प्रस्तुति-- नीरज सिन्हा,पंकज सिन्हा, रजनीश सिन्हा
- संगीत क्या है?
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संगीत की परिभाषा
संगीत वह ललित कला है, जिसमें स्वर और लय के द्वारा हम अपने भावों को प्रकट करते हैं। ललित कला की श्रेणी में 5 कलाएँ आती हैं–संगीत, कविता, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला में मानव भावनाओं को व्यक्त तो करते हैं, परन्तु प्रत्येक में उसका माध्यम बदला करता है। अगर रंग, पैन्सिल, काग़ज़ आदि के द्वारा भावों को व्यक्त करते हैं तो चित्रकला की रचना होती है। इसी प्रकार यदि स्वर-लय के द्वारा अपने भावों को प्रकट करते हैं तो संगीत की रचना होती है।- किवदन्ती
उत्पत्ति में इस प्रकार की मुख्य 7 किवंदन्तियाँ प्रसिद्ध हैं। प्राचीन काल में इन किवंदन्तियों का महत्व शायद रहा भी हो, किन्तु आज के वैज्ञानिक युग में इनका विशेष महत्व नहीं है।
परिचय
'संगीत' शब्द 'गीत' शब्द में 'सम्' उपसर्ग लगाकर बना है। 'सम्' यानी 'सहित' और 'गीत' यानी 'गान'। 'गान के सहित' अर्थात् अंगभूत क्रियाओं (नृत्य) व वादन के साथ किया हुआ कार्य 'संगीत' कहलाता है।भारतीय संगीत
प्राचीन काल में भारतीय संगीत के दो रूप प्रचलित हुए-1. मार्गी तथा 2. देशी। कालांतर में मार्गी संगीत लुप्त होता गया। साथ ही देशी संगीत दो रूपों में विकसित हुआ- (i) शास्त्रीय संगीत तथा (ii) लोक संगीत।- शास्त्रीय संगीत शास्त्रों पर आधारित तथा विद्वानों व कलाकरों के अध्ययन व साधना का प्रतिफल था। यह अत्यंत नियमबद्ध तथा श्रेष्ठ संगीत था।
- लोक संगीत काल और स्थान के अनुरूप प्रकृति के स्वच्छन्द वातावरण में स्वाभाविक रूप से पलता हुआ विकसित होता रहा, अतः यह अधिक विविधतापूर्ण तथा हल्का-फुल्का व चित्ताकर्षक है।
संगीत की उत्पत्ति
भारतीय संगीत की उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है। वादों का मूल मंत्र है - 'ॐ' (ओऽम्) । (ओऽम्) शब्द में तीन अक्षर अ, उ तथा म् सम्मिलित हैं, जो क्रमशः ब्रह्मा अर्थात् सृष्टिकर्ता, विष्णु अर्थात् जगत् पालक और महेश अर्थात् संहारक की शक्तियों के द्योतक हैं। इन तीनों अक्षरों को ॠग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद से लिया गया है। संगीत के सात स्वर षड़ज (सा), ॠषभ (र), गांधार (गा) आदि वास्तव में ऊँ (ओऽम्) या ओंकार के ही अर्न्तविभाग हैं। साथ ही स्वर तथा शब्द की उत्पत्ति भी ऊँ के गर्भ से ही हुई है। मुख से उच्चारित शब्द ही संगीत में नाद का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार 'ऊँ' को ही संगीत का जगत माना जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि जो साधक 'ऊँ' की साधना करने में समर्थ होता है, वही संगीत को यथार्थ रूप में ग्रहण कर सकता है। यदि दार्शनिक दृष्टि से इसका गूढ़ार्थ निकाला जाय, तो इसका तात्पर्य यही है कि ऊँ अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का एक अंश हमारी आत्मा में निहित है और संगीत उसी आत्मा की आवाज़ है, अंतः संगीत की उत्पत्ति हृदयगत भावों में ही मानी जाती है।वाद्य | वादक | चित्र |
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सितार | पंडित रविशंकर, निखिल बैनर्जी, विलायत ख़ाँ, बंदे हसन, शाहिद परवेज, उमाशंकर मिश्र, बुद्धादित्य मुखर्जी आदि। | |
