बिदेसिया यानी सामूहिक त्रासदी की कलात्मक अभिव्यक्ति
कुमार नरेन्द्र सिंह
भिखारी ठाकुर की जयंती पर उनके नाटक बिदेसिया के संदर्भ में मेरा लेख। मित्रों से निवेदन है कि वे इस लेख को पढ़ें और हो सके तो अपनी प्रतिक्रिया भी दे। धन्यवाद।
‘भोजपुरी के शेक्सपियर’ भिखारी ठाकुर का बिदेसिया नाटक, सच कहें तो भोजपुरी लोकजीवन की जीवंत दस्तावेज है, भोजपुरी अस्मिता की पहचान है, भोजपुरियों के दिल की धड़कन है और सृजनशीलता की अनूठी मिसाल है। शहरीकरण और औद्योगीकरण की आंधी में उजड़ते भोजपुरिया परिवार और उसके साथ ही कलकत्ता (कोलकाता), असम के चटकलों में काम की तलाश में पहुंचे भोजपुरिया मजदूरों की जिंदगी की दारुण दास्तान है बिदेसिया।
नृत्य-नाट्य की बिदेसिया शैली भोजपुरी लोक-संस्कृति की अनोखी उपलब्धि तो है ही, लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के कवित्तमय और कलात्मक सौंदर्य-बोध की विशिष्ट पहचान भी है। वास्तव में बिदेसिया नाटक वैयक्तिक प्रतिभा और संस्कृति के अंतर्मेल की उपज है। यही कारण है कि शायद ही कोई ऐसा खांटी भोजपुरिया मिले, जो बिदेसिया के अभाव में भोजपुरी संस्कृति की कल्पना कर सके। बिदेसिया शैली की अपार लोकप्रियता का सबसे महत्वपूर्ण कारण इसका परंपरा-स्युत होना ही है। भोजपुरी संस्कृति मूल रूप से मौखिक परंपरा पर आधारित रही है और गेयता इसका स्वभाव है। भोजपुरी के प्रसार में गीतों की बड़ी प्रधान भूमिका रही है। आज मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, फिजी, हॉलैंड, साउथ अफ्रीका आदि देशों में यदि भोजपुरी जिंदा है, तो बहुत हद तक इसका कारण उसकी गेयता ही है। अमिताभ घोष ने अपनी पुस्तक ‘सी ऑफ दी पॉपीज में’ इस तथ्य का उल्लेख विस्तार से किया है। वह कहते हैं कि गिरमिटिया मजदूरों में भोजपुरियों के अलावा अन्य भाषा-भाषियों की संख्या भी अच्छी-खासी थी, लेकिन जब उनके जहाज उपरोक्त देशों के तटों पर उतरे, तो सबकी भाषा भोजपुरी बन चुकी थी। वह बताते हैं कि इसका कारण यह था कि भोजपुरी संस्कृति में गायन की जबर्दस्त परंपरा रही है। गिरमिटिया मजदूर बनकर बाहर जानेवाले लोगों में केवल भोजपुरिया ही ऐसे थे, जिनके पास गीत-गवनई की परंपरा थी। वे यात्रा के दौरान जहाज पर गीत गाते थे। चूंकि अन्य समूह के पास ऐसी कोई परंपरा नहीं थी, इसलिए वे भी भोजपुरिया लोगों के साथ बैठकर उनकी देखादेखी गीत गाते थे। दुनिया के सबसे बड़े कोरस यानी सामूहिक गान की परंपरा और शेली को भोजपुरियों ने ही संजो रखा है – होली और चैता के रूप में। अपने गीतों की बदौलत भोजपुरी अन्य भाषाओं की रानी बन बैठी। ऐसे में यह अन्यथा नहीं कि भिखारी ठाकुर के नाटकों में परंपरा और गेयता का अनुपम साहचर्य देखने को मिलता है। अकारण नहीं कि भिखारी ठाकुर के नाटकों के पात्र बहुधा गीतों के माध्यम से ही अपने मनोभावों का इजहार करते हैं।
भोजपुरी यदि लोक परंपरा से विमुख नहीं हुई, तो इसका कारण ऐतिहासिक है। अपनी तमाम लोकप्रियता और भाषा के रूप में अपनी उपादेयता साबित कर चुकने के बावजूद अवधी, ब्रज और मैथिली की तरह भोजपुरी को हिंदी क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान का वहन कर सकने वाली भाषा के रूप में प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी। इसका एक कारण तो यह प्रतीत होता है कि इतिहास के किसी भी दौर में उसे राज्याश्रय प्राप्त नहीं हो सका और दूसरा की भोजपुरी जनता की सांस्कृतिक और भाषिक चेतना भी कई ऐतिहासिक और अनैतिहासिक कारणों से विकसित नहीं हुई। राष्ट्र की मुख्य धारा में भरपूर सहयोग करते रहने के बावजूद भोजपुरी के प्रति सरकारी रवैया नकारात्मक ही रहा।
