रविवार, 26 जुलाई 2020

दयानंद पाण्डेय /अपने अपने युद्ध का सारांश


खिन्न था वह महेंद्र मधुकर के सम्मान समारोह में जाते हुए। मधुकर जो सिरे से फ्राड था। संजय ने महेंद्र मधुकर को पहली बार अपने शहर के एक रेस्टोरेंट में देखा था। तब वह पढता था, तभी एक लड़की से प्यार में मुब्तिला उसे कविता से भी मुहब्बत हो गई थी। वह कविताएं तो लिखने ही लगा था, बातचीत भी वह कविताओं, शेर और मुक्तकों में करता था। कविताओं का जुनून सा सवार था उस पर उन दिनों। वह इमर्जेंसी के दिन थे। इमर्जेंसी के दिनों में आलम यह था कि कवि अपनी घुटन और हताशा साफ-साफ बयान करने के बजाय प्रेम कविताओं की शरण लेते थे। इमर्जेंसी की ज्यादतियों को बिंबों में बांधकर वह प्रेमिका की ज्यादतियों ढालते और प्रतीकात्मक विरोध दर्ज करते। यह जैसे उन दिनों की कविताओं की परंपरा हो गई थी। कवि, प्रेमिका की आंखों में प्यार, उपेक्षा, उदासी, खुशी देखने के बजाय उसकी आखों के अंगार, अहंकार और फट पड़ने वाला आसमान देखते और आह भरते हुए उसे ऐसे दुत्कारते जैसे व्यवस्था को, इमर्जेंसी को ललकार रहे हो। पर सब कुछ बिंबों, प्रतीकों में। साफ-साफ कुछ भी नहीं। उन दिनों विशुद्ध प्रेम कविताएं लिखने वालों की भी इस चक्कर में दुर्गति हो जाती। जैसे एक बार संजय की खुद की दुर्गति हो गई। आकाशवाणी द्वारा आयोजित एक स्टूडियो गोष्टी में जब उसने एक लंबी प्रेम कविता की पांच-सात पंक्तियां ही पढ़ी "आंखें/तुम्हारी आंखें/उदास, सूनी बेचैन और बिमार आंखें/जिनमें मैं/एक छोटी सी, उजली सी/खुशी की एक किरन तलाशना चाहता हूं/सिर्फ अपने लिए।" यह पंक्तियां सुनते ही रिकार्डिंग करने वाले अधिकारी ने तुरंत रिकार्डिंग रोक दी। बोला, "यह उदास सूनी, बेचैन बीमार आंखें नहीं चलेंगी।"
"क्यों?" संजय ने पूछा।
"क्योंकि इसमें इमर्जेंसी की आलोचना है।" अधिकारी बोला, "कोई खुशी की कविता हो वह पढ़िए। इसको रहने दीजिए। यह नहीं चलेगी। बिलकुल नहीं।"
"पर इस कविता का इमर्जेंसी से क्या लेना देना? यह तो विशुद्ध प्रेम कविता है!" संजय हैरान होता हुआ बोला। कुछ और साथी कवियों ने संजय की पैरवी की। पर वह अधिकारी नहीं माना। कहने लगा, "दूसरी कविता पढ़िए।"
"पर मेरे पास दूसरी कविता नहीं है।" संजय खीझ कर बोला।
"तो इसी कविता से वह उदास, सूनी, बेचैन जैसे शब्द हटा दीजिए।" वह अधिकारी बोला।
"यह तो नहीं हो सकता।" संजय ने साफ-साफ अधिकारी से कहा।
"क्यों?"
"क्योंकि कविता की ध्वनि उसका मकसद, उसकी बुनावट, शिल्प और उसकी आत्मा मर जाएगी। क्योंकि इस कविता में आगे और भी ऐसे शब्द आएंगे।" संजय बिफरता हुआ बोला, "कहां-कहां और क्या-क्या बदलूंगा?"
"कुछ भी हो।" वह अधिकारी बोला, "यह कविता नहीं चलेगी। मैं अपनी नौकरी खतरे में नहीं डाल सकता।" बात जब नौकरी की आ गई तो संजय चुप हो गया। वह घर जाकर अपनी कविताओं की कापी उठा लाया और उसमें से दो तीन छोटी-छोटी कविताएं उस अधिकारी को दिखाता हुआ बोला, "इनसे तो नौकरी नहीं जाएगी आपकी?"
"नहीं।" कविताएं देखता हुआ वह अधिकारी बोला, "अच्छी है। इन्हें कहीं छपने के लिए भेज दीजिए।"
"छप चुकी हैं धर्मयुग में।" बताते हुए संजय चहका।
"तब तो यह भी नहीं चलेंगी।"
"क्यों?" संजय उबल पड़ा, "अब क्या हो गया?"
"छपी हुई भी नहीं चलेंगी।"
"ओफ!" कह कर संजय ने सिर पकड़ लिया। बोला, "तो फिर मुझे आज्ञा दीजिए। क्योंकि इस कापी में लिखी लगभग सारी कविताएं कहीं न कहीं छपी हुई हैं।" वह अधिकारी अंतत: मान गया कि, "कोई भी कविता पढ़ दीजिए। बस इमर्जेंसी का विरोध नहीं।" उस दिन उसने देखा कि बाकी तीन कवियों में से दो ने परिवार नियोजन, पेड़ लगाने जैसे नारों पर "कविताएं" गा-गा कर पढ़ीं और तीसरे ने कइन, गौरेया, फूल, पत्ते जैसी बिंब विधान वाली कविताएं पढ़ीं।
सचमुच उन दिनों कविताओं की तो छोड़िए सार्वजनिक जगहों, चाय या पान की दुकानों पर इमर्जेंसी या सरकार के खिलाफ कुछ कहना, या कोई भी उत्तेजित करने वाली बात करना गुनाह क्या अपराध माना जाता था। उन तनाव और घुटन भरे दिनों में यह महेंद्र मधुकर उस रोज रेस्टोरेंट में सिगरेट फूंकता एक के एक खौलते हुए शेर सरेआम सबको सुना रहा था। उसके शेर सुनने वालों की संख्या दो से चार, चार से दस, दस से बीस होती जा रही थी। वह शेर भी गजब के पढ़ रहा था और बिलकुल झूमके, "कैसे-कैसे मंजर सामने आने गले हैं/ गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं/अब तो इस तालाब का पानी बदल दो/ये कंमल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।" शेर बिलकुल ताजा हवा के झरोंके की मानिंद थे। संजय और उसके साथी महेंद्र मधुकर की बेंच के पास जाकर खड़े हो गए। वह शेर पढ़े जा रहा था, "सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए/मेरे सीने में हो या तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।"
संजय और उसका साथी राय, मधुकर से बड़ा प्रभावित हुए। और उससे बड़ी गर्मजोशी से मिले। राय ने कहा, "बड़ी हिम्मत का काम है इस तरह खुलेआम ऐसे शेर पढ़ना। हम लोग आपको बधाई देना चाहते हैं।" कहते हुए राय ने पूछा, "यह शेर बाई द वे हैं किसके?"
"ये खुद ही मशहूर कवि हैं।" मधुकर के पास बैठा एक मरियल सा व्यक्ति उसकी तारीफ करता हुआ बोला। "खाकसार को महेंद्र मधुकर कहते हैं।" वह राय की ओर हाथ बढ़ाते हुए बोला, "आप साहबान की तारीफ?"
"हम लोग छात्र हैं। यूनिवर्सिटी में हैं।" कहते हुए राय ने फिर पूछा, "यह शेर किसके हैं?"
मैं अपने ही पढ़ता हूं। सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए मधुकर ने बोला, "दूसरों के शेर पढ़ना मेरी आदत नहीं। अपनी तौहीन समझता हूं।"
"तो आपको डबल बधाई।" राय मधुकर से दुबारा हाथ मिलाते हुए बोला, "एक इतना जिंदा, धड़कता हुआ शेर लिखने के लिए, दूसरे इस तरह इसे सरेआम सुनाने के लिए।" राय ने जोड़ा, "इसके लिए बड़ा भारी कलेजा होना चाहिए। बधाई, बहुत-बहुत बधाई।"
"शुक्रिया।" दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगाते हुए मधुकर बोला, "यहां तो खून से लिखते हैं, और आवाम की धड़कन बन जाती हैं।" उसने जोड़ा, "आवाम जो चाहती है उससे दो कदम आगे की हम सोचते हैं, खून पसीना जलाते हैं तब जाकर कहीं एक रचना कागज पर शक्ल अख्तियार करती है। हम उसे खून पसीने से सींचते हैं, अपने आपको निचोड़ डालते हैं तब कहीं जाकर आप सबकी "वाह-वाह" मिलती है।" कह कर उसने माथे पर आया पसीना रूमाल से पोंछा और लगे हाथ उसने तीन शेर और सुना दिए, "आहों में जो पाया है गीतों में दिया है/इसपर भी सुना है कि जमाने को गिला है/हम फूल हैं औरों के लिए हैं खुशबू/अपने लिए ले दे के बस इक दाग मिला है।" सुनाते हुए वह बोला, "शेर सुनिएगा कि, जो साज से निकली है वह धुन सबने सुनी है/ जो तार पे गुजरी है, वो किस दिल को पता है।" सुना कर वह अभी कुछ बोलता कि एक मजनूनुमा बूढ़ा झूमा। बोला, "यह तो फिल्मी गाना है। तलत महमूद ने गाया है।"
"हां, पर लिखा साहिर लुधियानवी ने है।" मधुकर ने तुरंत पैंतरा बदल लिया, "और क्या लिखा है साहब कि, जो तार पे गुजरी है वो किस दिल को पाता है?" वह बोला, "तो साहब, यह हम कवियों का दिल ही जानता है कि कहां-कहां से गुजर कर, क्या-क्या जी कर लिखना पड़ता है।" रूमाल से पसीना पोंछते हुए वह बोला, "फिर भी हमें दाग मिलता है, क्योंकि हम फूल हैं। और फूल कि नियति है सबको खुशबू देना। और अपने हिस्से दाग लेना।"
"अच्छा परिभाषित किया है आपने।" संजय बोला, "और आपके कहने का अंदाज भी खूब है।"
"आप नौजवानों से मिल कर खुशी हुई।" कहते हुए उसने सिगरेट का लंबा कश खींचा और उतना ही लंबा धुआं भी फेंका। बोला, "कभी घर पर मिलिए।" उसने अपना पता भी लिख कर दिया। और कहा कि, "कभी आए जरूर खुशी होगी।"
"हमलोग भी कविताएं लिखते हैं।" राय शर्माते हुए बोला।
"तो इसमें शर्माने की क्या बात है?" मधुकर बोला, "कभी किसी कवि गोष्ठी या सम्मेलन में नहीं दिखे आप लोग?" मधुकर उन दोनों को खारिज करता हुआ बोला।
"पर हमारी कविताएं छपी हैं।" कह कर संजय ने कुछ पत्रिकाओं के नाम गिना दिए।
"गुड!" मधुकर बोला, "पर सिर्फ छपने भर से तो काम नहीं चलेगा।" सिगरेट का धुंआ फेंकता हुआ वह बोला, "जनता के बीच आना पड़ेगा। नहीं तो बंद कमरे में कविता लिखने और छप जाने का क्या मतलब है?" वहा बोला, "परसों डॉक्टर साहब के यहां कवि गोष्ठी है। अरे वही होम्योपैथी वाले, उन्हीं के यहां, आप लोग आइए।"
उस गोष्ठी में राय और संजय बड़ी तैयारी से गए। मधुकर ने उन दोनों का वहां उपस्थित कवियों से परिचय कराया। पर संजय ने गौर किया कि किसी ने भी उन दोनों की नोटिस नहीं ली। गोष्ठी क्या थी चू-चू का मुरब्बा थी। दो तीन को छोड़ कर किसी ने कभी कायदे की कोई कविता नहीं पढ़ी। दो तीन कवि तो सरस्वती वंदना में ही लगे रहे। कोई अमराइयों तो कोई गोइयां, सइयां के गीत गाता रहा। संजय ऊब सा गया। संजय और राय ने भी दो-दो कविताएं पढ़ी। यूनिवर्सिटी के एक अध्यापक ने, "बहुत सुंदर, बहुत सुंदर" कहा। पर बाकी "अच्छा प्रयास है।" कह कर चुप हो गए। मधुकर के कविता पढ़ने की जब बारी आई तो राय ने उससे रेस्टोरेंट वाले शेर पढ़ने का अनुरोध किया। कहा कि, "मधुकर जी वही सुनाइए।" पर मधुकर टाल गया। बोला, "जनता के बीच जनता की बात, कवियों के बीच कवियों की बात।" कहते हुए खानाबदोशी पर कविता पढ़ने लगा। गोष्ठी में संजय और राय को बिलकुल मजा नहीं आया। कम से कम जिस तैयारी से वह दोनों गए थे, उस हिसाब से तो बिलकुल नहीं। हां, खाने-पीने की व्यवस्था उन्हें अच्छी लगी।
बाद में मधुकर उन दोनों को कवि सम्मेलनों में भी बुलवाने लगा। कवि सम्मेलनों से पैसा भी मिलता। जो उन दोनों की जेब खर्च के काम आता। कुछ दिनों बाद संजय ने सारिका में वही शेर दुष्यंत कुमार के नाम से छपे देखे जो मधुकर ने उस दिन रेस्टोरेंट में सुनाए थे और खूब दाद बटोरी थी। संजय ने राय को वह पत्रिका दिखाई तो वह बोला, "यह तो साला पक्का चोर निकला।" राय बोला, "चलो आज उसके यहां चलते हैं, उस दिन साले को दाद ही थी, आज खाज दे देते हैं।"
वह दोनों उस शाम मधुकर के यहां वह पत्रिका लेकर पहुंचे तो उसने बड़ी आवभगत की। कुछ देर लिए दोनों उससे असली बात करने से टालते रहे। पर राय ज्यादा देर नहीं टाल पाया। पत्रिका दिखाते हुए बोला, "मधुकर जी आपकी गजले इसमें छपी हैं। पर?"
