मंगलवार, 3 नवंबर 2015

आजादी से पहले की उर्दू कहानी

श्रीमती ताहिरा बानो




ताहिरा बानो



उर्दू भाषा का इतिहास एक कम उम्र इतिहास है। विशेषकर कहानी की उम्र तो और भी कम है। उर्दू गद्य साहित्य का सही अर्थों में प्रारम्भ फोर्ट विलियम कॉलेज (स्थापना 1801 ई.) में किए फारसी और संस्कृत के अनुवादों से होता है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक आते-आते कहानी ने करवट बदली। अलौकिक, आदर्शवादी और रोमांचकारी मिथकीय चरित्रें के वर्णन से आगे निकलकर उसने यथार्थ का सहारा लिया। लेकिन कहानी में राजनीति और सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति पहली बार प्रमचन्द की रचनाओं में दिखाई पडती है।
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उपन्यास के अतिरिक्त छोटी कहानियाँ भी लिखी जाने लगी थीं। सर अब्दुल कादिर ने लाहौर से ‘मखजन’ नामक एक पत्र्किा निकाली थी जिसमें कहानियाँ छपती थीं और कभी-कभी विदेशी कहानियों के अनुवाद भी छपते थे। कानपुर से ‘जमाना’ निकलता था, उसमें भी कहानियाँ छपती थीं। कहानी की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बीसवीं सदी के प्रारम्भ में सभी पत्र्-पत्र्किाओं में कहानियाँ प्रकाशित होने लगी थीं। उर्दू के पहले कहानीकार के सम्बन्ध में अलग-अलग राय है। कुछ लोग सज्जाद हैदर यलदरम को पहला कहानीकार मानते हैं जबकि कुछ का मानना है कि उर्दू के पहले कहानीकार प्रेमचंद ही हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. फरमान फतहपुरी लिखते हैं, ‘‘उर्दू का पहला अफसाना (कहानी) प्रेमचंद का ‘अनमोल रतन’ नहीं, बल्कि सज्जाद हैदर यलदरम का ‘नशे की पहली तरंग’ हैं इसलिए कि खुद प्रेमचंद के मुताबिक (अनुसार) उनका पहला अफसाना ‘जमाना’ 1907 ई. में प्रकाशित हुआ, लेकिन इससे सात साल पहले यलदरम का अफसाना ‘मारूफ’ अलीगढ में मौजूद है।’’1
नये शोध के अनुसार उर्दू की पहली कहानी मौलाना राशिदुल खेरी की ‘नसीर और खदीजा’ है। यह ‘मखजन’ लाहौर में 1903 ई. में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद और यलदरम की जब हम तुलना करते हैं तो प्रेमचंद ने जीवन अधिक निकट से देखा था। गाँव, झोंपडी, गोबर, खेत, खलिहान, गरीब किसान, मजदूर जिन्हें अब तक कहानी में कोई स्थान नहीं मिला था, अपनी कहानियों का केन्द्र बिन्दु बनाया। भारत की आत्मा ग्राम्य जीवन के जैसे सुन्दर चित्र् उन्होंने खींचे हैं, उसकी तुलना किसी भी लेखक से नहीं की जा सकती। प्रेमचन्द के उर्दू में जो कहानी संग्रह छपे हैं, उनके नाम हैं, ‘सोजे वतन’, ‘प्रेम पचीसी’, ‘प्रेम बत्तीसी’, ‘प्रेम चालीसी’, ‘वारदात’, ‘जादे-राह’, ‘खाबो ख्याल’, ‘खाके परवाना’, ‘आखिरी तोहफा’, ‘देहात के अफसाने’ और ‘दूध की कीमत’। प्रेमचन्द पहले कहानीकार थे जिन्होंने दास्तानी और रूमानी माहौल से हटकर उर्दू कहानी का एक नया फ्रेम बनाया। डॉ. एहतेशाम के शब्दों में, ‘‘प्रेमचन्द नयी कहानी कला के जन्मदाता कहे जा सकते हैं। उन्होंने भारतीय जीवन के बहुमुखी संघर्ष को अपनी रचनाओं में ऐसे दिव्य रूप में प्रस्तुत किया कि कहानी समाज का जीता जागता दर्पण बन गई और उसके बाद आने वाले लेखकों के सामने नयी दिशाएँ स्पष्ट हो गईं।’’2
