भिखारी ठाकुर साल के दो महीने खासकर सावन-भादो के महीने में सारण जिला स्थित चन्दनपुर गांव में बाबूलाल की दलान पर नाटयाभिनय, गायन, वादन आदि का प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया करते थे। इनकी मंडली के सदस्य विभिनन नाटकों में अभिनय, गायन, वादन, नृत्य आदि का प्रशिक्षण लेते थे। विभिन्न नाटकों के विभिन्न पात्रों के संवाद याद कराये जाते थे अभिनय करना सिखाया जाता था। गायकों और वादकों के बीच ताल-लय का सामंजस्य बैठाया जाता था और उसको नृत्य के साथ समायोजित किया जाता था। विभिन्न नाटकों में सूत्रधार की भूमिका में स्वयं भिखारी होते थे, प्रवचन करते थे और भजन आदि प्रस्तुत कर वातावरण का निर्माण करते थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न नाटकों में वे अभिनेता की भूमिका भी निभाते थे।
ऐसा कहा जाता है कि खुला मंच का प्रयोग सर्वप्रथम भिखारी ठाकुर ने ही किया था। भिखारी ठाकुर के नाटकों की एक विशेषता यह भी थी कि उनके पात्र सामयिक, प्रासंगिक एवं विनोदात्मक संवाद दर्शकों के साथ करते थे। नाटकों के सफल प्रदर्शन में दर्शकों की सार्थक एवं सक्रिय भागीदारी अत्यंत आवश्यक होती है। इस कला में भिखारी ठाकुर को महारत हासिल थी। यही कारण था कि दसों हजार की भीड़ को बिना किसी थाना-पुलिस की सहायता के नियंत्रित करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी।
भिखारी ठाकुर ने अपने जीवन चरित में अपने वंशज, जन्म स्थान, जन्म तिथि तथा अपनी रचनाओं के बारे में सब कुछ लिखा है। इसमें उन्होंने अपनी रचनाओं की कुल संख्या 29 बतायी है। जबकि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा सम्पादित भिखारी ठाकुर रचनावली में 24 रचनाओं में 12 नाटक हैं-बिदेशिया, भाई-विरोध, बेटी-वियोग, विधवा-विलप, कलियुग प्रेम, राधे-श्याम बहार, गंगा स्नान, पुत्र वध, गबरघिचोर, बिरहा बहार, नकल भांड आ नेटुआ के, ननद-भौजाई। भजन-कीर्तन, गीत-कविता आदि किताबों के शीर्षक हैं- शिव विवाह, भजन-कीर्तन- राम, बूढ़शाला के बेयान, चैबर्णपदबी, नाई बहार, शंका-समाधान, विविध, भिखारी ठाकुर-परिचय आदि। भिखारी ठाकुर सामग्रियों के बार-बार देखने और उनका विवेकापूर्ण आकलन, समायोजन एवं वर्गीकरण करने के बाद उन्हें 24 जिल्दों ( 24 पुस्तकों) में सजाया गया है।
भिखारी ठाकुर द्वारा रचित बारह नाटकों में से दो नाटक ‘बिदेशिया’ और ‘गबरघिचोर’ आज भी खेले जा रहे हैं और भिखारी ठाकुर के जीवन काल की अपेक्षा आज उन्हें ज्यादा प्रसिद्धि मिल रही है। वे केवल बिहार में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में उनका मंचन हो रहा है और लोगों द्वारा प्रशंसित हो रहे हैं। इन दोनों नाटकों की कथा वस्तु निम्न प्रकार है।
