बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

साहित्यिक पत्रकारिता के स्तंभ- शिवपूजन सहाय

अवधभूमि

रामराज्य की परिकल्पना …..



हिंदी साहित्यकारों ने समय-समय पर हिंदी पत्रकारिता में अपना योगदान दिया है। साहित्यकारों के मार्गदर्शन में पत्रकारिता ने भी नई ऊंचाईयों को प्राप्त किया है। साहित्य और पत्रकारिता का जब सम्मिश्रण होता है, तब पत्रकारिता सूचना ही नहीं जनशिक्षण और सांस्कृतिक उत्थान का भी माध्यम बनकर उभरती है। हिंदी साहित्यकारों का हिंदीपत्रकारिता से पुराना नाता रहा है जैसे भारतेंदु हरीश चन्द्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, मुंशी प्रेमचंद, माधवराव सप्रे एवं आचार्य शिवपूजन सहाय आदि।
आचार्य शिवपूजन सहाय की बात की जाए तोपत्रकारिता के क्षेत्र में वे साहित्यिक सरोकारों कोपत्रकारिता से जोड़ने के लिए जाने जाते हैं।पत्रकारिता की विधा से जब साहित्य जुड़ता है, तोपत्रकारिता भाषा के स्तर पर समृद्ध होती है और सामाजिक सरोकारों से भी सहज रूप से जुड़ जाती है। आचार्य शिवपूजन सहाय ने इस कार्य को भली-भांति अंजाम दिया। 9 अगस्त, 1993 को बिहार के शाहाबाद जिले में जन्मे शिवपूजन सहाय ने पत्रकारिता को खासतौर से साहित्यिक पत्रकारिता को एक दिशा प्रदान की। शिवपूजन सहाय छात्रजीवन से ही पत्रकारिता से जुड़ गए थे, उनके लेख ‘शिक्षा‘, ‘मनोरंजन‘, और ‘पाटलिपुत्र‘ जैसे पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे।
सहाय जी का समय वह समय था जब भारत अंग्रेजी दासता से मुक्ति के लिए संघर्षरत था। ऐसे समय में शिवपूजन सहाय जैसे व्यक्तित्व का स्वाधीनता आंदोलन के संग्राम से जुड़ना स्वाभाविक ही था। गांधी जी के असहयोग आंदोलन में सहभागिता के लिए वे सरकारी नौकरी को छोड़कर आरा के स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्य करने लगे। लेकिन सहाय जी का पत्रकार मन पत्रकारिता से जुड़ने के लिए व्याकुल था, अतः आरा से ही उन्होंने 1921 में ‘मारवाड़ी सुधार‘ मासिक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया। इसके पश्चात् वे 20 अगस्त, सन 1923 में कोलकाता से प्रकाशित होने वाले ‘मतवाला‘ से जुड़ गए। शिवपूजन जी ‘मतवाला‘ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। इस पत्र में कार्य करने के दौरान उनको महान साहित्यकार और पत्रकार सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का भी सहयोग प्राप्त हुआ। ‘मतवाला‘ को मूर्त रूप देने में शिवपूजन सहाय की प्रमुख भूमिका रही थी। ‘मतवाला‘ छपकर बाजार में आया तो धूम मच गई।
‘मतवाला‘ ने जबरदस्त लोकप्रियता प्राप्त की। साहित्य, समाज, संस्कृति, राजनीति, शासन, धर्म आदि सभी विषयों पर मतवाला में लेख और समाचार प्रकाशित होते थे। यह पत्र वैचारिक रूप सेलोकमान्य तिलक से प्रभावित रहा। साथ ही ‘मतवाला‘ को गांधी के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में भी गहरी आस्था थी। ‘मतवाला‘ के संपादन के अलावा उन्होंने ‘मौजी‘, ‘आदर्श‘, ‘गोलमाल‘, ‘उपन्यास तरंग‘ और ‘समन्वय‘ जैसे पत्रों के संपादन में भी सहयोग किया। कुछ समय के लिए सन् 1925 में आचार्य सहाय ने ‘माधुरी‘ का भी संपादन किया। इसके पश्चात सन् 1926 में वे पुनः ‘मतवाला‘ से जुड़ गए।
शिवपूजन सहाय ने भागलपुर के सुलतानगंज से छपने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘गंगा‘ का भी संपादन किया। इसके अलावा उन्होंने पुस्तक भंडार पटना के साहित्यिक पत्र ‘हिमालय‘ का भी संपादन किया। सन् 1950 में बिहार सरकार द्वारा गठित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का पहला निदेशक सहाय जी को ही चुना गया था। सन् 1950 में ही बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘साहित्य‘ के संपादन की जिम्मेदारी भी सहाय जी को ही मिली थी। सहाय जी ने विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के माध्यम से साहित्यिक पत्रकारिता को अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
आचार्य शिवपूजन सहाय हिंदी की उन्नति के लिए सदैव चिंतित रहे। उन्होंने कहा- ‘‘हम सब हिंदी भक्तों को मिलकर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि साहित्य के अविकसित अंगों की भली-भांति पुष्टि हो और अहिंदी भाषियों की मनोवृत्ति हिंदी के अनुकूल हो जाए।‘‘
शिवपूजन सहाय की संपादन कला की एक बानगी यह भी है कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा का संपादन भी उन्होंने ही किया था। राजेन्द्र प्रसाद ने उनकी प्रशंसा इन शब्दों में की थी- ‘‘जेल से निकलने पर इतना समय नहीं मिला कि इसे दोहराऊं। यह शिवजी (शिवपूजन सहाय) की कृपा की फल था कि वह प्रकाश में आ सकी। अत्यन्त अपनेपन से उन्होंने हस्तलिखित प्रति ले ली और बहुत परिश्रम करके उसे पढ़ा ही नहीं बल्कि जहां-तहां लिखने में जो भूले रह गईं थीं उनको भी सुधारा। शिवजी की इस प्रेमपूर्ण सहायता की जितनी भी प्रशंसा करूं, थोड़ी है।‘‘
साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में सहाय जी ने जो भी कार्य किया, वह सराहनीय रहा। हिंदी भाषा और साहित्यिक पत्रकारिता में उनका योगदान मील का पत्थर साबित हुआ। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक के पद पर रहते हुए उन्होंने बिहार के ‘साहित्यिक इतिहास‘ को चार खण्डों में समेटा। साहित्य में उनके बेहतरीन योगदान के लिए उन्हें ‘पद्मभूषण‘ और ‘वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान‘ जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार प्रदान किए गए।
पत्रकारिता के अतिरिक्त सहाय जी ने अनेकों कृतियों की रचना की। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने उनकी समस्त रचनाओं को ‘शिवपूजन रचनावली‘ के नाम से चार खण्डों में प्रकाशित किया है। एक पत्रकार और साहित्यकार के रूप् में उन्होंने हिंदी भाषा की जीवन भर सेवा की। 21 जनवरी, सन् 1963 को संपादकप्रवर आचार्य शिवपूजन सहाय चिरनिद्रा में लीन हो गए। ऐसे समय में जब पत्रकारिता और साहित्य की दूरी बढ़ती प्रतीत हो रही है, हिंदी के दधीचि कहे जाने वाले सहाय जी की स्मृतियां साहित्यिक पत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य करती हैं।

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

तुलसी-कबीर को भी कम चुनौतियां नहीं मिली थीं-- डा. माधोसिंह इंदा

फालना : साहित्य को किसी प्रवृत्ति या परिर्वतन से विचलित होने की जरूरत नहीं है। ग्लोबलाइजेशन ने हमारे पारंपरिक समाज को उदार और खुला बनाने में जरूरी भूमिका का निर्वाह किया है। यह विचार सिरोही के पूर्व विधायक संयम लोढ़ा ने 'साहित्य के समक्ष ग्लोबलाइजेशन और मीडिया की चुनौतियां' विषय पर एस.पी.यू. कालेज फालना में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए व्यक्त किए। लोढ़ा ने कहा कि तुलसीदास और कबीर को भी अपने समय में कम चुनौतियां नहीं मिली थी। लेकिन आज भी वे हमारे सांस्कृतिक मूल्य बोध के अंग हैं। मीडिया की सकारात्मक भूमिका को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि चयन की ऐसी स्वतंत्रता पहले कहाँ थी। उन्होंने कहा कि जेसिका लाल और आरुषि प्रसंगों में मीडिया ने गौरवपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे पूर्व कालेज प्राचार्य डॉ. सुरेशचंद्र अग्रवाल ने अतिथियों का स्वागत किया। सेमीनार में दिल्ली विश्वविद्यालय के सहायक आचार्य डॉ. पल्लव ने कहा कि साहित्य का संबंध संवेदना से है और संवेदना व्यवस्था के प्रतिपक्ष का निर्माण करती है।




उन्होंने कहा कि भूमण्डलीकरण को अब उल्‍टा नहीं जा सकता लेकिन इसका अधिक मानवीय और उदार स्वरूप निर्मित किया जा सकता है। पल्लव ने बताया कि मीडिया सनसनी और उत्तेजना इसलिए चाहता है कि उनके लिए कई बार खबर एक उत्पाद का रूप ले लेती है। उन्होंने इन्टरनेट की जनपक्षधर्मी भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि माध्यम की चुनौती स्वीकार कर इसका उपयोग हमें साहित्य और संस्कृति के पक्ष में करना होगा। सिरोही महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. माधव हाडा ने कहा कि साहित्यकार मीडिया का उपभोक्ता है इसलिए अनजाने ही उसकी कल्पनाशीलता इससे प्रभावित होती है। इसके अनुसार उसका अनुकूलीकरण होता है। खास तौर पर टीवी के कारण साहित्य की प्रविधि और शिल्प में जबर्दस्त बदलाव हुए हैं। दूरदर्शन के कार्यक्रम अधिकारी वीरेंद्र परिहार ने दृश्य मीडिया की नई भूमिका का उल्लेख किया। बिग्रेडियर करण सिंह सिंह चौहान ने इलियट की चर्चित कृतियों का उल्लेख कर साहित्य की मूल स्थापना की याद दिलाई। संगोष्ठी में महाविद्यालय की प्रबंध समिति के सचिव शांतीलाल सुराणा, सदस्य एवं पूर्व एडवोकेट इन्द्र राज भंडारी, नगरपालिका अध्यक्ष खंगार राम बावल, सोमेन्द्र गुर्जर, रतन पुनाडिया सहित नगर के बुद्धिजीवी उपस्थित थे।


