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जन्म: | ४ अक्टूबर, १८८४ बस्ती, उत्तर प्रदेश, भारत |
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मृत्यु: | २ फरवरी,१९४१ भारत |
कार्यक्षेत्र: | साहित्यकार, लेखक, निबंधकार |
राष्ट्रीयता: | भारतीय |
भाषा: | हिन्दी |
काल: | आधुनिक काल |
विधा: | गद्य |
विषय: | यात्रावृत्त, संस्मरण व निबंध |
साहित्यिक आन्दोलन: |
आलोचनाएं, काव्य में रहस्यवाद, काव्य में अभिव्यंजनावाद, रस मीमांसा |
प्रमुख कृति(याँ): | हिंदी साहित्य का इतिहास, चिंतामणि, हिंदी शब्द सागर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका |
अनुक्रम
जीवन परिचय
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सं. १८८४ में बस्ती जिले के अगोना नामक गांव में हुआ था।[1] पिता पं॰ चंद्रबली शुक्ल की नियुक्ति सदर कानूनगो के पद पर मिर्ज़ापुर में हुई तो समस्त परिवार मिर्ज़ापुर में आकर रहने लगा। जिस समय शुक्ल जी की अवस्था नौ वर्ष की थी, उनकी माता का देहांत हो गया। मातृ सुख के अभाव के साथ-साथ विमाता से मिलने वाले दुःख ने उनके व्यक्तित्व को अल्पायु में ही परिपक्व बना दिया। अध्ययन के प्रति लग्नशीलता शुक्ल जी में बाल्यकाल से ही थी। किंतु इसके लिए उन्हें अनुकूल वातावरण न मिल सका। किसी तरह उन्होंने एंन्ट्रेंस और एफ. ए. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। उनके पिता की इच्छा थी कि शुक्ल जी कचहरी में जाकर दफ्तर का काम सीखें, किंतु शुक्ल जी उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। पिता जी ने उन्हें वकालत पढ़ने के लिए इलाहाबाद भेजा पर उनकी रुचि वकालत में न होकर साहित्य में थी। अतः परिणाम यह हुआ कि वे उसमें अनुत्तीर्ण रहे। शुक्ल जी के पिताजी ने उन्हें नायब तहसीलदारी की जगह दिलाने का प्रयास किया, किंतु उनकी स्वाभिमानी प्रकृति के कारण यह संभव न हो सका।[2]शुक्ल जी मिर्ज़ापुर के मिशन स्कूल में अध्यापक हो गए। इसी समय से उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे और धीरे-धीरे उनकी विद्वता का यश चारों ओर फैल गया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें हिंदी शब्द सागर के सहायक संपादक का कार्य-भार सौंपा,[1] जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। वे नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भी संपादक रहे। शुक्ल जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापन का कार्य भी किया। बाबू श्याम सुंदर दास की मृत्यु के बाद वे वहां हिंदी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए। २ फरवरी, सन् १९४१ को हृदय की गति रुक जाने से शुक्ल जी का देहांत हो गया। ३० सितंबर, २००८ को दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में इनकी जीवनी का विमोचन हुआ।[3]
कृतियाँ
शुक्ल जी की कृतियाँ तीन प्रकार के हैं।- मौलिक कृतियाँ तीन प्रकार की हैं--
- आलोचनात्मक ग्रंथ : सूर, तुलसी, जायसी पर की गई आलोचनाएं, काव्य में रहस्यवाद, काव्य में अभिव्यंजनावाद, रस मीमांसा आदि शुक्ल जी की आलोचनात्मक रचनाएं हैं।