आधुनिक जीवन की सभी समस्याओं को लेकर और जनसाधारण को कहानी का नायक बनाकर जिसने कहानी की रचना की, वह प्रेमचंद (1880-1936 ई.) ही थे। इजलाल मजीद लिखते हैं, ‘‘उर्दू फिक्शन में राजनीति और व्यापक सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति पहली बार प्रेमचंद की रचनाओं में दिखाई पडती है। उर्दू में प्रेमचंद अफसाने (कहानी) की विधा की बुनियाद (नींव) रखने वाले थे। उन्हीं से उर्दू फिक्शन ने देहाती जीवन के चित्र्ण की परम्परा शुरू होती है और इस तरह वो उर्दू नसरी अदब (गद्य) को नये विषयों की दौलत से मालामाल करते हैं। अपने सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्यों-शोषण, अत्याचार और दमन का विरोध, देश प्रेम इत्यादि की प्राप्ति के लिए प्रेमचन्द ने अपने लेखन को जरिया (साधन) बनाया।’’3 परिपक्वता की मंजल की तरफ बढते हुए उर्दू कहानी का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पडाव था। ‘कफन’ कहानी लिखकर प्रेमचन्द ने इतिहास रच दिया। कला की दृष्टि से यथार्थवादियों में प्रेमचन्द बडा उच्च स्थान रखते हैं। उनकी रचनाओं का अध्ययन हम प्रारम्भ से अंत तक ऐतिहासिक रूप में करते हैं तो हमें अनुभव होगा कि वह सुधारवाद से क्रान्ति की ओर, गाँधीवाद की आदर्शता से यथार्थवाद की ओर बडी तेजी से बढ रहे थे। जब हम उनकी अंतिम रचनाओं का अध्ययन करते हैं तो वह प्रगतिशील आन्दोलन का साथ देते नजर आते हैं।
प्रेमचंद के दौर के दूसरे कहानीकार जिन्होंने प्रेमचन्द के बनाए रास्ते पर चलना उचित समझा उनमें पंडित बद्रीनाथ सुदर्शन (1895-1967), आजम करेवी (1894-1955), अली अब्बास हुसैनी (1897-1969), राशिदुल खेरी (1868-1936 ई.) उपेन्द्रनाथ अश्क के नाम प्रमुख हैं।
सुदर्शन ने उन्हीं विषयों को चुना जो प्रेमचंद के प्रिय थे। इन्होंने डेढ सौ भी अधिक कहानियाँ लिखी हैं और इनके पाँच कहानी संग्रह - सदाबहार फूल, मन की मौज, कोस कजह और ताइदेख्याल 1936 ई. से पहले ही छप चुके थे। सुदर्शन ने शहरी मध्यवर्गीय परिवारों की समस्याओं को अपनी कहानी में जगह दी है।
अली अब्बास हुसैनी भी इसी परम्परा की एक कडी है। वकार अजीम लिखते हैं, ‘‘प्रेमचन्द और हुसैनी में एक बुनियादी फर्क यह है कि प्रेमचन्द का मुक्तए नजर सियासी था, हुसैनी की राह इससे अलग थी।’’4
उनकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘रफीके तन्हाई’, ‘बासी फूल’, ‘आई.सी.एस.’, ‘कुछ हँसी नहीं है’, ‘मेला घूमनी’ और ‘हमारा गाँव’ बहुत लोकप्रिय है। अली अब्बास हुसैनी के अतिरिक्त इस समय के दूसरे कहानीकार आजम करेवी हैं, यह प्रेमचन्द की परम्परा के बहुत पास नजर आते हैं। इनके यहाँ शहर और गाँव के जीवन का कई रूपों में चित्र्ण मिलता है। ‘हीरो’, ‘एडिटर’, ‘गुनाह की गठरी’, ‘इंसाफ’, ‘बगुला भगत’, ‘पगली माया’, ‘दुखिया’, ‘कंवल’ और ‘लाज’ उनकी प्रमुख कहानियाँ हैं।