दूसरे दिन आयोजित समापन समारोह की अध्यक्षता कर रहे मोहनलाल सुखाडिय़ा विश्वविद्यालय, उदयपुर के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं वरिष्ठ आलोचक प्रो. नवल किशोर ने कहा कि ग्लोबलाइजेशन के युग में साहित्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए तथा वैश्वीकरण से आयातित अच्छाइयों को आत्मसात भी करना चाहिए । इस मौके पर उपखण्ड अधिकारी बाली चैनाराम चौधरी ने कहा कि साहित्य के क्षेत्र में इस तरह की राष्ट्रीय संगोष्ठियां शोध के लिए बहुत उपयोगी साबित होती है ।  विशिष्ट अतिथि विद्यावाड़ी संस्थान के निदेशक डॉ. नारायणसिंह राठौड़ ने वैश्वीकरण के आयामों पर प्रकाश डाला । कार्यक्रम में सुलेमान टांक, डॉ. गौतम शर्मा ने विचार रखे।


शोध -पत्र प्रस्तुत किए : प्रचार प्रसार समिति के प्रभारी विनिश अरोड़ा ने बताया कि रविवार के सत्र में शिवगंज प्राचार्या प्रो. नीरा जैन की अध्यक्षता में आबूरोड के जगदीश गिरी , उदयपुर की डॉ. सरला शर्मा एवं कीर्ति चूंडावत, कुशलगढ़ के भानू प्रकाश शर्मा , पाटन के रमेश कुमार , बाड़मेर की डॉ. अरुणा , मुंडारा के डॉ. किरण कुमार , उदयपुर के डॉ. मदनपुरी गोस्वामी , बाल गोपाल शर्मा , फालना के अरविंद सिंह चौहान ने विभिन्न विषयों पर अपने शोध -पत्र प्रस्तुत किए। सत्र का संचालन आबूरोड के दिनेश चारण ने किया।  कवि गोष्ठी के आयोजन सचिव डॉ. माधोसिंह इंदा ने बताया कि शनिवार शाम के सत्र में एक कवि गोष्ठी का आयोजन किया गया । जिसमें मुख्य अतिथि कवयित्री डॉ. कविता किरण ने गीतों की प्रस्तुतियां देकर सभी श्रोताओं का मन मोह लिया। इस अवसर पर कवि रतन सिंह पुनाडिय़ा ने भी राजस्थानी भाषा में सुंदर प्रस्तुतियां दी। संस्था सचिव शांतीलाल सुराणा ने भी अपनी मौलिक रचना प्रस्तुत की।

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

पूरबी के बेताज बादशाह : महेंदर मिसिर



me  »  शख्सियत  »  


महेन्दर मिसिर की शाहखर्ची के किस्से अब मशहूर होने लगे थे। हुक्मरानों को पहली बार संदेह तब हुआ, जब 1905 में सोनपुर के मेले में ज्यादा तवायफों के तंबू मिसिर जी की तरफ से लगवाए गए थे। इस मामले में मिसिर जी ने देश के बड़े-बड़े जमींदारों को भी पीछे छोड़ दिया था। बस क्या था….पुलिस उनके पीछे लग गई। जांच करने और सबूत इकट्ठा करने की जिम्मेदारी सीआईडी इंस्पेक्टर सुरेंद्रनाथ घोष और जटाधारी प्रसाद को मिली। सुरेंद्रनाथ घोष किसी तरह मिसिर जी का नौकर बनने में कामयाब हो गया और गोपीचंद के रूप में साईस बनकर उनके घोड़े की देखभाल करने लगा। मालूम हो कि मिसिर जी अपने जमाने के माने हुए घुड़सवार थे। कहते हैं, उस समय पूरा छपरा जिला में उके जैसा दूसरा घुड़सवार नहीं था। जब वह घुड़सवारी पर निकलते थे तो उन्हें देखने के लिए राहों में लोगों की भीड़ लग जाती थी। बहरहाल, धीरे-धीरे गोपीचंद उनके नोट छापने का राज जान गया। उसी के इशारे पर उनके यहां पुलिस का छापा पड़ा। 16 अप्रैल, 1924 को उनके चारों भाइयों समेत महेन्दर मिसिर को गिरफ्तार कर लिया गया। पटना उच्च न्यायालय में लगातार तीन महीने तक मामले की सुनवाई चलती रही। मिसिर जी के वकील थे क्रांतिकारी हेमचंद्र मिश्र औऱ प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी चितरंजन दास लेकिन कुछ काम न आया और मिसिर जी मुकदमा हार गए औऱ उन्हें 10 की सजा मुकर्रर की गई। उन्हें बक्सर केंद्रीय जेल में बंद कर दिया गया लेकिन अच्छा व्यवहार औऱ लोकप्रियता के चलते तीन साल में ही उनकी रिहाई हो गई। कहते हैं, जब वे जेल में बंद थे तो देश भर की 5000 तवायफों ने वायसराय को ब्लैंक चेक के साथ एक पत्र भेजा था जिसमें गुजारिश की गई थी कि सरकार उस पर कोई भी रकम लिख सकती है, हम तवायफें अदा करेंगी, लेकिन महेन्दर मिसिर को आजाद कर दिया जाए। यह घटना इस बात की सबूत है कि तवायफों के मन में उनके लिए कितनी इज्जत थी। बक्सर जेल में रहते हुए ही उन्होंने सात खंडों में अपूर्व रामायण की रचना कर डाली थी। जेल प्रवास के दौरान हुई इस घटना की अनुगूंज आज भी जनश्रुतियों में सुनी जा सकती है। एक जनश्रुति के अनुसार बक्सर जेल की निशब्द रातो में जब वह अपना यह विरह गीत की तान लेते थे तो जेलर की पत्नी उसे सुनकर भाव-विह्वल होकर उनके गीत का रसस्वादन करने जेल में पहुंच जाती थी…..आखिर गीत भी तो ऐसा ही है ………
आधी-आधी रतिया के कुहुके कोइलिया
राम बैरनिया भइले ना।
मोरा अंखिया के निंदिया….
राम बैरनियां भइले ना।
कुहुकि-कुहुकि के कुहके कोइलिया
राम अगिनिया धधके ना।
मोरा छतिया के बीचवा
राम अगिनिया धधके ना।
महेन्द्र मिसिर को जेल से छुड़ाने के लिए ढेलाबाई ने अपना सबकुछ दांव पर लगा डाला और उन्हें बचाकर घर ले आई। महेन्दर मिसिर ने अपने जीवन का अंतिम क्षण ढेलाबाई की कोठी में स्थित शिव मंदिर में ही गुजारा और वहीं अंतिम सांसें लीं। उस समय उनकी उम्र 62 साल की थी और वह मनहूस दिन था … 26 अक्टूबर, 1946
आजादी की लड़ाई के इतिहास में महेन्दर मिसिर को भले ही वह जगह न मिली हो, जिसके वह हकदार हैं लेकिन उनके गीतों ने उनकी शख्सियत को हमेशा ऊंचा उठाए रखा। अंग्रेजों के प्रति अपने विद्वेष को व्यक्त करते हुए वह गीत रचते हैं ……
हमरा निको ना लागे गोरन के करनी
रुपया ले गइले, पइसा ले गइले
अउरी ले गइले सब गिन्नी।
बदला में देके गइले ढल्ली के दुअन्नी
हमरा नीको ना लागे गोरन के करनी।
राग-रागिनी उनकी जिंदगी थीवह उसे जीते थेऔर आज वही उनकी थाती है, जो जन-जन के मन कंठ में सुरक्षित है। पुरुबी राग उनकी स्वर लहरी में हिलोरें लेता है। उनके गीतों में जहां पहाड़ी नदी के वेग की तरल तीव्रता है, वहीं झिर..झिर बहती शीतल मंद बयार का सुखद स्पर्श भी है। भाषा की सहजता औऱ भाव की गहराई उनके गीतों की असली पहचान हैं। बोल और भाव की मिश्री में पगे उनके गीत किसी का भी अंतर्मन को छूने, सहलाने की स्वाभाविक काबिलियत रखते हैं। विरही नायिका की विकलता और उसकी सास की निष्ठुरता का क्या ही मर्मस्पर्शी बयान इन पंक्तियों में मिलता है ………..
सासु मोरा मारे रामा बांस के छिउकिया,
ए ननदिया मोरी है सुसुकत पनिया के जाए।
गंगा रे जमुनवां के चिकनी डगरिया
ए ननदिया मोरी हे पउंवां धरत बिछलाय।
गावत महेन्दर मिसिर इहो रे पुरुबिया
ए ननदिया मोरी हे पिया बिना रहलो ना जाए।
लोक कंठ के गवैया महेन्दर मिसिर के गीतों में श्रृंगार और अध्यात्म दोनों ही प्रधानता से मिलते हैं और कमाल की बात यह है कि वह दोनों में ही पारंगत हैं। इतना जरूर है कि उनके गीतों में श्रृंगार और विरह की अभिव्यक्ति ज्यादा मुखर है। विरह विदग्ध नायिका के चित्रण में उनका यह गीत कितना भावमय हो उठता हैएक बानगी देखिए……
अंगुरी में डंसले बिया नगिनियां हे
ननदी दियरा जरा द।
दियरा जरा द अपना भइया के जगा द
पोरे-पोरे उठेला दरदिया हे
ननदी दियरा जरा द।
लोक धुन में पगे उनके गीत जब अपनी अर्थ छटा बिखेरते हैं तो सुनने वाला सुनते ही रह जाता है।
गोपी विरह के प्रसंग में मिसिर जी के शब्द विन्यास से गीत के बोल कितने भावप्रवण हो उठे हैं, इसका एक उदाहरण देखिए….
सुतल सेजरिया सखी देखली सपनवां
निर्मोही कान्हा बंसिया बजावेला हो लाल।
कहत महेन्दर श्याम भइले निरमोहिया से
नेहिया लगा के दागा कइले हो लाल।
विरह की आंच में तपे महेन्दर मिसिर के गीत श्रोता के हृदय को ऐसे बेधते हैं कि मन बेकल हो उठता है।  संगीत साधक और पुरबी के पुरोधा महेन्दर मिसिर का रचना संसार व्यापक है, जिसमें भाषा की लचक औऱ रवानी तथा राग-रंजित रागिनी का अपूर्व संगम देखने को मिलता है। उन्होंने सैकड़ों गीत और दर्जन भर से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिनमें उनके तीन नाटक भी शामिल हैं। अन्य पुस्तकों में महेन्दर मंजरी, महेन्दर विनोद, महेन्दर मयंक, भीष्म प्रतिज्ञा, कृष्ण गीतावली, महेन्दर प्रभाकर, महेन्दर रत्नावली, महेन्दर चंद्रिका और महेन्दर कवितावली प्रसिद्ध है। उनके चुनिंदा गीतों का संग्रह कविवर महेन्दर मिसिर का गीत संसार शीर्षक से डॉ. सुरेश कुमार मिश्र के संपादन में अखिल भारतीय भोजपुरी परिषद, लखनऊ से सन् 2002 में प्रकाशित हुआ लेकिन वह पूर्ण नहीं है। उनके सैकड़ों गीत आज भी संग्रह की प्रतिक्षा में हैं। महेन्दर मिसिर को लेकर कई पुस्तकें भी लिखी गई हैं, जिनमें पांडे कपिल की फुलसूंघी, रामानाथ पांडे की महेन्दर मिसिर और रविन्द्र भारती की कंपनी उस्ताद उल्लेखनीय है। उनके गीत लोक जीवन के दस्तावेज हैं, लोक साहित्य के अनमोल धरोहर हैं।
आलेख समरथ , सितम्बर अक्टूबर २०११ अंक से साभार.

