जगदीशचंद्र माथुर को याद करना, सूचना संचार माध्यमों में हुई क्राँति को याद करना है.
उनकी स्मृति को लेकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली ने एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने उन्हें क्यों याद किया. इसकी वजह थी कि जगदीशचंद्र माथुर हिंदी के बहुत महत्वपूर्ण नाटककार थे.
यों
तो जयशंकर प्रसाद के बाद नाटक लेखन के क्षेत्र में लक्ष्मी नारायण मिश्र
एक बड़ा नाम हैं पर इतिहास के परिप्रेक्ष्य में प्रसाद की परंपरा से अलग
हटकर प्रयोगशील नाटक लिखने की पहल जगदीशचंद्र माथुर ने अपने अप्रतिम नाटक
‘कोणार्क’ से की.
वे एक सिद्धहस्त एकांकीकार भी थे.
उनकी
प्रयोगशीलता का सफल प्रमाण यही है कि उनके सम्पूर्ण नाटक ‘कोणार्क’ में एक
भी नारी पात्र नहीं है लेकिन फिर भी वह बेहद सफलतापूर्वक मंचित होकर
दर्शकों का चहेता मंच नाटक बना रहा है. और आज भी वह कई संदर्भों में चर्चा
का केंद्र बना रहता है.
यह मामूली बात नहीं है क्योंकि ‘कोणार्क’ नाटक की रचना आज से लगभग छह दशक पहले हुई थी.
एआईआर से आकाशवाणी तक
जगदीशचंद्र माथुर को याद करता हूँ तो उनके व्यक्तित्व के कई पहलू उभरते हैं और तरह-तरह की स्मृतियाँ घेरा डालने लगती हैं.
वे एक साथ ही इंडियन सिविल सर्विस के वरिष्ठ प्रशासक, साहित्यकार और संस्कृति पुरुष थे.
ज़माना नेहरू जी का था. गुलामी से मुक्त होकर देश ने आज़ादी की साँस ली थी. परिवर्तन और निर्माण का दौर था.
अंग्रेजों
की दासता की दो सदियों के बाद आज़ाद देश के भविष्य की सामाजिक-आर्थिक
व्यवस्था को लोकतांत्रिक संस्थानों को सांस्कृतिक सवालों को तब जल्द से
जल्द तय किया जाना, सुलझाना और उनकी दिशाएँ सुनिश्चित करने का दायित्व
सामने था.
परिवर्तन और राष्ट्र निर्माण के ऐसे ऐतिहासिक समय में जगदीशचंद्र माथुर, आईसीएस, ऑल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर जनरल थे.
उन्होंने
ही 'एआईआर' का नामकरण आकाशवाणी किया था. टेलीविज़न उन्हीं के जमाने में
वर्ष 1959 में शुरू हुआ था. हिंदी और भारतीय भाषाओं के तमाम बड़े लेखकों को
वे ही रेडियो में लेकर आए थे.
सुमित्रानंदन पंत
से लेकर दिनकर और बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे दिग्गज साहित्यकारों के साथ
उन्होंने हिंदी के माध्यम से सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सूचना संचार तंत्र
विकसित और स्थापित किया था.
दूरदर्शन की ताक़त
मुझे वह दिन नहीं भूलता जब माथुर साहब इलाहाबाद आए थे और मुझे उनसे मिलने के लिए बुलाया गया था.
उस
समय इलाहाबाद रेडियो स्टेशन के डायरेक्टर गिरिजाकुमार माथुर थे. निश्चय ही
उन्होंने उन्हें मेरा नाम सुझाया होगा. 1959 की ही बात है.
भारत
में टेलीविज़न शुरू होने जा रहा था. माथुर साहब ने ही टीवी का नाम
दूरदर्शन रखा था. मैं नए लेखक के रूप में थोड़ा बहुत पहचाना तो जाता था पर
बेकार था.
तब गिरिजाकुमार जी के कारण ही माथुर साहब ने मुझे दिल्ली दूरदर्शन में आकर काम करने का मौक़ा दिया था. यह मेरी पहली नौकरी थी.
मैंने
माथुर साहब से कहा था कि मेरे पास तो दिल्ली जाने के लिए पैसे भी नहीं हैं
तो उन्होंने एक रास्ता निकाला था. वे बोले, "हम तुम्हारा एपाइंटमेंट यहीं
इलाहाबाद रेडियो में किए देते हैं और एक महीने बाद तुम्हारा ट्राँसफर
दिल्ली कर देंगे. तुम्हें दिल्ली जाने के लिए तब टीए-डीए मिल जाएगा."
और इस तरह सूचना संचार माध्यमों से मेरा रिश्ता जुड़ा जो अब तक जारी है.
जगदीशचंद्र
माथुर साहब से खुली मुलाक़ातें नहीं हो पाती थीं. पर साहित्यिक गोष्ठियों
में ख़ासतौर से इलाहाबाद में वे शामिल होते रहते थे.
वैसे उन्हें कलावादी कुलीन साहित्य का समर्थक माना जाता था. पर मेरी जानकारियाँ इस धारणा से कुछ अलग हैं.
दूरदर्शन
का उदघाटन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया था. सूचना प्रसारण
मंत्री थे डॉ केसकर. उदघाटन के बाद स्टाफ मीटिंग में माथुर साहब ने कहा था,
‘‘सरकार किसी भी भाषा से चलाई जाए पर लोकतंत्र हिंदी और भारतीय भाषाओं के
बल पर ही चलेगा.’’
"हिंदी ही सेतु का काम करेगी.
सूचना और संचार तंत्र के सहारे ही हम अपनी निरक्षर जनता तक पहुँच सकते हैं.
भारत के बहुमुखी विकास की क्राँति यहीं से शुरू होगी."
उन्होंने
कहा था कि लोकसांस्कृति के बिना शास्त्रीय कलाओं की शुचिता और सौंदर्य
बाधित होगा. हमें एक क्षेत्र की लोक संस्कृति का अंतर्संबंध दूसरे क्षेत्र
की लोक संस्कृति से स्थापित करना पड़ेगा.
उन्होंने
उस समय कहा था, "दूरदर्शन जैसे माध्यम की शक्ति को पहचानिए और जैसा कि
पश्चिम के मीडिया पंडित कहते हैं, ‘मीडिया इज़ द मौसेज’ इस भ्रम को तोड़िए
और साबित कीजिए कि ‘मैन बिहाइंड मीडिया इज़ द मैसेज’."
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सोमवार, 5 जनवरी 2015
सूचना संचार क्राँति के जनक जगदीश चंद्र माथुर
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