"पर दुष्यंत कुमार के नाम से छपी हैं।" मधुकर बोला, "वह गजलें हैं ही दुष्यंत की।" उसने सिगरेट का धुआं छोड़ा, "क्या लिखता है, कलेजा निकाल लेता है।"
"पर उस दिन तो आप अपने शेर बता रहे थे।"
"कब कहा कि वह शेर मेरे लिखे हैं?" वह बोला, "हां!" माथे पर हाथ फिराते हुए वह कहने लगा, "वह शेर अब हम सबके हैं, सबकी धड़कन हैं। कोई भी उन्हें पढ़ सकता है, सुना सकता है, क्योंकि हम सब उसी दौर से गुजर रहे हैं, उसी तकलीफ, उसी घुटन, संत्रास और सांघातिक तनाव से गुजर रहे हैं, जिससे वह शेर गुजर रहे हैं। दुष्यंत की आवाज हम सकबी आवाज है।"
"पर मधुकर जी यह तो चोरी है।" राय ने जोर देकर कहा।
"क्या हमने अपने नाम से छपवा लिया?" मुधकर बोला, "शेर पढ़ना चोरी नहीं है। और ये खौलते हुए शेर पढ़ना, सार्वजनिक तौर पर पढ़ना वो भी आज के दौर में आसान है क्या? है किसी का जिगरा, है किसी में हिम्मत? शेर दुष्यंत का सही पर उसे पढ़ कर मैंने लोगों को झिंझोड़ा, यह क्या कम है?" कहते हुए वह बोला, "लो सिगरेट पियो।" और उसने सिगरेट की डिबिया दोनों की ओर बढ़ा दिया।
"नहीं, मैं सिगरेट नहीं पीता।" संजय हाथ जोड़ते हुए बोला।
"सिगरेट नहीं पिएंगे, शराब नहीं पिएंगे और कविता लिखेंगे?" वह आंख मटकाता हुआ बोला, "यह तो नहीं हो पाएगा।" उसने जोड़ा, "मीर, गालिब फिराक फैज सबने पी। बिना पिए का गुजारा नहीं हुआ।"
"हम लोग पीने नहीं, आपकी चोरी की चर्चा करने आए हैं।" राय बोला, "आपको कवि कहलाने का हक नहीं है।"
"तो अब आप हमें कवि होने का सर्टिफिकेट देंगे?" मधुकर उबला, "मैं चोर हूं! अरे कौन साला चोर नहीं है?" वह पसीना पोंछता हुआ बोला, "यें पंत, निराला, अज्ञेय किस-किस को चोर कहेंगे आप? इन लोगों ने सीधे-सीधे बायरन, इलियट, मिल्टन और जापानी हाइकूज पार कर दी हैं और मशहूर हो गए। जाने कहां-कहां डुबकी मार-मार कर, पानी-पी-पी कर हिंदी साहित्याकाश में एक से एक कवि, महाकवि दुकान लगाए बैठे हैं। आप लोग, जिनको हमने ही पैदा किया, हमने ही शहर में लोगों से मिलाया, वही लोग आज हमें कठघरे में खडा़ कर चोर बताना चाहते हैं?"
"नहीं बात यह नहीं है।" संजय बोला।
"तो क्या बात है?" मधुकर बोला, "टेक इट इजी।"
बाद में पता चला कि मधुकर की कारस्तानी शहर के अमूमन सभी कवि जानते थे। इसलिए हर कोई उससे कटता रहता था। पर चूंकि शहर के तकरीबन सारे सरकारी कवि सम्मेलनों का संयोजक, संचालक वह ही होता था सो उससे बिलकुल कट कर भी कोई नहीं रह पाता। डी.एम., कमिश्नर सबको पटाने में वह माहिर था। उन दिनों वह एक अनियतकालिक पत्रिका भी निकालता था सो छपने की लालसा भी कई नए पुराने कवियों को उसके पास घसीट ले जाती। फिर भी ढेर सारे लोग उसे नापसंद करते, उसकी आदतों, हरकतों और चार सौ बीसी के कारण। पत्रिका के विज्ञापन के लिए फोन कर वह कमिश्नर, डी.एम., विधायक, मंत्री कुछ भी बन जाता। खुद ही अला फला बनकर वह खुद ही की सिफारिश कर लेता। राय ने उसे एक बार टोका तो मधुकर कहने लगा, "किसे लूटता हूं? पूंजीपतियों को ही न?" वह बोला, "वह साले जनता को लूटते हैं, मैं उन्हें लूट लेता हूं, अपना हिस्सा ले लेता हूं। साहित्य के लिए खर्च करता हूं। कोई महल, अटारी तो खड़ा नहीं कर रहा?" कह कर वह सिगरेट के धुएं में खो जाता।
महेंद्र मधुकर रेलवे में क्लर्क था। पर बाहर वह अपने को अधिकारी ही बताता। और दफ्तर महीने में ज्यादा से ज्यादा दस दिन जाता। संजय पूछा, "काम कैसे चलता है?"
"चल जाता है। मधुकर लापरवाही से बोला।"
"फिर भी?"
"अरे पचास रुपए आजू, पचास रुपए बाजू की सीट वालों को दे देता हूं। साले, अपना काम बाद में करते हैं, मेरा काम पहले निपटा देते हैं। बस! और जाता हूं तो सालों को नाश्ता करा देता हूं, बॉस को कवि सम्मेलनों की वयस्तता बता कर, दो चार कविताएं सुना देता हूं।"
सचमुच संजय देखता, मधुकर हफ्तों कमरे में सोया रहता, अचानक शहर में निकलता और बताता कि, "अटैची उठी हुई थई।" और चार छह दूर दराज के शहरों के नाम गिनाते हुए कहता, "कवि सम्मेलन से आ रहा हूं।" जबकि वह कहीं नहीं गया होता। हकीकत में कवि सम्मेलनों में जाने के लिए हरदम बेताब रहता और बेशर्मी पर उतर आता। जिन-जिन कवियों को अपने संयोजकत्व वाले कवि सम्मेलनों में बुलाता उन्हें पलट कर चिट्ठी लिखता कि "अब आप मुझे बुलवाइए।" किसी-किसी को वो लिखता, "अगर आपको दस बार मैं बुलाता हूं को कम से कम तीन या चार बार आप भी हमको बुलवाइए।" इस पर भी बात नहीं जमती तो वह लिख देता, "तो अब आपको बुलाने के लिए हमें सोचना पड़ेगा।" और दिलचस्प यह कि ज्यादातर जगह उसकी दाल गल जाती। बाद में तो वह कवियों के तय पारिश्रमिक में से अपना कमीशन भी काटने लगा। कभी-कभी आधा से ज्यादा काट लेता। कई संकोची कवि सब कुछ जानते हुए भी चुप रहते। तो एकाध कवि अगर मुंह खोल भी देते तो वह कहता, "मालूम है आपका रेट क्या है और बाकी कवि सम्मेलनों में आप कितना पाते हैं? और उससे तो यह ज्यादा ही है।"
लोकल कवियों को वह मार्ग व्यय भी नहीं देता। कहता, "अभी टूटे नहीं है, बाद में ले लीजिएगा। कहीं भाग थोड़े ही जा रहा हूं"। और फिर उसका वह "बाद में" कभी नहीं आता। एकाध बेहया कवि फिर भी पीछा नहीं छोड़ते तो वह कहता, "ठीक है अगली बार से आप मत आइएगा।" वह कहता, "एक तो इनको मंच दो दूसरे ये सूदखोर की तरह पीछे पड़ जाएंगे। माफ करो भाई।"
कवि सम्मेलनों के मंच पर भी वह कवियों को अलग-अलग ढंग से पेश करता। वह जिसको चाहता उसकी तारीफ के पुल बांध देता, उसे राई से पहाड़ बता देता, नहीं हूट करवा देता। श्रोताओं में पांच सात हूटर वह हमेशा "तैयार" रखता। उसके पैसा मार लेने की आदत से कुछ कवि बहुत परेशान रहते। जैसे कि शेखर! शेखर भी रेलवे में क्लर्क था और कई बार मधुकर की काट वही बनता। पर उसे सलीका नहीं आता। और बड़ी जल्दी एक्सपोज हो जाता। पर मधुकर के स्तर पर आकर काटना वही जानता। जैसे कि एक बार कवि सम्मेलन में वह एक निरीह टाइप के कवि को लेकर पीछे श्रोताओं में पहुंच गया। बोला, "कवियों को चाय पिलाने भर का पैसा नहीं है। आप लोग कुछ चंदा दीजिए तो कवियों को चाय नसीब हो।" और पैसा वसूल लाया। उस सरकारी कवि सम्मेलन का संयोजक मधुकर था। उसकी बदनामी भी हुई और खिंचाई भी। बाद में शेखर अक्सर ऐसा करने लगा। तो मधुकर माइक पर ही एनाउंस कर देता कि कोई चंदा मांगने जाए तो उसे पकड़ कर मंच पर लाइए। इससे कवि सम्मेलन की शालीनता खत्म हो जाती। राय ने एक बार मधुकर से कहा कि, "शेखर को बुलाते ही क्यों हैं?" तो मधुकर धुआं उड़ाते हुए बोला, "वह साला भी तो दस कवि सम्मेलनों में बुलाता है।" उसने जोड़ा, "और शेखर साला इतना काइयां है कि न बुलाऊं तो भी आ जाएगा और मंच पर सीना फुला कर बैठ जाएगा। अब भगा तो सकता नहीं। आखिर सार्वजनिक मंच होता है।"
शेखर ही क्या मधुकर भी कई बार बिन बुलाए कवि सम्मेलनों ही क्या मुशायरों तक में पहुंच जाता। बस उन्हें सूचना होनी चाहिए कि कहां कवि सम्मेलन या मुशायरा है। दोनों ही के पास रेलवे का पास होता था। दोनों ही घर बार और नौकरी की चिंता से मुक्त रहते। कभी भी, कहीं भी जा सकते थे। दोनों रेलवे स्टेशन भी तड़े रहते। और जो कवि कहीं जा रहा होता तो उससे चिपक जाते। भले वह कवि सम्मेलन की बजाय कहीं और जा रहा हो। ज्यादातर कवि, कवि सम्मेलनों में जाना वैसे भी नहीं छुपाते थे।
कहीं से बुलावा आ जाता तो दस जगह बताए बिना, निमंत्रण पत्र दिखाए बिना उन्हें नींद नहीं आती थी। एक जगह बुलाए जाते, दस जगह जाना बताते। ऐसे ही एक बार शेखर रेलवे स्टेशन पर टहल रहा था। लखनऊ जाने वाली गाड़ी में पयाम दिख गया। शेखर समझ गया पयाम कहीं जा रहा है। धड़ उसके पास जा बैठा। बोला, "तो तुम लखनऊ चल रहे हो?"