- निबंधात्मक ग्रंथ : उनके निबंध चिंतामणि नामक ग्रंथ के दो भागों में संग्रहीत हैं। चिंतामणि के निबन्धों के अतिरिक्त शुक्लजी ने कुछ अन्य निबन्ध भी लिखे हैं, जिनमें मित्रता, अध्ययन आदि निबन्ध सामान्य विषयों पर लिखे गये निबन्ध हैं। मित्रता निबन्ध जीवनोपयोगी विषय पर लिखा गया उच्चकोटि का निबन्ध है जिसमें शुक्लजी की लेखन शैली गत विशेषतायें झलकती हैं। क्रोध निबन्ध में उन्होंने सामाजिक जीवन मे क्रोध का क्या महत्व है, क्रोधी की मानसिकता-जैसै समबन्धित पेहलुओ का विश्लेश्ण किया है।
- ऐतिहासिक ग्रंथ : हिंदी साहित्य का इतिहास उनका अनूठा ऐतिहासिक ग्रंथ है।
- अनूदित कृतियां
- संपादित कृतियां
वर्ण्य विषय
शुक्ल जी ने प्रायः साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक निबंध लिखे हैं। साहित्यिक निबंधों के ३ भाग किए जा सकते हैं -सैध्दांतिक आलोचनात्मक निबंध- 'कविता क्या है'। 'काव्य में लोक मंगल की साधनावस्था', 'साधारणीकरण और व्यक्ति वैचियवाद', आदि निबंध सैध्दांतिक आलोचना के अंतर्गत आते हैं। आलोचना के साथ-साथ अन्वेषण और गवेषणा करने की प्रवृत्ति भी शुक्ल जी में पर्याप्त मात्रा में है। 'हिंदी साहित्य का इतिहास' उनकी इसी प्रवृत्ति का परिणाम है।
व्यवहारिक आलोचनात्मक निबंध- भारतेंदु हरिश्चंद्र, तुलसी का भक्ति मार्ग, मानस की धर्म भूमि आदि निबंध व्यावहारिक आलोचना के अंतर्गत आते हैं।
मनोवैज्ञानिक निबंध- मनोवैज्ञानिक निबंधों में करुणा, श्रध्दा, भक्ति, लज्जा, ग्लानि, क्रोध, लोभ, प्रीति आदि भावों तथा मनोविकारों पर लिखे गए निबंध आते हैं। शुक्ल जी के ये मनोवैज्ञानिक निबंध सर्वथा मौलिक हैं। उनकी भांति किसी भी अन्य लेखक ने उपर्युक्त विषयों पर इतनी प्रौढ़ता के साथ नहीं लिखा। शुक्ल जी के निबंधों में उनकी अभिरुचि, विचार धारा अध्ययन आदि का पूरा-पूरा समावेश है। वे लोकादर्श के पक्के समर्थक थे। इस समर्थन की छाप उनकी रचनाओं में सर्वत्र मिलती है।
भाषा
शुक्ल जी के गद्य-साहित्य की भाषा खड़ी बोली है और उसके प्रायः दो रूप मिलते हैं -- क्लिष्ट और जटिल
- गंभीर विषयों के वर्णन तथा आलोचनात्मक निबंधों के भाषा का क्लिष्ट रूप मिलता है। विषय की गंभीरता के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी है। गंभीर विषयों को व्यक्त करने के लिए जिस संयम और शक्ति की आवश्यकता होती है, वह पूर्णतः विद्यमान है। अतः इस प्रकार को भाषा क्लिष्ट और जटिल होते हुए भी स्पष्ट है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है।
- सरल और व्यवहारिक
- भाषा का सरल और व्यवहारिक रूप शुक्ल जी के मनोवैज्ञानिक निबंधों में मिलता है। इसमें हिंदी के प्रचलित शब्दों को ही अधिक ग्रहण किया गया है यथा स्थान उर्दू और अंग्रेज़ी के अतिप्रचलित शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। भाषा को अधिक सरल और व्यवहारिक बनाने के लिए शुक्ल जी ने तड़क-भड़क अटकल-पच्चू आदि ग्रामीण बोलचाल के शब्दों को भी अपनाया है। तथा नौ दिन चले अढ़ाई कोस, जिसकी लाठी उसकी भैंस, पेट फूलना, काटों पर चलना आदि कहावतों व मुहावरों का भी प्रयोग निस्संकोच होकर किया है।
शैली
शुक्ल जी की शैली पर उनके व्यक्तित्व की पूरी-पूरी छाप है। यही कारण है कि प्रत्येक वाक्य पुकार कर कह देता है कि वह उनका है। सामान्य रूप से शुक्ल जी की शैली अत्यंत प्रौढ़ और मौलिक है। उसमें गागर में सागर पूर्ण रूप से विद्यमान है। शुक्ल जी की शैली के मुख्यतः तीन रूप हैं -- आलोचनात्मक शैली
- शुक्ल जी ने अपने आलोचनात्मक निबंध इसी शैली में लिखे हैं। इस शैली की भाषा गंभीर है। उनमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है। वाक्य छोटे-छोटे, संयत और मार्मिक हैं। भावों की अभिव्यक्ति इस प्रकार हुई है कि उनको समझने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती।
