सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

पूरबी के बेताज बादशाह : महेंदर मिसिर



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महेन्दर मिसिर की शाहखर्ची के किस्से अब मशहूर होने लगे थे। हुक्मरानों को पहली बार संदेह तब हुआ, जब 1905 में सोनपुर के मेले में ज्यादा तवायफों के तंबू मिसिर जी की तरफ से लगवाए गए थे। इस मामले में मिसिर जी ने देश के बड़े-बड़े जमींदारों को भी पीछे छोड़ दिया था। बस क्या था….पुलिस उनके पीछे लग गई। जांच करने और सबूत इकट्ठा करने की जिम्मेदारी सीआईडी इंस्पेक्टर सुरेंद्रनाथ घोष और जटाधारी प्रसाद को मिली। सुरेंद्रनाथ घोष किसी तरह मिसिर जी का नौकर बनने में कामयाब हो गया और गोपीचंद के रूप में साईस बनकर उनके घोड़े की देखभाल करने लगा। मालूम हो कि मिसिर जी अपने जमाने के माने हुए घुड़सवार थे। कहते हैं, उस समय पूरा छपरा जिला में उके जैसा दूसरा घुड़सवार नहीं था। जब वह घुड़सवारी पर निकलते थे तो उन्हें देखने के लिए राहों में लोगों की भीड़ लग जाती थी। बहरहाल, धीरे-धीरे गोपीचंद उनके नोट छापने का राज जान गया। उसी के इशारे पर उनके यहां पुलिस का छापा पड़ा। 16 अप्रैल, 1924 को उनके चारों भाइयों समेत महेन्दर मिसिर को गिरफ्तार कर लिया गया। पटना उच्च न्यायालय में लगातार तीन महीने तक मामले की सुनवाई चलती रही। मिसिर जी के वकील थे क्रांतिकारी हेमचंद्र मिश्र औऱ प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी चितरंजन दास लेकिन कुछ काम न आया और मिसिर जी मुकदमा हार गए औऱ उन्हें 10 की सजा मुकर्रर की गई। उन्हें बक्सर केंद्रीय जेल में बंद कर दिया गया लेकिन अच्छा व्यवहार औऱ लोकप्रियता के चलते तीन साल में ही उनकी रिहाई हो गई। कहते हैं, जब वे जेल में बंद थे तो देश भर की 5000 तवायफों ने वायसराय को ब्लैंक चेक के साथ एक पत्र भेजा था जिसमें गुजारिश की गई थी कि सरकार उस पर कोई भी रकम लिख सकती है, हम तवायफें अदा करेंगी, लेकिन महेन्दर मिसिर को आजाद कर दिया जाए। यह घटना इस बात की सबूत है कि तवायफों के मन में उनके लिए कितनी इज्जत थी। बक्सर जेल में रहते हुए ही उन्होंने सात खंडों में अपूर्व रामायण की रचना कर डाली थी। जेल प्रवास के दौरान हुई इस घटना की अनुगूंज आज भी जनश्रुतियों में सुनी जा सकती है। एक जनश्रुति के अनुसार बक्सर जेल की निशब्द रातो में जब वह अपना यह विरह गीत की तान लेते थे तो जेलर की पत्नी उसे सुनकर भाव-विह्वल होकर उनके गीत का रसस्वादन करने जेल में पहुंच जाती थी…..आखिर गीत भी तो ऐसा ही है ………
आधी-आधी रतिया के कुहुके कोइलिया
राम बैरनिया भइले ना।
मोरा अंखिया के निंदिया….
राम बैरनियां भइले ना।
कुहुकि-कुहुकि के कुहके कोइलिया
राम अगिनिया धधके ना।
मोरा छतिया के बीचवा
राम अगिनिया धधके ना।
महेन्द्र मिसिर को जेल से छुड़ाने के लिए ढेलाबाई ने अपना सबकुछ दांव पर लगा डाला और उन्हें बचाकर घर ले आई। महेन्दर मिसिर ने अपने जीवन का अंतिम क्षण ढेलाबाई की कोठी में स्थित शिव मंदिर में ही गुजारा और वहीं अंतिम सांसें लीं। उस समय उनकी उम्र 62 साल की थी और वह मनहूस दिन था … 26 अक्टूबर, 1946
आजादी की लड़ाई के इतिहास में महेन्दर मिसिर को भले ही वह जगह न मिली हो, जिसके वह हकदार हैं लेकिन उनके गीतों ने उनकी शख्सियत को हमेशा ऊंचा उठाए रखा। अंग्रेजों के प्रति अपने विद्वेष को व्यक्त करते हुए वह गीत रचते हैं ……
