मुक्ति श्रीवास्तव
10 नवम्बर, 2006
वास्तविकता यह है कि अंग्रेजी ने संप्रभु वर्गों के समक्ष आम आदमी को लगभग गूंगा बना दिया है।
दलितों की हालत में अपेक्षानुरूप गति से सुधार क्यों नहीं होता? इसका एक बड़ा कारण यह है कि उन्हें प्रायः गलत नुस्खे सुझाए जाते रहे हैं। अंग्रेजी पढ़ना सीखना ऐसा ही नुस्खा है। इसके जरिए यह समझाया जा रहा है कि दलितों का विकास हो जाएगा। दरअसल हमारे समय की एक बड़ी विडंबना यह है कि दलित चिंता की दुकानदारी आत्म-घृणा और आत्म-निवार्सन की प्रक्रियाओं को तेज करके ही चलाई जा रही है। उसे अपनी कुंठा के विरेचन के लिए परंपरा को गाली देने और एक औपनिवेशक तथा पराई भाषा, जिसने हमारे देश में भारत विरुद्ध इंडिया का द्वैत पैदा कर दिया, के चरण चूमने के सिवाय कोई रास्ता समझ में नहीं आता।
परंपरा को नकारने के लिए भी विशिष्टताओं में जाने का विवेक और धैर्य जरूरी है और यदि किसी को वर्ग-शत्रु के रूप में चिन्हांकित भी करना है तो यह भी जरूरी है कि यह निशानदेही वैज्ञानिक की सावधानी और प्रामाणिकता से की जाए। लेकिन यह प्रिसीजन दलितों की हित-चिंता करने वाले ज्यादातर लेखनों में गैरमौजूद है। लक्ष्य-भेद के संबंध में चिड़िया की आंख का अजुर्न वाला प्रसंग इन्होंने पढ़ा ही नहीं है और इसिलए अपने आक्रोश के प्रदर्शन में उस हर कुछ को ले लेते हैं जिसने इस देश को रचा है।
ऐसे सामान्यीकरण विरोध को केंद से हटाकर विकृति को बच निकलने का मौका मुहैया कराते हैं। जो लोग यह कहते हैं कि लॉर्ड मैकाले का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए कि उनके कारण ही देश में पहली बार अछूत लोग शिक्षा प्राप्त करने लायक बन सके तो उन्हें मेरी सलाह है कि वे प्रसिद्ध गांधीवादी लेखक धर्मपाल की पुस्तक द ब्यूटीफुल ट्री अवश्य पढ़ लें। यह पुस्तक अट्ठारहवीं सदी में देशी भारतीय शिक्षा का ब्यौरा देती है और बताती है कि औपनिवेशिक शिक्षा शुरू होने से पूर्व भारत की देशी शालाओं में शूद्र बच्चों की संख्या द्विजों से काफी अधिक होती थी।
इस जनवादी विकेन्द्रित भारतीय शिक्षा को वे अंग्रेज तहस-नहस करते ही जिन्होंने खुद अपने देश में शिक्षा को श्रेष्ठ वर्ग तक केंद्रित रखा था। ठीक उसी समय विलियम एडम के प्रतिवेदन के अनुसार भारत में चार सौ की जनसंख्या पर एक स्कूल था। यही प्रतिवेदन यह भी बताता है कि यह कोई जातीय विभाजन को तीव्र करने वाली धार्मिक दुराग्रहों ली शिक्षा नहीं थी। मैकाले की शिक्षा इस भारतीय शिक्षा के विध्वंस पर खड़ी हुई और अंग्रेजी ने गरीब बच्चों के लिए वंचना का एक कुंभीपाक नरक खोल दिया। यदि लार्ड मैकाले और उनकी अंग्रेजी भारत के वंचित वर्गों के प्रति इतनी सहानुभूतिशील भूमिका का निवार्ह करती तो पिछले दो सौ वर्षों में इन वर्गों का जीवन स्तर सुधर जाना चाहिए था। इसके मुकाबिल अंग्रेजी आकर खड़ी हो गई और उसने संप्रभु वर्गों के समक्ष आम आदमी को लगभग गूंगा बना दिया।
