प्रकाशन :शुक्रवार, 1 जून 2007
बच्चू प्रसाद सिंह
| हिन्दी विश्व |
83/सी, हिमगिरि अपार्टमेंट्स, पॉकिट-14, कालकाजी एक्सटेंशन, नई दिल्ली – 110019 | |
दुनिया के कोने-कोने में आज लगभग पौने दो करोड़ अनिवासी भारतीय और भारतवंशी विराजमान हैं और इनमें से बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जो 100-150 साल पहले मॉरिशस, फिजी, सुरीनाम, ट्रिनिडाड, गुयाना, बारबाडोस, जमैका, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में जाकर बस गये और इन सबके साथ भारतीय मिट्टी की सुगन्ध वहाँ पहुँची । इनके साथ हमारा दर्शन, हमारी जीवन शैली, गीता, रामायण आदि सब ग्रन्थ वहाँ पहुँचे और इस प्रकार उन दूर-दूर के देशों में आज भी हमारी संस्कृति, हमारी भाषा की गूंज-अनुगूंज निरन्तर सुनाई पड़ती है और जो लोग भी इन देशों की यात्रा कर चुके हैं वे सब इस बात से प्रभावित हुए हैं कि समय के लम्बे अन्तराल के बाद भी किसी प्रकार उन्होंने उन तमाम मूल्यों को जीवित रखा है । वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति की विरासत के सच्चे हकदार माने जा सकते हैं । भारत के बाहर भारतवंशी तो हैं ही, इनके अतिरिक्त जो लोग भारत को भली प्रकार जानता चाहते हैं वे भी हिंदी और भारतीय भाषाओं का पूरी रुचि के साथ अध्ययन-अध्यापन और शोध वर्षों से करते आ रहे हैं और इन क्षेत्रों में उनकी उपलब्धि सर्वथा सराहनीय रही है । यूरोप के देश या अफ्रीका के, आस्ट्रेलिया या अमरीका के और फिर एशिया के अनेकानेक देशों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के पठन-पाठन की व्यवस्था वर्षों से चली आ रही है और इन सभी लोगों की एक आकांक्षा रहती है कि वे भारत की भूमि के साथ भारतीय आत्मा के साथ जुड़ सकें, उनका एक सम्पर्क इस देश के साथ कायम हो जिससे कि वे अपने-अपने विषय को भली प्रकार समझ सकें, विचारों का आदान-प्रदान कर सकें और अपने कार्यों में निरन्तर प्रगति करते जाएं । जिन देशों में भारतवंशी बड़ी संख्या में निवास करते हैं वहाँ तो हिंदी का होना स्वाभाविक है किन्तु उनके अतिरिक्त रुस, अमरीका, जर्मनी, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिकया, फ्रांस, ब्रिटेन (यू.के) के विभिन्न हिस्सों में लगभग डेढ़ सौ ऐसे विश्वविद्यालय हैं जिनमें हिंदी के पठन-पाठन की व्यवस्था है और इन सबके साथ हमारे देश के विद्वान भी जुड़े हुए हैं और एक ऐसा तारत्मय पिछले दो दशकों से बन गया है कि निरन्तर सम्मेलन, सभा और संगोष्ठी के माध्यम से इन विद्वानों के बीच विचारों का आदान-प्रदान होता रहता है । यह एक शुभ संकेत है क्योंकि हिंदी सभी को जोड़ने वाली भाषा है, प्रेम की भाषा है । इन्हीं विदेशस्थ हिंदी प्रेमियों की आशा के अनुरुप सबसे पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 1975 में नागपुर में हुआ । इस सम्मेलन का उद्घाटन हमारी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने किया और इसकी अध्यक्षता मॉरीशस के प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम ने की । उसके कुछ ही दिन बाद अगस्त, 1976 में दूसरा विश्व हिंदी सम्मेलन मॉरीशस में आयोजित हुआ जिसको याद कर लोग कहा करते हैं, “न भूतो न भविष्यति” । इस सम्मेलन में भारत से लगभग 250 विद्वानों राजनेताओं ने भाग लिया और सभी इस बात से अत्यंत प्रफुल्लित थे कि मॉरीशस की सुन्दर भूमि पर हिंदी का बिरवा किस प्रकार फलता-फूलता और पुष्ट होता जा रहा है । इसके बाद 1983 में तीसरा विश्व हिंदी सम्मेलन नई दिल्ली में आयोजित हुआ जिसका उद्धाटन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने किया और अध्यक्षता कैम्ब्रिज के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर मैग्रेगर ने की । फिर एक लम्बा अन्तराल आया और चौथा विश्व हिंदी सम्मेलन उसी मॉरीशस की भूमि पर सम्पन्न हुआ जिसका उद्घाटन मॉरीशस के प्रधानमंत्री श्री अनिरुद्ध जगन्नाथ ने किया और इस सम्मेलन में अनेकानेक देशों के विद्वान पधारे और आपस में विचार-विनिमय करके कई महत्वपूर्ण निर्णय लिये और इन सबकी यह माँग रही कि अब तक के चार विश्व हिंदी सम्मेलनों में जो भी प्रस्ताव पारित किए गए है उनके क्रियान्वयन के लिए तत्काल कार्रवाई की जाए । भारत और मॉरीशस की सरकार को यह जिम्मेदारी दी गयी कि इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए आवश्यक कदम शीघ्रातिशीघ्र उठाए जाएँ । इसी सम्मेलन में ट्रिनिडाड के प्रतिनिधि ने यह प्रस्ताव रखा कि पाँच वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन ट्रिनिडाड में 1996 में आयोजित किया जाए क्योंकि इसी वर्ष भारतीयों के उस देश में पहुँचने के डेढ़ सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं । इस कार्यक्रम का शुभारम्भ हो चुका है और हमारे देश के राष्ट्रपति महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने इस वर्ष के प्रारम्भ में ही ट्रिनिडाड जाकर भारतीयों के ट्रिनिडाड में आँगन की 150 वीं जयन्ती का शुभारम्भ कर दिया है और उस देश ने यह निश्चय किया है कि 1996 के मार्च मास में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन कर इस जयन्ती का समापन किया जाए। सभी विश्व हिंदी सम्मेलनों में भारत सरकार, स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं, हिंदी सेवी विद्वानों, पत्रकारों, लेखकों और विचारकों, कवियों और कलाकारों ने सभी प्रकार से योगदान किया है और आशा है कि ट्रिनिडाड में अगले वर्ष आयोजित होने वाला पाँच वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन भी इस श्रृंखला की प्रमुख कडी के रूप में उभरकर सामने आयेगा। ट्रिनिडाड में पाँचवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है, यह सभी हिंदी प्रेमियों के लिए स्वागत योग्य बात है और इस सन्दर्भ में यह विशेष उल्लेखनीय है कि सूरीनाम ओर ट्रिनिडाड में कई वार अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन इससे पहले भी हो चुका है। अंन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में स्वाभाविक है कि बाहर के विद्वान कम और स्थानीय लोगों की भागीदारी अधिक रहती है। सूरीनाम में अब तक तीन अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन सम्पन्न हो चुके हैं और अभी-अभी लगभग 2 साल पहले यानी 1993 में ट्रिनिडाड में एक अंन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें भारत सहित अनेक देशों के लोगों ने हिस्सा लिया। आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत के बाहर जो लोग भी हिंदी की सेवा कर रहे हैं, जो लोग भी इस तरह का कार्यक्रम आयोजित करते हैं हम उनको समुचित प्रश्रय, प्रोत्साहन दें ताकि भारत के साथ दुनिया के तमाम देशों के साथ हमारी सांस्कृतिक भाषायी सम्पर्क सूत्र अधिकाधिक सुदृढ़ बनें और भारतीय जीवन-मूल्यों को यानी विश्व-शांति, सहिष्णुता, मैत्री और सद्भाव इन सबको बल मिले। हिंदी की इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका रही है और हमारी भारतीय भाषाएँ एक हैं, उनकी आत्मा एक है और हिंदी के माध्यम से हम भारत में और भारत के बाहर उसी को प्रतिबिंबित करते है। ट्रिनिडाड विश्व हिंदी सम्मेलन निकट भविष्य में आयोजित होने जा रहा है इसलिए इस देश में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की विशेष चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा। इस देश की यात्रा पहले भी मैं कई बार कर चुका हूँ और 1975 में पहली बार वहाँ पहुँचा था। हवाई अड्डे से शहर की ओर जाते हुए खुले मैदान में रामलीला का आयोजन देख चमत्कृत हुआ किन्तु अचरज हुआ यह देखकर कि मानस के दोहा चौपाई का धारा प्रवाह अंग्रेज़ी में रुपान्तर कर दर्शकों को सुनाया जा रहा था और जनसमूह इसका पूरा रसास्वादन भी कर रहा था । मूल चौपाई का हिंदी में सस्वर पाठ और फिर अंग्रेज़ी रुपान्तर के साथ खुले मंच पर पात्रों का अभिनय देखकर मुझे यह लगा कि नई पीढ़ी से हिंदी की डोर शायद टूट गई है और उसे फिर जोड़ना कठिन होगा । इसी यात्रा के दौरान नगर से दूर गाँधी आश्रम में आयोजित एक सभा में अपने विचार मैं हिंदी में व्यक्त कर रहा था कि कुछ नौजवानों ने उठकर नम्र भाव से कहा कि वे मेरी बात समझ नहीं पा रहे हैं और उन्होंने रोष भरे शब्दों में कहा कि हमारी पीढ़ी की इस असमर्थता के दोषी हैं वे बुजुर्ग जो आपके साथ मंच पर विराजमान हैं । वे स्वयं तो हिंदी भोजपुरी बोलते हैं किन्तु इन्होंने हमें इसे सीखने का अवसर ही नहीं दिया बल्कि स्वयं हम लोगों के साथ अंग्रेज़ी में बात कर हमें साहब बनाने की चेष्टा करते रहे और परिणाम अब यह हुआ कि हम साहब तो बन नहीं पाये पूरे हिन्दुस्तानी भी नहीं रहे । सभा के बाद मैंने तमाम लोगों से इस पर चर्चा की और नई पीढ़ी के दर्द को पहचानने के प्रयास किए मुझे लगा कि उपनिवेशवाद के अनेक अवसादपूर्ण अवशेषों में यह सबसे दुखद है एक व्यक्ति ही नहीं किसी पूरे समाज को अपनी अस्मिता से दिग्भ्रमित कर एक ऐसे मायाजाल में उलझा देने जहाँ उसकी आत्मा कराहती रहे, अपनत्व के सुखद संस्पर्श के लिए उसे अपनी अंतरात्मा को अभिव्यक्त करने की असमर्थता का बोध हो तथा अपनी बात को पराई भाषा में कहने की बाध्यता का अनचाहा भार ढोना पड़े । कुछ परिस्थिति ही ऐसी बनी कि इस देश की नई पीढ़ी को अपने इतिहास की उस त्रासदी को भोगना पड़ रहा है । लगभग दो हजार वर्ग मील के ट्रिनिडाड ट्वैगो में बारह तेरह लाख लोग निवास करते हैं । कुछ इतर जातियाँ भी हैं जैसे यूरोपीय और चीनी आदि किन्तु बाहुल्य तो भारतीय और अफ्रीकी का है और यदि इनमें सद्भाव और समरसता बनी रहे तो देश का कल्याण है अन्यथा पारस्परिक संघर्ष तो विनाश का मार्ग ही प्रशस्त करेगा । इस सत्य ही ओर सबसे अधिक ध्यान दिया है भारतीय समाज ने और इनका यह प्रयास लगातार जारी है ताकि इनकी किसी भी गतिविधियों का कोई गलत अर्थ नहीं लगाये । सबसे पहले 1845 में फाटेल रजाक नामक समुद्री जहाज से सवा दो सौ भारतीय ट्रिनिडाड की राजधानी पोर्ट ऑफ स्पेन पहुँचे और 1917 तक ऐसे प्रवासी भारतीयों की संख्या इस देश में लगभग डेढ़ लाख हो गई और पीढ़ी दर पीढ़ी इन भारतीयों ने तमाम कष्ट झेलकर भी इस देश को समृद्ध , सुखद और सुन्दर बनाया है । इनके संघर्ष की कथा भी उतनी ही दर्दनाक है जैसा कि अनेक देशों में इन आप्रवासी भारतीयों पर बीता और उनकी व्यथा का बड़ा ही जीवंत चित्रण इसी देश के बहुचर्चित, सुविख्यात लेखक वी.एस. नेपाल ने अपने उपन्यास (मिमिकमेन) के नायक राल्फ सिंह की मनोभावनाओं के माध्यम से किया है । अपनी धरती से उखड़कर नये देश में बसेरा और नये परिवेश में नई ज़िंदगी की शुरूआत करना कितना दुष्कर है, इसका विवरण सुनकर भी रोमांच हो जाता है किन्तु धन्य हैं हमारे देश भारत के लोग जो घोर विषम परिस्थितियों में भी अपना सही मार्ग चुन लेते हैं और अपनी साधना और प्रतिभा के बल पर शीर्ष पर पहुँच जाते हैं । वे इसका सारा श्रेय भारतीय दर्शन, अध्यात्म, हमारे जीवन मूल्य और तुलसी, सूर, मीरा तथा कबीर जैसे श्रेष्ठ कवि मनीषी को देते हैं जिन्होंने उनकी जीवन नौका को विकट झंझावत से निकालकर सुरक्षित गंतव्य तक पहुँचा दिया ।आज ट्रिनिडाड में सर्वत्र हरियाली, खुशहाली और सम्पन्नता दिखाई देती है । आज अठानवे प्रतिशत लोग शिक्षित हैं इस देश में और लगभग चार अरब डालर का इनका सफल घरेलू उत्पाद है । पेट्रोल, प्राकृतिक गैस और असफाल्ट की बहुतायत के साथ-साथ चीनी, कहवा, काफी, फल और सब्जी की भी इस देश को सुखी बनाने में प्रभावी भूमिका रही है । जीवन स्तर इनका किसी भी विकसित देश के समकक्ष माना जायेगा और आधुनिकता की हवा का पश्चिम में लहराना तो स्वाभाविक है ही फिर भी भारत वंशी अपने मूल्यों की महत्ता को जानते हैं और वे अपने पुरखों की विरासत को भुलाकर एक बहुमूल्य निधि से वंचित होना नहीं चाहते और इसी उद्देश्य को लेकर इस देश की संस्था हिंदी निधि ने यह अन्तरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित किया और इसमें भाग लेने भारत से पाँच तथा यूरोप, अमरीका, दक्षिण पूर्व एशिया एवं प्रतिवेशी देशों से अनेक विद्वान आए । यह सम्मेलन पूरे पाँच दिनों तक चला और इसकी अनेक विशेषताएं उल्लेख योग्य हैं किन्तु सबसे अच्छी बात थी समय की पाबन्दी और विषयों का निश्चित दायरे में बाँधकर चर्चा को प्रभावी बनाना । शुभारंभ तो सम्मेलन का देश के राष्टपति श्री नूर हसन अली ने रात्रिभोज के साथ किया और विधिवत् उद्घाटन हुआ प्रधानमंत्री पैट्रिक मैनिंग के भाषण से। श्री मैनिंग ने अपने भाषण में यह आश्वासन दिया कि हम अपने दल के घोषणा पत्र के वायदे के अनुसार ट्रिनिडाड में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्वस्था को सुदृढ़ बनाने को कृतसंकल्प हैं। चूकि हिंदी भोजपुरी तो इस देश की मिट्टी में रची बसी हैं और हम उसे अपनाये बिना महाभारत, भगवद् गीता जैसे महाकाव्य और तुलसीदास की रामायण और कालिदास जैसे महाकवि को कैसे जान पायेंगे। हमारे देश में अनेक जातियाँ हैं और उनकी सांस्कृतिक बारीकियों को अपनाकर हम अपने को, अपने बहुजातीय समाज को अपने राष्ट्र की विरासत को समृद्ध और संपन्न बनायें। हमारा यह सौभाग्य है कि हमारे पास इतनी समृद्ध सांस्कृतिक सम्पदा है और हमें चाहिए कि उन्हें आत्मसात कर अपने देश और समाज को सम्पन्न बनायें । यह सम्मेलन निश्चय ही समाज को एकता के सूत्र में बांधकर मानव के सामने आज जो अनेक चुनौतियाँ हैं उनका सामना करने की शक्ति हमें देगा। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि भाषा को सिखाने का काम प्रेम और सद्भाव द्वारा ही संभव है और हिंदी की तो सांस्कृतिक गरिमा एवं वैज्ञानिक महत्ता सर्वविदित हैं। आज सांस्कृतिक नवजागरण की लहर हमारे देश में परिव्याप्त है और ऐसी स्थिति में हिंदी निश्चय ही समाज को सभी समुदाय और जातियों को एक दूसरे के समीप लायेगी। आज इस देश में कितने ही अफ्रीका मूल के लोग रामायण और महाभारत का रसास्वादन कर रहे हैं ओर भारतीय मूल के लोग हमारे जातीय और धार्मिक समारोहों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं और यही है हमारे संबंधों का नया आयाम जिसे सम्पुष्ट करना हम सभी का कर्तव्य है। हिंदी निधि अपने आप में एक ऐसी संस्था है जो जाति और धर्म के संकुचित दायरे से दूर राष्ट्र की प्रतिनिधि संस्था बन गई है और यह सम्मेलन निश्चित ही हमारे देश की जातीय समरसता को सुदृढ़ बनायेगा, चूंकि भाषा सभी को जोड़ने का समर्थ साधन रही है। इस औपचारिक उद्घाटन के अवसर पर भारत के उप राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा और हमारे प्रधान मंत्री श्री पी.