भिखारी ठाकुर: भोजपुरी लोक का सिरमौर




http://www.biharkhojkhabar.com/wp-content/uploads/2011/12/Bhikhari_drama.jpgभिखारी ठाकुर ने अपनी नाच मंडली को व्यवस्थित रूप देने के बाद अपना स्थायी निवास कोलकाता में बनाया था। इसका कारण था-भोजपुरी भाषा-भाषी जनता की एक बड़ी संख्या कोलकाता में रोजी-रोटी कमाती थी और भिखारी ठाकुर के नाचों से भरपूर मनोरंजन करती थी। वहां यह नाच सालों भर चलता रहता था। इसका एक कारण स्वयं भिखारी ठाकुर द्वारा लिखित बिदेशिया नाटक भी था। कोलकाता में रोजी-रोटी कमानेवाले परदेशियों में से किसी एक की कथा ही तो इस नाटक में लिखी गयी है।
भिखारी ठाकुर साल के दो महीने खासकर सावन-भादो के महीने में सारण जिला स्थित चन्दनपुर गांव में बाबूलाल की दलान पर नाटयाभिनय, गायन, वादन आदि का प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया करते थे। इनकी मंडली के सदस्य विभिनन नाटकों में अभिनय, गायन, वादन, नृत्य आदि का प्रशिक्षण लेते थे। विभिन्न नाटकों के विभिन्न पात्रों के संवाद याद कराये जाते थे अभिनय करना सिखाया जाता था। गायकों और वादकों के बीच ताल-लय का सामंजस्य बैठाया जाता था और उसको नृत्य के साथ समायोजित किया जाता था। विभिन्न नाटकों में सूत्रधार की भूमिका में स्वयं भिखारी होते थे, प्रवचन करते थे और भजन आदि प्रस्तुत कर वातावरण का निर्माण करते थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न नाटकों में वे अभिनेता की भूमिका भी निभाते थे।
ऐसा कहा जाता है कि खुला मंच का प्रयोग सर्वप्रथम भिखारी ठाकुर ने ही किया था। भिखारी ठाकुर के नाटकों की एक विशेषता यह भी थी कि उनके पात्र सामयिक, प्रासंगिक एवं विनोदात्मक संवाद दर्शकों के साथ करते थे। नाटकों के सफल प्रदर्शन में दर्शकों की सार्थक एवं सक्रिय भागीदारी अत्यंत आवश्यक होती है। इस कला में भिखारी ठाकुर को महारत हासिल थी। यही कारण था कि दसों हजार की भीड़ को बिना किसी थाना-पुलिस की सहायता के नियंत्रित करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी।
भिखारी ठाकुर ने अपने जीवन चरित में अपने वंशज, जन्म स्थान, जन्म तिथि तथा अपनी रचनाओं के बारे में सब कुछ लिखा है। इसमें उन्होंने अपनी रचनाओं की कुल संख्या 29 बतायी है। जबकि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा सम्पादित भिखारी ठाकुर रचनावली में 24 रचनाओं में 12 नाटक हैं-बिदेशिया, भाई-विरोध, बेटी-वियोग, विधवा-विलप, कलियुग प्रेम, राधे-श्याम बहार, गंगा स्नान, पुत्र वध, गबरघिचोर, बिरहा बहार, नकल भांड आ नेटुआ के, ननद-भौजाई। भजन-कीर्तन, गीत-कविता आदि किताबों के शीर्षक हैं- शिव विवाह, भजन-कीर्तन- राम, बूढ़शाला के बेयान, चैबर्णपदबी, नाई बहार, शंका-समाधान, विविध, भिखारी ठाकुर-परिचय आदि। भिखारी ठाकुर सामग्रियों के बार-बार देखने और उनका विवेकापूर्ण आकलन, समायोजन एवं वर्गीकरण करने के बाद उन्हें 24 जिल्दों ( 24 पुस्तकों) में सजाया गया है।
भिखारी ठाकुर द्वारा रचित बारह नाटकों में से दो नाटक बिदेशियाऔरगबरघिचोरआज भी खेले जा रहे हैं और भिखारी ठाकुर के जीवन काल की अपेक्षा आज उन्हें ज्यादा प्रसिद्धि मिल रही है। वे केवल बिहार में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में उनका मंचन हो रहा है और लोगों द्वारा प्रशंसित हो रहे हैं। इन दोनों नाटकों की कथा वस्तु निम्न प्रकार है।
बिदेशिया:  इस नाटक का मुख्य पात्र एक युवा है- जो खेती-बारी करके जीवन-यापन करता है। खेती में साल भर काम नहीं करता है। काम के अभाव में बेरोजगार होकर भटकता फिरता है। बेरोजगारी की हालत में ही उसकी शादी एक खूबसूरत युवती से हो जाती है। पत्नी के रूप लावण्य से अभिभूत हो वह अपनी पत्नी को प्यारी सुन्दरी नाम देता है। दोनों के बीच अगाध प्रेम विकसित होता है। कुछ दिन मौज-मस्ती में बीतता है। युवा लम्बी बेकारी और बिगड़ती आर्थिक स्थिति से बेचैन कोलकाता जाने की सोचता है। प्यारी सुन्दरी को पति के कोलकता जाने का प्रस्ताव अच्छा नहीं लगता है। वह उसका घोर विरोध करती है। युवा बहाना बनाकर चुपचाप भागकर कोलकाता पहुंच जाता है। वह परदेशी बिदेशीबन जाता है। वहां वह कड़ी मेहनत-मजदूरी कर अच्छी कमाई करने लगता है। इस बीच एक युवती उसके जीवन में आती है। और दोनों पति-पत्नी के रूप में रहने लगते हैं। वैसी पत्नी के तत्कालीन समाज रखैल समझता है। युवा कमाता है और दोनों इस कमाई से मौज-मस्ती में संलिप्त हो जाते हैं।
गांव पर उसकी ब्याहता पत्नी पति द्वारा किसी प्रकार की सूचना नहीं देने से अतयंत दुखी रहने लगती है। दिन-रात रोती-कलपती रहती है। उसके सिर पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ता है। एक दिन अचानक एक अधेड़ बटोही जो कमाने के लिए कोलकाता जा रहा था। प्यारी सुन्दरी को उस बटोही के बारे में भनक मिली और वह अपने पति का हुलिया बटोही को बता देती है। बटोही प्यारी सुन्दरी को आश्वासन देता है कि उसका पति अवश्य लौटेगा। कोलकाता पहुंचने के बाद घूमने-फिरने के क्रम में उस बटोही की भेंट प्यारी सुन्दरी के पति से हो जाती है। वह उसकी पत्नी की दारूण दशा का वर्णन करता है। उसकी पत्नी के अखंड पातिव्रत्य की पुष्टि करता है। विदेशी को अपनी पत्नी की स्मृतियां लौट आती है। वह अपने घर लौटने की बात अपनी रखैल से कहता है। वह विदेशी के घर लौटने के प्रस्ताव का विरोध करती है और वहां रह रहे साहूकार और गुण्डों से उसका सामान छिनवा लेती है। लेकिन युवा उसी दुरावस्था में घर की ओर चल पड़ता है।
इसी बीच गांव का एक मनचला, जिसकी आयु विदेशी से कम थी, प्यारी सुन्दरी के पातिव्रत्य की परीक्षा लेने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देता है और बलात्कार करने की चेष्टा करता है। प्यारी सुन्दरी द्वारा दृढ़ता से प्रतिरोध करने और पड़ोसन के आ जाने से उसका सतीत्व बच जाता है। इसी समय अपनी दुरवस्था में विदेशी घर पहुंचता है। बहुत विश्वास दिलाने पर और अपने पति की आवाज पहचान कर प्यारी सुन्दरी दरवाजा खोलती है। एक ओर परदेशी पति को देखकर खुश होती है तो दूसरी ओर उसकी दशा देखकर दुखी होती है।
इसी बीच विदेशी की कलकतिया रखैल अपने दोनों बच्चों को लेकर पूरे गहने-कपड़े के साथ विदेशी की खोज में उसके गांव चल पड़ती है।
कोलकाता के चोर-डकैत उसके गहने-कपड़े छीन लेते हैं और यह भी विदेशी की ही तरह विपन्नावस्था में बिना आगा-पीछे सोचे विदेशी के घर पहुंच जाती है। विदेशी उसको देखकर आश्चर्यचकित होता है, वह रखैल जब प्यारी सुन्दरी के साथ रहने का अनुनय-विनय करती है-तो सभी मिलजुल कर रहने लगते हैं।
गबरघिचोर: नाटक में मात्र पांच पात्र हैं-गलीज, गड़बड़ी, घिचोर, पंच और गलीज बहू (पत्नी)। गलीज नामक युवा बेकारी का मारा जवान पत्नी को घर पर छोड़कर कमाने के लिए शहर जाता है। कड़ी मेहनत करने के बावजूद उसकी आय नहीं बढ़ती है। वह दुव्र्यसन में फंस जाता है और घर-द्वार एवं पत्नी को भूल जाता है।
गलीज की पत्नी गांव में अकेले पड़ी पास-पड़ोस का काम, खेत-खलिहान में रोपनी, सोहनी, कटनी, पिटनी आदि करके दोनों जून की रोटी जुटाती रहती है और पति के घर आने की प्रतीक्षा करती रहती है।
गांवों में शहरी हवा के लगने के कारण गांव में भी नशाखोरी का चलन शुरू हो गया है, गांवों में परम्परागत संबंध टूटकर बिखरे रहे हैं, बहन, भाभी, चाची, मामी कहलाने वाले पवित्र रिश्ते की डोर में बंधी महिलाएं सामान्य नारी और भोग्या बन रही हैं। ऐसी ही विवश नारी है गलीज बहू जिसका पति पन्द्रह वर्षों से गांव नहीं आया है। उपेक्षित गलीज बहू का पांव फिसल जाता है और गांव के ही एक मनचले युवक के साथ उसका अवैध संबंध हो जाता है। इस युवक का नाम गड़बड़ी है। गड़बड़ी के गलीज बहू के साथ दैहिक संबंध की परिणपति होती है कि उसे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है जिसे लोग घिचोर नाम से पुकारने लगते हैं। गलत संबंध से पैदा होने के बावजूद गलीज बहू बड़े प्रेम से अपने पुत्र को पालती है। समाज की प्रताड़ना से डरती नहीं है। वह मातृत्व की गरिमा का पालन करती है।
इधर गबरघिचोर पन्द्रह साल का हो जाता है और मां के साथ सुख चैन की जिन्दगी जी रहा होता है। इसी बीच गांव से परदेश गया कोई व्यक्ति गलीज से मिलता है और उसकी पत्नी घिचोर और गड़बड़ी के संबंधों के बारे में बताता है।
गलीज गांव के व्यक्ति से अपनी पत्नी, नाजायज बेटे और गड़बड़ी के बारे में जानकारी पाकर विचलित नहीं होता है। वह सोचता है कि वह घिचोर को क्यों न शहर ले आये। वह भी कमायेगा और हमारी आमदनी बढ़ जायेगी।
गबरघिचोर को अपने साथ शहर ले जाने के उद्देश्य से गलीज गांव आता है और अपनी पत्नी से घिचोर को शहर ले जाने का प्रस्ताव रखता है। वह तैयार नहीं होती है। इसी बीच गड़बड़ी भी वहां पहुंच जाता है और गबरघिचोर को अपना बेटा घोषित कर देता है। मां अपने बेटे को अपना सहारा समझती है, गड़बड़ी अपने को उसका वास्तविक पिता मानता है और गलीज अपनी पत्नी से उत्पन्न उस बालक पर अपना परम्परागत हक मानता है। बात बहुत उलझ जाती है। इसे सुलझाने के लिए पंचायत का सहारा लिया जाता है।
पंच नियुक्त होता है। तीनों पक्षों ने अपनी-अपनी बातें रखी। पंच को बड़बड़ी और गलीज ने घूस देने की भी पेशकश की। और इस तरह पंच भी अपना निर्णय दे-दे कर पलटते रहे। जब पंच के निर्णय को मानने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ तो गबरघिचोर को ही तीन हिस्सों में काटकर तीनों के बीच बराबर बांट देने का भी अविवेकपूर्ण निर्णय हुआ, जैसे किसी वस्तु का बंटवारा हो। आदमी वस्तु बन गया।
जब तीन भाग में बांटकर देने की बात आयी तो गड़बड़ी और गलीज तो तैयार हो गये लेकिन मां तैयार नहीं हुई। मां ने दोनों में से किसी एक को गबरघिचोर को जिन्दा देने का प्रस्ताव रखा। अब गलीज और गड़बड़ी ने पंच को घिचोर को दो टुकड़ों में बांटने का प्रस्ताव रखा।
पंच में विवेक जागता है और वह दोनों को डांटता-फटकारता है और भत्र्सना करता है तथा उन दोनों की नीचता को समाज के सामने रखता है, और अंत में गबरघिचोर को उसकी मां को सौंप देता है।
ब्रजकुमार पाण्डेय का आलेख