जो अंग्रेजी भारत भर में एक दमनात्मक और आक्रामक अभिजात्य का वाहक यंत्र है; जिसके चलते आजादी के बाद नया शासक अभिजन-वर्ग आम जनता के साथ उसी रिश्ते में आकर खड़ा हो गया है जिस रिश्ते में औपनिवेशक सत्ता आकर खड़ी हुई थी; उसमें मुक्ति की मरीचिका ढूंढते हुए ऐसे सज्जन लोग क्या यह बताएंगे कि यदि अंग्रेजी बोलने वाले दलितों से नाली साफ करने को कहा जाता तो क्या संस्कृत बोलने वाले दलित से कभी ऐसा कहा गया या शुद्ध और परिनिष्ठित हिंदी बोलने वाले दलित से? फिर अंग्रेजी ही क्यों? यदि बच्चा फ्रेंच बोलना सीख जाएगा तो क्या नाली साफ करने की नियति का कुचक्र उससे नहीं टूट जाएगा? आज उप्र में पढ़े-लिखे ब्राह्मण लड़के भी सफाई कर्मचारी का काम कर रहे हैं। हिंदी के जरिए उन्नति के शिखर पर चढ़ने वालों की कमी नहीं है लेकिन शिखर का यह स्पर्श कुंठा से नहीं गहरे अध्यवसाय और आत्माभिमान से ही संभव है।
अक्सर यह कहा जाता है कि अंग्रेजी एक विश्वभाषा बन चुकी है लेकिन यह नहीं बताया जाता कि किस तरह आज दुनिया भर में अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्व के विरुद्ध संघर्ष हो रहे हैं। कनाडा की लैंग्वेज बिग्रेड इसका एक उदाहरण है। अभी हाल में कोरिया, फ्रांस, जर्मनी, पोलैण्ड और रूस ने अंग्रेजी के विरुद्ध कानून बनाए हैं। वे यह नहीं बताते कि क्यों अमेरिकी राष्टपति बुश अपने नागरिकों को हिंदी सीखने की सलाह दे रहे हैं। इस समय विश्र्व रंगमंच पर भाषाओं द्वारा अपनी जमीन और अपना आकाश बचाए रखने के दिलचस्प संघर्ष हो रहे हैं लेकिन इन्हें नहीं बताया जाता। वहाँ तो बिना किसी सांख्यिकीय अध्ययन के बस कह दिया जाता है कि अंग्रेजी ने दलितों के लिए जाति आधारित व्यवसाय से छुटकारा पाने का रास्ता खोल दिया।
सच तो यह है कि अंग्रेजी के कंधे पर चढ़कर आने वाला नव-आर्थिक साम्राज्यवाद वैसे ही बहुत से हस्त कला और शिल्प खत्म कर रहा है। जब कोई हस्त कला या कोई शिल्प इस एकाधिपत्य के चलते खत्म होता है तो उससे जुड़े शब्द, लोकगीत, जीवन शैलियों, अभिव्यिक्तयों और कलाओं की शताब्दियों से चली आई अनुगूंजें भी खत्म होती हैं।
10 नवम्बर, 2006
वास्तविकता यह है कि अंग्रेजी ने संप्रभु वर्गों के समक्ष आम आदमी को लगभग गूंगा बना दिया है।
दलितों की हालत में अपेक्षानुरूप गति से सुधार क्यों नहीं होता? इसका एक बड़ा कारण यह है कि उन्हें प्रायः गलत नुस्खे सुझाए जाते रहे हैं। अंग्रेजी पढ़ना सीखना ऐसा ही नुस्खा है। इसके जरिए यह समझाया जा रहा है कि दलितों का विकास हो जाएगा। दरअसल हमारे समय की एक बड़ी विडंबना यह है कि दलित चिंता की दुकानदारी आत्म-घृणा और आत्म-निवार्सन की प्रक्रियाओं को तेज करके ही चलाई जा रही है। उसे अपनी कुंठा के विरेचन के लिए परंपरा को गाली देने और एक औपनिवेशक तथा पराई भाषा, जिसने हमारे देश में भारत विरुद्ध इंडिया का द्वैत पैदा कर दिया, के चरण चूमने के सिवाय कोई रास्ता समझ में नहीं आता।
परंपरा को नकारने के लिए भी विशिष्टताओं में जाने का विवेक और धैर्य जरूरी है और यदि किसी को वर्ग-शत्रु के रूप में चिन्हांकित भी करना है तो यह भी जरूरी है कि यह निशानदेही वैज्ञानिक की सावधानी और प्रामाणिकता से की जाए। लेकिन यह प्रिसीजन दलितों की हित-चिंता करने वाले ज्यादातर लेखनों में गैरमौजूद है। लक्ष्य-भेद के संबंध में चिड़िया की आंख का अजुर्न वाला प्रसंग इन्होंने पढ़ा ही नहीं है और इसिलए अपने आक्रोश के प्रदर्शन में उस हर कुछ को ले लेते हैं जिसने इस देश को रचा है।
ऐसे सामान्यीकरण विरोध को केंद से हटाकर विकृति को बच निकलने का मौका मुहैया कराते हैं। जो लोग यह कहते हैं कि लॉर्ड मैकाले का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए कि उनके कारण ही देश में पहली बार अछूत लोग शिक्षा प्राप्त करने लायक बन सके तो उन्हें मेरी सलाह है कि वे प्रसिद्ध गांधीवादी लेखक धर्मपाल की पुस्तक द ब्यूटीफुल ट्री अवश्य पढ़ लें। यह पुस्तक अट्ठारहवीं सदी में देशी भारतीय शिक्षा का ब्यौरा देती है और बताती है कि औपनिवेशिक शिक्षा शुरू होने से पूर्व भारत की देशी शालाओं में शूद्र बच्चों की संख्या द्विजों से काफी अधिक होती थी।
