बालकृष्ण
शर्मा नवीन (जन्म- 8 दिसम्बर, 1897 ई., भयाना ग्राम, ग्वालियर; मृत्यु- 29
अप्रैल, 1960) हिन्दी जगत के कवि, गद्यकार और अद्वितीय वक्ता हैं।
जीवन परिचय
हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील लेखन के
अग्रणी कवि पंडित बालकृष्ण शर्मा “नवीन” का जन्म 8 दिसम्बर, 1897 ई. में
ग्वालियर राज्य के भयाना नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता श्री जमनालाल
शर्मा वैष्णव धर्म के प्रसिद्द तीर्थ श्रीनाथ द्वारा में रहते थे वहाँ
शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं थी, इसलिए इनकी माँ इन्हें ग्वालियर राज्य
के शाजापुर स्थान में ले आईं
यहाँ से प्रारंभिक शिक्षा लेने के उपरांत
इन्होंने उज्जैन से दसवीं और कानपुर से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इनके
उपरांत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक श्रीमती एनी बेसेंट एवं श्री गणेशशंकर
विद्यार्थी के संपर्क में आने के बाद उन्होंने पढ़ना छोड़ दिया। शाजापुर से
अंग्रेज़ी मिडिल पास करके वे उज्जैन के माधव कॉलेज में प्रविष्ट हुए। इनको
राजनीतिक वातावरण ने शीघ्र ही आकृष्ट किया और इसी से वे सन् 1916 ई. के
लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन को देखने के लिए चले आये। इसी अधिवेशन में संयोगवश
उनकी भेंट माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त एवं गणेशशंकर विद्यार्थी से
हुई। सन् 1917 ई. में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करके बालकृष्ण शर्मा
गणेशशंकर विद्यार्थी के आश्रम में कानपुर आकर क्राइस्ट चर्च कॉलेज में
पढ़ने लगे।
व्यावहारिक राजनीति
सन 1920 ई. में बालकृष्ण शर्मा जब बी.ए.
फ़ाइनल में पढ़ रहे थे, गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन के आवाहन पर वे कॉलेज
छोड़कर व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में आ गये। 29 अप्रैल, 1960 ई. को
अपने मृत्युपर्यन्त वे देश की व्यावहारिक राजनीति से बराबर सक्रिय रूप से
सम्बद्ध रहे। उत्तर प्रदेश के वे वरिष्ठ नेताओं में एक एवं कानपुर के
एकछत्र अगुआ थे। भारतीय संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्य के रूप में
हिन्दी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार कराने में उनका बड़ा योगदान रहा
है। 1952 ई. से लेकर अपनी मृत्यु तक वे भारतीय संसद के भी सदस्य रहे हैं।
सन् 1955 ई. में स्थापित राजभाषा आयोग के सदस्य के रूप में उनका
महत्त्वपूर्ण कार्य रहा है।
व्यक्तित्व
‘नवीन’ जी स्वभाव से अत्यन्त उदार,
फक्कड़, आवेशी किन्तु मस्त तबियत के आदमी थे। अभिमान और छल से बहुत दूर थे।
बचपन के वैष्णव संस्कार उनमें यावज्जीवन बने रहे। जहाँ तक उनके लेखक-कवि
व्यक्तित्व का प्रश्न है, लेखन की ओर उनकी रुचि इंदौर से ही थी, परन्तु
व्यवस्थित लेखन 1917 ई. में गणेशशंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में आने के बाद
प्रारम्भ हुआ।
पत्रकार
गणेशशंकर विद्यार्थी से सम्पर्क का सहज
परिणाम था कि वे उस समय के महत्त्वपूर्ण पत्र ‘प्रताप’ से सम्बद्ध हो गये
थे। ‘प्रताप’ परिवार से उनका सम्बन्ध अन्त तक बना रहा। 1931 ई. में
गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु के पश्चात् कई वर्षों तक वे ‘प्रताप’ के
प्रधान सम्पादक के रूप में भी कार्य करते रहे। हिन्दी की राष्ट्रीय काव्य
धारा को आगे बढ़ाने वाली पत्रिका ‘प्रभा’ का सम्पादन भी उन्होंने 19211923
ई. में किया था। इन पत्रों में लिखी गई उनकी सम्पादकीय टिप्पणियाँ अपनी
निर्भीकता, खरेपन और कठोर शैली के लिए स्मरणीय हैं। ‘नवीन’ अत्यन्त
प्रभावशाली और ओजस्वी वक्ता भी थे एवं उनकी लेखन शैली (गद्य-पद्य दोनों ही)
पर उनकी अपनी भाषण-कला का बहुत स्पष्ट प्रभाव है। राजनीतिक कार्यकर्ता के
समान ही पत्रकार के रूप में भी उन्होंने सारे जीवन कार्य किया।
राजनीतिज्ञ एवं पत्रकार के समानान्तर ही
उनके व्यक्तित्व का तीसरा भास्वर पक्ष कवि का था। उनके कवि का मूल स्वर
मनोरंजक था, जिसे वैष्णव संस्कारों की आध्यात्मिकता एवं राष्ट्रीय जीवन का
विद्रोही कण्ठ बराबर अनुकूलित करता रहा। उन्होंने जब लिखना प्रारम्भ किया
तब द्विवेदीयुग समाप्त हो रहा था एवं राष्ट्रीयता के नये आयाम की छाया में
स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन काव्य में मुखर होने लगा था। परिणामस्वरूप दोनों
ही युगों की प्रवृत्तियाँ हमें ‘नवीन’ में मिल जाती हैं।
कृतियाँ
उर्मिला
महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा ने ही
कवियों की चिर-उपेक्षिता ‘उर्मिला’ का लेखन उनसे 1921 ई. में प्रारम्भ
कराया, जो पूरा सन् 1934 ई. में हुआ एवं प्रकाशित सन् 1957 ई. में हुआ। इस
काव्य में द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता, स्थूल नैतिकता या प्रयोजन
(जैसे रामवन गमन को आर्य संस्कृति का प्रसार मानना) स्पष्ट देखे जा सकते
हैं, परन्तु मूलत: स्वच्छन्दतावादी गीतितत्वप्रधान ‘नवीन’ का यह प्रयास
प्रबन्धत्व की दृष्टि से बहुत सफल नहीं कहा जा सकता। छ: सर्गों वाले इस
महाकाव्य ग्रन्थ में उर्मिला के जन्म से लेकर लक्ष्मण से पुनर्मिलन
तक की कथा कही गयी है, पर वर्णन प्रधान
कथा के मार्मिक स्थलों की न तो उन्हें पहचान है और न राम-सीता के विराट
व्यक्तित्व के आगे लक्ष्मण-उर्मिला बहुत उभर ही सके हैं। उर्मिला का विरह
अवश्य कवि की प्रकृति के अनुकूल था और कला की दृष्टि से सबसे सरस एवं
प्रौढ़ अंश वही है। यों अत्यन्त विलम्ब से प्रकाशित होने के कारण सम्यक्
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस ग्रन्थ का मूल्यांकन नहीं हो सका है। यह
विलम्ब उनकी सभी कृतियों के प्रकाशन में हुआ है।
कुंकुम
सन 1930 ई. तक वे यद्यपि कवि रूप में
यशस्वी हो चुके थे, परन्तु पहला कविता संग्रह ‘कुंकुम’ 1936 ई. में
प्रकाशित हुआ। इस गीत संग्रह का मूल स्वर यौवन के पहले उद्दाम प्रणयावेग
एवं प्रखर राष्ट्रीयता का है। यत्र-तत्र रहस्यात्मक संकेत भी हैं, परन्तु
उन्हें तत्कालीन वातावरण का फ़ैशन प्रभाव ही मानना चाहिए। ‘कवि कुछ ऐसी तान
सुनाओ’ तथा ‘आज खड्ग की धार कुण्ठिता है’ जैसी प्रसिद्ध कविताएँ ‘कुंकुम’
में संग्रहीत हैं।
अन्य रचनाएँ
स्वतंत्रता संग्राम का सबसे कठिन एवं
व्यस्त समय आ जाने के कारण ‘नवीन’ बराबर उसी में उलझे रहे। कविताएँ
