बुधवार, 28 सितंबर 2022

बुद्धिनाथ मिश्र के दस नवगीत

 वागर्थ में आज 

बुद्धिनाथ मिश्र जी के दस नवगीत

_______________________



बहुत दिनों के बाद


बहुत दिनों के बाद

आज बाहर निकला।

जो भी देखा, सब

पाने को जी मचला।


बाहर की दुनिया देखी

हलचल देखी

पटरी पर दौड़ती

रेल एकल देखी।


ठहरी हुई घड़ी का

दिल यों धड़क उठा

जमी झील का पानी

जैसे बह निकला।


जाम हुए जीवन ने

सरपट गति देखी

भय की छाया में

कीलित संप्रति देखी


धुली-धुली सी देह

सयानी धरती की

हरा-भरा जंगल, पर्वत

नीला-उजला।


पिंजरे वाले हैं चिंतित,

क्या होगा कल

खेतों से सीमा तक

लेकिन चहल-पहल

बहुत अकेलापन झेला

घरबंदी में

दौड़ रहा बादल पर

अब यह मन पगला।



 रात हमारी बात न माने  


दिन बनकर हम क्या कर लेंगे

रात हमारी बात न माने

उसकी जिद का क्या जो घर की

छाती पर ही तंबू ताने।


जो धीवर को ही उतार दे

उस नौका की गति क्या होगी

बिना चिकित्सक की सलाह के

खाने लगा दवा है रोगी

सारी दुनिया लोहा माने

लेकिन अपनी जात न माने।


बजता तो है सच सरोद-सा

लेकिन शोर झूठ का ज्यादा

घुड़सवार के घोड़े से चिढ़

पत्थर मार रहा है प्यादा

संविधान के निर्देशों को

भूतों की बारात न माने ।


एक कमासुत,सौ जाहिल हैं

जहां,वहां की बात जुदा है

टांग खींचनेवाले वंदों के

भीतर जज्बात जुदा हैं

संकट में संतों का आश्रम है

जो दिन को रात न माने ।

एक हारिल

_________

फेंक कविता की लकड़ियों का पुलिंदा

आत्महत्या पर तुला है एक हारिल ।


गांव से भागा ,घुटन -सा था वहां पर

जिंदगी फुटपाथ वाली ही बदी थी

रास आया कुछ न उस निर्धन कलम को

हर जगह उसके लिए बस त्रासदी थी


पोथियों में ब्रह्मराक्षस अनगिनत थे

बर्फ के घर में जला है एक हारिल।


क्या शहर ,क्या गांव है सर्वत्र फैला

यह करोना वायरस नारायणी है

बंद हैं अपने घरों में मित्र सारे

आदमी इस दौर का कितना ऋणी है


दूरियां नज़दीकियों से आज बेहतर

फासला रख कर चला है एक  हारिल ।


हर तरफ कुरखेत वाले दृश्य दिखते

मौत की खबरें बुरी आकर डराती

नाश का संकल्प ले बहती हवाएं

नाव लेकर आंधियां उस पार जाती


चैत का वह चांद भी पीला पड़ा है

भोर बन सूरज ढला है एक हारिल।

 मन सवर्ण-सा

___________


बहुत दिनों तक अड़ा रहा

अपने गौरव पर

मन सवर्ण -सा

धीरे-धीरे हार रहा है।


जिन देवों के होने से

सदियां संवरी थीं

उन देवों के ना होने की

बात चली है

बादल के तहखाने में

चंद्रमा चुराकर

दिग्विजयी-सी तारों की

बारात चली है


जन्मों-जन्मों जिसे

सहेजा कस्तूरी कह

रश्मिरथी वह कुंडल 

-कवच उतार रहा है ।


तालाबों में खिले कमल से

डाह कर रहे

नीलकुसुम जलकुंभी के

फैले दिगंत में

टूट रहा हौसला

सभी संवादी स्वर का

नई संधियां पनप रही

है आदि-अंत  में


कितनी पीड़ा सही

बासुकी ने मंथन में

असली साक्षी तो

पर्वत मंदार रहा है।


बड़ी शिकायत है अबकी

विषधर सांपों को

मिलती नहीं सुगंध उन्हें

शीतल चंदन में

हाथ पांव के श्रम  को

पद्मश्री मिल जाती

मस्तक रहा उपेक्षित

इस पद के  वंदन में


फिर न मिलेगी वेगवती 

नदियां, सुरम्य वन

पुनर्नवा का सूखा लहू

पुकार रहा है।  


बनजारा मन

__________

सिर पर बादल

आंखों में कंदरा लिये

घूम रहा है जन्मों से

बंजारा मन ।


नींबू के फूलों की गंध

लगी बेहतर

उसे कमल से, तो इसमें 

उसका क्या दोष?

