शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

भारतीय लोक कथाएं




प्रस्तुति- स्वामी शरण,


17 हाथी

99 का चक्कर
अपना हाथ जगन्नाथ
अपने अपने करम

कन्हैया की हाज़िर जवाबी

कठपुतली का नाच
कभी किसी को कमज़ोर मत समझो
करत-करत अभ्यास ते
चतुर राज ज्योतिषी
चावल बन गया धान
छोटा नहीं है कोई
जंगल के दोस्त
जैसी तुम्हारी इच्छा
जैसे को तैसा
टेढ़ी खीर
तीन पुतले
तेरी दुनिया बहुत निराली है
देनेवाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़ के भोजपुरी लोककथा
पहले मैं तो छोड़ के देखूँ
बड़ा कौन – लक्ष्मी या सरस्वती

बापू उसे मत फेंकना तुम्हारे काम आएगा

भाग्य का लिखा टल नहीं सकता
मेहनत की कमाई
लक्ष्मी का आवास और प्रवास
सच्चा सोनार
सोने की चमक
हथेली पर बाल
हर काम अच्छे के लिये होता है
ढ़ूंढ़ी रक्सिन: छत्तीसगढ़ी लोककथा – 1
छत्तीसगढ़ी लोककथा-2

उत्तर प्रदेश की लोक-कथाएं -
कलियुगी पति-भक्ति
शेखचिल्ली और कुएं की परियां

यहूदी लोक कथा:भिखारी का ईनाम
राजस्थान की लोककथाएं
चोर और राजा / लक्ष्मीनिवास बिडला
किसी जमाने में एक चोर था। वह बडा ही चतुर था। लोगों का कहना था कि वह आदमी की आंखों का काजल तक उडा सकता था। एक दिन उस चोर ने सोचा कि जबतक वह राजधानी में नहीं जायगा और अपना करतब नहीं दिखायगी, तबतक चोरों के बीच उसकी धाक नहीं जमेगी। यह सोचकर वह राजधानी की ओर रवाना हुआ और वहां पहुंचकर उसने यह देखने के लिए नगर का चक्कर लगाया कि कहां कया कर सकता है।
उसने तय कि कि राजा के महल से अपना काम शुरू करेगा। राजा ने रातदिन महल की रखवाली के लिए बहुतसे सिपाही तैनात कर रखे थे। बिना पकडे गये परिन्दा भी महल में नहीं घुस सकता था। महल में एक बहुत बडी घडीं लगी थी, जो दिन रात का समय बताने के लिए घंटे बजाती रहती थी।
चोर ने लोहे की कुछ कीलें इकठटी कीं ओर जब रात को घडी ने बारह बजाये तो घंटे की हर आवाज
के साथ वह महल की दीवार में एकएक कील ठोकता गया। इसतरह बिना शोर किये उसने दीवार में बारह कीलें लगा दीं, फिर उन्हें पकड पकडकर वह ऊपर चढ गया और महल में दाखिल हो गया। इसके बाद वह खजाने में गया और वहां से बहुत से हीरे चुरा लाया।
अगले दिन जब चोरी का पता लगा तो मंत्रियों ने राजा को इसकी खबर दी। राजा बडा हैरान और नाराज हुआ। उसने मंत्रियों को आज्ञा दी कि शहर की सडकों पर गश्त करने के लिए सिपाहियों की संख्या दूनी कर दी जाय और अगर रात के समय किसी को भी घूमते हुए पाया जाय तो उसे चोर समझकर गिरफतार कर लिया जाय।
जिस समय दरबार में यह ऐलान हो रहा था, एक नागरिक के भेष में चोर मौजूद था। उसे सारी योजना की एक एक बात का पता चल गया। उसे फौरन यह भी मालूम हो यगा कि कौन से छब्बीस सिपाही शहर में गश्त के लिए चुने गये हैं। वह सफाई से घर गया और साधु का बाना धारण करके उन छब्बीसों सिपाहियों की बीवियों से जाकर मिला। उनमें से हरेक इस बात के लिए उत्सुक थी कि उसकी पति ही चोर को पकडे ओर राजा से इनाम ले।
एक एक करके चोर उन सबके पास गया ओर उनके हाथ देख देखकर बताया कि वह रात उसके लिए बडी शुभ है। उसक पति की पोशाक में चोर उसके घर आयेगा; लेकिन, देखो, चोर की अपने घर के अंदर मत आने देना, नहीं तो वह तुम्हें दबा लेगा। घर के सारे दरवाजे बंद कर लेना और भले ही वह पति की आवाज में बोलता सुनाई दे, उसके ऊपर जलता कोयला फेंकना। इसका नतीजा यह होगा कि चोर पकड में आ जायगा।
सारी स्त्रियां रात को चोर के आगमन के लिए तैयार हो गईं। अपने पतियों को उन्होंने इसकी जानकारी नहीं दी। इस बीच पति अपनी गश्त पर चले गये और सवेरे चार बजे तक पहरा देते रहे। हालांकि अभी अंधेरा था, लेकिन उन्हें उस समय तक इधर उधर कोई भी दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने सोचा कि उस रात को चोर नहीं आयगा, यह सोचकर उन्होंने अपने घर चले जाने का फैसला किया। ज्योंही वेघर पहुंचे, स्त्रियों को संदेह हुआ और उन्होंने चोर की बताई कार्रवाई शुरू कर दी।
फल वह हुआ कि सिपाही जल गये ओर बडी मुश्किल से अपनी स्त्रियों को विश्वास दिला पाये कि वे ही उनके असली पति हैं और उनके लिए दरवाजा खोल दिया जाय। सारे पतियों के जल जाने के कारण उन्हें अस्पताल ले जाया गया। दूसरे दिन राजा दरबार में आया तो उसे सारा हाल सुनाया गया। सुनकर राजा बहुत चिंतित हुआ और उसने कोतवाल को आदेश दिया कि वह स्वयं जाकर चोर पकड़े।
उस रात कोतवाल ने तेयार होकर शहर का पहरा देना शुरू किया। जब वह एक गली में जा रहा रहा था, चोर ने जवाब दिया, ‘मैं चोर हूं।″ कोतवाल समझा कि लड़की उसके साथ मजाक कर रही है। उसने कहा, ″मजाक छाड़ो ओर अगर तुम चोर हो तो मेरे साथ आओ। मैं तुम्हें काठ में डाल दूंगा।″ चोर बाला, ″ठीक है। इससे मेरा क्या बिगड़ेगा!″ और वह कोतवाल के साथ काठ डालने की जगह पर पहुंचा।
वहां जाकर चोर ने कहा, ″कोतवाल साहब, इस काठ को आप इस्तेमाल कैसे किया करते हैं, मेहरबानी करके मुझे समझा दीजिए।″ कोतवाल ने कहा, तुम्हारा क्या भरोसा! मैं तुम्हें बताऊं और तुम भाग जाओं तो ?″ चोर बाला, ″आपके बिना कहे मैंने अपने को आपके हवाले कर दिया है। मैं भाग क्यों जाऊंगा?″ कोतवाल उसे यह दिखाने के लिए राजी हो गया कि काठ कैसे डाला जाता है। ज्यों ही उसने अपने हाथ-पैर उसमें डाले कि चोर ने झट चाबी घुमाकर काठ का ताला बंद कर दिया और कोतवाल को राम-राम करके चल दिया।
जाड़े की रात थी। दिन निकलते-निकलते कोतवाल मारे सर्दी के अधमरा हो गया। सवेरे जब सिपाही बाहर आने लगे तो उन्होंने देखा कि कोतवाल काठ में फंसे पड़े हैं। उन्होंने उनको उसमें से निकाला और अस्पताल ले गये।
अगले दिन जब दरबार लगा तो राजा को रात का सारा किस्सा सुनाया गया। राजा इतना हैरान हुआ कि उसने उस रात चोर की निगरानी स्वयं करने का निश्चय किया। चोर उस समय दरबार में मौजूद था और सारी बातों को सुन रहा था। रात होने पर उसने साधु का भेष बनाया और नगर के सिरे पर एक पेड़ के नीचे धूनी जलाकर बैठ गया।
राजा ने गश्त शुरू की और दो बार साधु के सामने से गुजरा। तीसरी बार जब वह उधर आया तो उसने साधु से पूछा कि, ″क्या इधर से किसी अजनबी आदमी को जाते उसने देखा है?″ साधु ने जवाब दिया कि “वह तो अपने ध्यान में लगा था, अगर उसके पास से कोई निकला भी होगा तो उसे पता नहीं। यदि आप चाहें तो मेरे पास बैठ जाइए और देखते रहिए कि कोई आता-जाता है या नहीं।″ यह सुनकर राजा के दिमाग में एक बात आई और उसने फौरन तय किया कि साधु उसकी पोशाक पहनकर शहर का चक्कर लगाये और वह साधु के कपड़े पहनकर वहां चोर की तलाश में बैठे।
आपस में काफ बहस-मुबाहिसे और दो-तीन बार इंकार करने के बाद आखिर चोर राजा की बात मानने को राजी हो गया ओर उन्होंने आपस में कपड़े बदल लिये। चोर तत्काल राजा के घोड़े पर सवार होकर महल में पहुंचा ओर राजा के सोने के कमरे में जाकर आराम से सो गया, बेचारा राजा साधु बना चोर को पकड़ने के लिए इंतजार करता रहा। सवेरे के कोई चार बजने आये। राजा ने देखा कि न तो साधु लौटा और कोई आदमी या चोर उस रास्ते से गुजरा, तो उसने महल में लौट जाने का निश्चय किया; लेकिन जब वह महल के फाटक पर पहुंचा तो संतरियों ने सोचा, राजा तो पहले ही आ चुका है, हो न हो यह चोर है, जो राजा बनकर महल में घुसना चाहता है। उन्होंने राजा को पकड़ लिया और काल कोठरी में डाल दिया। राजा ने शोर मचाया, पर किसी ने भी उसकी बात न सुनी।
दिन का उजाला होने पर काल कोठरी का पहरा देने वाले संतरी ने राजा का चेहरा पहचान लिया ओर मारे डर के थरथर कांपने लगा। वह राजा के पैरों पर गिर पड़ा। राजा ने सारे सिपाहियों को बुलाया और महल में गया। उधर चोर, जो रात भर राजा के रुप में महल में सोया था, सूरज की पहली किरण फूटते ही, राजा की पोशाक में और उसी के घोड़े पर रफूचक्कर हो गया।
अगले दिन जब राजा अपने दरबार में पहुंचा तो बहुत ही हतरश था। उसने ऐलान किया कि अगर चोर उसके सामने उपस्थितित हा जायगा तो उसे माफ कर दिया जायगा और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कीह जायगी, बल्कि उसकी चतुराई के लिए उसे इनाम भी मिलेगा। चोर वहां मौजूद था ही, फौरन राजा के सामने आ गया ओर बोला, “महाराज, मैं ही वह अपराधीह हूं।″ इसके सबूत में उसने राजा के महल से जो कुछ चुराया था, वह सब सामने रख दिया, साथ ही राजा की पोशाक और उसका घोड़ा भी। राजा ने उसे गांव इनाम में दिये और वादा कराया कि वह आगे चोरी करना छोड़ देगा। इसके बाद से चोर खूब आनन्द से रहने लगा।
बुआजी की आंखें / भागीरथ कानोडिया
प्रद्युम्नसिंह नाम का एक राजा था। उसके पास एक हंस था। राजा उसे मोती चुगाया करता और बहुत लाड़-प्यार से उसका पालन किया करता। वह हंस नित्य प्रति सायंकाल राजा के महल से उड़कर कभी किसी दिशा में और कभी किसी दिशा में थोड़ा चक्कर काट आया करता।
एक दिन वह हंस उड़ता हुआ नीवनजी की छत पर जा बैठा। उकी पुत्रवधु गर्भवती थी। उसने सुन रखा था कि गर्भावस्था में यदि किसी स्त्री को हंस का मांस खाने को मिल जाय तो उसकी होने वाली संतान अत्यंत मेधावी, तेजस्वी और भाग्यशाली होती है। अनायास ही छत पर हंस आया देखकर उसके मुंह में पानी भर आया। उसने हंस को पकड़ लिया ओर रसोईघर में ले जाकर उसे पकाकर खा गई। इस बात का पता न उसने अपनी सास को लगने दिया, न ससुर को और न पति को ही, क्योंकि उसे भय था कि अगर राजा को इस बात का सुराग लग गया तो बड़ा अनिष्ट हो जायगा।
उधर जब रात होने पर हंस राजमहल में नहीं पहुंचा तो राजा-रानी को बहुत चिंता हुई। उनका मन आकुल-व्याकुल होगया। चारों ओर उसकी खोज में आदमी दौड़ाये गए। लेकिन हंस कहीं हो तब मिले न! राजा ने अड़ोस-पड़ोस के शहरों-कस्बों में भी सूचना कराई कि अगर कोई हंस का पता लगा सके तो राज्य की ओर से उसे बहुत बड़ा पुरस्कार दिया जायगा।
दस-बीस दिन निकल गये। कुछ भी पता नहीं लग सका। चूंकि वह हंस राजा ओर रानी को बहुत प्रिय था, अत: वे उदास रहने लगे। एक दिन एक कुटटनी राजा के पास आई और बोली कि वह हंस का पता लगा सकती है, लेकिन उसे थोड़ा-सा समय चाहिए।
राजा ने कहा, “मेरे राज्य के पंडित-जयोतिषी, हाकिम-हुक्काम और मेरे इतने सारे गुप्तचरों में कोई भी पता नहीं लगा सका, तुम कैसे पता लगा सकोगी?”
कुटटनी ने कहा, “मुझे अपनी योग्यता पर विश्वास है। अगर अन्नदाता का हुक्म हो तो एक बार आकश के तारे भी तोड़कर ले आऊं। आप मुझे थोड़ा-सा समय दीजिए और आवश्यक धन दे दीजिय। उसे वापस ला सकूं या नहीं, लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाती हूं कि उसका अता-पता आवश्य ले आऊंगी।”
राजा ने स्वीकार कर लिया और कुटअनी अपने उद्देश्य की सिद्वि के लिए चल पड़ी।
सबसे पहले कुटटुनी ने यह पता लगाया कि शहर के धनिक घरों में कौन-कौन स्त्री गर्भवती हैं। उसे पता था कि गर्भावस्था में किसी स्त्री को यदि हंस का मांस मिल जाय तो वह बिना खाये नहीं रहेगी। साथ ही यह भी जनती थी कि साधारण घर की कोई स्त्री राजा का हंस पकड़ने का साहस नहीं कर सकती।
खोजते-खोजते उसे पता लगा कि दीवान की पुत्रवधू गर्भवती है। अत: उसके मन में संदेह हो गया कि हो सकता है, राजा का हंस उड़ते-उड़ते किसी दिन इनके घर की छत पर आ गया हो और गर्भावस्था में होने के कारण लोभवश यह स्त्री उसे खा गई हो।
कुटटनी ने सोचा, किसी भी स्त्री के साथ निकटस्थ मैत्री करने के लिए उसके पीहर के हालचाल जानना आवश्यक है। इसलिए कुटटनी उसके पीहर के गांव पहुंची। वहां जाकर उसने पहरवाले सारे लोगों के नाम-धाम तथा उनके घर में बीती हुई खास-खास पुरानी घटनाओं की जानकारी ली। उसे पता लगा कि दीवानजी की पुत्रवधू की बूआ छोटी उम्र में ही किसी साधु के साथ चली गई थी और आज तक लौटकर नहीं आई है। उसने सोचा, अब दीवानजी के घर जाकर उनकी पुत्रवधू की बुआ बनकर भेद लेने का अच्छा अस्त्र अपने हाथ आ गया।
वह दीवनजी के घर गई। उनकी पुत्रवधू के साथ बहुत स्नेह-ममत्व की बात करने लगी और बोली; “बेटी, मैं तेरी बुआ हूं। हम दोनों आज पहली बार मिली हैं। तुम जानती ही हो कि मैं तो बहुत पहले घर छोड़कर एक साधु के साथ चली गई थी। हल ही में घर लौटकर आयी और भाई से मिली तो उसने बताया कि तुम यहां ब्याही गई हो और तुम्हारे ससुर राज्य के दीवान हैं। यह जानकर मन में तुमसे मिलने की बहुत उत्कंठा हुई तो यहां चली आई। तुम्हें देखकर मेरे मन में बहुत ही हर्ष हुआ। भगवान तुम्हें सुखी रखें और तुम्हारी कोख से एक कांतिवान तेजस्वी पुत्र पैदा हो। मैं परसों वापस जा रही हूं और तुम्हारे लड़का होने के बाद भाई-भाभी को साथ लेकर बच्चे को देखने और उसका लाड़-चाव करने यहां आऊंगी।”
दीवान की पुत्रवधू ने अपने भोलपन के कारण उसकी बातों का विश्वास करलिया और बोली, “बुआजी, आप आई हैं तो दस-बीस दिन तो यहां रहिए। जाने की इतनी जल्दी भी क्या पड़ी है!”
बुआ बनी हुई कुटअनी को और क्या चाहिए था ! उसने वहां रहना स्वीकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में बुआ-भतीजी खूब हिल-मिल गईं। एक दिन बातों-ही बातों में बुआजी ने कहा, “बेटी, गर्भावस्था में किसी स्त्री को अगर हंस का मांस खाने को मिल जाय तो बहुत अच्छा परिणाम निकलता है। उसके प्रभाव से होनेवाली संतानबहुत ही तेजस्वी और कांतिवान होती है; किंतु हंस तो मानसरोवर छोड़कर और कहीं होते नहीं, इसलिए यह काम पार पड़े तो कैसे पड़े !”
यह सुनकर उसने अपने हंस खाने की बात बुआजी को सहजभाव से बता दी। सुनकर बुआ ने कहा, “बेटी, यह अचरज की बात है कि तुम्हारे यहां राजा के पास हंस था ! तुमने जो कुछ किया, वह बहुत अच्छा किया; किन्तु तुम्हें किसी के सामने इस घटना का जिक्र नहीं करना चाहिए। मेरे सामने भी नहीं करना था। लेकिन खैर, मुझसे कही हुई बात तो कहीं जाने वाली नहीं है, इसलिए जिक्र कर दिया तो भी कोई बात नहीं!˝
कुछ दिन और बती गये, तब कुटटनी ने कहा, “बेटी, अगर भगवान के सामने तुम हंस खाने की बात स्वीकार कर लो तो हंस की हत्या का पाप तो सिर से उतर ही जायगा, सुपरिणाम भी द्विगुणित होगा। मंदिर के पुजारी से कहकर मैं ऐसी व्सवस्था कर दूंगी कि जिस वक्त वहां तुम सारी घटना बताकर अपराध स्वीकार करो, उस वक्त पुजारी भी वहां नहीं रहे तथा और भी कोई न रहे, हम दो ही रहेंगी।˝
उसने ऐसा करना स्वीकार कर लिया।
कुटटनी लुक-छिपकर राजा के पास पहुंची और बोली, “आपसे वायदा किया था, उसके अनुसार हंस का अता-पता लगा लाई हूं।˝ ऐसा कहकर उसने सारी घटना राजा को बताई।
राजा ने कहा, “इसका प्रमाण क्या है?˝
वह बोली, “फलां दिन आप मंदिन में आ जायं और हंस खाने वाली स्त्री की स्वीकारोक्ति स्वयं अपने कानों सुन लें।˝
राजा ने ऐसा करने की ‘हां’ भर ली।
नियत दिनसमय से कुछ पहले पूर्व-योजना के अनुसार कुटटनी ने राजा को एक जरा ऊंचे स्थान पर रखे हुए एक बड़े-से ढोल में छिपा दिया और बुआ-भतीजी मंदिर पहुंचीं।
मंदिर का पट खुला था। पुजारी या और दूसरा कोई भी व्यक्ति वहां नहीं था। अब बुआजी ने शुरू किया, “हां, तो बेटी क्या बात हुई थी उस दिन?˝
दीवानकी पुत्रवधू ने घटना आरम्भ की। वह थोड़ी-सी घटना ही कह पाई थी कि कुटटनी ने सोचा, राजा ध्यानपूर्वक सुन तो रहा है न, इसलिए वह ढोल की तरफ इशारा करके बोली, “ढोल रे ढोल, सुन रे बहू का बोल।˝
उसका इतना कहना था कि भतीजी का माथा ठनका। उसे वहम हो गया कि हो न हो, दाल में कुछ काला है। मालूम होता है, मैं तो ठगी गई हूं। वह चुप हो गई।
बुआ बोली; “हां तो बेटी, आगे क्या हुआ ?˝
इस पर भतीजी बोली, “उसके बाद तो बुआजी मेरी आंख खुल गयी, सपना टूट गया।”
ज्योंही भतीजी की आंख खुली, त्योंही बुआजी की आंखें भी खुली-की-खुली रह गईं। उसके पांव तो भतीजी से भी भारी हो गये और उसके लिए उठकर खड़े होना भी मुश्किल हो गया।
बुदेलखण्ड की लोककथाएं
बुद्वि बड़ी या पैसा / शिव सहाय चतुर्वेदी
किसी देश में एक राजा राज करता था। उसके लिए पैसा ही सबकुछ था। वह सोचता था कि पैसे के बल पर दुनिया के सब काम-काज चलते हैं। ‘तांबे की मेख तमाशा देख6, कहावत झूठ नहीं है। मेरे पास अटूट धन है, इसीलिए मैं इतने बड़े देश पर राज करता हूं। लोग मेरे सामने हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। चाहूं तो अभी रुपयों की सड़क तैयार करा दूं। आसमान में सिर उठाये खड़े इन पहाड़ों को खुदवाकर फिकवा दूं। पैसे के बूते पर मेरे पास एक जबरदस्त फौज है। उसके द्वारा किसी भी देश को क्षण-भर में कुचल सकता हूं। वह सबसे यही कहता था कि इस संसार में धर्म-कर्म, स्त्री-पुत्र, मित्र-सखा सब पैसा ही है।
राजा सिर से पैर तक पैसे के मद में डूबा था; परंतु उसकी रानी बड़ी बद्विमती थी। वह पैसे को तुच्छ और बद्वि को श्रेष्ठ समझती थी। रानी की चतुराई के कारण राज का सब काम-काज ठीक रीति से चलता था। उसका कहना था कि दुनिया पैसे के बूते उतनी नहीं चलती, जितनी बुद्वि के बूते पर। लेकिन राजा के सामने साफ बात कहने में संकोच करती थी।
एक दिन राजा ने पूछा, “रानी, सच कहो, दुनिया में बुद्वि बड़ी या पैसा?”
