मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

रवि अरोड़ा की दो रचनाएं




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हे ईश्वर अब तू ही इन्हें समझा


रवि अरोड़ा

अब इसे आप संस्कार कहें अथवा परिवार का माहौल मगर यह सत्य है कि देश के अधिकांश धार्मिक स्थल पर मैं माथा टेक आया हूँ । इस मामले में मैंने मंदिर, गुरुद्वारे , चर्च और दरगाहें सब जगह समभाव से शीश नवाया । यदि सच कहूँ तो हमारे देश के धार्मिक स्थलों पर जाकर आप कुछ और पायें अथवा नहीं मगर थोड़ी देर को ही सही मगर अपने अहंकार से तो बरी हो ही जाते हैं । जी नहीं मैं आध्यात्मिकता के परिप्रेक्ष्य में यह नहीं कह रहा । मैं तो पीछे खड़ी बेतहाशा भीड़ और आराध्य देव के सामने पहुँचने पर पंडे-पुजारी द्वारा ख़ुद को आगे ठेले जाने के बाबत बात कर रहा हूँ । अक्सर एसा हुआ है कि ढंग से मूर्ति को देख भी नहीं पाये और किसी ने धकिया कर आगे बढ़ा दिया । अब मामला भगवान के दरबार का होता है सो अहंकार का सवाल ही नहीं , मान-अपमान का कोई मुद्दा ही नहीं , बस यही संतोष रहता है कि चलो जैसे तैसे दर्शन तो हो ही गए । उधर, सभी धार्मिक स्थलों पर एक ख़ास बात मुझे दिखी । अपने मोहल्ले के मंदिर-गुरुद्वारे में जो लोग खरीज चढ़ाते हैं , वहाँ बड़े बड़े नोट निकालते हैं । नोटों वाले सोने का कोई उपहार अपने इष्ट देवता के लिए लाते हैं । धार्मिक स्थलों के संचालक भी हमारे इस मनोभाव को समझते हैं और भगवान और हमारे बीच में पहले से हो बड़ी गुल्लक रख देते हैं । पहले पैसे डालो फिर दर्शन करो । हम भी इस व्यवस्था को समझते हैं अतः धार्मिक स्थल के गर्भ गृह पहुँचने से पहले ही चढ़ावे के पैसे तैयार रखते हैं । अब इष्ट देव के सामने पहुँचने पर इतना समय आपको कौन देगा कि आप जेब से अपना पर्स निकाल सकें ।

कई बार हिसाब लगाता हूँ कि इन धार्मिक स्थलों पर साफ़-सफ़ाई से लेकर अन्य छोटे बड़े सभी काम तो भक्तगण निशुल्क स्वयं ही कर देते हैं , फिर इतने चढ़ावे की ज़रूरत ही क्या है ? बेशक एसा कोई रिकार्ड नहीं है , जिससे पता चले कि देश में कुल कितने धार्मिक स्थल हैं मगर एक अनुमान लगाया जाता है कि इनकी संख्या पंद्रह लाख से अधिक होगी । अब यह अंदाज़ा तो क़तई नहीं लगाया जा सकता कि इन स्थलों पर प्रतिदिन कितना चढ़ावा चढ़ता होगा मगर इतना तो तय है कि यह राशि सैंकड़ों करोड़ रुपए तो अवश्य ही होती होगी । अख़बारों में अक्सर एसी रिपोर्ट छपती भी रही हैं कि देश के प्रमुख सौ मंदिरों का सालाना चढ़ावा देश के सालाना योजना बजट से अधिक होता है । कहते हैं कि पद्मनाथ स्वामी मंदिर, तिरुपति बालाजी, शिर्डी , सिद्धिविनायक, गोल्डन टेंपल , वैष्णोदेवी और गुरुवयूर जैसे प्रमुख मंदिर-गुरुद्वारों के तहखानों अथवा बैंक एकाउंट्स में इतनी दौलत है कि यदि सारी सरकार को मिल जाए तो देश बैठे बैठाये ही सोने की चिड़िया बन जाए । वैसे हमारी इस विसंगति पर पूरी दुनिया भी हैरान ही होती है कि धरती का हर चौथा ग़रीब जिस देश में रहता हो , वहाँ के धार्मिक स्थलों के पास इतनी दौलत है ? हालाँकि वे जब हमारा इतिहास पढ़ते होंगे और उन्हें पता चलता होगा कि मोहम्मद गजनी ने सत्रह बार भारत पर हमला देशवासियों को नहीं सोमनाथ मंदिर को लूटने के लिए किया था , तो उन्हें हमारे समृद्ध मंदिरों के बाबत सहज विश्वास हो ही जाता होगा । मंदिर ही क्यों हमारे हज़ारों की संख्या में धर्मगुरु क्या कम अमीर हैं ? सत्य साईं बाबा और जय गुरुदेव की सम्पत्ति उनके देहांत के बाद आँकी गई तो पचास पचास हज़ार करोड़ रुपये निकली । राधा स्वामी जैसे पचासों एसे बाबा देश में हैं जिन्होंने अपने पूरे पूरे शहर बसा रखे हैं । कमाल है कि कोरोना वायरस के आतंक के इस माहौल में भी किसी ने अभी तक अपने खीसे से इक्कनी भी नहीं निकाली ? कमाल यह भी है कि तंगी और बेपनाह ख़र्चों के बावजूद सरकार भी इन पर हाथ डालने का साहस नहीं दिखा रही । हे ईश्वर अब तू ही इन धर्मगुरुओं और मंदिरों के मठाधीशों को इतनी सदबुद्धि दे कि वे लोग यह सारा धन जनता के दुःख दर्द बाँटने में ख़र्च करें । हे ईश्वर इन्हें बता कि धन के इस उपयोग से तुझे ही सबसे अधिक ख़ुशी होगी ।