"हां, उमर साहब की मेहरबानी है। और फिर लखनऊ का मुशायरा कौन छोड़ता है।" पयाम बोला।
"चलो सफर अब तनहा नहीं कटेगा।" शेखर बोला, "मैं भी वहीं चल रहा हूं।"
"जेहे नसीब!" कह कर पयाम ने आदाब बजाया।
"यार तुमको सुने बहुत दिन हो गए?" शेखर बोला, "कुछ नया हो तो सुनाओ।"
"हां, हां। शौक से।" पयाम चहका। और ताबड़तोड़ दो गजले सुना दीं।
"वाह खुब। बड़ी प्यारी गजलें हैं।" शेखर बोला, "जरा नोट करवा दो। मेरी एक शागिर्द रेडियो पर गाती है उसे गाने के लिए दे दूंगा।" पयाम ने दोनों गलजें खुशी-खुशी लिखवा दीं। अब अलग बात है कि पयाम को शायरी से वास्ता था पर गजल वह खुद कह नहीं पाता था। एक मुस्लिम मियां हलकी फुलकी गजलें दे दिया करते। पयाम का काम उसी से चल जाता। बाकायदा तरन्नुम में जब वह गजल पढ़ते तो यह कभी नहीं लगता कि उन्होंने नहीं लिखी होगी। और पयाम ही क्यों, ऐसे कई लोग थे संजय के उस शहर में, जिन्हें गजलें लिखने के बजाय तरन्नुम से पढ़ने में कहीं ज्यादा महारत हासिल थी। एक बार तो संजय दंग रह गया। एक ही रात एक जगह कवि सम्मेलन भी था और दूसरी जगह एक नशिस्त भी थी। दोनों ही जगह जाना था। कवि सम्मेलन के बाद वह जब "क्यों इशारों से बात करते हो, साफ कह दो कि हम तुम्हारे हैं" गुनगुनाता हुआ पहुंचा तो देखा कि यही गजल वहां एक दूसरे शायर साहबान पढ़ रहे थे। जबकि कवि सम्मेलन में एक दूसरे शायर यही गजल झूम कर पढ़ कर उसी के साथ नशिस्त में पहुंच रहे थे। नशिस्त जब खत्म हुई तो संजय ने हमदम से पूछा, "यह क्या माजरा है?" हमदम बोला, "जाने दो। क्या फायदा?" और जब संजय, "यह क्या माजरा है?" के एक ही मिसरे पर बड़ी देर तक लगा रहा तो अज्ञात बोला, "इन बेचारों की क्या गलती?"
"तो?"
"गलती तो उस्ताद की है जिसने एक ही गजल दोनों को दे दी।" लारी बोला।
"तुम्हें भी तो नहीं दे दी यही गजल उस्ताद ने?" अज्ञात ने चुटकी ली।
"क्या बकते हो?" कहता हुआ लारी वहां से खिसक गया।
बाद में अज्ञात कहने लगा, "आपको क्या लगता है दिन भर दर्जीगिरी, काज-बटन या जुलाहागिरी करने के बाद शाम को यह सब गजल भी लिख डालेंगे।" "क्यों, कबीर दोहा लिख सकते थे जुलाहागिरी करके तो कोई गजल क्यों नहीं लिख सकता? रैदास जूते सीकर भजन गा सकते हैं तो ये गजल क्यों नहीं गा सकते?" संजय बोला, "पर यह तो हद है। हम समझते थे हमारे यहां मधुकर, शेखर ही हैं। पर यहां तो पूरा का पूरा कुनबा ही। हद है।"
"बात यहीं तक हो तो गनीमत। अभी तो सवाल यह है कि उस्ताद ने भी कहां से मारके दी होगी?" हमदम बोला, "और यह मारा-मारी उर्दू में इतनी ज्यादा है कि मत पूछो। कोफ्त हो जाती है कभी-कभी।"
तो खैर उस बार शेखर ने पयाम की दोनों गजलें नोट कीं और लखनऊ के रेलवे स्टेशन से पयाम से विदा ली और कहा कि, "इंशा अल्ला मुशायरे में फिर मिलेंगे।"
"ठीक जनाब।" कह कर पयाम चल दिया।
रात को मुशायरे में पयाम समय से पहुंच गया और शेखर को ढूंढने लगा। पर शेखर नदारद। मुशायरा शुरू हो गया पर शेखर फिर भी नदारद। बीच मुशायरे में शेखर दिखा। मंच पर पहुंचा। दो चार लोगों से जबरदस्ती हाथ मिलाया, आदाब किया और ठीक-ठाक जगह देख कर बैठ गया। बैठे-बैठे एक परची पर मुशायरे के कनवीनर को चिट्ठी लिखी, "उमर भाई आदाब, लखनऊ एक काम के सिलसिले में आना हुआ था। वापस जा रहा था कि पता चला कि मुशायरा है और आप हुए हैं सो आप को सलाम करने आ गया। ठीक समझिए तो मुझे भी पढ़वा दीजिए। कुछ खर्चा बर्चा दिलवा दीजिएगा। और जरा जल्दी पढ़वा दीजिए। अभी रात की गाड़ी से ही वापस जाना है। रिजर्वेशन हो गया है।" उमर भाई संकोच में पड़ गए। न चाहते हुए भी उन्होंने तुरंत शेखर का नाम एनाउंस कर दिया। शेखर ने माइक संभाला और ताबड़तोड़ दो गजले पढ़ दीं। वह गजलें जो पयाम ने ट्रेन में सुनाई थीं। पयाम की तो हवा खराब हो गई। शेखर मुशायरे के बाद में गया। पर पयाम ने तुरंत चप्पल उठाई और खिसक लिया क्योंकि तीसरी गजल उसके पास थी नहीं। और जो दो थीं, वह शेखर पढ़ गया था। वापस जाकर पयाम मुस्लिम मियां से उलझ गया कि, "शेखर की गजलें क्यों दी हमें पढ़ने को?" मुस्लिम मियां के होश उड़ गए। बोले, "तो क्या वह दीवान उसके पास भी है क्या?"
"कौन सा दीवान?"
"जिसमें से गजल निकाल कर तुम्हें दी थी।"
"तो आपने गजल दी ही चोरी की थी।" कहता हुआ पयाम निकल गया, "मां चुदाएं आप और आपकी शायरी। मुझे नहीं बनना शायर!" बाद में पयाम छुटभैया नेता बन गया। और शेखर एक दिन ए.सी. में सफर करता हुआ टिकट चेकिंग में पकड़ा गया तो चेकिंग कर्मचारियों पर वह अंग्रेजी में डपट पड़ा। कहा कि, "मैं रेल मंत्री का पी.ए. हूं। तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई मुझे चेक करने की।" कर्मचारी सकते में आ गए। ऊपर के अधिकारियों को खबर दी कि रेलमंत्री के पी.ए. ट्रेन में हैं। अधिकारी उसकी आवभगत में पहुंचे। और शेखर की कलई खुल गई। वह जेल गया और उसकी नौकरी भी गई।
शहर के लोगों में तब यही चरचा थी कि देर सबेर मधुकर भी जेल जाएगा। पर मधुकर को ठीक से जानने वाले लोग जानते थे कि वह जेल जाने वाली नहीं जेल भिजवाने वाली चीज है। मौका बेमौका वह थाने के दरोगा तक के सम्मान में कवि गोष्ठी करवा डालता। दरोगा का सम्मान करवाता, छोटे-छोटे लोगों पर रौब डालता। विज्ञापन बटोरता, लेखक सम्मेलन करवाता, चंदा बटोरता, सरकार और प्रशासन से अनुदान लेता। मधुकर कवि सम्मेलनी कवियों और पत्रिकाओं में छपने वाले कवियों के बीच अजीब तालमेल बनाए रखता। कवि सम्मेलनों में जाता तो बाकी कवियों को हड़काता "साहित्य का आदमी हूं, खाली मंचीय नहीं।" और सिर्फ लिखने छपने वाले कवियों से कहता, "जनता से सीधा रिश्ता रखता हूं, छोटी-मोटी पत्रिकाओं के चंद छपे पन्नों का मोहताज नहीं हूं।" वह खुद पत्रिका निकालता ही था और जैसे कवियों से कहता कि "तुम हमें बुलाओ, हम तुम्हें बुलाएं" वैसे ही लघु पत्रिकाओं के संपादकों को उसी बेशर्मी से लिखता, "हम तुम्हें छापते हैं, तुम हमें छापो।" और मजा यह कि यहां भी वह ज्यादातर जगहों पर कामयाब रहता।
मधुकर कई बार जैसे कवि सम्मेलनों में वहीं बैठे कवियों की कविताएं पढ़ जाता था और पलट कर उस कवि से कह देता, "क्षमा कीजिए जरूरत पड़ गई थी।" उसी तरह वह छपने के लिए भी यहां, वहां कविताएं मार लेता। कई बार वह उर्दू की हिंदी, हिंदी की उर्दू भी कर डालता और किसी को पता भी नहीं पड़ता। कई बार वह नए कवियों की कविताएं भी ठीक करने के बहाने पार कर देता। उस नए कवि से कहता, "किसी काम की नहीं है तुम्हारी कविता।" और वही कविता कुछ दिन बाद थोड़े से रद्दोबदल के बाद में महेंद्र मधुकर नाम से छपी मिलती। कोई कवि अगर टोक देता, "कि यह तो मेरी ही कविता है।"
''तुम्हारी कविता कहां है?'' वह खीझता।
"पर बात तो वही है।"
"हो सकता है तुम्हारी वह बात कहीं जेहन में रह गई हो। और इस कविता में आ गई हो।" कह कर वह उसे टाल देता। अपनी पत्रिका में नए कवियों द्वारा भेजी गई ठीक-ठाक कविताएं भी वह जब तब पार कर दूसरी पत्रिकाओं में अपने नाम से छपवा डालता। कविताओं की पैरोडी भी वह बखूबी लिख डालता। बीच-बीच में उसको यह भी इलहाम होता रहता कि महाकवि होने के लिए "होमो सेक्सुअल" होना भी जरूरी है। फिराक निराला की वह गिनती कराता। और अपने होमो होने के किस्से भी जब-तब फैलाता रहता। वह कब किसके लिए क्या कह दे, कुछ पता नहीं होता। पिनक में जब वह आता तो शहर का ऐसा कोई कवि नहीं होता जिसको वह अपने "मार लेने" वाली सूची में दर्ज करने से छोड़ देता। कभी न कभी, किसी न किसी मौके पर वह हर किसी की मार चुका होता। चाहे वह बूढ़ा हो, जवान हो इससे उसको कोई फर्क नहीं पड़ता। कई बार इस फेर में वह बेइज्जत होता, पिट जाता पर आदत से लाचार वह फिर सबकी गिनती गिना जाता। कभी-कभी उसकी सूची शहर के हदें पार कर बंबई तक पहुंच जातीं और वह सुजीत कुमार से लगायत ऋषि कपूर तक के नाम गिना जाता। क्या तो तब वह उन्हें हिंदी सिखाता था। एक बार उसने हमदम, राय और संजय को भी "मार लेने" की फेहरिस्त में किसी से गिना दिया। हमदम बेचारा तो उदास हो गया। पर राय और संजय मधुकर पर सवार हो गए। बोले, "लो आज मेरी मारो। नहीं तो साले तुम्हारी गांड़ तोड़ दूंगा।"
"क्या कह रहे हैं! क्या कह रहे हैं आप लोग?" मधुकर हांफने लगा, "किसी ने बहका दिया है आप लोगों को।" कह कर वह माफी मांगने लगा। कहने लगा, "कवियों के साथ इस तरह का आचरण राम-राम!" हाथ जोड़ कर बोला, "पाप है पाप।"
"आइंदा हम लोगों के बारे में अगर कोई लूज टाक की तो हाथ पैर तोड़ के सड़क पर फेंक देंगे।" राय बोला, "बात यूनिवर्सिटी के लड़कों से कहने भर की देर है।"
"नहीं, नहीं।" वह बोला, "ऐसी कोई बात ही नहीं होगी।"
मधुकर ऐसी हरकतें फिर भी करता रहता, बेइज्जत होता रहता, पर वह अपनी आदत से बाज नहीं आता। वह रह-रह चोंगा भी बदलता रहता। कभी वह हिंदूवादी हो जाता, कभी कम्युनिस्ट बन जाता। जब जैसे मौका देखता चोंगा बदल लेता।
शहर के "प्रगतिशीलों" से वह हरदम सावधान रहता। और कहता रहता, "आप हमें यूं ही नहीं खारिज कर सकते।" इसी खारिज न होने की धुन में वह यकायक जनवादी बन गया। और शहर में जनवादी लेखक सम्मेलन आयोजित कर बैठा। कहानी से उसका कोई सरोकार नहीं था पर शहर के जनवादी हो चले क्योंकि को काटने की गरज से इस जनवादी लेखक सम्मेलन में उसने कहानी को ही केंद्रित किया। और बाहर के कई कहानी लेखकों और संपादकों को चिट्ठी लिख डाली। इत्तफाक से कई लोग आ गए। जिनमें दो-तीन नामी कहानीकार भी थे।
उसने बाहर से बुलाए लेखकों को आने-जाने का किराया, ठहरने आदि का आश्वासन दिया था। ज्यादा लोगों के आने से उसका बजट बिगड़ गया। उसको बिलकुल ही उम्मीद नहीं थी कि इतने सारे लोग आ जाएंगे। उसने सोचा था कि इस आयोजन के चंदे से कुछ बचा भी लेंगे। पर अब उसकी योजना पर पानी फिर गया था। वह बकबकाने लगा, "ये साले जनवादी बिलकुल भूखे ही होते हैं। जिसको देखो वही मुंह उठाए चला आ रहा है। जैसे और कोई काम ही नहीं सालों को।" एक लेखक ने सुन लिया तो मधुकर पर बिगड़ गया और सीधा अटैची उठा कर वापस हो गया। सम्मेलन खत्म होते न होते मधुकर सिर पर हाथ रख कर बैठ गया। क्या तो उसका रुपया चोरी हो गया है। कितना रुपया चोरी हुआ है, कब हुआ, ऐसी किसी बात का हिसाब मधुकर के पास नहीं था। उसके पास जैसे एक ही संवाद बाकी रह गया था, "रुपया चोरी हो गया।" जनवादी लेखकों की समझ में आ गया कि अपने ही किराए से वापस जाना है। ज्यादातर चले भी गए। पर कुछ तंबू गाड़ कर सो गए कि जब किराया मिलेगा, तभी जाएंगे। विवश होकर मधुकर को उन लेखकों को किराया देना पड़ा। किराया नहीं देता तो उनके रहने खाने का बिल देना पड़ता।
"आखिर किसने रुपया चुरा लिया?" संजय ने मधुकर से पूछा
"आपने ही चुराया होगा।" मधुकर बउराया।
"क्या कहना चाहते हैं आप?"
"आप ही और राय इस कमरे में बहुत आ जा रहे थे।"
"इसका क्या मतलब हुआ, हम लोगों ने रुपया चुरा लिया?" राय गरजा।
"नहीं मेरे बाप, रुपया मैंने ही चुरा लिया।" वह हाथ जोड़ता हुआ बोला, "अब आप लोग जाइए।"
"हद है।" कहता हुआ संजय मधुकर के कमरे से बड़बड़ाता हुआ निकला, "बड़ा गंदा आदमी है। लेखकों को किराया न देना पड़े इसलिए साला किसी को भी चोर कह देगा।"
"ऐसे गंदे आदमी की बात का क्या बुरा मानना।" हमदम बोला, "कौन इसकी बात का विश्वास करता है। सब जानते है कि मामला क्या है।"
"फिर भी।" कह कर राय उदास हो गया।
पर मधुकर था ही ऐसा। वह किसी को कभी भी कुछ भी कह सकता था। अपनी लड़की की शादी में भी वह ऐसे ही बोल गया था। हुआ यह कि वहां भी बाराती ज्यादा हो गए और कैंपा कोला की बोतलें कम पड़ गईं। उसने फौरन एक आदमी को और बोतलें लाने के लिए दौड़ाया और खुद बारातियों को संभालने में लग गया। पर बाराती कोई लेखक कवि तो थे नहीं, वह कहां मानने वाले, नहीं माने। मधुकर आजिज आ कर बोला, "एक छोटे से सुख की इतनी बड़ी सजा मिलेगी, नहीं जानता था।" समझने वाले समझ गए पर एक करुण रस के कवि की समझ में नहीं आया। बोले, "आपकी बात समझ में नहीं आई। सुख, सजा। क्या मतलब?"
"महाकवि जी, इतना भी नहीं समझे?" मधुकर बोला, "न बीवी के साथ सोता, न संभोग करता, न यह बेटी जनमती, न उसकी शादी होती, न मैं सजा भुगतता!" और मधुकर यह सब जोर-जोर से कहता रहा। कई लोग यह बात सुन कर सकते में आ गए, कई लोग शर्मा गए तो कई लोग बात टाल कर वहां से खिसक लिए। पर मधुकर चालू था, "एक छोटे से सुख की इतनी बड़ी सजा?" वह बोलता ही जा रहा था, "इतनी बड़ी कीमत?"
उस जनवादी लेखक सम्मेलन समाप्ति के दो दिन बाद मधुकर संजय के घर गया। बोला, "आप तो बुरा मान गए। अरे, वह तो नाटक था। ऐसा न करता तो वह जनवादी साले पिंड नहीं छोड़ते, चूस जाते साले पूरा का पूरा हमको।"
संजय काफी देर चुपचाप मधुकर की बातें सुनता रहा। और जब बहुत हो गया तो मधुकर से बोला, "अब बंद करिए अपनी नौटंकी। और चुपचाप यहां से दफा हो जाइए।" उसने जोड़ा, "आइंदा मेरे मुंह मत लगिएगा।"
"आप समझिए तो, आप समझिए तो।" कहता हुआ वह चला गया।
संजय फिर उससे कभी नहीं बोला। मधुकर ने दो तीन बार कवि सम्मेलनों के निमंत्रण भी भेजे पर वह फिर कभी उसके कवि सम्मेलनों में नहीं गया। बल्कि जिस कवि सम्मेलन में वह जाता, संजय वहां नहीं जाता। ऐसे ही एक बार एक कवि सम्मेलन में एक कवि को श्रोता अचानक "चोर-चोर" कहने लगे तो भी वह कवि महोदय कुछ समझ नहीं पाए और चुपचाप कविता पढ़ते रहे। पर जब "चोर-चोर" ज्यादा हो गया तब उन्होंने कविता पढ़ना बंद किया और श्रोताओं से पूछा कि, "आप चोर-चोर क्यों कह रहे हैं?"
"क्योंकि आप चोरी की कविता पढ़ रहे हैं।" श्रोताओं की ओर से किसी ने जवाब दिया।
"पर आप कैसे कह सकते हैं कि मैं चोरी की कविता पढ़ रहा हूं?" कवि ने जोड़ा, "आपको विश्वास दिलाना चाहता हूं कि यह कविता मेरी है और मेरे नाम से छपी हुई कविता है।" पर कवि महोदय की इस सफाई का श्रोताओं पर कोई असर नहीं हुआ। तो उक्त कवि ने कहा कि, "आप साबित कर दीजिए कि यह मेरी कविता नहीं है तो मैं मंच से नीचे आ जाऊंगा। और फिर कभी कवि सम्मेलन के मंच पर जिंदगी में नहीं चढ़ूंगा।"
"पिछले साल एक कवि आए थे, उन्होंने यह कविता सुनाई थी और आप की अपेक्षा बहुत अच्छी तरह सुनाई थी।" श्रोताओं में से एक व्यक्ति बोला।
"ओ हो!" कह कर संजय ने माइक संभाल लिया और श्रोताओं से पूछा, "कहीं उन कवि का नाम महेंद्र मधुकर तो नहीं?"
