गुरुवार, 16 जुलाई 2020

प्रवीण परिमल की कविताये




: 'प्रेम का रंग नीला'

प्रेम-दिवस पर एक कविता .....
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            •••• वह लड़की ••••

अक्सर गुमसुम रहती है वह लड़की !
उसकी आँखें सपनीली हैं -----
      झील से भी ज्यादा गहरी
      रात से भी ज्यादा काली
      वासना से भी ज्यादा नशीली
      और घटाओं से भी ज्यादा आर्द्र

      और मुझे सपनों से प्यार है,
      आर्द्रता से प्यार है ।

अक्सर उदास रहती है वह लड़की !
उसके होंठ रसीले हैं ----
       लाल गुलाब से भी ज्यादा सुर्ख
       शहतूत से भी ज्यादा रसभरे
       सांसों से भी ज्यादा गर्म
       और रेशम से भी ज्यादा कोमल

        और मुझे रसमयता से प्यार है,
        कोमलता से प्यार है  ।

अक्सर ख़ामोश रहती है वह लड़की !
उसका चेहरा गंभीर है  -----
          एकान्त से भी ज्यादा शान्त
          समुद्र से भी ज्यादा अथाह
          पहाड़ से भी ज्यादा तटस्थ
          और आकाश से भी ज्यादा                                                         निश्चिंत

          और मुझे गंभीरता से प्यार है,
          निश्चिंतता से प्यार है ।

अक्सर तन्मय् रहती है वह लड़की !
उसका मन भावुक है ----
             तितलियों से भी ज्यादा शोख़
             नववधू से भी ज्यादा शर्मीली
             परियों से भी ज्यादा चंचल
             और चिड़ियों से भी ज्यादा संतोषी

             और मुझे भावुकता से प्यार है,
             संतोष से प्यार है ।

अक्सर मर्यादित रहती है वह लड़की !
उसकी देह कुआंरी है ----
               गंगाजल से भी ज्यादा निर्मल
               ' गीता ' से भी ज्यादा पवित्र
               ऋचाओं से भी ज्यादा सरल
               और श्लोकों से भी ज्यादा स्पष्ट

              और मुझे कौमार्य से प्यार है,
              स्पष्टता से प्यार है ।

अक्सर मुझमें रहती है वह लड़की !
उसका व्यक्तित्व असाधारण है  -----
                सृष्टि से भी ज्यादा निखिल
                इतिहास से भी ज्यादा विराट
                कल्पना से भी ज्यादा गरिमामय
                और ईश्वरत्व से भी ज्यादा महान्

                और मुझे असाधारणता से प्यार है,
                महानता से प्यार है ।

यानी , मुझे उस लड़की से प्यार है -----
जिसकी आँखें सपनीली हैं
जिसके होंठ रसीले हैं
जिसका चेहरा गंभीर है
जिसका मन भावुक है
जिसकी देह कुआंरी है
और, जिसका व्यक्तित्व असाधारण है ।

     प्रेम का रंग नीला'

प्रेम-दिवस की पूर्व संध्या पर एक कविता :
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      मेहा की अट्ठारहवीं वर्षगाँठ पर
         
            ▪प्रवीण परिमल

आज तुम अट्ठारह की हो गई हो मेहा !

जन्मदिन मुबारक हो ,
बहुत बहुत मुबारक!!

आज तुम अट्ठारह की हो गई हो मेहा,
यानी अब तुम सयानी हो गई हो
पहले से ज्यादा सजग और सचेत !
अब तुम्हें बालू पर घरौंदे बनाना
शोभा नहीं देगा ।

आज सुबह,
सूरज निकलने के साथ - साथ
तुम्हारी  शोख आँखों से
एक और रंगीन तितली उड़ी होगी मेहा ,
( जैसे हर साल उड़ती रही है ! )
लेकिन बचपन की तरह
सपनों के स्लेट पर मत ढूंढना अब उसे
डायरी के रंगीन डंठल पर बैठती हैं
इस उम्र की तितलियां....
जिसमें होती हैं
प्रेम- कविताएँ,
प्रेम- पराग !

आज तुम अट्ठारह की हो गई हो मेहा,
अब तुम्हें वैसे भी
तितलियों के पीछे- पीछे     
नहीं भागना चाहिए।

आज की दोपहर     
तुम्हें बेहद उदास लगी होगी मेहा,
आँखों में अजब- अजब सा खोयापन लोटता होगा
सुनहली धूप         
पीलिया का शिकार लगी होगी ।

आज की शाम...
जब तुम अपना बर्थ-डे सेलिब्रेट करोगी मेहा,
एक ही फूंक में
रौशनी के सारे गुलों को
गुल करते हुए
तुम्हारे होंठ
जरूर थरथरायेंगे
ठीक वैसे ही
जैसे, उम्र की अट्ठारह कुआंरी कंदीलें जलाते
तुम्हारे हाथ कांपेंगे !

और आज की रात
तुम्हें इस बात का मलाल भी     
जरूर होगा मेहा,
कि ज़िन्दगी का एक और
( सबसे हसीन) वर्ष
देखते ही देखते     
सरक गया तुम्हारी हथेलियों से !

पश्चाताप और अफसोस के भाव
( न चाहते हुए भी )
आ ही जायेंगे चेहरे पर !

लेकिन फायदा क्या?

एक बार उड़ जाने के बाद
दिन का गैसभरा गुब्बारा
 कटी हुई पतंग की तरह
 फिर नहीं लौटता
 अरमानों की छत पर !

उदास नज़रों से
उसे अनंत में विलीन होते ताकना
व्यर्थ है !