वी. नरसिंह राव का उत्साहवर्द्धक शुभकामना संदेश पढ़कर सुनाया गया और उसके तत्काल बाद सत्र प्रारम्भ हुए जिसमें एक अध्यक्ष और तीन चार विद्वान वक्ता अपना लिखित निबन्ध पढ़कर सुनाते तथा उन पर सक्षिप्त चर्चा सत्र के अंत में होती जिसें श्रोता की जागरूकता और इस तरह हमारी चर्चा जीवंत हो उठती तथा श्रोता की जागरूकता और अभिरुचि का प्रमाण भी हमें मिल जाता। इस सम्मेलन की एक विशेषता यह भी थी कि इसमें सभी वक्ताओं को अपना विचार हिंदी में नहीं अंग्रेज़ी में ही अभिव्यक्त करना था। इस पर विशद् चर्चा एक दिन पहले हुई थी और कुछ लोगों का अटपटा भी लगा कि अन्तरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में माध्यम अंग्रेज़ी हो किन्तु परिस्थिति ऐसी थी कि उसके बिना कोई उपाय नहीं था और आयोजकों ने यह साफ कहा कि ट्रिनिडाड में आज पाँच प्रतिशत से अधिक लोग हिंदी समझते नहीं अतः अंग्रेज़ी का सहारा लेना अनिवार्य है। यूरोप और अमरीका के लोगों यानी विद्वानों का तो यह रोचमर्रा का काम था और भारत सें गये प्रतिनिधियों ने भी इसे स्वीकार किया चूंकि भाषा कोई भी हो काम तो हिंदी का ही संपन्न हो रहा था। छह सत्रों में विभाजित इस सम्मेलन में हिंदी के विभिन्न पक्षों पर विचार-विमर्श हुआ और यूरोप तथा अमरीका से आये विद्वानों ने हिन्ही के विकास, इसकी राष्ट्रीय-अन्तराराष्ट्रीय भूमिका, इसके महान रचनाकारों द्वारा जनचेतना, राष्ट्र में नवोन्मेष तथा संसार में इस भाषा की महत्ता को अपने शोधपूर्ण आलेखों में रेखाकित किया। भारत के प्रतिनिधि मंडल में पाच व्यक्ति थे जिनमें से सांसद शंकर दयाल सिंह, इन पंक्तियों के लेखक और श्री राजेन्द्र अवस्थी ने पहले दिन ही तीनों सत्रों की अध्यक्षता की तथा श्री यशपाल जैन, प्रो. माजदा असद ने अपने खोजपूर्ण लेख सम्मेलन में प्रस्तुत किये । इस सम्मेलन के विचार विमर्श का दायरा बड़ा ही व्यापक था और हिंदी के अनेक प्रश्रों पर विद्वतापूर्ण, गवेषणात्मक और समीक्षात्मक भाषण हिंदी की व्यापक, लालित्य और उपादेयता के प्रबल प्रमाण थे । भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध, खड़ी बोली तथा भारत की क्षेत्रीय भाषाओं की परम्परा और अनेक साहित्यिक महत्व पर प्रकाश डाला । भारत के ही प्रो. हरीश नवल ने अपने लेख में हिंदी भाषा को एकता का उपादान बताया और प्रो. माजदा असद ने हिंदी भाषा और साहित्य को हमारी एकता और सामासिक संस्कृति का प्रतीक कहा । कनाडा से आये प्रो. क्रिस्टोफर किंग ने भारतेन्दु हरिशचन्द्र और देवकी नन्दन खत्री का उल्लेख करते हुए दोनों की लेखन शैली का विवेचन प्रस्तुत किया तथा हंगरी की प्राध्यापिका ईवा अरादी ने भारतीय साहित्य में हिंदी की वर्तमान भूमिका के संदर्भ में प्रेमचन्द का उल्लेख किया और कहा कि प्रेमचन्द जी यह भली प्रकार जानते थे भारत में हिंदी और उर्दू का कोई विवाद नहीं वरन् सारा मसला अंग्रज़ी और राष्ट्र भाषा को लेकर है । इस बिन्दु की ओर प्रो. किंग ने भी संकेत किया । एक वक्ता ने तो यह भी कहा कि ग्रियर्सन जैसे व्यक्ति ने हिन्द, उर्दू और हिन्दुस्तानी को सामाजिक सांस्कृतिक आधार पर तीन भाषाओं के रुप में प्रस्तुत किया और दरअसल यह भारतीय जन समूह को बाँटने की एक चाल थी । इटली की प्रो. मरियोला अफरीदी ने पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रियता के प्रचार-प्रसार में बाल कृष्ण भट्ट के अद्भुत योगदान की विस्तृत व्याख्या की और यह बताया कि उनकी कलम लगातार महिलाओं के उत्थान, समाज सुधार तथा अंग्रज़ी शासन के भेदभाव पूर्ण उपनिवेशवादी नीति पर कटाक्ष करती रही औ रइस विचार का समर्थन पोलैंड के प्रो. ब्रिस्की ने भी अपने भाषण में किया और कहा कि भाषा को हम अपनी चिंतन प्रक्रिया से अलग नहीं रख सकते किन्तु आजाद़ी के बाद भारत ने ब्रिटिश पद्धति को प्रशासन के क्षेत्र में बनाये रखा ताकि उद्योग के क्षेत्र में उन्नत देशों के समूह में वह शामिल हो सके । यद्यपि गाँधीजी पूरी पद्धति में बदलाव के पक्षधर थे। जर्मनी के तेजस्वी विद्वान डॉ. लोथार लुत्से ने बड़े प्रभावी ढंग से यह प्रतिपादित किया कि हिंदी अपने जनजीवन की उनमुक्तता, उदारता, सुन्दरता एवं बौद्धिक सम्पदा के कारण इतनी समृद्ध है कि उसे अपने संसार की महत्वपूर्ण भाषाओं में एक मानते हैं । भाषा एक और राजनीति की ओर देखती है