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प्राचीनकाल में सदियों तक प्रचलित वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस, समुद्री यात्रा, अगम्य पर्वतीय प्रदेशों में प्राणियों का अस्तित्व आदि की कथाएँ, जिनकी कथानक घटना प्रधान हुआ करती थीं, भी कहानी के ही रूप हैं। 'गुणढ्य' की "वृहत्कथा" को, जिसमें 'उदयन', 'वासवदत्ता', समुद्री व्यापारियों, राजकुमार तथा राजकुमारियों के पराक्रम की घटना प्रधान कथाओं का बाहुल्य है, प्राचीनतम रचना कहा जा सकता है। वृहत्कथा का प्रभाव 'दण्डी' के "दशकुमार चरित", 'बाणभट्ट' की "कादम्बरी", 'सुबन्धु' की "वासवदत्ता", 'धनपाल' की "तिलकमंजरी", 'सोमदेव' के "यशस्तिलक" तथा "मालतीमाधव", "अभिज्ञान शाकुन्तलम्", "मालविकाग्निमित्र", "विक्रमोर्वशीय", "रत्नावली", "मृच्छकटिकम्" जैसे अन्य काव्यग्रंथों पर साफ-साफ परिलक्षित होता है। इसके पश्चात् छोटे आकार वाली "पंचतंत्र", "हितोपदेश", "बेताल पच्चीसी", "सिंहासन बत्तीसी", "शुक सप्तति", "कथा सरित्सागर", "भोजप्रबन्ध" जैसी साहित्यिक एवं कलात्मक कहानियों का युग आया। इन कहानियों से श्रोताओं को मनोरंजन के साथ ही साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः कहानियों में असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म की विजय दिखाई गई हैं।
अनुक्रम
परिभाषा
अमेरिका के कवि-आलोचक-कथाकार 'एडगर एलिन पो' के अनुसार कहानी की परिभाषा इस प्रकार हैः "कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बैठक में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो।" हिंदी कहानी को सर्वश्रेष्ठ रूप देने वाले 'प्रेमचन्द' ने कहानी की परिभाषा इस प्रकार से की हैः "कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।" हिन्दी के लेखकों में प्रेमचंद पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने तीन लेखों में कहानी के सम्बंध में अपने विचार व्यक्त किए हैं – ‘कहानी (गल्प) एक रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा-विन्यास, सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं। उपन्यास की भाँति उसमें मानव-जीवन का संपूर्ण तथा बृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता। वह ऐसा रमणीय उद्यान नहीं जिसमें भाँति-भाँति के फूल, बेल-बूटे सजे हुए हैं, बल्कि एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है।’ कहानी की और भी परिभाषाएँ उद्धृत की जा सकती हैं। पर किसी भी साहित्यिक विधा को वैज्ञानिक परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता, क्योंकि साहित्य में विज्ञान की सुनिश्चितता नहीं होती। इसलिए उसकी जो भी परिभाषा दी जाएगी वह अधूरी होगी।कहानी के तत्व
मुख्य लेख : कहानी के तत्व
रोचकता, प्रभाव तथा वक्ता एवं श्रोता या कहानीकार एवं पाठक के बीच
यथोचित सम्बद्धता बनाये रखने के लिये सभी प्रकार की कहानियों में
निम्नलिखित तत्व महत्वपूर्ण माने गए हैं कथावस्तु, पात्र अथवा
चरित्र-चित्रण, कथोपकथन अथवा संवाद, देशकाल अथवा वातावरण, भाषा-शैली तथा
उद्देश्य। कहानी के ढाँचे को कथानक अथवा कथावस्तु कहा जाता है। प्रत्येक
कहानी के लिये कथावस्तु का होना अनिवार्य है क्योंकि इसके अभाव में कहानी
की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कथानक के चार अंग माने जाते हैं -
आरम्भ, आरोह, चरम स्थिति एवं अवरोह। कहानी का संचालन उसके पात्रों के
द्वारा ही होता है तथा पात्रों के गुण-दोष को उनका 'चरित्र चित्रण' कहा
जाता है। चरित्र चित्रण से विभिन्न चरित्रों में स्वाभाविकता उत्पन्न की
जाती है। संवाद कहानी का प्रमुख अंग होते हैं। इनके द्वारा पात्रों के
मानसिक अन्तर्द्वन्द एवं अन्य मनोभावों को प्रकट किया जाता है। कहानी में
वास्तविकता का पुट देने के लिये देशकाल अथवा वातावरण का प्रयोग किया जाता
