जादू का खजाना, भानुमती की पिटारी, रहस्यों और भेदों को गुप्त रखने के
लिए चोली, देखने में भोली-भाली पर कमाल का काम करने वाली यह मेरी जेब है
जिस पर मुझे नाज
है और उनको भी नाज है जिनकी इज्जत यह मौके-बेमौके बचाती है। ऐसा कहने की
वजह है और वह यह है कि मैं एक ऐसा आदमी हूँ जिसको जमापूँजी पर कोई भरोसा
नहीं, भरोसा है
तो सिर्फ जेब पर है! इसको यों भी कहिए कि मैं जो कुछ रखता हूँ पास में,
पासबुक में कुछ भी नहीं रखता। इससे कभी लाभ भी होता है, कभी घटी भी होती
है। सब से बड़ा
लाभ यह होता है कि बैंक फेल करने का न मुझे अंदेशा होता है, न चिंता होती
है और घटी यह होती है कि सामने जेब में देखकर जब कोई कुछ माँग देता है तो
नहीं कहने में
नहीं बनता; कुछ न कुछ अवश्य देना पड़ता है, चाहे मैं चाहूँ या न चाहूँ।
अगल-बगल में कुछ माँगनेवाले ऐसे हैं कि बराबर इस बात पर निगाह रखते हैं कि
कब की हालत
क्या है। यों तो बराबर यह खाली ही रहती है और ऐसी पतली मालूम पड़ती है
जैसे कोई पुराना तपेदिक का रोगी, पर कभी-कभी यह भरती है और अलग से भदैया
बैग की तरह मालूम
पड़ने लगती है।
कभी-कभी मैंने यह भी कोशिश की है कि सामने की जेब में नोट-रुपया इत्यादि न
रखकर गंजी में नीचे जो जेब है उसमें रखूँ, पर वैसी हालत में मेरे मोटे पेट
के साथ जब
भरी जेब की संधि होती है तो रूप गर्भिणी स्त्री का-सा हो जाता है जो बड़ा
खराब लगता है। इसलिए रुपया-पैसा फिर ऊपर ले आता हूँ। लेकिन दोस्त लोग इस
बात की ताक
में रहते हैं कि कब फिर जेब भरती है और जब मामला हसबखाह देखते हैं तो फौरन
होटल चलने का आग्रह करने लगते हैं। मेरा यह भी एक स्वभाव है जब तक जेब
में कुछ रहे
मैं किसी को भी भरसक कहीं पर बिल चुकाने नहीं देता। जेब की वजह से ही
कभी-कभी मित्रों को बेतरह धोखा हुआ है। भरा-पूरा समझकर होटल लिवा गए और
इन्होंने खूब खा
लिया तो बिल मेरे पास पेश हो गया। तमाम होटलों के बेरा लोगों में इस बात
की शोहरत हो गई है कि मैं खूब इनाम देता हूँ। नतीजा यह हुआ कि ये कमबख्त
भी यही कोशिश
करते हैं कि बिल मैं ही चुकाऊँ क्योंकि उनको यह अंदेशा होता है कि अगर
बिल कोई दूसरा चुकाएगा तो उनका इनाम भी बिल ही में चला जाएगा। इस तरह बिल
आने पर मुझे
कहना पड़ा है कि मेर पास पैसा नहीं है। 'जेब तो भरी है,' दोस्त कहते हैं।
'लेकिन रद्दी कागज-पत्र से भरी है। कोई लज्जत नहीं है।' मेरे यह कहने पर
बिलबिलाते-बिलबिलाते उन्हें बिल देना पड़ता है।