बिदेशिया: इस नाटक का मुख्य पात्र एक युवा है- जो खेती-बारी करके जीवन-यापन करता है। खेती में साल भर काम नहीं करता है। काम के अभाव में बेरोजगार होकर भटकता फिरता है। बेरोजगारी की हालत में ही उसकी शादी एक खूबसूरत युवती से हो जाती है। पत्नी के रूप लावण्य से अभिभूत हो वह अपनी पत्नी को प्यारी सुन्दरी नाम देता है। दोनों के बीच अगाध प्रेम विकसित होता है। कुछ दिन मौज-मस्ती में बीतता है। युवा लम्बी बेकारी और बिगड़ती आर्थिक स्थिति से बेचैन कोलकाता जाने की सोचता है। प्यारी सुन्दरी को पति के कोलकता जाने का प्रस्ताव अच्छा नहीं लगता है। वह उसका घोर विरोध करती है। युवा बहाना बनाकर चुपचाप भागकर कोलकाता पहुंच जाता है। वह परदेशी ‘बिदेशी’ बन जाता है। वहां वह कड़ी मेहनत-मजदूरी कर अच्छी कमाई करने लगता है। इस बीच एक युवती उसके जीवन में आती है। और दोनों पति-पत्नी के रूप में रहने लगते हैं। वैसी पत्नी के तत्कालीन समाज रखैल समझता है। युवा कमाता है और दोनों इस कमाई से मौज-मस्ती में संलिप्त हो जाते हैं।
गांव पर उसकी ब्याहता पत्नी पति द्वारा किसी प्रकार की सूचना नहीं देने से अतयंत दुखी रहने लगती है। दिन-रात रोती-कलपती रहती है। उसके सिर पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ता है। एक दिन अचानक एक अधेड़ बटोही जो कमाने के लिए कोलकाता जा रहा था। प्यारी सुन्दरी को उस बटोही के बारे में भनक मिली और वह अपने पति का हुलिया बटोही को बता देती है। बटोही प्यारी सुन्दरी को आश्वासन देता है कि उसका पति अवश्य लौटेगा। कोलकाता पहुंचने के बाद घूमने-फिरने के क्रम में उस बटोही की भेंट प्यारी सुन्दरी के पति से हो जाती है। वह उसकी पत्नी की दारूण दशा का वर्णन करता है। उसकी पत्नी के अखंड पातिव्रत्य की पुष्टि करता है। विदेशी को अपनी पत्नी की स्मृतियां लौट आती है। वह अपने घर लौटने की बात अपनी रखैल से कहता है। वह विदेशी के घर लौटने के प्रस्ताव का विरोध करती है और वहां रह रहे साहूकार और गुण्डों से उसका सामान छिनवा लेती है। लेकिन युवा उसी दुरावस्था में घर की ओर चल पड़ता है।
इसी बीच गांव का एक मनचला, जिसकी आयु विदेशी से कम थी, प्यारी सुन्दरी के पातिव्रत्य की परीक्षा लेने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देता है और बलात्कार करने की चेष्टा करता है। प्यारी सुन्दरी द्वारा दृढ़ता से प्रतिरोध करने और पड़ोसन के आ जाने से उसका सतीत्व बच जाता है। इसी समय अपनी दुरवस्था में विदेशी घर पहुंचता है। बहुत विश्वास दिलाने पर और अपने पति की आवाज पहचान कर प्यारी सुन्दरी दरवाजा खोलती है। एक ओर परदेशी पति को देखकर खुश होती है तो दूसरी ओर उसकी दशा देखकर दुखी होती है।
इसी बीच विदेशी की कलकतिया रखैल अपने दोनों बच्चों को लेकर पूरे गहने-कपड़े के साथ विदेशी की खोज में उसके गांव चल पड़ती है।
कोलकाता के चोर-डकैत उसके गहने-कपड़े छीन लेते हैं और यह भी विदेशी की ही तरह विपन्नावस्था में बिना आगा-पीछे सोचे विदेशी के घर पहुंच जाती है। विदेशी उसको देखकर आश्चर्यचकित होता है, वह रखैल जब प्यारी सुन्दरी के साथ रहने का अनुनय-विनय करती है-तो सभी मिलजुल कर रहने लगते हैं।
गबरघिचोर: नाटक में मात्र पांच पात्र हैं-गलीज, गड़बड़ी, घिचोर, पंच और गलीज बहू (पत्नी)। गलीज नामक युवा बेकारी का मारा जवान पत्नी को घर पर छोड़कर कमाने के लिए शहर जाता है। कड़ी मेहनत करने के बावजूद उसकी आय नहीं बढ़ती है। वह दुव्र्यसन में फंस जाता है और घर-द्वार एवं पत्नी को भूल जाता है।
गलीज की पत्नी गांव में अकेले पड़ी पास-पड़ोस का काम, खेत-खलिहान में रोपनी, सोहनी, कटनी, पिटनी आदि करके दोनों जून की रोटी जुटाती रहती है और पति के घर आने की प्रतीक्षा करती रहती है।
गांवों में शहरी हवा के लगने के कारण गांव में भी नशाखोरी का चलन शुरू हो गया है, गांवों में परम्परागत संबंध टूटकर बिखरे रहे हैं, बहन, भाभी, चाची, मामी कहलाने वाले पवित्र रिश्ते की डोर में बंधी महिलाएं सामान्य नारी और भोग्या बन रही हैं। ऐसी ही विवश नारी है गलीज बहू जिसका पति पन्द्रह वर्षों से गांव नहीं आया है। उपेक्षित गलीज बहू का पांव फिसल जाता है और गांव के ही एक मनचले युवक के साथ उसका अवैध संबंध हो जाता है। इस युवक का नाम गड़बड़ी है। गड़बड़ी के गलीज बहू के साथ दैहिक संबंध की परिणपति होती है कि उसे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है जिसे लोग घिचोर नाम से पुकारने लगते हैं। गलत संबंध से पैदा होने के बावजूद गलीज बहू बड़े प्रेम से अपने पुत्र को पालती है। समाज की प्रताड़ना से डरती नहीं है। वह मातृत्व की गरिमा का पालन करती है।
इधर गबरघिचोर पन्द्रह साल का हो जाता है और मां के साथ सुख चैन की जिन्दगी जी रहा होता है। इसी बीच गांव से परदेश गया कोई व्यक्ति गलीज से मिलता है और उसकी पत्नी घिचोर और गड़बड़ी के संबंधों के बारे में बताता है।
गलीज गांव के व्यक्ति से अपनी पत्नी, नाजायज बेटे और गड़बड़ी के बारे में जानकारी पाकर विचलित नहीं होता है। वह सोचता है कि वह घिचोर को क्यों न शहर ले आये। वह भी कमायेगा और हमारी आमदनी बढ़ जायेगी।
गबरघिचोर को अपने साथ शहर ले जाने के उद्देश्य से गलीज गांव आता है और अपनी पत्नी से घिचोर को शहर ले जाने का प्रस्ताव रखता है। वह तैयार नहीं होती है। इसी बीच गड़बड़ी भी वहां पहुंच जाता है और गबरघिचोर को अपना बेटा घोषित कर देता है। मां अपने बेटे को अपना सहारा समझती है, गड़बड़ी अपने को उसका वास्तविक पिता मानता है और गलीज अपनी पत्नी से उत्पन्न उस बालक पर अपना परम्परागत हक मानता है। बात बहुत उलझ जाती है। इसे सुलझाने के लिए पंचायत का सहारा लिया जाता है।
पंच नियुक्त होता है। तीनों पक्षों ने अपनी-अपनी बातें रखी। पंच को बड़बड़ी और गलीज ने घूस देने की भी पेशकश की। और इस तरह पंच भी अपना निर्णय दे-दे कर पलटते रहे। जब पंच के निर्णय को मानने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ तो गबरघिचोर को ही तीन हिस्सों में काटकर तीनों के बीच बराबर बांट देने का भी अविवेकपूर्ण निर्णय हुआ, जैसे किसी वस्तु का बंटवारा हो। आदमी वस्तु बन गया।
जब तीन भाग में बांटकर देने की बात आयी तो गड़बड़ी और गलीज तो तैयार हो गये लेकिन मां तैयार नहीं हुई। मां ने दोनों में से किसी एक को गबरघिचोर को जिन्दा देने का प्रस्ताव रखा। अब गलीज और गड़बड़ी ने पंच को घिचोर को दो टुकड़ों में बांटने का प्रस्ताव रखा।
पंच में विवेक जागता है और वह दोनों को डांटता-फटकारता है और भत्र्सना करता है तथा उन दोनों की नीचता को समाज के सामने रखता है, और अंत में गबरघिचोर को उसकी मां को सौंप देता है।
ब्रजकुमार पाण्डेय का आलेख
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