हमरा निको ना लागे गोरन के करनी
रुपया ले गइले, पइसा ले गइले
अउरी ले गइले सब गिन्नी।
बदला में देके गइले ढल्ली के दुअन्नी
हमरा नीको ना लागे गोरन के करनी।
राग-रागिनी उनकी जिंदगी थीवह उसे जीते थेऔर आज वही उनकी थाती है, जो जन-जन के मन कंठ में सुरक्षित है। पुरुबी राग उनकी स्वर लहरी में हिलोरें लेता है। उनके गीतों में जहां पहाड़ी नदी के वेग की तरल तीव्रता है, वहीं झिर..झिर बहती शीतल मंद बयार का सुखद स्पर्श भी है। भाषा की सहजता औऱ भाव की गहराई उनके गीतों की असली पहचान हैं। बोल और भाव की मिश्री में पगे उनके गीत किसी का भी अंतर्मन को छूने, सहलाने की स्वाभाविक काबिलियत रखते हैं। विरही नायिका की विकलता और उसकी सास की निष्ठुरता का क्या ही मर्मस्पर्शी बयान इन पंक्तियों में मिलता है ………..
सासु मोरा मारे रामा बांस के छिउकिया,
ए ननदिया मोरी है सुसुकत पनिया के जाए।
गंगा रे जमुनवां के चिकनी डगरिया
ए ननदिया मोरी हे पउंवां धरत बिछलाय।
गावत महेन्दर मिसिर इहो रे पुरुबिया
ए ननदिया मोरी हे पिया बिना रहलो ना जाए।
लोक कंठ के गवैया महेन्दर मिसिर के गीतों में श्रृंगार और अध्यात्म दोनों ही प्रधानता से मिलते हैं और कमाल की बात यह है कि वह दोनों में ही पारंगत हैं। इतना जरूर है कि उनके गीतों में श्रृंगार और विरह की अभिव्यक्ति ज्यादा मुखर है। विरह विदग्ध नायिका के चित्रण में उनका यह गीत कितना भावमय हो उठता हैएक बानगी देखिए……
अंगुरी में डंसले बिया नगिनियां हे
ननदी दियरा जरा द।
दियरा जरा द अपना भइया के जगा द
पोरे-पोरे उठेला दरदिया हे
ननदी दियरा जरा द।
लोक धुन में पगे उनके गीत जब अपनी अर्थ छटा बिखेरते हैं तो सुनने वाला सुनते ही रह जाता है।
गोपी विरह के प्रसंग में मिसिर जी के शब्द विन्यास से गीत के बोल कितने भावप्रवण हो उठे हैं, इसका एक उदाहरण देखिए….
सुतल सेजरिया सखी देखली सपनवां
निर्मोही कान्हा बंसिया बजावेला हो लाल।
कहत महेन्दर श्याम भइले निरमोहिया से
नेहिया लगा के दागा कइले हो लाल।
विरह की आंच में तपे महेन्दर मिसिर के गीत श्रोता के हृदय को ऐसे बेधते हैं कि मन बेकल हो उठता है।  संगीत साधक और पुरबी के पुरोधा महेन्दर मिसिर का रचना संसार व्यापक है, जिसमें भाषा की लचक औऱ रवानी तथा राग-रंजित रागिनी का अपूर्व संगम देखने को मिलता है। उन्होंने सैकड़ों गीत और दर्जन भर से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिनमें उनके तीन नाटक भी शामिल हैं। अन्य पुस्तकों में महेन्दर मंजरी, महेन्दर विनोद, महेन्दर मयंक, भीष्म प्रतिज्ञा, कृष्ण गीतावली, महेन्दर प्रभाकर, महेन्दर रत्नावली, महेन्दर चंद्रिका और महेन्दर कवितावली प्रसिद्ध है। उनके चुनिंदा गीतों का संग्रह कविवर महेन्दर मिसिर का गीत संसार शीर्षक से डॉ. सुरेश कुमार मिश्र के संपादन में अखिल भारतीय भोजपुरी परिषद, लखनऊ से सन् 2002 में प्रकाशित हुआ लेकिन वह पूर्ण नहीं है। उनके सैकड़ों गीत आज भी संग्रह की प्रतिक्षा में हैं। महेन्दर मिसिर को लेकर कई पुस्तकें भी लिखी गई हैं, जिनमें पांडे कपिल की फुलसूंघी, रामानाथ पांडे की महेन्दर मिसिर और रविन्द्र भारती की कंपनी उस्ताद उल्लेखनीय है। उनके गीत लोक जीवन के दस्तावेज हैं, लोक साहित्य के अनमोल धरोहर हैं।
आलेख समरथ , सितम्बर अक्टूबर २०११ अंक से साभार.

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