उन्होंने बराबर लिखीं, परन्तु उनकों संकलित कर प्रकाशित कराने की ओर ध्यान
नहीं रहा। स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद भी वे संविधान निर्माण जैसे
कार्यों में लगे रहे। इस प्रकार एक लम्बे अन्तराल के पश्चात् 1951 ई. में
‘रश्मि रेखा’ तथा ‘अपलक’, 1952 ई. में और ‘क्वासि’ संग्रह प्रकाशित हुआ।
विनोबा और भूदान पर लिखी उनकी कतिपय प्रशस्तियाँ एवं उदबोधनों का एक संग्रह
‘विनोबा स्तवन’ सन् 1955 ई. में प्रकाशित हुआ। इस प्रकाशित सामग्री के
अतिरिक्त कुंकुम-क्वासि काल (1930-1949) की अनेक कविताएँ तथा ‘प्राणर्पण’
नाम से गणेशशंकर विद्यार्थी के बलिदान पर लिखा गया खण्ड काव्य अभी
अप्रकाशित ही है। 1949 ई. के बाद भी वे बराबर लिखते एवं पत्रों में
प्रकाशित कराते रहे हैं। “यह शृल युक्त यह अहिआलिंगित जीवन” जैसी श्रेष्ठ
आत्मपरक कविताएँ इसी अन्तिम अवस्था में लिखी गयीं हैं। पर ये सब भी
असंग्रहीत हैं। ‘नवीन’ राष्ट्रीय वीर काव्य के प्रणेताओं में मुख्य रहे
हैं, परन्तु उनके प्रकाशित संग्रहों में ये कविताएँ बहुत कम आ सकी हैं।
उनका गद्य लेखन भी असंकलित रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है।
रश्मिरेखा
अब तक प्रकाशित संग्रहों में प्रणय के कवि
‘नवीन’ का संवेदना और शिल्प की समग्रता की दृष्टि से श्रेष्ठतम एवं
प्रतिनिधि संग्रह ‘रश्मिरेखा’ है। इसमें ‘नवीन’ की मौजी एवं प्रेमिल
अभिव्यक्तियाँ प्रचुर मात्रा में हैं। “हम अनिकेतन हम अनिकेतन” अत्यन्त
निर्लिप्त आत्मस्वीकरण के भाव से वे कह उठते हैं,
अब तक इतनी यों ही काटी, अब क्या सीखें नव
परिपाटी? कौन बनाये आज घरौंदा, हाथों चुन-चुन कंकड़ माटी। ठाट फ़कीराना
हैं, अपना बाघम्बर सोहे अपने तन।
प्रणय एवं विरह की कितनी ही मादक
स्मृतियाँ, कितने ही मनोरम चित्र, कितने ही व्याकुल बेसुध पुकारें एवं
विवशता की कितनी ही चीत्कारें ‘रश्मिरेखा’ में संगृहीत हैं। यह प्रणयी
अनिकेतन अत्यन्त उद्दाम भाव से कहता है,
कृजे दो कृजे में बुझने वाली प्यास नहीं, बार-बार ‘ला!ला!’ कहने का समय नहीं, अभ्यास नहीं।
वस्तुत: हिन्दी में हालाबाद के आदि प्रवर्तक ‘नवीन’ ही हैं तथा भगवतीचरण वर्मा एवं ‘बच्चन’ ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है।
‘अपलक’ और ‘क्वासि’
‘अपलक’ और ‘क्वासि’ में संकलित कविताओं
में यद्यपि कविताओं का रचनाकाल वही है, जो ‘रश्मिरेखा’ की कविताओं का है।
पर इनमें जो कविताएँ संकलित हैं, उनमें प्रणय का वेग दर्शन एवं भक्ति भावना
से प्रतिहत होता लगता है। ‘आध्यात्मिकता’ का स्वर छायावाद के बहुत से
आलोचकों को भी भ्रम और विवाद में डालता रहा है, परन्तु शिल्प के जिस
लाक्षणिक वैचित्र्य के माध्यम से वह स्वर व्यक्त हुआ है, उसने उन कविताओं
को अनगढ़ नहीं होने दिया। परन्तु ‘नवीन’ का छायावादकाल में ही लिखा गया यह
अध्यात्म निवेदन बहुत कुछ स्थूल एवं इतिवृत्तात्मक पदावली में व्यक्त हुआ
है। छायावाद के शिल्प को वे मन से नहीं स्वीकार करते, पर रहस्य या अध्यात्म
की पदावली उन पर हावी प्रतीत होती है। परन्तु इन संकलनों में जहाँ उनका
मस्त एवं प्रणयी व्यक्तित्व सहज ही व्यक्त हुआ है, वहाँ काव्य नितान्त
रसनिर्भर हो सका है। ‘हम हैं मस्त फ़कीर’ (‘अपलक’) ‘तुम युग-युग की पहचानी