और दूसरी ओर साहित्य की ओर । इसका दूसरा पक्ष निश्चय ही नितांत सत्यनिष्ठ होता है । उन्होंने रघुवीर सहाय की कविता का उद्धरण देकर अपने कथन की पुष्टि की और प्रो. लुत्से के वक्त्व्य ने श्रोताओं को चमत्कृत और आह्लादित किया । बाहर से आये प्रतिनिधियों में प्रो. इकबाल ने कोरिया में हिंदी की स्थिति पर प्रकाश डाला, सूरीनाम के डॉ. ज्ञान अदीन और महातम सिंह ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि एक से अधिक भाषा का ज्ञान हमारे व्यक्तित्व को नई निखार देता है और हमें अपने भीतर एक पूर्णता का आभास होने लगता है। हालैण्ड के प्रो. मोहन कुमार गौतम ने तो भारत से सूरीनाम तक की हिंदी की यात्रा का जीवंत वर्णन प्रस्तुत कर यह सिद्ध किया कि हिंदी का ज्ञान इस देशों ने सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है। लंदन से आये प्रो. सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने अपने भाषण में यह बताया कि एशिया के देशों से आये ब्रिटेन निवासी समूहों के बीच भाषा-ज्ञान, उसके पठन-पाठन की व्यवस्था, नई और पुरानी पीढ़ी के अन्तराल, विभिन्न सांस्कृतिक परिवेश और भिन्न जाति समूहों के मध्य पारस्परिक आदान-प्रदान के परिप्रेक्ष्य में वहाँ हिंदी की स्थिति संसार के अन्य देशों से बिल्कुल भिन्न है और इस कार्य में लगे लोग नित्य नई उलझनों से मनोयोग पूर्वक निबट रहे हैं। फिनलैण्ड से आये प्रो. मोहन लाल सर ने “हिंदी में विनम्र एवं शिष्ट अभिव्यंजना” की चर्चा करते हुए उपनवेशवादी शासकों से अपनी परम्परा के टकराव का इतिहास बताया और इसी बिन्दु पर प्रो. बूदेव शर्मा और मोहन शाम लाल ने भी अपने विचार व्यक्त किये। ट्रिनिडाड में हिंदी प्रयोग के सूत्रधार कमालुद्दीन मोहम्मद ने अपने जीवन वृत्तान्त के माध्यम से ट्रिनिडाड में हिंदी के उतार-चढ़ाव की कहानी सुना दी- यानी इस देश का पूरा सामाजिक सांस्कृतिक इतिवृत्त। सम्मेलन में चर्चा अवधि गति से चलती रही और उनमें कुछ ऐसे उत्साहवर्द्धक आलेख भी आये जो ट्रिनिडाड में हिंदी की पुनः प्रतिष्ठा के लिए अत्यन्त उपादेय सिद्ध होंगे। अमरीका में हिंदी के प्राध्यापक प्रो. सुरेन्द्र गम्भीर का आलेख इस दृष्टि से बड़ा ही समीचीन था। उन्होंने कहा कि संस्कृति का एक प्रमुख अंग है भाषा और ट्रिनिडाड में भारतवशियों ने अपनी सामाजिक परम्पराओं और संस्कृति को जीवित रखा है। किन्तु अनेक ऐतिहासिक सामाजिक कारणों के भाषा की रक्षा यहाँ नहीं हो सकी यानी क्रियोल ओर अंग्रेज़ी के निरन्तर प्रयोग ने हिंदी को यहाँ पीछे छोड़ दिया लेकिन अब यह चेतना लौट आई है कि अपने पुरखों की भाषा हिंदी भोजपुरी को हम यहाँ पुनर्जीवित करें। उन्होंने अपने खोजपूर्ण आलेख में बताया कि इस देश में अधिकांश लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से आये और इस सदी के तीसरे चौथे दशक तक भोजपुरी हिंदी का प्रयोग पूरे धड़ल्ले के साथ पूरे समाज में हाता था किन्तु आज स्थिति ऐसी है कि पुरानी पीढ़ी के जो लोग हैं, वे तो हिंदी का प्रयोग सीमित दायरे में अभी भी करते हैं किन्तु शहरी समाज तो इससे पूर्णतया बंचित है और विशेषकर नई पीढ़ी तो पूरी अनभिज्ञ यानी मध्यम आयु वर्ग के लोग तो इसे समझ लेते हैं किन्तु नौजवान तो सिर्फ क्रियोल और अंग्रेज़ी पर ही निर्भर हैं चूंकि उन्हें तो इसे सुनने, लिखने, पढ़ने और सीखने का कोई अवसर ही नहीं मिला। प्रो. गम्भीर ने कहा फिर भी इसमें कोई निराशा की बात नहीं चूंकि यदि हिबू जैसी भाषा को पुनर्जीवित किया जा सकता है तो हिंदी का पुनरुत्थान ट्रिनिडाड जैसे देश में सहज ही संभव और सुगम है। उन्होंने अपने अध्यययन, अनुभव और प्रयोग के आधार पर बताया कि ट्रिनिडाड में भोजपुरी-हिंदी को नवजीवन प्रदान करने के लिए राज्य ओर समाज को मिलकर प्रयास करना होगा तथा किसी भी प्रकार के टकराव से बचते हुए सबसे पहले हिंदी को अपने दैनिक जीवन में उतारना होगा यानी भाषा जब तक बोली न जाये तो उसके जीवंत होने का और प्रमाण क्या हो सकता है। इसी संदर्भ में मुझे ट्रिनिडाड के विदेश मंत्री श्री राल्फ महाराज के भाषण का वह अंश याद आ रहा है जब उन्होंने कहा कि मैं अपने बचपन में हिंदी जानता और बोलता था और मुझमें शायद तब कुछ कवि-प्रतिभा भी थी। एक दिन मैंने अपनी नानी से कहा था- “नानी, तोर बकरी अब हम ना पकड़ी”। इस एक कथन के माध्यम से उन्होंने ट्रिनिडाड में हिंदी के समाप्त प्राय होने की कहानी भी सुनादी। गाँव से शहर पहुँच कर हिंदी कैसे पीढ़ी दर पीढ़ी छूटती गई यही उनका आशय था किन्तु उन्होंने कहा कि हिंदी को हिन्दू के साथ जोड़ना मुनासिब नहीं होगा, दरअसल इस भाषा के माध्यम से प्राप्त ज्ञान हमारे समस्त राष्ट्र का पथ आलोकित करेगा और उन्होंने कहा कि हमारी सरकार ने राजधानी के प्रमुख क्षेत्र में पाँच एकड़ भूमि आबंटित कर, भारत सरकार के सहयोग से गाँधी सांस्कृतिक संस्थान बनाने का निश्चय किया है और आवश्यकता आज इस बात की है कि हिंदी के अध्येता और विद्वान इस भाषा के प्रचार-प्रसार में सर्वधर्म समभाव का दृष्टिकोण निरन्तर बनाये रखें और जिस हिंदी भाषा के बल पर इस देश में कभी हिन्दू धर्म की रक्षा हुई उसके माध्यम से भविष्य में समग्र राष्ट्र का भी कल्याण निश्चय ही होगा। इस सम्मेलन के आयोजन मात्र से पूरे देश में यह आशा जगी है कि अब तक जो कठिनाइयाँ हिंदी के मार्ग में थीं वे धीरे-धीरे दूर होंगी और हम सभी इस देश में हिंदी को पुनर्जीवित पायेंगे । इन विशिष्ट विद्वानों, शोधकर्ताओं, प्राध्यापकों, राजनेता और पत्रकारों के अतिरिक्त एक ऐसे वक्ता भी इस सम्मेलन में आए, ट्रिनिडाड के सर्वाधिक तेजस्वी व्यक्ति, भारतवंशियों के सबल-सक्षम पक्षधर, संसद में विपक्ष के नेता श्री बासुदेव पाण्डे। उन्होंने उस देश में हिंदी के विलुप्त होने के अनेक राजनीतिक सामाजिक कारण बताये और उनकी दृष्टि में हिंदी को मिटा देने का पूरा एक सुनियोजित षड़यंत्र वहाँ चल रहा है। हिंदी के विरोधी इस देश में यह कहते है कि जब भारत में ही हिंदी की विशेष उपयोगिता सिद्ध नहीं हो पाई फिर इसके सीखने से हमें ट्रिनिडाड में क्या लाभ होगा । उनका दूसरा तर्क है कि हिंदी की पढ़ाई स्कूलों में प्रारंभ करने पर चीनी और अफ्रीकी मूल के लोग अपनी भाषा की माँग करने लगेंगे और इसके परिणामस्वरूप समाज की एकता भंग होगी। इस प्रकार के तर्क देने वाले लोग हिंदी के प्रचार प्रसार को समानता और न्यायसंगत अधिकार के हमारे संघर्ष का हिस्सा मानते हैं ओर उनका हित साधन तो उपनिवेशवादी व्यवस्था के अवशेषों को कायम रखने से ही संभव है । हमारा इतिहास हमें बताता है कि आजादी के पहले इस देश में मुट्ठी भर ऐसे लोग थे जिनका हमारी अर्थवस्था पर पूरा अधिकार था, वे ही समाज के अगुआ भी थे । पहले तो हम उनका वर्ण (गौर) देखकर पहचान लेते थे लेकिन अब उनके पदचिन्हों पर चलने वाले सभी वर्ण के चन्द लोगों में यह भावना काम कर रही है कि हम समाज को “बांटो और राज करो” की नीति का अनुसरण कर अर्थतंत्र पर अपना आधिपत्य बनाए रखें । इस वर्ग का यही प्रमुख उद्देश्य है कि अफ्रीका मूल के लोगों के साथ भारतवंशियों का मेल मिलाप होने नहीं दें ताकि वे अलग-अलग रहकर कमजोर बने रहें और हम स्थिति का लाभ यथावत् उठाते रहें । श्री पाण्डे ने कहा कि पैसा ओर प्रचार तंत्र दोनों पर उनका कब्जा है अतः किसी भी कार्य में हमारी कठिनाई बड़ जाती है । यह उसी समुदाय का प्रचार है कि इस देश की सारी भूमि पर भारतीयों का कब्जा है और यदि राजनैतिक सत्ता भी उनके हाथ आ गई तो दूसरी जातियाँ कष्ट में पड़ जायेंगी । उद्घाटन के अवसर पर पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार मैंने भारत के उप राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा का शुभकामना संदेश पढ़कर सुनाया और उसके बाद आये ट्रिनिडाड के लोकप्रिय नौजवान नेता श्री रवि जी( रवीन्द्र नाथ महाराज) इन्हें भारत के प्रथान मंत्री श्री पी.वी. रनसिंह राव का संदेश सुनाना था । दो चार शब्द बोलने के बात रवि जी भाव विह्वल हो गये और आँखों में अश्रु की धारा लिये बैठ गये, फिर हमारे प्रधान मंत्री जी का संदेश सुनाया अपने राजदूत प्रो. लक्ष्मणा ने और खोजबीन करने पर मुझे हिंदी निधि के अध्यक्ष श्री सीताराम ने बताया कि रवि जी हमारी निधि के प्राण हैं और पूरी निष्ठा से इस सम्मेलन को सफल बनाने में लगे रहे हैं- आज जब यह असंभव सा दीखता समारोह मूर्तरुप में उनके सामने आया तो उन्हें आश्चर्य हुआ । हर्षातिरेक इसलिए कि कभी हमने यह सोचा भी नहीं था कि भारत जैसे विराट देश की इतनी बड़ी हस्ती यानी प्रधान मंत्री का संदेश कभी हमारे हाथ आयेगा । इसी अपूर्व उपलब्धि ने रवि जी को चरम आनन्द की स्थिति में पहुँचाया और वे मंच पर बोल नहीं पाये । इस सम्मेलन के आयोजकों की निष्ठा, तत्परता और आत्मीयता के साथ-साथ कर्तव्य परायणता को देखकर ऐसा लगता था जैसे भारतीय मूल की यह नई पीढ़ी उन सभी अधिकारों को प्राप्र करने में सक्षम है और सफल होगी जिनसे उपनिवेशवादी ताकतों ने इनसे पहले की पीढियों को वंचित रखा। भला ऐसा देश जहाँ हिंदी का पठन पाठन वर्षों से बाधित रहा हो वहाँ अन्तरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन करना क्या साधारण उपलब्धि हो सकती है । सम्मेलन भी ऐसा जहाँ राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री विदेश मंत्री, संसद के अध्यक्ष, विरोधी दल के नेता, संसद सदस्य, पत्रकार, प्राध्यापक, लेखक, विचारक और पन्द्रह देशों के प्रतिनिधि उपस्थित हों और सभी