रविवार, 2 जनवरी 2011

शंकरदयाल सिंह----(यह कहानी नहीं है)

सारांश: प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश संभव है कहानी-संग्रह के इस नाम (यह कहानी नहीं है) से तथा कहानीकार के रूप में शंकरदयाल सिंह को अपने सामने पाकर आप चौंके, मानो यह कोई जीवित सपना हो। विश्वास कीजिए, इन कहानियों के बीच से गुजरते हुए आपको सहज एहसास होगा कि किसी भी कहानी का बिंब परीलोक की गाथा नहीं; बल्कि वह यथार्थ है जो पानी का बुलबुला नहीं होता; बरौनियों और पलकों के आसपास का वह अश्रुकण है जिसमें अनुभूति की सचाई तथा दर्द की गहराई दोनों होती हैं। ‘यह कहानी नहीं है’ की कहानियों का फासला तथा परिवेश गत 25-30 वर्षों का वृत्त है, जिसे पाठकों ने ज्ञानोदय, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कहानी,, कहानीकार, ज्योत्सना, मुक्तकंठ आदि के पन्नों पर सुहागवती मछलियों के समान थिरकते या फिर मुंशी और मादल के समान रुदन-हास करते देखा-सुना होगा। कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ नेपथ्य की आवाज़ नहीं हैं, समय-शिल्प की यथार्थवादी पकड़ है। प्रकाशक सम्पादकीय भारतीय राजनीति-क्षेत्र और हिन्दी साहित्य जगत् दोनों ही के लिए शंकरदयाल सिंह जी का नाम कोई नया नहीं है। राजनीति के क्षेत्र में जहाँ उनका व्यक्तित्व एक सुलझे हुए राजनेता के रूप में उभरकर सामने आया है वहीं हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उनकी लेखिनी का जादू पाठकों को वर्षों से आकृष्ट करता रहा है। जहाँ एक ओर उन्होंने अपनी राजनीतिक-यात्रा में अनेक पड़ाव तथा मंजिलें तय की हैं वहीं दूसरी ओर सर्जनात्मक साहित्य-लेखन में अनेक कीर्ति-स्तंभ स्थापित किए हैं। विषमताओं और कुटिलताओं से प्रदूषित आज के इस राजनीतिक वातावरण में शंकरदयाल जी ने गांधीवादी आदर्शों की चादर ओढ़कर जो छवि स्थापित की है, वह आगे आनेवाले राजनेताओं के लिए ‘आदर्श’ बनेगी और उनका दिशा-निर्देश करेगी। दूसरी ओर सर्जनात्मक साहित्य के क्षेत्र में, विशेषकर ‘संस्मरण’ और ‘यात्रा-वृत्तांत’ लेखन की परंपरा में, अपनी लेखिनी के माध्यम से हिन्दी साहित्य जगत् को उन्होंने जो अमूल्य निधि अर्पित की है, वह आगे आने वाले साहित्य लेखकों के लिए प्रेरणादायक साबित होगी। गत तीस-पैंतीस वर्षों से शंकरदयालजी साहित्य-लेखन से जुड़े रहे हैं और आज भी उनकी लेखन-धारा वेगवती प्रवाहित हो रही है। साहित्य की शायद कोई विधा हो जिस पर उन्होंने अपनी लेखिनी नहीं चलाई। कहानी, निबंध, आलोचना संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत आदि के क्षेत्र, विशेष रूप से, उनके प्रिय लेखन-क्षेत्र रहे हैं ! उन्होंने अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया है और वर्षों तक ‘पारिजात प्रकाशन, पटना’ से ‘मुक्त कंठ’ नामक पत्रिका का बड़ी सफलता के साथ संपादन भी करते रहे हैं। ‘मुक्त कंठ’ के माध्यम से अनेक प्रतिभाशाली नए लेखकों को साहित्यिक-मंच पर ला खड़ा करने में शंकरदयालजी की विशिष्ट भूमिका रही है। अलग-अलग साहित्यिक विधाओं से जुड़ा शंकरदयालजी का लेखन-कार्य देश की लगभग समस्त प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं तथा उनकी अपनी प्रकाशित पुस्तकों के माध्यम से पाठकों एवं साहित्यक मर्मज्ञों के समझ समय-समय पर बराबर आता रहा है। उनकी कुछ पुस्तकें ऐसी हैं जिनमें किसी एक विधा से संबंधित लेख हैं। अब, हमारी यह योजना है कि शंकरदयालजी जी अलग-अलग विधाओं से संबंधित समस्त प्रकाशित अथवा अप्रकाशित रचनाओं को अलग-अलग पुस्तक-खंड़ों में प्रकाशित किया जाए। इस योजना के अन्तर्गत हम उनकी कहानियाँ, निबंध संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत तथा डायरी से संबंधित लेखन-साहित्य को पाँच अलग-अलग खंडों में पाठकों के समझ प्रस्तुत करने जा रहे हैं। प्रस्तुत है ‘यह कहानी नहीं है’ हमारी उसी योजना का प्रथम चरण है जिसमें शंकरदयालजी की अब तक प्रकाशित तथा अप्रकाशित समस्त कहानियों को स्थान दिया गया है। जहां तक कहानी-लेखन का प्रश्न है, शंकरदयालजी की अधिकांश कहानियाँ छठे दशक के उत्तरार्द्ध तथा सातवें दशक के मध्य लिखी गई हैं तथा इनका प्रकाशन 1974 से 1985 के अंतर्गत अलग-अलग कहानी-संग्रहों के माध्यम से हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम खंड में इन्हीं कहानियों को रखा गया है। शंकरदयालजी ने इन कहानियों के अतिरिक्त अनेक ‘लघु कहानियों’ की भी रचना की है। वस्तुत: ये लघु-कहानियाँ लेखक के ‘लघु-भावबोध’ हैं जो पाठक के मानस-पटल पर बड़ी ही द्रुत गति से अपने प्रभाव अंकित करने में पूर्णत: समर्थ हैं। प्रस्तुत संकलन के द्वितीय खंड में हमने इन्हीं लघु कथाओं को स्थान दिया है। सर्जनात्मक साहित्य-लेखन की जिस परंपरा का वहन शंकरदयालजी की लेखिनी ने किया है, कहानी-लेखन भी उसी परंपरा का एक अंग है। परंतु, यही एक विधा ऐसी है जिस पर पिछले दस-पंद्रह सालों से लेखक ने लिखना लगभग बंद-सा ही होकर कर दिया है। लेकिन यह इस बात का परिचायक नहीं है कि लेखक को कहानी लिखना प्रिय नहीं है अथवा कहानी अब लेखक के मन में रूपायित नहीं होती। शंकरदयालजी एक संवेदनशील व्यक्तित्व हैं। उनके मानसिक धरातल पर तो ये कहानियाँ अब भी रूप ग्रहण करती हैं परंतु उनकी मानसिक अभिव्यक्ति लिखित अभिव्यक्ति के रूप में साकार नहीं हो पाती। उसके दो प्रमुख कारण हैं-एक तो व्यस्तताओं से घिरा उनका जीवन-चक्र तथा दूसरे, इन दिनों उनकी रुचि संस्मरण तथा यात्रा-वृत्तांत-लेखन के क्रम में आया यह व्यवधान जल्दी ही समाप्त होगा और वे अपनी नई रचनाओं के साथ पाठकों के समक्ष पुन: उपस्थित होंगे। प्रस्तुत कहानी-संग्रह ‘यह कहानी नहीं है’ का संपादन कार्य करते समय हम लोगों को अनेक बार शंकरदयालजी से परामर्श लेने की आवश्यकता पड़ी है और आगामी खंडों के प्रकाशन में भी पड़ेगी। परन्तु कठिनाई यह है कि उनके व्यस्त समय में से कुछ क्षण पा लेना कोई आसान कार्य नहीं है। फिर भी, उनकी इच्छा-अनिच्छा के बावजूद हम लोग उनके बहुमूल्य समय में से कुछ समय चुरा पाने में सफल हो ही गए हैं। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि शंकरदयालजी का ‘सान्निध्य’ सदा प्रेरणा और स्फूर्तिदायक होता है। हम लोगों को उनके सान्निध्य का जो सुख मिला है, उसके लिए हम लोग उनके आभारी हैं। हमें पूर्ण आशा है कि हमारी उक्त योजना से तथा हमारे इस प्रयास से पाठकों को तो लाभ होगा ही, साहित्यकारों और साहित्य-समीक्षकों को भी एक ही संग्रह में लेखक की समस्त कहानियाँ आ जाने से सुविधा होगी। इसके अतिरिक्त आज देश के कई विश्वविद्यालयों में शंकरदयालजी के साहित्य पर जो शोध-छात्र शोधकार्य कर रहे हैं, निश्चित ही वे लोग इस योजना से लाभान्वित हो सकेंगे। नई दिल्ली -रवि प्रकाश गुप्त -मंजु गुप्ता कुछ मैं भी कह दूँ कहानी का दर्द और कहानी का सौन्दर्य अपना होता है। कहानी के बारे में कहानीकार का कहना कुछ भी मायने नहीं रखता, क्योंकि इस संबंध में जो भी कहना हो, वह कहानी स्वयं अपने आप कहेगी। इतना स्पष्ट है कि किसी भी कहानी में किसी-न-किसी रूप में कहानीकार आलिप्त रहता है। मैंने लेखन की शुरुआत कहानी से ही की थी। 