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

अपनी गीतों में कबीरी छोड़ गए शैलेंद्र




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जिन्दगी के मायने जिसने आखों से देख अपने जेहन और कलम से अपने गीतों में उकेरा एक ऐसा ही नाम शैलन्द्र का है। ‘तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर, अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर’ 1950 में लिखे इस गीत में भविष्य की सम्भावनाओं और उसके संघर्ष को जो आवाज दी वह आजादी के बाद और आज के हालात का एक तुल्नात्मक अध्ययन है। और वे जब कहते हैं ‘ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन, ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन’ तो ऐसी सुबह की तलाश होती है, जिसे देखने का हक आने वाली नस्लों से कोई छीन नहीं सकता। और इसीलिए वे आगे कहते हैं कि बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग़ ये, न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्क़लाब ये।
शंकरदास केशरीलाल ‘शैलेन्द्र’ का जन्म 30 अगस्त 1923 को ‘रावलपिंडी’ (अब पाकिस्तान) में हुआ था। 1942 में वे रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने आए और अगस्त आंदोलन में जेल जाने के बाद उनकी सशक्त राजनीतिक यात्रा शुरु हुई जिसे भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) ने एक वैचारिक धार दी। और यहीं से शुरु हुआ शैलेन्द्र का भूख के विरुद्ध भात के लिए वर्ग संघर्ष। जो तत्कालीन समाज जिसे तत्कालीन कहना वर्तमान से बेमानी होगा पर वे लिखते हैं ‘छिन रही हैं आदमी की रोटियाँ, बिक रही हैं आदमी की बोटियाँ।’ ‘छोटी सी बात न मिर्च मसाला, कह के रहेगा कहने वाला’ जैसे गीतों में चित्रपट पर राजकपूर की आवारगी में शैलेन्द्र के जीवन का महत्वपूर्ण उनका कविता पक्ष कुछ छुप सा जाता है। उनकी 32 कविताओं का कविता संग्रह ‘न्यौता और चुनौतियां’ (1955) इसे समझने में हमारी मदद करता है। क्योंकि शैलेन्द्र खुद कहते थे कि वे फिल्मी दुनिया में नहीं आना चाहते थे। 1947 में तत्कालीन राजनीति पर तीखा प्रहार करती उनकी रचना ‘जलता है पंजाब’ को जब राजकपूर ने सुनकर उन्हें ‘आग’ फिल्म में लिखने के लिए कहा तो वे मुकर गए। पर 1948 में शादी के बाद मुफलिसी के दौर ने उनका रुख फिल्मी दुनिया की ओर किया और राजकपूर ने उन्हें बरसात में लिखने को कहा। यहीं से शुरु होती है शैलेन्द्र की फिल्मी यात्रा। शैलेन्द्र तीन बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार के रुप में फिल्म फेयर से भी सम्मानित हुए।
भगतसिंह! इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फाँसी की! (1948) यह रचना शैलेन्द्र के वर्गीय हित और वर्गीय संस्कृति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की बेमिशाल रचना है। जो उस दौर के नेहरुवाद पर तीखा प्रहार करती है तो वहीं तत्कालीन और वर्तमान लोकतांत्रिक ढांचे पर सवाल करती है कि आखिर आजादी, किसकी आजादी। जिसमें वे कहते हैं कि ‘यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे- बम्ब सम्ब की छोड़ो, भाषण दिया कि पकड़े जाओगे! यह आज के कश्मीर, पूर्वोत्तर से लेकर छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश में लोकतांत्रिक ढ़ांचे की आड़ में चलाई जा रही जनविरोधी नीतियों को उजागर करता हैं। जहां काले कानूनों के चलते आम आवाम का सांस लेना भी दूभर हो गया है। इस बात को सोचने और समझने के लिए मजबूर करता है कि सन 47 से लेकर अब तक की जो नीतियां रही उनकी हर साजिश जनता के खिलाफ थी। जो आज हो रहा है वो 47 के दौर में भी हो रहा था, जिसे ‘न्यू माडल आजादी कहते हुए शैलेन्द्र कहते हैं ‘रुत ऐसी है आँख लड़ी है अब दिल्ली की लंदन से’।
शैलेन्द्र एक प्रतिबद्ध राजनीतिक रचनाकार थे। जिनकी रचनाएं उनके राजनीतिक विचारों की वाहक थीं और इसीलिए वे कम्युनिस्ट राजनीति के नारों के रुप में आज भी सड़कों पर आम-आवाम की आवाज बनकर संघर्ष कर रही हैं। ‘हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है! (1949) आज किसी भी मजदूर आंदोलन के दौरान एक ‘राष्ट्रगीत’ के रुप में गाया जाता है। शैलेन्द्र ट्रेड यूनियन से लंबे समय तक जुड़े थे, वे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और खांके के प्रति बहुत सजग थे। आम बोल-चाल की भाषा में गीत लिखना उनकी एक राजनीति थी। क्योंकि क्लिष्ट भाषा को जनता नहीं समझ पाती, भाषा का ‘जनभाषा’ के स्वरुप में जनता के बीच प्रसारित होना एक राजनीतिक रचनकार की जिम्मेवारी होती है, जिसे उन्होंने पूरा किया। आज वर्तमान दौर में जब सरकारें बार-बार मंदी की बात कहकर अपनी जिम्मेदारी से भाग रही हैं, ऐसा उस दौर में भी था। तभी तो शैलेन्द्र लिखते हैं ‘मत करो बहाने संकट है, मुद्रा-प्रसार इंफ्लेशन है।’ बार-बार पूंजीवाद के हित में जनता पर दमन और जनता द्वारा हर वार का जवाब देने पर वे कहते हैं ‘समझौता? कैसा समझौता? हमला तो तुमने बोला है, मत समझो हमको याद नहीं हैं जून छियालिस की रातें।
पर शैलेन्द्र के जाने के बाद आज हमारे फिल्मी गीतकारों का यह पक्ष बहुत कमजोर दिखता है, सिर्फ रोजी-रोटी कहकर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि क्योंकि वक्त जरुर पूछेगा कि जब विकिलिक्स के तामम खुलासे और पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी थी तो हमारे गीतकार क्यों चुप थे। बहरहाल शैलेन्द्र नेहरुवन समाजवाद की पोल खोल करते नजर आते हैं कि मुझको भी इंग्लैंड ले चलो, पण्डित जी महराज, देखूँ रानी के सिर कैसे धरा जाएगा ताज! (1953) शैलेन्द्र लोक अभिव्यक्ति के पारखी थे, बहुत सीधे साफ शब्दों में बिना लाग लपेट हर बात को कहने का उनका अंदाज उन्हें कबीर के समकक्ष खड़ा करता है। क्योंकि कबीर ने भी पाखंड के खिलाफ सीधे-सरल शब्दों में बात कहीं। भाषा का अपना आतंक होता है अगर सरल भाषा जनता को मिलती है तो वह उसे अपना हथियार बना लेती है। इसीलिए वे जब ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ (श्री 420, 1950) कहते हैं तो उस दौर की पूरी राजनीति और उसमें अपने स्टैन्ड को स्पष्ट करते हैं।