इस सम्यक उपेक्षा का एक संतोषजनक परिणाम भी निकला और वह यह कि भोजपुरी भाषा और संस्कृति लोकधारा की सहजता से विमुख नहीं हो पाई। भावपथ की यह सरसता ही शैली के स्तर पर गेयता को जन्म देती है। लोक-चेतना के प्रतिनिधि कलाकार भिखारी ठाकुर से यह समझने में कोई भूल नहीं हुई कि सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा और उसका विकास चिर-परिचित परंपरा के स्वीकार में ही निहित है। परंपरा से भिखारी ठाकुर का आत्यांतिक जुड़ाव ही उन्हें भोजपुरी गीतों की विविध शैलियों के प्रयोग के लिए उकसाता रहा। यह आकस्मिक नहीं था कि उनकी रचनाओं में कजरी, सोरठी, झूमर, पूर्वी तथा आल्हा छंद के दर्शन होते हैं। नाटक के गीतों में वे पारंपरिक तर्जों को ही तरजीह देते नजर आते हैं। परंतु अनुकरण तो अनुकरण ही है। कलाकार के जीवन में यही वह बिंदु होता है, जहां उसकी समस्त आंतरिक संभावनाएं किसी अज्ञात बल से एकजुट होकर सर्वथा नवीन का निर्माण करती है। कहना न होगा कि बिदेसिया इसी सर्वथा नवीन की शोध-प्रक्रिया की अन्यतम उपलब्धि है। यदि कहा जाए कि बिदेसिया भिखारी ठाकुर के समग्र नाट्य-चिंतन की परमाभिव्यक्ति है, तो शायद गलत नहीं होगा।
भिखारी ठाकुर ने बिदेसिया नाट्य-शैली का प्रयोग सामूहिक त्रासदी की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए किया है। यह सामूहिक त्रासदी औद्योगीकरण की कोख से पैदा हुई थी. जिसने पुरबियों का सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न करके रख दिया। इतिहास गवाह है कि भारत में ब्रिटिश उपनिवेश की स्थापना के साथ ही भोजपुरी क्षेत्र के मजदूरों का पलायन कोलकाता और असम ही नहीं, वरन फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम आदि ब्रिटिश उपनिवेशों में भी हुआ। अंग्रेजी हुकूमत की सबसे गहरी मार भोजपुरियों को ही सहनी पड़ी थी। देश के अंदर भोजपुरियों ने कोलकाता को ही अपना आशियाना बनाया। सिपाही और मजदूर से लेकर दरबान बनने के लिए सबसे ज्यादा भोजपुरिया वहीं पहुंचे।
भोजपुरी प्रदेशों के लिए कोलकाता महज एक शहर का नाम नहीं है, बल्कि बिरह का एक ऐसा सैलाब है, जिसमें हजारों-हजार आंखों का काजल बह चुका है। इन प्रदेशों के नौजवान रोजगार और खुशी की तलाश में असम और कोलकाता के चटकलों में श्रम बेचने पहुंचते थे। बहुधा वे लौटकर नहीं आते थे, क्योंकि लौटने लायक उनकी स्थिति ही नहीं बन पाती थी और यदि लौटते भी थे, तो खुशहाली के बदले तंगहाली और बीमारी लेकर। अकारण नहीं कि भोजपुरी प्रदेश की औरतों के लिए कोलकाता किसी सौत से कम नहीं था। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुर के गांवों की औरतों में आज भी यह मान्यता प्रचलित है कि बंगाल और असम की औरतें उनके मर्दों को जादू से तोता और भेड़ा बनाकर रख लेती हैं। भिखारी ठाकुर की इन निम्नलिखित पंक्तियों में इस विश्वास की ललिताभिव्यक्ति देखिए –
मोर पिया मत जा हो पुरुबवा।
पुरुब देश में टोना बेस बा, पानी बड़ा कमजोर
मोर मत जा हो पुरुबवा।
(हे मेरे पति, पुरब की तरफ मत जाइए। पुरुब देश में जादू-टोना बहुत है और वहां का पानी भी कमजोर यानी खराब है।
औद्योगीकरण की आंधी में उड़कर पुरुष के प्रदेश जाने पर नारियों को ही सबसे ज्यादा पीड़ा झेलनी पड़ती थी। अकारण नहीं कि भोजपुरी गीतों में औद्योगीकरण के खिलाफ आक्रोश दिखाई देता है और दिलचस्प है कि सबसे पहले औरतों ने ही औद्योगीकरण की मुखालफत। देखिए यह बानगी –
कलवा के पानी पी के भइलन पियवा करिया
कल में डाढ़ा लागो ना......