रानी बड़े असमंजस में पड़ी। सोचने लगी, सत्य का मुख रूखा होता है। राजा के मन में जो पैसे का मूल्य बसा था, उसे वह अच्छी तरह जानती थी। कुछ उत्तर तो देना ही था। वह बोली, “महाराज, यदि आप सच पूछते हैं तो मैं बुद्वि को बड़ा समझती हूं। बुद्वि से ही पैसा आता है। और बुद्वि से ही सब काम चलते हैं। बुद्वि न हो तो सब खजाने योंही लुट जाते हैं-राजपाट चौपट हो जाते हैं।”
पैसे की इस प्रकार निंदा सुनकर राजा को बहुत गुस्सा आया। बोला, “रानी तुम्हें अपनी बुद्वि का बड़ा घमंड है। मैं देखना चाहता हूं कि तुम बिना पैसे के बुद्वि के सहारे कैसे काम चलाती हो।˝ ऐसा कहकर उसने रानी को नगर के बाहर एक मकान में रख दिया। सेवा के लिए दो-चार नौकर भेज दिये। खर्च के लिए न तो एक पैसा दिया और न किसी तरह का कोई सामान रानी के शरीर पर जो जेवर थे, वे भी उतरवा लिये। रानी मन-ही-मन कहने लगी कि मैं एक दिन राजा को दिखा दूंगी कि संसार में बुद्वि भी कोई चीज है, पैसा ही सब कुछ नहीं है।
नये मकान में पहुंचकर रानी ने नौकर द्वारा कुम्हार के अवे से दो ईंटें मंगवाईं और उन्हें सफेद कपड़े में लपेटकर ऊपर से अपने नाम की मुहर लगा दी। फिर नौकर को बुलाकर कहा, “तुम मेरी इस धरोहर को धन्नू सेठ के घर ले जाओ। कहना, रानी ने यह धरोहर भेजी है, दस हजार रुपये मंगाये हैं। कुछ दिनों में तुम्हारा रुपया मय सूद के लौटा दिया जायगा और धरोहर वापस कर ली जायगी।”
नौकर सेठ के यहां पहुंचा। धरोहर पर रानी के नाम की मुहर देखकर सेठ समझा कि इसमें कोई कीमती जवाहर होंगे। उवसे दस हजार रुपया चुपचाप दे दिया। रुपया लेकर नौकर रानी के पास आया। रानी ने इन रुपयों से व्यापार शुरू किया। नौकर-चाकर लगा दिये। रानी देख-रेख करने लगी। थोड़े ही दिनों में उसने इतना पैसा पैदा कर लिया कि सेठ का रुपया चुक गया और काफी पैसा बच रहा। इस रुपये से उसने गरीबों के लिए मुफत दवाखाना, पाठशाला तथा अनाथालय खुलवा दिये। चारों ओर रानी की जय-जयकार होने लगी। शहर के बाहर रानी के मकान के आसपास बहुत-से मकान बन गये और वहां अच्छी रौनक रहने लगी।
इधर रानी के चले जाने पर राजा अकेला रहा गया। रानी थी तब वह मौके के कामों को संभाले रहती थी। रालकाज में उचित सलाह देती थी। धूर्तों की दाल उसके सामने नहीं गलने पाती थी। अब उसके चले जाने पर धूर्तों की बन आई। धर्त लोग आ-आकर रजा को लूटने लगे। अंधेरगर्दी बढ़ गई। नतीजा यह हुआ कि थोड़े ही दिनों में खजाना खाली हो गया। स्वार्थी कर्मचारी राज्य की सब आमदनी हड़प जाते थे। अब नौकरों का वेतन चुकाना कठिन हो गया। राज्य की ऐसी दशा देख राजा घबरा गया। वह अपना मन बहलाने के लिए राजकाज मंत्रियों को सौंपकर देशाटन के लिए निकल पड़ा।
जाते समय नगर के बाहर ही उसे कुछ ठग मिले। उनमें से एक काना आदमी राजा के पास आकर बोला, “महाराज, मेरी आंख आपके यहां दो हजार में गिरवी रखी थी। वादा हो चुका है। अब आप अपने रुपये लेकर मेरी आंख मुझे वापस कीजिये।”
राजा बोला, “भाई, मेरे पास किसी की आंख-वांख नहीं है। तुम मंत्री के पास जाकर पूछो।”
ठग बोला, “महाराज, मैं मंत्री को क्या जानूं? मैंने तो आपके पास आंख गिरवी रखी थी, आप ही मेरी आंख दें। जब बाड़ ही फसल खाने लगी तब रक्षा का क्या उपाय? आप राजा हैं, जब आप ही इंसाफ न करेंगे तो दूसरा कौन करेगा? आप मेरी आंख न देंगे तो आपकी बड़ी बदनामी होगी।˝
राजा बड़ा परेशान हुआ। बदनामी से बचने के लिए उसने जैसे-तैसे चार हजार रुपये देकर उसे विदा किया। कुछ दूर आगे चला था कि एक बूचा आदमी उसके सामने आकर खड़ा हो गया। पहले के समान वह भी कहने लगा, “महाराज, मेरा एक कान आपके यहां गिरवी रखा था। रुपया लेकर मेरा कान मुझे वापस कीजिये।” राजा ने उसे भी रुपया देकर विदा किया। इस प्रकार रास्ते में कई ठग आये और राजा से रुपया ऐंठकर चले गये। जो कुछ रुपया-पैसा साथ लाये थे, वह ठगों ने लूट लिया। वह खाली हाथ कुमारी चौबोला के देश में पहुंचे।
कुमारी चौबोला उस देश की राजकन्या थी। उसका प्रण था कि जो आदमी मुझे जुए में हरा देगा उसी के साथ विवाह करूंगी। राजकुमारी बहुत सुन्दर थी। दूर-दूर के लोग उसके साथ जुआ खेलने आते थे और हार कर जेल की हवा खाते थे। सैकड़ों राजकुमार जेल में पड़े थे।
मुसीबत के मारे यह राजा साहब भी उसी देश में आ पहुंचे। चौबोला की सुन्दरता की खबर उनके कानों में पड़ी तो उनके मुंह में पानी भर आया। उनकी इच्छा उसके साथ विवाह करने की हुई। राजकुमारी ने महल से कुछ दूरी पर एक बंगला बनवा दिया था। विवाह की इच्छा से आनेवाले लोग इसी बंगले में ठहरते थे। राजा भी उस बंगले में जा पहुंचा। पहरेदार ने तुरंत बेटी को खबर दी। थोड़ी देर बाद एक तोता उड़कर आया और राजा की बांह पर बैठ गया। उसके गले में एक चिटठी बंधी थी, जिसमें विवाह की शर्तें लिखी थीं। अंत में यह भी लिखा था कि यदि तुम जुए में हार गये तो तुम्हें जेल की हवा खानी पड़ेगी। राजा ने चिटठी पढ़कर जेब में रख ली।
थोड़ी देर बाद राजा को राजकुमारी के महल में बुलाया गया। जुआ शुरू हुआ और राजा हार गया। शर्त के अनुसार वह जेल भेज दिया गया।
राजा की हालत बिगड़ने और नगर छोड़कर चले जाने का समाचार जब रानी को मालूम हुआ तो उसे बहुत दु:ख हुआ। राजा का पता लगाने वह भी पददेश को निकली। कुछ ही दूर चली थी कि वही पुराने ठग फिर आ गये। सबसे पहले वही काना आया। कहने लगा, “रानी साहब, आपके पास मेरी आंख दो हजार में गिरवी रखी थी। आप अपना रुपया लेकर मेरी आंख वापस दीजिये।”
रानी बोली, “बहुत ठीक, मेरे पास बहुत-से लोगों की आंखें गिरवी रखी हैं, उन्हीं में तुम्हारी भी होगी। एक काम करो। तुम अपनी दूसरी आंख निकालकर मुझे दो। उसके तौल की जो आंख होगी, वह तुम्हें दे दी जायगी।”
रानी का जवाब सुनकर ठग की नानी मर गई। वह बहुत घबराया। रानी बोली, “देर मत करो। दूसरी आंख जल्दी निकालो। उसी के तौल की आंख दे दी जायगी।”
ठग हाथ-पैर जोड़कर माफी मांगने लगा। बोला, “सरकार, मुझे आंख-वांख कुछ नहीं चाहिए। मुझे जाने की आज्ञा दीजिये।”
रानी बोली, “नहीं, मैं किसी की धरोहर आपनेपास रखना उचित नहीं समझती। तुम जल्दी अपनी आंख निकालकर मुझे दो, नहीं तो सिपाहियों से कहकर निकलवा लूंगी।”
अंत में ठग ने विनती करके चार हजार रुपया देकर अपनी जान बचायी। यही हाल बूचे का हुआ। जब उसने देखा कि रानी का नौकर दूसरा कान काटने ही वाला है तो उसने भी चार हजार रुपया देकर रानी से अपना पिंड छुड़ाया।
ठगों से निपटकर रानी आगे बढ़ी और पता लगाते-लगाते कुमारी चौबाला के देश में जा पहुंची। राजा के जेल जाने का समाचार सुनकर उसे दु:ख हुआ। अब वह राजा को जेल से छुड़ाने का उपाय सोचने लगी। उसने पता लगाया कि रानी चौबीला किस प्रकार जुआ खेलती है। सारा भेद समझकर उसने पुरुष का भेष बनाया और बंगले पर जा पहुंची। पहरेदार ने खबर दी। थोड़ी देर में तोता उड़कर आया। रानी ने उसके गले से चिटठी खोलकर पढ़ी। कुछ समय बाद बुलावा आया।
रानी पुरुष्ज्ञ-वेश में कुमारी चौबोला के महल में पहुंची। इन्हें देखकर चौबोला का मन न जाने क्यों गिरने लगा। उसे ऐसा मालूम होने लगा कि मैं इस राजकुमार को जीत न सकूंगी। खेलने के लिए चौसर डाली गई। कुमारी चौसर खेलते समय बिल्ली के सिर पर दीपक रखती थी। बिल्ली को इस प्रकार सिखाया गया था कि कुमारी का दांव जब ठीक नहीं पड़ता था और उसे मालूम होता था कि वह हार रही है, तब वह बिल्ली के सिर हिलाने से दीपक की ज्योति डगमगाने लगती थी। इसी बीच वह अपना पासा बल देती थी। रानी यह बात पहले ही सुन चुकी थी। बिल्ली का ध्यान आकर्षित करने के लिए उसने एक चूहा पाल लिया था और उसे अपने कुर्ते की बांह में छिपा रखा था। चौसर का खेल खलने लगा। खेलते खेलते कुमारी जब हारने लगी तब उसने बिल्ली को इशारा किया। रानी तो पहले से ही सजग थी। इसके पहले ही उसने अपनी आस्तीन से चूहा निकालकर बाहर कर लिया। बिल्ली की निगाह अपने शिकार पर जम गई। राजकुमारी के इशारे का उस पर कोई असर नहीं हुआ। राजकुमारी के बार-बार इशारा देने पर भी बिल्ली टस-से-मस न हुई। निदान राजकुमारी हार गई। तुरंत सारे नगर में खबर फैल गयी। राजकुमारी के विवाह की तैयारियां होने लगीं। रानी बोली, “विवाह तो शर्त पूरी होते ही हो गया। रहा भांवरें पड़ने का दस्तूर, वह घर चलकर कर लिया जायगा। वहीं से धूम-धाम के साथ शादी की जायगी।”
चौबोला राजी हो गई। पुरुष वेशधारी रानी बोली, “एक बात और है। यहां से चलने से पहले उनसब लोगों को, जिन्हें जेल में डाल रखा है, छोड़ दो। लेकिन पहले एक बार उन सबको मेरे सामने बुलाओ।”
कैदी सामने लाये गए। हरेक कैदी की नाक छेदकर कौड़ी पहनाई गई थी। सबके हाथ में कोल्हू हांकने की हंकनी और गले में चमड़े का खलीता पड़ा था। इस खलीते में उनके खाने के लिए खाली रखी जाती थी। खलीते पर हर कैदी का नाम दर्ज था। इन्हीं कैदियों के बीच रानी के पति (राजासाहब) भी थे। रानी ने जब उकी दशा देखी तो उसका जी भर आया। उसने अपने मन के भाव को तुरंत छिपा लिया। सब कैदियों की नाक से कौड़ी निकाली गइ। नाई बुलाकर हजामत बनवाई गई। अच्छे कपड़े पहनाकर उत्तम भोजन कराके उनको छुटटी दे दी गई। राजा ने राजकुमार की जय बोलकर सीधी घर की राह पकड़ी।
दूसरे दिन सवेरे रानी राजकुमारी चौबोला को विदा कराकर हाथी-घोड़े, दास-दासी और धन-दहेज के साथ अपने नगर को चली। रानी पुरुष-वेश में घोड़े पर बैठी आगे-आगे चल रही थी। पीछे-पीछे चौबोला की पालकी चलरही थी। कुछ दिन में वह अपने नगर में आ पहुंची और नगर के बाहर अपने बंगले में ठहर गई।
राजा जब लौटकर अपने नगर में आये तो देखते क्या हैं कि रानी के मकान के पास औषधालय, पाठशाला, अनाथालय आदि कई इमारतें बनी हैं, देखकर राजा अचंभे में आ गया। सोचने लगा, रानी को मैंने एक पैसा तो दिया नहीं था, उसने ये लाखों की इमारतें कैसे बनवा लीं। पैसे का महत्व उसकी नजरों में अभी तक वैसा ही बना हुआ था।
संध्या-समय उसने रानी को बुलवाया, पूछा, “कहो रानी, अब भी तुम्हारी समझ में आया कि बुद्वि बड़ी होती या पैसा?”
रानी कुछ नहीं बोली। चुपचाप उसने राजा के नाक की कौड़ी, खलीता, हंकन और खली का टुकड़ा सामने रख दिया। राजा विस्मित होकर रह गया। सोचने लगा, ये चीजें इसे कहां से मिलीं। इतने में रानी कुमारी चौबोला को बुलाकर उनके सामने खड़ा कर दिया। अब राजा की आंखें खुलीं। वह समझ गये कि चौबोला की कैद से छुड़ाने वाला राजकुमार और कोई नहीं, उसकी बुद्विमती रानी ही थी।
राजा ने लज्जित होकर सिर नीचा कर लिया। फिर कुछ देर सोचकर कहने लगा, “रानी, अभी तक मैं बड़ी भूल में था। तुमने मेरी आंखें खोल दीं। अभी तक मैं पैसे को ही सब कुछ समझता था, पर आज मेरी मसझ में आया कि बुद्वि के आगे पैसा कोई चीज नहीं है।”
शुभ मुहूर्त में चौबोला का विवाह राजा के साथ धूमधाम के साथ हो गया। दोनों रानियां हिल-मिलकर आनंदपूर्वक रहने लगीं।
पंछी बोला चार पहर / रामकांत दीक्षित
पुराने समय की बात है। एक राजा था। वह बड़ा समझदार था और हर नई बात को जानने को इच्छुक रहता था। उसके महल के आंगनमें एक बकौली का पेड़ था। रात को रोज नियम से एक पक्षी उस पेड़ पर आकर बैठता और रात के चारों पहरों के लिए अलग-अलग चार तरह की बातें कहा करता। पहले पहर में कहता :
“किस मुख दूध पिलाऊं,
किस मुख दूध पिलाऊं”
दूसरा पहर लगते बोलता :
“ऐसा कहूं न दीख,
ऐसा कहूं न दीख !”
जब तीसरा पहर आता तो कहने लगता :
“अब हम करबू का,
अब हम करबू का ?”
जब चौथा पहर शुरू होता तो वह कहता :
“सब बम्मन मर जायें,
सब बम्मन मर जायें !”
राजा रोज रात को जागकर पक्षी के मुख से चारों पहरों की चार अलग-अलग बातें सुनता। सोचता, पक्षी क्या कहता ?पर उसकी समझ में कुछ न आता। राजा की चिन्ता बढ़ती गई। जब वह उसका अर्थ निकालने में असफल रहा तो हारकर उसने अपने पुरोहित को बुलाया। उसे सब हाल सुनाया और उससे पक्षी के प्रशनों का उत्तर पूछा। पुरोहित भी एक साथ उत्तर नहीं दे सका। उसने कुछ समय की मुलत मांगी और चिंतित होकर घर चला आया। उसके सिर में राजा की पूछी गई चारों बातें बराबर चक्कर काटती रहीं। वह बहुतेरा सोचता, पर उसे कोई जवाब न सूझता। अपने पति को हैरान देखकर ब्राह्रणी ने पूछा, “तुम इतने परेशान क्यों दीखते हो ? मुझे बताओ, बात क्या है ?”
ब्राह्राणी ने कहा, “क्या बताऊं ! एक बड़ी ही कठिन समस्या मेरे सामने आ खड़ी हुई है। राजा के महल का जो आंगन है, वहां रोज रात को एक पक्षी आता है और चारों पहरों मे नितय नियम से चार आलग-अलग बातें कहता है। राजा पक्षी की उन बातों का मतलब नहीं समझा तो उसने मुझसे उनका मतलब पूछा। पर पक्षी की पहेलियां मेरी समझ में भी नहीं आतीं। राजा को जाकर क्या जवाब दूं, बस इसी उधेड़-बुन में हूं।”
ब्राह्राणी बोली, “पक्षी कहता क्या है? जरा मुझे भी सुनाओ।”
ब्राह्राणी ने चारों पहरों की चारों बातें कह सुनायीं। सुनकर ब्राह्राणी बोली। “वाह, यह कौन कठिन बात है! इसका उत्तर तो मैं दे सकती हूं। चिंता मत करो। जाओ, राजा से जाकर कह दो कि पक्षी की बातों का मतलब मैं बताऊंगी।”
ब्राह्राण राजा के महल में गया और बोला, “महाराज, आप जो पक्षी के प्रश्नों के उत्तर जानना चाहते हैं, उनको मेरी स्त्री बता सकती है।”
पुरोहित की बात सुनकर राजा ने उसकी स्त्री को बुलाने के लिए पालकी भेजी। ब्राह्राणी आ गई। राजा-रानी ने उसे आदर से बिठाया। रात हुई तो पहले पहर पक्षी बोला:
“किस मुख दूध पिलाऊं,
किस मुख दूध पिलाऊं ?”
राजा ने कहा, “पंडितानी, सुन रही हो, पक्षी क्या बोलता है?”
वह बोली, “हां, महाराज ! सुन रहीं हूं। वह अधकट बात कहता है।”
राजा ने पूछा, “अधकट बात कैसी ?”
पंडितानी ने उत्तर दिया, “राजन्, सुनो, पूरी बात इस प्रकार है-
लंका में रावण भयो बीस भुजा दश शीश,
माता ओ की जा कहे, किस मुख दूध पिलाऊं।
किस मुख दूध पिलाऊं ?”
लंका में रावण ने जन्म लिया है, उसकी बीस भुजाएं हैं और दश शीश हैं। उसकी माता कहती है कि उसे उसके कौन-से मुख से दूध पिलाऊं?”
राज बोला, “बहुत ठीक ! बहुत ठीक ! तुमने सही अर्थ लगा लिया।”
दूसरा पहर हुआ तो पक्षी कहने लगा :
ऐसो कहूं न दीख,
ऐसो कहूं न दीख।
राजा बोला, ‘पंडितानी, इसका क्या अर्थ है ?”
पडितानी नेसमझाया, “महाराज ! सनो, पक्षी बोलता है :
“घर जम्ब नव दीप
बिना चिंता को आदमी,
ऐसो कहूं न दीख,
ऐसो कहूं न दीख !”
चारों दिशा, सारी पृथ्वी, नवखण्ड, सभी छान डालो, पर बिना चिंता का आदमी नहीं मिलेगा। मनुष्य को कोई-न-कोई चिंता हर समय लगी ही रहती है। कहिये, महाराज! सच है या नहीं ?”
राजा बोला, “तुम ठीक कहती हो।”
तीसरा पहर लगा तो पक्षी ने रोज की तरह अपी बात को दोहराया :
“अब हम करबू का,
अब हम करबू का ?”
ब्रह्राणी राजा से बोली, “महाराज, इसका मर्म भी मैं आपको बतला देती हूं। सुनिये:
पांच वर्ष की कन्या साठे दई ब्याह,
बैठी करम बिसूरती, अब हम करबू का,
अब हम करबू का।
पांच वर्ष की कन्या को साठ वर्ष के बूढ़े के गले बांध दो तो बेचारी अपना करम पीट कर यही कहेगी-‘अब हम करबू का, अब हम करबू का ?” सही है न, महाराज !”
राजा बोला, “पंडितानी, तुम्हारी यह बात भी सही लगी।”
चौथा पहर हुआ तो पक्षी ने चोंच खोली :
“सब बम्मन मर जायें,
सब बम्मन मर जायें !”
तभी राज ने ब्रह्राणी से कहा, “सुनो, पंडितानी, पक्षी जो कुछ कह रहा है, क्या वह उचित है ?”
ब्रहाणी मुस्कायी और कहने लगी, “महाराज ! मैंने पहले ही कहा है कि पक्षी अधकट बात कहता है। वह तो ऐसे सब ब्रह्राणों के मरने की बात कहता है :
विश्वा संगत जो करें सुरा मांस जो खायें,
बिना सपरे भोजन करें, वै सब बम्मन मर जायें
वै सब बम्मन मर जायें।
जो ब्राह्राणी वेश्या की संगति करते हैं, सुरा ओर मांस का सेवन करते हैं और बिना स्नान किये भोजन करते हैं, ऐसे सब ब्रह्राणों का मर जाना ही उचित है। जब बोलिये, पक्षी का कहना ठीक है या नहीं ?”
राजा ने कहा, “तुम्हारी चारों बातें बावन तोला, पाव रत्ती ठीक लगीं। तुम्हारी बुद्वि धन्य है !”
राजा-रानी ने उसको बढ़िया कपड़े और गहने देकर मान-सम्मान से विदा किया। अब पुरोहित का आदर भी राजदरबार में पहले से अधिक बढ़ गया।
मालवा की लोककथाएं
सवा मन कंचन / चन्दशेखर
किसी जमाने की बात है। एक आदमी था। उसका नाम था सूर्यनारायण। वह स्वयं तो देवलोक में रहता था, किंतु उसकी मां और स्त्री इसी लोक में रहती थीं। सूर्यनारापयण सवा मन कंचन इन दोनों को देता था और सवा मन सारी प्रजा को। प्रजा चैन से दिन काट रही थी, किंतु मां-बहू के दिन बड़ी मुश्किल से गुजर रहे थे। दोनों दिनोंदिन सूखती जा रही थीं।
एक दिन बहू ने अपनी सास से कहा, “सासूजी, और लोग तो आराम से रहते हैं, पर हम भूखों मरे जा रहे हैं। अपने बेटे से जाकर कहो न, वे कुछ करें।”
बुढ़िया को बहू की बात जंच गई। वह लाठी टेकती-टेकती देवलोक पहुंची। सूर्यनारायण दरबार में बैठे हुए थे। द्वारपाल ने जाकर उन्हें खबर दी, “महाराज! आपकी माताजी आई हैं।”
सूर्यनारायण ने पूछा “कैसे हाल हैं ?”
द्वारपाल ने कहा, “महाराज ! हाल तो कुछ अच्छे नहीं हैं। फटे-पुराने, मैले-कुचैले कपड़े पहने हैं। साथ में न कोई नौकर है, न चाकर।”
सूर्यनारायण ने हुक्म दिया, “आओ, बाग में ठहरा दो।”
ऐसा ही किया गया। सूर्यनारायण काम-काज से निबटकर मां के पास गये, पूछा, “कहो मां, कैसे आईं?”
बुढ़िया बोली, “बेटा, तू सारे जग को पालता है। मगर हम भूखों मरती है !”
सूर्यनारायण को बड़ा अचरज हुआ। उसने पूछा, “क्यों मां ! भूखों क्यों मरती हो ? जितनी कंचन तुम को देता हूं, उतना बाकी की दुनिया का देता हूं। दुनिया तो उतने कंचन में चैन कर रही है। तुम उसका आखिर करती क्या हो?”
बुढ़िया बाली, “बेटा ! हम कंचन को हांडी में उबाल लेती हैं। फिर वह उबला हुआ पानी पी लेती हैं।˝
सूर्यनारायण हंसते हुए बाला, “मेरी भोली मां ! कंचन कहीं उबालकर पीने की चीज है ! इसे तुम बाजार में बेचकर बदले में अपनी मनचाही चीजें ले आया करो। तुम्हारा सारा द:ख दूर हो जायगा।˝
बुढ़िया खुश होती हुई वापस लौटी। इस बीच बहू शहद की मक्खी बकर देवलोक में आ गई थी। उसने मां-बेटे की सारी बातचीत सुन ली थी। चर्चा खत्म होने पर वह बुढ़िया से पहले ही घर पहुंच गई और सूर्यनारायण ने जैसा कहा था, कंचन को बाजार में बेचकर घी-शक्कर, आटा-दाल सब ले आई। बुढ़िया जब लाठी टेकती-टेकती वापस आयी तो बहू ने भोली बनकर पूछा, ‘सासू जी ! क्या कहा उन्होंने ?”
सास घर के बदले रंग-ढंग देखकर बोली, “जो कुछ कहा था, वह तो तूने पहले ही कर डाला।˝
सास-बहू के दिन आराम से कटने लगे। इनके घर में इतनी बरकत हो गयी कि दानों से लक्ष्मी समेटी नहीं जाती थी। दोनों घबरा गईं। एक दिन बहू ने सास से कहा, “सासूजी, तुम्हारे बेटे ने पहले तो दिया नहीं, अब दिया तो इतना कि संभाला ही नहीं जाता, उनके पास फिर जाओ, वे ही कुछ तरकीब बतायेंगे।˝
बुढ़िया बहू के कहने से फिर चली। इस बार बुढ़िया ने नौकर-चाकर, लाव-लश्कर साथ ले लिया। पालकी में बैठकर ठाठ से चली। बहू शहद की मक्खी बनकर पहले ही वहां पहुंच गई।
बुढ़िया के पहंचने पर द्वारपाल ने सूर्यनारायण को खबर दी, “महाराज ! आपकी मां आई हैं।˝
सूर्यनारायण ने पूछा, “कैसे हाल आई हैं?”
द्वारपाल ने कहा, “महाराज ! बड़े ठाठ-बाठ से। नौकर-चाकर, लाव-लश्कर सभी साथ हैं।˝
सूर्यनारायण ने कहा, “महल में ठहरा दो।˝
बुढ़िया को महल में ठहरा दिया गया।
काम-काज से निबटकर सूर्यनारायण महल में आया। मां से पूछा, “कहो मां ! अभी भी पूरा नहीं पड़ता ?˝
मां बोली, “नहीं बेटा ! अब तो तूने इतना दे दिया कि उसे संभालना मुश्किल हो गया है। हम तंग आ गईं हैं। अब हमें बता कि हम उस धन का क्या करें?”
सूर्यनारायण ने हंसते हुए कहा, “मेरी भोली मां ! यह तो बड़ी आसान बात है। खाते-खरचते जो बचे, उससे धर्म-पुण्य करो, कुंए-बावड़ी खुदवाओ। परोपकार के ऐसे बहुत-से काम हैं।˝
शहद की मक्खी बनी बहू पहले ही मौहूद थी। उसने सब सुन लिया और फौरन घर लौटकर सदाव्रत बिठा दिया। कुआ, बावड़ी, धर्मशाला आदि का काम शुरू कर दिया। बुढ़िया जब लौटी तो उसने भोली बनकर पूछा, “उन्होंने क्या कहा, सासूजी?”
बुढ़िया ने घर के बदले रंग-ढंग देखकर कहा, “बहू जो कुछ उसने कहा था, वह तो तूने पहले ही कर डाला।˝
इसी तरह कई दिन बीत गये। एक दिन सूर्यनाराया को अपने घर की सुधि आई। उसने सोचा कि चलें, देखें तो सही कि दोनों के क्या हाल-चाल हैं। इधर मां कई दिनों से आई नहीं। यह सोच सूर्यनारायण साधु का रूप धर कर आया। आते ही इनके दावाजे पर आवाज लगाई, “अलख निरंजन। आवाज सुनते ही बुढ़िया मुटठी में आटा लेकर साधु को देने आई। साधु ने कहा, “माई ! मैं आटा नहीं लेता। मैं तो आज तेरे यहां ही भोजन करूंगा। तेरी इच्छा हो तो भोजन करा दे, नहीं तो मैं शाप देता हूं।˝
शाप का नाम सुनते ही बुढ़िया ने गिड़गिड़ाकर कहा, “नहीं-नहीं, बाबा ! शाप मत दो। मैं भोजन कराऊंगी।”
साधु नेकहा, “माई, हमारी एक शर्त ओर सुन लो। हम तुम्हारी बहू के हाथ का ही भोजन करेंगे।”
बहू ने छत्तीस तरह के पकवान, बत्तीस तरह की चटनी बनाइ। बुढ़िया साधु को बुलाने गई। साधु ने कहा, “माई ! हम तो उसी पाट पर बैठेंगे, जिस पर तेरा बेटा बैठता था; उसी थाली में खायेंगे, जिसमें तेरा बेटा खाता था। जबतक हम भोजन करेंगे तब तक तेरी बहू को पंखा झलना पड़ेगा। तेरी इच्छा हो तो बोल, नहीं तो मैं शाप देता हूं।”
बुढ़िया शाप के नाम से कांपने लगी। उसने कहा, “ठहरो ! मैं बहू से पूछ लूं।”
बहू से सास ने पूछा तो वह बोली, “मैं कया जानूं? जैस तुम कहो, वैसा करने को तैयार हूं।”
बुढ़िया बोली, “बेटी ! बड़ा अड़ियल साधु है। पर अब क्या करें ?”
आखिर सूर्यनारायण जिस पाट पर बैठता था, वह पाट बिछाया गया, उसकी खानें की थाली में भोजन परोसा गया। बहू सामने पंखा झलने बैठी। तब साधु महाराज ने भोजन किया।
बुढ़िया ने सोचा-चलो, अब महाराज से पीछा छूटा। मगर महाराज तो बड़े विचित्र निकले ! भोजन करने के बाद बोले, “माई ! हम तो यहीं सोयंगे और उस पलंग पर जिस पर तेरा बेटा सोता था। और देख, तेरी बहू को हमारे पैर दबाने होंगे। तेरी राजी हो तो बोल, नहीं तो मैं शाप देता हूं।”
बुढ़िया बड़ी घबराई। बहू से फिर सलाह लेने गई। बहू ने कह दिया, मैं क्या जानूं। तुम जानो।”
साधु ने देरी होती देखी तो कहा, “अच्छा माई, चल दिये।”
बुढ़िया हाथ जोड़कर बोली, “नहीं-नहीं, महाराज। आप जाइए मत। आप जैसा कहेंगे वैसा ही होगा। बड़ी मुश्किल से हमारे दिन बदले हैं। शाप मत दीजिए।”
सूर्यनारायण जिस पलंग पर सोता था; पलंग बिछाया गया। साधु महाराज ने शयन किया। बहू उनके पैर दबाने लगी। तभी छ: महीने की रात हो गई। सारी दुनिया त्राहि-त्राहि करने लगी।
अब बुढ़िया समझी कि यह तो मेरा ही बेटा है। उसने कहा, “बेटा ! कभी तो आया ही नहीं और आया तो यों अपने को छिपाकर क्यों आया ? जा, अपना काम-काज संभाल। दुनिया में हा-हाकार मचा हुआ है।”
सूर्यनारायण वापस देवलोक लौट गया। इधर सूर्यनारायण की पत्नी ने नौ महीने बाद एक सुन्दर तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। वह बालक दिनोंदिन बड़ा होने लगा।
एक दिन वह अपने दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा खेल रहा था। खेल-ही-खेल में उसने दूसरे लड़कों की तरह बाप की सौगंध खाई। उसके साथी उसे चिढ़ाने लगे, “तेरे बाप है कहां? तूने कभी उन्हें देखा है? तू बिना बाप का है?”
लड़का रोता-रोता अपनी दादी के पास आया, बोला, “मां ! मुझे बता कि मेरे पिताजी कहां है। ? “
बुढ़िया ने सूर्यनारायण की ओर उंगली से संकेत कर कहा, “वे रहे बेटा। तरे पिता को तो सारी दुनिया जानती है।”
बालक ने मचलते हुए कहा, “नहीं मां ! सचमुच के पिता बता।”
बालक ने जिद ठान ली। बुढ़िया उसे लेकर देवलोक चली। नौकर-चाकर साथ में लेकर पालकी में सवार होकर वहां पहुंचे। महलमें ठहराये गए। सूर्यनारायण काम-काज से निबटकर महल में आये। बुढ़िया ने उनकी ओर संकेत कर कहा, “ये हैं तेरे पिता”
सूर्यनारायण ने बालक को गोदी में लेकर प्यार किया। बालक का रोना बंद हो गया।
उस दिन से वे सब चैन से रहने लगे।
सब समान / विक्रम कुमार जैन
एकबार की बात है। सूरज, जवा, पानी और किसान के बीच अचानक तनातनी हो गई। बात बड़ी नहीं थी, छोटी-सी थी कि उनमें बड़ा कौन् है ? सूरज ने अपने को बड़ा बताया तो हवा ने अपने को, पानी और किसान भी पीछे न रहे। उन्होंने अपने बड़े होने का दावा किया। आखिर तिल का ताड़ बन गया। खूब बहस करने पर भी जब वे किसी नतीजे पर न पहुंचे तो चारों ने तय किया कि वक कल से कोई काम नहीं करेंगे। देखें, किसके बिना दुनिया का काम रुकता है।
पशु-पक्षियों को जब यह मालूम हुआ तो वे दौड़े आये। उनहेंने उनके मेल का रास्ता खोजने का प्रयत्न किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली।
दूसरे दिन सूरज नहीं निकला, हवा ने चलना बंद कर दिया, पानी सूख गया और किसान हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ गया। चारों ओर हाहकार मच गया। लोग प्रार्थना करने लगे किवे अपना-अपना काम करें; लेकिन वे टस-से-मस न हुए। अपनी आप पर डटे रहे। लोग हैरान होकर चुप हो गये। पर दुनिया का काम रुका नहीं। जहां मुर्गा नहीं बोलता, वहां क्या सवेरा नहीं होता ?
चारों बड़े ही कमेरे थे खाली बैठे तो उन्हें थोड़ी ही देर में घबराहट होने लगी। समय काटना भारी हो गया। उनका अभिमान गलने लगा। अखिर बड़ा कौन है ? छोटा कौन है? सबके अपने-अपने काम हैं। बड़ा कोई आन से नहीं, काम से होता है।
सबसे ज्यादा छटपटाहट हुई सूरज को। अपने ताप से स्वयं जलने लगा। उसने अपनी किरणें बिखेरनी शुरू कर दीं। निकम्मे बैठे होने से हवा कर दम घुटने लगा तो वह भी चल पड़ी। इसी तरह पानी और किसान भी अपने-अपने काम में लग गये।
वे अच्छी तरह समझ गये कि संसार में न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है। सब समान हैं। छोटे-बड़े का भेद तो ऊपरी है।
बघेलखण्ड की लोककथा
मनुष्य का मोल / लखनप्रताप सिंह
विक्रमाजीत नाम के एक राजा थे। वह बड़े न्यायी थे। उनके न्याय की प्रशंसा दूर-दूर तक फैली थी। एक बार देवताओं के राजा इंद्र ने विक्रमाीत की परीक्षा लेनी चाही, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं ऐसा न हो कि अपनी न्यायप्रियता के कारण राजा विक्रमाजीत उनका पद छीन लें। इसके लिए उनहोंने आदमी के तीन कटे हुए सिर भेजकर कहला भेजा कि यदि राजा इनका मूल्य बतला सकेंगे तो उनके राज में सब जगह सोने की वर्षा होगी। यदि न बता सके तो गाज गिरेगी ओर राज्य में आदमियों का भयंकर संहार होगा। राजा ने दरबार में तीनों सिर रखते हुए सारे दरबारी पंडितों से कहा, “आप लोग इन सिरों का मूल्य बतलाइये।” पर कोई भी उनका मूल्य न बतला सका, क्योंकि तीनों सिर देखने में एक समान थे और एक ही आदमी के जान पड़ते थे। उनमें राई बराबर भी फर्क न था। सारे सभासद् मौन थे। राज-दरबार में सन्नाटा छाया हुआ था, सब एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे। पंडितों का यह हाल देखकर राजा चिंतित हुए। उन्होंने पुरोहित को बुलाकर कहा, “तुम्हें तीन दिन की छुटटी दी जाती है। जो तुम इन तीन दिनों में इनका मूल्य बता सकोगे तो मुंहमांगा पुरस्कार दिया जायगा, नहीं तो फांसी पर लटका दिये जाओगे।”
दो दिन तक पुरोहितजी ने बहुत सोचा, परंतु वह किसी भी फैसले पर न पहुंच। तब तीसरा दिन शुरु हुआ, तो वह बहुत व्याकुल हो उठे। खाना-पीना सब भूल गये। चिंता के मारे चद्दरओढ़कर लेटे रहे। पंडिताइन से न रहा गया। वह उनके पास गई और चद्दर खींचकर कहने लगी, “आप आज यों कैसे पड़े हैं ? चलिये, उठिये, नहाइये, खाइये।”पंडित ने उन तीनों सिरो का सब किस्सा पंडिताइन को कह सुनाया। सुनते ही पंडिताइन होश-हवास भूल गई, बड़े भारी संकट में पड़ गयी। मन में कहने लगी-हे भगवान, अब मैं क्या करूं ? कहां जाऊं ? कुछ भी समझ में नहीं आता। उसने सोचा कि कल तो पंडित को फांसी हो ही जायगी, तो मैं पहले ही क्यों न प्राण त्याग दूं? पंडित की मौत अपनी आंखों से देखने से तो अच्छा है। यह सोचकर मरने की ठान आधी रात के समय पंडिताइन शहर से बाहर तालाब की ओर चली।
इधर पार्वती ने भगवान शंकर से कहा कि एक सती के ऊपर संकट आ पड़ा है, कुछ करना चाहिए।
शंकर भगवानने कहा, “यह संसार है। यहां पर यह सब होता ही रहता है। तुम किस-किसकी चिंता करोगी ?” पर पार्वती ने एक न मानी। कहा, “नहीं, कोई-न-कोई उपाय तो करना ही होगा।” शंकर भगवान् ने कहा, “अगर तुम नहीं मानती हो तो चलो।” दोनों सियार और सियारिन का भेष बनाकर तालाब की मेड़ पर पहुंचे, जहां पंडिताइन तालाब में डूबकर मरने को आई थी। पंडिताइन जब तालाब की मेड़ के पास पहुंची तो उसने सुना कि एक सियार पागल की तरह जोर-जोर से हंस रहा है। कभी वह हंसता है और कभी “हूके-हुके, हुवा-हुआ” करता है। सियार की यह दशा देखकर सियारिन ने पूछा, “आज तुम पागल हो गये हो क्या? क्यों बेमतलब इस तरह हंस रहे हो ?” सियार बालो, “अरे, तू नहीं जानती। अब खूब खाने को मिलेगा, ,खूब खायेंगे और मोटे-ताजे हो जायेंगे।” सियारिन ने कहा, “कैसी बातें करते हो? कुछ समझ में नहीं आती; जो कुछ समझूं तो विश्वास करूं।” सियार ने कहा, “राजा इन्द्र ने राजा विक्रमाजीत के यहां तीन सिर भेजे हैं और यह शर्त रखी है जो राजा उनका मोल बता सकेगा तो राज्य भर में सोना बरसेगा; जो न बता सकेगा तो गाजें गिरेंगी। तो सुनो, सिरों का मूल्य तो कोई बता न सकेगा कि सोना बरसेगा। अब राज्य में हर जगह गाज ही गिरेगी। खूब आदमी मरेंगे। हम खूब खायेंगे और मोटे होंगे।” इतना कहकर सियार फिर “हुके-हुके, हुवा-हुआ” कहकर हंसने लगा। सियाररिन ने पूछा, “क्या तुम इन सिरों का मूल्य जानते हो ? ” सियार बोला, “जानता तो हूं, किंतु बतलाऊंगा नहीं, क्योंकि यद ि किसी ने सुन लिया तो सारा खेल ही बिगड़ जायगा।” सियारिन बोली, “तब तो तुम कुछ नहीं जानते, व्यर्थ ही डींग मारते हो। यहां आधी रात कौन बैठा है, जो तुम्हारी बात सुन लेगा और भेद खुल जायगा!” सियार को ताव आ गया। वह बोला, “तू तो मरा विश्वास ही नहीं करती ! अच्छा तो सुन, तीनों सिरों का मूल्य मैं बतलाता हूं। तीनों सिरों में एक सिर ऐसा है कि यदि सोने की सलाई लेकर उसके कान में से डालें और चारों ओर हिलाने-डुलाने से सलाई मुंह से न निकले तो उसका मूल्य अमूल्य है। दूसरे सिर में सलाई डालकर चारों ओर हिलाने-डुलाने से यदि मुंह से निकल जाय तो उसका मूल्य दस हजार रुपया है। तीसरा सिर लेकर उसके कान से सलाई डालने पर यदि वह मुंह, नाक, आंख सब जगह से पार हो जाय तो उसका मूल्य है, दो कौड़ी।” पंडिताइन यह सब सुन रही थी। चुपचाप दबे पांच घर की ओर चल पड़ी।
पंडिताइन खुशी-खुशी घर पहुंची। पंडित अब भी मंह पर चादर डाले पहले के समान चिंता में डूब पड़े थे। पंडिताइन ने चादर उठाई और कहा, “पड़े-पड़े क्या करते हो? चलो उठो, नहाओ-खाओ। क्यों व्यर्थ चिंता करते हो ! मैं बतमाऊंगी उन सिरों का मूल्य।”
सवेरा होते-होते पंडित उठे तो देखा, दरवाजे पर राजा का सिपाही खड़ा है। पंडित ने ठाठ के साथ सिपाही को फटकारते हुए कहा, “सवेरा नहीं होने पाया और बुलाने आ गये ! जाओ, राजा साहब से कह देना कि नहा लें, पूजा-पाठ कर लें, खा-पी-लें, तब आयंगे।” सिपाही चला गया। पंडित आराम से नहाये-धोये, पूरा-पाठ और भोजन किया, फिर पंडिताइन से भेद पूछकर राज-दरबार कीओर चले। पंडित ने पहुंचते ही कहा, “राजन, मंगवाइये वे तीनों सिर कहां हैं ?”
राजा ने तीनों सिर मंगवा दिये। पंडित ने उन्हे चारों ओर इधर-उधर उलट-पलटकर देखा और कहा, “एक सोने की सलाई मंगवा दीजिये।” सलाई मंगवायी गई। पंडित ने एक सिर को उठाकर उसके कान में सलाई डाली। चारों ओर हिलाई-धुलाई, पर वहकहीं से न निकली। पंडित कहने लगा, “यह आदमी बड़ा गंभीर है, इसका भेद नहीं मिलता। देखिये महाराज, इसका मूल्य अमूल्य है।” फिर दूसरा उठाकर उसके कान में सलाई डाली। हिलाई-डुलाई तो सलाई उसके मुंह से निकल आई। वह कहने लगा, “आदमी कानका कुछ कच्चा है, जो कान से सुनता है, वह मुंह से कह डालता है। लिखिये, महाराज, इसका मूल्य दस हजार रूपया।” पंडित ने तीसरा सिर उठाया, उसके कान से सलाई डालते ही उसके मुंह, नाक, आंख सभी जगह से पार हो गई।
उसने मुंह बनाकर कहा, “अरे, यह आदमी किसी काम का नहीं। यह कोई भेद नहीं छिपा सकता। लिखिये, महाराज, इकस मूल्य दो कौड़ी। ऐसे कान के कच्चे तथा चुगलखोर आदमी का मूल्य दो कौड़ी भी बहुत है।”
पंडित का उत्तर सुनकर राजा प्रसन्न हुआ। उसने पंडित को बहुत-सा धन, हीरा-जवाहारात देकर विदा किया।
इधर राजा ने तीनों सिरों का मूल्य लिखकर राजा इन्द्र के दरबार में भिजवा दिया। इंद्र प्रसन्न हुए। सारे राज्य में सोना बरसा। प्रजा खुशहाल हो गयी।
गढ़वाल की लोककथा
फयूंली / गोविन्द चातक
पहाड़ की चोटी पर, खेतों की मेड़ों पर, एक पीला फूल होता है। लोग उसे ‘फयूंली’ कहते हैं।
कहीं एक घना जंगल था। उस जंगल में एक ताल था और उस ताल के पास नरी-जैसी एक वन-कन्या रहती थी। उसका नाम था फयूंली।
कोसों तक वहां आदमी का नाम न था। वह अकेली थी, बस उसके पास वनके जीव-जन्तु और पक्षी रहते थे। वे उसके भाई-बहन थे-बस प्यार से पाले-पोसे हुए। यही उसका कुटुम्ब था। वह उन सबकी अपनी-जैसी थी। हिरनी उसके गीतों में अपने को भूल जाती थी। फूल उसे घेरकर हंसते थे, हरी-भरी दूब उसके पैरों के नीचे बिछ जाती और भोर के पंछी उसे जगाने को चहचहा उठते थे। वहउनसबकी प्यारी थी।
वह बहुत खुश थी। सुन्दर भी थी। उसके चेहरे पर चांद उतर आया था। उसके गालों में गुलाब खिले थे। उसके बालों पर घटाएं घिरी थीं। ताल के पानी की तरह उसकी जवानी भरती जा रही थी। उस रूप को न किसी ने आंखों से देखा था, न हाथों से छुआ था।
उस धरती पर कभी आदमी की काली छाया न पड़ी थी। पाप के हाथों ने कभी फूलों की पवित्रता को मैला न किया था। इसीलिए जिन्दगी में कहीं लोभ न था, शोक न था। सब ओर शांति और पवित्रता थी। फयूंली निडर होरक वनों में घूमती, कुंजों में पेड़ों के नये पत्ते बिछाकर लेटती, लेटकर पंछियों के सुर में अपना सुर मिलाती, फिर फूलों की माला बनाती और नदियों की कल-कल के साथ नाचने लगती। थी तो अकेली, पर उसकी जिन्दगी अकेली न थी।
एक दिन वह यों ही बैठी थी। पास ही झरझर करता एक पहाड़ी झरना बह रहा था वहां एक बड़े पत्थर का सहारा लिए वह जलमें पैर डाले एक हिरन के बच्चे को दुलार रही थी। आंखें पानी की उठती तरंगों पर लगी थीं, पर मन न जाने किस मनसूबे पर चांदनी-सा मुस्करा रहा था। तभी किसी के आने की आहट हुई। हिरनका बच्चा डर से चौंका। फयूली नेमुड़कर देखा तो एक राजकुमार खड़ा था। कमलके फल जैसा कोमल और हिमालय की बरफ जैसा गोरा। फयूंली ने आज तक किसी आदमी को नहीं देखा था। उसे देखकर वह चांद-सी शरमा गई, फूल-सी कुम्हला गई। राजकुमार प्यासा था। मन उसका पानी में था, पर फयूली को देखते ही वह पानी पीला भूल गया। फयूंली अलग सरक गयी। राजकुमार ने अंजुलि बनायी और पानी पीने लगा। पानी पिया तो फयूंली ने राजकुमार से पूछा, “शिकार करने आये हो ?”
राजकुमार ने कहा, “हां।”
फयूंली बोली, “तो आप चले जाइये। यह मेरा आश्रम है। यहां सब जीव-जन्तु मेरे भाई-बहन हैं। यहां कोई किसी को नहीं मारता। सब एक-दूसरे को प्यार से गले लगाते हैं।”
राजकुमार हंसा। बोला, “मैं भी नहीं मारूंगा। यहां खेल-खेल में चला आया था। खैर, न शिकार मिला, न अब शिकार करने की इच्छा है। इतनी दूर भटक गया हूं कि…..”
इतना कहकर राजकुमार चुप हो गया। फिर कुछ समय के लिए कोई कोई किसी से नहीं बोला। फयूंली ने आंखों की कोर से उसे फिर एक बार देखा। वह सोच न पाई कि आगे उससे क्या कहे, क्या पूछे, पर न जाने वह क्यों उसे अच्छा लगा।
यों ही उसके मुख से निकल पड़ा, “आप थके हैं। आराम कर लीजिये।”
राजकुमार एक पत्थर के ऊपर बैठ गया। संध्या हाने लगी थी। आसमान लाल हुआ। वन में लौटते हुए पश-पक्षियों का कोलाहल गूंज उठा। देखते-ही-देखते फयूली के सामने कंद-मूल और जंगली फलों का ढेर लग गया। यह रोज की ही बात थी। रोज ही तो वन के पशु-पक्षी-उसके वे भाई-बहन-उसके लिए फल-फूल लेकर आते थे। वह उन सबकी रानी जो थी।
राजकुमार ने यह देखा तो बाला, “वनदेवी, तुम धन्य हो! कितना सुख है यहां ! कितना अपनापन है ! काश, मैं यहां रह पाता !”
फयूंली ने टोका, “बड़ों के मुंह से छोटी बातें शोभा नहीं देतीं। तुम यहां रहकर क्या करोगे ? राजकुमार को वनों से कया लेना-देना। उन्हें तो अपनेमहल चाहिए, बड़े-बड़े शहर चाहिए, जहां उन्हें राज करना होता है।”
राजकुमारने कहा, “जंगल में ही मंगल है, तुम भी तो राज ही कर रही हो यहां।”
फयूंली मुस्करा उठी। बोली, “नहीं।”
अंधेरा हो चुका था। फयूंली ने राजकुमार का फूलों से अभिनन्दन किया ओर फिर वह अपनी गुफा में चली गई। राजकुमार भी पेड़ के नीचे लेट गया।
सांझ का अस्त होता सूरज फिर सुबह को पहाड़ की चोटी पर आ झांका। राजकुमार जागा तो उसे घर का ख्याल आया। वह उदास हा उठा। फयूंली उसके प्राणों में खिलनेको आकुल हो उठी। अब उसका जाने का जी नहीं कर रहा था। सुबह कलेवा लेकर फयूंली आई तो राजकुमार मन की बात न रोक सका, बाला, “एक बात कहना चाहता हूं। सुनोगी ?”
फयूंली ने पूछा, “क्या ?”
राजकुमार कुछ झिझका, पर हिम्मत करके बोला, “मेरे साथ चलोगी ? मैं तुम्हें राजरानी बनाकर पूजूंगा।”
फयूंली ने कहा, “नहीं, रानी बनकर मैं क्या करूंगी।”
राजकुमार ने कहा, “मैं तुम्हें प्यार करता हूं। तुम्हारे बिना जी नहीं कसता।”
फयूंली ने जवाब दिया, “पर वहां यह वन, ये पेड़, ये फूल, ये नदियां और ये पक्षी नहीं होंगे।”
राजकुमार ने कहा, “वहां इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें हैं। मेरे राजमहल में हर तरह से सुख से रहोगी। यहां वन में क्या रखा है !”
फयूंली ने कहा, “आदमी ने अपने लिए एक बनावटी जिन्दगी बना रखी है। उसे मैं सुख नहीं मानती।”
राजकुमार इसका क्या जवाब देता ! फयूंली ने सोचा-इतनी सुंदरता, इतना प्यार, सचमुच मुझे आदमियों के बीच कहां मिलेगा ? आदमी एक-दूसरे को सुखी बनाने के लिए संगठित जरूर हुआ है, पर वही सहंगठन उसके दु:खों का कारण भी है। आज मैं अकेली हूं, पर मेरे दिल में डाह नहीं है, कसक नहीं है। पर वहां? वहां इतना खुलापन कहां होगा।
पर उसके भीतर बैठा कोई उससे कुछ और भीकह रहा था। आखिर नारी को सुहाग भी तो चाहिए। यौवन में लालसा हाती ही है।
वह एकदम कांप उठी; पर अंत में उसकी भावना उसे राजकुमार के साथ खींच ले ही गई।उसने राजकुमार की बात मान ली।
फिर क्या था ! वे दोनों उसी दिन चल पड़े। पशु-पक्षी आये। सबने उन्हें विदा दी। उनकी आंखों में आंसू थे।
राजकुमार उसे लेकर अपने राज्य में पहुंचा। दानों बेहद खुश थे। वह अब रानी थी। राजकुमार उसे प्रणों से ज्यादा प्यार करता था। वहां वन से भी ज्यादा सुख था। राजमहल में भला किस बात की कमी हो सकती थी ! खाने के लिए तरह-तरह के भोजन थे, सेवा के लिए दासियां ओर दिल बहलाने कि लिए नर्तकियां। यही नहीं, दिखाने के लिए ऐश्वर्य और जताने के लिए अधिकार था।
दिन बीतते गये। सुबह का सूरज शाम को ढलता रहा। कई दिनों तक उसके भाई-बहन उसे याद करते रहे। पर वही तो गई थी, बाकी जो जहां था, वहीं था। कुछ दिन बाद पंछी पहले की तरह बोलने लगे, फूल फूलने लगे।
पर एक दिन फयूंली को लगा, जैसे उसके जीवन की उमंग खो गई हो।
राजमहल में हीरे ओर मोतियों की चमक जरूर थी, पर न फूलों का-सा भोलापन ,था और न पंछियों की-सी पवित्रता थी। अब राजमहलकी दीवारें जैसे उसकी सांस घोटे दे रही थीं।उसे लगता, जैसे वह वनउसे पुकार रहा है। अब उसके पास उसके भाई-बहन कहां थे? आदमी थे, डाह थी, लोभ था, लालच था। पर वह तो निर्मल प्यार की भूखी थी।
फिर उस जीवन में उसके लिए कोई रस न रहा। वह उदास रहने लगी। उसे एकांत अच्छा लगने लगा। राजकुमार नेउसे खुश करने की लाख कोशिशें कीं, पर उसका कुम्हलाया मन हरा न हो सका। कुछ दिन में उसकी तबीयत खराब हो गई और वह बिस्तर पर जा पड़ी।
थोड़ी ही दिनों में उसका चमकता चेहरा पीला पड़ गया। वह मुरझा गई। किसी पौधे को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगा देने की कोशिश बेकार गई। उसके जीने की अब कोई आशा न रही।
एक दिन उसने राजकुमार से कहा, “मैं अब नहीं जीऊंगी। मेरी एक आखिरी चाह है। पूरी करोगे?”
राजकुमार ने कहा, “जरूर।”
फयूंली ने लम्बी सांस लेते हुए कहा, “कभी अगर शिकार को जाओ तो मेरे वन के उन भाई-बहनों को मत मारना और जब मैं मर जाऊं तो मुझे पहाड़ की उसी चोटी पर गाड़ देना, जहां वे रहते हैं।”
इसके बाद, उसके प्राण पखेरू उड़ गये।
राजकुमार ने उसे उसी पहाड़ की चोटी पर गाड़कर उसकी आखिरी इच्छा पूरी की। वन के पशु-पक्षियों ने-उसके उन भाई-बहनों ने-सुना तो बड़े दु:खी हुए। हवा ने सिसकी भरी, फल गिर गये और लताएं कुम्हला उठीं। राजकुमार मन मसोसकर रह गया।
आदमी ही मरते हैं। धरती सदा अमर है। एक ओर पेड़ सूखता है, दूसरी ओर अंकुर फूटते हैं। इसी का नाम जिन्दगी है। कुछ दिन बाद फिर प्राणों की एक सिसकी सुनाई दी। पहाड़ की चोटी पर, जहां फयूंली गाड़ दी गई थी, वहां पर एक पौधा और उस पर एक सुन्दर-सा फूल उग आया और लोग उसे फयूंली कहने लगे।
ब्रज की लोककथाएं
चतुरी चमार / यशपाल जैन
किसी गांव में एक चमार रहता था। वह बड़ा ही चतुर था। इसीलिए सब उसे ‘चतुरी चमार’ कहा करते थे। घर में वह और उसकी स्त्री थी। उनकी गुजर-बसर जैसे-तैसे होती थी, इससे वे लोग हैरान रहते थे। एक दिन चतुरी ने सोचा कि गांव में रहकर तो उनकी हालत सुधरने से रही, तब क्यों न वह कुछ दिन के लिए शहर चला जाय और वहां से थोड़ी कमाई कर लाय ? स्त्री से सलाह की तो उसने भी जाने कीह अनुमति दे दी। वह शहर पहंच गया।
मेहनती तो वह था ही। सूझबूझ भी उसमें खूब थी। कुछ ही दिनों में उसने सौ रुपये कमा लिये। इसके बाद वह गांव को रवाना हो गया। रास्ते में घना जंगल पड़ता था। जंगल में डाकू रहते थे। चतुरी ने मन-ही-मन कहा कि वह रुपये ले जायगा तो डाकू छीन लेंगे। उसने उपाय खोजा। एक घोड़ी खरीदी ओर कुछ रुपये उसकी पूंछ में बांधकर चल दिया। देखते-देखते डाकुओं ने उसे घेरा। बोले, “बड़ी कमाई करके लाया है चतुरिया। ला, निकाल रुपये।”
चतुरी ने कहा, “रुपये मेरे पास कहां ैं, जो थे उससे यह घोड़ी खरीद लाया हूं। इस घोड़ी की बड़ी करामात है। मुझे यह रोज पचास रुपये देती है।” इतना कहकर उसने मारा पूंछ में डंडा कि खन-खन करके पचास रुपये निकल पड़े।
डछाकुओं का सरदार बोला, “सुन भाई, यह घोड़ी तुमने कितने में खरीदी है?” चतुरी ने कहा, “क्यों ? उससे तुम्हें क्या ?”
वह बोला, “हमें रुपये नहीं चाहिए। यह घोड़ी दे दो।”
“नहीं,” चतुरी ने गम्भीरता से कहा, “मैं ऐसा नहीं कर सकता, मेरी रोजी की आमदनी बंद हो जायेगी।”
सरदार बोला, “ये ले, घोड़ी के लिए सौ रुपये।”
चतुरी ने और आग्रह करना ठीक नहीं समझा। रुपये लेकर घोड़ी उन्हें दे दी और गांव की ओर चल पड़ा। घर आकर सारा किस्सा अपनी स्त्री को सुना दिया। उसने कहा, “हो-न-हो, दो-चार दिन में डाकू यहां आये बिना नहीं रहेंगे। हमें तैयार रहना चाहिए।”
अगले दिन वह खरगोश के दो एक-से बच्चे ले आया। एक उसने स्त्री को दिया। बोला, “मैं रात को बाहर की कोठरी में बैठ जाया करूंगा। जैसे ही डाकू आयें, इस खरगोश के बच्चे को यह कहकर छोड़ देना कि जा, चतुरी को लिवा ला। आगे मैं संभाल लूंगा।”
डाकुओं का सरदार घोड़ी को लेकर अपने घर गया और रात को आंगन में खड़ा करके पूंछ मे डंडा मारा और बोला, “ला, रुपये।” रुपये कहां से आते? उसने कस-कसकर कई डंडे पहले तो पूंछ में मारे, फिर कमर में। घोड़ी ने लीद कर दी, पर रुपये नहीं दिये। सरदार समझ गया कि चतुरी ने बदमाशी की है, पर उसने अपने साथियों से कुछ भी नहीं कहा। घोड़ी दूसरे के यहां गई, तीसारे के यहां गई, उसकी खूब मरम्मत हुई, पर रपये बेचारी कहां से देती? चतुरी ने उन्हें मूर्ख बना दिया, ेकिन इस बात को अपने साथी से कहे तो कैसे? उसकीं हंसाई जो होगी। आखिर पांचवें डाकू के यहां जाकर घोड़ी ने दम तोड़ दिया। तब भेद खुला।
फिर सारे डाकू मिलकर एक रात को चतुरी के घर पहुंच गये। दरवाजा खटखआया। चतुरी की घरवाली नेखोल दिया। सरदार ने पूछा, “कहां है चतुरी का बच्चा?”
स्त्री बोली, “वह खेत पर गये हैं। आप लोग बैठें। मैं अभी बुला देती हूं।”
इतना कहकर उसने खरगोश के बच्चे को हाथ में लेकर दरवाजे के बाहर छोड़ दिया और बोली, “जा रे चतुरी को फौरन लिवा ला।”
क्षण भर बाद ही डाकुओं ने देखा कि चतुरी खरगोश के बच्च्े को हाथ में लिए चला आ रहा है। आते ही बोला, “आप लोगों ने मझे बलाया है। इसके पहुंचते ही मैं चला आया। वाह रे खरगोश! “
डाकू गुस्से में भरकर आये थे, पर खरगोश को देखते ही उनका गुस्सा काफूर हो गया। सरदार ने अचरज में भरकर पूछा, “यह तुम्हारे पास पहुंचा कैसे ?”
चतुरी बोला, “यही तो इसकी तारीफ है। मैं सातवें आसमान पर होऊं, तो वहां से भी लिवा ला सकता है।”
सरदार ने कहा, “चतुरी, यह खरगोश हमें दे दे। हमलोग इधर-उधर घूमते रहते हैं और हमारी घरवाली परेशान रहती है। वह इसे भेजकर हमें बुलवा लिया करेगी।”
दूसरा डाकू बोला, “तूने हमारे साथ बड़ा धोखा किया है। रुपये ले आया और ऐसी घोड़ी दे आया कि जिसने एक पैसा भी नहीं दिया और मर गई। खैर, जो हुआ सो हुआ। अब यह खरगोश दे।”
चतुरी ने बहुत मना किया तो सरदार ने सौ रुपये निकाले। बोला, “यह ले। ला, दे खरगोश को।”
चतुरी ने रुपये ले लिये और खरगोश दे दिया।
डाकू चले गये। चतुरी ने आगे के लिए फिर एक चाल सोची। उधर डाकुओं के सरदार ने खरगोश को घर ले जाकर अपनी स्त्री को दिया ओर उससे कह दियाकि जब खाना तैयार हो जाय तो इसे भेज देना। और वह बाहर चला गया। दोस्तों के बीच बैठा रहा। राह देखते-देखते आधी रात हो गई, पर खरगोश नहीं आया, तो वह झल्लाकर घर पहुंचा और स्त्री पर उबल पड़ा। स्त्री ने कहा, “तुम नाहक नाराज होते हो। मैंने तो घंटों पहले खरगोश को भेज दिया था।”
सरदार समझ गया कि यह चतुरीकी शैतानी है। वे लोग तीसरे दिन रात को फिर चतुरी के घर पहुंच गये।
उन्हें देखते ही चतुरी ने अपनी स्त्री से कहा, “इनके रुपये लाकर दे दे।”
स्त्री बोली, “मैं नहीं देती।”
“नहीं देती ?” चतुरी गरजा और उसने कुल्हाड़ी उठाकर अपनी स्त्री पर वार किया। स्त्री लहुलुहान होकर धरती पर गिर पड़ी और आंखें मुंद गईं। डाकू दंग रह गये। उन्होंने कहा, “अरे चतुरी, तूने यह क्या कर डाला ?”
चतुरी बोला, “तुम लोग चिंता न करो। यह तो हम लोगों की रोज की बात है। मैं इसे अभी जिंदा किये देता हूं।”
इतना कहकर वह अंदर गया और वहां से एक सारंगी उठा लाया। जैसे ही उसे बजाया कि स्त्री उठ खड़ी हुई।
चतुरी ने उसे पहले से ही सिखा रखा था ओर खून दिखाने के लिए वैसा रंग तैयार कर लिया था। नाटक को असली समझकर डाकुओं का सरदार चकित रह गया। उसने कहा, “चतुरी भैया, यह सारंगी तू हमें दे दे।”
चतुरी ने बहुत आना-कानी की तो सरदार ने सौ रुपये निकाल कर दसे और दे दिये और सारंगी लेकर वे चले गये। घर पहुंचते ही सरदार ने स्त्री को फटकारा और स्त्री कुछ तेज हो गई तो उसने आव देखा न ताव, कुल्हाड़ी लेकर गर्दन अलग कर दी। फिर सारंगी लेकर बैठ गया। बजाते-बजाते सारंगी के तार टूट गये, लेकिन स्त्री ने आंखें नहीं खोलीं। सरदार अपनी मूर्खता पर सिर धुनकर रह गया। पर अपनी बेवकूफी की बात उसने किसी को बताई नहीं और एक के बाद एक सारी स्त्रियों के सिर कट गये।
भेद खुला तो डाकुओं का पारा आसमान पर चढ़ गया। वे फौरन चतुरी के घर पहुंचे और उसे पकड़कर एक बोरी में बंद कर नदी में डुबोने ले चले। रात भर चलकर सवेरे वेएक मंदिर पर पहुंचे। थोड़ी दूर पर दी थी। उन्होंने बोरी को मंदिर पर रख दिया और और सब निबटने चले गये।
उनके जाते ही चतुरी चिल्लाया, “मुझे नहीं करनी। मुझे नहीं करनी।” संयोग से उसी समय एक ग्वाला अपी गाय-भैंस लेकर आया। उसने आवाज सुनी तो बोरी के पास गया। बोला “क्या बात है ?” चतुरी ने कहा, “क्या बताऊं। राजा के लोग मेरे पीछे पड़े है। कि राजकुमारी से विवाह कर लू। लेकिन में कैसे करूं, लड़की कानी है। ये लोग मुझे पकड़कर ब्याह करने ले जा रहे हैं।”
ग्वाला बोला, “भेया, ब्याह नहीं होता । मैं इसके लिए तैयार हूं।”
इतना कहकर ग्वाले ने झटपट बोरी को खोलकर चतुरी को बाहर निकाल दिया और स्वयं बंद हो गया। चतुरी उसकी गाय-भैंस लेकर नौ-दी-ग्यारह हो गया।
थोड़ी देर में डाकू आये और बोरी ले जाकर उन्होंने नदी में पटक दी। उन्हें संतोष हो गया कि चतुरी से उनका पीछा छूट गया, लेकिन लौटे तो रास्ते में देखते क्या हैं कि चतुरी सामने है। उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। पास आकर चतुरी से पूछा, “क्या बे, तू यहां कैसे ?”
