधड़े आशय की तुरपाई की बेवजह कोशिश करता रहा। प्रधानाचार्या जी की आपत्ति पर मुझे आत्मबोध हो गया था, बावजूद इसके मै माइक पर अपने कहे को जस्टिफाई करने की कोशिश कर रहा था।
अब खुद इस प्रश्न को हल करने बैठा हूं कि उन प्रतिभावान बच्चों से मैं कहना क्या चाहता था? क्या उन्हें मैं अपनी बात समझा पाया...?
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अपनी गलती को उजागर करना बड़ी हिम्मत की बात है...
जवाब देंहटाएंलब को किस हद तक आजाद किया जाये यह समझने की बात है...
स्वतन्त्रता और स्वच्छंदता के अन्तर को बताने के लिए एक बारीक़ रेखा ही तो है...
'तुम कह सकते थे कि मैं आपको अपनी बात नहीं समझा पाया... या मैं आपकी बात समझ नहीं पाया'
जवाब देंहटाएंशब्दों का हेर-फेर बातों के माने ही बदल जाते हैं,सार्थक संदेश,सादर नमन आपको
अर्थपूर्ण सृजन
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