अर्थात नलके का पानी पीकर मेरे पति काले हो गए हैं, इसलिए यह कल ही नष्ठ हो जाए (यहां कल का मतलब नलका तो है ही, कल-कारखाना भी है। पूरब के लोग नलके के पानी को कल का पानी ही कहते हैं)।
भिखारी ठाकुर ने इन स्थितियों को अपनी लेखनी से स्वर दिया और दस्तावेज बना बिदेसिया। ठाकुर जी ने अपने प्रातिनिधिक नाटक बिदेशिया में नाटक की नायिका प्यारी सुंदरी के आध्यम से उन तमाम विरहिणी नारियों की मनोदशा का वर्णन किया है, जिनके कंत कमाने के लिए कोलकाता गए हैं। इसके साथ ही उन्होंने अन्य पात्रों के संवाद के माध्यम से उन नारियों के प्रति समाज के नजरिए को भी उकेरा है।
प्यारी सुंदरी का पति गवना करा के उसे अपने घर ले आता है। कुछ दिन रहने के बाद वह एक दिन नौकरी की तलाश में घर से निकल जाता है और कोलकाता चला जाता है। वहां के चटकल में उसे नौकरी मिल जाती है। वहीं रहते हुए उसकी मुलाकात एक औरत से होती है। धीरे-धीरे यह मुलाकात मुहब्बत में बदल जाती है और वे पति-पत्नी की तरह एक साथ रहने लगते हैं। समय बीतने के साथ प्यारी का पति बिदेसिया प्यारी को भूल जाता है। अब यह दूसरी औरत ही उसकी जिंदगी है। प्यारी का पति तो प्यारी को भूल जाता है, लेकिन प्यारी अपने पति को कैसे भूल जाए। उसका तो सर्वस्व उसका पति ही है। देवर सहित गांव के अनेक युवक उससे संबंध बनाने के लिए प्रलोभन देते हैं, लेकिन प्यारी सभी प्रलोभनों को ठुकरा कर 12 वर्षों तक अपने पति का इंतजार करती है, लेकिन उसका पति वापस घर नहीं आता है। प्यारी की स्थिति यह है कि करे तो करे क्या और जाए तो जाए कहां। वह तिल-तिलकर जी रही है। वह समझ नहीं पाती है कि अपने मन की व्यथा अपने पति को पहुंचाए तो पहुंचाए कैसे। अपने पति का पता-ठिकाना भी तो नहीं जानती है वह। भिखारी ठाकुर ने विरहिणी नारी प्यारी की इस मनोदशा का क्या ही मार्मिक वर्णन किया है –
अमवा मोजरी गइले लगले टिकोरवा, दिन पर दिन पियरात रे बिदेसिया।
एक दिन बही जइहें जुलुमी बेयरिया, डार-पात जइहें भहराई रे बिदेसिया।
(आम का पेड़ मंजरों सो भर गया है और अब तो टिकोले भी लग चुके हैं, लेकिन ये टिकोले बढ़ने के बजाए धीरे-धीरे पीले होते जा रहे हैं। डर लगता है कि एक दिन जुल्मी बयार बहेगी और डाल-पात सहित पेड़ गिर जाएगा)।
एक विरहिणी नारी की मनोदशा का इतना शूक्ष्म चित्रांकन विरले कवियों और लेखकों ने किया है। पति-पत्नी के संबंधों में फिसलन की आशंका की इतनी लालित्यपूर्ण प्रस्तुति अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। लेकिन प्यारी सुंदरी की इस मनोदशा का एहसास उसके पति बिदेसिया को हो तब न। छ: महीने के लिए ही तो कहकर कोलकाता गया था बिदेसिया परंतु 12 वर्ष बाद भी नहीं लौटा। इसी मनोदशा में प्यारी की मुलाकात बटोही से होती है। मालूम हो कि बटोही की भूमिका भिखारी ठाकुर स्वयं करते थे। जब प्यारी को मालूम होता है कि बटोही कोलकाता जा रहा है, तो वह उससे मुलाकात करती है और अर्ज करती है कि वह उसका संदेश उसके पति बिदेसिया तक पहुंचा दे। प्यारी से बटोही उसके पति का नाम-पता पूछता है परंतु प्यारी अपने पति का नाम बताने के बदले उसकी पहचान बताती है और पता तो वह जानती ही नहीं है। वह बटोही को अपने पति की पहचान यूं बताती है –