है। प्रस्तुतीकरण के ढंग में कलात्मकता लाने के लिए उसको अलग-अलग भाषा व
शैली से सजाया जाता है। कहानी में केवल मनोरंजन ही नहीं होता, अपितु उसका
एक निश्चित उद्देश्य भी होता है।हिन्दी कहानी का इतिहास
मुख्य लेख : हिन्दी कहानी का इतिहास
१९१० से १९६० के बीच हिन्दी कहानी का विकास जितनी गति के साथ हुआ उतनी गति किसी अन्य साहित्यिक विधा के विकास में नहीं देखी जाती। सन १९०० से १९१५ तक हिन्दी कहानी के विकास का पहला दौर था। मन की चंचलता (माधवप्रसाद मिश्र) १९०७ गुलबहार (किशोरीलाल गोस्वामी) १९०२, पंडित और पंडितानी (गिरिजादत्त वाजपेयी) १९०३, ग्यारह वर्ष का समय (रामचंद्र शुक्ल) १९०३, दुलाईवाली (बंगमहिला) १९०७, विद्या बहार (विद्यानाथ शर्मा) १९०९, राखीबंद भाई (वृन्दावनलाल वर्मा) १९०९, ग्राम (जयशंकर 'प्रसाद') १९११, सुखमय जीवन (चंद्रधर शर्मा गुलेरी) १९११, रसिया बालम (जयशंकर प्रसाद) १९१२, परदेसी (विश्वम्भरनाथ जिज्जा) १९१२, कानों में कंगना (राजाराधिकारमण प्रसाद सिंह) १९१३, रक्षाबंधन (विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक') १९१३, उसने कहा था (चंद्रधर शर्मा गुलेरी) १९१५, आदि के प्रकाशन से सिद्ध होता है कि इस प्रारंभिक काल में हिन्दी कहानियों के विकास के सभी चिह्न मिल जाते हैं। प्रेमचंद के आगमन से हिन्दी का कथा-साहित्य आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की ओर मुड़ा। और प्रसाद के आगमन से रोमांटिक यथार्थवाद की ओर। चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की कहानी 'उसने कहा था' में यह अपनी पूरी रंगीनी में मिलता है। सन १९२२ में उग्र
का हिन्दी-कथा-साहित्य में प्रवेश हुआ। उग्र न तो प्रसाद की तरह रोमैंटिक
थे और न ही प्रेमचंद की भाँति आदर्शोन्मुख यथार्थवादी। वे केवल यथार्थवादी थे – प्रकृति से ही उन्होंने समाज के नंगे यथार्थ को सशक्त भाषा-शैली में उजागर किया। १९२७-१९२८ में जैनेन्द्र ने कहानी लिखना आरंभ किया। उनके आगमन के साथ ही हिन्दी-कहानी का नया उत्थान शुरू हुआ। १९३६ प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हो चुकी थी। इस समय के लेखकों की रचनाओं में प्रगतिशीलता के तत्त्व का जो समावेश हुआ उसे युगधर्म समझना चाहिए। यशपाल राष्ट्रीय संग्राम के एक सक्रिय क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे, अतः वह प्रभाव उनकी कहानियों में भी आया। अज्ञेय
प्रयोगधर्मा कलाकार थे, उनके आगमन के साथ कहानी नई दिशा की ओर मुड़ी। जिस
आधुनिकता बोध की आज बहुत चर्चा की जाती है उसके प्रथम पुरस्कर्ता अज्ञेय ही
ठहरते हैं। अश्क प्रेमचंद परंपरा के कहानीकार हैं। अश्क के अतिरिक्त वृंदावनलाल वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, इलाचन्द्र जोशी, अमृतलाल नागर आदि उपन्यासकारों ने भी कहानियों के क्षेत्र में काम किया है। किन्तु इनका वास्तविक क्षेत्र उपन्यास है कहानी नहीं। इसके बाद सन १९५० के आसपास से हिन्दी कहानियाँ नए दौर से गुजरने लगीं। आधुनिकता बोध की कहानियाँ या नई कहानी नाम दिया गया।समालोचना
मुख्य लेख : कहानी की आलोचना
कहानी एक अत्यंत लोकप्रिय विधा के रूप में स्वीकृत हो चुकी है। प्रायः
सभी पत्र-पत्रिकाओं में, पाठकीय माँग के फलस्वरूप, कहानियों का छापा जाना
अनिवार्य हो गया है। इस देश की प्रत्येक भाषा में केवल कहानियों की
पत्रिकाएँ भी संख्या में कम नहीं हैं। रहस्य, रोमांस और साहस की कहानियों
के अतिरिक्त उनमें जीवन को गंभीर रूप में लेने वाली कहानियाँ भी छपती हैं।
साहित्यिक दृष्टि से इन्हीं का महत्व है। ये कहानियाँ चारित्रिक विशेषताओं,
‘मूड’, वातावरण, जटिल स्थितियों आदि के साथ सामाजिक-आर्थिक जीवन से भी
संबंद्ध होती हैं। सामानयतः कहानी मीमांसा के लिए छः तत्वों का उल्लेख किया
जाता है – 1.कथावस्तु, 2.चरित्र-चित्रण, 3. कथोपकथन, 4.देशकाल, 5.