ओर प्रेम तथा भाई-चारे का भाव बराबर बना रहे । आयोजकों ने यह भी व्यवस्था की थी की सभी विदेशी प्रतिनिधि अलग-अलग परिवारों के अतिथि हों ताकि कहीं किसी को कष्ट न रहे । मुझे और साहित्यकार सांसद शंकर दयाल सिंह को हिंदी निधि के अध्यक्ष श्री च. सीताराम ने अपने घर ठरहाया और श्री यशपाल जैन और श्री राजेन्द्र अवस्थी श्री इदु अमीर के घर ठहरे । प्रो. माजदा असद को तो संसद की अध्यक्षा श्रीमती उषा शिवपाल अपने घर ले गईं और इसी प्रकार भाषा के बहाने भाई-चारे की भाव-भूमि भी सुदृढ़ हुई। भारत के मेहमान जैसे अपने ही घर टिक कर एक नई उभरती पीढ़ को दूर देश मे नई चुनौतियों का सामना करते देख पाये और इसने दो देशों कि अपनेपन को भी सुदृढ़ बनाया । मैंने अपने आतिथेय का नाम बराबर सुना “चांका सीताराम”। मुझे अचरज हुआ और उनसे पूछने पर पता चला कि दरअसल उनका नाम चन्द्रिका सीताराम है लेकिन पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में भ्रान्त धारणा भी खूब प्रचारित होती है कि यदि इस देश में कोई भारतीय कभी प्रधान मंत्री बना तो पुलिस और सेना बगावत कर देगी। विदेशी शासन ने ही अफ्रीकी मूल के लोगों को उनकी अपनी संस्कृति से काटकर अपने धर्म और अपनी पश्चिमी संस्कृति में सराबोर कर दिये किन्तु बचे रह गये- ये हिन्दुस्तानी जो उनके जाल में न तब फंसे और न अब फंसते दिखाई पड़ते। इसी पृष्ठभूमि में हिंदी को देखना होगा जो राजनीति के अखाड़े में गेंद की तरह उछाली जाती है और बार-बार किये गये वायदों के बावजूद जाति, धर्म, वर्ण और राजनीति के दलदल में फंस-फंस जाती है। लेकिन जब हमारा यह संकल्प है कि हम हिंदी सीखेंगे, पढ़ेंगे, लिखेंगे तो हमें कोई रोक नहीं सकता। मैंने स्वयं अपने गाँव के एक बुजुर्ग से हिंदी सीखी, हिंदी की प्रारम्भिक पुस्तकें मंगाई, फिर पत्राचार पाठ्यक्रम और लिंग्वाफोन का सहारा लिया। आज भी हिन्दू महासभा के अनेक स्कूल हैं उनसे भी अधिक मन्दिर और मस्जिद हैं और अपने को ही हमारे हितों के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। उत्तर स्पष्ट है कि हम हिंदी के प्रचार प्रसार के अपने प्रयास को समानता और वाजिब हकों के अपने संघर्ष के साथ जोड़कर चलायें आखिर हिंदी को भी फ्रेंच,स्पैनिश, लैटिन और ग्रीक की तरह पढ़ाये जाने का हक तो हासिल होना ही चाहिए। श्री वासुदेव पाण्डे के इन विचारों का समर्थन अनेक लोगों ने किया चूंकि वे उस देश कि सर्वश्रेष्ठ जुझारू नेता हैं और उनका मानना है कि उस देश की राजनीतिक शब्दावली में “नमक हराम” शब्द का अवदान नितांत उनका अपना योगदान है। उन्होंने सम्मेलन के आयोजन को एक शुभ संकेत बताया और कहा कि इस प्रकार के विचार विमर्श द्वारा ही हिंदी के प्रचार प्रसार का मार्ग प्रशस्त करेंगे और हिंदी निधि के पार्यकर्त्ता निश्चय ही धन्यवाद के पात्र हैं। सम्मेलन में विभिन्न विषयों पर सांगोपांग चर्चा केबाद कई प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुए जिनमें प्रमुख थे-हिंदी के पठन पाठन की व्यवस्था को ट्रिनिडाड में सुदृढ़ करना, राष्ट्र संघ की मान्यता प्राप्त भाषाओं में हिंदी को स्थान दिलाना तथा 1994 में जब भारतीयों के ट्रिनिडाड आगमन के डेढ़ सौ साल पूरे हों तब हिंदी निधि एक अन्तरर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन करे। इस पूरे सम्मेलन का शुभारंभ और समापन समारोह पूरे स्नेह और सद्भाव के वातावरण में सम्पन्न हुआ । पहलेदिन ही उद्घाटन के अवसर पर इस बात कासंकेत सभीकोमिल गयाथा कि ट्रिनिडाड के लोग भले ही अब हिंदी बोलने में समर्थ सक्षम नहीं हैं किन्तु उनकाभारत प्रेम किसी इसे “चांका” बनादिया और इसी प्रकार अनेक शब्द अपना मूल रूप छोड़कर कहां पहुँच गये हैं कि उनकी खोज करना भी आसान नहीं रहा फिर भी हमारे सांस्कृतिक नवजागरण और अपनी जड़ों की खोज से एक नई ऊर्जा नई पीढ़ी में उदित हो रही है जो हमें अपनी मंजिल तक पहुंचा देगी। उनके घर में भी जो साज सज्जा थी उसमें अधिकांश भारत का प्रतिनिधित्व था और वैसा ही साज संगीत, भोजन-व्यंजन, वेश भूषा और सबसे ऊपर “अतिथि देवो भव” की भावना । भावना के साथ-साथ अभी भाषा भी तो कुछ कुछ बची ही है और आज भी उनकी बोलचाल में चूल्हा, तवा, कलछुल,भात, दाल, चटनी, तरकारीसधान,मचान,करिखा,सतुआ, झाखी, झटहा, हंसुली, आजा, झगड़ा, वासी, पूजा, प्रसाद, लकरपेज, गंदा, ज्ञान, पागल और नमकहराम जैसे शब्द तो आमफहम हैं फिर कुछ लोग अभी भी हिंदी बोल ही लेते हैं। अतः मन्दिर, मस्जिद, ईद, दीवाली, होली, फगवा, शिवरात्रि, जन्माष्टमी, रामनवमी, दुर्गापूजा आदि का सहारा लेकर हि्दी अपनी पुरानी स्थिति को प्राप्त कर लेगी इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। सम्मेलन के आयोजनक इस बात से