सी’ (‘क्वासि’), ‘मान छोड़ो’ (क्वासि), ‘सुन लो प्रिय मधुर गान’ (‘अपलक’),
ऐसी ही कविताएँ हैं। आध्यात्मिक अन्योक्ति की दृष्टि से ‘डोलेवालों’
(‘क्वासि’) उनकी श्रेष्ठतम कविता है।
भाषा
ब्रजभाषा ‘नवीन’ की मातृभाषा थी। उनके
प्रत्येक ग्रन्थ में ब्रजभाषा के भी कतिपय गीत या छन्द मिलते हैं। ब्रजभाषा
में ‘नवीन’ भाव-संवेदना की अभिव्यक्ति का प्रयास कर उन्होंने ब्रजभाषा के
आधुनिक साहित्य को समृद्ध किया है। उर्मिला का एक सम्पूर्ण सर्ग ही
ब्रजभाषा में है। परन्तु उनका ब्रजभाषा मोह एवं खड़ीबोली के परिनिष्ठित
प्रयोगों के मध्य आ प्रकट होता है। तब पाठक के लिए रसभंग की स्थिति पैदा हो
जाती है। ब्रजभाषा के क्रियापदों या शब्दों जानृँ हूँ, सोचृँ हूँ, नैक,
लागी, नचीं, उमड़ाय दिया आदि का निखरी तत्सम प्रधान खड़ीबोली में प्रयोग
अत्यन्त अकुशल ढंग से हुआ है। वस्त्र के लिए ‘बस्तर’[3] जैसे प्रयोग भी
बहुधा खटकते हैं। वस्तुत: आधुनिक काल के श्रेष्ठ कवियों में ‘नवीन’ से अधिक
भाषा के भ्रष्ट प्रयोग मिल ही नहीं सकते। लगता है यह भी उनकी भाषणकला का
ही प्रभाव था। सम्भवत: राजनीतिक व्यस्तता भी इस परिष्कारहीनता के मूल में
थी। संस्कृत के भारी भरकम अप्रचलित एवं दुरूह शब्दों को लाने की प्रवृत्ति
उनकी बराबर बढ़ती गयी है।
दुरूह अकाव्यात्मक शब्दावली
सन 1950-51 ई. के बाद की कविताओं में
अध्यात्म मोह के साथ-साथ दुरूह अकाव्यात्मक शब्दावली (शब्द और अर्थ के वक्र
कविव्यापारशाली सहभाव से विच्छिन्न) का उनका आग्रह उनके काव्य के
रसास्वादन में बराबर बाधक बनता गया है। लगता है शैली जीतती गयी है और वे
हारते गये हैं।
काव्य
हिन्दी काव्य धारा की द्विवेदी युग के
पश्चात् जो परिणति छायावाद से हुई है, ‘नवीन’ उसके अंतर्गत नहीं आते।
राजनीति के कठोर यथार्थ में उनके लिए शायद यह सम्भव नहीं था कि वैसी
भावुकता, तरलता, अतीन्द्रियता एवं कल्पना के पंख वे बाँधते, परन्तु इस बात
को याद रखना होगा कि उनका काव्य भी स्वच्छन्दतावादी (मनोरंजक) आन्दोलन का
ही प्रकाश है। ‘नवीन’ मैथिलीशरण गुप्त आदि का काव्य छायावाद के समानान्तर
संचरण करता हुआ आगे चलकर बच्चन, अंचल, नरेन्द्र शर्मा, दिनकर आदि के काव्य
में परिणत होता है। काव्यधारा के इस प्रवाह की ओर हिन्दी आलोचकों ने अभी तक
उपेक्षा का ही भाव रखा है। अस्तु, ‘नवीन’ के काव्य में एक ओर राष्ट्रीय
संग्राम की कठोर जीवनाभूतियाँ एवं जागरण के स्वर व्यंजित हुए हैं और दूसरे
सहज मानवीय स्तर (योद्धा से अलग) पर प्रेम-विरह की राग-संवेदनाएँ प्रकाश पा
सकी हैं। इसी क्रम में हालावादी काव्य की भी सृष्टि हुई है। इस प्रकार
छायावाद केसमानान्तर बहने वाली वीर-श्रृंगार धारा के वे अग्रणी कवि रहे
हैं। कवि के अतिरिक्त गद्यलेखक के रूप में भी ‘प्रताप’ जैसे पत्र के माध्यम
से उन्होंने ओज-गुणप्रधान एक शैली के निर्माण में अपना योग दिया है।
पुरस्कार
बालकृष्ण नवीन को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन् 1960 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
मृत्यु
बालकृष्ण शर्मा नवीन जी का निधन 29 अप्रैल, 1960 ई. में हुआ था।
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