तबला | अल्ला रक्खा ख़ाँ, गुदई महाराज, (पं. सामता प्रसाद) ज़ाकिर हुसैन, लतीफ़ ख़ाँ, किशन महाराज, फ़य्यार ख़ाँ, सुखविंदर सिंह आदि। | |
बांसुरी | पन्नालाल घोष, हरि प्रसाद चौरसिया, वी. कुंजमणि, एन. नीला, राजेन्द्र प्रसन्ना, राजेन्द्र कुलकर्णी आदि। | |
सरोद | अमज़द अली ख़ाँ, अली अकबर ख़ाँ, अलाउद्दीन ख़ाँ, विश्वजीत राय चौधरी, ज़रीन दारूवाला, बुद्धदेव दास गुप्ता, मुकेश शर्मा आदि। | |
वायलिन | डॉ. एन. राजन, विष्णु गोविंद जोग, एल. सुब्रह्मण्यम्, संगीता राजन, कुनक्कड़ी वैद्यनाथन, टी. एन. कृष्णन् आदि। | |
वीणा | एस. बालचंद्रन, कल्याण कृष्ण भागवतार, बदरूद्दीन डागर, वी. दोरेस्वामी अयंगर आदि। | |
शहनाई | बिस्मिल्ला ख़ाँ, दयाशंकर जगन्नाथ, अली अहमद हुसैन ख़ाँ आदि। | |
संतूर | शिवकुमार शर्मा, भजन सोपारी आदि। | |
पखावज | गोपाल दास, उस्ताद रहमान ख़ाँ, छत्रपति सिंह, ठाकुर लक्ष्मण सिंह आदि। | |
रुद्रवीणा | असद अली ख़ाँ, उस्ताद सादिक अली ख़ाँ आदि। | |
मृदंग | पालधार रघु, ठाकुर भीकम सिंह, डॉ. जगदीश सिंह आदि। |
संगीत के रूप
प्रत्येक कला के मुख्य दो रूप होते हैं-क्रिया और शास्त्र। क्रिया के अंतर्गत उसकी साधना विधि और शास्त्र के अंतर्गत उसका इतिहास, परिभाषिक शब्दों की व्याख्या आदि आती है। संगीत के भी दो रूप हैं-क्रियात्मक रूप
संगीत का क्रियात्मक रूप वह है, जिसे हम कानों द्वारा सुनते हैं अथवा नेत्रों द्वारा देखते हैं। दूसरे शब्दों में क्रियात्मक संगीत में गाना, बजाना और नाचना आता है। गायन और वादन को हम सुनते हैं और नृत्य को देखते हैं। क्रियात्मक रूप में राग, गीत के प्रकार, आलाप-तान, सरगम, झाला, रेला, टुकड़ा, आमद, गत, मींड आदि की साधना आती है। संगीत का यह पक्ष बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।शास्त्र पक्ष
शास्त्र पक्ष में संगीत सम्बन्धी विषयों का अध्ययन करते हैं। इसके दो प्रकार हैं–क्रियात्मक शास्त्र और शुद्ध शास्त्र। क्रियात्मक शास्त्र में क्रियात्मक संगीत का अध्ययन आता है, जैसे रागों का परिचय, गीत की स्वर-लिपि लिखना, तान-आलाप, मिलते-जुलते रागों की तुलना, टुकड़ा, रेला आदि। इस शास्त्र से क्रियात्मक संगीत में बड़ी सहायता मिलती है। शुद्ध शास्त्र में संगीत, नाद, जाति, आरोह-अवरोह, स्वर, लय, मात्रा, ताल, ख़ाली आदि की परिभाषा, संगीत का इतिहास आदि का अध्ययन आता है।संगीत पद्धतियाँ
भारतवर्ष में मुख्य रूप से दो प्रकार का संगीत प्रचार में है, जिन्हें संगीत की पद्धति कहते हैं। उनके नाम हैं–उत्तरी अथवा हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति और दक्षिणी अथवा कर्नाटक संगीत पद्धति।उत्तरी संगीत पद्धति
उत्तरी संगीत पद्धति को हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति भी कहते हैं। यह पद्धति उत्तरी हिन्दुस्तान में–बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, जम्मू-कश्मीर तथा महाराष्ट्र प्रान्तों में प्रचलित हैं।दक्षिणी संगीत पद्धति
दक्षिणी संगीत पद्धति को कर्नाटक संगीत पद्धति भी कहते हैं। यह तमिलनाडु, मैसूर, आंध्र प्रदेश आदि दक्षिण के प्रदेशों में प्रचलित हैं। ये दोनों पद्धतियाँ अलग होते हुए भी इनमें बहुत कुछ समानताऐं है।संगीत के प्रकार