वह बोला, आप लोगों ने मुझे नदी में उथले पानी में डाला, इसलिए गाय-भैंस ही मेरे हाथ पड़ी, अगर गहरे पानी में डाला होता तो हीरे-जवाहरात मिलते।”
हीरे-जवाहरात का नाम सुनकर सरदार के मुंह में पानी भर आया। बोला, “भैया चतुरी, तू हमें ले चल और हीरे-जवाहरात दिलवा दे।”
चतुरी तो यह चाहता ही था। वव उन्हें लेकर नदी पर गया। बोला, “देखो, जितनी देर पानी में रहोगे, उतना ही लाभ होगा। तुम सब एक-एक भारी पत्थर गले में बांध लो।”
लोभी क्या नहीं कर सकता ! उन्होंने अपने गलों में पत्थर बांध लिये और एक कतार में खड़े हो गये। चतुरी ने एक-एक को धक्का देकर नदी में गिरा दिया।
सारे डाकुओं से हमेशा के लिए छुटकारा पाकर चतुरी चमार गाय-भैंस लेकर खुशी-खुशी घर लौटा और अपनी स्त्री के साथ आनन्द से रहने लगा।
सिंहल द्वीप की पदिमनी / आदर्श कुमारी
किसी जंगल में एकसुन्दर बगीचा था। उसमें बहुत-सी परियां रहती थीं। एक रात को वे उड़नखटोले में बैठकर सैर के लिए निकलीं। उड़ते-उड़ते वे एक राजा के महल की छत से होकर गुजरीं। गरमी के दिन थे, चांदनी रात थी। राजकुमार अपनी छत पर गहरी नींद में सो रहा था। परियों की रानी की निगाह इस राजकुमार पर पड़ी तो उसका दिल डोल गया। उसके जी में आया कि राजकुमार को चुपचाप उठाकर उड़ा ले जाय, परंतु उसे पृथ्वीलोक का कोई अनुभव नहीं था, इसलिए उसने ऐसा नहीं किया। वह राजकुमार को बड़ी देर तक निहारती रही। उसक साथवाली परियों ने अपनी रानी की यह हालत भांप ली। वे मजाक करती हुई बोलीं, “रानीजी, आदमियों की दुनिया से मोह नहीं करना चाहिए। चलो, अब लौट चलें। अगर जी नहीं भरा तो कल हम आपको यही ले आयंगी।”
परी रानी मुस्करा उठी। बोली, “अच्छा, चलो। मैंने कब मना किया ? लगता है, जिसने मेरे मन को मोह लिया है, उसने तुम पर भी जादू कर दिया है।”
परियां यह सुनकर खिलखिलाकर हंस पड़ीं और राजकुमार की प्रशंसा करती हुईं अपने देश को लौट गईं।
सवेरे जब राजकुमार सोकर उठा तो उसके शरीर में बड़ी ताजगी थी। वह सोचता कि हिमालय की चोटी पर पहुंच जाऊं या एक छलांग में समुन्दर को लांघ जाऊं। तभ वजीर ने आकर उसे खबर दी कि राजा की हालत बड़ी खराब है और वह आखिरी सांस ले रहे हैं। राजकुमार की खुशी काफूर हो गयी। वह तुरंत वहां पहुंच गया। राजा ने आंखें खोलीं और राजकुमार के सिर पर हाथ रखता हुआ बोला, “बेआ, वजीर साहब तुम्हारे पिता के ही समान हैं। तुम सदा उनकी बात का ख्याल रखना।”
इतना कहते-कहते राजा की आंखें सदा के लिए मुंद गयीं। राजकुमार फूट-फूटकर रोने लगा। राजा की मृत्यु पर सारे नगर ने शोक मनाया। कहने को तो राजकुमार अब राजा हो गया था, पर अपने पिता की आज्ञानुसार वह कोई भी काम वजीर की राय के बिना नहीं करता था।
एक दिन वजीर राजकुमार को महल के कमरे दिखाने ले गया। उसने सब कमरे खोल-खोलकर दिखा दिये, लेकिन एक कमरा नहीं दिखाया। राजकुमार ने बहुत जिद की, पर वजीर कैसे भी राजी न हुआ। वजीर का लड़का भी उस समय साथ था। वह राजकुमार का बड़ा गरा मित्र था। उसने वजीर से कहा, ‘पिताजी, राजपाट, महल और बाग-बगीचे सब इन्हीं के तो हैं आप इन्हें रोकते क्यों हैं ?”
वजीर ने कहा, “बेटा, तुम ठीक कहते हो। सब कुछ इन्हीं का है, लेकिन मंहाराज ने मरते समय मुझे हुक्म दिया था कि इस कमरे में राजकुमार को मत ले जाना। अगर मैं ऐसा करूंगा तो राज को बड़ा बुरा लगेगा।”
वजीर का लड़का थोड़ी देर तक सोचता रहा। फिर बोला, “लेकिन पिताजी, अब तो राजकुमार ही हमारे महाराज है। उनकी बात मानना हम सबके लिए जरूरी है। अगर आप राजा के दु:ख का इतना ध्यान रखते हैं तो हमारे इन राजा के दु:ख का भी तो ध्यान रखिये ओर दरवाजा खोल दीजिये। राजकुमार को दुखी देखकर हमारे राजा को भी शांति नहीं मिलेगी।”
वजीर ने ज्यादा हठ करना ठीक न समझ और चाबी अपने बेटे के हाथपर रख दी। ताला खोलकर तीनों अंदर पहुंचे। कमरा बड़ा संदर था। छत पर तरह-तरह के कीमती झाड़-फानूस लटक रहे थे और फर्श पर मखमल के गलीचे बिछे हुए थे। दीवार पर सुंदर-सुंदर स्त्रियों की तस्वीरें लगी थीं। यकायक राजकुमार की निगाह एक बड़ी सुंदर युवती की तस्वीर पर पड़ी। उसने वजीर से पूछा कि यह किसकी है? वजीर को जिसका डर था, वही हुआ। उसे बताना ही पड़ा कि वह सिंहलद्वीप की पदिमनी की है। राजकुमार उसकी सुन्दरता पर ऐसा मोहित हुआ कि उसी दिन उसने वजीर से कहा, “मैं पदिमनी से ही ब्याह करूंगा। जबतक पदिमी मुझे नहीं मिलेग, मैं राज के काम में हाथ नहीं लगाऊंगा।”
वजीर हैरान होकर बोला, “राजकुमार, सिहंलद्वीप पहुंचना आसान काम नहीं है। वह साम समुन्दर पार है। वहां भी जाओ तो शादी करना तो दूर, उससे भेंट करन भी असम्भव है। उसकी तलाश में जो भी गया, लौटकर नहीं आया। फिर ऐसे अनहोने काम में हाथ डालने की सलाह मैं आपको कैसे दे सकता हूं?”
पर राजकुमार अपनी बात पर अड़ा रहा। वजीर का लड़का उसका साथ देने को तैयार हो गया। वे दोनों घोड़े पर सवार होकर चल दिये। चलते-चलते दिन डूब गया। वे एक बाग में पहुंचे और अपने-अपने घोड़े खोल दिये। हाथ-मुंह धोकर कुछ खाया-पिया। वे थके हुए तो थे ही, चादर बिछाकर लेट गये। कुछ देर के बाद ही गहरी नींद में सो गये। आंख खुली और चलने को हुए तो देखते कया हैं कि बाग का फाटक बंद हो गया है और वहां कोई खोलने वाल नहीं है।
बगीचे के बीचों-बीच संगमरमर का एक चबूतरा था। आधी रात पर वहां कालीन बिछाये गये, फूलों और इत्र की सुगंधि चारों ओर फैलने लगी। फिर चबूतरे पर एक सोने का सिंहासन रख दिया गया। कुछ ही देर में घर-घर करता हुआ एक उड़नखटोला वहां उतरा। उसके चारों पायों को एक-एक परी पकड़े हुए थी और उस पर उनकी रानी विराजमान थीं। चारों परियों ने अपनी रानी को सहारा देकर नीचे उतारा और रत्नजड़ित सोने के सिंहासन पर बिठा दिया। परीरानी ने इधर-उधर देखा और अपनी सखियों से कहा, “वह देखो, पेड़ के नीचे चादर बिछाये दो आदमी सो रहे हैं। उनमें से एक वही राजकुमार है। उसे तुरंत मेरे सामने लाओ।”
हुक्म करने की देर थी कि परियां सोते हुए राजकुमार को अपनी रानी के सामने ले आईं। राजकुमार की आंख खुल गई और वह परियों कीजगमगाहट से चकाचौंध हो गया। परियों को अपने आगे-पीछे देखकर उसे बड़ा डर लगा और हाथ जोड़कर बोला, “मुझे जाने दीजिये।”
परी रानी ने मुस्कराते हुए कहा, “राजकुमार, अब तुम कहीं नहीं जा सकते। तुम्हें मुझसे विवाह करना होगा।”
राजकुमार बड़ी मुसीबत में पड़ गया। बाला, “परी रानी, मैं क्षमा चाहता हूं। मैं सिंहलद्वीप की पदिमनी की तलाश में निकला हूं। इस समय मै। विवाह नहीं कर सकता।”
परी ने कहा, “भोले राजकुमार, सिंहलद्वीप की पदिमनी तक आदमी की पहुंच सम्भव नहीं है। वह दैवी शक्ति के बिना कभी नहीं मिल सकती। अगर तुम मुझसे विवाह कर लोगे तो मैं तुम्हें ऐसी चीज दूंगी, जिससे सिंहलद्वीप कीपदिमनी तुम्हें आसानी से मिल जायेगी।”
राजकुमार यह सुनकर बड़ा खुश हुआ और बोला, “परी रानी, मैं तुमसे जरूर शादी करूंगा, पर तुम्हें मेरी एक बात माननी होगी। मैं जब पदिमनी को लेकर लौटूंगा तभी तुम्हें अपने साथ ले जा सकूंगा। मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मेरी इस बात में कोई हेर-फेर नहीं होगी।”
परी ने प्रसन्न होकर अपनी अंगूठी उतारी और राजकुमार की उंगली में पहनाती हुई बोली, “यह अंगूठी जबतक तुम्हारे पास रहेगी कोई भी विपत्ति तुम्हारे ऊपर असार न करेगी। इसके पास रहने से तुम्हारे ऊपर किसी का जादू-टोना नहीं चल सकेगा।”
अंगूठी देकर परी रानी आकाश में उड़ गई। राजकुमार वजीर के लड़के के पा आकर सो गया। सवेरे उन दोनों ने देखा कि बगीचे का फाटक खुला हुआ है। वे दोनों घोड़ों पर सवार होकर चल दिये। पदिमनी से मिलने की राजकुमार को ऐसी उतावली थी कि वह इतना तेज चला कि वजीर का लड़का उससे बिछुड़ गया। चलते-चलते राजकुमार एक ऐसे शहर में पहुंचा, जहां हर दरवाजे पर तलवारें-ही-तलवारें टंगी हुई थीं। एक दरवाजे पर उसने एक बुढ़िया को बैठे हुए देखा। उसे बड़े जोर की प्यास लगी थी। पानी पीने के लिए वह बुढ़िया के पास पहुंच गया। बुढ़िया झूठ-मूठ का लाड़ दिखाती हुई बोली, “हाय बेटा ! तू बड़े दिनों के बाद दिखाई दिया है। तू तो मुझे पहचान भी नहीं रहा। भूल गया अपनी बुआ को ?”
यह कहते-कहते उसने राजकुमार को ह्रदय से लगा लिया और चुपचाप उसकी अंगूठी उतार ली। इसके बाद उसने राजकुमार को मक्खी बनाकर दीवार से चिपका दिया।
उधर वजीर के लड़के को राजकुमारी की तलाश में भटकते-भटकते बहुत दिन निकल गये। अंत में उसे एक उपाय सूझा। वह परी रानी के बगीचे में पहुंचा और रात को एक पेड़ पर चढ़ गया। आधी-रात को परी रानी उसी चबूतरे पर उतरी। वह वजीर के लड़के की विपदा को समझ गई। उसने उसे सामने बुलाकर कहा, “यहां से सौ योजना की दूरी पर एक जंगल है। उसने उसे सामने बुलाकर कहा, “यहां से सौ योजन की दूरी पर एक जंगल है। उसमें तरह-तरह के हिंसक पशु रहते हैं। वहां ताड़ के पेड़ पर एक पिंजड़ा टंगा हुआ है। उसमें एक तोता बैठा है। उस तोते में उस जादूगरनी को जान है, जिसने तुम्हारे राजकुमार को मक्खी बनाकर अपने घर में दीवार से चिपका रक्खा है।
वजीर के लड़के ने पूछा, “इतनी दूर मैं कैसे पहुंच सकता हूं?”
परी रानी ने वजीर के लड़केको अपने कान की बाली उतारकर दीऔर कहा कि इसको पास रखने से तुम सौ योजन एक घंटे में तय कर लोगे। इसमें एक सिफत यह भी है कि तुम सबको देख सकोगे औरत तुम्हें कोई नहीं देख पायगा। इस प्रकार तोते के पिंजड़े तक पहुंचने में तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी और तोते को मारना तुम्हारे बांये हाथ का खेल होगा।
वजीर का लड़का बाली लेकर खुशी-खुशी जंगल की ओर चल दिया। पेड़ के पास पहुंचकर उसने पिंजड़ा उतारा ओर तोते की गर्दन मरोड़ डाली। इधर तोते का मरना था कि जादूगरनी का भी अंत हो गया। वजीर का लड़का वहां से जादूगरनी के घर पहुंचा। जरदूगरनी की उंगली से जैसे ही उसने अंगूठी खींची कि राजकुमार मक्खी से फिर आदमी बन गया। वजीर के लड़के से मिलकर राजकुमार खुशी के मारे उछल पड़ा। वजीर के लड़के ने राजकुमार को सारा किस्सा कह सुनाया।
अब दोनों साथ-साथ पदिमनी से मिलने चल दिये। चलते-चलते वे बहुत थक गये थे। रात भर के लिए वे एक सराय में रुक गये। राजकुमार सो रहा था। उधर से विमान में बैठकर महादेव-पार्वती निकले। दोनों बातचीत करते चले जा रहे थे। यकायक महादेवजी ने कहा, “पार्वती, इस नगर की राजकुमारी बहुत सुंदर और गुणवती है। राजा उसकी शादी एक काने राजकुमार के साथ कर रहा है। अगर ब्याह हो गया तो जनमभर राजकुमारी को काने के साथ रहना पड़ेगा। मैं इसी सोच में हूं कि इस सुन्दरी को काने से कैसे छुटकारा दिलाऊं ?”
पार्वतीजी ने नीचे सोये हुए राजकुमार की ओर इशारा करते हुए कहा, “देखिये जरा नीचे की ओर, कितना संदर राजकुमार है! विमानउतारिये और राजकुमार को लेकर वर की जगह पहुंचा दीजिये।”
महादेवजी को यह युक्ति जंच गई। उन्होंने ऐसा ही किया। राजकुमार की शादी उस राजकुमारी से हो गयी। विदा के समय राजकुमार बड़े चक्कर में पड़ा। विवाह करने के बाद लौटते समय मैं तुम्हें साथ ले जाऊंगा। इस समय तो तुम मुझे जाने दो।”
राजकुमारी को राजकुमार पर विश्वास होगया। उसने उसेदो बाल दिये। एक सफेद ओर एक काला। राजकुमारी ने कहा कि काला बाल जलाओगे तो काला हो जायेगा और सारी इच्छाएं पूरी कर देगा।
राजकुमार बाल पाकर बड़ा खुश हुआ और राजकुमारी को लौटने का भरोसा देकर सिंहलद्वीप की ओर चल पड़ा। पहले उसने काला बाल जलाया। बाल के जलाने की देर थी कि काला दैत्य राजकुमार के आगे आ खड़ा हुआ। राजकुमार पहले तो बहुत डरा, पर वह जानता था कि वह दैत्य उसका सेवक है। उसने हुक्म दिया, “जाओ, वजीर के लड़के को मेरे पास ले आओ।”
काला दैत्य उसी क्षण वजीर के लड़के को राजकुमार के पास ले आया। फिर बोला, “और कोई आज्ञा ?”
राजकुमार ने कहा, “हम दोनों को पदिमनी के महल में पहुंचा दो।”
कहने की देर थी कि वे पदिमी के महल के फाटक पर आ गये। वहां एक ह्रष्ट-पुष्ट संतरी पहरा दे रहा था। उसने अंदर नहीं जाने दिया। राजकुमार ने फिर काला बाल जलाया। दैत्य हाजिर हो गया। राजकुमार के हुक्म देते ही काले दैत्यों की पलटन आ गई। उन्होंने रानी पदिमनी के सिपाहियों को बात-की-बात में मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद दैत्य गायग हो गये।
राजकुमार और वजीर का लड़का महल में घुसे। राजकुमार ने सफेद बाल जलाया। सफेद देव आ गया। राजकुमार ने उससे कहा, “मैं पदिमनी से विवाह करना चाहता हूं। बारात सजाकर लाओ।”
जरा-सी देर में देव अपने साथ एक बड़ी शानदार बारात सजा कर ले आया। पदिमनी के पिता ने जब देखा कि कोई राजकुमार पदिमनी को शान-शौकत से ब्याहने आया है और इतना शक्तिशाली है कि उसने उसकी सारी सेना नष्ट कर डाली है तो उसने चूं तक न की। राजकुमार का ब्याह पदिमनी से हो गया।
अब राजकुमार पदिमनी को लेकर अपने घर की ओर रवाना हो गया। रास्ते में से उसने उस राजकुमारी को अपने साथ लिया, जिसने उसे बाल दिये थे। इसके बाद परी रानी के बगीचे में आया। रात को सब वहीं ठहरे। आधी-रात को परी रानी आई। राजकुमार उसे देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला, “यह तुम्हारी ही कृपा का फल है। जो मैं पदिमनी को लेकर यहां अच्छी तरह लौट आया। यह दूसरी राजकुमारी भी तुम्हारी तरह मुसीबत में मेरी सहायक हुई है। तुम इसे छोटी बहन समझकर खूब प्यार से रखना।”
परीरानी गदगद कंठ से बाली, “राजकुमार, तुम्हारी खुशी में मेरी खुशी है। पदिमनी के कारण ही हम दोनों को तुम्हारे जैसा सुंदर राजकुमार मिला है। पदिमनी आज से पटरानी हुई और हम दोनों उसकी छोटी बहनें।”
वे सब उड़नखटोले में बैठकर राजकुमार के देश में आ गयीं। नगर भर में खूब आनन्द मनाया गया और धूमधाम के साथ राजकुमार की तीनों रानियों के साथ सवारी निकाली गई।
मगध की लोककथा
खंजड़ी की खनक / भगवानचंद्र विनोद
सांझ हो गई थी। पंछी पंख फैलाये तेजी से अपने-अपेन घोंसलों की ओर लौट रहे थे। जंगली पशु दिन भर शिकार की तलाश में भटकने के बाद किसी जलाश्य में पानी पीकर लौटने लगे। लेकिन सेमल के गाछ के नीचे खड़ी एक हिरनी न हिली, न डुली। उसके चेहरे पर उदासी का भाव था। गुमसुम होकर वह डूबते हुए सूरज की लाली को देख रही थी। सेमल के गाछ पर बिखरने वाली लाली से फूल और भी लाल हो रहे थे।
हिरनी को उदास देखकर हिरन उसके पास आया। अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से उसे देखकर बाला, “क्यों, आज तुम्हें क्या हो गया है ? मैं देख रहा हमं कि तुम आज सवेरे से ही इस गाछ के नीचे गुमसुम खड़ी हो ?”
हिरनी चुप रही। कुछ नहीं बाली। उसकी सागर-सी गहरी आंखों में आज सूनापन था। हिरन की बात सुनते ही उस सूनेपन को आंसुओं की बूंदों ने भर दिया। पिुर वे आंसू ढुलक पड़े। हिरन विचलित हो उठा। अपनी प्रियतमा की आंखों में आंसू उसने आज पहली बार देखे थे। न जाने किस आशंका से उसका ह्रदय कांप उठा। उसने देखा, हिरनी फटी हुई आंखों से अब भी देख रही है। उसकी सांस की गति बढ़ गई है। उसके पैर कांप रहे हैं।
हिरन ने स्पर्श से अपनी हिरनी को दुलारा। फिर पूछा, “क्या हो गया है तुम्हें? क्या तुम्हारी चारागाह सूख गया है। या किसी जंगली जानवर का डर है?
बोलो, तुम्हारी उदासी और तुम्हारा मौर मेरे दिल को चीरे डालरहा है।”
हिरनी के होठों में थोड़ा-सा कम्पन हुआ।
फिर वह साहस बटोरकर बोली, “सुना है, इस देश के राजा के याहां राजकुमारी का जन्म-दिन मनाया जानेवाला है। बड़े-बड़े राजाओं को निमंत्रण भेजे गये हैं। कल बड़ा भारी उत्सव होगा। और….और……इस अवसर पर तरह-तरह के पकवानबनेंगे……..जिसके लिए तुम्हारा…………..
वह बात पूरी किये बिना बिलख उठी। आंखों से आंसुओं की धार बहने लगी। चारों ओर अंधेरा छा गया। बेचारा हिरन क्या कहे !
