शनिवार, 25 जुलाई 2020

भले दिनों की बात हैं / अहमद फ़राज़


'भले दिनों की बात है ,भली सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो , न देखने में आम सी

न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे

कोई भी रुत हो उसकी छब , फ़ज़ा का रंग-रूप थी
वो गर्मियों की छाँव थी, वो सर्दियों की धूप थी

न मुद्दतों जुदा रहे , न साथ सुब्ह-ओ-शाम हो
न रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद , न ये कि इज़्न-ए-आम हो

न ऐसी ख़ुश-लिबासियाँ , कि सादगी गिला करे
न इतनी बे-तकल्लुफ़ी , कि आइना हया करे

न इख़्तिलात में वो रम , कि बद-मज़ा हों ख़्वाहिशें
न इस क़दर सुपुर्दगी , कि ज़च करें नवाज़िशें

न आशिक़ी जुनून की , कि ज़िंदगी अज़ाब हो
न इस क़दर कठोर-पन , कि दोस्ती ख़राब हो

कभी तो बात भी ख़फ़ी , कभी सुकूत भी सुख़न
कभी तो किश्त-ए-ज़ाफ़राँ , कभी उदासियों का बन

सुना है एक उम्र है , मुआमलात-ए-दिल की भी
विसाल-ए-जाँ-फ़ज़ा तो क्या,फ़िराक़-ए-जाँ-गुसिल की भी

सो एक रोज़ क्या हुआ ,वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क़ को अमर कहूँ ,वो मेरी ज़िद से चिढ़ गई

मैं इश्क़ का असीर था ,वो इश्क़ को क़फ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को ,वो बद-तर-अज़-हवस कहे

शजर हजर नहीं कि हम , हमेशा पा-ब-गिल रहें
न ढोर हैं कि रस्सियाँ ,गले में मुस्तक़िल रहें

मोहब्बतों की वुसअतें ,हमारे दस्त-ओ-पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें ,सगान-ए-बा-वफ़ा में हैं

मैं कोई पेंटिंग नहीं कि इक फ़्रेम में रहूँ
वही जो मन का मीत हो उसी के प्रेम में रहूँ

तुम्हारी सोच जो भी हो ,मैं उस मिज़ाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है ,ये बात आज की नहीं

न उस को मुझ पे मान था ,न मुझ को उस पे ज़ोम ही
जो अहद ही कोई न हो तो क्या ग़म-ए-शिकस्तगी

सो अपना अपना रास्ता हँसी-ख़ुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी मैं अपनी राह चल दिया

भली सी एक शक्ल थी, भली सी उसकी दोस्ती
अब उसकी याद रात दिन नहीं, मगर कभी कभी'

अहमद फ़राज़

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