कभी ऐसा भी होता है कि महीनों तक जेब खाली रह जाती है। एक मित्र तो मेरे ऐसे हैं कि उन्होंने बाकायदा मुझे यह समझाया है कि इस तरह से जेब हरगिज खाली नहीं रखनी चाहिए। मैंने पूछा है, 'क्यों खाली रहने में क्या हर्ज है ?' वे बोले, 'सबसे बड़ा हर्ज तो यही है कि जेबकट अगर जेब काटे और उसको कुछ न मिले तो गाली देगा कि साले भारी-भरकम ठाट में रहते हैं और जेब में एक पैसा भी नहीं रखते।' उनकी उस दलील को मैंने डिसमिस कर दिया है तो फिर बोले, 'दूसरी बात यह है कि आप खर्राच आदमी हैं। घर में, बक्स में या बैंक में आप कुछ भी नहीं रखते। कहाँ क्या हो जाए कोई ठीक नहीं। मान लीजिए कही हार्ट फेल कर जाए। अगर जेब में कुछ रहेगा तो कोई शरीफ उसी से आपके कफन-दफन का प्रबंध तो कर देगा।' उनकी यह बात मुझे कुछ जँची है। मैंने दूसरे रोज से यह प्रबंध किया है कि 100 रु. अपनी जेब में बराबर रखूँगा। यह उनको मालूम हो गया है। उसी दिन एक सौ पैंचा माँगन आ धमके हैं। 'है कहाँ ? मैंने कहा। बोले, 'वही कफन-दफन वाला।' मैंने कहा, 'वह तो कफन-दफन के लिए है।' फिर बोले, 'राम कहिए। आप आज ही मर रहे हैं थोड़े ? कल तो मैं वापिस ही कर दूँगा।' मैंने उनको यह रुपया दे दिया है। उनका कल अब तक नहीं आया। उन्होंने अब तक वापस नहीं किया। उनको शायद यह मालूम हो गया है कि मैं कब मरूँगा। मेरा खयाल है कि वे मेरे मरने के एक रोज पहले उसे वापस करेंगे।
खैर, दोस्त न लौटावें न सही। दोस्त बरकरार रहें और मेरे दोस्त बने रहें। मरने पर कफन-दफन का इंतजाम न हो सही, पर एक सौ रुपया के लिए हम अपने दोस्त की दोस्ती दफन नहीं कर सकते।
यह तो एक बात रही, पर इसी बात की वजह से जेब मेरे लिए पहेली बन गई है। अगर खाली रहे तो जेबकट की गाली सुन और भर जाए तो दोस्तों की दावत कर, नहीं तो उनसे अदावत हो जाए। भरने में देर हो तो हो, खाली होने में देर हो तो अंधेर हो जाए।
इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि उधर से स्टेनो बाबू आए। स्टेनो से सलाह ली जाए यह बात कुछ जँचती नहीं है। पर हमारे सामने ही ऐसी-ऐसी मिसाल मौजूद है कि जब पहलवान अपने को किसी भी पहलवान को अपने लायक नहीं पाते थे तो लकड़ी के खूँटे पर ही अपना पेंच लगाते थे। एक यह भी रहे। मैंने स्टेनो बाबू से अपना असमंजस बयान किया। बोले - क्या कहूँ, हुजूर। छोटा मुँह बड़ी बात कहने को हिम्मत नहीं होती। यही रहस्य की बात है कि जिस जेब की बदौलत दूसरे कमाते हैं आप उसी की बदौलत गँवाते हैं।'
स्टेनो की बात से मेरा मिजाज कुछ बढ़ा। मैंने कहा - 'क्या कहा आपने? कमाते हैं? कैसे कमाते हैं?'
'जेब में बहुत-सी संस्थाएँ रखते हैं। धनियों से, सरकार से सहायता लेते हैं। उसको अपने काम में लगाते हैं। मैं पहले बाबा सुंदरदास के यहाँ रहता था। उनका बालिका विद्यालय क्या है? जेब की संस्था है।' वे बोले।
'क्या कहा आपने? बालिकाएँ जेब में पढ़ती हैं? कैसे पढ़ती हैं? कैसे अँटती हैं?'