 जिन कलशों को गढ़ा

चाक पर पंडित ने

उन्हें प्रजापति के

कौशल पर है अब रोष


इसके आगे

मरी हुई भाषा मत बोल

दिया रात का

और भोर का तारा मन।


सदियों कुचली-दबी पीर

सिर उठा रही

नये समय की हीर

इबारत मिटा रही

मंदिर के भग्नावशेष की

अकथ कथा

धर्मांतरित विवशता

गर्दन कटा रही।


शमी वृक्ष की आग

सुलगने को आतुर

जाने कब बन जाय

स्वयं अंगारा मन।


पतझर बीता, नव

वसंत के रंग खिले

महुआ वन में

झरता हुआ अभंग मिले

अभिमंत्रित नारायण

अस्त्र जगे फिर से

श्रद्धा के आंगन में

उगते व्यंग मिले


टूटा-सा परिवार

जुड़ गया बिना कहे

घर का पुनर्पाठ

पढ़ता आवारा मन।


   ६

 लद गये दिन

___________

छोड़ कर लिखना सुनहरे गीत

आओ लिखें नारे  । 

 

  प्रेम के अनुबंध के दिन

लद गए हैं

शोर करने काफिले

संसद गए हैं


पी गए मीठी नदी का नीर

सब ये सिंधु खारे ।


फेंक सारी चिट्ठियों को

डस्टबिन में

रात के सब काम

होने लगे दिन में


ढूंढ मत इस मॉल में

देहात की पुरवा हवा रे!


प्रेम की, सौंदर्य की

बातें अजूबा

हो गई है चांदनी

रातें अजूबा


दौर यह ऐसा अजूबा है

कि तमसे सूर्य हारे ।

छोड़कर लिखना सुनहरे गीत

आओ लिखें नारे ।


एक उड़ान तुम्हारी  

_____________

एक उड़ान तुम्हारी, धरती से 

नभ की ऊंचाई तक

 एक कहानी मेरी भी है 

शोहरत से तनहाई तक।


चलन नहीं अब नाम 

बुजुर्गों का लेना त्योहारों पर 

उग आयीं अनजान वनस्पतियाँ 

मन की दीवारों पर 


तुम खुश हो लो, हाथ तुम्हारा 

पहुँचा दियासलाई तक 

अपना है संकल्प कि पहुँचूँ 

सागर की गहराई तक। 


श्वानों को हविष्य के दोने 

बलियाँ  अश्वों के हिस्से 

नव संकल्पों में न चलेंगे  

शुनःशेप वाले किस्से 


कौन छलाँग लगाएगा अब 

अरबों की अँगड़ाई तक 

व्यस्त उँगलियाँ अभी, फटी 

चादर की ही तुरपाई तक। 


कलमबंद आँधियाँ तोड़कर 

गयीं रात पीले पत्ते 

सुबह किन्तु निकले बच्चों के 

मुँह से 'सत्तमेव जत्ते '


एक जहान सियासत का है 

वैभव से कुड़माई तक 

एक सिवान हमारा भी है 

तुलसी की चौपाई तक। 



सूरज अपने पास बहुत है 

___________________

सोचो तो कोहरे- बादल से

सूरज अपने पास बहुत है

देखो  तो गणतंत्र दिवस में

अबकी  रंग-उजास बहुत है.  

टूटा मौन त्रिनेत्र रुद्र का

टूटी संधि ज्योति की तम से

दिग्भ्रम के कीड़े जहरीले

दो-दो हाथ कर रहे यम से

दूर भानु से, भानुमती का

कुनबा आज उदास बहुत है.


नहीं चलेगी ठकुरसुहाती

नहीं चलेगा ढंग पुराना

जन-धन सँवरेगा डिजिधन से

नयी दिशाएँ, नया तराना

काशी-करवट लेगा वह, जिस-

का काला इतिहास बहुत है.


यह पतझर है अग्रदूत जीवन

में आते नव वसंत का

यह उत्सव है विजयी विश्व

तिरंगेवाले प्राणवंत का

जीवन- ज्योति जलेगी जग में

आशा से  विश्वास बहुत है.



 कालिदास के लिए

_______________

नकली सूरज वाले

माढव्यों का दिन है

कालिदास के लिए

सृजन-पथ बड़ा कठिन है।


कमल झील पर कब्जा है

अब सेवारों का

मन्त्रों के घर पर

अधिकार हुआ नारों का

जब-तब निकला करता

अफवाहों का जिन है।


मरी धूप में धूम मचाती

सर्द हवाएं

घुटने मोड़ नहीं पाती हैं

वृद्ध दिशाएं

पात झरे नीमों के,

कीकर हुआ गझिन है।


कहने लगे, सुहाने हैं ये

ढोल दूर के

ठगे-ठगे से वन हैं

चंदन के, कपूर के

कितना बेकल आज

रसप्रिये, मन तुम बिन है!  


१०


यह दीवारों का जेवर है

_________________

आड़ी- तिरछी रेखाओं का

अपना मतलब, अपना स्वर है

पाटी पर भारी दीवारें कहतीं -

यह बच्चों का घर हैै। 


ये पुरखों की आदिम लिपियाँ

इनका अर्थ गुनो

ये भविष्य की आवाजें हैैं

कानोकान सुनो


पहली कड़ी सृजन की ये हैं

इन्हें मिटाना सख्त मना है

तारे -पेड़- नदी- जंगल- चिड़िया-

गुड़िया इनके अन्दर हैं। 


बच्चों की अनगढ़ी अजन्ता

जिस घर में उतरे

उस अकूत वैभव पर 

सौ- सौ यक्ष कुबेर मरे


खुले खजाने हैं बचपन के

लड़ी बुजुर्गों के जातक  की

नयी उमर की छोटी- सी

जागीर देख कुढ़ता गब्बर है। 


बीज- रूप ये नये कल्प की

नयी ऋचाओं के

भीमबैैठका में पनपी

हेमन्त लताओं के


यह किलकारी भित्तिचित्र की

फूलों की घाटी, देहरी  पर

पाणिनि या हुसैन से पूछो


यह दीवारों का जेवर है। 


दीवारों पर किसी बच्चे की चित्रकारी देखकर 


-----------------------------------------------------

परिचय

_____

बुद्धिनाथ मिश्र 

बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाएँ

जन्म: मई,1949 को मिथिलांचल में समस्तीपुर(बिहार) के देवधा गाँव में मैथिल ब्राह्मण परिवार में जन्म ।


शिक्षा: गाँव के मिडिल स्कूल और रेवतीपुर(गाज़ीपुर) की संस्कृत पाठशाला में प्रारम्भिक शिक्षा,वाराणसी के डीएवी कालेज और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के आर्ट्स कालेज में उच्च शिक्षा। एम.ए.(अंग्रेज़ी),एम.ए.(हिन्दी),‘यथार्थवाद और हिन्दी नवगीत’ प्रबंध पर पी.एच.डी. की उपाधि।


1966 से हिन्दी और मातृभाषा मैथिली के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निबंध,कहानी,गीत,रिपोर्ताज़ आदि का नियमित प्रकाशन। ‘प्रभात वार्ता’ दैनिक में ‘साप्ताहिक कोना’, ‘सद्भावना दर्पण’ में ‘पुरैन पात’ और ‘सृजनगाथाडॉटकॉम’ पर ‘जाग मछन्दर गोरख आया’ स्तम्भ लेखन।


देश के शीर्षस्थ नवगीतकार और राजभाषा विशेषज्ञ।मधुर स्वर,खनकते शब्द,सुरीले बिम्बात्मक गीत,ऋजु व्यक्तित्व। राष्ट्रीय -अन्तरराष्ट्रीय काव्यमंचों के अग्रगण्य गीत-कवि।


1969 से आकाशवाणी और दूरदर्शन के सभी केन्द्रों पर काव्यपाठ, वार्ता,संगीत रूपकों का प्रसारण। बीबीसी,रेडियो मास्को आदि से भी काव्यपाठ,भेंटवार्ता प्रसारित।दूरदर्शन के राष्ट्रीय धारावाहिक ‘क्यों और कैसे?’ का पटकथा लेखन। वीनस कम्पनी से ‘काव्यमाला’ और ‘जाल फेंक रे मछेरे’ कैसेट,मैथिली संस्कार गीतों के दो ई.पी. रिकार्ड और संगीतबद्ध गीतों का कैसेट ‘अनन्या’। डीवीडी ‘राग लाया हूँ’ निर्माणाधीन।


सम्पादन: ‘जाल फेंक रे मछेरे’ ‘शिखरिणी’ ‘जाड़े में पहाड़’ गीत संग्रह,‘नोहर के नाहर’ ‘स्वयंप्रभ’ ‘स्वान्तः सुखाय’ ‘नवगीत दशक’ ‘विश्व हिन्दी दर्पण’ तथा सात मूर्धन्य कवियों के काव्य संकलनों का सम्पादन।


प्रकाशन: ‘अक्षत’ पत्रिका और ‘खबर इंडिया’ ई-पत्रिका में कर्तृत्व पर केन्द्रित विशेषांक और ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ पुस्तक(सं. डॉ. अवनीश चौहान) प्रकाशित।


सम्मान: अन्तरराष्ट्रीय पूश्किन सम्मान, दुष्यन्त कुमार अलंकरण,परिवार सम्मान, निराला,दिनकर और बच्चन सम्मान।‘कविरत्न’ और ‘साहित्य सारस्वत’ उपाधि।


यात्रा: रूस,अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, जापान, मारिशस, उज़बेकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, सिंगापुर,यूएई आदि अनेक देशों की साहित्यिक यात्रा। न्यूयार्क और जोहान्सबर्ग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व। सार्क देशों में बेहद लोकप्रिय कवि।


सम्प्रति: ‘आज’ दैनिक में साहित्य और समाचार सम्पादन,यूको बैंक,हिन्दुस्तान कॉपर लि. और ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कार्पोरेशन(ओएनजीसी) मुख्यालय में राजभाषा प्रभारी पद पर सेवा। सम्प्रति ‘स्वयंप्रभा’ और ‘अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन’ के अध्यक्ष।

देवधा हाउस , 5 /2  वसंत विहार एन्क्लेव ,देहरादून-248006 


Email ID: buddhinathji@gmail.com


7060004706/6397677279

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...