प्रस्तुति-- अखौरी प्रमोद
अनेक
भारतीय ऐसे हैं जो भारत से इतर देशों में हिंदी रचना व विकास के काम में
लगे हुए हैं। इनमें दूतावास के अधिकारी और विदेशी विश्वविद्यालयों के
प्राध्यापक तो हैं ही, अनेक सामान्य जन भी हैं जो नियमित लेखन व अध्यापन से
विदेश में हिंदी को लोकप्रिय बनाने के काम में लगे हैं। विदेश में रहने
वाले हिंदी साहित्यकारों का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्यों कि उनकी रचनाओं
में अलग-अलग देशों की विभिन्न परिस्थितियों को विकास मिलता है और इस प्रकार
हिंदी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय विकास होता है और समस्त विश्व हिंदी भाषा
में विस्तार पाता है।[1]
बीसवीं शती के मध्य से भारत छोड़ कर विदेश जा बसने वाले लोगों की संख्या
में काफी वृद्धि हुई। इनमें से अनेक लोग हिंदी के विद्वान थे और भारत
छोड़ने से पहले ही लेखन में लगे हुए थे। ऐसे लेखक अपने अपने देश में चुपचाप
लेखन में लगे थे पर उनमें से कुछ भारत में धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर काफी लोकप्रिय हुए, जिनका लोहा भारतीय साहित्य संसार में भी माना गया। ऐसे साहित्यकारों में उषा प्रियंवदा और सोमावीरा
के नाम सबसे पहले आते हैं। बीसवीं सदी का अंत होते होते लगभग १०० प्रवासी
भारतीय अलग अलग देशों में अलग अलग विधाओं में साहित्य रचना कर रहे थे।
इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ होने तक पचास से भी अधिक साहित्यकार भारत में
अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवा चुके थे। वेब पत्रिकाओं का विकास हुआ तो ऐसे
साहित्यकारों को एक खुला मंच मिल गया और विश्वव्यापी पाठकों तक पहुँचने का
सीधा रास्ता भी। अभिव्यक्ति और अनुभूति पत्रिकाओं में ऐसे साहित्यकारों की सूची देखी जा सकती है जिसमें प्रवासी साहित्यकारों के साहित्य को रखा गया है।[1][2]
१० जनवरी २००३ को प्रवासी दिवस मनाए जाने के साथ ही दिल्ली में प्रवासी हिंदी उत्सव का श्रीगणेश हुआ। प्रवासी हिंदी उत्सव में ऐसे लोगों को रेखांकित करने और प्रोत्साहित करने के काम की ओर भारत की केंद्रीय और प्रादेशिक सरकारों तथा व्यक्तिगत संस्थाओं ने रुचि ली, जो विदेश में रहते हुए हिंदी में साहित्य रच रहे थे। भारत की प्रमुख पत्रिकाओं जैसे वागर्थ, भाषा और वर्तमान साहित्य ने भी प्रवासी विशेषांक प्रकाशित कर के इन साहित्यकारों को भारतीय साहित्य की प्रमुख धारा से जोड़ने का काम किया। इस तरह इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में आधुनिक साहित्य के अंतर्गत प्रवासी हिंदी साहित्य के नाम से एक नए युग का प्रारंभ हुआ।
१० जनवरी २००३ को प्रवासी दिवस मनाए जाने के साथ ही दिल्ली में प्रवासी हिंदी उत्सव का श्रीगणेश हुआ। प्रवासी हिंदी उत्सव में ऐसे लोगों को रेखांकित करने और प्रोत्साहित करने के काम की ओर भारत की केंद्रीय और प्रादेशिक सरकारों तथा व्यक्तिगत संस्थाओं ने रुचि ली, जो विदेश में रहते हुए हिंदी में साहित्य रच रहे थे। भारत की प्रमुख पत्रिकाओं जैसे वागर्थ, भाषा और वर्तमान साहित्य ने भी प्रवासी विशेषांक प्रकाशित कर के इन साहित्यकारों को भारतीय साहित्य की प्रमुख धारा से जोड़ने का काम किया। इस तरह इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में आधुनिक साहित्य के अंतर्गत प्रवासी हिंदी साहित्य के नाम से एक नए युग का प्रारंभ हुआ।
संदर्भ
- "वतन से दूर" (एचटीएम). अभिव्यक्ति. अभिगमन तिथि: 2008.
- "दिशांतर" (एचटीएम). अनुभूति. अभिगमन तिथि: 2008.
यह भी देखें
- आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास
- आधुनिक हिंदी पद्य का इतिहास
- आधुनिक हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय विकास
- हिंदी साहित्य
बाहरी कड़ियाँ
- हिन्दी का प्रवासी साहित्य - डा कमलकिशोर गोयनका (इ-विश्वा में)
- ब्रिटेन लोकप्रिय प्रवासी कवि व उनकी कविताएँ
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