भारतीय संगीत के मुख्य दो प्रकार हैं–शास्त्रीय संगीत और भाव संगीत। शास्त्रीय संगीत उसे कहते हैं, जिसमें नियमित शास्त्र होता है और जिसमें कुछ विशिष्ट (ख़ास) नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। उदाहरणार्थ, शास्त्रीय संगीत में राग के नियमों का पालन करना पड़ता है, न करने से राग हानि होती है। इसके अतिरिक्त लय-ताल की सीमा में रहना पड़ता है, गीत का कौन सा प्रकार हम गा रहे हैं, उसका निर्वाह भी उसी प्रकार से होना चाहिए, इत्यादि-इत्यादि। भाव संगीत में शास्त्रीय संगीत के समान न कोई बन्धन होता है और न उसका नियमित शास्त्र ही होता है। भाव संगीत का मुख्य और एकमात्र उद्देश्य कानों को अच्छा लगना है, अत: उसमें कोई बन्धन नहीं रहता-चाहे कोई भी स्वर प्रयोग किया जाए, चाहे जिस ताल में गाया जाए व आलाप, तान, सरगम, आदि कुछ भी प्रयोग किया जाए अथवा न प्रयोग किया जाए। भाव संगीत का मुख्य उद्देश्य रंजकता है। रंजकता के लिए ही कहीं-कहीं शास्त्रीय संगीत का सहारा भी लिया जाता है। भाव संगीत को सुगम संगीत कहते हैं। भाव संगीत को मुख्य तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-- चित्रपट संगीत
- लोक संगीत
- भजन-गीत
चित्रपट संगीत
व्यापक अर्थ में जिस किसी गीत का प्रयोग चित्रपट (सिनेमा) में हुआ हो, उसे चित्रपट संगीत कहते हैं। बैजू बावरा का आज गावत मन मेरो तथा झनक-झनक पायल बाजे का 'गिरधर गोपाल' दोनों की शैली शास्त्रीय होते हुए भी ये चित्रपट गीत हैं, क्योंकि इनका प्रयोग चित्रपट में हो चुका है।साधारण फ़िल्मी गीतों की कुछ निजी विशेषताएँ होती हैं, जो कि इस प्रकार हैं–
- स:- भावानुकूल गीत और आकर्षक रचना
- रे:- विभिन्न वाद्यों का प्रयोग
- ग:- शृंगार रस के ह्रदयस्पर्शी शब्द
- म:- सुरीले और आकर्षक कंठों के द्वारा गाया जाना
- प:- ध्वनि बद्ध (रिकार्ड) करने के पूर्व ठीक प्रकार से जाँचना
लोक गीत
यह ग्रामीणों का गीत है। इन गीतों में सैकड़ों वर्षों से चले आये रीति-रिवाज़ों की झाँकी मिलती है। इसके अंतर्गत शादी के गीत, विभिन्न संस्कारों पर गाये जाने वाले गीत, चैती, कजरी, आल्हा, बिरहा, बाऊल, माहिया, भटियाली, मांझी आदि लोक गीत आते हैं। इनका स्वरूप सरल, भाव छुते गुये, कुछ स्वरों के अन्दर सीमित तथा लय प्रधान होते हैं। इन गीतों को सुनते ही साधारण व्यक्ति ताली देने लगते हैं। इसलिये लोक गीतों के साथ ढोलक बजाये जाती है।भजन-गीत आदि
मुख्य लेख : भजन
इसमें शास्त्रीय संगीत की तरह बन्धन नहीं रहता। जिन गीतों में ईश्वर का
गुणगान या उनसे प्रार्थना की जाती है, उन्हें भजन और जिन कविताओं को
स्वर-ताल बद्ध करके गाते हैं, उन्हें गीत कहते हैं। राग-ताल नियमों से
स्वतंत्र, आकर्षक रचनायें, भावानुकूल शब्दों द्वारा गीत रचना आदि इनकी
विशेषताएँ होती हैं। अधिकतर ये दादरा और कहरवा ताल में होते हैं। इनमें और
चित्रपट गीतों में मुख्य अन्तर यह है कि इनकी तुलना में चित्रपट गीतों की
रचना बहुत चलती-फिरती और शब्द सस्ते ढंग के होते हैं।
संगीत के विविध अंग
संगीत से सम्बंधित कुछ मूलभूत तथ्यों को जानकर ही संगीत की बारीकियों को समझा जा सकता है। ध्वनि, स्वर, लय, ताल आदि इसके अन्तर्गत आते हैं।स्वर
मुख्य लेख : स्वर (संगीत)
ध्वनियों में हम प्राय: दो भेद रखते हैं, जिनमें से एक को 'स्वर' और