प्रेमचन्द और सज्जाद हैदर यलदरम के पश्चात् उर्दू कहानी ने एक नया मोड लिया, यह प्रगतिशील आंदोलन था। प्रगतिशील अर्थात् तरक्की पसंदों के इस शुरुआती रवैये का संकेत हमें 1932 ई. में प्रकाशित ‘अंगारे’ नाम के कहानी संग्रह में मिलता है। इसमें दस कहानियाँ थीं, जिसमें पाँच सज्जाद जहीर, दो रशीद जहां, दो अहमद अली की और एक महमूद जफर की। इस संग्रह की कहानियाँ उर्दू कहानी के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इन रचनाकारों के मानसिक रवैये में आए बदलाव को प्रस्तुत करती हैं। इन कहानियों में माक्र्स और फ्रायड के विचारों की छाया स्पष्ट देखी जा सकती है। माक्र्स और फ्रायड के प्रभाव से सेक्स का विषय भी इस संग्रह में मिलता है, जैसे ही ये कहानियाँ छपीं, चारों ओर से विद्रोह की आवाजें उठने लगीं। धार्मिक लोगों ने इसका खूब विरोध किया। इस बारे में ‘अंगारे’ के कहानीकार सज्जाद जहीर लिखते हैं, ‘अंगारे’ और उसके लेखकों के खिलाफ बडा सख्त प्रोपेगण्डा किया गया। हस्बे दस्तूर (आम रिवाज) मस्जिदों में रिजोलेशन पास हुए। हमें कत्ल कर देने की धमकी दी गई और बिल आखिर अंत में मुतहदा हुकूमत से इसको जब्त करा दिया गया।’’5
‘अंगारे’ के कहानीकारों ने उर्दू कहानी को एक नया आयाम, एक नई दिशा दिखाई। इस कहानी संग्रह के साथ ही प्रगतिशील आन्दोलन की बुनियाद पडी। प्रगतिशील आंदोलन से प्रभावित होकर लिखने वालों की संख्या बहुत अधिक है। इस समय के कहानीकारों में मन्टो, इस्मत चुग्ताई, कृष्ण चन्दर, अहमद नदीम कासमी और ख्वाजा अहमद अब्बास वगैरह हैं।
कृष्ण चंदर ने लगभग 80 पुस्तकें लिखीं। इनके कहानी संग्रह - ‘नज्जारे’, ‘जन्दगी के मोड पर’, ‘टूटे हुए तारे’, ‘अन्नदाता’, ‘तीन गुंडे’, ‘समुन्द्र दूर है’, ‘अजन्ता से आगे’, ‘हम वहशी हैं’, ‘मैं इंतजार करूँगा’, ‘दिल किसी का दोस्त नहीं’, ‘किताब का कफन’, ‘तिलस्मे ख्याल’ वगैरह हैं। ‘तिलस्मे ख्याल’ इनका वह कहानी संग्रह है जिसे लोगों ने बहुत पसन्द किया। कृष्ण चंदर उच्च कोटि के कलाकार हैं। आधुनिक सामाजिक स्थिति में वर्गों की विभिन्नता, जनता की आर्थिक दुर्दशा, प्रबन्धकों के अत्याचार और पूँजीपतियों की लूटमार देखकर उनका कलम विष में डूबकर चलता है। जनता के प्रति सच्चा प्रेम, मानव के भविष्य पर विश्वास और अत्याचार के विरुद्ध घृणा प्रकट करना ही उनकी कहानियों का विषय है।
सआदत हसन मण्टो (1912 से 1955 ई.) को प्रारम्भ से ही रूसी कहानियाँ पसन्द थीं। ‘गोगूल’, ‘चेखूफ’ और ‘गोर्की’ वगैरह की कहानियों का अनुवाद भी इसी लगाव के कारण किया। उनके कहानी संग्रहों के नाम हैं ‘धुआँ’, ‘मण्टो के अफसाने’, ‘लज्जते संग’, ‘नमरूद की खुदाई’, ‘खाली डिब्बे खाली बोतलें’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘सियाह हाशिए’ इत्यादि। डॉ. एहतेशाम हुसैन के शब्दों में, ‘‘वासनाओं में डूबे हुए युवकों और युवतियों, वेश्याओं और समाज के गिरे हुए लोगों का चित्र्ण मण्टो से बढकर अब तक उर्दू का कोई कलाकार नहीं कर सका है।’’6 उनकी अधिकतर कहानियाँ अश्लील होने से बाल-बाल बच गईं। यह एक सच्चाई है कि मण्टो ने वेश्या को अपनी कहानियों का विषय बनाया, लेकिन यह वेश्या मिर्जा हादी रूसवा की ‘उमराव जान अदा’ और काजी अब्दुल गफ्फार की ‘लैला की खतूत’ से भिन्न थी। जो सबसे घटिया दर्जे की वेश्या हो सकती थी, उसमें भी मण्टो ने एक सम्पूर्ण औरत की तलाश की।
इस्मत चुग्ताई इस युग की सबसे लोकप्रिय लेखिका है। इन्होंने मध्यवर्गीय मुस्लिम समुदाय के परिवारों का वर्णन बहुत ही महारत और फनकाराना अंदाज में किया है। इन्होंने सेक्स पर कई कहानियाँ लिखी हैं। सबसे पहले चारदीवारी के अंदर बंद औरतों के रहन-सहन तू हम परस्ती, खोखले रस्मो रिवाज, महिलाओं पर लादी गई अनावश्यक धार्मिक पाबन्दियों के खिलाफ खुल कर लिखा है, वह अपने समय के मध्यम वर्ग के मुसलमानों की आंतरिक जीवन की इतनी जानकारी रखती हैं कि उनकी बोलचाल, रहन-सहन, इच्छाओं और कामनाओं का चित्र्ण, सभी पर गहरी नजर है। इस्मत एक इंटरव्यू में कहती हैं, ‘‘दोपहर में मुहल्ले भर की औरतें जमा होकर बैठ जाती थीं और हम लडकियों से कहा जाता था चलो भागो तुम लोग। मैं छुप के पलंग की नीचे बैठ जाती और उनकी बातें सुन लिया करती थीं। जिन्स ;ैमगद्ध का मौजूदा विषय घुटे हुए माहौल और पर्दे में रहने वाली बीवियों के लिए बहुत अहम् है। वह इस पर बातचीत किया करती थीं, मेरी अफसाना निगारी इसी घुटे हुए माहौल की अक्कासी है।’’7
उर्दू कहानी स्वतंत्र्ता प्राप्ति से पूर्व का अवलोकन करने से पहले हमें यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखनी है कि पिछली दहाइयों से कई पीढयाँ कहानियाँ लिखती रही हैं, जिनमें कुछ कहानीकार तो ऐसे हैं जो स्वतंत्र्ता प्राप्ति से पूर्व अपनी पहचान बना चुके थे, जैसे हयात उल्ला अंसारी, राजेन्द्र सिंह बेदी, उपेन्द्रनाथ अश्क, इस्मत चुग्ताई, सुहेल अजीमाबादी, देवेन्द्र सत्यार्थी, हंसराज रहबर, गुलाम अब्बा, हाजरा मसरूर, अशफाक अहमद, मुमताज मुफ्ती और शौकत सिद्दीकी। इनके पश्चात् ऐसे कहानीकार हैं जिन्होंने स्वतंत्र्ता प्राप्ति के आसपास लिखना प्रारम्भ किया, जिनमें कुर्रतुल ऐन हैदर, बलवंत सिंह, रामलाल, इकबाल मतीन, इंतजार हुसैन, जीलानी बानो, जोगिन्दर पाल, कलाम हैदरी, अनवर अजीम, आमना अबुल हसन के नाम लिए जा सकते हैं।
प्रगतिशील आन्दोलन उर्दू कहानियों का स्वर्णिम दौर है जितनी अच्छी कहानियाँ इस समय लिखी गईं, उतनी अच्छी न इससे पहले न आज तक लिखी गईं, इतनी बडी संख्या में उर्दू कहानी इसी आंदोलन की देन है। ऐसी मिसाल दूसरी भाषाओं में देखने को नहीं मिलती, कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि स्वतंत्र्ता प्राप्ति से पूर्व के काल में उर्दू कहानी पूर्ण रूप से निखर चुकी थी।
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