परखना मत, परखने
में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता ।
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर से मिला, दरिया नहीं रहता ।
हजारों शेर मेरे सो गये काग़ज़ की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता ।
तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज़ वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता ।
मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी तन्हा नहीं रहता ।
कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता ।
- बशीर बद्र
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता ।
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर से मिला, दरिया नहीं रहता ।
हजारों शेर मेरे सो गये काग़ज़ की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता ।
तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज़ वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता ।
मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी तन्हा नहीं रहता ।
कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता ।
- बशीर बद्र
2
कभी यूँ मिलें कोई मसलेहत,
कोई खौफ दिल में ज़रा न हो
मुझे अपनी कोई ख़बर न हो, तुझे अपना कोई पता न हो ।
वो फिराक हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो ।
कभी धूप दे, कभी बदलियाँ, दिलो-जाँ से दोनों क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में न क़ैद कर, जहाँ ज़िन्दगी की हवा न हो ।
वो हज़ारों बाग़ों का बाग़ हो, तेरी बरकतों की बहार से
जहाँ कोई शाख हरी न हो, जहाँ कोई फूल खिला न हो ।
मुझे अपनी कोई ख़बर न हो, तुझे अपना कोई पता न हो ।
वो फिराक हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो गुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो ।
कभी धूप दे, कभी बदलियाँ, दिलो-जाँ से दोनों क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में न क़ैद कर, जहाँ ज़िन्दगी की हवा न हो ।
वो हज़ारों बाग़ों का बाग़ हो, तेरी बरकतों की बहार से
जहाँ कोई शाख हरी न हो, जहाँ कोई फूल खिला न हो ।
तेरे इख्तियार में क्या नहीं,
मुझे इस तरह से नवाज़ दे
यूँ दुआयें मेरी क़ुबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ न हो ।
कभी हम भी जिस के क़रीब थे, दिलो-जाँ से बढ़कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो ।
- बशीर बद्र
यूँ दुआयें मेरी क़ुबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ न हो ।
कभी हम भी जिस के क़रीब थे, दिलो-जाँ से बढ़कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो ।
- बशीर बद्र
3
बशीर का जादूः
कहीं चांद राहों में खो गया कहीं चांदनी भी भटक गयी
मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गयी ।
तेरे हाथ से मेरे होठ तक वही इंतज़ार की प्यास है
तेरे नाम की जो शराब थी कहीं रास्ते में छलक गयी ।
मेरी दास्ताँ का उरूज था तेरी नर्म पलकों की छाँव में
मेरे साथ था तुझे जागना तेरी आँख कैसे झपक गयी ।
कभी हम मिले तो भी क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिझक गयी ।
मुझे पढ़ने वाला पढ़े भी क्या मुझे लिखने वाला लिखे भी क्या
जहाँ नाम मेरा लिखा गया वहां रोशनाई उलट गयी ।
तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी कामयाब न हो सकीं
तेरी याद शाख-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गयी ।
कहीं चांद राहों में खो गया कहीं चांदनी भी भटक गयी
मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गयी ।
तेरे हाथ से मेरे होठ तक वही इंतज़ार की प्यास है
तेरे नाम की जो शराब थी कहीं रास्ते में छलक गयी ।
मेरी दास्ताँ का उरूज था तेरी नर्म पलकों की छाँव में
मेरे साथ था तुझे जागना तेरी आँख कैसे झपक गयी ।
कभी हम मिले तो भी क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिझक गयी ।
मुझे पढ़ने वाला पढ़े भी क्या मुझे लिखने वाला लिखे भी क्या
जहाँ नाम मेरा लिखा गया वहां रोशनाई उलट गयी ।
तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी कामयाब न हो सकीं
तेरी याद शाख-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गयी ।
4
बशीर बद्र की एक प्यारी रचना :
यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो ।
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो ।
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो ।
मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो ।
कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो ।
ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो ।
नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो ।
यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो ।
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो ।
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो ।
मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो ।
कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो ।
ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो ।
नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो ।
5
सरे राह कुछ भी
कहा नहीं, कभी उसके
घर में गया नहीं
मैं जनम-जनम से उसी का हूँ, उसे आज तक ये पता नहीं ।
उसे पाक़ नज़रों से चूमना भी इबादतों में शुमार है
कोई फूल लाख क़रीब हो, कभी मैंने उसको छुआ नहीं ।
ये ख़ुदा की देन अजीब है, कि इसी का नाम नसीब है
जिसे तूने चाहा वो मिल गया, जिसे मैंने चाहा वो मिला नहीं ।
इसी शहर में कई साल से मेरे कुछ क़रीबी अज़ीज़ हैं
उन्हें मेरी कोई ख़बर नहीं, मुझे उनका कोई पता नहीं ।
मैं जनम-जनम से उसी का हूँ, उसे आज तक ये पता नहीं ।
उसे पाक़ नज़रों से चूमना भी इबादतों में शुमार है
कोई फूल लाख क़रीब हो, कभी मैंने उसको छुआ नहीं ।
ये ख़ुदा की देन अजीब है, कि इसी का नाम नसीब है
जिसे तूने चाहा वो मिल गया, जिसे मैंने चाहा वो मिला नहीं ।
इसी शहर में कई साल से मेरे कुछ क़रीबी अज़ीज़ हैं
उन्हें मेरी कोई ख़बर नहीं, मुझे उनका कोई पता नहीं ।
6
मेरे पसंदीदा शायर डॉ. बशीर बद्र की एक खूबसूरत रचना :
है अजीब शहर की ज़िन्दगी, न सफ़र रहा न क़याम है
कहीं कारोबार- सी दोपहर, कहीं बदमिज़ाज- सी शाम है ।
कहाँ अब दुआओं की बरकतें, वो नसीहतें वो हिदायतें
ये ज़रूरतों का खुलूस है, ये मतालबों का सलाम है ।
यूँ ही रोज़ मिलने की आरजू, बड़ी रख- रखाव की गुफ्तगू
ये शराफतें नहीं बेग़रज़, उसे आपसे कोई काम है ।
वो दिलों में आग लगायेगा, मैं दिलों की आग बुझाऊंगा
उसे अपने काम से काम है, मुझे अपने काम से काम है ।
न उदास हो न मलाल कर, किसी बात का न खयाल कर
कई साल बाद मिले हैं हम, तेरे नाम आज की शाम है ।
कोई नग्मा धूप के गाँव- सा, कोई नग्मा शाम की छाँव- सा
ज़रा इन परिंदों से पूछना, ये कलाम किस का कलाम है ।
है अजीब शहर की ज़िन्दगी, न सफ़र रहा न क़याम है
कहीं कारोबार- सी दोपहर, कहीं बदमिज़ाज- सी शाम है ।
कहाँ अब दुआओं की बरकतें, वो नसीहतें वो हिदायतें
ये ज़रूरतों का खुलूस है, ये मतालबों का सलाम है ।
यूँ ही रोज़ मिलने की आरजू, बड़ी रख- रखाव की गुफ्तगू
ये शराफतें नहीं बेग़रज़, उसे आपसे कोई काम है ।
वो दिलों में आग लगायेगा, मैं दिलों की आग बुझाऊंगा
उसे अपने काम से काम है, मुझे अपने काम से काम है ।
न उदास हो न मलाल कर, किसी बात का न खयाल कर
कई साल बाद मिले हैं हम, तेरे नाम आज की शाम है ।
कोई नग्मा धूप के गाँव- सा, कोई नग्मा शाम की छाँव- सा
ज़रा इन परिंदों से पूछना, ये कलाम किस का कलाम है ।
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