एक क्षण तक वह मौन रहा। फिर धीरज के साथ उसने कहा, “अरी पगली, इतनी-सी छोटी बात के लिए तू दु:खी होती है ! ऐसे अच्छे अवसर पर अगर मूझे बलिदान होना पड़ा तो यह मेरा कितना बड़ा सौभाग्य होगा ! राजा के जंगल में रहने वाले हम सब उन्हीं के तो सेवक हैं। इस बहानेमैं उनके ऋण के बोझ से छूट जाऊंगा। मुझे स्वर्ग मिलेगा। अखिर एक दिन मरना तो है ही ! किसी शिकारी के तीर से मरने की बजाय राजा के बेटे के लिए बलिदान होना कहीं अच्छा है।”
हिरनी फफक-फफक कर रो पड़ी। रोते-रोते बोली, “मेरे प्राणनाथ, मेरी दुनिया सूनी मत करो। तुम्हारे बिना कैसे जीऊंगी? मैंने तुम्हें अपनी आंखों से कभी ओझल नहीं होने दिया। मेरे लिए….बस मेरे लिए….ऐसा मत करा।”
“तू बड़ी रासमझ हैं !” हिरन ने प्यार से फिर समझाना चाहा।
“ठीक है, मैं नासमझ हूं।” हिरनी नेकहा, “लेकिन अपने प्राणों से बढ़कर प्यारे देवता को मैं कहीं नहीं जाने दूंगी। एक बार, बस एक बार, मेरी बात मान लो। हम इसीसमय इस राज्य को छोड़कर किसी दूसरे जंगल में भाग चलें। इतनी दूर चलें….कि जहां और कोई न हो….।”
हिरनी सारी रात इससे विनय करती रही, लेकिन हिरन नहीं माना। एक ओर प्यार था, दूसरी ओर कर्तव्य, उनके बीच उसे फैसला करना था। उसकी निगाह में कर्तव्य का महत्व अधिक था, तभी तो वह अपने प्यार की बलि चढ़ा रहा था।
दोनों एक-दूसरे का सहारा लिए, सेमलकी छाया में, बैठे रहे। आंखें बंद थी। सन्नाटा इतना छाया था कि दिल की धड़कनें साफ सुनाई देती थीं।
सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट से अचानक जंगल जाग उठा। दोनों ने चौंककर देखा। पूरब में सूरज की लाली मुस्करा रही थी और दो बधिक नगी तलवारें लिये खड़े थे।
घबराकर हिरनी ने आंखें बंद कर लीं। उसके ह्रदय की धड़कन बढ़ गयी। मारे पीड़ा के वह छटपटा उठी। जब उसने आंखें खोलकर देखा तो न वहां बधिक थे और न उसका प्राणों से प्यारा हिरन।
तभी आसमान में लाली ओर अधिक व्याप्त हो गयी। उसे लगा, जैसे उसके हिरन का लहू बहकर चारों तरफ फैल गया हो।
हिरनी के दिल बड़ा धक्का लगा। वह बेसुध हो गयी। दिन-भर अचेत पड़ी रही। शाम को उसकी चेतना पल-भर के लिए लौटी। तब न लालिमा थी, न रोशनी। चारों तरफ भयानक सूनापन और अंधेरा छाया था।
हिरनी ने किसी तरह साहस जुटाया। वह उठी और भारी पैरों से राजमहल की ओर चल दी। चलते-चलते वह महल में पहुंची। तबतक राजमहल में जन्म-महोत्सव समाप्त हो चुका था। महारानी अपने छोटे राजकुमार को गोद में लिये बैठी थी। हिरनी ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया और कातर स्वर में विनती की, “महारानी जी ! मैं आपके राज्य कीएक अभागिनी हिरनी हूं। आज के महोत्सव में मेरे प्राणाथ का वध किया गया है। उससे आपकी रसोई की शोभा बढ़ी, मेहमानों का आदर-सत्कार हुआ, यह सब ठीक है; किंतु मेरा तो सुहाग ही लुट गया। अब मेरा कोई नहीं रहा। मैं अनाथ हो गई….।”
उसकी आंखों से आंसू बहने लगे, पर धीरज धर कर वह फिर बाली, “महारानीजी! अब एक मेरी आपसे विनती है। आप कृपा कर मेरे हिरनकी खाल मुझे दे दें। मैंने उसे अपनी आंखों से कभी ओझल नहीं होने दिया। उस खाल को मैं उस सेमल के गाछ पर टांग दूंगी और दूर से देख-देखकर समझ लिया करूंगी कि मेरा हिरन मरा नहीं, जीवित है। महारानीजी ! वह मेरे सुहाग की निशानी है।”
लेकिन महारानी ने हिरनी की प्रार्थना स्वीकार नहीं की। उन्होंने कहा, “उस खाल की तो मैं खंजड़ी बनवाऊंगी और उसे बजा-बजाकर मेरा बेटा खेला करेगा।”
हिरनी का ह्रदय टूक-टूक हो गया। उसकी आशा की धुंधली ज्योति हवा के एक झोंके से बुझ गयी। निराश और भारी मन से वह जंगल को पुन: लौट आयी।
उसके बाद जब भी राजमहल में खंजड़ी खनकती तो हिरनी एक क्षण के लिए बेसुध हो जाती है। वह उस खनक को सुन-सुनकर घंटों आंसू बहाती रहती है।
निमाड़ की लोककथाएं
वार्ताकार और हुंकारा देनेवाला / शिवनारायण उपाध्याय
एक गांव में एक वार्ता कहनेवाला रहता था। उसे लम्बी वार्ता कहने का शौक था। लेकिन कोई हुंकारा देने वाला नहीं मिल रहा था। इसलिए उसने सोचा कि परदेश में चलना चाहिए, शायद वहां कोई मिल जाये।
चलते-चलते वर्षों बीत गये। कई गांवों ओर नगरों की यात्रा की, पर कोई हुंकारा देनेवाला नहीं मिला।
लाचार हो वह एक छोटे-से गांव के बाहर नीम की ठण्डी छांव देखकर उसके नीचे विश्राम करने बैठ गया। इतने में वहां से एक आदमी निकला और उसने पूछा, “क्यों भई, तुम कौन हो ? क्या काम करते हो ?”
उसने कहा, “मैं वार्ताकार हूं और लम्बी वार्ता कहना मेरा काम है। लेकिन वार्ता सुनाऊं तो किसे ? कोई हुंकारा देनेवाला नहीं मिल रहा है।”
उस आदमीने कहा, “वाह भाई वाह! तुम खूब मिले ! मैं सिर्फ हुंकारा देने का काम करता हूं और वर्षों से एक ऐसे आसदमी को खोज रहा हूं, जो लम्बी वार्ता कह सके। आज तुम मिल गये तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है।”
इस तरह एक-दूसरे को पाकर दोनों बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने स्नान किया, भोजन किया ओर भगवान का ध्ययान करके वार्ताकार ने अपनी लम्बी वार्ता कहनी शुरू की। दिन, महीने और वर्ष-पर-वर्ष बीतते गये, लेकिन न वार्ता खत्म हुई और न हुंकारे।
कुछ दिनो बाद लोगों ने देखा कि उस जगह दो हडिडयों के ढांचे पड़े हुए हैं। लोगों की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वे उन्हों कोई चमत्कारी संत समझकर प्रणाम कर लौट जाते थे।
उधर वार्ताकार और हुंकारा देनेवाले की पत्नियां अपने-अपने पतियों के घर लौटने की राह देखते-देखते निराश हो गईं। वे दानों पतिव्रता थीं। इसलिए उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पतियों की खोज में चल दीं। संयोग की बात, दोनों उसी पेड़ के नीचे पहुंचीं, जहां हडिडयों के दो ढांचे पड़े हुए थे। एक ने दूसरी से पूछा, “क्यों बहन, तुम्हारे पति क्या काम करते थे ?”
उसने कहा, “वे वार्ताकार थे और उन्हें लम्बी वार्ता कहने का शौक था। वे ऐसे आदमी की खोज में थे, जो सालों तक हंकारा देता रहे।”
दूसरी ने कहा, “मेरे पति हुंकारा देने वाले थे और ऐसे वार्ताकार की खोज में थे, जो लम्बी वार्ता कहे।”
दोनों ने सोचा, हो न हो, ये दोनों ढांचे हमारे पतियों के होने चाहिए। लेकिन उनमें से कौन-सा ढांचा वार्ताकार का था और कौन-सा हुंकारे वाले का, यह जानना मुश्किल था। तब दोनों ने तपस्या शुरू कर दी, वर्षों बीत गये। इस बीच एक संत वहां से निकले। उन्होंने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर कहा, ‘हे देवियो ! यदि तुम भगवान से प्रार्थना करके इन पर गंगा-जल छिड़को तो तुम्हारे पति तुम्हें मिल सकते हैं।”
तुरतं ही एक स्त्री ने भगवान से प्रर्थना की, “भगवान, यदि मैं सती होऊं तो मेरे पति वार्ता प्रारंभ कर दें।” ओर उसने उन ढांचों पर गंगा-जल छिड़का किएक ढांचे में हलचल हुई और उसने वार्ता कहना प्रारंभ कर दिया। फिर दूसरी स्त्री ने प्रार्थना की, “हे भगवान यदि मैं सती होऊं तो मेरे पति हुंकारा देने प्रारंभ कर दें।” और उसने ढांचे पर जल छिड़का। तुरंत दूसरे ढांचे में हलचल हुई और उसने हुंकारा देना प्रारंभ कर दिया।
तब से आज तक वार्ताएं चल रही हैं और हुंकारों की आवाज भी बराबर आती रहती हैं।
सेवा का फल / रामनारायण उपाध्याय
छोटे-से गणपति महाराज थे। उन्होंने एक पुड़िया में चावल लिया, एक में शक्कर ली, सीम में दूध लिया और सबके यहां गये। बोले, “कोई मुझे खीर बना दो।”
किसी ने कहा, मेरा बच्चा रोता है; किसी ने कहा, मैं स्नान कर रहा हूं; किसी ने कहा, मैं दही बिलो रही हूं।
एक ने कहा, “तुम लौंदाबाई के घर चले जाओ। वे तुम्हें खार बना देंगी।”
वे लौंदाबाई के घर गये। बोले, “बहन, मुझे खीर बना दो।”
उसने बड़े प्यार से कहा, “हां-हां, लाओ, मैं बनाये देती हूं।”
उसने कड़छी में दूध डाला, चावल डाले, शक्कर डाली और खर बनाने लगी तो कड़छी भर गई। तपेले में डाली तो तपेला भर गया, चरवे में डाली तो चरवा भर गया। एक-एक कर सब बर्तन भर गये। वह बड़े सोच में पड़ी कि अब क्या करूं ?
गणपति महाराज ने कहा, “अगर तुम्हें किन्हीं को भोजन कराना हो तो उन्हें निमंत्रण दे आओ।”
वह खीर को ढककर निमंत्रण देने गई। लौटकर देखा तो पांचों पकवान बन गये।
उसने सबको पेट भरकर भोजन कराया। लोग आश्चर्यचकित रह गये। पूछा, “क्यों बहन, यह कैसे हुआ ?”
उसने कहा, “मैंने तो कुछ नहीं किया। सिर्फ अपने घर आये अतिथि को भगवान समझकर सेवा की, यह उसी का फल था। जो भी अपने द्वार आए अतिथि की सेवा करेगा, अपना काम छोड़कर उसका काम पहले करेगा, उस पर गणपति महाराज प्रसन्न होंगे।
बड़ा कौन? / अज्ञात
भूख, प्यास, नींद और आशा चार बहनें थीं। एक बार उनमें लड़ाई हो गई। लड़ती-झगड़ती वे राजा के पास पहुंचीं।
एक ने कहा, “मैं बड़ी हूं।” दूसरी ने कहा, ” मैं बड़ी हूं।” तीसरी ने कहा, “मैं बड़ी हूं।” चौथी ने कहा, “मैं बड़ी हूं।” सबसे पहले राजा ने भूख से पूछा, “क्यों बहन, तुम कैसे बड़ी हो ?”
भूख बोली, “मैं इसलिए बड़ी हूं, क्योंकि मेरे कारण ही घर में चूल्हे जलते हैं, पांचों पकवान बनते हैं और वे जब मुझे थाल सजाकर देते हैं, तब मैं खाती हूं, नहीं तो खाऊं ही नहीं।”
राजा ने अपने कर्मचारियों से कहा, “जाओ, राज्य भर में मुनादी करा दो कि कोई अपने घर में चूल्हे न जलाये, पांचों पकवान न बनाये, थाल न सजाये, भूख लगेगी तो भूख कहां जायगी ?”
सारा दिन बीता, आधी रात बीती। भूख को भूख लगी। उसने यहां खोजा, वहां खोजा; लेकिन खाने को कहीं नहीं मिला। लाचार होकर वह घर में पड़े बासी टुकड़े खाने लगी।
प्यास ने यह देखा, तो वह दौड़ी-दौड़ी राजा के पास पहुंची। बोली, “राजा! राजा ! भूख हार गई। वह बासी टुकड़े खा रही है। देखिए, बड़ी तो मैं हूं।” राजा ने पूछा, तुम कैसे बड़ी हो ?
प्यास बोली, “मैं बड़ी हूं क्योंकि मेरे कारण ही लोग कुएं, तालाब बनवाते हैं, बढ़िया बर्तानों में भरकर पानी रखते हैं और वे जब मुझे गिलास भरकर देते हैं, तब मैं उसे पीती हूं, नहीं तो पीऊं ही नहीं।”
राजा ने अपने कर्मचारियों से कहा, “जाओ, राज्य में मुनादी करा दो कि कोई भीअपने घर में पानी भरकर नहीं रखे, किसी का गिलास भरकर पानी न दे। कुएं-तालाबों पर पहरे बैठा दो। प्यास को प्यास लगेगी तो जायगी कहां?”
सारा दिन बीता, आधी रात बीती। प्यास को प्यास लगी। वह यहां दौड़ी। वहां दौड़, लेकिन पानी की कहां एक बूंद न मिली। लाचार वह एक डबरे पर झुककर पानी पीने लगी।
नींद नेदेखा तो वह दौड़ी-दौड़ी राजा के पास पहुंची बोली, “राजा ! राजा ! प्यास हार गई। वह डबरे का पानी पी रही है। सच, बड़ी तो मैं हूं।”
राजा ने पूछा, “तुम कैसे बड़ी हो?”
नींद बोली, “मैं ऐसे बड़ी हूं कि लोग मेरे लिए पलंग बिछवाते हैं, उस पर बिस्तर डलवाते हैं और जब मुझे बिस्तर बिछाकर देते हैं तब मैं सोती हूं, नहीं तो सोऊं ही नहीं।
राजा ने अपने कर्मचारियों से कहा, “जाओ, राज्य भर में यह मुनादी करा दो कोई पलंग न बनवाये, उस पर गद्दे न डलवाये ओर न बिस्तर बिछा कर रखे। नींद को नींद आयेगी तो वह जायगी कहां ?”
सारा दिन बीता। आधी रात बीती। नींद को नींद आने लगी।उसने यहां ढूंढा, वहां ढूंढा, लेकिन बिस्तर कहीं नहीं मिला। लाचार वह ऊबड़-खाबड़ धरती पर सो गई।
आशा ने देखा तो वह दौड़ी-दौड़ी राजा के पा पहुंची। बोली, “राजा ! राजा ! नींद हार गयी। वह ऊबड़-खाबड़ धरती पर सोई है। वास्तव में भूख, प्यास और नींद, इन तीनों में मैं बड़ी हूं।”
राजा नेपूछा, “तुम कैसे बड़ी हो ?”
आशा बोली, “मैं ऐसे बड़ी हूं कि लोग मेरी खातिर ही काम करते हैं। नौकरी-धन्धा, मेहनत और मजदूरी करते हैं। परेशानियां उठाते हैं। लेकिन आशाके दीप को बुझने नहीं देते।”
राजा ने अपने कर्मचारियों से कहा, “जाओ, राज्य में मुनादी करा दो। कोई काम न करे, नौकरी न करे। धंधा, मेहनत और मजदूरी न करे और आशा का दीप न जलाये। आशा को आश जागेगी तो वह जायेगी कहां?”
सारा दिन बीता। आधी रात बीती। आशा को आश जगी। वह यहां गयी, वहां गयी। लेकिन चारों ओर अंधेरा छाया हुआ था। सिर्फ एक कुम्हार टिमटिमाते दीपक के प्रकाश में काम कर रहा था। वह वहां जाकर टिक गयी।
और राजा ने देखा, उसका सोने का दिया, रुपये की बाती तथा कंचन का महल बन गया।
जैसे उसकी आशा पूरी हुई, वैसे सबकी हो।
सरैसा की लोककथा
सोने का चूहा / नागेश्वर सिंह ‘शशीन्द्र’
सरैसा के नरहन मोखा जनपद में एक व्यापारी रहता था। उसे जुआ खेलने की लत थी। एक बार वह जुए में अपनी सारी सम्पत्ति हार गया। इससे उसे इतना दु:ख हुआ कि एक दिन वह मर गया। उसकी पत्नी गर्भवती थी। कुछ दिनों बाद उसने एक लड़के को जन्म दिया। उन दिनों उसके घर में बेहद तंगी थी।
व्यापारी की पत्नी ने अपने इकलौते बेटे को जैस-तैसे पाला। जब लड़का पांच साल का हुआ तो वह अपने पुत्र के साथ पति के एक धनिक मित्र कीशरण में चली गयी। वहां वह बारह वर्ष तक रही। एकदिन अवसरपाकर लड़के की मां ने पति के मित्र से प्रार्थना की कि सेठजी, मेरे पुत्र को कुछ पढ़ा-लिख देते तो वह अपने पांवों पर खड़ा हो जाता। लड़के की मां क प्रार्थना पर सेठ ने एक अध्यापक रख दिया। उसने उसे कुछ पढ़ना-लिखना और हिसाब-किताब सिखा दिया।
एक दिन की बात है कि वह लड़का सेठ के दरवाजे पर बैठा चुपचाप कुछ सोच रहा था। आगे क्या होगा, इस चिंता में उसकी आंखें गीली हो गईं। उसी समय उसकी मां भी वहां आ गई। मां ने आंचल से बेटे का मुंह पोंछते हुए कहा, “बेटा, तुम रोते कयों हो? तुम व्यापारी के लड़के हो। इसलिए कोई छोटा-मोटा धंधा शुरू कर दो। पास के मोहल्ले में एक सेठ रहता है, जो दीन-दुखी लड़कों को व्यापार में पूंजी लगाने के लिए बिना ब्याज के पैसा उधार दे देता है। तुम उनके पास जाओ और उनसे कुछ रुपया ले आओ।˝
सवेरा होते ही लड़का सेठ के पास गया। जिस समय वह उसकी गद्दी पर पहुंचा, वह किसी लड़के को डांटते हुए समझा रहा था कि तुम इस तरह अपने जीवन में मुछ नहीं कर सकोगे। जो आदमी मेहनत नहीं करता, वह भी कोई आदमी है ! बिना उद्योग किये तुम सुखी नहीं रह सकोगे। तुम्हारा जीवन बेकार चला जायगा। उद्यम के बिना किसी का मनोरथ आज तक पूरा नहीं हुआ है। देखते हो, सामने जो मरा चूहा पड़ा है, किसी योग्य और कर्मठ व्यापारी का बेटा उसे बेचकर भी पैसा बना सकता है। सामने जो मिटटी और कोयला है, उससे वह सोना बना सकता है। चूल्हे की राख से वह लाख बना सकता है। मैंने तुम्हें इतने रुपये दिये और तुम खाली हाथ लौटकर और रुपये मांगने आये हो। यहां से चले जाओ। तुम में काम करने की शक्ति नहीं है। तुम अपने प्रति भी ईमानदार नहीं हो।
इस लड़के ने जब दोनों के बीच की बातचीत सुनी तो उसने सेठ से कहा, “सेठजी, मैं इस मरे हुए चूहे को आपसे पूंजी के रूप में उधार ले जाना चाहता हूं।˝
यह कहकर वह लड़का वहां रुका नहीं, बल्कि उसमरे चूहे को पूंछ के सहारे उठाकर वहां से चला गया। सेठ ने उस लड़के का परिचय जानने के लिए अपने मुनीम को उसकी खोज में भेजा। पर वह लड़का तो नगर की भीड़ में खो गया था।
लौटकर मुनीम ने सेठ को इस बात की सूचना दी तो उसे बड़ी चिंता हुई। उसने अपने मुनीम से कहा, “मुनीम जी, वह लड़का बड़ा होनहार है। एक दिन वह अवश्य लखपति बनेगा। अगर मैं उसकी कुछ मदद कर सकता तो मुझे बड़ी खुशी होती।˝
उसे मरे चूहे को आखिर कौन लेतो? एक बनिये के बेटे ने अपनी बिल्ली के शिकार के लिए उसे कुछ पैसे देकर खरीद लिया। लड़के ने उन पैसों से कुछ चने और एक घड़ा खरीदा। फिर उस घड़े में जल भरकर नगर के चौराहे पर एक पेड़ के नचे बैठ गया। उस रास्ते से गुजरने वाले लोगों को वह बड़ी नम्रता से कुछ चने देकर जल पिलाता । लड़के की उस सेवा से खुश होकर वे उसे कुछ पैसे दे देते।
लकड़ी काटने के काम से बढ़ई लोग भी उसी रास्ते से गुजरते थे। वे लोग भी वहां पानी पीते और उस लड़के को बदले में लकड़ियां दे जाते। इस तरह वहां लकड़ियों का ढेर लग गया। एक दिन लकड़ी के एक व्यापारी के हाथ उस लड़के ने सारी लकड़ियां बेच दीं। लकड़ी की उस पूंजी से उसने कुछ और चने खरीदे।
वह पहले की तरह राहगीरों को चने खिलाकर पानी पिलाता रहा और बदले में पैसे और लकड़ी पाता रहा। धीरे-धीरे उसकी पूंजी बढ़ने लगी। जब उसके पास कुछ ज्यादा पैसा हो गया तो वह लकड़ियां भी खरीदने लगा। उनके बेचने पर उसे बड़ा लाभ हुआ।
लेकिन वर्षा ऋतु के आने से लकड़ियों का धंधा मंद पड़ने लगा। लोग पानी भी कम पीने लगे। तब उस लड़के ने चौराहे पर जमा लकड़ियों को लेकर बाजार में बेच दिया और उसी पूंजी से वहां उसने एक दुकान खोलदी। थोड़े ही दिनों में उसकी दुकान चल पड़ी। रोज के काम में आनेवाली सभी चीजें उस दुकान पर सस्ते दामों में मिल जाती थीं। लड़का कुछ ही दिनों में बड़ा व्यापारी बनगया। उसने वहीं अपने लिए एक मकान बनवा लिया। उसमें वह अपनी मां के साथ अच्छी तरह से रहने लगा।
एक दिन जब वह अपनी दुकान पर बैठा था, उसे अचानक उस सेठ की याद आ गई, जिसके यहां से वह मरा हुआ चूहा लाया था। उसने उसके ऋण से मुक्त होने के लिए सोने का चूहा बनवाया और उसे साथ लेकर सेठ के यहां गया। उसने सेठ से कहा, “सेठजी, आपके चूहे ने मुझे लखपति बना दिया है। मेरे जीवन की धारा ही बदल दी है।˝
सेठ उस घटना को भूल गये थे। जब लड़के ने सारी कहानी सुनाई तो उस पर वह इतने मुग्ध हो गये कि उन्होंने उसे अपने पास गद्दी पर बैठा लिया। बाद में अपनी लड़की का विवाह उसके साथ कर दिया।
कांगड़ा की लोककथा
करम का फल / मनोहरलाल
एक लड़की थी। वह बड़ी सुन्दर थी, शरीर उसका पतला था। रंग गोरा था। मुखड़ा गोल था। बड़ी-बड़ी आंखें कटी हुई अम्बियों जैसी थीं। लम्बे-लम्बे काले-काले बाल थे। वह बड़ा मीठा बोलती थी। धीरे-धीरे वह बड़ी हो गई। उसके पिता ने कुल के पुरोहित तथा नाई से वर की खोज करने को कहा, उन दानों ने मिलकर एक वर तलाश किया। न लड़की ने होनेवाले दूल्हे को देखा, न दूल्हे ने होनेवाली दुल्हन को।
धूम-धाम से उनका विवाह हो गया। जब पहली बार लड़की ने पति को देखा तो उसकी काली-कलूटी सूरत को देखकर वह बड़ी दु:खी हुई। इसके विपरीत लड़का सुन्दर लड़की को देखकर फूला न समाया।
रात होती तो लड़की की सास दूध औटाकर उसमें गुड़ या शक्कर मिलाकर बहू को कटोरा थमा देती और कहती, “जा, अपने लाड़े (पति) को पिला आ।˝ वह कटोरा हाथ में लेकर, पकत के पास जाती और बिना कुछ बोले चुपचाप खड़ी हो जाती। उसका पति दूध का कटोरा लेलेता और पी जाता। इस तरह कई दिन बीत गये। हर रोज ऐसे ही होता। एक दिन उसका पति सोचने लगा, आखिर यह बोलती क्यों नहीं। उसने निश्चय किया कि आज इसे बुलवाये बिना मानूंगा नहीं। जबतक यह कहेगी नहीं कि लो दूध पी लो, मैं इसके हाथ से कटोरा नहीं लूंगा।
उस दिन रात को जब वह दूध लेकर उसके पास खड़ी हुई तो वह चुपचाप लेटा रहा। उसने कटोरा नहीं थामा। पत्नी भी कटोरे को हाथ में पकड़े खड़ी रही, कुछ बोली नहीं। बेचारी सारी रात खड़ी रही, मगर उसने मुंह नहीं खोला। उस हठीले आदमी ने भी दूध का कटोरा नहीं लिया।
सुबह होने को हुई तो पति नेसोचा, इस बेचारी ने मेरे लिए कितना कष्ट सहा है। यह मेरे साथ रहकर प्रसन्न नहीं है। इसे अपने पास रखना इसके साथ घोर अन्याय करना है।
इसके बाद वह उसे उसके पीहर छोड़ आया। बेचारी वहां भी प्रसन्न कैसे रहती ! वह मन-मन ही कुढ़ती। वह घुटकर मरने लगी। उसे कोई बीमारी न थी। वह बाहर से एकदम ठीक लगती थी। माता-पिता को उसके विचित्र रोग की चिंता होने लगी। वे बहुत-से वैद्यों और ज्योतिषियों के पास गये, पर किसी की समझ में उसका रोग नही आया।
अंत में एक बड़े ज्योतिषी ने लड़की के रंग-रूप और चाल-ढाल को देखकर असली बात जानली। उसने उसके हाथ की रेखाएं देखीं। ज्योतिषी ने बताया, “बेटी! पिछले जन्म में तूने जैसे कर्म किये थे, तुझे ठीक वैसा ही फल मिल रहा है। इसमें नतेरा दोष है, न तेरे पति का। तेरे पति ने पिछले जन्म में सफेद मोतियों का दानकिया था और तूने ढेर सारे काले उड़द मांगने वालों की झोलियों में डाले थे। सफेद मोतियों के दानके फल से तेरे पति को सुंदर पत्नी मिली है और तुझे उड़दों जैसा काला-कलूटा आदमी मिला है।
“ऐसी हालत में तेरे लिए यही अच्छा है कि तू अपने पति के घर चली जा और मन में किसी भी प्रकार की बुरी भावना लाये बिना उसी से सांतोष कर, जो तुझे मिला है, ओर आगे के लिए खूब अच्छे-अच्छे काम कर। उसका फल तुझे अगले जन्म में अवश्य मिलेगा।”
ज्योतिषी की बात उस लड़की की समझ में आ गई और वह खुश होकर अपने पति के पास चली गई। वे लोग आंनंद से रहने लगे।
छत्तीसगढ़ की लोककथा
भाग्य की बात / श्यामाचरण दुबे
दो मित्र थे। एक ब्राह्राण था, दूसरा भाट। भाट ने एक दिन अपने मित्र से कहा, “चलो, राजा के दरबार में चलें। यदि गोपाल राजा खुश हो गया तो हमारे भाग्य खुल जायेंगे।”
ब्राह्राण ने हंसकर उसकी बात टालते हुए कहा, “देगा तो कपाल, क्या करेगा गोपाल ? भागय में होगा, वही मिलेगा।”
भाट ने कहा, “नहीं, देगा तो गोपाल, क्या करेगा कपाल ! गापाल राजा बड़ा दानी है, वह हमें अवश्य बहुत धन देगा।”
दोनों में इस प्रकार विवाद होता रहा और अंत में गोपाल राजा के दरबार में जाकर दोनों ने अपनी-अपनी बात कही। भाट की बात सुनकर राजा प्रसन्न हुआ। ब्राह्राण की बात सुनकर उसे क्रोध आया। उसने दोनों को दूसरे दिन दरबार में आने की आज्ञा दी।
दोनों मित्र दूसरे दिन दरबार में पहुंचे। राजा की आज्ञा से उसके सिपाहियों ने ब्रह्राण को एक मुटठी चावल तथा एक मुटठी दाल और कुछ नमक दे दिया। भाट को एक सेर चावल, एक सेर घी और कद्दू दिया। राजा के आदेश से कद्दू में सोना भर दिया गया। राजा ने कहा, “अब जाकर बना-खा लो। शाम को फिर दरबार में हाजिर होना।”
दरबार से चलकर वे नदी किनारे के उस स्थान पर पहुंचे, जहां उन्होंने रात बिताई थी। भाट मन-ही-मन सोच रहा था-“न जाने क्यों, राजा ने ब्राह्राण कोतो दाल दी, और मुझे यह कद्दू दे दिया। इसे छीलो, काटो और फिर बनाओ इसकी तरकारी। कौन करे इतना झंझट ? ऊपर से यह भी डर है कि कहीं सके खाने से फिर से कमर का पुराना दर्द न उभर आए।” ऐसा सोचकर उसने ब्राह्राण से कहा, “मित्र, कद्दू खाने से मरी कमर में दर्द हो जायेगा, इसे लेकर तुम अपनी दाल मुझे दे दो।” ब्राह्राण नेउसकी बात मान ली। अपना-अपना सामान लेकर दोनों रसोई में जुट गये। भाट दाल-चावल खाकर एक आम के पेड़ के नीचे सो गया। ब्राह्राण ने जब कद्दू काटा तो उसे वह सोना दिखाई दिया, जो राजा ने उसमें भरवा दिया था। उसने मन-ही-मन सोचा, “मेरे भाग्य में था, मेरे पास आ गया। गोपाल तो इसे भाट को देना चाहता था, उसने सोना एक कपड़े में बांध लिया। कद्दू का आधा भाग बचाकर आधे की तरकारी बना ली। वह भी खा-पीकर सो गया।
संध्या के समय दोनों मित्र फिर गोपाल राजा के दरबार में पहुंचे। ब्राह्राण ने शेष आध कद्दू एक कपड़े में लपेटकर अपने पास ही रख लिया था। राजा ने ब्राह्राणीकी ओर देखकर पूछा, “अब तो मान लिया, देगा तो गोपाल, क्या करेगा कापाल? “
ब्राह्राण ने आधा कद्दू राजा की ओर बढ़ा दिया और नम्रता से सिर झुकाकर कहा, “नहीं माहाराज, देगा तो कपाल, क्या करेगा गोपाल ?”
