शुक्रवार, 20 नवम्बर 2009
कामसूत्र की उत्पत्ति की शास्त्रकथा बड़ी रोचक है। इस कथा का भी यदि देरीदियन मूल्यांकन किया जाए तो अनेक नए पक्षों पर रोशनी पड़ती है। पहली बात यह निकलती है कि कामशास्त्र, अर्थशास्त्र और आचार शास्त्र का हिस्सा है। आरंभ में ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों का एक विशाल ग्रंथ बनाया।उस शास्त्रार्णव का मंथन कर मनु ने एक पृथक आचार शास्त्र बनाया।जो मनुसंहिता या धर्मशास्त्र के नाम से विख्यात है। ब्रह्मा के ग्रंथ के आधार पर बृहस्पति ने ब्रार्हस्पत्यम् अर्थशास्त्र की रचना की। ब्रह्मा के ग्रंथ के आधार पर ही महादेवजी के अनुचर नंदी ने एक हजार अध्यायों के कामशास्त्र की रचना की। उसी संस्करण के आधार पर श्वेतकेतु ने पांच सौ अध्यायों का संक्षिप्त संस्करण तैयार किया। श्वेतकेतु की रचना के आधार पर बाभ्रव्य ने डेढ सौ अध्यायों का संस्करण तैयार किया। यही वह बिन्दु है जहां से कामशास्त्र की नयी परंपरा सामने आती है। बाभ्रव्य के पहले कामशास्त्र वाचिक परंपरा का अंग था,बाभ्रव्य ने ही उसे शास्त्र का रूप दिया। कालान्तर में बाभ्रव्य के कामशास्त्र में अनेक चीजें जोड़ी गईं,और अनेक अध्यायों को स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में पेश किया गया। यही वजह है कामसूत्र ग्रंथ न होकर संग्रह है।
बाभ्रव्य रचित कामशास्त्र के छठे भाग वैशिक प्रकरण को दत्तक आचार्य ने ,आचार्य चारायण ने साधारण अधिकरण, सुवर्णनाभ ने साम्प्रयोगिक अधिकरण,आचार्य घोटकमुख ने कन्यासम्प्रयुक्तक, गोनर्दीय ने भार्याधिकरण, आचार्य गोणिकापुत्र ने पारदारिक अधिकरण,आचार्य
कुचुमार ने औपनिषदिक नामक अधिकरण को अलग करके संपादित किया। संभवत:
बाभ्रव्य का कामशास्त्र पहला ग्रंथ है जिसकी विखंडित रूप में व्याख्या की
गई। कामशास्त्र की इन विखंडित व्याख्याओं के आधार पर ही वात्स्यायन ने कामसूत्र की रचना की।
कामसूत्र के आरंभ में किसी देवी या देवता की वंदना नहीं की गई है। बल्कि कहा गया ''धर्मार्थकामेभ्यो नम:।'' धर्म,अर्थ और काम को नमस्कार है। आगे कहा '' शास्त्रे प्रकृत्वात्'' यानी इस शास्त्र में मूल रूप से धर्म,अर्थ और काम का उपदेश दिया गया है ,इसलिए धर्म,अर्थ
और काम को ही नमस्कार किया गया है। जिन आचार्यों ने इन तत्वों का बोध
कराया उनको नमस्कार किया गया है। इसके बाद कामसूत्रकार ने विस्तार से उस
परंपरा का जिक्र किया है जिसके कारण कामशास्त्र का विमर्श हमारे सामने आया।
कामसूत्र के 'शास्त्रसंग्रह प्रकरणम्' नामक
पहले अध्याय में यह बताया गया है कि कामसूत्र के प्रत्येक अध्याय में क्या
है और किस तरह कामसूत्र हमारे सामने आया। जयमंगला टीका को कामसूत्र की
सबसे अच्छी टीका माना जाता है। इस टीका का हिन्दी अनुवाद भी है। जयमंगला
टीकाकार ने अनेक ऐसी
बातें इस कृति में शामिल कर दी हैं जो कृति के मूल लक्ष्य और परिप्रेक्ष्य
से मेल नहीं पातीं। इनका अलग से मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