- गवेषणात्मक शैली
- इस शैली में शुक्ल जी ने नवीन खोजपूर्ण निबंधों की रचना की है। आलोचनात्मक शैली की अपेक्षा यह शैली अधिक गंभीर और दुरूह है। इसमें भाषा क्लिष्ट है। वाक्य बड़े-बड़े हैं और मुहावरों का नितांत अभाव है।
- भावात्मक शैली
- शुक्ल जी के मनोवैज्ञानिक निबंध भावात्मक शैली में लिखे गए हैं। यह शैली गद्य-काव्य का सा आनंद देती है। इस शैली की भाषा व्यवहारिक है। भावों की आवश्यकतानुसार छोटे और बड़े दोनों ही प्रकार के वाक्यों को अपनाया गया है। बहुत से वाक्य तो सूक्ति रूप में प्रयुक्त हुए हैं। जैसे - बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।
साहित्य में स्थान
शुक्ल जी हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ हैं। हिंदी में वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात उन्हीं के द्वारा हुआ। तुलसी, सूर और जायसी की जैसी निष्पक्ष, मौलिक और विद्वत्तापूर्ण आलोचनाएं उन्होंने प्रस्तुत की वैसी अभी तक कोई नहीं कर सका। शुक्ल जी की ये आलोचनाएं हिंदी साहित्य की अनुपम विधियां हैं। निबंध के क्षेत्र में शुक्ल जी का स्थान बहुत ऊंचा है। वे श्रेष्ठ और मौलिक निबंधकार थे। हिन्दी में गद्य -शैली के सर्वश्रेष्ठ प्रस्थापकों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का नाम सर्वोपरि है। उन्होंने अपने दृष्टिकोण से भाव, विभाव, रस आदि की पुनव्याख्या की, साथ ही साथ विभिन्न भावों की व्याख्या में उनका पांडित्य, मौलिकता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण पग -पग पर दिखाई देता है। हिन्दी की सैधांतिक आलोचना को परिचय और सामान्य विवेचन के धरातल से ऊपर उठाकर गंभीर स्वरुप प्रदान करने का श्रेय शुक्ल जी को ही है। "काव्य में रहस्यवाद" निबंध पर इन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी से ५०० रुपये का तथा चिंतामणि पर हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग द्वारा १२०० रुपये का मंगला प्रशाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।[1]यह भी देखें
संदर्भ
- हिन्दी कुञ्ज
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर पुस्तक का लोकार्पण दैट्स हिन्दी पर
- "आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुस्तक का विमोचन" (हिन्दी में). प्रेसनोट.इन. ३०. Archived from the original on १० जून २००८.
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, भ्रमर गीत सार, विश्वविद्यालय प्रकाशन, ०५ मार्च २००७.
बाहरी सूत्र
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल का इतिहास दर्शन
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल का पुस्तक संग्रह पुस्तक.ऑर्ग पर
- जीवन परिचय हिन्दी कुञ्ज पर
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का गद्य-साहित्य (गूगल पुस्तक; लेखक - डॉ आलोक सिंह)
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : आलोचना के नये मानदण्ड (गूगल पुस्तक ; लेखक - भावदेव पाण्डेय)
- आचार्य शुक्ला : प्रतिनिधि निबन्ध (गूगल पुस्तक ; संग्रहकर्ता - सुधाकर पाण्डेय)
- चिन्तामणि (गूगल पुस्तक; लेखक - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
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