शैलेन्द्र ने फिल्मी कलापक्ष जो कि काल्पनिक अधिक वास्तविक कम होने का अहसास कराता है, के भ्रम को तोड़ डाला। भारतीय समाज की नब्ज को पकड़ते हुए गीत लिखे और जीवन के आखिरी वक्त तक वे अपने इस उत्साह को बनाए रखे। लोक अभिव्यक्तियों को जिस तरह उन्होंने खुद के प्रोडक्शन में बनी पहली और आखिरी फिल्म तीसरी कसम में ‘सजन रे झूठ मत बोलो में’ आवाज दी उससे भारतीय समाज अपने आप को जोड़ लेता है। हमारे घर परिवार में जिस तरह से हमें कहा जाता है कि किसी के साथ बुरा मत करो क्योंकि जैसा करोगे वैसा भुगतना पड़ेगा, रुपया पैसा सब यहीं रह जाएगा तो किस बात का लालच ऐसी छोटी-छोटी बातों को शैलेंन्द्र ने अपने गीतों के ट्रैक पर पूरे वैचारिक आधार पर रखा। वे स्वर्ग और नरक के कान्सेप्ट को खारिज करते हैं पर उसका आधार भी लोक जीवन ही होता है।
शैलेन्द्र का गीत ‘सब कुछ सीखा हमने, ना सीखी होशियारी’ (अनाड़ी) उनके जीवन पर भी सटीक बैठता हैं जीवन के अंतिम दिनों मे जब वे तीसरी कसम बना रहे थे तब वे ऐसे भवंर में फंसे कि उससे कभी निकल न सके। प्रोडक्शन में आने को लेकर शैलेन्द्र को राजकपूर ने काफी समझाया था कि बाजार अपनी शर्तों पर मजबूर कर देता है, जिसे शैलेन्द्र नहीं कर सकते थे। और हुआ भी तीसरी कसम का अंतिम दृष्य जब बैलगाड़ी के झरोखे में हीराबाई (वहीदा रहमान) ट्रेन में जाती रहती है, और हीरामन (राजकपूर) बैलों को हांकते हुए जब पैना (छड़ी) मारने की कोशिश करता है और पीछे से बैकग्राउंड में गीत बजता है ‘प्रीत बनाके तूने जीना सिखाया, हंसना सिखाया, रोना सिखाया’ प्रेम के विरह का यह दृष्य उस वक्त के वितरकों ने हटाने को कहा। क्योंकि उस वक्त तक फिल्मों के सुखांत की रीति थी। पर लीक से हटकर जीवन के मूल्यों और वो भी प्रेम जैसे भावनात्मक रिश्ते जिसकी परिणति फणीश्वरनाथ रेणु ने भी विरह में की उसमें किसी परिवर्तन के लिए शैलेन्द्र तैयार नहीं हुए। और शराब ने जिन्दगी के मायनों को समझने वाले ‘गुलफाम’ को मार डाला। 13 दिसंबर 1966 को जब शैलेन्द्र की तबीयत काफी खराब थी तो उन्होंने राजकपूर को आरके काटेज मे मिलने के लिए बुलाया जहां उन्होंने राजकपूर से उनकी फिल्म मेरा नाम जोकर के गीत ‘जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां’ को पूरा करने का वादा किया। लेकिन वह वादा अधूरा रहा और अगले ही दिन 14 दिसंबर 1966 को उनकी मृत्यु हो गई। इसे महज एक संयोग हीं कहा जाएगा कि उसी दिन राजकपूर का जन्मदिन भी था।
लेखक राजीव यादव पीयूसीएल यूपी के प्रदेश संगठन सचिव हैं.

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

किसानों का कौन

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Thursday, 26 January 2012 13:09
जनसत्ता 26 जनवरी, 2012 : कहा जाता रहा है कि भारत गांवों में बसता है और गांव को गांव किसान बनाते हैं। हाल में आई राष्टीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की रपट बताती है कि इस मुल्क में हर दूसरा किसान कर्जदार है। यह कैसे संभव है कि देश के किसान कर्जदार हों और गांव खुशहाल बचे रहें? जिन राज्यों के किसान सबसे अधिक कर्जदार हैं, वे बीमारू समझे जाने वाले प्रदेशों के नहीं, बल्कि संपन्न समझे जाने वाले राज्यों के हैं। जिन राज्यों के किसान कर्ज में डूबे हैं वे आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और पंजाब हैं। पंजाब तो वह राज्य है, जहां से हरित-क्रांति की गूंज समूचे भारत ने सुनी थी। सर्वेक्षण के मुताबिक आंध्र प्रदेश के 81 फीसद किसान कर्जदार हैं, 74.5 फीसद किसान तमिलनाडु में कर्ज में डूबे हैं। पंजाब में यह आंकड़ा 65.4 है। इसके बाद जो दो अन्य राज्य हैं, वे  दक्षिण भारत के हैं। 64.4 फीसद के आंकड़े के साथ केरल और कर्नाटक में 61.6 फीसद किसान अपना कर्जा नहीं चुका पा रहे हैं।
अगर फीसद की जगह संख्या देखें तो उत्तर प्रदेश में 69 लाख किसान अपना कर्जा नहीं चुका पाए हैं। यह संख्या आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के कुल कर्जदार किसानों की संख्या से बहुत अधिक है। आंध्र प्रदेश में यह संख्या 49 लाख है और महाराष्ट्र में 36 लाख। एनएसएसओ की यह रपट 2003 में 6638 गांवों के 51,770 किसानों से बातचीत पर आधारित है। सर्वेक्षण से यह बात साफ हुई कि उनमें पचास फीसद से अधिक लोगों के कर्जदार बनने की वजह खेती के लिए लिया गया उधार ही था। जानकारों का कहना है कि कीटनाशक, खाद,



बीज, पानी, बिजली सब महंगे होते गए और फसल का साज संभाल, शीतगृहों का खर्च अलग। जिस हिसाब से बाकी चीजों के दाम बढ़े, उस तरह की कीमत किसानों को अपने उत्पादों की कभी नहीं मिली। सरकार की कोई योजना ठीक-ठाककिसान तक पहुंच ही नहीं पाती।
किसान पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश के हों या पश्चिम बंगाल के-वे एक ही मांग हर तरफ से कर रहे हैं कि फसल की सही कीमत सरकार दिलवा दे। आज यह सवाल इसलिए भी अहम हो गया है क्योंकि सरकार देश की बड़ी आबादी को भोजन का अधिकार देने का संकल्प ले रही है। खाद्य सुरक्षा विधेयक पेश कर दिया गया है।   वजह यह बताई जा रही है कि इस देश की करीब पैंसठ फीसद आबादी अभी भी कुपोषित है। लेकिन कभी सरकार ने उन किसानों के लिए क्यों नहीं सोचा, जिन्होंने इस देश के लोगों को भोजन देने का संकल्प पीढ़ियों से ले रखा है। देश में जिस तरह कीटनाशी कंपनियों का वर्चस्व बढ़ रहा है, नकली बीज जिस तरह से बाजारों में पट रहे हैं और जिन कृषि वैज्ञानिकों को देश में किसानों का मार्गदर्शन करने के लिए नियुक्त किया गया है, कई घटनाएं ऐसी सामने आर्इं, जिनमें किसानों को गुमराह करने में बड़ी भूमिका इन्हीं लोगों ने निभाई।
आजादी के बाद से अब तक खेती को लेकर उपलब्धि यह रही कि देश की जनसंख्या तिगुना, अनाज उत्पादन दोगुना हुआ। लेकिन अनाज उपजाने वालों के सामने इस तरह की स्थितियां पैदा कर दी गर्इं कि उनकी तादाद आधी होने वाली है। जरूरी हो गया है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक के साथ-साथ किसान सुरक्षा विधेयक भी लाए।
’रमेश सांगवान, रोहतक