भाषाशैली और 6. उद्देश्य। किंतु इन प्रतिमानो का प्रयोग नाटक और उपन्यासों
के लिए भी होता है। ऐसी स्थिति में भ्रांति की सृष्टि हो सकती है। लेकिन
इसका परिहार यह कह कर लिया जाता है कि कहानी की कथावस्तु इकहरी होती है।
चरित्र के लिए किसी पहलू का चित्रण होता है। कथोपकथन अपेक्षाकृत अधिक
सूक्ष्म तथा मर्मस्पर्शी होता है। कहानी में एक देश और एक काल की ज़रूरत
होती है। सन साठ के बाद की कहानियों का तेवर बदला हुआ है। इन कहानियों को
साठोत्तरी कहानी कहा जाता है। इस दौर में कई कहानी आंदोलन चले जिनमें
अकहानी, सहज कहानी,सचेतन कहानी,समांतर कहानी और सकिय कहानी आंदोलन प्रमुख
थे। बाद में जनवादी कहानी आंदोलन में इनका समाहार हो जाता है। नब्बे के
दशक की कहानी और 21 वीं सदी के पहले दशक की कहानी का अभी तक समुचित
मूल्यांकन नहीं हो पाया है लेकिन उनमें वैश्वीकरण,सूचना तंत्र और
बाजारवाद की अनुगँज साफ सुनी जा सकती है।इन्हें भी देखें
- कथानक (प्लॉट)
- कथानक रूढ़ि
बाह्य सूत्र
- कहानी संग्रह - हिन्दी में बच्चों की कहानियाँ
- सार्थक कहानियाँ - पत्रिका सृजनगाथा में कथा संग्रह
- सुनो कहानी - जाल-पत्रिका अभ्व्यक्ति में एक अच्छा लेख
- कहानियाँ ही कहानियाँ
- जालपत्रिका अभिव्यक्ति पर ५०० से अधिक कहानियों का संग्रह
- हिन्दी नेस्ट पर विशाल कथा संग्रह
- कथा-कलश - हिन्द-युग्म का बाल-कथा संग्रह
- बाल मन हिन्दी चिट्ठा
- कहानियाँ - ईपत्रिका शब्दांकन में कथा संग्रह
- हिंदी कहानी के इतिहास पुरुष पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी
- तेनालीराम की कहानियां तेनालीराम की कहानियां, हिन्दी में
- लोककथा भारत की विभिन्न लोककथायें, हिन्दी में
- पंचतंत्र की प्रेरक कहानियां पंचतंत्र की कथाएं, हिन्दी में
- भारतीय कहानियाँ (गूगल पुस्तक ; सम्पादक - डॉ एस् एस् केलकर)
- भारतीय कहानियाँ 1987-1988 (गूगल पुस्तक)
- दूध का कटोरा (ओडिया कथा संग्रह) (गूगल पुस्तक ; संकलन - कमलेश्वर)
जवाब देंहटाएंvery nice content Also read 2 bhaiyo ki hindi kahaniya it is also a good story