'बालिकाएँ कहाँ हैं हुजूर! एक भी बालिका नहीं है। सिर्फ जेब में एक कार्ड रखते हैं। उस पर उनके नाम के साथ बजाप्ता सभापति, बालिका विद्यालय लिखा है। तभी तो कह रहा हूँ जेब की संस्था है। इसके अलावे जेब में बहुत-सी, तरह-तरह की दरख्वास्त रखते हैं, जब जिस मिनिस्टर से भेंट होती है एक उस के सामने बढ़ा देते हैं और आर्डर करवा लेते हैं। आप उसकी बदौलत गँवाते हैं।'
अब तो समझिए कि आँख खुल गई। जेब को इतना महत्व मैंने कभी नहीं दिया था। मालूम हो गया कि जेब में एक और काम हम मजे में ले सकते हैं। मैंने एक बार अपनी जेब की ओर देखा मनसूबे के साथ और जैसे मैंने उस की ओर देखते हुए कहा कि तू भी तैयार हो जा। अब वे दिन आ गए जब तुम्हारी बदौलत घटी होती थ, अब कुछ होकर रहेगा। किसी की मजाल नहीं कि तुमको महीनों खाली रख सके। जेबकट आवें, गिरहकट आवें, दोस्त मुँहफट आवें, अब वह लटपट लगेगी कि तुम सब के बाद भी सदा भरी रहोगी।
पर जेब ने जैसे इस आश्वासन पर कुछ ज्यादा ध्यान नहीं दिया। जैसे वह कह रही हो कि आप कहते हैं लेकिन मौका आता है तो सब भूल जाते हैं। जैसे वह कह रही हो कि आप मेरी इज्जत की ओर ध्यान कभी नहीं रखते, बराबर दूसरों की इज्जत बचाने के फेर में मुझको बेइज्जत करते रहते हैं।
अपनी जेब से तो मैं खुद शर्मिंदा हूँ, पर क्या करूँ? उदार स्वभाव, मदद करने की आदत, दूसरों के दुख में हाथ बँटाने की चाह, यह सब जब साथ हो जाते हैं तब जेब का कुछ खयाल ही नहीं रहता।
अपना खयाल दूसरा है और जेब का कुछ दूसरा है। जेब की समझ में यह आता है कि उसकी शान इसमें है कि आठों याम, सुबह-शाम भरी रहे और मेरी समझ में आता है कि इंसान की शान इसमें है कि उसकी जेब खाली हो जाए, तो हो जाए, पर कोई उसके पास से खाली न लौटे। जेब की मजबूती और कमजोरी का सब से बड़ा सबूत यही है कि वह कब किसके काम आई, कब किसका कितना भला कर सकी, कब किसको कितना आराम दे सकी। इसीलिए मैं कभी-कभी घर लौटता हूँ तो उन पुर्जों से जेब की उपयोगिता की माप करता हूँ जो इसमें मेरे साथ आते हैं।
बात यह होती है कि मैं अपनी जेब में फाउन्टेनपेन नहीं रखता। कलम रख कर इतनी बार धोखा खा चुका हूँ कि मैंने कलम का रखना छोड़ दिया। बिना कलम बाहर निकला तो जगह-जगह आदमी मिलते हैं।
कोई कहता है, मेरे लड़के ने एम.ए. का इम्तहान दिया है। अगर फर्स्ट क्लास न आया तो नौकरी मिलनी दुश्वार है। इतना कह के मेरी ओर देखता है कि मैं उसका नाम लिख लूँ। मैं साफ कह देता हूँ कि कलम नहीं है। इसके बाद वे लड़के का नाम, पता, रोल नंबर सब लिख के दे देते हैं और साथ-साथ परीक्षक का नाम भी। पुर्जा मेरी जेब में चला आता है।
दूसरे मिलते हैं, कहते हैं, हुजूर ही के पास जा रहा था। पब्लिक सर्विस कमीशन में कल मेरे भाई ने इंटरव्यू दिया है ! पोस्ट दस हैं। किसी प्रकार नवें-आठवें में भी इसका नाम आ जाता तो बेड़ा पार हो जाता। उन के नाम-पता का पुर्जा भी जेब में चला आता है।
तीसरे मिलते हैं, कहते हैं कि मैंने अमुक सड़क पर मिट्टी संग्रह के लिए टेंडर दिया है। अमुक इंजीनियर के अख्तियार का काम है। मैं कहता हूँ सब लिख के दे दीजिए। सड़क का नाम, काम का ब्यौरा, अधिकारी का नाम जो टेंडर खोलेगा और टेंडर खुलने की तारीख जेब में चली आती है।
