वैसे तो यह मामला काफी समय से उठता रहा है पर हाल के दिनों में सुप्रसिद्ध पत्रकार, स्तंभकार ख़ुशवंत सिंह के पिता शोभा सिंह द्वारा सरदार भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने और उसके आधार पर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे वीर देशभक्तों को फांसी की सजा होने की बात काफी चर्चा के है. यह बात खास कर तब अधिक तेजी से उठी थी जब दिल्ली में कनॉट प्लेस के पास जनपथ पर बने विंडसर प्लेस का नाम सर शोभा सिंह के नाम पर कर दिये जाने की बात चली.
इस पर सारे देश से इस तरह की आवाजें उठीं कि एक ऐसे आदमी को, जिसकी गवाही के कारण सरदार भगत सिंह जैसे महान देशभक्त को फांसी हुई, आज हमारा आजाद हिंदुस्तान सम्मानित कर रहा है, इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात क्या हो सकती है. वैसे इस पूरी बात में एक भारी तथ्यपरक त्रुटि भी है जिसे स्पष्ट करना जरूरी समझता हूँ. दरअसल सरदार भगत सिंह अंग्रेजों द्वारा जब बटुकेश्वर दत्त के साथ केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने के लिए 8 अप्रैल, 1929 को गिरफ्तार किये गए थे तो पहले उन पर बम फेंकने से सम्बंधित मुक़दमा चला था. इस अपराध के लिए उन्हें और दत्त को आजीवन कारावास की सजा 12 जून 1929 को सुनाई गयी. उनकी गिरफ़्तारी के बाद 15 अप्रैल 1929 को लाहौर में 'लाहौर बम फैक्टरी' पकड़ी गयी, जिसमे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कुछ लोग भी पकडे गए.
इन लोगों को इस बम फैक्टरी के साथ पुलिस अधिकारी जे पी सौन्डर्स की हत्या से भी जोड़ दिया गया और भगत सिंह पर सौन्डर्स की हत्या से सम्बंधित मुक़दमा चला जिसे 'दूसरा लाहौर कौंसपीरेसी केस' कहते हैं. इस केस में ब्रिटिश सरकार ने अलग से एक ओरडीनेंस ला कर तीन हाई कोर्ट जजों की कमिटी नियुक्त कर दी, जिसे भगत सिंह आदि ने अवैधानिक कहते हुए हाई कोर्ट में चुनौती दी पर इनके रिट को अमान्य कर दिया गया. जिस तरह से भगत सिंह और उनके दो जांबाज़ साथियों को दूसरा लाहौर कौंसपीरेसी केस में फांसी की सजा और तमाम अन्य लोगों को लंबे कारावास हुए उस को ले कर आज तक बहुत सारे कानूनविद संतुष्ट नहीं है और यह मानते हैं कि ब्रिटिश हुकूमत ने किसी भी प्रकार से भगत सिंह को खत्म करने के लिए कानूनी प्रक्रिया से छेड़-छाड की. मैंने पूरा निर्णय और पूरी प्रक्रिया नहीं पढ़ी है इसीलिए इस विषय में अपनी राय नहीं दे सकता हूँ. लेकिन एक बात जो साफ़ है वह यह कि भगत सिंह और उनके दो साथियों को सौन्डर्स हत्याकांड में सजा-ए-मौत हुई थी, ना कि एसेम्बली बम कांड में. और शोभा सिंह ने अपनी गवाही एसेम्बली बम कांड में दी थी, सौन्डर्स हत्या कांड में नहीं.
यह तो एक ऐतिहासिक तथ्य मात्र है, उससे अधिक कुछ भी नहीं क्योंकि यदि शोभा सिंह ने एसेम्बली बम कांड में भी भगत सिंह के खिलाफ गवाही दी, तो बात अपने आप में महत्वपूर्ण तो है ही. लेकिन साथ ही इसके दो पहलू हैं. पहली बात तो यह कि वह गवाही झूठी थी अथवा नहीं. जहां तक मैं जानता हूँ इस बारे में यह आरोप नहीं लगा है कि शोभा सिंह ने झूठी गवाही दी. खुशवंत सिंह ने भी अपने लेखों और अपने बयानों में यही कहा है कि मेरे पिता एसेम्बली के दर्शक दीर्घा में उस वक्त मौजूद थे और उन्होंने दो लोगों को बम फेंकते हुए देखा था, जिन्हें वे उस समय तक नहीं पहचानते थे पर बाद में देखने पर पहचान लिया. मेरी जानकारी के अनुसार दूसरे लोगों ने भी इस बात को चुनौती नहीं दी है, जिससे आम तौर पर यह संभव दिखता है कि घटना के समय शोभा सिंह एसेम्बली में मौजूद थे.
यदि हम दो बातों पर सहमत होते है कि शोभा सिंह एसेम्बली में घटना के वक्त मौजूद थे और उनकी गवाही से सरदार भगत सिंह को मृत्युदंड की सजा नहीं मिली थी, तब भी एक सवाल अपने आप में महत्वपूर्ण बना रहता है- क्या शोभा सिंह को यह गवाही देनी चाहिए थी? सनद रहे कि यह तीसरा सवाल तभी उठता है जब पहले दो सवाल को लेकर कोई मतभेद ना हों, खास कर सच्ची गवाही को ले कर. यदि शोभा सिंह वहाँ मौके पर मौजूद नहीं थे और उन्होंने फिर भी पुलिसिया गवाह की तरह शासन को खुश करने को यह गवाही दी होगी तब तो उससे जघन्य कुछ भी नहीं कहा जा सकता, पर यदि ऐसा नहीं था (जिसकी पर्याप्त सम्भावना दिखती है) तो बात अंत में गवाही की नैतिकता पर आ कर टिक जाती है.
इस जगह मेरी राय थोड़ी हट कर है. इस बातों में कोई मतभेद नहीं कि सरदार भगत सिंह कौन थे, उनका क्या ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व है एवं अन्य क्रांतिकारियों की इस देश की स्वतंत्रता और इसकी वर्तमान दशा में कितना महान योगदान है. पर यदि एक तरफ ये लोग अपना-अपना काम अपनी-अपनी सोच के अनुसार कर रहे थे तो दूसरी तरफ शोभा सिंह वहाँ मौजूद थे, उन्होंने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को पहचान लिया और इसकी गवाही कोर्ट में दी तो क्या उनका यह कार्य पूरी तरह गलत कहा जाए. पहली बात तो यह कि वे कानूनन गलत नहीं थे क्योंकि वे तत्कालीन क़ानून की मदद कर रहे थे और वही कह रहे थे जो सत्य था. एक तरह से यह उनका कर्तव्य था जो उन्होंने निभाया.
दूसरी बात यह कि क्या यह आवश्यक था कि जब उन्होंने इन दोनों लोगों को बम फेंकते हुए देखा था तो वे झूठ बोलते. तीसरी बात यह कि जब स्वयं भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त उस स्थान से नहीं भागे और स्वयं को गिरफ्तार कराया तो यदि शोभा सिंह ने उनकी गवाही दी तो इसमें गलत क्या माना जाए? चौथी बात यह कि यदि हम शोभा सिंह को एक सच बोलने के लिए गुनहगार मान रहे हैं तो क्या यह हम सबो के विरुद्ध नहीं जाता है. यदि शोभा सिंह भगत सिंह के मित्र या परिचित होते अथवा वादा-माफ़ी गवाह बन गए होते या उनसे पूर्व में कोई समझौता रहा होता, जिसे उन्होंने तोड़ दिया होता तब तो अपनी बात से मुकरने का उन पर गहरा दोष लग सकता था पर एक अपिरिचित व्यक्ति पर तत्कालीन क़ानून के विरुद्ध कार्य करने की दशा में गवाही देना किस तरह से गलत माना जाए?
आज हमारे देश में कई सारे लोग, अलग-अलग उद्देश्यों से कई तरह के काम कर रहे है, जिन्हें हम विधि-विरुद्ध और गैर-कानूनी कहते हैं. क्या ऐसे में हम नहीं चाहते हैं कि हमें इन घटनाओं में ऐसे अभियुक्तों को सजा दिलाने के लिए सही गवाह मिलें? हो सकता है इनमे से कई लोग अपनी जगह भगत सिंह की तरह ही पूजे भी जाते हों पर एक देश का क़ानून तो वही माना जाएगा जो उस समय रहा हो. फिर यदि किसी व्यक्ति ने उस क़ानून की मदद की और सच्ची गवाही दी तो उस खास कार्य को सिरे से नकार देना, उसकी तीखी भर्त्सना करना और उसे देशद्रोह करार देना बाहरी तौर पर आकर्षक तो लगता है पर उचित हो यदि हम इसे अपनी पूर्णता में देखें.
मैं नहीं कह रहा कि शोभा सिंह कभी झूठ नहीं बोलते होंगे, वे बहुत सच्चे आदमी रहे होंगे, उन्होंने बड़ी नेकनियति से यह गवाही दी होगी अथवा वे बड़े न्यायप्रिय व्यक्ति रहे होंगे. मैं तो मात्र यह कह रहा हूँ कि वे कैसे भी आदमी रहे हों पर यदि वे सच में एसेम्बली में घटना के समय मौजूद थे और उन्होंने इसकी गवाही कोर्ट में दी तो इस कार्य के लिए उनकी निंदा और भर्त्सना करना अपने आप बहुत उचित प्रतीत नहीं होता है. सच के प्रति विराग हम लोगों की एक बड़ी कमजोरी रही है और यह आये-दिन हमारे कोर्ट-कचहरी में दिख जाती है जब लोग अपने सगे तक का नाम गलत बता देते हैं और तमाम वाजिब मुकदमे छूटते रहते हैं. ऐसे में एक आदमी ने यदि सच कहा और दूसरे की सजा हुई, भले ही वह दूसरा हमारा आराध्य ही क्यों ना हो, तो हम उस पहले आदमी को वह सच बोलने का गुनहगार नहीं बता सकते.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें