रविवार, 13 जून 2021

अल्बर्ट पिंटो को अब गुस्सा नहीं आता / प्रज्ञा रावत

 ये कविता लोक विमर्श में छपी थी। उमाशंकर सिंह परमार और उनके साथियों का आभार।

 

       बाँके बिहारी


न जाने कब से ढूंढ रही हूँ

उस तमतमाहट को आक्रोश को

आंखों में गमक थी जिसकी

जो सही को सही और गलत को गलत

साबित करने में ज़मीन और आसमान

एक कर देता था


बिजली सी चमक लिए

जिसके हाथ लगाते ही झुक जाती थी डालियाँ

मुड़ जाते थे रास्ते

जीवन की गति और लय से सराबोर

आक्रोश में सना

जिस पर नाज़ करते थे मोहल्ले वाले


वो कुछ भी हो सकता था

कवि- लेखक पत्रकार टाईपिस्ट

मनुष्यता की क्रांति के आंदोलनों

का मज़बूत स्तम्भ हो सकता था वो

जो धीमे-धीमे हमारे गिरह से छूटता गया 


ढूंढो ढूंढो उसे कहीं तो ढूंढो

वो यहीं कहीं है!

पूरे जहान का बाँके बिहारी

हमारे मोहल्लों का नायक 

अब बुदबुदाता है,मिमियाता है

उसका तेवर दब गया है 

बड़े बड़े लोन की 

महीन से महीन लिखी इबारत में


उसके गुस्से को लील गया है

शिष्टाचार का तमाचा

अनुलोम-विलोम करते हुए

मन ही मन अक्सर बक रहा

होता है जी भरके गालियाँ


बहुत नामकरण हुए उसके

कहीं 'होली एंगर' तो

कहीं 'एगॅानी आंट'

वो जो चला था अपने गाँव- घर से

चूसता हुआ गन्ना

बनने आदमी


तब्दील हो गया है 'शुगरकेन' में

पड़ा हुआ दिख जायेगा

कहीं भी चाय की ट्रे की तश्तरी

के शुगर क्यूब में

बेचता जैतून की तेल की मालिश के नुस्खे

और हम हैं कि ढूंढ रहे हैं उसे 

गली- गली मोहल्ले- मोहल्ले


शायद उसे ये बताने कि वो

शिष्टाचार नहीं था

गुलामी की मार थी 

आज़ादी के बाद की गुलामी 

जो पैदा की गई थी छोटे मुल्कों में 

बिल्कुल वैसे ही जैसे 

बीमारियाँ नहीं थीं बीमारियों

की मार थी

युद्ध नहीं थे 

युद्ध की मार थी

बांध नहीं थे बाँधो 

की मार थी

उसके आक्रोश को मारा गया

साजिश के तहत

इतना दबाया गया

कि अब वो हाथ भी सही

दिशा में उठा नहीं पा रहा


एक छोटी-सी चिप में

कैद हो गए हैं उसके सारे सपने

और उसकी ज़िंदगी की 

ख़ुशियों का पासवर्ड आपके 

पास है महामहिम!

उसकी नींद पर आपका कब्ज़ा है 

तो महामहिम अब तो आप खुश हैं

कि बाँके बिहारी को अब गुस्सा

नहीं आता

जनता जनार्दन खुश है कि

अल्बर्ट पिंटो को अब बिल्कुल गुस्सा नहीं आता।

(प्रज्ञा रावत 2016)

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