"हां-हां महेंद्र मधुकर ही नाम था उनका।" श्रोता बोले।
"आप लोगों की याददाश्त बहुत अच्छी है।" संजय बोला, "और इससे यह भी साबित होता है कि कविता के प्रति आप लोग काफी गंभीर हैं तभी आपको यह कविता साल भर बाद भी याद है। पर विश्वास मानिए यह कविता मंच पर खड़े इसी कवि की है। रही बात पिछले साल यही कविता पढ़ जाने वाले कवि की तो किसी पर व्यक्तिगत लांछन लगाना इस मंच से अच्छा नहीं लगता, मर्यादा टूटती है। बाकी आप सुधी श्रोता खुद ही समझदार हैं।" संजय कह कर बैठ गया। श्रोता समझ गए थे और "वही चोर था, वही चोर था" उच्चारने लगे।
मधुकर उन दिनों बड़ा परेशान रहता। पहली बार उसको अपने कवि होने के अस्तित्व को बचाए रखने की चिंता सताने लगी थी। कवि सम्मेलनों, पत्रिकाओं हर जगह से वह खारिज होता जा रहा था। ऐसे में उसे एक नई चाल सूझी। शहर में हैंड कंपोजिंग पर टेबलायड साइज में छपने वाले साप्ताहिक अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों को उसने साधना शुरू किया। गाल पर हाथ रखे अपने फोटो का डबल कालम ब्लाक उसने अपने पैसे से बनवाया। और उन साप्ताहिक अखबारों में ब्लाक लगवा कर अपने फोटो सहित कविताएं छपवा कर सो पचास कापी उन अखबारों की लेकर यहां वहां बांटता फिरता। इन पत्रकारों को वह शराब की दावत पर बुलाता। वह एक बोतल देशी शराब की चार बोतल बना कर अंग्रेजी की बोतलों में भरता और इन नौसिखिया पत्रकारों को उसी से नशा आ जाता।
कुछ दिन बाद अलीगढ़ के जनवादी लेखक सम्मेलन में संजय ने मधुकर को देखा पर वह बोला नहीं। मौका देख कर मधुकर उसके पास आया और बुदबुदाया, "शहर का झगड़ा शहर में। यहां कुछ नहीं होना चाहिए।" हाथ जोड़ता हुआ वह बोला, "अपने शहर की बेइज्जती नहीं होनी चाहिए।" पर संजय कुछ नहीं बोला। पर मधुकर यहां भी अपनी आदत से बाज नहीं आया। तारादत्त निर्विरोध की एक गजल तोड़ मरोड़ कर कवि गोष्ठी में पढ़ गया। और उसकी बड़ी थू-थू हुई घबरा कर वह नीरज के यहां पहुंच गया और उसने, "शराब पिलाइए" कहने लगा। नीरज ने भी उसे उलटे पांव वापस किया। अंतत: सम्मेलन खत्म होने से पहले ही उसने ट्रेन पकड़ ली।
वापस आकर उसने अपनी कविता की किताब छपवाने की धुन लग गई। वह कहता था, "जब तक हाथ में किताब न आ जाए, तब तक कोई हमें नहीं मानेगा। बस एक किताब आ जाए तो एक-एक से निपट लूंगा।" और सचमुच उसने चंदा बटोर कर "अपनी" एक "कविता की किताब" छपवा ली। किताब का छपना था कि उस पर चोरी के आरोप लगने चौतरफा शुरू हो गए। पर उसको इसकी फिक्र नहीं थी। यह सब तो उसके लिए पुरानी बात हो गई थी। नई बात यह थी कि अब उसके हाथ में अपनी किताब थी, उसकी फोटो भी उसमें छपी थी। जिस-तिस को वह बुला कर अपनी किताब भेंट करता और कहता, "सहयोग राशि पांच रुपए दे दीजिए।" वह हर किसी से कहता, "आप से किताब के दाम तो ले नहीं सकता, आप मित्र आदमी हैं पर प्रोडक्शन कास्ट तो निकालनी ही पड़ेगी।" ज्यादातर लोग यह पांच रुपए की सहयोग राशि संकोचवश दे देते। पर कुछ घाघ किस्म के लोग किताब उलट-पलट कर देखते और उन्हें लगता कि पांच रुपए का सौदा महंगा है, वह पांच रुपए देने से इंकार कर देते। कहते, "अगर फ्री में दे दीजिए तो ठीक है।" पर तब तक मधुकर उस घाघ के हाथ से किताब छीन लेता और उस पर लिखा, "प्रिय फला को सप्रेम भेंट" भी उसके सामने किचकिचा कर काट देता। आफिसों के सामने वह वेतन बंटने की पहली तारीख को किताब लेकर खड़ा हो जाता। और सो पचास कापी बेच ही डालता।
मधुकर की किस्मत अब जैसे उसकी राह देख रही थी। उन्हीं दिनों शहर में जो नया कमिश्नर आया वह "कवि" भी था। मधुकर को यह बात पता चल गई। अपनी कविता की किताब और अपनी पत्रिका लेकर उससे मिलने पहुंच गया। कमिश्नर भी भुखाया कवि था। मधुकर ने उसकी कविता की भूखी नब्ज छू ली। जगह-जगह कमिश्नर के सम्मान में वह कवि गोष्ठी, कवि सम्मेलन करवाने लगा। मामला चूंकि कमिश्नर का था सो जिला प्रशासन का पूरा अमला लग जाता। धीरे-धीरे मधुकर ने कमिश्नर की कविताओं की किताब छापने का जिम्मा ले लिया। कमिश्नर की एक किताब छपी, दूसरी छपी, तीसरी छपी और चौथी किताब के साथ-साथ मधुकर ने अपनी भी दो किताबें छाप लीं। और कोई भी किताब दस हजार से नीचे नहीं छपी। हालत यह थी कि तब समूची कमिश्नरी के लेखपाल तक कविता प्रेमी हो गए। और वह कविता की किताब खरीद रहे थे, किताब बेंच रहे थे। यह सारा माजरा दिल्ली की एक पत्रिका में जब छपा और सीधे-सीधे कमिश्नर को रिपोर्ट में हिट करते हुए सवाल उठाया गया कि आज के दौर में जब बड़े से बड़े कवि का भी कविता संग्रह दो हजार से ज्यादा कोई प्रकाशक नहीं छापता और अव्वल तो कविता संग्रह की कोई नहीं छापना चाहता तो कमिश्नर साहब की कविता पुस्तकों की दस-दस हजार प्रतियां कैसे बिक जा रही हैं? रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि कमिश्नर अपने पद का दुरुपयोग कर रहे हैं और उनके एक हम पियाला हम निवाला दोस्त इस सबका बेजां फायदा उठा रहे हैं।
मधुकर यह रिपोर्ट पढ़ कर इस बात पर नहीं नाराज हुआ कि यह रिपोर्ट क्यों छपी? उसकी नाराजगी इस बात को लेकर थी कि पूरी रिपोर्ट में उसका जिक्र तो था पर कहीं उसका नाम क्यों नहीं आया। उसे लगा कि उसे कमिश्नर से दूर करने की साजिश है। और उसने तुरंत पत्रिका के संपादक को चिट्ठी लिखी कि कमिश्नर का वह हम पियाला हम निवाला दोस्त कोई और नहीं मैं ही हूं। और रही कविता संग्रहों के दस हजार की संख्या में छपने और बिकने की बात तो हम लोगों की कविताओं में इतनी ऊर्जा है कि लोग खरीद रहे हैं और पढ़ रहे हैं। चिट्ठी छपी तो वह उस पत्रिका को लोगों को दिखाता फिरता और बताता कि, "देखो कमिश्नर मेरे दोस्त हैं।" और इसको भी उसने कैश किया।
पर इस सबके बावजूद महेंद्र मधुकर की चिंताओं का अंत नहीं था। उसकी नई चिंता अब पुरस्कृत होने की थी, सम्मानित होने की थी। उसने बड़ी दौड़ धूप की, बड़ा हाथ पांव मारा कि कम से कम उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का सबसे छोटा दो तीन हजार रुपए वाला पुरस्कार ही मिल जाए। पर वह हर बार असफल हो जाता। उलटे यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक टाइप कवि, आलोचक यह पुरस्कार मार ले जाते। वह इस पर भी बड़बड़ाता और पछताता कि वह भी क्यों न यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक हुआ? वह बड़बड़ाता, "ये विश्वविद्यालयी कविता एक दिन मर जाएगी। जिंदा रहेगी तो सिर्फ मेरी कविता।"
मधुकर की यह सारी बातें संजय के दिमाग में सिनेमा के किसी रील की तरह दौड़ गईं। रिक्शा धीरे-धीरे लाल बारादरी पहुंच गया था। सरोज जी रिक्शेवाले को डपट कर बोले, "रुको, हईं रुको।" तब जाकर कहीं संजय उसकी सिनेमा के रील से अलग हुआ। सरोज जी रिक्शे से उतरे, संजय भी उतरा। उतर कर रिक्शेवाले को पैसे देने लगा तो सरोज जी ने उसे रोक दिया। बोले, "आप क्यों दे रहे हैं, आयोजक देंगे।" कह कर उन्होंने लगभग चिल्ला कर एक आयोजक टाइप के व्यक्ति को बुलाया और कहा कि, "रिक्शे के पइसे दइ दीजिए।" उसने विनम्रता से सिर झुकाया और बोला, "एक मिनट में आया।" कह कर वह बारादरी के भीतर गया। और लौटा तो मधुकर उसके साथ था। मधुकर ने सरोज जी को देखा, रिक्शा देखा और जेब से पैसा निकाल कर दिया। अब तक उसने संजय को भी देख लिया था। उसके चेहरे पर घबराहट की रेखाएं फैल गईं। उसने उस गुलाबी मौसम में भी रूमाल से पसीना पोंछना शुरू कर दिया। पर संजय ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। सरोज जी के पीछे-पीछे चल दिया। मधुकर दौड़ कर सरोज जी की अगवानी में आया।
बारादरी के ऊपर हाल में सम्मान समारोह आयोजित था। हाल बहुत ही छोटा था। बमुश्किल पच्चीस तीस कुर्सियों की जगह थी, और इतनी कुर्सियां लग भी गईं थीं। पहुंचने वालों में आयोजकों में सी तीन चार लोगों के अलावा सरोज जी पहले व्यक्ति थे। जिनके साथ संजय नत्थी था। आयोजकों में से मधुकर को छोड़ कर कोई भी उसे नहीं पहचानता था। हां, मधुकर भी यहां आयोजक ही था, अपने सम्मान समारोह के बावजूद। इंतजाम में लगा बझा मधुकर अचानक परेशान हो गया था। उसके चमचे उसकी परेशानी देख परेशान हो गए थे पर परेशानी का सबब वह नहीं जा पा रहे थे। मधुकर को सरोज जी के इतनी जल्दी आ जाने की उम्मीद नहीं थी। और साथ में संजय के आने की तो कल्पना तक नहीं थी उसे। सरोज जी की अगवानी में लगा मधुकर सरोज जी को किसी सामान्य कुर्सी पर बिठाने लगा। पर सरोज जी ने जैसे उसका निवेदन सुना ही नहीं कि, "यहां बैठिए।" सरोज जी ने मन ही मन मंच पर रखी खास अतिथियों की कुर्सी में से बीच की कुर्सी तजवीज की जो जाहिर तौर पर समारोह के अध्यक्ष की होनी चाहिए, और उसी पर जाकर धप्प से बैठ गए।
"अच्छा-अच्छा" कह कर मधुकर मुड़ा तो उसने देखा कि जिस कुर्सी पर वह सरोज जी को बिठाना चाह रहा था उस पर संजय बैठ गया था। वह तमतमाया संजय के पास आया और उसे घूरने लगा। शकल ऐसे बनाई जैसे वह पूछना चाहता हो कि, "तुमको यहां किसने बुलाया?" वह शायद यह पूछना भी चाहता था कि तब तक सरोज जी शायद माजरा समझ गए थे या कि औपचारिकतावश बोले, "यह संजय जी हैं, हमारे वरिष्ठ सहयोगी हैं, अऊर हम इन्हें लइ आए हैं हियां।"
"मैं इन्हें जानता हूं।" मधुकर बोला, "एक समय बड़ी उष्मा और ऊर्जा होती थी इनकी कविता में।" उसने जोड़ा, "बड़े होनहार कवि थे पर जाने क्यों आज कल लिखना छोड़ दिया है।" मधुकर फीकी मुस्कान बिखेरता हुआ बोला, "कि फिर शुरू कर दिया?"
संजय चुप रहा।
पर मधुकर चुप नहीं रहा। बोला, "कविताएं लिखना।"
संजय फिर भी चुप रहा।
मधुकर उसकी बगल की कुर्सी पर बैठ गया। पसीना पोंछता हुआ बुदबुदाया, "शहर का झगड़ा शहर में।" और जैसे उसने हिदायत दी, "यहां अपने शहर की बेइज्जती नहीं होनी चाहिए।"
संजय कुछ बोला नहीं। न ही मधुकर की ओर उसने देखा।
पर मधुकर जैसे आश्वस्त हो लेना चाहता था। बोला, "आप तो दिल्ली में थे। लखनऊ कबसे आ गए?" उसके स्वर में अतिशय विनम्रता टपक रही थी। संजय की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं पाकर वह उठ खड़ा हुआ। बोला, "कुछ भी हो अपने शहर की बेइज्जती नहीं होनी चाहिए।"
फिर वह माइक वगैरह के इंतजाम और चमचों को निर्देश देने में लग गया।
यहां मधुकर का जाल बट्टा काफी तीखा और चौकस था। उसका यह सम्मान समारोह पूरी तरह प्रायोजित तो था ही, प्रायोजक भी वह खुद ही था। छोटी और घटिया बुद्धि ही सही पर इसका इस्तेमाल उसने बखूबी किया था। पूरी योजना इतनी नियोजित थी कि यह समारोह प्रायोजित है इसकी गंध भी किसी को लगती नजर नहीं आ रही थी। संजय तो खैर सब समझ गया था। क्योंकि मधुकर एक बार ऐसा पहले शहर में भी कर चुका था। तब उसने सम्मान समारोह के बजाय अपनी किताब पर बहसनुमा गोष्ठी आयोजित करवाई थी। इसके लिए उसने एक संस्था गठित की। तीन चार नए कवि टाइप लड़कों को पकड़ कर उनको पदाधिकारी बना दिया। सो वह सब पूरे उत्साह से जुट गए। शहर भर के अनजाने साहित्यकारों को बटोरा। संस्था चूंकि नई थी मधुकर का लेबिल नहीं था, सो ज्यादातर लोग आ गए। पर आकर पछताए। अब चूंकि आ गए थे सो विवशता थी बैठने की। बैठ गए। और बोलने की बात हुई तो बोले भी। जैसी कि मधुकर की आदत थी कि किसी समारोह में वह होता जैसे-तैसे संचालक बनकर माइक वह थाम ही लेता। ऐसा उसने अपनी किताब वाली गोष्ठी में नहीं किया। बिलकुल निरपेक्ष बना बैठा रहा। पर जब उसने देखा कि कई लोग उसे धोने में लग गए। उसे कवि मानने और उसकी कविताओं को कविता मानने से इंकार करने लगे। कुछ ऐसे भी "होशियार" लोग थे जो यह कह कर निकलने लगे कि किताब यहीं देखने को मिली, पढ़ी नहीं है सो कुछ बोलना उचित नहीं हैं पर जब दो तीन लोग बार बार "कहीं से प्रेरित कविताएं" की स्थापना देने लग गए और एक आलोचक ने साफ कह दिया कि यह किताब कविताओं की हेरा फेरी की किताब है तब मधुकर से नहीं रहा गया। उछल कर माइक थाम लिया। और जिससे जो बुलवाना चाहा वही बुलवाया और बाकी लोगों को यह कह कर चुप करा दिया कि "कुछ लोग पूर्वाग्रहवश व्यक्तिगत रूप से मुझे बदनाम करने की सायास कोशिश कर रहे हैं। वह लोग इस गोष्ठी को उखाड़ने की नियत बना कर आए हैं। पर हम उनकी इस मंशा को कामयाब नहीं होने देंगे।" बात फिर भी नहीं बनी तो उसने चाय समोसे का जलपान शुरू करवा दिया। और दुनाकदारों को वहीं सबके सामने पेमेंट कर गोष्ठी के समापन की घोषणा खुद ही कर दी थी। सब लोग संस्था वालों को गाली देते हुए चले गए। तो एक आलोचक ने कहा, "उन बेचारे लड़कों का क्या कसूर, इसने उनका इस्तेमाल कर लिया।"
मधुकर ने यहां लखनऊ में भी वही सब किया था पर बड़े जतन और यत्न से। विद्रोही नाम के एक लड़के से एक संस्था गठित करवाई। अपने सम्मान की योजना बनाई। सम्मान समारोह में भीड़ कैसे जुटे? इसके लिए उसने लखनऊ के छोटे और मझोले कवियों, कलाकारों, रंगकर्मियों, पत्रकारों और नेताओं की भी एक सूची बनाई और इसमें से करीब पैंतीस, चालीस लोगों को सम्मानित करने के लिए नाम तय कर लिया। और सूची में शामिल पुरस्कृत लोगों से ही एक सौ इक्यावन, एक सौ एक, इक्यावन या इक्कीस रुपए सहयोग के नाम पर मांग लिया। जिसने यह सहयोग नहीं दिया उसका नाम काट दिया। और जिसने जैसा सहयोग दिया उसके लिए वैसा ही पुरस्कार, शील्ड, कप या फीता तय कर दिया। सम्मान और पुरस्कार के भुखाए यह लोग इसी से खुश थे। इस तरह धीरे-धीरे लाल बारादरी का यह छोटा सा हाल भर गया।
हाल तो भर गया पर समारोह के अध्यक्ष सरोज जी को छोड़ कर बाकी विशिष्ट अतिथि, उदघाटनकर्ता वगैरह अभी तक नहीं आए थे। मधुकर ने अतिथियों का इंतजाम भी अपनी ओर से बहुत ही पुख्ता किया था। हिंदी के नाम पर हर जगह पहुंच जाने वाले एक कैबिनेट स्तर के खाद्य मंत्री वासुदेव सिंह समारोह के मुख्य अतिथि और उदघाटनकर्ता के रूप में आमंत्रित थे। हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष सुमन जी और एक सांध्य अखबार के संपादक विशिष्ट अतिथि थे। लखनऊ के तब सबसे ज्यादा प्रसार संख्या वाले अखबार के सरोज जी समारोह के अध्यक्ष पहले ही से नामित थे। न सिर्फ नामित थे, समारोह में सबसे पहले पहुंच कर अध्यक्ष की कुर्सी पर आसीन भी थे। संजय ने देखा सरोज जी जबसे कुर्सी पर बैठे तबसे वह सिर झुका कर ही बैठे थे। और करीब एक घंटे से वह ऐसे सिर झुकाए बैठे थे जैसे किसी तपस्या में लीन हों। संजय बैठे-बैठे ऊब गया था। कि तभी हाल में जैसे हलचल सी हुई।
पता चला सांध्य अखबार के संपादक जी विशिष्ट अतिथि की हैसियत से पधार गए थे। सुनहरे बटनों वाला कुर्ता जाकेट पहने वह संपादक कम व्यापारी ज्यादा लग रहे थे। उनकी देह से सेंट ऐसे गमक रहा था, उनके हाव-भाव और मुसकुराने का अंदाज ऐसा था जैसे वह किसी सम्मान समारोह में नहीं, वहां मुजरा सुनने आए हों। इन संपादक महोदय को संजय पहले से जानता था। पहले ये संपादक महोदय दिल्ली में एक हिंदी समाचार एजेंसी में जनरल मैनेजर और संपादक थे। हिंदी समाचार एजेंसी बंद करवा कर अब वह लखनऊ में सांध्य अखबार के संपादक का दायित्व निभाने आ गए थे। महिलाओं पर हमेशा लार गिराने तथा संस्थानों को बंद कराने के लिए मशहूर यह संपादक महोदय भी पत्रकारिता जगत के मधुकर थे। इसलिए उन्हें यहां मुद्रा में देख कर संजय को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ। मधुकर की अगुवानी में अभी यह संपादक महोदय कुर्सी पर बैठे ही थे कि हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष सुमन जी भी आ गए। मधुकर लपक कर उनकी अगुवानी में लग गया। उसके चेहरे की चमक अचानक बढ़ गई थी। अब जब सुमन जी आए तो सरोज जी फिर भी सिर झुकाए तपस्वी मुद्रा में लीन थे, हर किसी से बेखबर। पर जब सुमन जी मंच के पास पहुंचे तो मधुकर ने सरोज जी को लगभग झिंझोड़ा। ऐसे जैसे वह नींद में हो। सरोज जी ने सिर उठाया, मंद-मंद मुसकुराए और चुप ही चुप जैसे पूछा कि "बात क्या है?"
"सरोज जी जरा सा इस कुर्सी पर आ जाइए।" हाथ जोड़ते हुए मधुकर धीरे से बोला। जवाब में सरोज जी ने खा जाने वाली नजरों से देखा पर बोले कुछ नहीं, न ही अपनी कुर्सी पर से उठे। संजय ने देखा, मधुकर का जैसे धैर्य चुक रहा था। उसने रूमाल से माथा पोंछा और फिर पूरी विनम्रता से हाथ जाड़ कर बोला, "सरोज जी प्लीज।" अबकी उसकी आवाज का वाल्यूम बढ़ गया। सरोज जी ने उसे फिर खा जाने वाली नजरों से देखा। संजय को लगा जैसे वह उसे कच्चा चबा जाएंगे। पर उन्होंने कुर्सी छोड़ी नहीं, उसी को उठा कर एक कुर्सी के बराबर खिसक गए। दरअसल सरोज जी इस बात से डर गए थे कि सुमन जी के आ जाने से कहीं उनकी अध्यक्षता तो खतरे में नहीं पड़ गई? ऐसा उन्होंने बाद में बताया। बहरहाल, मधुकर ने भी सरोज जी को अजीब नजरों से घूरा और पलट कर विद्रोही जो उस समारोह का घोषित "संयोजक" था, को ऐसा डपटा कि उसे वह बस झापड़ मार देगा। पर मारा नहीं, बोला, "कैसे-कैसे बेहूदे लोगों को बुला लिया !" कह कर उसने विद्रोही को आदेश दिया कि, "सरोज जी के बगल में कुर्सी पड़ी है उसे उठा लाओ।" विद्रोही थोड़ी झिझका तो मधुकर फिर डपटा, "कह रहा हूं कुर्सी उठा लाओ।" सींकिया काठी का विद्रोही जिसके अंग-अंग से विद्रोह फूट रहा था उसको यह सब अपमानित करने वाला लगा। वह मधुकर से तो कुछ नहीं बोला। पर लपक कर उसने अपने दूसरे चेले से कह कर सरोज जी के बगल वाली कुर्सी उठवा ली। सरोज जी की बगल वाली कुर्सी जब उठी तो सरोज जी ने मधुकर और विद्रोही को ऐसे देखा जैसे वह दोनों मिलकर उनकी दुनिया उजाड़ देना चाहते हों। वह जैसे अनाथ हो गए हों। सरोज जी की यह दशा और "प्रतिष्ठा" संजय को भी अच्छी नहीं लग रही थी। उसने देखा सरोज जी सचमुच बहुत लाचार लग रहे थे पर संजय की ओर देखने से भी कतरा रहे थे।
संजय मधुकर की विवशता भी देख रहा था। लाल बारादरी का वह हाल वास्तव में इतना छोटा था कि आने जाने की जगह छोड़ने के बाद चार कुर्सियां ही मंच पर लग पाई थीं। मधुकर को अंदाजा कतई नहीं था कि आमंत्रित चारों विशिष्ट अतिथियों में से चारों के चारों आ जाएंगे। उसको दो-एक के ही आने की उम्मीद थी। पर चार में से तीन आ चुके थे। और चौथे अतिथि मंत्री जी थे। मंत्री जी के भी आने की सूचना आ गई थी। पुलिस वाले अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद थे। एक इंस्पेक्टर ने आकर बता दिया था कि वायरलेस पर संदेश आ गया है कि मंत्री जी घर से निकल चुके हैं। रास्ते में हैं। और कि बस यहां पहुंचने ही वाले हैं। विद्रोही माइक पर इस बात की घोषणा भी बार-बार कर रहा था। तो तीन विशिष्ट आ चुके थे। चौथे मंत्री जी आ रहे थे। और मंच पर कुर्सी थी सिर्फ चार। मधुकर की सारी परेशानी यही थी। क्योंकि अतिथियों के साथ मंच पर वह खुद भी बैठना चाहता था। उसका वश चलता तो सरोज जो को मंच से उतार देता। क्योंकि चारों विशिष्ट अतिथियों में न सिर्फ सबसे गरीब, निरीह और कम जोर बल्कि बेकार भी उसे सरोज जी ही लग रहे थे। पर कहीं वह नाराज होकर समारोह की गरिमा नष्ट न कर दें इसी चिंतावश उन्हें मंच से उतारने के बजाय मंच पर एक पांचवी कुर्सी लगवाने की जुगत में मधुकर लगा हुआ था। इसी जुगत में, रणनीति में उसने एक दूसरे चमचे को बुलाया और निर्देश दिया कि सरोज जी को थोड़ा किनारे खिसकाओ। उसने जाकर बिना किसी मुरौव्वत के सरोज जी की कुर्सी किनारे खिसकवा दी। और मधुकर ने अपनी पांचवीं कुर्सी मंच पर न सिर्फ रखवा ली, बगल की कुर्सी भी मंत्री जी के लिए खाली रखवा ली। ताकि वह फोटो में मंत्री जी के बगल में नजर आए। पर मंत्री जी के आने में लगातार विलंब होता जा रहा था। इस विलंब से एक व्यक्ति को छोड़ कर समारोह में उपस्थित सभी उकता रहे थे। पर विद्रोही माइक पकड़ कर लगातार अपने ही को स्थापित करने में डटा पड़ा था। वह माइक पर जैसे जूझ गया था। संजय ने देखा, मधुकर को विद्रोही की यह अदा बिलकुल ही अच्छी नहीं लग रही थी। और वह रह-रह कर बैठे-बैठे पीछे से विद्रोही का कुरता पकड़ कर खींच लेता। कुरता खींच कर मधुकर जैसे उसे संकेत दे रहा था कि, "अपना यह प्रलाप बंद करो।" मधुकर और विद्रोही का यह प्रसंग मंच और मंच से नीचे सभी देख रहे थे। पर विद्रोही न यह सब देख रहा था, न समझ रहा था, उलटे जब बहुत हो गया तो वह माइक उठा कर दो कदम आगे बढ़ गया। इस तरह मधुकर की पहुंच से बाहर होकर वह अपने को स्थापित करने में जी जान से जुट गया।
मधुकर कुढ़ कर रह गया।
संजय यह सब देख-देख कर उकता सा गया था। वह वहां से खिसक लेने की सोच ही रहा था कि मंत्री जी आ गए। सभी उठ खड़े हुए। पर संजय बैठा रहा। सब लोग बैठ गए। सरोज जी की छटपटाहट अब देखने लायक थी। मंत्री जी की बगल में बैठने को हालांकि हर कोई लालायित था। सुमन, संपादक जी, सरोज जी और मधुकर खुद। पर सबसे ज्यादा छटपटाहट सरोज जी के चेहरे पर थी। सरोज जी अपनी कुर्सी से उठे भी। उधर लपके भी। पर तब तक मंत्री जी को मधुकर अपनी बगल में आसीन करा चुका था। इस अफरा-तफरी में सुमन जी भी पिछड़ गए और मंत्री जी की दूसरी बगल वाली कुर्सी में संपादक जी फिट हो गए। तब जब कि अभी तक सुमन जी उसी कुर्सी पर बैठे हुए थे। वह मन मार कर संपादक जी की पुरानी कुर्सी पर बैठे। सरोज जी के बगलगीर बन कर। पर इस पूरे उठा पटक में सबसे ज्यादा नुकसान में सरोज जी ही रहे। उनकी कुर्सी अब बिलकुल हाशिए पर खिसक क्या खिसका दी गई थी। और जरा संभल कर नहीं बैठते सरोज जी तो नीचे भी लुढ़क सकते थे। पर सरोज जी जरा नहीं पूरा संभल कर बैठ गए थे। क्योंकि अब समारोह के अध्यक्ष का नाम घोषित होने का समय आ गया था। और जैसा कि तय था सरोज जी सचमुच अध्यक्ष घोषित कर दिए गए। सरोज जी अपना छोटा सा सीना फुला कर जो जीता व ही सिकंदर का भाव चेहरे पर चिपका कर ऐसे बैठे जैसे उनके आगे वहां सभी बौने हों। माल्यार्पण शुरू हो गया था। मंत्री जी से माल्यार्पण शुरू होकर मधुकर से होते हुए सबसे आखिर में माला सरोज जी तक पहुंची तो शायद उन्हें अपनी हीनता का एक बार फिर एहसास हुआ। माला भी उन्हें अपेक्षतया छोटी ही मिली। पर मिली, इस भर से उन्होंने संतोष कर लिया। माला पहनते ही सबने माला उतार दी थी। पर सरोज जी ने माला आखिर तक नहीं उतारी। वह पहने रहे। अब हालत यह थी एक तरफ समारोह के अध्यक्ष सरोज जी थे, माला पहने हुए। दूसरी तरफ समारोह का संचालक विद्रोही था, माइक लिए हुए। दोनों में जैसे मुकाबला हो रहा था कि कौन ज्यादा "ठेंठ" है। कौन ज्यादा "ढींठ" और "हया प्रूफ" है। जाहिर है कि सरोज जी ही अंतत: सफल साबित हुए। क्योंकि विद्रोही विद्रोही पर उतर आया कि कुछ भी हो जाए माइक नहीं छोड़ेंगे। तभी मधुकर अपनी सीट पर से उठा और पीछे से उसके कान में बोला, "अब मुझे आमंत्रित करो" तो जैसे विद्रोही तुरंत कुछ समझ नहीं पाया और मंत्री जी के स्वागत में अपना कवितामय भाषण बीच में ही छोड़ कर बोल पड़ा, "आदरणीय मधुकर जी का आदेश है कि अब मुझे आमंत्रित करो तो मैं अब उन्हें सादर आमंत्रित करता हूं।" सुन कर सब के सब हंसने लगे। और विद्रोही बिना कुछ समझे कि लोग क्यों हंस रहे हैं टिप से खुद भी हंस पड़ा। पर माइक उसने नहीं छोड़ा और बोला, "हां तो मैं कह रहा था" वह अभी यह बोल ही रहा था कि मधुकर, "सब कुछ तुम्हीं बोल डालोगे तो मैं क्या बोलूंगा" कहते हुए घसीट कर उससे माइक छीनता हुआ शुरू हो गया, "प्रात: स्मरणीय...." और फिर जितने विशेषण, अलंकरण उसे याद आए वह बड़ी देर तक बोलता रहा, "हिंदी के धूमकेतु, हिंदी के वो, हिंदी के ये" और सब सारे विशेषण, अलंकरण वह दो-दो, तीन-तीन बार मंत्री जी के सम्मान में बोल चुका पर उनका नाम उसकी जबान पर फिर भी नहीं आ पाया तो माइक पर हाथ लगाकर, सिर झुका कर वह मंत्री जी से ही पूछ बैठा, "क्षमा कीजिएगा, आपका नाम क्या है?" पूछा मधुकर ने धीरे से था पर माइक जरा ज्यादा सेंसिटिव था उसने यह सवाल सबको सुना दिया। मंत्री जी का काला-काला चेहरा तमतमा कर सुर्ख हो गया। मारे गुस्से के वह लाल हुए जा रहे थे कि इसी बीच संपादक ने इलायची चबाते हुए उनका नाम उच्चार दिया, "वासुदेव सिंह जी!" तो मधुकर ऐसा उछला जैसे गावसकर ने सिक्सर मारा हो, "हां, तो वासुदेव सिंह जी!" कह कर वह फिर उनके यशोगान में लग गया। पर मंत्री जी को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। वह दो तीन बार उठने को उद्धत हुए पर बैठ-बैठ गए। पर उनके बैठने का रंग उड़ गया था। ढंग बदल गया था। पर मधुकर उनकी वंदना में मुक्तक पर मुक्तक पढ़े जा रहा था। अंतत: जब बहुत हो गया तो मंत्री जी मधुकर की बीच "वंदना" में बोल पड़े, "मेरे पास ज्यादा समय नहीं है, मुझे जाना है।" कहते हुए वह उठ खड़े हुए, "अब मुझे आज्ञा दीजिए!" मधुकर की जैसे हवा सरक गई। वह हकबका गया। पर धैर्य उसका कायम था। हाथ जोड़कर बोला, "पर कृपा करके पुरस्कार वितरण करते जाइए।"
"बहुत विद्वान लोग बैठे हैं।" मंत्री जी ने संपादक और सुमन जी को इंगित किया, "पुरस्कार वितरण आप लोगों से करा लीजिए।"
"बस ज्यादा नहीं दस मिनट का समय और दे दें।" मधुकर हाथ जोड़ता हुआ बोला।
"अब इन लोगों का मन रख लीजिए।" संपादक ने भी विनती की। मंत्री जी मान गए। पर मधुकर की जाहिलियत से समारोह का रंग उतर चुका था।
पुरस्कार वितरण शुरू हुआ। सबसे पहले उस समारोह का सबसे बड़ा पुरस्कार महेंद्र को मिला-मुक्ति बोध पुरस्कार। उसने अपने लिए एक शील्ड बनवा रखी थी और दो हजार एक रुपए का एक बैंक ड्राफ्ट। बैंक ड्राफ्ट वह जेब से निकाल कर विद्रोही को दे रहा था कि वह मंत्री जी को दे दे उसे देने के लिए। इस तरह जो भद हुई वह तो हुई ही पर जो नहीं जानता था वह भी जान गया कि पुरस्कार समारोह पूरा का पूरा न सिर्फ प्रायोजित है बल्कि खुद के लिए खुद के द्वारा आयोजित है। खैर, धड़, धड़ पैंतीस-चालीस लोगों के नाम विद्रोही ने कुछ इस तरह पुकारे जैसे वह लोग किसी बच्चे की तरह मेले में खो गए हों और माइक पर एनाउंसमेंट किया जा रहा हो कि उनके अभिभावक आकर उन्हें ले जाएं। खैर, पुरस्कारों के अभिभावक आ-आ कर अपने-अपने पैसे की शील्ड, कप और फीता मय प्रमाण-पत्र को ले गए। पुरस्कार वितरण के बाद यह हुआ कि सभी विशिष्ट अतिथि दो-दो शब्द बोल दें। संपादक जी का नंबर पहले आया वह मौके की नजाकत देखते हुए पारंपरिक शब्दावली को दुहरा कर सभी पुरस्कृत लोगों को बधाई देकर दो मिनट में ही बैठ गए। सुमन जी जैसा वक्ता भी जो घंटे दो घंटे से कम बोलना नहीं जानता था बस बधाई देकर एक दो बार बाल झटक कर ऐसे बैठ गए जैसे इस समारोह में आकर उसने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। ऐसी शर्मिंदगी सुमन जी के चेहरे पर संजय ने कभी नहीं देखी थी। मंत्री जी ने भी अपना नंबर आने पर सबको बहुत-बहुत बधाई दी, आयोजकों को धन्यवाद कहा और समारोह से अचानक चल पड़े। मंत्री जी क्या चले, सभी उनके पीछे चल पड़े। आखिर में मंच पर सिर्फ सरोज जी बैठे रह गए। शायद अपने अध्यक्षीय भाषण की बारी जोहते हुए। और दर्शकों में संजय बैठा रह गया था सरोज जी को जोहते हुए। इतना होने पर भी सरोज जी सिर धंसाए बैठे हुए थे। उनके इस धैर्य को देख कर दंग ही हुआ जा सकता था। और वह बड़ी देर तक इस तरह बैठे-बैठे जोहते रहे कि अध्यक्षीय भाषण तो उनका होगा ही। लोग लौट कर आएंगे ही। पर लौट कर कौन आने वाला था, यह संजय जानता था। वही मधुकर, विद्रोही और उसके दो तीन चेले, चमचे। यही आए भी। सरोज जी से विद्रोही ने कहा, "अच्छा दादा, आशीर्वाद देने के लिए आप आए, बहुत-बहुत शुक्रिया।"
सरोज जी चुप।
"अच्छा दादा चला जाए।" थोड़ी देर रुक कर जब विद्रोही बोला तो सरोज जी उठ खड़े हुए। वह उठे ऐसे जैसे कोई उनका सारा कुछ लूट ले गया हो। वह खड़बड़-खड़बड़ चल कर नीचे आए। विद्रोही उन्हें नीचे तक छोड़ने आया। नीचे आने के बाद वह नमस्कार कर जाने लगा तो सरोज जी का धैर्य जैसे चुक गया, उनकी अपमान कथा जैसे पूरी हो गई। वह चिल्लाए, "रिक्शा पर तो बइबाइ देव!"
"हां दादा, बुलाते हैं रिक्शा।" विद्रोही ने जोड़ा, "चिल्लाते क्यों हैं?" कह कर उसने अपने दूसरे चेले से रिक्शा लाने को कहा। बड़ी देर बाद वह एक खटारा सा रिक्शा लेकर आया। सरोज जी रिक्शे पर बैठ गए। और संजय से खीझते हुए बोले, "आप भी बैठ जाइए।" संजय भी जब रिक्शे पर बैठ गया और रिक्शा वाला चलने लगा तो सरोज जी फिर चीखे, "रुको।"
"का बात है?" रिक्शा वाला भी उसी टोन में चीखा।
"जवन तुमका बुलाइ लाए हैं, उनसे आपन पइसा भी मांग लेव।"
"तब उतरौ तुम, हम जाते हैं।" रिक्शे वाले ने घुड़पा।
"अच्छा, अच्छा तुम चलो। पैसा हम देंगे।" संजय बोला।
"बड़ा बेशर्म हैं सब।" सरोज जी बोले, "आप ठीक ही कहि रहे थे कि आदमी ठीक नहीं है।" उन्होंने जोड़ा, "बताइए भला कहीं अध्यक्षीय भाषण के बिना भी समारोह होता है?" लगा जैसे वह अभी रो पड़ेंगे। पर उसने देखा, माला उनके गले में अभी भी पड़ी हुई थी।
"मैं तो पहले ही आप से कह रहा था कि मत चलिए।" संजय बोला।
"हां, आपका कहना मान लेना चाहिए था।" सरोज जी कहने लगे, "कोई साहित्यिक संस्कार था ही नहीं उसमें।" कह कर उन्होंने माला गले से निकाल कर कुरते की जेब में रखी। और वह रिक्शे पर बैठे-बैठे जैसे सो गए। संजय भी चुप रहा। रिक्शा खटर-पटर चलता रहा।
पर दूसरे दिन सरोज जी जैसे सारा अपमान पी गए थे। उन्होंने संजय को अपनी केबिन में बुलाया और कहा कि, "कल के समारोह की रिपोर्ट बना दीजिए।"
"कौन सा समारोह?" संजय अचकचा गया।
"वही कल का पुरस्कार समारोह, सम्मान समारोह।" सरोज जी सहज होकर बोले। पर संजय असहज हो गया। और बिना बोले वह सरोज जी को घूरने लगा।
"साहित्यिक समारोह था। भूल जाएइ बाकी सब कुछ।" सरोज जी बोले, "दो पैरा ही बना दीजिए।" वह रुके, "बोले, आखिर मंत्री आए थे। खबर तो है ही।"
"पर मैंने तो कुछ भी नोट भी नहीं किया।" संजय टालते हुए बोला।
"यह कार्ड ले लीडिए। और याददाश्त के आधार पर बना दीजिए।" सरोज जी अनुरोध के लहजे में बोले।
"बना तो दूंगा।" वह बोला, "पर जो-जो घटा था सब कुछ जस का तस!" संजय उत्तेजित हो गया।
"अरे नहीं। वह सब नहीं।" सरोज जी बोले, "बस एक औपचारिक सी खबर बना दीजिए।"
"मैं नहीं बनाऊंगा।" संजय सख्त होकर बोला, "चाहे आप बुरा मानिए चाहे भला।" उसने जोड़ा, "फिर आपका इतना अपमान हुआ। तब भी आप खबर बनाने को कह रहे हैं। पर मैं एक लाइन नहीं लिखूंगा।" कह कर
संजय उनकी केबिन से बाहर निकल आया।
रात को वह जब दफ्तर से चलने लगा तो सरोज जी ने फिर उसे बुलाया। वह उनकी केबिन में पहुंचा तो सरोज जी बोले, "वह बेचारे सब फिर आए थे। गलती के लिए माफी मांग रहे थे। मेरे पैर गिर पड़े।" वह जैसे संजय को टटोलते हुए बोले, "मैंने माफ कर दिया।"
"पर मैं खबर नहीं लिखूंगा।" संजय बोला।
"ठीक है, मैं ही आपकी ओर से लिख देता हूं।" कह कर सरोज जी लिखने में लग गए।
संजय घर चला गया।
दूसरे दिन संजय अखबार में उस पुरस्कार समारोह की लंबी चौड़ी रिपोर्ट देख कर चकित रह गया। रिपोर्ट सरोज जी के अध्यक्षीय भाषण से शुरू हुई थी, और उनका अध्यक्षीण भाषण भी काफी लंबा था, बाकी रिपोर्ट भी बिलकुल "हरी-हरी" थी। हेडिंग भी सरोज जी के अध्यक्षीण भाषण पर ही थी।
दफ्तर आकर वह सरोज से भिड़ गया, "यह सब क्या है सरोज जी।"
सरोज जी कुछ नहीं बोले।
"पर आपका तो वहां अध्यक्षीय भाषण भी नहीं हुआ था। इतना अपमानित किया गया आपको वहां और आप फिर भी?"
"जो बात वहां नहीं कह पाए, वह यहां अखबार में कह दी।" सरोज जी सहज भाव से बोले, "वहां सिर्फ पैंतीस चालीस लोग सुनते, यहां हजारों लोग पढ़ेंगे। मतलब जो अपनी बात लोगों तक पहुंचाने से है।" कह कर सरोज जी बोले, "मुझे एक इस्टोरी लिखनी है। अब आप जाइए।"
शाम को उस सांध्य अखबार के संपादक जी सरोज जी से भी दो कदम आगे निकल गए। सांध्य अखबार में चार कालम की उस पुरस्कार समारोह की बड़ी सी फोटो छपी थी। जिसमें मंत्री जी मधुकर को शील्ड दे रहे थे और संपादक जी मंत्री जी को निहार रहे थे। पूरे फोटो में मंत्री जी और मधुकर गौड़ थे, संपादक जी, फ्लैश हो रहे थे। फोटो के साथ छपी खबर में यहां संपादक जी का भारी भरकम वक्तव्य था और खबर की हेडिंग भी संपादक जी के वक्तव्य से ही लगाई गई थी। बाद में हमदम ने बताया कि मधुकर ने इस पुरस्कार समारोह की बड़ी-बड़ी रिपोर्टेंमय फोटो के अपने शहर के अखबारों में भी छपवाईं।
मधुकर और उस सांध्य अखबार के संपादक का मामला तो फिर भी समझ में आता था। पर सरोज जी तो बाकायदा अपमानित हुए थे। सम्मान सहित अपमानित।
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