1953 या 54 में आयोजित एक कथा-प्रतियोगिता में मेरी कहानी को प्रथम पुरस्कार मिला था, जिसे उस समय सराहना मिली तथा ‘आज’ में प्रकाशित हुई। उसकी प्रेरणा मेरे लेखन पर पड़ी। बाद के दिनों में मेरी धारणा बदल गई और मैंने सोचा कि जब सामयिक संदर्भों में ही लेखन की इतनी सारी बातें तैर रही हैं, तब फिर कल्पना का सहारा क्यों लिया जाए। मेरी इस धारणा के पीछे यह सचाई थी कि सबसे अधिक पाठक समाचार-पत्रों के हैं, जो सामयिक संदर्भों में रुचि रखते हैं अथवा उनसे जूझना चाहते हैं। अखबार आज के जीवन की अनिवार्यता हो गई है, जहाँ शीर्षकों के सहारे आज का आदमी दिन की शुरुआत करता है तथा धारणाओं का संसार गढ़ता है। अत: कहानियों की जगह, सचाइयों से टकराने लगा। कभी संस्मरणों के द्वारा, कभी यात्रा-प्रसंगों के माध्यम से तथा कभी सामयिक संदर्भों को लेकर। जहाँ तक मुझे याद है, 1984 के बाद मैंने कोई कहानी नहीं लिखी, लेकिन कहानी का दर्द सदा मेरे अंदर पलता रहा है। आज मुझे प्राय: इलहाम होता है कि राजनीतिक कहानियाँ लिखूँ, क्योंकि सामाजिक, प्रेमपूर्ण और ऐतिहासिक कहानियों की अपेक्षा बहुत बड़े पाठक-वर्ग का रुझान इस ओर है। कहानी अपनी यात्रा में अब काफी आगे निकल चुकी है। कहानी, अकहानी, यथार्थवादी कहानी, आंचलिक कहानी, ग्रामीण कहानी, प्रेम कहानी आदि कई विधाओं में वह विभक्त है। लेकिन इस सबके बावजूद कहानी केवल कहानी होती है, जिसके साथ पाठक का सह भाग भी होता है। हालाँकि आलोचकों-समीक्षकों ने उसे अपनी-अपनी धारणाओं में उलझाने की कोशिश की है, जिन पर कुछ वादों का भी मुलम्मा है : खुशी की बात है कि आज सौ-दो सौ लघु-पत्रिकाएँ ऐसी निकल रही हैं जिनमें कई उल्लेखनीय कहानियाँ देखने को मिल जाती हैं। दूसरी ओर बड़ी पत्रिकाओं में अधिकतर बड़े नामों का झरोखा देखने को मिलता है। इस कहानी का शीर्षक ‘उसने कहा था’ या ‘पंच परमेश्वर’ या ‘गदल’ या ‘धरती अब भी घूम रही है’ नहीं हो सकता और लेखक का नाम गुलेरी, प्रेमचन्द्र, रांगेय राघव या विष्णु प्रभाकर नहीं होता। लेकिन हर कहानी की तासीर अपनी होती है और उसी प्रकार उस कहानीकार का नाम भी अपना होता है। कहानी की सही पहचान शीर्षक या लेखक के नाम पर न होकर उसकी गहरी छाप पाठक पर क्या पड़ी, वह है। दुनिया में सबसे अधिक कविताएँ लिखी गईं, कहानियाँ पढ़ी गई और उपन्यासों को मान्यता मिली। जाहिर है कि आज जब हर आदमी की जिंदगी भागते पहिए के समान है, वह कहानियों के सहारे ही अपनी पाठकीय क्षुधा की तृप्ति कर सकता है। मेरी इन बिखरी कहानियों का परिवेश काफी व्यापक है तथा क्रमबद्धता की कमी के कारण भाषा-शैली, कथासूत्र सबकी बेतरतीबी है। इनका एक जिल्द में आना किसी के लेखन की ऐतिहासिक पूँजी हो सकती है। ये कहानियाँ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के अंदर प्रकाशित हुई हैं। अनेक ऐसी कहानियाँ जो इस संग्रह में होती तो मेरे मन को संतोष होता, लेकिन खोजने-ढूँढने के बाद भी कई कहानियाँ नहीं मिलीं। जो मिल गई और संग्रहीत हो गईं, उनके लिए अप्रत्यक्ष रूप से अपने उन पाठकों के प्रति आभारी हूँ, जिनके प्रेम तथा लगाव ने मुझे लेखन की निरतंरता प्रदान की है। सबके बावजूद यह संग्रह डॉ. रवि प्रकाश गुप्त और डॉ. मंजु गुप्ता के परिश्रम और निष्ठा का फल है। रविजी ने केवल संपादन की औपचारिकता का निर्वाह ही नहीं किया, वरन् निष्ठा का परिचय भी दिया। अस्थायी पता: 15, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड, नई दिल्ली-110001 शंकरदयाल सिंह कामता-सदन, बोरिंग रोड पटना-80

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

जरा गांव में कुछ दिन ( या घर लौटकर ) तो देखो 😄😄

 गांव का मनोरंजन  डेढ़ महीना गांव में ठहर जाओ,तो गाँववाले बतियाएंगे "लगता है इसका नौकरी चला गया है सुबह दौड़ने निकल जाओ तो फुसफुसाएंगे ...