मुक्तकंठ ही क्यों
अनामी शरण बबल
आखिरकार इस पत्रिका मुक्तकंठ में ऐसा क्या है कि इसके बंद होने के 27 सालों के बाद इसी पत्रिका को फिर से शुरू करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। यह बात सही है, कि इसे ही क्यों आरंभ करें। मुक्तकंठ को करीब 17-18 साल तक लगातार निकालने के बाद बिहार के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और राजनीति में समान रूप से सक्रिय शंकरदयाल सिंह ने इसे 1984 में बंद कर दिया था। बंद करने के बाद भी शंकर दयाल सिंह के मन में मुक्तकंठ को लेकर हमेशा एक टीस बनी रही, जिसे वे अक्सर व्यक्त भी करते थे। मुक्तकंठ उनके लिए अभिवयकित का साधन और साहित्य की साधना की तरह था, जिसे वे एक योगी की तरह सहेज कर ऱखते थे। मुक्तकंठ और शंकरदयाल सिंह एक दूसरे के पूरक थे।
बिहार में मुक्तकंठ और शंकर दयाल की एक ही पहचान मानी जाती थी। इसी मुक्तकंठ को 1984 में बंद करते समय उनकी आंखे छलछला उठी और इसे वे पूरी जवानी में अकाल मौत होने दिया।
एक पत्रिका को शुरू करने को लेकर मेरे मन में मुक्तकंठ को लेकत कई तरह के सवाल मेरे मन में उठे, कि इसे ही क्यों शुरू किया जाए। सहसा मुझे लगा कि सालों से बंद पड़ी इस पत्रिका को शुरू करना भर नहीं है, बलिक उस सपने को फिर से देखने की एक पहल भी है, जिसे शंकर दयाल जी ने कभी देखा था।
देव औरंगाबाद (बिहार) की भूमि पर साहित्य के दो अनमोल धरोहर पैदा हुए। कामता प्रसाद सिंह काम और उनके पुत्र शंकर दयाल सिंह ही वो अनमोल धरोहर हैं, िजनकी गूंज दोनों की देहलीला समाप्त होने के बाद भी आज तक गूंज रही है। सूय() नगरी के रूप में बिख्यात देव की धामिक छवि को चार चांद लगाने वालों में पिता-पुत्र की जोड़ी से ही देव की कीति बढ़ती रही। देव में साहित्यकारों और नेताअो की फौज को हमेशा लाते रहे। देव उनके दिल में बसा था और देव की हर धड़कन में शंकर दयाल की की उन्मुक्त ठहाकों की ठसक भरी याद आज तक कायम है। शंकर दयाल जी के पिता कामता बाबू से पहले देव के राजा रहे राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह ने भी अपने शासन काल के दौरान नाटक, अभिनय और मूक सिनेमा बनाकर अपनी काबिलयत और साहित्य, संगीत,के प्रति अपनी निष्ठा और लगन को जगजाहिर किया था। इसी देव भूमि के इन तीन महानुभावों ने साहित्य, संगीत के बिरवे को रोपा था, जिसे शंकर दयाल जी के पुत्र रंजन कुमार सिंह और आगे ले जाते हुए फोटोग्राफी और फिल्म बनाने के साथ अंग्रेजी लेखन से इसी परम्परा को अधिक समृद्ध बनाया है।
मुक्तकंठ से आज भी बिहार के लोगों को तीन दशक पहले की यादे ताजी हो जाती है। अपने गांव और अपने लोगों की इस धरोहर या विरासत को बचाने की इच्छा और ललक के चलते ही ऐसा लगा मानो मुक्तकंठ से बेहतर कोई और नाम हो ही नहीं सकता। सौभाग्यवश यह नाम भी मुझे िमल गया। तब सचमुच ऐसा लगा मानों देव की एक िवरासत को िफलहाल बचाने में मैं सफल हो गया। इस नाम को लेकर जिस उदारता के साथ शंकर दयाल जी के पुत्र रंजन कुमार सिंह ने अपनी सहमति दी वह भी मुझे अभिभूत कर गया। एक साप्ताहिक के तौर पर मुक्तकंठ को आरंभ करने के साथ ही ऐसा लग रहा है मानों देव की उस विरासत को फिर से जीवित करने की पहल की जा रही है, जिसका वे हमेशा सपना देखा करते थे। हालांकि मुक्तकंठ के नाम पर जमापूंजी तो कुछ भी नहां है, मगर हौसला जरूर है कि अपने घर आंगन और गांव के इन लोगों की यादों को स्थायी तौर पर कायम रखने की चेष्टा क्यों ना की जाए। मैं इसमें कितना कामयाब होता हूं, यह तो मैं नहीं जानता, मगर जब अपने घर की धरोहरों को कायम रखना है तो चाहे पत्र पत्रिका हो या इंटरनेट वेब हो या ब्लाग हो, मगर देव की खुश्बू को चारो तरफ फैलाना ही है। इन तमाम संभावनाअों के साथ ही मुक्तकंठ को 27 साल के बाद फिर से शुरू किया जा रहा है कि इसी बहाने फिर से नयी पीढ़ी को पुराने जमाने की याद दिलायी जाए, जिसपर वे गौरव से यह कह सके कि वे लोग देव के ही है।
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