हमरो बलमू जी के बड़े-बड़े अंखिया, चोखे-चोखे हउवे नयना कोर रे बटोहिया।
ओठवा तो हउवे जइसे कतरल पनवा, नकवा सुगनवा के ठोर रे बटोहिया।
करिया न गोर बाड़े लामा नाहीं हउवन नाटे, मझिला जवान साम सुन्दर बटोहिया।
घुठी प ले धोती कोर नकिया सुगा के ठोर, सिर पर टोपी छाती चाकर बटोहिया।
प्यारी से विदा लेकर बटोही चल देता है और कोलकाता पहुंचता है। प्यारी के बताए रंगरूप वाला व्यक्ति खोजने के लिए वह गली-गली घूमता है और आखिरकार बिदेसिया को ढूंढ़ने में सफल हो जाता है। जब बटोही देखता है कि बिदेसिया वहां किसी दूसरी औरत के साथ रह रहा है, तो वह उसे फटकार लगाता है और समझा-बुझाकर तथा प्यारी की व्यथा-कथा सुनाकर उसकी गलती का एहसास कराता है। अंत में बिदेसिया बटोही की बात मानकर अपने गांव वापस लौटने की तैयारी करने लगता है। यह उसकी दूसरी पत्नी को नागवार गुजरता है और वह बिदेसिया पर दबाव डालती है कि वह उसे छोड़कर न जाए, लेकिन बिदेसिया उसकी बात नहीं मानता है औऱ उसे छोड़कर वापस अपने घर अपनी पत्नी प्यारी सुंदरी के पास लौट आता है। कथा यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि आगे भी बढ़ती है। होता यह है कि बिदेसिया के घर वापस लौट जाने के बाद कोलकाता वाली बिदेसिया की दूसरी पत्नी भी बिदेसिया को ढूंढ़ते-ढूढते उसके गांव पहुचं जाती है। कहानी कई नाटकीय परिस्थितियों से गुजरते हुए दोनों पत्नियों द्वारा बिदेसिया को स्वीकार कर लिए जाने के साथ समाप्त हो जाती है। सभी खुशीपूर्वक एक साथ रहने लगते हैं।
बिदेसिया नाटक की कथा-वस्तु देखकर तुरंत ही यह स्पष्ट हो जाता है कि भिखारी ठाकुर भोजपुरी की क्षेत्रीय परंपरा से गहरे स्तर पर जुड़े हुए थे। जब बटोही प्यारी सुंदरी से उसके पति का नाम पूछता है, तो प्यारी अपने पति का नाम नहीं बताती है, बल्कि नाम के बदले उसकी पहचान बताती है। ऐसा नहीं हो सकता कि प्यारी अपने पति का नाम नहीं जानती होगी, परंतु यदि भिखारी ठाकुर प्यारी से उसके पति का नाम कहलवाते, तो वह क्षेत्रीय परंपरा का उल्लंघन होता। कहने की आवश्यकता नहीं कि उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में आज भी स्त्रियां अपने पति का नाम लेने में शर्माती हैं। यदि भिखारी ठाकुर इस परंपरा का निषेध करते, तो जाहिर है कि ऐसे में नाटक का दृश्य लोगों को खटकता और तब संभव था कि इसका असर नाटक की लोकप्रियता पर भी पड़ता। भिखारी ठाकुर जैसा सजग और सिद्ध कलाकार ऐसी गलती कैसे कर सकता था।