महानगर की कलंक कथा




Sunday, 05 February 2012 13:11


जनसत्ता 5 जनवरी, 2012 : विश्व साहित्य में सच्ची घटनाओं पर आधारित अनेक छोटे-बड़े उपन्यास लिखे गए हैं, जिनमें कई सफल हुए तो कई विफल। सच्ची घटनाएं उपन्यास के लिए कच्चा माल तो उपलब्ध कराती हैं, पर उन्हें साहित्य बनाना सबके बस की बात नहीं होती। प्रतिभावान लेखक ही इसमें सफल होते हैं। इस मामले में हरिसुमन बिष्ट ने एक बड़ा खतरा उठाया है।
चिर-परिचित घटनाओं को मानवीय और संवेदनात्मक स्पर्श देकर मार्मिक बनाना ही सच्चे कथाकार की निशानी है। इस मामले में हरिसुमन बिष्ट समय-समय पर प्रयोग करते रहे हैं। पहाड़ी लोक जीवन की कई मार्मिक घटनाओं के इर्द-गिर्द उन्होंने अपनी कथाएं बुनी हैं। कुमाऊं अंचल के जनजीवन, स्त्री-पुरुष के मार्मिक अनुभवों को उन्होंने अपनी लेखनी से छुआ है।
इधर अपने नए उपन्यास बसेरा में वे अपने चिर-परिचित विषय-वस्तु से ऊपर उठे हैं और महानगरीय जीवन में लोगों के नर्क बनते जाते जीवन को नजदीक से देखा है। मुंबई की गंदी बस्तियों पर कई मार्मिक उपन्यास हिंदी-उर्दू में लिखे गए हैं। जगदंबा प्रसाद दीक्षित, कृष्ण चंदर और राजेंद्र सिंह बेदी के उपन्यास इस संदर्भ में सहज ही याद आते हैं। हरिसुमन ने अपने उपन्यास बसेरा में भले उतनी कलात्मकता न दिखाई हो, पर इसमें एक ताजगी है।
‘बसेरा’ अपने बसेरों से दूर रहने वालों के अंतर्मन की पीड़ा और एक ठहरी जिंदगी की परतों के अंदर छिपी हलचल को अपनी करुणा का स्वर देता है। इस करुणा में कई अन्य स्वर भी मिल जाते हैं।
उपन्यास के केंद्र में हैं निठारी गांव के पुराने बाशिंदे और वहां आकर बसे पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, ओड़िशा, बांग्लादेश के कामगार, जो मजदूरी करते और रिक्शा चलाते हैं, पर खुद को शरणार्थी कहे जाने का बुरा भी नहीं मानते। धीरे-धीरे समय उन पुराने बाशिंदों और शरणार्थियों के बीच आत्मीयता की मिठास भरता चलता है, जो नेताओं की आंखों में खारेपन की कड़वाहट-सी लगने लगती है- कुछ लोगों को यह इंसानियत और दया-भाव छल-कपट से भरपूर लगे, उनका राजनीति का चूल्हा सिमसिम जलने लगा।
समय एक और करवट लेता है और वहां कंक्रीट के जंगल तैयार होने लगते हैं, किसानों की जमीन पर नोएडा के सेक्टरों की चौहद्दियां तय की जाने लगती हैं। जब तक पुराने बाशिंदों को अपनी जमीन बेचने का अफसोस होता है, तब तक निठारी और नोएडा के बीच ऊंची दीवार खड़ी हो चुकी होती है। गांव की मांग पर गांव और सेक्टर के बीच एक सड़क बना दी जाती है, जिस पर भैंसागाड़ी, रेहड़ा, हाथगाड़ी, रिक्शा के साथ-साथ मर्सिडीज कार तक चलने लगीं। मर्सिडीज हवा में उड़ना चाहती तो भैंसागाड़ी उस पर ब्रेक लगा देती।
ऊंचे मकान, ऊंचे लोग, बड़े मकान बड़े लोग। लेकिन उनके घरों के छोटे-बड़े कामों के लिए छोटे-छोटे लोग। जमीन बिकने के बाद गांव में गुणात्मक तो नहीं, पर तात्कालिक रूप से आर्थिक परिवर्तन आता है। जमीन के मुआवजे से प्राप्त राशि से एक नवधनाढ्य वर्ग तेजी से उभर कर सामने आता है, तो उतनी ही तेजी से उसका अवसान भी हो जाता है। लेखक की पंक्तियां हैं- ‘निठारी के लोगों के घर-आंगन में सरकार ने रुपयों के पेड़ उगाए, वे बड़े होकर फलने-फूलने के बजाय पतझड़ करने लगे। समय से पहले पेड़ों पर पतझड़ आना समय में आए परिवर्तन का आगमन था, जिसे वे लोग समझ नहीं पाए। वे दिन पलक झपकते बीत गए। यह चहल-पहल ज्यादा दिन नहीं टिकी। अब न जमीन रही, न पैसा। उनका जीवन रात की परछार्इं भरा होने लगा। जो उनके पूर्वजों ने तारों भरा आसमान उन्हें दिया था, उसे अब वे दिन-रात निहारते थे।’ आर्थिक स्थितियों में यह बदलाव उनके और शरणार्थियों के बीच के रिश्ते में कुछ खटास भी पैदा करने लगा। यहां से कहानी सेक्टर इकतीस के वह आदमी, उसकी पत्नी और उसके बेटे-बेटी और बसेरे से दूर काम करने निठारी आए लोगों के बीच घूमती रहती है।
उपन्यास व्यंग्यात्मक अभिव्यक्तियों से शुरू होता है- ‘कुंभीपाक डॉटकॉम... माफ करें जी मेल सर्विस का यह सेक्टर और ठिकाना बदल चुका है। पाठकवृंद अब नए पते पर संपर्क करें। अच्छा, आप इसे निठारी की गलियों में


खोज रहे हैं। चले आइए, बेबस- विस्थापित आत्माओं का यही जाना-पहचाना, नामचीन इलाका है। यह भी मॉल कल्चर की ही उपज है। उसकी बदबूदार सुरंग का मुहाना और मैनहोल यहीं खुलता है।’ लेकिन आगे बढ़ते ही यह अपने अंतर से करुणा की धारा प्रवाहित करने लगता है, जिसमें उपन्यासकार की संवेदना और वस्तुगत यथार्थ साथ-साथ चलते रहते हैं।
‘बसेरा’ का सच ऐसा है, जिससे हम आए दिन रूबरू होते हैं, लेकिन उससे विचलित हुए बिना अपनी दुनिया में मग्न जीते चले जाते हैं। ऐसी अनेक घटनाएं हमारे आसपास घटती हैं और हम उनसे उद्वेलित तक नहीं होते। ऐसी स्थिति में हरिसुमन बिष्ट ने संवेदना के सागर में गोता लगाते हुए निठारी के समाज की सौहार्दता, नोेएडा बनते जाने के क्रम में गांव और शहर के लोगों के संबंधों के बीच टकराव और नोएडा के रहने वालों के प्रतीक रूप में सेक्टर इकतीस के वह आदमी और उसकी पत्नी के दोहरे आचरण और मजदूर वर्ग खासकर सेक्टर में काम करने वालों और रिक्शाचालकों के बीच की आत्मीयता का यथार्थ चित्रण किया है। उपन्यास का परिवेश कथाकार का जाना-पहचाना है।
यह काम की तलाश में निठारी आ बसे ऐसे लोगों की कहानी है, जिनके लिए सेक्टरों में काम करना मजबूरी है और जो सेक्टरवासियों के लिए जरूरी हैं। वह आदमी और उसकी पत्नी जैसे लोग उनके अभावग्रस्त जीवन, उनकी गरीबी पर कृत्रिम सहानुभूति दिखाते हैं। उसकी पत्नी अजीत सरकार को खून बेच कर पैसे कमाने के लिए प्रोत्साहित करती और उसे कार में बिठा कर ले जाती है। सात दिन बाद वह अधमरी हालत में उनके चंगुल से निकल कर घर आता है और अपनी पत्नी को बताता है कि उसने पांच हजार रुपए में एक किडनी बेच दी है। लेकिन कुछ घंटे बाद ही उसकी मौत हो जाती है, जो इस आशंका को दृढ़ करती है कि उसकी दोनों किडनियां निकाल ली गई हैं।
इस बीच इन मजदूरों के बच्चे एक-एक कर गायब होते जाते हैं। शबाना और रसूल का बच्चा, सागरी और सोनू मंडल का बच्चा। मलबे के नीचे उनके दबे होने की बात कही जाती है, पर वे वहां दबे-कुचले रूप में भी नहीं मिलते। मानो वे सीधे धरती में समा गए हों। इस तरह करीब दर्जन भर बच्चे गायब हो चुके होते हैं। पुलिस रपट दर्ज करने से इनकार करती है। इस संबंध में पुलिस का अपना कानून है- इनके यहां तो रोज बच्चे मरते हैं, रोज जन्म लेते हैं और फिर मरते हैं। बच्चों के गायब होने की अनसुलझी पहेली को मुस्तफा के इस दावे से कि कब्रिस्तान के इलाके में रहने के कारण कोई आत्मा उन्हें उठा कर ले गई होगी, जिसे उसने कई बार देखा भी है, झोपड़पट्टी वाले इसे ईश्वरेच्छा और नियति मान कर स्वीकार कर लेते हैं। वैसे इस अंधविश्वासी चरित्र से अलग मुस्तफा में सहज मानवीयता, सहृदयता, आत्मीयता और सहयोग की भावना है, जो हमें याद दिलाती रहती है कि अब भी ऐसी भावनाएं रखने वाले लोग हमारे आसपास हैं।
कुछ दिनों बाद शबाना का बच्चा मैनहोल से मिलता है, तो एक अन्य लड़का पंकज ए ब्लॉक के एक खाली प्लॉट से। दोनों के सारे अंग-प्रत्यंग निकाल लिए गए होते हैं, जो इस बात की सूचना देता है कि अपराधियों का एक गिरोह अपने काम को बड़े ही शातिर तरीके से और क्रूरतापूर्वक अंजाम दे रहा है।
वह आदमी बच्चों की गुमशुदगी की रपट लिखाने के लिए थाने जाता है, चौकीदार महेंद्र के प्रति अपनापन दिखाते हुए उसे अपने घर में रहने को बाध्य करता है। लेकिन जल्दी ही उसकी कलई उतरने लगती है।
ऐसा उपन्यास लिखना खतरे से खाली नहीं होता। खतरा रहता है कि उपन्यास महज अखबारी रपट न बन कर रह जाए। हरिसुमन बिष्ट ने इस बात का भरपूर ध्यान रखा है। उन्होंने इसमें अपनी भाषा-शैली से करुणा का जो भाव पैदा किया है, वह पाठक के मन में देर तक बना रहता है। यही उपन्यास की सार्थकता है।


राजेंद्र उपाध्याय
बसेरा: हरिसुमन बिष्ट, कल्याणी शिक्षा परिषद, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 250 रुपए।

भाषाओं का लोक सर्वेक्षण


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Monday, 06 February 2012 09:47
उमा भट्ट
जनसत्ता 6 जनवरी, 2012: मार्च 2010 में वडोदरा में भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र की ओर से भाषा संगम नाम से एक आयोजन हुआ था। भाषा संगम यानी भारत की तमाम भाषाओं का संगम। छोटी-बड़ी सब भाषाओं का। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री देवीप्रसन्न पटनायक ने इसे भाषाओं का महामिलन कहा। कई तरह की बातें इस भाषा संगम में सामने आर्इं। मसलन, हमारी शिक्षा व्यवस्था ने हमारी भाषाओं के लिए संकट पैदा किया है। अगर हिंदी शिक्षा का माध्यम है तो कुमाऊंनी या गढ़वाली या बघाटी या मुंडारी के लिए संकट पैदा हो जाता है। अगर अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम है तो हिंदी संकटग्रस्त हो जाती है। कुछ भाषाओं का वर्चस्व बहुत-सी भाषाओं को महत्त्वहीन बना देता है।
भाषाएं भी अपना वर्चस्व कायम करती हैं या कहा जाए कि वर्चस्व कायम करने के लिए भाषा को भी औजार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। यह प्रवृत्ति खत्म होनी चाहिए। कई बार भाषागत हीनता विषयगत हीनता भी बन जाती है। अगर आदिवासियों की भाषा को हीनता की दृष्टि से देखा जा रहा है तो इसका अभिप्राय यह भी है कि उनके समाज के विविध पक्षों को भी हीनता की दृष्टि से देखा जा रहा है। उनके समाज की बातें पाठ्यक्रमों में स्थान नहीं पा रही हैं, पर आदिवासी छात्रों को गैर-आदिवासी समाज के जीवन के बारे में बहुत कुछ पढ़ना पढ़ता है।
अपने समाज से घृणा न करनी हो तो मातृभाषा में शिक्षा जरूरी है, बहुत-से लोग अब ऐसा मानने लगे हैं। भले ही तीन या चार वर्ष तक मातृभाषा में शिक्षा देने के बाद फिर दूसरी भाषा सिखाई जाए। फिर दो वर्ष बाद तीसरी भाषा सिखाई जाए। इस प्रकार हमें एक बहुभाषी समाज में रहने की आदत और चातुर्य सीखना होगा। अपनी भाषा को बोलते हुए दूसरी भाषाओं को सम्मान देना जरूरी है। यह बहुत अच्छा नहीं हुआ कि सिंधी भाषी लोगों ने अपनी मातृभाषा को छोड़ कर अंग्रेजी को अपना लिया। पाकिस्तान के पंजाबियों ने उर्दू अपना ली या कश्मीरियों ने उर्दू को स्वीकार कर लिया।
आज हम भाषा को सरकार और बाजार से जोड़ कर पहले देखते हैं कि भाषा के लिए अगर कुछ करेगी तो सरकार ही करेगी। या अमुक सरकार की अमुक भाषा के संदर्भ में क्या नीति है। या बाजार में अमुक भाषा को अपनाने से क्या फायदा या नुकसान होगा। जबकि सीधी-सी बात यह है कि भाषा का संबंध जीवन और समाज से है। जीवन से जोड़ कर भाषाओं को देखा जाना जरूरी है। भाषा हमारी पहचान है। अपनी पहचान छिपाना चाहें तो हम अपनी भाषा को छिपाने की कोशिश करते हैं। महाराष्ट्र में पारधी समुदाय क्रिमिनल एक्ट 1876 के अंतर्गत दर्ज है। पारधी भाषा बोलने से उन्हें अपराधी समझा जाता है। इसलिए मराठी या गुजराती में बोल कर वे अपनी पहचान छिपाते हैं।
भाषाओं के लुप्त होने के प्रति बार-बार चिंता जताने का प्रचलन आजकल बढ़-सा गया है। यूनेस्को ने जीवित, मृत और संकटग्रस्त भाषाओं की सूची जारी की तो इस बात को और बल मिला। कहा जाता है कि एक भाषा के साथ एक पूरी संस्कृति लुप्त हो जाती है, उस भाषा में बोलने वालों के रीति-रिवाज, खान-पान, विद्याएं, सब लुप्त हो जाती हैं। एक बड़ा सवाल सबके सामने है कि लुप्त होती भाषाओं को कैसे जीवित रखा जाए? यह समस्या पूरे विश्व की है। सांस्कृतिक और आर्थिक साम्राज्यवाद से लड़ाई लड़े बगैर भाषाओं और संस्कृतियों को बचाना संभव नहीं है।
हमारे देश में अपनी-अपनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की प्रतिस्पर्धा है। जब सब ओर से यह मांग उठती है तो क्यों नहीं देश की सब भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर दिया जाता? इस भाव से कि ये सभी भाषाएं इस देश के निवासियों की भाषाएं हैं। आठवीं अनुसूची में शामिल होने से भाषाओं को सरकारी मान्यता मिलती है। कुछ बजट उनके नाम पर भी आबंटित हो जाता है। प्रचार-प्रसार, किताबों का प्रकाशन, पुरस्कारों का वितरण आदि सुविधाएं भाषा के नाम पर कुछ लोग ले पाते हैं। उस भाषा को बोलने वाली आम जनता को इससे क्या हानि या लाभ है, इसका कोई आकलन नहीं है।
झारखंड में लगभग तीस आदिवासी समुदाय हैं। प्रत्येक की अपनी भाषा है। हो भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए हो भाषा-भाषी प्रयासरत हैं, लेकिन बाकी भाषाएं? उनका क्या होगा? वे क्यों न आठवीं अनुसूची में शामिल हों? हो भाषा-भाषी चाहते हैं कि हो शिक्षा का माध्यम बने, लेकिन पाठ्यक्रम में संस्कृत को महत्त्व दिया गया है, हो को नहीं। जबकि आदिवासियों के जीवन में हो का महत्त्व है, संस्कृत का नहीं। झारखंड में संस्कृत अध्यापकों की नियुक्ति हो जाती है।
अपनी भाषा में न पढ़ पाने के कारण बच्चे शिक्षा में रुचि नहीं लेते और गैर-आदिवासी शिक्षक न केवल उनकी भाषा नहीं समझते, वे उनके समाज को भी हेय दृष्टि से देखते हैं। क्षेत्र के



कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कक्षा पांच तक की पाठ््यपुस्तकें हो भाषा में लिखी हैं और सरकार ने वे छापी भी हैं। पर हो भाषा के शिक्षा का माध्यम न होने से किताबें गोदामों में बंद पड़ी हैं। जिस क्षेत्र में जो भी कर्मचारी-शिक्षक-अधिकारी नियुक्त हों, उनके लिए उस क्षेत्र की स्थानीय भाषाओं को जानना अनिवार्य होना चाहिए। निश्चय ही एकाधिक भाषाओं को जानने से व्यक्तित्व की समृद्धि बढ़ेगी।
जनगणना में भाषाओं की गणना की जिस प्रकार जाती रही है, उससे मातृभाषाओं का महत्त्व कम होता जा रहा है। सरकार अलग से भाषाओं का   सर्वेक्षण कराने की आवश्यकता नहीं समझती। दो वर्ष पूर्व वडोदरा में भाषा संगम में भाषा वैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों और आम नागरिकों की उपस्थिति में निर्णय लिया गया कि भारत की समस्त भाषाओं का सर्वेक्षण कराया जाए। इस भाषा संगम में महाश्वेता देवी शामिल थीं तो प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक नारायण भाई देसाई भी थे। देश के अनेक विश्वविद्यालयों के कुलपति और केंद्रीय भाषा संस्थान, मैसूर के कई पूर्व और वर्तमान निदेशक भी उपस्थित थे। इस निर्णय में वे लोग भी शामिल थे जो आदिवासी, हिमालयी या घुमंतू समाजों से आए थे। इसका दायित्व भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र, वडोदरा ने लिया।
इस महाप्रयास को भारत की भाषाओं का लोक सर्वेक्षण कहा गया, यानी पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया। यह निश्चित हुआ कि भारत की भाषाओं का यह सर्वेक्षण लोगों द्वारा तैयार किया जाएगा। इसमें एक-एक भाषाई क्षेत्र को लेते हुए उस क्षेत्र की भाषाओं का विवरण दिया जाएगा। एक क्षेत्र की भाषाओं में परस्पर आदान-प्रदान होता रहता है, भले ही भिन्न-भिन्न परिवारों की भाषाएं हों। दूसरे क्षेत्रों की भाषाओं से भी उनका संबंध होता है। एक क्षेत्र की भाषाओं का दूसरे क्षेत्र की भाषाओं से भी घनिष्ठ संबंध हो सकता है।
इस सर्वेक्षण में बोली और भाषा के विवाद को कोई स्थान नहीं दिया गया है। सभी की उपस्थिति भाषा के रूप में दर्ज होगी। भाषा एक जनसमूह की अभिव्यक्ति का माध्यम है, इसमें छोटे या बड़े का प्रश्न नहीं है। एक समुदाय अगर उसे भाषा के रूप में प्रयुक्त करता है तो भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण में भाषा के रूप में ही उसकी जगह है। भाषाओं को देखने का हमारा दृष्टिकोण क्या हो, यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। भाषाएं लोक की थाती हैं, पंडितों की नहीं। जब देश की सब भाषाएं आगे बढ़ेंगी तब उन भाषाओं को बोलने वाले लोग भी आगे बढ़ेंगे।
सात और आठ जनवरी 2012 को फिर वडोदरा में भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र ने भाषा वसुधा यानी भाषाओं का विश्व सम्मेलन नाम से एक वृहत आयोजन किया, जिसमें विश्व की लगभग नौ सौ भाषाओं के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। हिंदुस्तान के अतिरिक्त अफ्रीका, न्यूजीलैंड, अर्जेंटीना, ब्राजील, कांगो, नाइजीरिया, फ्रांस, पापुआ न्यूगिनी के साथ-साथ भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, भूटान, नेपाल आदि से भी अपनी-अपनी भाषाओं के प्रतिनिधि इसमें शामिल हुए। दो वर्ष पूर्व लिए गए संकल्प का परिणाम इस सम्मेलन में देखा गया। भारत की भाषाओं के लोक सर्वेक्षण के तहत परिकल्पित बीस खंडों में से पंद्रह राज्यों- छत्तीसगढ़, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, केरल, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, ओड़िशा, राजस्थान और उत्तराखंड- के सर्वेक्षणों की प्रकाशन-पूर्व प्रस्तुति विभा पुरी दास (मानव संसाधन विकास मंत्रालय में सचिव) की अध्यक्षता में की गई। इनमें से कुछ हिंदी में और कुछ अंग्रेजी में प्रकाशित होंगे।
भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र के संस्थापक-सदस्य प्रो. गणेश देवी के अनुसार इस कार्य के लिए देश भर में क्षेत्रवार अलग-अलग कार्यशालाएं आयोजित की गर्इं, जिनमें सर्वे की रूपरेखा निश्चित की गई। हालांकि आम जन की भी भागीदारी इसमें है, मगर प्रबुद्ध भाषाशास्त्रियों की देखरेख में यह कार्य संपन्न हो रहा है। इन संस्करणों का सामूहिक रूप से संपादन किया जा रहा है। ग्रियर्सन के लगभग सौ साल बाद यह अपनी तरह का अकेला अद््भुत प्रयास होगा जो बगैर किसी सरकारी सहायता के इतने कम समय में संपन्न किया जा रहा है।
भाषाओं के इस विश्व सम्मेलन में भाषा नीति, आदिवासियों की भाषाएं, हिंदी क्षेत्र की भाषाएं, मातृभाषा में शिक्षण, भाषा विविधता का मानचित्रीकरण, भाषाओं का विस्थापन, राजभाषाएं और घुमंतू भाषाएं, भाषाओं का वर्चस्ववाद, लुप्त होती भाषाएं, संस्थाएं और भाषाओं का संरक्षण आदि विविध विषयों पर अलग-अलग समूहों में चर्चा हुई।
इस तरह इतने सारे लोगों द्वारा देश भर की और कुछ दूसरे देशों की भाषाओं पर चर्चा करने का यह दुर्लभ अवसर था, जो एक प्रकार से अपनी भाषाओं को बचाने का आंदोलन ही कहा जाएगा। भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र द्वारा जारी फोल्डर में लगभग आठ सौ भाषाओं के नाम दिए गए हैं। हमारे देश में वर्तमान में सोलह सौ के लगभग भाषाएं बोली जा रही हैं। यह भाषा-वैविध्य न केवल हमारे सांस्कृतिक वैविध्य का सूचक है, वरन हमारे समाज के पास मौजूद ज्ञान के वैविध्य का भी प्रतीक है। इसके संरक्षण का महत्त्वपूर्ण काम भी लोक ही कर सकता है, इसमें संदेह नहीं।

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

एक महान जगह की यात्रा: भारत


भारत दक्षिण Asia.India में सबसे सुंदर जगह है ही ऐसा देश है जो पर्यटन के विभिन्न श्रेणियों प्रदान करता है. एक विश्वसनीय भारत टूर ऑपरेटर और भारत में पर्यटन के विकास को बढ़ावा देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अनेक भारतीय टूर ऑपरेटरों भारत पर्यटन के लिए आकर्षक टूर पैकेज की पेशकश करते हैं. इन दक्षिण भारत पर्यटन, राजस्थान पर्यटन, दिल्ली दौरे, आगरा पर्यटन, कोचीन टूर, मुंबई यात्रा और कई और अधिक शामिल हैं. भारत magnificient स्मारकों और महलों में से एक देश है.
Winton, ऑस्ट्रेलिया - 26 मार्चः टूर ऑपरेटर एलन 'लोहार' Longreach और विन्टन के बीच 26 मार्च, Winton, ऑस्ट्रेलिया में 2011 पर Landsborough राजमार्ग के किनारे स्मिथ ड्राइव.  क्वींसलैंड हाल ही में दिसंबर 2010 से चरम बाढ़ की एक श्रृंखला का सामना करना पड़ा जनवरी 2011 को, 70 से अधिक शहरों में 200,000 से अधिक लोगों को प्रभावित.  राज्य उबर रहा है और बाढ़ के बाद, outback क्वींसलैंड के कई क्षेत्रों में अब वन्य जीवन और जा रहा है एक बार में एक पीढ़ी के रूप में वर्णित वनस्पतियों पर परिणामी प्रभाव से संपन्न हैं.  राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण पर्यटन के साथ, क्वींसलैंड और ऑस्ट्रेलियाई सरकार मिलियन आपात पर्यटन धन में AUD10 प्रतिबद्ध है करने के लिए राज्य की यात्रा को बढ़ावा देने के रूप में 'व्यापार के लिए खुला' क्वींसलैंड प्रकाश डाला.
भारत में कई खूबसूरत स्थानों रहे हैं. देश की समृद्ध संस्कृति, गौरवशाली इतिहास और आकर्षक परंपरा है जो पर्यटकों को आकर्षित किया है. भारत में प्रमुख आकर्षणों में से कुछ ताजमहल रहे हैं, लाल किला और फतेहपुर सीकरी आगरा में, लाल किला, कुतुब मीनार और दिल्ली में हुमायूं का मकबरा, वहाँ के अवसरों के भारत में touristes के लिए बहुत सारे हैं इस देश से सभी के ऊपर यात्रा स्थलों, स्वर्ण समुद्र तट, नीला समुद्र, रहस्यपूर्ण रेगिस्तान और आत्मा और आध्यात्मिक संतुष्टि है कि भारत के उद्धार की खोज में. की अपनी संपत्ति के लिए पर्यटकों.
भारत में कई स्थलों कि अविस्मरणीय हैं, लेकिन उत्तर भारत पर्यटन भारत में सबसे अच्छा हिस्सा हैं. उत्तर भारत विभिन्न पवित्र स्थानों पर जो दुनिया भर से पर्यटकों को आकर्षित किया है. पवित्र स्थानों जो बहुत प्रसिद्ध हैं में से कुछ हैं: बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और दौरे यमुनोत्री combinedly ज्ञात के रूप में भारत के उत्तरी भाग में Chardham.The यात्रा स्थलों नमी है कि अपनी यात्रा अधिक सुखद बनाता से भरे हुए हैं जब आप उत्तर भारत में यात्रा करते हैं.
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भारत सुंदर मौसम के साथ ही धन्य है. उत्तरी भारत पर्यटन आप सस्ते खरीदारी की पेशकश के साथ प्रदान करते हैं. आप खुले दिल के साथ उत्पादों की खरीद क्योंकि यहां उत्पादों को बहुत सस्ते होते हैं, खासकर हाथ शिल्प बनाया और कपड़े सबसे अच्छा कर रहे हैं वहाँ से खरीदते हैं. भारत में त्यौहार बहुत अनोखी है, भारत यात्रा के दौरान आप हिमालय में रहने वाले लोगों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम देख सकते हैं. यह भारत के पर्यटन के बारे में सबसे अच्छा हिस्सा है और उत्तरी भारत पर्यटन आप प्राकृतिक सुंदरता और रचनात्मक के कभी हरे छापों के साथ प्रदान करते हैं.
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Source: http://hi.hicow.com/भ-रत/ट-र-ऑपर-टर/आगर-6706.html

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