Anonymous - Sep 9, 2008
सुदामा पाण्डेय "धूमिल" की "एकांत-कथा
मेरे पास उत्तेजित होने के लिये कुछ भी नहीं है-
न कोकशास्त्र की किताबें,
न युद्ध की बात,
न गद्देदार बिस्तर,
न टाँगें, न रात
चाँदनी,
कुछ भी नहीं.
बलात्कार के बाद की आत्मीयता
मुझे शोक में भर गई है,
मेरी शालीनता-मेरी ज़रूरत है,
जो मुझे अक्सर नंगा कर गयी है.
जब कभी,
जहाँ कहीं जाता हूँ,
अचूक उदंडता के साथ देहों को,
छायाओं की ओर सरकते पाता हूँ,
भट्ठियाँ सब जगह हैं,
सभी लोग सेंकते हैं शील,
उम्र की रपटती ढलानों पर,
ठोकते हैं जगह जगह कील,
कि अनुभव ठहर सकें.
अक्सर लोग आपस में बुनते हैं,
गहरा तनाव;
वह शायद इसलिये कि थोड़ी देर ही सही,
मृत्यु से उबर सकें.
मेरी दृष्टि जब भी कभी
ज़िन्दगी के काले कोनों में पड़ी है
मैंने वहाँ देखी है-
एक अन्धी ढलान,
बैलगाड़ियों को पीठ पर लादकर खड़ी है,
( जिनमें व्यक्तित्व के सूखे कंकाल हैं)
वैसे यह सच है-
जब
सड़कों पर होता हूँ,
बहसों में होता हूँ,
रह रह कर चहकता हूँ,
लेकिन हर बार वापस घर लौटकर
कमरे के अपने एकांत में
जूते से निकाले गये पाँव सा
महकता हूँ...
-"धूमिल"
न कोकशास्त्र की किताबें,
न युद्ध की बात,
न गद्देदार बिस्तर,
न टाँगें, न रात
चाँदनी,
कुछ भी नहीं.
बलात्कार के बाद की आत्मीयता
मुझे शोक में भर गई है,
मेरी शालीनता-मेरी ज़रूरत है,
जो मुझे अक्सर नंगा कर गयी है.
जब कभी,
जहाँ कहीं जाता हूँ,
अचूक उदंडता के साथ देहों को,
छायाओं की ओर सरकते पाता हूँ,
भट्ठियाँ सब जगह हैं,
सभी लोग सेंकते हैं शील,
उम्र की रपटती ढलानों पर,
ठोकते हैं जगह जगह कील,
कि अनुभव ठहर सकें.
अक्सर लोग आपस में बुनते हैं,
गहरा तनाव;
वह शायद इसलिये कि थोड़ी देर ही सही,
मृत्यु से उबर सकें.
मेरी दृष्टि जब भी कभी
ज़िन्दगी के काले कोनों में पड़ी है
मैंने वहाँ देखी है-
एक अन्धी ढलान,
बैलगाड़ियों को पीठ पर लादकर खड़ी है,
( जिनमें व्यक्तित्व के सूखे कंकाल हैं)
वैसे यह सच है-
जब
सड़कों पर होता हूँ,
बहसों में होता हूँ,
रह रह कर चहकता हूँ,
लेकिन हर बार वापस घर लौटकर
कमरे के अपने एकांत में
जूते से निकाले गये पाँव सा
महकता हूँ...
-"धूमिल"
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