मंगलवार, 9 सितंबर 2025

हिंदी दिवस पखवाड़ा धारावाहिक-०१

 

*हिंदी के राह के रोड़े -

अतुल प्रकाश*


आज आपको हिन्दी दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से प्रगति पथ पर बढ़ती हुई दिखाई दे सकती है। हालाँकि, एक अर्थ में यह ग़लत भी नहीं हैं। निश्चित रूप से हिन्दी का संसार विस्तार कर रहा है। राष्ट्र की सीमाएँ पार कर विदेशी धरती पर भी इसने अपनी हैसियत साबित की है। सरहदों के पार निगाह दौड़ाएँगे तो हिन्दी को सम्भावनाओं के संसार में सरपट दौड़ लगाते और सम्भावनाओं का ख़ुद का एक नया संसार रचते हुए पाएँगे। यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि भारतीय बाज़ार में पैठ की लालसा पाले विदेशी भी अब हिन्दी सीखने को आतुर हैं। 

यदि मॉरीशस, त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम तथा फीजी जैसे देशों में प्रवासी भारतीय अपनी विरासत के तौर पर इस भाषा को पाल-पोस रहे हैं तो अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, जर्मनी, पोलैण्ड, रूस, चीन, जापान, कोरिया जैसे अन्यान्य देशों के लिए यह बाज़ार की ज़रूरत बन रही है। यह सोचना भी कम अच्छा नहीं लगता कि दुनिया के डेढ़ सौ से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाने लगी है। और तो और, हिन्दी फिल्में सीमा के पार भी अपना बाज़ार बना रही हैं और हिन्दी गाने अहिन्दीभाषियों के कानों में रस घोलने लगे हैं। ऐसे में, जब हमारी हिन्दी विश्वपटल पर एक बड़ी भूमिका में आने को तैयार दिखाई दे रही हो, तब कोई भी यह सवाल कर ही सकता है कि हमारे जैसे लोग हिन्दी के हाल पर आख़िर क्यों इतने बेहाल हुए जा रहे हैं?

इसी देश में अँग्रेज़ी माध्यम के ऐसे विद्यालय खड़े हो रहे हैं, जहाँ हिन्दी बोलने पर अघोषित सेंसर है। ‘पापा-मम्मी’ के रूप में काफ़ी हद तक हमारे नौनिहालों का संस्कृतीकरण हो चुका है। अब गाँवों में भी ‘माई’, ‘बाबू’, ‘काका’ बोलना दकियानूसी और शर्म का विषय बनने लगा है। जिस गति से कानवेण्टीकरण चल रहा है, उसमें ‘कुकुरमुत्ते’ वाला मुहावरा भी बहुत पीछे छूट गया है।


हिन्दी का हाल हिन्दुस्तान में कैसा है, बयान कर पाना आसान नहीं। उम्मीदों से ज़्यादा आशङ्काएँ हैं। हिन्दी का खा-खाकर मुटिया रहे लोग भी जब अँग्रेज़ी के ढोल-ताशे बजाने लगें तो फिर कहने को रह ही क्या जाता है? आज़ादी के इतने बरस बाद गुलाम मानसिकता घटने की कौन कहे, जैसे दिनोंदिन बढ़ ही रही है। कभी फादर कामिल बुल्के ने कहा था—‘‘संस्कृत माँ, हिन्दी गृहिणी और अँग्रेज़ी नौकरानी है।’’ बेल्जियम से आकर हिन्दी के लिए ख़ुद को समर्पित कर देने वाले फादर ने यह कहते हुए इस बात को गहरे तक महसूस किया था कि इस देश की असल भाषाई ज़रूरत क्या है। वास्तव में उन्होंने संस्कृत, हिन्दी और अँग्रेज़ी के लिए जिन जगहों को रेखाङ्कित किया था, उनकी प्रासङ्गिकता आज भी वैसी-की-वैसी है। लेकिन, दुर्भाग्य कि हमारे सत्ताधीश निरन्तर जैसी परिस्थितियाँ बना रहे हैं उसमें नौकरानी राजरानी बन गई है और माँ और गृहिणी को हर दिन लतियाती-धकियाती हुई दिखाई दे रही है।

 माँ (संस्कृत) को तो इस हाल में लाकर छोड़ दिया गया है कि भूले से भी आप उसके पक्ष में कोई बात करते दिखाई दे जाएँ तो बिना किसी किन्तु-परन्तु के दकियानूसी, मनुवादी, पोंगापन्थी आदि-आदि की चिप्पी आप पर चिपका दी जाएगी। हिन्दी की हालत ज़रूर अभी इतनी दयनीय नहीं है, पर आने वाले कुछ वर्षों में इसका भी हाल वही हो जाय और यह भी विलुप्त होने के कगार पर पहुँचा दी जाए तो आश्चर्य नहीं।


कुछ लोग मेरी बात पर हँस सकते हैं और कह सकते हैं कि मैं बेवजह का स्यापा कर रहा हूँ।


3 टिप्‍पणियां:

  1. इतना सबकुछ लेकिन आज तक हमारी हिंदी राष्ट्रभाषा पद पर विराजमान नहीं हो सकी,,,
    बहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति

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  2. कोई माने या ना माने, हिन्दी सबको समझ में आती है। वक़्त पर काम आती है। गुनगुनाई जाती है । आईना दिखाता लेख । नमस्ते।

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