कुछ खोने का दुख
और कुछ पाने की लालसा ही
टहल सकती है अब
तुम्हारी आँखों की दहलीज पर !

आज तुम अट्ठारह की हो गई हो मेहा !
जिन्दगी का सबसे अहम् फैसला लेने का
निर्णायक क्षण यही है ।

मृत्यु की तरह
वयस्कता भी     
व्यक्ति की नियति है !

रोम - रोम में व्याप्त होने दो
इस सहज स्वाभाविक अहसास को
लबालब भरने दो खुद को
इंद्रियों की
स्वतः गुदगुदाहट से ।

आज तुम अट्ठारह की हो गई हो मेहा !

अब तुम्हारा भी मन करेगा
 किसी का अपना बनने का,
अब तुम्हारा भी मन करेगा
 किसी को अपना बनाने का !
अब तुम्हारा भी मन करेगा
 दूधिया चांदनी में निर्वसन नहाने का ।

तुम्हें देख,
अब कोई न कोई प्रेम- पत्र   
दिग्भ्रमित जरूर होगा मेहा!
दो मूक - निर्दोष आँखें
अब तुम्हारे निखिल सौन्दर्य को
अपलक निहारेंगे ।

' आई लाइक यू '   
जब कोई कहेगा तुम्हें ,
तुम्हारे कपोल भी   
सुर्ख होना स्वीकार कर लेंगे !

आँखों में लाल-लाल डोरों के
शोख , सुकुमार शावक-दल     
इतराने लगेंगे
और मन के नव-निर्मित कंगूरों पर
सफेद कबूतरों के दल   
फड़फड़ाने लगेंगे ।

तन्हाई
अब तुम्हें भली लगेगी मेहा,
शोर- शराबा खटकेगा
और बोलते- बोलते
अचानक चुप हो जाना
तुम्हारे स्वभाव में       
घुल- मिल जाएगा ।

आज तुम अट्ठारह की हो गई हो मेहा !

दुनिया से आँखें बचाकर अब तुम्हें भी बुनने चाहिए  रेशम के सुनहले तारों से
एक रंगीन- पारदर्शी नीड़
जिसमें बसर कर सके -----
तुम्हारा मन- पसंद आत्मीय
विश्वास,लक्ष्य,सपना,
संवेदना,उल्लास,अनुभूति,
जिज्ञासा,मिठास,सम्मोहन,
समर्पण
और एक अदद नाजुक- सा रिश्ता,
नर्म- नर्म नींद
यानी, एक सुंदर संयमित संसार !!

आज तुम अट्ठारह की हो गई हो मेहा !
जन्मदिन मुबारक हो ,
बहुत- बहुत मुबारक!!!
              ................. प्रवीण परिमल:
अपने पिता की 18वीं पुण्यतिथि पर , उनकी यादों को समर्पित मेरी यह काव्यांजलि............

**************
 धुंध में पहाड़ ***************

पिता , धुंध में खड़ा पहाड़ थे शायद !

दिन की तरह ठिठुरते
  उन्हें कभी देखा नहीं मैंने
न ही कभी
   धूप का गर्म ओवरकोट पहनते...
          कवच की तरह !

विचारों की यह कैसी आंतरिक ऊष्मा थी उनमें
कि कष्ट की बड़ी - सी - बड़ी बूँद भी
गर्म तवे की तरह
  उनकी देह को छूते ही
      भष्म हो जाती थी !!

पिता , धुंध में खड़ा पहाड़ थे शायद !

इसी पहाड़ की गुफ़ाओं में
   हमनें खेले हैं बचपन के दिन
इसी पहाड़ की कन्दराओं में
    हमने फाड़ी हैं रातों की चादरें !

हमें , मासूम शावकों की तरह...
अपने में उछलता - कूदता देख
   कितना ख़ुश होता होगा पहाड़
कितना सुख महसूस करता होगा
   हमारे नर्म - मुलायम बालों पर
        स्पर्श की उंगलियाँ फेरते हुए !?

बिजलियों की कड़कड़ाहट से
हमें , कभी दहशतज़दा नहीं होने दिया पहाड़ ने
न ही हम
उसकी गोद की गर्माहट में सिकुड़े - दुबके
   आज तक यह जान पाये
कि आख़िर कैसे झेल लेता था पहाड़
एक ही साथ ---
  ठंढ , लू , बारिश तथा आंधी और तूफ़ानों को
कैसे झटक देता था
   कटीली झाड़ियों की तरह
       चेहरे की झुर्रियाँ और उम्र की थकानों को ?!

उसकी मृतप्राय आँखों में
दुख और असंतोष की
    कितनी - कितनी गिलहरियाँ छटपटायी होंगी ,
हम आजतक नहीं जान सके !

उसके सामर्थ्य
और सहनशीलता से अनभिज्ञ हम ,
अंत तक   अपनी ज़रूरतों के ' डायनामाइट ' लगाते रहे
और पहाड़ को
    क्रमश: जर्जर बनाते रहे !!

अब ,
जबकि उस पहाड़ की
   महज स्मृति भर शेष है ,
हम अपनी - अपनी छतों के नीचे--
( जिसमें पिता की देह के टुकड़े शामिल हैं )
.... हर तरह से सुरक्षित खड़े हैं
और ठंढ , लू बारिश
   तथा आंधी और तूफ़ानों के फीते हमें नाप रहे हैं
कि धुंध में खड़े उस पहाड़ से
     हम कितने छोटे
           अथवा कितने बड़े हैं !!!!!!!!

............... प्रवीण परिमल ...............

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