राजा ने सोचा कि ब्राह्राण सच कह रहा है। ब्राह्राण के भाग्य में सोना था, भाट के नहीं और इसीलिए भाट ने कद्दू ब्राह्राण को दे दिया। राजा ने कहा, “तुम्हारा कहना ही ठीक है। देगा तो कपाल, क्या करेगा गोपाल ?”
उसने दोनों को भेंट में धन देकर विदा कर दिया।
हरियाणा की लोककथा
बदी का फल / शशिप्रभा गोयल
किसी गांव में दो मित्र रहते थे। बचपनसे उनमें बड़ी घनिष्टता थी। उनमें से एक का नाम था पापबुद्वि और दूसरे का धर्मबुद्वि। पापबुद्वि पाप के काम करने में हिचकिचाता नहीं था। कोई भी ऐसा दिननहीं जाता था, जबकि वह कोई-न-कोई पाप ने करे, यहां तक कि वह अपने सगे-सम्बंधियों के साथ भी बुरा व्यवहार करने में नहीं चूकता था।
दूसरा मित्र धर्मबुद्वि सदा अच्छे-अच्छे काम किया करता था। वह अपने मित्रों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए तन, मन, धन से पूरा प्रयत्न करता था। वह अपने चरित्र के कारण प्रसिद्व था। धर्मबुद्वि को अपने बड़े परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता था। वह बड़ी कठिनाईयों से धनोपार्जन करता था।
एक दिन पापबुद्वि ने धर्मबुद्वि के पास जाकर कहा, “मित्र ! तूने अब तक किसी दूसरे स्थानों की यात्रा नहीं की। इसलिए तुझे और किसी सथान की कुछ भी जानकारी नहीं है। जब तेरे बेटे-पोते उन स्थानों के बारे में तुझसे पूछेंगे तो तू क्या जवाब देगा ? इसलिए मित्र, मैं चाहता हूं कि तू मेरे साथ घूमने चल।”
धर्मबुद्वि ठहरा निष्कपट। वह छल-फरेब नहीं जानता था। उसने उसकी बात मान ली। ब्राह्राण से शुभ मुहूर्त निकलवा कर वे यात्रा पर चल पड़े।
चलते-चलते वे एक सुन्दर नगरी में जाकर रहने लगे। पापबुद्वि ने धर्मबुद्वि की सहायता से बहुत-सा धन कमाया। जब अच्छी कमाई हो गई तो वे अपने घर की ओर रवाना हुए। रास्ते में पापबुद्वि मन-ही-मन सोचने लगा कि मैं इस धर्मबुद्वि को ठग कर इस सारे धन को हथिया लूं और धनवान बन जाऊं। इसका उपाय भी उसने खोज लिया।
दोनों गांव के निकट पहुंचे। पापबुद्वि ने धर्मबुद्वि से कहा, “मित्र, यह सारा धनगांव में ले जाना ठीक नहीं।”
यह सुनकर धर्मबुद्वि ने पूछा, “इसको कैसे बचाया जा सकता है? “
पापबुद्वि ने कहा, “सारा धन अगर गांव में ले गये तो इसे भाई बटवा लेंगे और अगर कोई पुलिस को खबर कर देगा तो जीना मुश्किल हो जायगा। इसलिए इस धन में से आवश्यकता के अनुसार थोड़ा-थोड़ा लेकर बाकी को किसी जंगल में गाड़ दें। जब जरुरत पड़ेगी तो आकर ले जायेंगे।”
यह सुनकर धर्मबुद्वि बहुत खुश हुआ। दोनों ने वैसा ही किया और घर लौट गए।
कुछ दिनों बाद पापबुद्वि उसी जंगल में गया और सारा धन निकालकर उसके स्थान पर मिटटी के ढेले भर आया। उसने वह धन अपने घर में छिपा लिया। तीन-चार दिन बाद वह धर्मबूद्वि के पास जाकर बोला, “मित्र, जो धन हम लाये थे वह सब खत्म हो चुका है। इसलिए चलो, जंगल में जाकर कुछ धन और लें आयें।”
धर्मबुद्वि उसकी बात मान गया और अगलेदिन दोनों जंगल में पहुंचे। उन्होंने गुप्त धन वाली जगह गहरी खोद डाली, मगर धन का कहीं भी पता न था। इस पर पापबुद्वि ने बड़े क्रोध के साथ कहा, “धर्मबुद्वि, यह धन तूने ले लिया है।”
धर्मबुद्वि को बड़ा गुस्सा आया। उसने कहा, “मैंने यह धन नहीं लिया। मैंने अपनी जिंगी में आज तक ऐसा नीच काम कीभी नहीं किया ।यह धन तूने ही चुराया है।”
पापबुद्वि ने कहा, “मैंने नहीं रचुराया, तूने ही चुराया है। सच-सच बता दे और आधा धन मुझे दे दे, नहीं तो मैं न्यायधीश से तेरी शिकायत करूंगा।”
धर्मबुद्वि ने यह बात स्वीकार कर ली। दोनों न्यायालय में पहुंचे। न्ययाधीश को सारी घटना सुनाई गई। उसने धर्मबुद्वि की बात मान ली और पापबुद्वि को सौ कोड़े का दण्ड दिया। इस पर पापबुद्वि कांपने लगा और बोला, “महाराज, वह पेड़ पक्षी है। हम उससे पूछ लें तो वह हमें बता देगा कि उसके नीचे से धन किसने निकाला है।”
यह सुनकर न्यायधीश ने उनदोनों को साथ लेकर वहां जाने का निश्यच किया। पापबुद्वि ने कुछ समय के लिए अवकाश मांगा और वह अपने पिता के पास जाकर बोला, “पिताजी, अगर आपको यह धन और मेरे प्राण बचाने हों तो आप उस पेड़ की खोखर में बैठ जायं और न्यायधीश के पूछने पर चोरी के लिए धर्मबुद्वि का नाम ले दें।”
पिता राजी हो गये। अगले दिन न्यायधीश, पापबुद्वि और धर्मबुद्वि वहां गये। वहां जाकर पापबुद्वि ने पूछा, “ओ वृक्ष ! सच बता, यहां का धन किसने चुराया है।”
खोखर में छिपे उसके पिता ने कहा, “धर्मबुद्वि ने।”
यह सुनकर न्यायधीश धर्मबुद्वि को कठोर कारावास का दण्ड देने के लिए तैयार हो गये। धर्मबुद्वि ने कहा, “आप मुझे इस वृक्ष को आग लगाने की आज्ञा दे दें। बाद में जो उचित दण्ड होगा, उसे मैं सहर्ष स्वीकार कर लूंगा।”
न्यायधीश की आज्ञा पाकर धर्मबुद्वि ने उस पेड़ के चारों ओर खोखर में मिटटी के तेलके चीथड़े तथा उपले लगाकर आग लगा दी। कुछ ही क्षणों में पापबुद्वि का पिता चिल्लाया “अरे, मैं मरा जा रहा हूं। मुझे बचाओ।”
पिता के अधजले शरीर को बाहर निकाला गया तो सच्चाई का पता चल गया। इस पर पापबुद्वि को मृत्यु दण्ड दिया गया। धर्मबुद्वि खुशी-खुशी अपने घर लौट गया।
उत्तरप्रदेश की लोककथाएं
चन्दन वन / शिवानन्द
एक राजा शिकार खेलते हुए दूर सघन वन में पहुंच गया। लौटते समय वह मार्ग भूल गया। भटकते-भटकते उसे एक मंद प्रकाश दिखाई दिया। उस प्रकाश की ओर बढ़ते-बढ़ते वह एक घोंपड़ी के समीप आ गया, जहां एक निर्धन भील रहता था। राज ने भील के द्वार को खटखटाया और उसकी झोंपड़ी में शरण ली। भील ने राजा का स्वागत-सत्कार किया। राजा ने सुख से रात्रि व्यतीत की। प्रात:काल विदा होते हुए राजा ने पूछा, “भील,तुम्हारी आजीविका का साधन क्या है ?”
भील ने उत्तर दिया, “महाराज, मैं वन से लकड़ी काटकर लाता हूं और उसका कोयला बनाकर बाजार में बेच आता हूं।”
राजा प्रसन्न होकर भील को अपने राज्य मे ले गया ओर पुरस्कार के रूप में उसे एक छोटा-सा चंदन-वन दे दिया। भील कुटी बनाकर सुखपूर्वक रहने लगा।
एक वर्ष के बाद राजा उस चंदन-वन को देखने के लिए गया; वह यह देखकर चकित रह गया कि वन प्राय: उजड़ चुका था और भील उस झोंपड़ी में दयनीय अवस्था में रह रहा था। राजा ने उससे पूछा, “तुमने वन का क्या किया ?”
भील ने उत्तर दिया, “महाराज, पहले तो मैं दूर से लकड़ी काटकर लाता था और फिर कोयला बना लेता था। अब मैं यहीं लकड़ी का कोयला बना लेता हूं, और उसे बेच कर अपना बुजारा करता हूं। अब तो सारा वन कट चुका, केवल एक वृक्ष बचा है।”
राजा को उसकी मूर्खता पर बड़ा दु:ख हुआ और उसने कहा, “भील, तम बहुत ही मूर्ख है। तूने चंन-वन का महत्व ही नहीं समझा। इस वृक्ष की छोटी-सी लकड़ी काटकर उसे बाजार में बेचकर आ।”
भील वृक्ष की छोटी-सी लकड़ी काटकर उसे बाजार में ले गया और उसने उसे बेच दिया। भील को उससे काफी पैसा मिल गया। वह बहुत ही चकित होकर राजा के पास लौट गया। भील के ह्रदय में अपनी अज्ञानता पर बड़ा क्षोभ था। उसने राजा से कहा, “महाराज, मैंने आपके उपहार का मूल्य नहीं समझा।”
राजा ने उसे समझाकर कहा, “भील, जो कुछ हानि हो गई, उस पर अब पछताने से क्या लाभ है ? अब इस वृक्ष का ठीक मूल्य समझो। इसमें से थोड़ी-थोड़ी लकड़ी काटकर धन कमाते रहो ओर नये-नये वृक्ष लगाते रहो। आगे चलकर फिर एक हरा-भरा चंदन-वन हो जायगा।”
नाविक का दायित्व / आनन्द
एक नौका जनल में विहार कर रही थी। अकस्मात् आकाश में मेघ घिर आये और घनघोर वर्षा होने लगी। वायु-प्रकोप ने तूफान को भीषण करदिया। यात्री घबराकर हाहाकार करने लगे और नाविक भी भयभीत हो गया। नाविक ने नौका को तट पर लाने के लिए जी-जान से परिश्रम करना प्रारम्भ कर दिया। वह अपने मजबूत हाथों से नाव को खेता ही रहा, जब तक कि वह बिल्कुल थक ही न गया। किंतु थकने पर भी वह नाव को कैसे छोड़ दे ? वह अपने थके शरीर से भी नौका को पार करने में जुट गया।
धीरे-धीरे नौका में जल भरने लगा और यात्रियों के द्वारा पानी को निकालने का प्रयत्न करने पर भी उसमें लज भरती ही गया। नौका धीरे-धीरे भारी होने लगी, पर नाविक साहसपूर्वक जुटा ही रहा। अंत में उसे निराशा ने घेर लिया। अभी किनारा काफी दूर था और नौका जल में डूबने लगी। नाविक ने हाथ से पतवार फेंक दी, और सिर पकड़कर बैठ गया। कुछ ही क्षणों में मौका डूब गयी। सभी यात्री प्राणों से हाथ धो बैठे। यमराज के पार्षद आये और नाविक को नरक के द्वार पर ले गये। नाविक ने पूछा, “कृपा करके मेरा अपराध तो बताओ कि मुझे नरक की ओर क्यों घसीटा जा रहा है ?”
पार्षदों ने उत्तर दिया, “नाविका, तुम पर मौका के यात्रियों को डुबाने का पाप लगा है।”
नाविक चकित होकर बोला, “यह तो कोई न्याय नहीं है। मैंने तो भरसक प्रयत्न किया कि यात्रियों की रक्षा हो सके।”
पार्षदों ने उत्तर दिया, “यह ठीक है कि तुमने परिश्रम किया, किंतु तुमे अंत में नौका चलाना छोड़ दिया था। तुम्हारा कर्तव्य था कि अंतिम श्यास तक नौका को खेते रहते। नौका के यात्रियों की जिम्मेदारी तुम पर थी। तुम पर उनकी हत्या का दोष लगा है।”
महाकाल की दृष्टि / शिव
देव-समाज के वृहद् महोत्सव का आयोजन हो रहा था। सभी देवता अपने-अपने वाहनों में आ रहे थे। महादेव शंकर सभा में प्रवेश कर रहे थे। उन्होंने सभा-भवन के बाहर स्थित एक वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए एक शुक की ओर कुछ गम्भीर दृष्टि से देखा। शंकर तो सभा-भवन में चले गये, किंतु उस शुक के मन में चिंता उत्पन्न हो गयी। समीप बैठे गरुड़ से उसने अपनी आशंका का निवेदन किया। उसके बचने का उपाय सोचकर गरुड़ ने कहा, “शुकराज, मैं तुम्हें द्रुतगति से अनेक समुद्रों को पार करा कर किसी सुरक्षित स्थान पर छोड़ आता हूं। चिंता मत करो।”
गरुड़ ने पूरी शक्ति से उड़कर बहुत कम समय में अनेक समुद्र पार करके उसे दूर कहीं सुरक्षित स्थान पर बैठा दिया। शुक्र आश्वस्त हो गया कि वह प्रलयकर शंकर की कठोर दृष्टि से बच गया। गरुड़ लौटकर पुन: उसी वृक्ष पर जा बैठा और उत्सुकता से शंकर के सभा से बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगा।
शंकर निकले। उन्होंने पुन: वृक्ष की उसी शाखा की ओर देखा। गरुड़ ने सहम कर उनकी गम्भीर दृष्टि का कारण पूछा।
शंकर बोले, “शुक्र कहां है ?”
गरुड़ ने कहा, “भगवान् ! शुक आपकी तीक्ष्ण दृष्टि से भयभीता हो गया था और मैंने उसे दूर एक सुक्षित स्थान पर बैठा दिया है।”
शंकर ने कहा, “यही तो मेरा आश्चर्य था कि कुछ ही क्षण के बाद वह शुक उसी स्थान पर एक महासर्प द्वारा कवलित हो जायगा। तुमने उस समस्या का उपाय कर दिया।”
गुजरात की लोककथा
जटा हलकारा / झवेरचंद मेघाणी
नपुंसक पति की घरवाली-सी वह शोकभरी शाम थी। अगले जन्म की आशा के समान कोई तारा चमक रहा था। अंधेरे पखवाड़े के दिन थे।
ऐसी नीरस शाम को आंबला गांव के चबूतरे पर ठाकुरजी की आरती की सब बाट देख रहे थे। छोटे-छोटे अधनंगे बच्चों की भीड़ लगी थी। किसी के हाथ में चांद-सी चमकती कांसे की झालर झूल रही थी तो कोई बड़े नगाड़े पर चोट लगाने की प्रतीक्षा कर रहा था। छोटे-छोटे बच्चे इस आशा से नाच रहे थे कि प्रसाद में उन्हें मिस्री का एकाध टुकड़ा, नाररियल की एक-दो फांकें तथा तुलसी दल से सुगंधित मीठा चरणमृत मिलेगा। बाबाजी ने अभी तक मंदिर को खोला नहीं था। कुंए के किनारे पर बैठे बाबाजी स्नान कर रहे थे।
बड़ी उम्र के लोग नन्हें बच्चों को उठाये आरती की प्रतीक्षा में चबूतरे पर बैठे थे। सब चुप्पी साधे थे। उनके अंतर अपने आप गहरारई में ब्ैठते जा रहे थे। यह ऐसी शाम थी।
बड़ी उदास थी आज की शाम। अत्यंत धीमी आवाज में किसी ने बड़े दु:ख से कहा, “ऋतुएं मंद पड़ती जा रही है।”
दूसरा इस दु:ख में वृद्वि करते हुए बोला, “यह कलियुग है। अब कलियुग में ऋतुएं खिलती नहीं हैं। खिलें तो कैसे खिलें!”
तीसरे ने कहा, “ठाकुरजी का मुखारबिन्दु कितना म्लान पड़ गया है।”
चौथा बोला, “दस वर्ष पहले उनके मुख पर कितना तेज था।”
बड़-बूढ़े लोग धीमी आवाज में तथा अधमुंदी आंखों से बातों में तल्लीन थे। उसी समय आंबला गांव के बाजार में दो व्यक्ति सीधे चले आ रहे थे। आगे पुरुष और पीछे स्ती्र। पुरुष की कमर में तलवार और हाथ में लकड़ी थी। स्त्री के सिर पर बड़ी गठरी थी। पुरुष को एकदम पहचाना नहीं जा सकता था, परंतु राजपूतनी अपने पैरों कीचाल से ओर घेरदार लहंगे तथा ओढ़नी से पहचानी जाती थी।
राजपूत ने लोगों को ‘राम-राम’ नहीं किया, इससे गांव के लोग समझ गये किये अजनबी हैं। अपनी ओर से ही लोगों ने कहा, ‘राम-राम’।
उत्तर में ‘राम-राम’ कहकर यात्री जल्दी-जल्दी आगे चल पड़ा। उसके पीछे राजपूतनी अपने पैरों की एड़ियों को ढकती हुई बढ़ चली। एक-दूसरे के मुंह की ओर देखकर लोगों ने कहा, “ठाकुर, कितनी दूर जाना है ?”
“यही कोई आधा मील।” जवाब मिला।
“तब तो आत लोग यहां रुक जाइये ? “
“क्यों ? इतना जोर क्यों दे रहे हैं?” यात्री ने कुछ तेजी से कहा।
“इसका कोई खास कारण तो नहीं है, परंतु समय अधिक हो गया और साथ में महिला है। इसी से हम कह रहे हैं। अंधेरे में अकारण जोखिम क्यों लेते हैं? फिर यहां हम सब आपके ही भाई-बंद तो हैं। इसलिए आप रुक जाइये।”
मुसाफिर ने जवाब दिया, “अपनी ताकत का अंदाजा लगा करके ही मैं सफर करता हूं। मार्दों के लिए समय-समय क्या होता है ! अब तक तो अपने से बढ़कर कोई बहादुर देखा नहीं है।”
आग्रह करने वाले लोगों को बड़ा बुरा लगा। किसी ने कहा, “ठीक है, वरना चाहते हैं तो इन्हें मरने दो।”
राजपूत और राजपूतानी आगे बढ़ गये।
दोनों जंगल में चले जा रहे थे। सूर्य अस्त हो गया था। दूर से मंदिर में आरती के घंटे की ध्वनि सुनाई दे रही थी। दूर के गांवों के दीपक टिमटिमा रहे थे और कुत्ते भौंक रहे थे।
मुसाफिर ने अचानक पीछे घुंघरू की आवाज सुी। राजपूतनी ने पीछे मुड़कर देखा तो उसे सणोसरा का जटा हलकारा कंधे पर डाक की थैली लटकाये, हाथ में घुंघरू वाला भाला लिये, जाते हुए दिखाई दिया। उसकी कमर में फटे मयानवाली तलवार लटकी हुई थी। जटा हलकारा दुनिया की आशा-निराशा और शुभ-अशुभ की थैली कंधे पर लेकर जा रहा था। कुछ परदेश गये पुत्रों की वृद्व माताएं ओर प्रवासियों की स्त्रियां साल-छ: महीने में चिटठी मिलने की आस लगाये बैठी राह देखती होगी, यह सोचकर नहीं,बल्कि देरी हो जायेगी तो वेतन कट जरयगा, इस डर से जटा हलकारा दौड़ा जा रहा था। भाले के घुंघरू इस अंधेरे एकांत रात में उसके साथी बने हुए थे।
देखते-ही-देखते हलकारा पीछे चलती राजपूतनी के पास पहुंच गया। दोनों ने एक-दूसरे की कुशल पूछी। राजपूतनी का मायका सणोसरा में था। हलकारा सणोसरा से ही आ रहा था। इसलिए राजपूतनी अपने मां-बाप के समाजचार पूछने लगी। पीहर के गांव से आनेवाले अपरिचित पुरुष को भी स्त्री अपने सगे भाई-सा समझती है। दोनों बातें करते हुए साथ चलने लगे।
राजपूत कुछ कदम आगे था। राजपूतनी को पीछे रह जाते देखकर उसने मुड़कर देखा। दूसरे आदमी के साथ बातें करते देखकर उसने उसको भला-बुरा कहा और धमकाया।
राजपूतनी ने कहा, “मेरे पीहर का हलकारा है। मेरा भाई है।”
“देख लिया तेरा भाई ! चुपचाप चली आ।” राजपूत ने भौंहें चढ़ाकर कहा, फिर हलकारे से बोला, “तुम भी तो आदमी-आदमी को पहचानो।”
ठीक है, बापू !” यों कहकर हलकारे ने अपननी चाल धीमी करदी। एक खेत जितनी दूरी रखकर वह चलने लगा।
जब यह राजपूत जोड़ी नदी पर पहुंची तो एक साथ बाररह आदमियों ने ललकारा, “खबरदार, जो आगे बढ़े ! तलवार नीचे डाल दो।”
राजपूत के मुंह से दो-चार गालियां निकलीं, परंतु म्यान से तलवार नहीं निकल पायी। आंबला गांव के बाहर कोलियों ने आकर उस राजपूत को रस्सी से बांध दिया और दूर पटक दिया।
“बाई, गीहने उतार दो।” एक लुटेरे ने राजपूतनी से कहा।
बेचारी राजपूतनी अपने शरीर पर से एक-एक गहना उतारने लगी। हाथ, पैर, सीना आदि अंग लुटेरों की आंखों के आगे आये। उसकी भरी हुई देह ने लुटेरों की आंखों में काम-वासना उभार दी। जवान कोलियों ने पहले तो उसका मजाक उड़ाना शुरू किया। राजपूतनी शांत रही, लेकिन जब लुटेरे बढ़कर उसके निकट आने लगे तो जहरीली नागिन की तरह फुफकारती हुई राजपूतनी खड़ी हो गई।
कोलियों ने यह देखकर अटटहास करते हुए कहा, “अरे ! उस समी की पूंछ को धरती पर पटक दो !”
अंधेरे में राजपूतनी ने आकश की ओर देखा। जटा हलकारा के घुंघरू की आवाज उसके कानों में पड़ी।
राजपूतनी चीख उठी, “भाई, दौड़ो ! बचाओ !”
हलकारे ने तलवार खींच ली और पलक मारते वहां जा पहुंचा। बोला, “खबरदार, जो उस पर हाथ उठाया !”
बारह कोली लाठियां लेकर उस पर टूट पड़े। हलकारे ने तलवार चलायी और सात कोलियों को मौत के घाट उतार दिया। उसके सिर पर लाठियों की वर्षा हो रही थी, परंतु हलकारे को लाठियों की चोट का पता ही नहीं था। राजपूतनी ने शोर मचा दिया। मारे डर के बचे हुए लुटेरे भाग गये। उनके जाते ही हलकारा चक्कर खाकर गिर पड़ा ओर उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।
राजपूतनी ने अपने पति की रस्सियां खोल दीं। उठते ही राजपूत बोला, “अब हम चलें।”
“कहां चलें?” स्त्री ने दु:खी होकर कहा, “तुम्हें शर्म नहीं आती ! दो कदम साथ चलनेवाला वह ब्राह्राण, घड़ी भर की पहचान के कारण, मेरे शील की रक्षा करते मरा पड़ा है। और मेरे जन्म भर के साथी, तुम्हें अपना जीवन प्यारा लगता है ! ठाकुर, चले जाओ अपने रास्ते। अब हमारा काग और हंस का साथ नहीं हो सकता। मैं तो अब अपने बचानेवाले ब्राह्राण की चिता में ही भस्म हो जाऊंगी !”
“ठीक है, तेरी जैसी मुझे और मिल जायगी।” कहता हुआ राजपमत वहां से चला गया।
हलकारे के शव को गोद में लेकर राजपूतनी सवेरे तक उस भयंकर जंगल में बैठी रही। उजाला होने पर उसने इर्द-गिर्द से लकड़ियां इकटठी करके चिता रची। शव को गोद में लेकर स्वयं चिता पर चढ़ गई। अग्नि सुलग उठी। दोनों जलकर खाक हो गये। कायर पति की सती स्त्री जैसी शोकातुर संध्या की उस घड़ी में चिता की क्षीण ज्योति देर तक चमकती रही।
आंबला और रामधारी के बीच के एक नाले में आज भी जटा और सती की स्मृति सुरक्षित है।
महाराष्ट्र की लोककथा
चार मित्र / मुरलीधर जगताप
बहुत दिन पहले की बात है। एक छोटा-सा नगर था, पर उसमें रहने वाले लोग बड़े दिलवाले थे। ऐसे न्यारे नगर में चार मित्र रहते थे। वे छोटी उमर के थे, पर चारों में बड़ा मेल था। उनमें एक था। राजकुमार, दूसरा राजा के मंत्री का पुत्र, तीसरा सहूकार का लड़का और चौथा एक किसान का बेटा। चारों साथ-साथ खाते-पीते और खेलते-घूमते थे।
एक दिन किसान ने अपने पुत्र से कहा, “देखो बेटा, तुम्हारे तीनों साथी धनवान हैं और हम गरीब हैं। भला धरती और आसमान का क्या मेल !”
लड़का बोला, “नहीं पिताजी, मैं उनका साथ नहीं छोड़ सकता। बेशक यह घर छोड़ सकता हूं।”
बाप यह सुनकर आग-बबूला हो गया और लड़के को तुरंत घर छोड़ जाने की अज्ञा दी। लड़के ने भी राम की भांति अपने पिता की अज्ञा शिरोधार्य कर ली और सीधा अपने मित्रो के पास पहुंचा। उन्हें सारी बात बताई। सबने तय किया कि हम भी अपना-अपना घर छोड़कर मित्र के साथ जायंगे। इसके बाद सबने अपने घर और गांव से विदा ले ली और वन की ओर चल पड़े।
धीरे-धीरे सूरज पश्चिम के समुन्दर में डूबता गया और धरती पर अंधेरा छाने लगा। चारों वन से गुजर रहे थे। काली रात थी। वन में तरह-तरह की आवाजें सुनकर सब डरने लगे। उनके पेट में भूख के मारे चूहे दौड़ रहे थे। किसान के पुत्र ने देखा, एक पेड़ के नीचे बहुत-से जुगनू चमक रहे हैं।वह अपने साथियों को वहां ले गया और उन्हें पेड़ के नीचे सोने के लिए कहा। तीनों को थका-मांदा देखकर उसका दिल भर गया। बोला, “तुम लोगों ने मेरी खातिर नाहक यह मुसीबत मोल ली।”
सबने उसे धीरज बंधाया और कहा, “नहीं-नहीं, यह कैसे हो सकता है कि हमारा एक साथी भूखा-प्यासा भटकता रहे और हम अपने-अपने घरों में मौज उड़ायें। जीयेंगे तो साथ-साथ, मरेंगे तो साथ-साथ।”
थोड़ी देर बाद वे तीनों सो गये, पर किसान के लड़के की आंख में नींद कहां! उसने भगवान से प्रार्थना की, “हे भगवान ! अगर तू सचमुच कहीं है तो मेरी पुकार सुनकर आ जा और मेरी मदद कर।”
उसकी पुकार सुनकर भगवान एक बूढ़े के रूप में वहां आ गये। लड़के से कहा, “मांग ले, जो कुछ मांगना है। यह देख, इस थैली में हीरे-जवाहरात भरे हैं।”
लड़के ने कहा, “नहीं, मुझे हीरे नहीं चाहिए। मेरे मित्र भूखे हैं। उन्हें कुछ खाने को दे दो।”
भगवान ने कहा, “मैं तुम्हें भेद की एक बात बताता हूं। वह जो सामने पेड़ है न….आम का, उस पर चार आम लगे हैं-एक पूरा पका हुआ, दूसरा उससे कुछ कम पका हुआ, तीसरा उससे कम पका हुआ और चौथा कच्चा।”
“इसमें भेद की कौन-सी बात ?” लड़के ने पूछा।
भगवान ने कहा, “ये चारों आम तुम लोग खाओ। तुममें से जो पहला आम खायगा, वह राजा बन जायगा। दूसरा आम खाने वाला राजा का मंत्री बन जायगा। जो तीसरा आम खायगा, उसके मुंह से हीरे निकलेंगे और चौथा आम खानेवाले को उमर कैद की सजा भोगनी पड़ेगी।” इतना कहकर बूढ़ा आंख से ओझल हो गया।
तड़के सब उठे तो किसान के पुत्र ने कहा, “सब मुंह धो लो।” फिर उसने कच्चा आम अपने लिए रख लिया और बाकी आम उनको खाने के लिए दे दिये।
सबने आम खा लिये। पेट को कुछ आराम पहुंचा तो सब वहां से चल पड़े। रास्ते में एक कुआं दिखाई दिया। काफी देर तक चलते रहने से सबको फिर से भूख-प्यास लग आई। इसिलिए वे पानी पीने लगे। राजकुमार ने मुंह धोने के इरादे से पानी पिया और फिर थूक दिया तो उसके मुंह से तीन हीरे निकल आये। उसे हीरे की परख थी। उसने चुपचाप हीरे अपनी जेब में रख लिए।
दूसरे दिन सुबह एक राजधानी में पहुंचने के बाद उसने एक हीरा निकालकर मंत्री के पुत्र को दिया और खाने के लिए कुछ ले आने को कहा।
वह हीरा लेकर बाजार पहुंचा ता देतखता क्या है कि रास्ते में बहुत-से लोग जमा हो गये हैं। कन्धे-से-कन्धा ठिल रहा है। गाजे-बाजे के साथ एक हाथी आ रहा है। उसने एक आदमी से पूछा, “क्यों भाई, यह शोर कैसा है ?”
“अरे, तुम्हें नहीं मालूम ?” उस आदमी ने विस्मय से कहा।
“नहीं तो।”
“यहां का राजा बिना संतान के मर गया है। राज के लिए राजा चाहिए। इसलिए इस हाथी को रास्ते में छोड़ा गया है। वही राजा चुनेगा।”
“सो कैसे ?”
“हाथी की सूंड में वह फल-माला देख रहे हो न ?”
“हां-हां।”
“हाथी जिसके गले में यह माला डालेगा, वही हमारा राजा बन जायगा। देखो, वह हाथी इसी ओर आ रहा है। एक तरफ हट जाओ।”
लड़का रास्ते के एक ओर हटकर खड़ा हो गया। हाथी ने उसके पास आकर अचानक उसी के गले में माला डाल दी। इसी प्रकार मंत्री का पुत्र राजा बन गया। उसने पूरा पका हुआ आम जो खाया था। वह राजवैभव में अपने सभी मित्रों को भूल गया।
बहुत समय बीतने पर भी वह नहीं लौटा, यह देखकर राजकुमार ने दूसरा हीरा निकाला और साहूकार के पुत्र को देकर कुछ लाने को कहा। वह हीरा लेकर बाजार पहुंचा। राज को राजा मिल गया था, पर मंत्री के अभाव की पूर्ति करनी थी, इसलिए हाथी को माला देकर दुबारा भेजा गया। किस्मत की बात ! अब हाथी नेएक दुकान के पास खड़े साहूकार के पुत्र को ही माला पहनाई। वह मंत्री बन गया और दोस्तों को भूल गया।
इधर राजकुमार और किसान के लड़के का भूख के मारे बुरा हाल हो रहा था। अब क्या करें ? फिर किसान के पुत्र ने कहा, “अब मैं ही खाने की कोई चीज ले आता हूं।”
राजकुमार ने बचा हुआ तीसरा हीरा उसे सौंप दिया। वह एक दुकान में गया। खाने की चीजें लेकर उसने अपने पास वाला हीरा दुकानदार की हथेली पर रख दिया। फटेहाल लड़के केपास कीमती हीरा देखकर दुकानदार को शक हुआ कि, हो न हो, इस लड़के ने जरूर ही यह हीरा राजमहल से चुराया होगा। उसने तुरंत पुलिस के सिपाहियों को बुलाया। सिपाही आये। उन्होंने किसानके लड़के की एक न सुनी और उसे गिरफतार कर लिया। दूसरे दिनउेस उमर कैद की सजा सुनाई गई। यह प्रताप था कच्चे आम का।
बेचारा राजकुमार मारे चिंता के परेशान था। वह सोचने लगा, यह बड़ा विचित्र नगर है। मेरा एक भी मित्र वापस नहीं आया। ऐसे नगर में न रहना ही अच्छा। वह दौड़ता हुआ वहां से निकला और दूसरे गांव के पास पहुंचा। रास्ते में उसे एक किसान किला, जो सिर पर रोटी की पोटली रखे अपने घर लौट रहा था। किसाननेउसे अपने साथ ले लिया और भोजन के लिए अपने घर ले गया।
किसान के घर पहुंचने के बाद राजकुमार ने देखा कि किसान की हालत बड़ी खराब है। किसान ने उसे अच्छी तरह नहलाया और कहा, मैं गांव का मुखिया था। रोज तीन करोड़ लोगों को दान देता था, पर अब कौड़ी-कौड़ी के लिए मोहताज हूं।
राजकुमार बड़ा भूखा था, उसने जो रूखी-सूखी रोटी मिली, वह खा ली। दूसरे दिन सुबह उठने के बाद जब उसने मुंह धोया तो फिर मुंह से तीन हीरे निकले। वे हीरे उसने किसान को दे दिये। किसान फिर धनवान बन गया और उसने तीन करोड़ का दान फिर से आरम्भ कर दिया। राजकुमार वहीं रहने लगा और किसान भी उससे पुत्रवत् प्रेम करने लगा।
किसान के खेत में काम करने वाली एक औरत से यह सुख नहीं देखा गया। उसने एक वेश्या को सारी बात सुनाकर कहा, “उस लड़के को भगाकर ले आओ तो तुम्हें इतना धन मिलेगा कि जिन्दगी भर चैन की बंसी बजाती रहोगी।” अब वेश्या ने एक किसान-औरत का रूप रख लिया और किसान के घर जाकर कहा, “मैं इसकी मां हूं। यह दुलारा मेरी आंखों का तारा है। मैं इसके बिना कैसे ज सकूंगी ? इसे मेरे साथ भेज दो।” किसान को उसकी बात जंच गई। राजकुमार भी भुलावे में आकर उसके पीछे-पीछे चल दिया।
घर आने पर वेश्या ने राजकुमार को खूब शराब पिलाई। उसने सोचा, लड़का उल्टी करेगा तो बहुत-से हीरे एक साथ निकल आयंगे। उसकी इच्छा के अनुसार लड़के को उल्टी हो गई। लेकिन हीरा एक भी नहीं निकला। क्रोधित होकर उसने राजकुमार को बहुत पीटा और उसे किसान के मकान के पीछे एक गडढे में डाल दिया।
राजकुमार बेहोश हो गया था। होश में आने पर उसने सोचा, अब किसानके घर जाना ठीक नहीं होगा, इसलिए उसने बदन पर राख मल ली और संन्यासी बनकर वहां से चल दिया।
रास्ते में उसे सोने की एक रस्सी पड़ी हुई दिखाई दी। जैसे ही उसने रस्सी उठाई, वह अचानक सुनहरे रंग का तोता बनगया। तभी आकाशवाणी हुई, “एक राजकुमारी नेप्रण किया है कि वह सुनहरे तोते के साथ ही ब्याह करेगी।”
अब तोता मुक्त रूप से आसमान में उड़ता हुआ देश-देश की सैर करने लगा। होते-होते एक दिन वहउसी राजमहल के पास पहुंचा, जहां की राजकुमारी दिन-रात सुनहरे तोते की राह देख रही थी और दिन-ब-दिन दुबली होती जा रही थी। उसने राजा से कहा, “मैं इस सुनहरे तोते के साथ ही ब्याह करूंगी।” राजा को बड़ा दु:ख हुआ कि ऐसी सुन्दर राजकुमारी एक तोते के साथ ब्याह करेगी! पर उसकी एक न चली। आखिर सुनहरे तोते के साथ राजकुमारी का ब्याह हो गया। ब्याह होत ही तोता सुन्दरराजकुमार बन गया। यह देखकर राजा खुशी से झूम उठा। उसने अपनी पुत्री को अपार सम्पत्ति, नौकर-चकर, घोड़े और हाथी भेंट-स्वरूप दिये। आधा राज्य भी दे दिया।
नये राजा-रानी अपने घर जाने निकले। राजा पहले गांव के मुखिया किसानसे मिलने गया, जो फिर गरीब बन गया था। राजा ने उसे काफी संपत्ति दी, जिससे उसका तीन करोड़ का दान-कार्य फिर से चालू हो गया।
अब राजकुमार को अपने मित्रों की याद आई। उसने पड़ोस के राज्य की राजधानी पर हमला करने की घोषणा की, पर लड़ाई आरंभ होने से पहले ही उस राज्य का राजा अपने सरदारों-मुसाहिबों सहित राजकुमार से मिलने आया। उसने अपना राज्य राजकुमार के हवाले करने की तैयारी बताई। राजा की आवाज से राजकुमार ने उसे पहचान लिया और उससे कहा, “क्यों मित्र, तुमने मुझे पहचाना नहीं?” दोनों ने एक-दूसरे को पहचना तो दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब दोनों ने मिलकर अपने साथी, किसान केपुत्र को खोजना आरम्भ किया। राजकुमार को यह बात खलने लगी कि उसकी खातिर मित्र को कारावास भुगतना पड़ा। जब सब कैदियों को रिहा किया गया तो उनमें किसान का लड़का मिलगया। राजकुमार ने उसका आलिंगन किया और अपना परिचय दिया। किसान का लड़का खुशी से उछल पड़ा। सब फिर से इकट्ठे हो गए।
इसके बाद सबने अपनी-अपनी सम्पत्ति एकत्र की और उसके चार बराबर हिस्से किए। सबको एक-एक हिस्सा दे दिया गया। सब अपने गांव वापस आ गये। माता-पिता से मिले। गांव भर में खुशी की लहर दौड़ गई सबके दिन सुख से बीतने लगे।


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किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...