बड़े प्रसन्न थे कि भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् ने अपने पाँच प्रतिनिधि भेजे और उनका मार्ग व्यय भी भारत सरकार ने दिया। यह बात उनको अधिर अच्छी इसलिए बी लगी चूकि विदेशी प्रतिनिधियों में से अधिकांश के मार्ग व्यय का दायित्व हिंदी निधि को वहन करना पड़ा और वे कृतज्ञ थे कि भारत के उप राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने अनपा संदेश और प्रतिनिधि मंडल भेजकर ट्रिनिडाड का मान बढ़ाया। इस अन्तरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के समाप्त हो जाने के बाद मुझसे ट्रिनिडाड के ऐसे सुपठित और ज्ञानी सज्जन मिलने आये जिन्होंने बताया कि इस देश में हिंदी सदियों से संघर्ष करती आई है और अब भी हमारा रास्ता निष्कंटक हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने बताया कि आज से पचास साल पहले एक मताधिकार आयोग का गठन हुआ था जिसने यह सिफारिश की थी कि इस मुल्क में जिन्हें अंग्रज़ी का ज्ञान नहीं है उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। यदि यह बात मान ली जाती तो हमारे हिन्दुस्तानी भाई जो अधिकांशतः गांवों में रहते हैं-वे तो वैसे ही अपने अधिकार से वंचित हो जाते किन्तु हमने हिंदी का दामन थामें रखा चाहे इसे लिए हमें अंग्रेज शासकों या उनके अंध भक्तों की लाख प्रताड़ना सहनी पड़ी। कदम कदम पर हमें यह उपेदश दिया गया कि हम अपना धर्म, अपनी संस्कृति और अपनी भाषा को भुलाकर उस महासमुद्र में विलीन हो जायें जहां हमारी अपनी पहचान मिट जाये और हम वैसे हीबन जायें जैसा हमारे मालिक हमारे स्वामी हमें बनाना चाहते हैं लेकिन हमारे परखे तो उस माटी की उपज थे जहाँ राम, कृष्ण, अशोक, अकबर, गाँधी और नेहरू पैदा हुए थे और हमारे साथ थे सूर, तुलसी,कबीर, और मीराष हम उन संत महापुरुषों की वाणी को अपना गलहार बनाकर बड़ी से बड़ी विपदा को झेल जाने की शक्ति रखते हैं ौर यही कारण है कि इस मुल्क की आजादी के पूर्व और बाद में भी जो चुनाव हुए उसमें हमने यह दिखा दिया कि हम तमाम जातियों के साथ प्रेम और सौहार्द्रपूर्वक भाई-भाई की तरह रहा जानते हैं यह हमारा कर्तव्य है, किन्तु हम अपनी अस्मिता को मिटने नहीं देंगे और हमारी पहचान की प्रतीक है हमारी भोजपुरी हिंदी। यदि यहीमिट गई, तो हमारा बचना क्या और मिटना क्या। उन्होंने ही बताया कि आजादि के बाद धीरे-धीरे यह बात सभी मानने लगे हैं कि हिंदी को मात्र एक जाति की भाषा के रूम में या राष्ट्रीय, जातीय समरसता के बाधक तत्व के रूप में देखते परखते रहे तो यह एक ऐतिहासिक भूल होगी और यदि हमने राष्ट्र की शक्ति, एकता के सूत्र में इसे स्वीकार किया तो हमारा देश निश्चय ही अधिक सम्पन्न और शक्तिशाली बनेगा। सम्मेलन कराने वाली संस्था हिंदी निधि ने तो यह घोषणा पहले ही कर दी है कि इस देश में रहने वाले तमाम लोग अपने पुरखों के देश की भाषा का ज्ञान अर्जितकरें, हम एक दूसरे की भाषा क भी जाने और सीखें ताकि हमारी आपसी समझदारी बढ़े और कटुता की सभी गांठे कट जायें। सरकार भी इस सच्चाई को स्वीकार करती है और इसीका प्रमाण है कि “दिवाली नगर” के लिए हमें पन्द्रह एकड़ जमीन दी गई है और उसे हम ऐसा केन्द्र बना रहे हैं जहां भारतीय संस्कृति की विशिष्टता, उसकी गरिमा और सुवास का आनन्द लेने एक दिन अमरीका और यूरोप के अनेक लोग आयेंगे। हिंदी और हिन्दुस्तानी की महत्ता को दर किनार कर इस देश में कोई बहुत कुछ नहीं कर पाया और इसके प्रमाणस्वरूप उन्होंने हमेंबताया कि इस देएश में जब धर्मान्तरण की लहर चल रही थी तो सभी मिशनरी विफल रहे और कुछ सफलता मिली भी तो कनाडा के मिशन को जिसने धर्मप्रचार के लिए न्दी कासहारा लिया। हमारे हृदयच का द्वार तो हिंदी की दस्तक ही खोल सकती है और हमें पूरी आशा है कि हमारे पुरखों का देश, जहां भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति महामान्य डॉ. शंकर दयाल शर्मा और यशस्वी विद्वान महामान्य नरसिंह राव जैसे भारत के कर्णधार विद्यमान हैं वहाँ से हमें अपनी भाषायी सासंकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में कभी बाधा नहीं आयेगी । चूँकि यह मात्र हमारी अपेक्षा ही नहीं बल्कि हमारा अधिकार भी है। हिंदी की अभिवृद्धि, उसका अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में विकास हमारे भारत देश के प्रेम और भाई चारे का संदेश है और हम सभी चाहते है कि “वसुधैव कुटुम्बकम्” का उदार उदात्त भाव, भारतीय भाषा और संस्कृति संसार के कोने में पहुँचे तथा कलह, कोलाहल से परिव्याप्त आज का मानव संसार सच्चा त्राण पाये और उसके समग्र कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो। |
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