दूसरे को 'कोलाहल' या 'रव' कहते हैं। कुछ लोग बातचीत की ध्वनि को भी एक भेद
मानते हैं। साधारणत: जब कोई ध्वनि नियमित और आवर्त-कम्पनों से मिलकर
उत्पन्न होती है, तो उसे 'स्वर' कहते हैं। इसके विपरीत जब कम्पन्न अनियमित
तथा पेचीदे या मिश्रित हों तो उस ध्वनि को 'कोलाहल' कहते हैं। बोलचाल की
भाषा की ध्वनि को स्वर और कोलाहल के बीच की श्रेणी में रखा जाता है।
संक्षेप में यह समझिए की नियमित आन्दोलन संख्यावली ध्वनि 'स्वर' कहलाती है।
यही ध्वनि संगीत के काम में आती है, जो कानों का मधुर लगती है तथा चित्त
को प्रसन्न् करती है। इस ध्वनि को संगीत की भाषा में 'नाद' कहते हैं। इस
आधार पर संगीतोपयोगी नाद 'स्वर' कहलाता है।
भारतीय संगीतज्ञों ने एक स्वर (ध्वनि) से उससे दुगुनी ध्वनि तक के क्षेत्र
में ऐसे संगीतोपयोगी नाद बाईस माने हैं, जिन्हें 'श्रुतियाँ' कहा गया है।
ध्वनि की प्रारम्भिक अवस्था 'श्रुति' और उसका अनुरणात्मक (गुंजित) 'स्वर'
कहलाता है।
शुद्ध स्वर
मुख्य लेख : शुद्ध स्वर
जब सा, रे, ग, म, प, ध, नि स्वरों में श्रुतियों का क्रम 4, 3, 4, 4, 3, 2, रहता है तो उन स्वरों को शुद्ध स्वर कहते हैं।
शुद्ध तीव्र स्वर
मुख्य लेख : शुद्ध तीव्र स्वर
सा, रे, ग, म, प, ध, नि शुद्ध स्वर कहे जाते हैं। इनमें सा और प तो अचल स्वर
माने गए हैं, क्योंकि ये अपनी जगह पर क़ायम रहते हैं। बाकी पाँच स्वरों के
दो-दो रूप कर दिए गए हैं, क्योंकि ये अपनी जगह पर से हटते हैं, इसलिए
इन्हें कोमल व तीव्र नामों से पुकारते हैं। इन्हें विकृत स्वर भी कहा जाता है।
सप्तक
मुख्य लेख : सप्तक
क्रमानुसार सात शुद्ध स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं। सातों स्वरों के नाम क्रमश: सा, रे, ग, म, प, ध और नि हैं। इसमें प्रत्येक स्वर
की आन्दोलन संख्या अपने पिछले स्वर से अधिक होती है। दूसरे शब्दों में सा
से जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं, स्वरों की आन्दोलन संख्या बढ़ती जाती है।
रे की आन्दोलन संख्या सा से, ग, की, रे, से, व, म, की, ग, से अधिक
होती है। इसी प्रकार प, ध और नी की आन्दोलन संख्या अपने पिछले स्वरों से
ज़्यादा होती है।
ठाट
मुख्य लेख : ठाट
सप्तक के 12 स्वरों में से 7 क्रमानुसार मुख्य स्वरों के उस समुदाय को ठाट कहते हैं, जिससे राग उत्पन्न होते है। स्वरसप्तक, मेल, थाट, अथवा ठाट एक ही अर्थवाचक हैं। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में मेल शब्द ही प्रयोग किया गया है। अभिनव राग मंजरी
में कहा गया है– मेल स्वर समूह: स्याद्राग व्यंजन शक्तिमान, अर्थात्
स्वरों के उस समूह को मेल या ठाट कहते हैं, जिसमें राग उत्पन्न करने की
शक्ति हो।
राग
मुख्य लेख : राग
कम से कम पाँच और अधिक से अधिक सात स्वरों की वह सुन्दर रचना जो कानों को अच्छी लगे राग कहलाती है। आजकल राग-गायन ही प्रचार में है। अभिनव राग-मंजरी में राग की परिभाषा इस प्रकार दी गई है–
योऽयं ध्वनि-विशेषस्तु स्वर-वर्ण-विभूषित:।
रंजको जनचित्तानां स राग कथितो बुधै:।।
रंजको जनचित्तानां स राग कथितो बुधै:।।
- अर्थात्
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संगीत रत्नाकर 1|24-25
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