बिदेसिया, सही मायने में लोक-नाट्य परंपरा का वायवीय विकास का परिणाम है। नौटंकी की तरह बिदेसिया नाटक में भी पात्रों का कथन-उपकथन काव्य रूप में ही बयान होता है। दरअसल, संपूर्ण भोजपुरी साहित्य ही काव्य की काया में लिपटा हुआ है। भिखारी ठाकुर इसी परंपरा को और समृद्ध कर आगे बढ़ाने का काम करते हैं। संस्कृत नाट्य परंपरा की तर्ज पर बिदेसिया में भी मंगलाचरण की परंपरा है। बिदेसिया नाटक में सूत्रधार की आवश्यक उपस्थिति भी संस्कृत की रंगमंचीय परंपरा का ही विस्तार है। बिदेसिया नाटक में सूत्रधार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि नाटक के कथा-प्रवाह में वह सशक्त उत्प्रेरक का काम करता है। सूत्रधार की तरह बिदेसिया नाटक में जोकर यानी विदूषक की उपस्थिति भी अनिवार्य होती है। भिखारी ठाकुर के समय में बिदेसिया नाटक में जोकर की भूमिका निभाने वाले पात्र की लोकप्रियता का आलम यह था कि अनेक नृत्य-मंडलियों में जोकर का नाम वही रहता था।
बिदेसिया नाटक में पात्रों के विशिष्टीकरण का अभाव होता है। क्षण भर पहले बिदेसिया या बटोहिया की भूमिका निभाने वाला पात्र दूसरे ही क्षण मंच पर ढोलक, खंजड़ी या हारमोनियम बजाते नजर आता है। इसी तरह चरित्र के अनुरूप पात्रों का नामकरण बिदेसिया नाटक की अपनी मौलिक विशेषता है। उदाहरण के लिए पात्रों के बिदेसिया, बटोहिया आदि नाम उनके गुण-कर्म के अनुसार ही दिए गए हैं। वैसे उनके अन्य नाटकों में पात्रों का नामकरण उनकी बर्गीय स्थिति के अनुसार भी किए गए हैं।
बिदेसिया नाटक को बहुधा हम एक सांसारिक लीला के रूप में ही देखते हैं, जिसमें तत्कालीन भोजपुरिया समाज का उत्स उभरता है। लेकिन सामाजिक पक्ष के अलावा बिदेसिया का आध्यात्मिक पक्ष भी है। बिदेसिया नाटक में जीव, माया और ईश्वर के बीच स्थित आध्यात्मिक संबंधों को दर्शाने का प्रयास भी परिलक्षित होता है। भिखारी ठाकुर ने स्वयं इसके आध्यात्मिक पक्ष का उल्लेख किया है। वे कहते हैं - बिदेसिया जीव का प्रतीक है, जो उपना उद्देश्य पाने के लिए संसार में भटक रहा है और यह उद्देश्य है ईश्वर से एकाकार हो जाना। बिदेसिया की दूसरी पत्नी, जिसे भिखारी ठाकुर ने पतुरिया की संज्ञा दी है, माया की प्रतीक है। जीव यानी बिदेसिया उसमें उलझकर अपना उद्देश्य भूल जाता है। बटोही धर्म या संत का प्रतीक है, जो बिदेसिया को उसका उद्देश्य बताकर सीधी राह पर ले आता है और प्यारी सुंदरी तो स्वयं ईश्वर का प्रतीक है। जब बटोही कोलकाता पहुंचकर बिदेसिया को खोज लेता है, तो बिदेसिया उससे पूछता है कि आप हैं कौन और आपने मेरा पता कैसे ढूंढ़ लिया। बटोही के इस जबाव में बिदेसिया नाटक का आध्यात्मिक पक्ष स्पष्ट दिखाई देता है –
कायापुर घर हउवे पानी से बनावल गउवे, अचरज अकथ हउवे नाम हो बिदेसिया।
चललीं बहरवा से कानवां परल मोरा, सती के विपति के मोटरिया बिदेसिया।
हम देखते हैं कि भिखारी ठाकुर ने अपने बिदेसिया नाटक में जीव, माया और ईश्वर का एक अनोखा रूपक तैयार किया है। भारतीय वांग्मय में यूं तो ईश्वर की कल्पना अर्द्धनारीश्वर के रूप मे जरूर मिलती है, लेकिन किसी भी संत या कवि ने नारी रूप में ईश्वर की कल्पना नहीं की है। वैसे भी बिदेसिया नाटक का मूल स्वर त्रासदी और करुणा है और कहने की आवश्यकता नहीं कि इसकी प्रतिमूर्ति नारी ही हो सकती है। कहा जाना उचित होगा कि यह आध्यात्मिक अवधारणा भिखारी ठाकुर की मौलिक प्रतिभा का परिचायक है। बिदेसिया नाटक के जरिए ठाकुर जी ने परदेश में रहने वालों को घर की सुध लेने की सलाह भी दी है।