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फिर भी एक अवसर है

रवि अरोड़ा
कोरोना पर विधवा विलाप सुनते दिल ही न बैठ जाये इसलिए क्यों न कुछ अच्छी अच्छी बातें भी कर ली जायें । यूँ भी बुज़ुर्ग कहते तो हैं ही कि हर बुराई का कोई न कोई उजला पक्ष भी होता ही है । एसी कोई बाढ़ नहीं जिसने धरती की मृदा शक्ति न बढ़ाई हो अथवा सूख चुके जलायशों को फिर पानी से लबालब न किया हो । अब इस कोरोना से भी तो कुछ न कुछ हम भारतीयों की झोली में भी आएगा । राजनैतिक-सामाजिक परिवर्तन पर फिर कभी , आज तो आर्थिक पहलुओं पर ही चर्चा कर लेते हैं । बेशक क़ोविड-19 ने देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है और हमारी जीडीपी माइनस में पहुँचने का ख़तरा है। असंघटित क्षेत्र में रोज़गार का व्यापक संकट सिर पर है और भयंकर मंदी मुँह बाये खड़ी है मगर फिर भी कुछ तो एसा अब भी है जो हमारे लिए अवसरों की सौग़ात ला सकता है ।

पीछे मुड़ कर देखें तो वित्त वर्ष 2019-20 हमारे लिए अच्छी ख़बरें नहीं लाया और जाते जाते कोरोना का संकट और आन पड़ा । हालाँकि पिछले दो सालों से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था नीचे जा रही है और नब्बे फ़ीसदी अर्थव्यवस्थाएँ ढलान पर हैं तथा पिछले दस सालों में सबसे कमज़ोर हैं मगर भारत की अर्थव्यवस्था तो निजी कारणों से ही नीचे आती मानी गई । नोटबंदी और जीएसटी की व्यवस्था से देश की जीडीपी आधी ही रह गई । रोज़गार के अवसर कम हुए और महँगाई में भी तेज़ी से वृद्धि हुई । और अब कोरोना के कारण पिछले चालीस सालों में पहली बार जीडीपी नकारात्मक होने के कगार पर पहुँच गई है । लोगों की आमदनी आधी रह जाने के कारण घरेलू माँग पर भी निश्चित तौर पर उसका असर पड़ना है । कोढ़ में खाज का काम करेंगे 45 फ़ीसदी असंघटित क्षेत्र के श्रमिक जिनके रोज़गार अब ख़तरे में हैं । शुक्र है कि देश की अर्थव्यवस्था में लगभग बीस फ़ीसदी का कृषि क्षेत्र अभी भी मज़बूती से खड़ा है वरना मैनुफ़ैक्चरिंग क्षेत्र के 26 फ़ीसदी और सेवा क्षेत्र के 53 फ़ीसदी कारोबार के ही भरोसे होते तो कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की तरह हमारी भी लुटिया डूब जाती ।

इसमें कोई दो राय नहीं कि बदले हालात में चीन से हमारा कारोबार अब पहले जैसा नहीं रहेगा । इस कारोबार से सदा चीन को ही फ़ायदा हुआ है । पिछले वित्त वर्ष में ही हमने लगभग 70 अरब डालर का आयात और केवल 17 अरब डालर का निर्यात चीन को किया । देश में 45 फ़ीसदी इलैक्ट्रोनिक , 90 परसेंट मोबाईल फ़ोन, एक तिहाई मशीनरी ,40 फ़ीसदी कैमिकल और 65 परसेंट दवाइयाँ चीन से आ रही हैं । भारत सरकार ने चीन से आयात पर अनेक क़िस्म की रोक फ़िलहाल लगा दी हैं । यदि यह जारी रहती हैं तो निश्चित तौर पर देश के मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर को इसका भरपूर लाभ मिलेगा । चीन की ऑनलाइन कम्पनियों पर भी मोदी सरकार की तिरछी नज़र है ।


पिछले कुछ सालों में चीन दुनिया का सबसे बड़ा मैन्युफ़ैक्चरिंग हब बन कर उभरा था और इसी के बल पर पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में 19 फ़ीसदी उसकी हिस्सेदारी हो गई थी । बदले हालात में तमाम देश चीन से अपना कारोबार समेट रहे हैं और उनकी निगाह अब भारत और ब्राज़ील जैसे देशों पर है । भारत  का अपना बड़ा बाज़ार उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकता है बस एसे में थोड़ी होशियारी और समझदारी की ज़रूरत है । भारत का कमज़ोर इंफ़्रास्ट्रक्चर और कम्पनियों की गुप्तता सम्बंधी हमारी कमज़ोर शैली आढ़े आ रही हैं । वोडाफ़ोन कांड और मेक इन इंडिया की घोषणाओं के सिरे न चढ़ाने से भी हमारी पहले ही काफ़ी बदनामी हो चुकी है । उधर, यह तय है कोरोना के ख़त्म होने के बाद पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद का ज्वार आएगा । ज़ाहिर है कि भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा । अब राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि उसे अपने लिए कोई दुश्मन भी चाहिये । इस मामले में हमारे राजनीतिज्ञ पूरे सिद्धस्त हैं। यदि इस अवसर पर भी उन्होंने वही पुरानी हिंदू-मुस्लिम की राजनीति की तो यक़ीन जानिए यह मौक़ा तो हाथ से जाएगा ही साथ ही हम फिर से वहीं पहुँच जाएँगे , जहाँ से शुरू हुए थे ।




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