शनिवार, 5 अगस्त 2023

बोल बे / नरेंद्र कुमार मौर्य

 


आदमी है या तू पत्थर बोल बे, 

पूछता है फिर मणीपुर बोल बे.


लोग तो कटते रहे, मरते रहे, 

क्यों हुआ कानून बेघर बोल बे.


आंख भर तो चाहिए थी रौशनी, 

क्यों वहाँ जलते रहे घर बोल बे.


कर दिया क्यों बाग़ का तूने बता, 

नफ़रतों के नाम मंज़र बोल बे.


हो गई नंगी उधर सरकार भी, 

हो गया अब सच उजागर बोल बे.


कान से जैसे लहू रिसने लगा, 

क्यों तिरी आवाज़ ख़ंजर बोल बे.


ये सियासत है या सीरत है तिरी, 

बन गया कैसे सितमगर बोल बे.


मोम का पुतला बना क्यों चुप रहा, 

क्या तुझे है आग का डर बोल बे.


फ़ासला ही अब नहीं कुछ रह गया, 

कौन क़ातिल, कौन रहबर बोल बे.


एक तोते का सफ़र पिंजरे तलक, 

क्या सिखाया है बराबर बोल बे.


जान ही लेना था, वो तू ले चुका, 

क्या करेगा और जीकर बोल बे.


गर ज़बाँ खुलती नहीं है होश में, 

तो ज़रा दो घूंट पीकर बोल बे.


नरेंद्र कुमार मौर्य

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