काम या सेक्स क्या है ? कामसूत्र के दूसरे अध्याय में वात्स्यायन ने 'काम' की अवधारणा पेश की है। लिखा है , '' श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणानामात्मसंयुक्तेन मनसाधिष्ठितानां स्वेषु विषयेष्वानुकूल्यत: प्रवृत्ति: काम:।'' अर्थात् कान, त्वचा, ऑंख,जीभ,नाक
इन पाँच इन्द्रियों की इच्छानुसार शब्द, स्पर्श,रूप, रस और गंध इन विषयों
में प्रवृत्ति ही काम है अथवा इन प्रवृत्तियों से आत्मा जो आनंद अनुभव करती
है,उसे 'काम' कहते हैं। आगे कहा '' स्पर्शविशेषविषयात्वस्या
भि माननिकसुखानुबिध्दा फलवत्यर्थ प्रतीति: प्राधान्यात्काम:।'' अर्थात्
चुम्बन,आलिंगन,प्रासंगिक सुख के साथ गाल,स्तन,नितम्ब आदि विशेष अंगों के
स्पर्श करने से आनंद की जो प्राप्ति होती है वह 'काम' है। इस सूत्र में 'फलवती प्रतीति'का खास अर्थ है।
कामसूत्र के चर्चित टीकाकार यशोधर ने इस शब्द का भाव चुम्बन,आलिंगन
से लेकर वीर्यक्षरण पर्यन्त तक के आनंद को माना है। इसी क्रम में
उन्होंने लिखा कि कामसूत्र को काम- व्यवहार निपुण व्यक्ति से जानना चाहिए।
यह मिथ जग प्रसिध्द है कि सेक्स करने के लिए ज्ञान की जरूरत नहीं होती। क्योंकि पशु ,पक्षियों में सेक्स की प्रवृत्ति नजर आती है। सेक्स तो बगैर सिखाए या सीखे आ जाता है। इसके प्रत्युत्तर में कामसूत्र में लिखा है, ''संप्रयोगपराधीनत्वात् स्त्रीपुंसयोरूपायमपेक्षते।'' अर्थात्
सम्भोग में पराधीन होने से स्त्री और पुरूष को उस पराधीनता से बचाने के
लिए शास्त्र की अपेक्षा हुआ करती है। इसका टीकाकारों ने अर्थ किया है कि
सेक्स शिक्षा भय,लज्जा,पराधीनता से मुक्त करती है। आनंद,सुखी और सम्पन्न बनाती है। दायित्वबोध, परोपकार और उदात्त भावों की सृष्टि करती है। अपने सहचर के प्रति श्रध्दा,विश्वास,हितकामना और अनुराग बढ़ाती है। कामशास्त्र के प्रति उदासीनता के कारण अनबन,कलह, व्यभिचार, असंतोष, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और अनेक शारीरिक बीमारियों के होने का खतरा है।
वात्स्यायन ने 'कामसूत्र' में धर्म और अर्थ की व्याख्या सकारात्मक गतिविधि के रूप में की है ,और काम की व्याख्या नकारात्मक पक्षों के विवेचन और उनके समाधान के रूप में कामसूत्र रचा गया। यह जनप्रिय धारणा थी कि वह धर्म ,अर्थ तथा सज्जनों के विरूध्द है। इस धारणा का त्रिवर्ग प्रतिपत्तिप्रकरणम् के 32से लेकर 37 वें सूत्र तक विवेचन है।
वात्स्यायन ने सवाल किया है यदि काम से दोष उत्पन्न होते हैं तो उनके
समाधान के बारे में भी सोचा जाना चाहिए। यही वह मूल चिन्ता है जिसके कारण
कामसूत्र के निर्माण की आवश्यकता महसूस की गई। यह मूलत: सेक्स के
दुष्प्रभावों से बचने के लिए ही रचा गया ग्रंथ है। सेक्स शिक्षा इस तरह
प्राप्त किया जाए जिससे किसी अन्य कार्य में बाधा न पड़े। वात्स्यायन की
स्पष्ट राय है कि काम प्राप्ति की चेष्टा करनी चाहिए साथ ही उसके दोषों से
बचना चाहिए। वात्स्यायन की स्पष्ट राय है कि साधारण लोगों को धर्म और अर्थ
के शास्त्रों के साथ कामशास्त्र का भी ज्ञान कराया जाना चाहिए।उन्होंने
लिखा है, '' धर्मार्थाङ्गविद्याकालाननुपरोधयन् कामसूत्रं तदङ्गविद्याश्च पुरूषोधीयीत।'' अर्थात् धर्मशास्त्र,अर्थशास्त्र
तथा इनके अंगभूत शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही पुरूष को कामशास्त्र के
अंगभूत शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए। कामसूत्र का अध्ययन स्त्री और
पुरूष दोनों को करना चाहिए। स्त्री को कामशास्त्र का पिता के घर पर ही
अध्ययन करना चाहिए।यदि शादी हो जाती है तो पति की अनुमति से अध्ययन करना
चाहिए।
जिस तरह इन दिनों अनेक लोग यह मानते हैं कि स्त्रियों को सेक्स शिक्षा
नहीं दी जानी चाहिए वात्स्यायन के जमाने में भी ऐसा सोचने वाले लोग थे।
वात्स्यायन ने इन सभी के तर्कों का खण्डन किया है और विस्तार से बताया है
कि सेक्स शिक्षा क्यों जरूरी है। उनका मानना है कि स्त्रियों को सेक्स के
व्यवहारिक पक्ष का तो ज्ञान होता है किन्तु शास्त्रज्ञान नहीं होता। अत:
उन्हें कामशास्त्र का ज्ञान कराया जाना चाहिए। वात्स्यायन का यह भी मानना
है कामशास्त्र की सबसे अच्छी शिक्षा स्त्री से ही मिल सकती है। क्योंकि उस
जमाने में स्त्रियां ही सबसे अच्छी ज्ञाता हुआ करती थीं। स्त्रियों के लिए
सेक्स शिक्षा देने वालों का अभाव रहा है।अत: उनके लिए किस तरह की स्त्री
शिक्षिका हो सकती है ,इसका वर्णन करते हुए छह किस्म की औरतों का जिक्र किया है। 'जो औरत पुरूष के साथ संभोग का अनुभव प्राप्त कर चुकी हो।साथ में पाली-पोसी,साथ में खेली हुई धाय की लड़की हो,अथवा निश्छल हृदय की सखी हो जो संभोग का अनुभव प्राप्त कर चुकी हो, अपनी ही उम्र की मौसी, मौसी के समान विश्वासयोग्य बूढ़ी दासी, कुल-शील स्वभाव से पूर्व परिचित भिक्षुणी-संन्यासिनी, अपनी बड़ी बहिन आदि।
कामसूत्र में संभोग और प्रेम के जितने भी उपाय सुझाए हैं उनमें स्त्री और
पुरूष दोनों को समान रूप से सुझाव दिए गए हैं। दोनों के लिए अलग-अलग किस्म
की व्यवस्थाओं का निर्देश है। जो सुझाव दिए गए हैं वे व्यवहारिक हैं।
वात्स्यायन इन्हें नैतिकता के नजरिए से नहीं देखते। इन सुझावों में भिन्न
किस्म की काम मुद्राओं का व्यवस्थित विवेचन किया गया है। अधिकांश काम
मुद्राओं के बारे में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में नैतिक
निष्कर्ष नहीं दिया गया है। इसके बावजूद काम मुद्राओं को बताते हुए नैतिक
आकांक्षाओं को समाहित कर लिया गया है। कामसूत्र की बुनियादी चिन्ता है समाज
को एक व्यवस्था में बांधना , नियमित करना। स्त्री-पुरूष संबंधों को सामाजिकता के पैमाने से व्याख्यायित करना। स्त्री और पुरूष की दो भिन्न लिंग,देशज अवस्था,अभिरूचियों और मूल्यबोध की भिन्नता को स्वीकार किया गया है। भिन्नता और सहिष्णुता इसका बुनियादी आधार है। (लेखक - जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधासिंह )
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