गुरुवार, 8 मई 2014

शबनम खान ... दिल से






पैदाइश के फौरन बाद
मैं खुद ब खुद हिस्सा हो गई
कुल आबादी के
आधे कहलाने वाले
एक संघर्षशील 'समुदाय' का,
कानों से गुज़रती
हर एक महीन से महीन आवाज़
ये अहसास दिलाती रही
तुझे कुछ सब्र रखना होगा
कुछ और सहना होगा
कुछ और लड़ना होगा..
और दिल से आती
हर ख़ामोश सदा ने कहा,
नहीं! तुझे नहीं बदलना
बिगड़ा नज़रिया किसी बेअक़्ल का
तुझे नहीं बनानी नई दुनिया
अपनेसमुदायविशेष के लिए
और न ही
तुझे करना है साबित
किसी को कुछ भी..
इस ज़िंदगी में इक काम बस
तुझे करना होगा
अपने लिए
हां, सिर्फ अपने लिए
एक छोटा सा काम
तुझे सीखना होगा
पैदाइश के उस पाठ को भूलना
जो तुझे सबसे पहले पढ़ाया गया था
कि तू लड़की है
स्त्री है, औरत है
ज़िम्मेदारी है, कभी बोझ है कभी खुशी है
कभी गुड़िया कभी देवी भी है..
तुझे सीखना होगा खुदको
सिर्फ और सिर्फ
एक इंसान समझना।


अपने हिस्से का प्यार..






चांद तारों की महफिल लगने से
आसमान में सूरज लहराने तक
बादल के आखिरी टुकड़े से
बारिश की हर बूंद निचुड़ जाने तक
घर के बाहर लगे गुलाब के पौधे में
एक नया फूल उग के सूख जाने तक
 सड़क पर लगे गाड़ियों के मजमें से
उसके ख़ामोश सुनसान हो जाते तक
चूड़ियों की सजी खनखनाहट से
ड्राउर के लकड़ी के केस में रखे जाने तक
करीने से बनी ज़ुल्फों के
कंधों पर बिखर जाने तक
सुबह जैसी चमकती आखों में
रात का अंधेरा पसर जाने तक
मैंने कर लिया तेरा इंतज़ार
मैंने कर लिया, अपने हिस्से का प्यार

तेरी सासों में क़ैद, मेरे लम्हे


वो लम्हे
तेरी सांसों में क़ैद
जो मेरे थे
सिर्फ मेरे,
जिनमें नहीं थी
मसरूफियत ज़माने की
रोज़ी-रोटी कमाने की
और
जिसमें नहीं थी
कोई रस्म दिखावे की,
कहां गुम गए
सभी, एकदम से
एकसाथ..
क्या सच है
बुज़ुर्गो की वो बात
जो कहते हैं
कुछ मिल जाने के बाद
उसकी चाह
होने लगती है ख़त्म,
या फिर
ये एक वहम ही है
जैसा
हमेशा कहते हो तुम
लेकिन फिर भी,
मैं अक्सर
दिन के किसी उदास पल में
उन लम्हों को
याद करती हूं
जो मेरे थे
सिर्फ मेरे
तुम्हारी सांसों में क़ैद
मेरे लम्हें..!

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