चौथे मिलते हैं, बोलते हैं, मेरे साले की बदली पटना से सहरसा हो गई। आप की जबान लगेगी और मेरा काम हो जाएगा। मैं पूर्ववत लिख कर माँगता हूँ। यह पुर्जा भी मेरी जेब में।
पाँचवें मिलते हैं तो कहते हैं कि उनके पिता अस्पताल में हैं। अगर अमुक डॉक्टर से जरा कह देते तो उनकी देखभाल ठीक से होती। बस वार्ड नंबर, डॉक्टर का नाम, रोगी का नाम, बेड का नंबर सब लिख कर एक पुर्जा दे देते हैं। यह पुर्जा भी जेब में।
गोया जेब क्या है अजायबघर है। डाक्टर भी जेब में, इंजीनियर भी जेब में, एक्जामिनर भी जेब में, कमिश्नर भी जेब में, कलक्टर भी जेब में, दवा भी जेब में, दारू भी जेब में, नौकरी भी जेब में, टीका भी जेब में, मिनिस्टर भी जेब में और न जाने क्या सब जेब में। जानता हूँ कि इसमें बहुत-सा अनुरोध है जो बेईमानी, बेमतलब है। न जज के यहाँ कहने जाऊँगा न इंजीनियर के यहाँ, न कमिश्नर के यहाँ, न कलक्टर के यहाँ। अगर बहुत होगा तो मिनिस्टर और डॉक्टर तक पहुँच जाऊँगा, काम हो, न हो, राम जाने। पर किससे कहूँ? क्या कहूँ? कहाँ-कहाँ लड़ाई मोल लूँ ! बस बेचारी जेब है जो सारा भार सहन करती है। चुप रहती है और कभी नहीं बोलती है।
कभी-कभी तो ऐसा होता है कि एकाध आदमी पुर्जा लेकर कहते हैं कि ऐसा न हो कि जेब ही में रह जाए। राय होती है कि उनसे कह दूँ। अगर आप की बहुत किस्मत होगी तो जेब में रहेगी वरना ऐसे-ऐसे पुर्जे जेब में कुछ देर तक रह जाएँ तो जेब की पहाड़ का बोझ उठाना पड़ जाएगा। कभी-कभी किसी के बारे में कुछ भी नहीं कर पाता और वह एकाध रोज के बाद दर्याफ्त करने आ जाता है कि क्या हुआ तो ऐसे वाकए में भी जेब का सहारा लेना पड़ता है। कहता हूँ कि पुर्जा जेब में ही रह गया, कुर्ता धोबी के यहाँ चला गया। सोचता हूँ कि एक जेब के मत्थे इतना भार। अगर जेब न होती तो अनर्थ हो जाता।
लेकिन सिर्फ इतने मौके पर ही जेब नहीं काम देती बल्कि और भी नाजुक और संगीन मौके आते हैं जब काम देती है। हाँ कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई सयाने सज्जन जब कुछ काम करवाने की गरज से कुछ देना चाहते हैं और मैं लेना चाहता हूँ तब भी शर्मिंदा होने के कारण न-न कहता हूँ तो वे जबर्दस्ती नोट का पुलिंदा जेब में रख देते हैं कि जैसे जेब से मेरा कुछ वास्ता ही नहीं।
वे चले जाते हैं तो फौरन नोटों को सरियाता हूँ और गिनता हूँ और जेब को धन्यवाद देता हूँ।
अगर मेरे हाथ में फैसन चलाना होता तो मैं फौरन पहले यह चलाता कि कुर्ता के ऊपर एक नहीं अनेक जेब हों। मेरे हाथ में सत्ता आ जाए तो मैं जेबों के लिए इतना काम करूँ कि कानून बना दूँ कि चाहे किसी की जेब हो, उसमें कुछ रखना ही पड़ेगा। हाँ, जेबों को खाली रख के उनकी बेइज्जती नहीं की जा सकती। एक जेब भरी हो तो दूसरी खाली क्यों रहे? ऐसा उपाय हो कि हर जेब में कुछ न कुछ हो।
एक मन कहता है कि अगर जेब साथ न दे तो मेरे हाथ में सत्ता आ ही नहीं सकती। प्रजातंत्र में चुनाव के चक्कर में भी जेब का ही जादू काम देता है। जब मैं जेब के लिए ही सत्ता का आह्वान कर रहा हूँ तो जेब क्या इतनी मूर्ख है कि मेरा साथ न देगी।
जरूर साथ देगी। अपनी जेब पर मुझको भरोसा है और मैं जानता हूँ कि जब तक जीवन है इसका सहयोग मुझे सदा मिला करेगा।
जेब जिन्दाबाद!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें