प्रस्तुति--दिनेश कुमार सिन्हा
डॉ॰ फादर कामिल बुल्के (Dr. Father Kamil Bulcke) बेल्जियम से भारत आकर मृत्युपर्यंत हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन १९७४ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
शिक्षा: यूरोप के यूवेन विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग पास की. १९३० में सन्यासी बनने का निर्णय लिया।
भारत: नवंबर १९३५ में भारत, बंबई पहुंचे। वहां से रांची आ गए। गुमला जिले के इग्नासियुस स्कूल में गणित के अध्यापक बने। वहीं पर हिंदी, ब्रज व अवधी सीखी. १९३८ में, सीतागढ/हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखा। १९४० में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की। १९४१ में पुरोहिताभिषेक हुआ, फादर बन गए। १९४५ कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी व संस्कृत में बीए पास किया। १९४७ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए किया।[1]
रामकथा: १९४९ में डी. फिल उपाधि के लिये इलाहाबाद में ही उनके शोध रामकथा : उत्पत्ति और विकास को स्वीकृति मिली. १९५० में पुनः रांची आ गए। संत जेवियर्स महाविद्यालय में हिंदी व संस्कृत का विभागाध्यक्ष बनाया गया।
सन् 1950 ई. में ही बुल्के ने भारत की नागरिकता ग्रहण की. इसी वर्ष वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की कार्यकारिणी के सदस्य नियुक्त हुये. सन् 1972 ई. से 1977 ई. तक भारत सरकार की केन्द्रीय हिन्दी समिति के सदस्य बने रहे. वर्ष 1973 ई. में उन्हें बेल्जियम की रॉयल अकादमी का सदस्य बनाया गया।
देहान्त : १७ अगस्त १९८२ में गैंगरीन के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान मृत्यु
वक्तब्य: - भारतीय संदर्भ में बुल्के कहते थे ‘संस्कृत महारानी, हिंदी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी है।’
१९५५ में हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश,
१९६८ में अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश,
१९७२ में मुक्तिदाता,
१९७७ में नया विधान,
१९७८ में नीलपक्षी, बाइबिल का हिंदी अनुवाद.
डा होयकास ने उनसे पूछा, मौलाना आप तो मुसलमान हैं, आप रामायण क्यों पढते हैं। उस व्यक्ति ने केवल एक वाक्य में उत्तर दिया- ’और भी अच्छा मनुष्य बनने के लिये!‘ रामकथा के इस विस्तार को फादर बुल्के वाल्मीकि की दिग्विजय कहते थे, भारतीय संस्कृति की दिग्विजय! इस पूरे प्रसंग पर विस्तार से चर्चा करते हुए डा दिनेश्वर प्रसाद भी नहीं अघाते. २० वर्षों तक वह फादर बुल्के के संपर्क में रहे हैं। उनकी कृतियों, ग्रंथों की भूमिका की रचना में डा प्रसाद की गहरी सहभागिता रही है।[2]
दरअसल एक विदेशी होने के बावजूद बुल्के ने हिन्दी की सम्मान वृद्धि, इसके विकास, प्रचार-प्रसार और शोध के लिये गहन कार्य कर हिन्दीके उत्थान का जो मार्ग प्रशस्त किया और हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठादिलाने की जो कोशिशें कीं, वह हम भारतीयों के लिये प्रेरणा के साथ-साथ शर्म का विषय भी है। शर्म का विषय इसलिये क्योंकि एक विदेशी होने के बावजूद हिन्दी के लिये उन्होंने जो किया, हम एक भारतीय और एक हिन्दी भाषी होने के बावजूद उसका कुछ अंश भी नहीं कर पाये. इस शर्म को मिटाने के लिये हमारी ओर से और अधिक दृढ-प्रतिज्ञ और एकनिष्ठ होकर हिन्दी हित में कार्य किये जाने की जरूरत थी जो कि वर्तमान माहौल में फिलहाल संभव नहीं हो पा रहा है। हिन्दी जगत के लिये यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इससे उबरकर हिन्दी के उत्थान के लिये हमें फादर बुल्के के पद-चिन्हों पर चलने की जरूरत होगी.
अनुक्रम
जीवनी
जन्म: १ सितंबर १९०९, बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले गांव में.शिक्षा: यूरोप के यूवेन विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग पास की. १९३० में सन्यासी बनने का निर्णय लिया।
भारत: नवंबर १९३५ में भारत, बंबई पहुंचे। वहां से रांची आ गए। गुमला जिले के इग्नासियुस स्कूल में गणित के अध्यापक बने। वहीं पर हिंदी, ब्रज व अवधी सीखी. १९३८ में, सीतागढ/हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखा। १९४० में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की। १९४१ में पुरोहिताभिषेक हुआ, फादर बन गए। १९४५ कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी व संस्कृत में बीए पास किया। १९४७ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए किया।[1]
रामकथा: १९४९ में डी. फिल उपाधि के लिये इलाहाबाद में ही उनके शोध रामकथा : उत्पत्ति और विकास को स्वीकृति मिली. १९५० में पुनः रांची आ गए। संत जेवियर्स महाविद्यालय में हिंदी व संस्कृत का विभागाध्यक्ष बनाया गया।
सन् 1950 ई. में ही बुल्के ने भारत की नागरिकता ग्रहण की. इसी वर्ष वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की कार्यकारिणी के सदस्य नियुक्त हुये. सन् 1972 ई. से 1977 ई. तक भारत सरकार की केन्द्रीय हिन्दी समिति के सदस्य बने रहे. वर्ष 1973 ई. में उन्हें बेल्जियम की रॉयल अकादमी का सदस्य बनाया गया।
देहान्त : १७ अगस्त १९८२ में गैंगरीन के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान मृत्यु
वक्तब्य: - भारतीय संदर्भ में बुल्के कहते थे ‘संस्कृत महारानी, हिंदी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी है।’
कृतियाँ
१९४९ में रामकथा : उत्पत्ति और विकास,१९५५ में हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश,
१९६८ में अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश,
१९७२ में मुक्तिदाता,
१९७७ में नया विधान,
१९७८ में नीलपक्षी, बाइबिल का हिंदी अनुवाद.
रामकथा : उत्पत्ति और विकास
पेशे से इंजीनियर रहे बुल्के का वह ब्योरेवार तार्किक वैज्ञानिकता पर आधारित शोधसंकलन साबित करता है कि राम वाल्मीकि के कल्पित पात्र नहीं, इतिहास पुरूष थे। तिथियों में थोडी बहुत चूक हो सकती है। बुल्के के इस शोधग्रंथ के उर्द्धरणों ने पहली बार साबित किया कि रामकथा केवल भारत में नहीं, अंतर्राष्ट्रीय कथा है। वियतनाम से इंडोनेशिया तक यह कथा फैली हुई है। इसी प्रसंग में फादर बुल्के अपने एक मित्र हॉलैन्ड के डाक्टर होयकास का हवाला देते थे। डा होयकास संस्कृत और इंडोनेशियाई भाषाओं के विद्वान थे। एक दिन वह केंद्रीय इंडोनेशिया में शाम के वक्त टहल रहे थे। उन्होंने देखा एक मौलाना जिनके बगल में कुरान है, इंडोनेशियाई रामायण पढ रहे थे।डा होयकास ने उनसे पूछा, मौलाना आप तो मुसलमान हैं, आप रामायण क्यों पढते हैं। उस व्यक्ति ने केवल एक वाक्य में उत्तर दिया- ’और भी अच्छा मनुष्य बनने के लिये!‘ रामकथा के इस विस्तार को फादर बुल्के वाल्मीकि की दिग्विजय कहते थे, भारतीय संस्कृति की दिग्विजय! इस पूरे प्रसंग पर विस्तार से चर्चा करते हुए डा दिनेश्वर प्रसाद भी नहीं अघाते. २० वर्षों तक वह फादर बुल्के के संपर्क में रहे हैं। उनकी कृतियों, ग्रंथों की भूमिका की रचना में डा प्रसाद की गहरी सहभागिता रही है।[2]
फादर कामिल बुल्के एवं हिन्दी
सत्रह अगस्त उन्नीस सौ बयासी को हिन्दी के अंतर्राष्ट्रीय आधार स्तंभ फादर कामिल बुल्के के देहांत के पश्चात प्रख्यात विद्वान (अब स्वर्गीय) श्री शंकर दयाल सिंह ने कहा था, जब कभी अब हिन्दी के बारे में कोई संयत विचार होगा, चाहे वह विश्व हिन्दी सम्मेलन के मंच पर हो या केन्द्रीय समिति की बैठक में अथवा किसी विश्वविद्यालय में या कि किसी सभा-समिति में, रह-रहकर सभी को बस एक चेहरा याद आयेगा -फादर कामिल बुल्के का . बुल्के के लिये उद्गार में कहे गये तब के ये शब्द आज समूचे हिन्दी जगत पर करारा वयंग्य करते हुये से प्रतीत होते हैं। हिन्दी को इसका उचित सम्मान देने, दिलाने की हमारी प्रतिबद्धता अंग्रेजी रूपी पश्चिमी हवा के झोंकें में विलीन हो चुकी है। ऐसे में बुल्के की प्रासंगिकता को गंभीरता से महसूस किये जाने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है।दरअसल एक विदेशी होने के बावजूद बुल्के ने हिन्दी की सम्मान वृद्धि, इसके विकास, प्रचार-प्रसार और शोध के लिये गहन कार्य कर हिन्दीके उत्थान का जो मार्ग प्रशस्त किया और हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठादिलाने की जो कोशिशें कीं, वह हम भारतीयों के लिये प्रेरणा के साथ-साथ शर्म का विषय भी है। शर्म का विषय इसलिये क्योंकि एक विदेशी होने के बावजूद हिन्दी के लिये उन्होंने जो किया, हम एक भारतीय और एक हिन्दी भाषी होने के बावजूद उसका कुछ अंश भी नहीं कर पाये. इस शर्म को मिटाने के लिये हमारी ओर से और अधिक दृढ-प्रतिज्ञ और एकनिष्ठ होकर हिन्दी हित में कार्य किये जाने की जरूरत थी जो कि वर्तमान माहौल में फिलहाल संभव नहीं हो पा रहा है। हिन्दी जगत के लिये यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इससे उबरकर हिन्दी के उत्थान के लिये हमें फादर बुल्के के पद-चिन्हों पर चलने की जरूरत होगी.
बाहरी कड़ियाँ
- 'हिन्दी चेतना' पत्रिका का फादर कामिल बुल्के विशेषांक
- रामकथा - उत्पत्ति और विकास (भारत का डिजिटल पुस्तकालय)
संदर्भ
- "अनोखे साहित्यकार थे डॉ॰ कामिल बुल्के". कामिलबुल्के.रेडिफ़ब्लॉग.कॉम. अभिगमन तिथि: 2007.
- "बाल्मीकि की दिग्विजय…!’ - बुल्के". न्यूज़विंग्ज़.कॉम. अभिगमन तिथि: 2007.
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