इतनी समृद्ध और रचनात्मक शैली के बावजूद बिदेसिया नाटक अब अपना वजूद खोता जा रहा है। वैसे यह कहना ज्यादा सही है कि वजूद खो चुका है। आनन-फानन में 15-20 हजार लोगों की भीड़ जुटा लेना जिस नाटक का अनिवार्य गुण रहा हो, जो नाटक दर्शकों को घंटों बैठकर देखने को मजबूर करने की हैसियत रखता रहा हो, वह आज लोगों से दूर हो चुका है। इसकी लोकप्रियता में कमी आने का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि भिखारी ठाकुर की मृत्यु के बाद उनकी मंडली के अन्य सदस्यों में न तो उतनी प्रतिभा थी और न उत्साह कि वे नाटक को परिमार्जित कर समीचीन बनाए रखते यानी समय के साथ बिदेसिया नाटक में आवश्यक परिवर्तन नहीं किया जा सका। जब तक भिखारी ठाकुर जिंदा थे, अपने नाटकों में आवश्यक परिवर्तन कर और उसे मनोरंजक बनाकर प्रांसंगिक बनाए रखते थे, अपने नाटकों को सुधारने-संवारने का काम करते रहते थे। उनके नहीं रहने के बाद सार्थक परिवर्तन की यह प्रक्रिया बंद हो गई।
बहरहाल, पिछले कुछ वर्षों में देश के रंगकर्मियों का ध्यान बिदेसिया शैली की तरफ आकृष्ट हुआ है। सतीश आनंद ( अब वे नहीं रहे) बिदेसिया शैली के विकास और प्रचार का काम करते रहे थे। उन्होंने बिदेसिया शैली पर आधारित ‘अमली’ नाटक का मंचन न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी किया था और हर जगह वाहवाही लूटी थी। बिहार के एक अन्य रंगकर्मी संजय उपाध्याय तो मूल बिदेसिया नाटक का ही मंचन करते हैं। यह अलग बात है कि कई बार वे बिदेसिया के नाम पर भोंडी प्रस्तुति करते हैं, लेकिन इसे बाजारवाद के दबाव के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। वैसे हाल के वर्षों में बिहार की लगभग सभी नाट्य-मंडलियां बिदेसिया शैली पर आधारित नाटकों का मंचन करने में रुचि ले रही है, जो उत्साहजनक है और संतोषजनक भी।
हिंदुस्तान के सारे रंगकर्मी और नाट्य-शास्त्र के विद्वान मुक्त कंठ से बिदेसिया की प्रशंसा करते हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन बिदेसिया नाटक के बहुत बड़े प्रशंसक थे। बिदेसिया नाटक को देखकर ही उन्होंने भिखारी ठाकुर को ‘एक अनगढ़ हीरा’ कहा था। वह मानते थे कि यदि भिखारी ठाकुर की कृतियों का सही आकलन नहीं हो सका, तो इसके लिए पढ़ुआ (पढ़े-लिखे) लोग ही जिम्मेदार हैं। यदि भिखारी ठाकुर को पढ़े-लिखों का सहयोग मिला होता, तो उनकी प्रतिभा में और भी अधिक निखार आता।
संक्षेप में कहें तो बिदेसिया शब्द नहीं, यथार्थ है – एक ऐसा यथार्थ जिसमें माटी की महक है, फूलों का सुगंध है और जीवन की आलोचना है। श्रृंगार और वियोग की चादर पर करुणा का रंग बिखेरने और सामूहिक त्रासदी की कलात्मक अभिव्यक्ति का नाम है बिदेसिया।
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