शनिवार, 3 अप्रैल 2021

मार्कण्डेय की कथा

 आज 2 मई है और आज ही के दिन 1930 को जौनपुर जिले के बराई गाँव में हिन्दी के एक बड़े साहित्यकार का मार्कण्डेय का जन्म हुआ था। प्रारंभ में तो गाँव में ही पढ़े-लिखे, लेकिन आगे की शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद से हुई थी। 

 दरअसल, जिन दिनों मार्कण्डेय हिन्दी साहित्याकाश में चमचम चमक रहे थे, वह दौर था साहित्य और समाज के लिए संक्रमण का, कुछ नए के आने का और कुछ पुराने के चले जाने का। हिन्दी साहित्य में भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। प्रेमचंद तो 1936 में ही चले गए थे, लेकिन गूँज अभी भी थी, दूसरी ओर कुछ उत्साहित साहित्यकार कुछ अलग चलकर अपनी ज़मीन तैयार करने में लगे थे। कुछ प्रेमचंद को बीते ज़माने की चीज़ मानकर छोड़ देना चाहते थे और चंद शहरी अनुभवों के सहारे ही साहित्यिकता की परिभाषा गढ़ देना चाहते थे। लेकिन उनकी एक ना चलती थी। ‘मैला आँचल’ लिए रेणु जैसे लोग उन्हें रोकने में क़ामयाब हो जाते थे। फिर भी  एक धारा तो ऐसी थी ही जो अपने शहरी अनुभवों और ग्रामीण संवेदना के बीच कोई एक सामंजस्य बिठाकर चलने का हिमायती था। मूल रूप से कहें तो यह एक संक्रमण का ही दौर था। इसी संक्रमण के दौर में मार्कण्डेय के रूप में हिन्दी साहित्य में एक ऐसे साहित्यकार का उदय हुआ जो बड़ी संजीदगी और सामर्थ्य के साथ  रचना-संसार की इस पूरी प्रक्रिया को चुपचाप देख रहा था। उसने अचानक आकर हस्तक्षेप किया और उसने जल्दी ही साहित्य जगत को यह समझा दिया कि भारत की मूल साहित्यिक संवेदना तो गाँवों की संवेदना ही है और गाँव के बिना तो भारतीय साहित्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती! यह एक ऐसी बात थी जो शहरी संवेदना के पैरोकार भी कमोबेश महसूस करते ही थे क्योंकि भले ही उनकी रचनाओं में गाँव नहीं होता था, लेकिन संवेदना तो ग्रामीण ही होती थी। 

  आज उन्हीं बड़े साहित्यकार मार्कण्डेय का जन्म दिन है। कौन-सा जन्म-दिन,  इसका हिसाब तो मैं नहीं रखता। मैं तो बस इमोशनल हो जाता हूँ और यह सोच-सोचकर कि आज उनका जन्म-दिन है खुश हो जाता हूँ। आज के दिन दिल्ली में एक कार्यक्रम करके केक काटना चाह रहा था, लेकिन चूँकि आज इलाहाबाद में धूम-धाम से केक काटने की तैयारी चल रही है, मैंने दिल्ली का कार्यक्रम किसी अन्य तिथि तक के लिए टाल दिया है। उनकी बड़ी बेटी स्वस्ति सिंह भी तो आज इलाहाबाद में नहीं हैं, मुंबई  में हैं! डॉक्टर बेचारे भी तो परेशान ही रहते हैं, और यदि डॉक्टर बड़े स्टेचर का व्यस्त हो, जैसी स्वस्ति हैं, तो फिर बात ही क्या है!  चलिए, बेटे सौमित्र और छोटी बेटी सस्या इलाहाबाद में सम्भाल ही लेंगे, और दुर्गा हैं ही।

 बहरहाल, ‘कथा’ के संस्थापक कहानीकार मार्कण्डेय को ‘कथा’ के कोटि-कोटि पाठकों की ओर से, मैं,  ‘कथा’ का सम्पादक, कहानीकार अनुज  जन्म-दिन की ढेर सारी बधाई देता हूँ….!! आप सब भी मेरी इस भावना में सम्मिलित होकर इस बड़े साहित्यकार के प्रति अपना सम्मान और प्यार संप्रेषित करें। 

---अनुज, 

सम्पादक-‘कथा’

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...