इस जनवादी विकेन्द्रित भारतीय शिक्षा को वे अंग्रेज तहस-नहस करते ही जिन्होंने खुद अपने देश में शिक्षा को श्रेष्ठ वर्ग तक केंद्रित रखा था। ठीक उसी समय विलियम एडम के प्रतिवेदन के अनुसार भारत में चार सौ की जनसंख्या पर एक स्कूल था। यही प्रतिवेदन यह भी बताता है कि यह कोई जातीय विभाजन को तीव्र करने वाली धार्मिक दुराग्रहों ली शिक्षा नहीं थी। मैकाले की शिक्षा इस भारतीय शिक्षा के विध्वंस पर खड़ी हुई और अंग्रेजी ने गरीब बच्चों के लिए वंचना का एक कुंभीपाक नरक खोल दिया। यदि लार्ड मैकाले और उनकी अंग्रेजी भारत के वंचित वर्गों के प्रति इतनी सहानुभूतिशील भूमिका का निवार्ह करती तो पिछले दो सौ वर्षों में इन वर्गों का जीवन स्तर सुधर जाना चाहिए था। इसके मुकाबिल अंग्रेजी आकर खड़ी हो गई और उसने संप्रभु वर्गों के समक्ष आम आदमी को लगभग गूंगा बना दिया।
जो अंग्रेजी भारत भर में एक दमनात्मक और आक्रामक अभिजात्य का वाहक यंत्र है; जिसके चलते आजादी के बाद नया शासक अभिजन-वर्ग आम जनता के साथ उसी रिश्ते में आकर खड़ा हो गया है जिस रिश्ते में औपनिवेशक सत्ता आकर खड़ी हुई थी; उसमें मुक्ति की मरीचिका ढूंढते हुए ऐसे सज्जन लोग क्या यह बताएंगे कि यदि अंग्रेजी बोलने वाले दलितों से नाली साफ करने को कहा जाता तो क्या संस्कृत बोलने वाले दलित से कभी ऐसा कहा गया या शुद्ध और परिनिष्ठित हिंदी बोलने वाले दलित से? फिर अंग्रेजी ही क्यों? यदि बच्चा फ्रेंच बोलना सीख जाएगा तो क्या नाली साफ करने की नियति का कुचक्र उससे नहीं टूट जाएगा? आज उप्र में पढ़े-लिखे ब्राह्मण लड़के भी सफाई कर्मचारी का काम कर रहे हैं। हिंदी के जरिए उन्नति के शिखर पर चढ़ने वालों की कमी नहीं है लेकिन शिखर का यह स्पर्श कुंठा से नहीं गहरे अध्यवसाय और आत्माभिमान से ही संभव है।
अक्सर यह कहा जाता है कि अंग्रेजी एक विश्वभाषा बन चुकी है लेकिन यह नहीं बताया जाता कि किस तरह आज दुनिया भर में अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्व के विरुद्ध संघर्ष हो रहे हैं। कनाडा की लैंग्वेज बिग्रेड इसका एक उदाहरण है। अभी हाल में कोरिया, फ्रांस, जर्मनी, पोलैण्ड और रूस ने अंग्रेजी के विरुद्ध कानून बनाए हैं। वे यह नहीं बताते कि क्यों अमेरिकी राष्टपति बुश अपने नागरिकों को हिंदी सीखने की सलाह दे रहे हैं। इस समय विश्र्व रंगमंच पर भाषाओं द्वारा अपनी जमीन और अपना आकाश बचाए रखने के दिलचस्प संघर्ष हो रहे हैं लेकिन इन्हें नहीं बताया जाता। वहाँ तो बिना किसी सांख्यिकीय अध्ययन के बस कह दिया जाता है कि अंग्रेजी ने दलितों के लिए जाति आधारित व्यवसाय से छुटकारा पाने का रास्ता खोल दिया।
सच तो यह है कि अंग्रेजी के कंधे पर चढ़कर आने वाला नव-आर्थिक साम्राज्यवाद वैसे ही बहुत से हस्त कला और शिल्प खत्म कर रहा है। जब कोई हस्त कला या कोई शिल्प इस एकाधिपत्य के चलते खत्म होता है तो उससे जुड़े शब्द, लोकगीत, जीवन शैलियों, अभिव्यिक्तयों और कलाओं की शताब्दियों से चली आई अनुगूंजें भी खत्म होती हैं।
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